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Full text of "Brahma Vaivarta Puran By Krishna Dwaipayana Vyas Gopal Printing Works, Calcutta"

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॥ श्री गणेशाय नमः ॥ 
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गुरुमण्डलग्रन्थमालायाश्चतुद पुष्पम्‌ . 


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श्रीमन्महर्षि कृष्णद्पा यन विसचितस्‌-०४७०७०७७००४४७०३०६४०८००००३ 


श्रीनाथादि शुरुत्रयं गणपति पीठत्रयस्भेरचम्‌ , 
सिद्धौघं घटकत्रयस्पद्युगं दूतीक्रमं मण्डलम्‌ । 
बीरानद्वथष्ट चतुष्फषष्टि नवकं घीराघलीपञ्चकम्‌ , 
श्रीमन्माछिनिमन्त्रराजसह्दितं घन्दै युरोमंण्डलम्‌ ॥ 


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५, छाइव रो, 
कलकत्ता 
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चैक्रमाब्दः प्रथमं संस्करणम्‌ खू स्ताब्दः 
२०११ ५००० १६ ष्ठ 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 9. 


६” 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


Gerd Series No. XIV. 
- THE . 


Brahma Vaivarta Puranam 


(Brahm-prakritiGaneshkhandatmkam). 


शच 


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By 
MAHARSHI KRISHNADWAIPAYAN VYAS. 


5, Clive Row, 
Calcutta. 


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तर्क Era: First Edition. Christian Era. 


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८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


Printed by : 
र Gopal Printing Works 
198/1, Cornwallis St. 
Calcutta - 6. 


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भगवद्रामानुजपीठाधिपति 
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वेष्णवज्ार्य काचार्यस्वामिपाद 
राजमन्दिर, बनारस | 


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CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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॥ श्री गणेशाय नमः ॥ 


| ॥ श्री पुराणपुरुषोत्तमाय नमः ॥ 


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समपणस्‌ 
१ 
श्रीमतां चिविधक्ञानविज्ञानपिचक्षणप्रभविष्णनां अशोषशास्त्रपारायणैक 
- 'दिव्यंचक्रुषां तपसा त्यागेन व्रहाघचेसा शमेन दमेन दयया च प्रकाशित 
: ।दिव्यशुणौघानां अजस्रं कर्मभक्तिज्ञानत्रिचेणीधाराप्रचाहाय कृतमसीरथपरि- 
/ | श्रसाणां समस्तभारते स्वचिद्वत्ताप्रकारेन चमत्ङृतानेकविद्वत्परिषत्प्रकर्षोत्क्षंचतां ० 
। | शान्तिस्वरूपाणां अधिभूमण्डल भागवतधर्मप्रसाराय विजयवैजयन्तीससुत्तोलन- 
| पराणां नाना विलक्षणयुक्तिवादेरपास्तनिविदोषप्रतिपक्षजन्मनां विद्ठत्कुलभूषणानां 
खनातनधर्मधुरन्धराणां वैष्णवाग्रगंध्यानां उत्तरप्रतिवादिभियङ्कराणां घाराणसीस्थ 
जगदुशुरुभगवद्रामानुजाचार्यपीठाधिपतीनां श्रीमतां १००८ पूज्यप्रचर भगचत्पाद 
श्रीदेवनायकाचायस्वामिमहाभागानां करकमलेषु श्रीगुरुमण्डलग्रन्थमालाचतुदेश- 
| पुष्पोपहारीभूतं श्रीब्रह्मवेषत्तेपुराणमिदं साद्रं सचिनयञ्च समप्येते-- 


| 

| 3 श्रीमतां चरणसेचकः . 
| वि श्रद्ाभक्तिविनन्रः-- 
| विक्रम सं० २०१२। राधाकृष्ण मोर ' 


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॥ श्रीगणेशायनमः ॥ 


ग्रारम्मे हसितं ञ्चुजश्रमङृतेरान्दोलनै विस्मितम्‌ । ` 

मुं बाहुलतोपीपड्नभिया ग्रोछासने भूभृतः ॥ . 

दत्ताः कृष्णकराब्जशायिनि नगे श्रेयांसि पुष्णन्तु वो (नो) । ` 

~ गोपीभिर्भुजवल्लिकङ्कण कणत्कारोचरास्तालिकाः। ˆ ` 


८0 गछ 


आमुख र 


| श्रीप्रभुकरपा से पूज्य पिताजी की यह दृढ़ निष्ठा रद्दी है कि अपने पुरुषार्थ से 
। उन्होंने किसी न किसी श्रेष्ठ कम के आयोजन में कहीं रहते हुए भीजुटकर उसकी 
| पूर्ण सफछतातक लगे रहने का दव संदा प्रयत्न किया है। मनुष्य की स्वाभाविक 
अभिलाषा है कि जीऊँ, जागूँ, जानू, अधिकार समर्थ बनूँ, आनन्द पाउँ, और 
स्वतन्त्र रहूं । इसकी विशेष व्याख्या तो विह्वज्जन ही करेंगे परन्तु मनुष्य की 
|ढोकेषणा, घनेषणा और पुत्रेषणा में उस इच्छा का कुळ-कुळ चित्रण अवश्य मिळता 
दै । जीवन को प्रशस्त करने में पुरुषाथी महानुभाव इसमें कृतकाये होते हे. एवं पुरुषार्थ- 
हीन असफल । आपके दो मुख्य सिद्धान्त हैं; संसार में मनुष्य परमपिता का ज्येष्ठ 
पुत्र है अपने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ज्ञानमय चाभी उसे सौंप कर प्रभु निरपेक्ष होकर 
उसके क्रियाकळाप को देखते हैं । प्राणीमांत्र की रक्षा का पूर्ण दायित्व . उसंपर 
| कर निर्भर हो जाते हैं और उसके श्रेष्ठ कायो से प्रसन्न हो सदेव उन्नति के मार्ग 
(को प्रशस्त करते हें । इसके साथ-साथ मनुष्य अपनी ओर. से अहिंसा; सत्य 
| - प्रेम का पाठ जगत्‌ के प्राणीमात्र को अपने सद्‌ आचरण से पढ़ाकर 


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११५५०४] | 

सभी को “जीवो और जीने दो” की कला सिखाता है । सृष्टि में कोई भी 
न रहने पावे इसके लिये अदम्य उत्साह से यथाशक्ति प्रयत्न करता है । उसकी यहु 
चेष्टा प्राचीनकाळ से आरम्भ होकर आजतक नीचे लिखे डिण्डिसघोष करने योग 
मन्त्र का जप करते हुए भारतीय जनपद में हिंसा को नष्ट कर अहिंसा प्रचार 
के रूप में रहती आई है । | 
इैशावास्यमिद्‌& सर्वे यत्किच्च जगत्यां जगत्‌ । °| 
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥ | 
[ शुद्ध यजुर्वेद ४० अ० १ मन्त्र ] । 


ईश्वर का कथन है कि सृष्टि के सारे प्राणी मेरी ही आत्मा हैं; ज्ञान दे 
वारा प्रगीमात्र की पूर्णरूपेण रक्षा का ध्यान रखते हुए अपना भोग, जो किर 


प्रकृति द्वारा निर्दिष्ट. किया हुआ है, भोगो। किसी सी प्राणी की शक्ति कोर 
(दूध को ) हरण करने की भावना मनमै भी न आने दो। यह क्रम मनु! 
याज्ञवल्क्य, पाराशर, गोतम, अत्रि, वशिष्ठ, पुछह और पुलस्त्य आदि महा] 
विभूतियों से खीकृत होता हुआ संसार के सभो मतमतान्तरों और सम्प्रदायों कोः 
लेकर सृष्टि के उत्थानकाळतक बराबर चलता रहा जो आज भी .विश्‍वसाहित्यप 
में सन्तवाणी के रूप में भारतीयों के विश्‍वश्रातृत्व का उत्कृष्ट उदाहरण ओर 
अहिंसक भावना का अपूर्व आदर्श है। विशेषता यही है कि यह सब 
अमर साधक अरविन्द, महर्षि रमण, विश्ववन्द्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, 

रवीन्द्र ओर सुप्रसिद्ध अमर सेनानी सुभाष बाबू के ही भारत सें विशेषरूप सेप 
प्रचलित हुआ । भगवान्‌ बुद्ध, महावीर तीर्थङ्कर और सम्राट अशोक के जब्र 
आद्रा सिद्धान्तो को आज भी भारत सरकार ने “अहिंसा परमो ६ शके ड 
में अशोक चक्र के राज्यचिह्न के रूप में प्रधानखान देकर अपना न्ति 
को प्रशस्त किया है यह एक अभूतपूर्व घटना है । ऐसे सभी वरेण्य मानव और 
प्राणीमात्र के उद्धारक नरपुङ्गवों को हम अपनी श्रद्धाञ्जलि सादर समर्पित करते ॥ 


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| [ ३ ] 
तै जिनके निःखा्थ विश्वप्रेम ने मानकको दानव एवं पशु होने से सदा बचाया साथ ही 
यह आणिरक्षा के सामने अपने जीवन की भी आहुति दे मानव का गौरव बढ़ाया | 
ख ` दूसरे सिद्धान्त का रूप है शाब्षप्रचार--इसमें मानव की उदात्त भावनाओं 
बारका सभी दिशाओं में विकास होने से जीवनस्तर ऊँचा होगा और सभी प्रकार 
| की आधिव्याधियां सृष्टि से विदा हो जायगी। उन्हें यह इष्ट है कि जिस 
भारतीय साहित्य ने गङ्गा, यमुना, सिन्धु, सरस्वती और पश्चास्बु तथा कृष्णा ओर 
'कावेरो आदि की रज में उद्भूत होकर विश्व का मार्ग दर्शन किया उसका प्रसार 
“आज के विज्ञानयुग में अधिकाधिक प्रकाशन द्वारा कियाजाय | इसी उद्देश्य से 
[ देआपमे अपने गाहस्थ्यजीवन को कठिन अनुभवों की कसौटी पर कसते हुए 
बिंगम्भीर मनन और अध्ययन द्वारा शाखचर्चा के व्याज से विद्वस्समुंदाय की 
को सहायता से विशुद्ध पवित्र विचारों का सङ्कलन ग्रन्थ 'गृहस्थधम' षष्ठ संस्कराणात्मक 
कु वितरण किया। इसका स्पष्ट प्रभाव हिन्दीभाषी क्षेत्रों में लोकप्रियता और एक 
र्‌ अपूव धार्मिक क्रान्ति, उत्साह की लहर, एवं जनजागृति के रूप में स्पष्ट हुआ जिनका 
कोप्रस्यक्ष प्रमाण आज भी हमारे अन्थप्रकीशन के सम्बन्ध में प्रतिदिन आनेवाळे बीसियों 
प्रशस्तिपत्र हैं जिनमें कितने हजार तो 'सम्मति और उद्‌गार? के आकार में गुरुमण्डळ 
रके आठवें पुष्प के रूप में सङ्कलित कर दो वर्ष पूर्व प्रकाशित भी किये गये हैं। मुझे 
सबआरम्भ से उनके सान्निध्य का लाभ मिला है और इसीलिये उनके अगाध वात्सल्य 
नका पूर्ण अनुभव करने का सुयोग भी । उनकी इच्छानुसार जैसे में उनके 
| सेपदचिहदो पर चलकर आदर्श नागरिक होने का स्वप्न देखता हूं, उसी प्रकार एक 
त्वंसचरित्र पिता में भगवत्सन्निधि समझ पाळन, पोषण शिक्षा और दीक्षा द्वारा 
हीने तुच्छ क्रियाकळाप से उनकी आज्ञा में रहते हुए एक आज्ञाकारी पुत्र होने 
क ए भी मुझे गौरव मिळे इसके लिये प्रयल्नशीर रहताहूं। पूज्य पिताजी अपने 
हत्यवादपूर्ण जीवन में एक ओर तो अजेय हिमाळ्य के समान सिद्धान्तरूप में 
| f डिग हैं तो दूसरी ओर उसीसे निकळनेबाळी कळकळ शब्द से विश्व को : 


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मुखरित करनेवाळी श्वेताभ पवित्र निमछ गङ्गा के,समान अपने में विश्वबन्धुख 
की सावना (सभी प्राणीमात्र के प्रति सहानुभूतिपूर्ण उदार भाव) रखते हुए पुष्प से 
भी कोमल हृदय रखते है । अपने आदर्श वाक्य “कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामति 
नाशनम्‌? के द्वारा उठते-बैठते उन्हें प्राणीमात्र के दुःखको मेटने की याद्‌ बनी. : 
रहती है और उसीके लिये कृतसङ्कल्प हो दिन-रात भगवान्‌ से प्रार्थना करते हैं। : 
विक्रम सम्वत्‌ २०१० के चेत्रमास में जब श्री पिलुःश्री खास्थ्यसुधार ट 
के लिये नवळगढ़ गये हुए थे वहां पर अपने पण्डितद्वय श्री ब्रह्मदत्त त्रिवेदी तथा: 
पं० कजोड़ीळाळ मिश्र के सहयोग से स्थानीय विद्याविवद्धन पुस्तकालय तथा १ 
सारिकजीवनशाळा के पुस्तकालय से प्रायः अठारह पुराणों के पारायण काव 
उपक्रम झिया पुराण पूर्ण संख्या में न मिळले के कारण केवळ बारह पुराणों न 
की ही आवृत्ति हो सकी। जो ढोग आपके स्वाध्याय क्षणों भें साथ रहते 3 
और उन्हें शाख्नचर्चा करने का अवसर देते हैं उन्हें शास्त्रीय परस्परालुमोदित ब 
नवीन-नवीन अनुसन्धानों से आश्रय हुए बिना न रहेगा । में तो अपने पिताजी. 
को ही इस सब का श्रेय दूँ तो अत्युक्ति नहीं; किर भी जिनके निःस्वार्थ कार्या कास 


` सहयोग इन सभी रास्त्रचर्चाओं में हुआ है उन सभी महानुभावों का में हृदय सेम 


धन्यवाद करता हूं । हां, तो पिताजी को जो धुन सवार होती है उसे वे करके 
रहते हैं । मस्स्यपुराण के शाङ्खचूइ आख्यान को बार-बार पढ़ते हुए उन्हें वर्तमान 
शासन की परिस्थिति और कळहप्रिय प्रजा का दयनीय दृश्य व्याकुल करनेस 
ढगे | आपने सृष्टि को अपने पूर्व गौरवगाथा का स्मरण करा पुरुषार्थ द्वारा 

खगतुल्य बनाने के लिये 'मानवजीवन ओर अहिंसा: 'गृहस्थधर्म के सिद्धान्त? और 

“सृष्टि की रक्षिका मातृजाति' शीषेक से कई ठेखमाळायें कलकत्ता के दैनिक 'सन्माग 
“ठोकमान्य' एवं “विश्ववन्धु! पत्रों मै निकाली । फिर तो मूळ से ही सबको मानबतािः 
का अमूल्य सन्देश मिळे इस आशय से पुराणों के प्रकाशन का श्रीगणेश कए 
प्रस्ताव झुरे प्रत्यक्ष आदेशरूप में कलकत्ता लिख भेजा । अभीतक पूर्वपरम्परा t 


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® | अनुसार जहां व्यवसाय, वाणिज्य और उद्योगघन्धों में उनके आज्ञाकारी: 
से विनयाबनत पुत्र के रूप में आदेश पाळन करने का में अधिकारी हूँ वहां घर के 
ति, सभी: कार्यों में उनका आदेश ईश्वराज्ञा रूप में ही हमें इष्ट होता है। यही बात: 
नी पुराणप्रकाशन के प्रस्ताव के समय भी हुई। कलकत्ते में वावूजी के ललल 
| कार्यकर्ता और उनके निरुक्त स्मृति सन्दर्भ के सम्पादन में कार्य 

करनेवाले अपना: 
एर व्यस्:जीवन का उपयोग शास्रं के स्वाध्याय में छगानेवाले श्री रामनाथदाधीच शास्त्री 
था नवळगढ़ निवासी ने निरन्तर परिश्रम कर बाबूजी के खदेशवास के सात मास: 
था की स्वल्प अवधि में दश हजार श्ढोको के अथम पुराण ब्रह्मपुराण को पकाशिद 
का करने का प्रयत्न किया । अपने उत्साह की सीमा का अक्रिमण कर श्रीमान्‌ बाबूजी. ं 
ण ने स्वास्थ्य में सुधार होते ही पुराण-परिचय से अपनी भूमिका तेयारः की) इसमें; 
ते अठारहों पुराणों की संक्षिप्त विषय-सूची बड़ी गवेषणा और प्रामाणिकता के साथः 
व बनाई गई । आपका यह लेख वास्तव में पुराणोक्त परिचय के सम्बन्ध में नई; 
जी सूक दे । यह प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों के पुराण एवं भारतीय समाज के प्रति 
का सम्माननीय सामयिक उद्धरणों से बहुत ही गम्भीर, विद्वत्तापूर्ण एवं मननीय सामग्री : 
से पस्तुत करता है। विषय की प्रगल्मता और दुरूह्ता से लम्बा होने पर भी पाठ्य- | 
केचस्तु का क्रम पठनीय है साथ ही चारों ओर के पुष्ट प्रमाणों द्वारा उसकी प्रतिपादन ु 
न्‌रोळी विशेष प्रोढ़ हो गई है। वास्तव में पुराणों के सम्बन्ध सें सम्पूर्ण आवश्यक । 
नेसामश्री से सुसज्जित पूर्ण परिचय देनेवाळी अपने ढंग की यह एक अभिनव रचना है।- 
रा . सदा की तरह ही इन महान्‌ ग्रन्थों के प्रकाशन के प्रेरक श्रीमान्‌ - 
पिताजी की इस ब्रह्मवेवते महापुराण के विषयों को ध्यान सें रखते हुए 
रक ही मान्यता रही है कि जो पाश्चात्य राष्ट्र शाखचर्चा को तिळाझ्ञछि. 
तारिकर शस्त्र के बळ पर परमाणु एवं उद्रजन जैसे संहाराख्नों के हिंसक प्रयोगों 
बट? पर शान्ति सुरक्षा और न्याय का दम भरते हैं उनकी आँख खोली 
य. तथा उनका अनुकरण करनेवाळी मध्यपूर्व, पूर्व और सुदूरपूर्व दक्षिण-पूर्वी 


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। एशिया के अल्पविकसित आत्मनिर्भरता के पथ को प्रशस्त करनेवाले राष्ट्रों को नव- 
जागरण के प्रभात में ही इस अमूल्य देन से सच्चा मार्ग दर्शन हो; जिसकी आधार, 
शिळा विश्वशान्ति, विश्वबन्धुत्व, कल्याण और अहिंसा के अमर सन्देश देनेवाहे 
इस ब्रह्माण्ड के प्राण इन महापुराणों के पारायण से मन्थन की हुई विचारधारा 
हो और जनताजनार्दून सच्चे अथो में मानवी गुणों को अपनाकर लोकहित में 
~ अपना पराया न समझकर ळग जाय | इसी उद्देश्य से यह ब्ृहत्मकाशन सेवी में 
प्रस्तुत दै । | 
बैसे तो “न हि कस्तूरिकासोदः शपथेन विभाव्यते” इस अभियुक्तोक्ति के! 
अनुसार किसी प्रकार बिद्वत्समुदाय के सामने ब्रह्मवैवर्ते के विषयों के लिये निवेदन 
करना सूर्य को' दीपक दिखाना दै फिर भी प्रसङ्गबशा ब्रह्मचंबतं के विभिन्न खण्डों 
का परिचय देना आवश्यक दै । यह महापुराण सम्पूर्ण ज्ञान का भण्डार ओर 
बैषणवों के हृदय का हार दै । इसके प्रतिपाद्य गोळोकनाथ परब्रह्म आनन्दुकन्दू 
श्रीकृष्णचन्द्र और उनकी आह्वादिनी शक्ति राधिकाजी हैँ जो नित्य ही गोलोक 
में गोगोपीगोपगण के साथ रासक्रीड़ा करते हुए सहृदय भक्तगण को अपूव. 
अलौकिक आनन्द प्रदान करते हें । इसमें चार खण्ड है--प्रथम ब्रह्मखण्ड; 
द्वितीय प्रकृतिखण्ड; तृतीय गणेशखण्ड ओर चतुर्थ श्रीकृष्णजन्मखण्ड है-- | 
सारभूतपुराणेषु त्रह्मवेबतंमुत्तमम्‌॥ ४२ ॥ | 
पुराणोपपुराणानां वेदानां भ्रममज्ञनम्‌ । हरिभक्तिप्रदं सब तत्त्वज्ञानविवद्ध नम्‌॥ 
कामिनां कामदब्चेदं मुमुक्ष णाञ्चमोक्षदम्‌ । भक्तिप्रदं वेष्णवानां कल्पवृक्षस्वरूपकमज 
ब्रह्मखण्डें सवंबीजपरब्नह्मनिरूपणम्‌ । ध्यायन्ते योगिनः सन्तो देष्णवा यत्परात्परम्‌॥अ 


यत्रोद्भवश्च देवानां देवीनां. सवेजीविनाम्‌। रि 
ततः प्रकृतिखण्डे च देबीनां चरितं शुभम्‌ ॥ क 
जीबक्मेविपाकश्च  शालम्रामनिरूपणम्‌ । ड 


तासाश्च कवचस्तोत्रमन्त्रपूजा निरूपणम्‌ः।। र 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


। - [ ७ ] 


र कीत्तेंरुत्कीत्तंग तासां प्रभावश्च निरूपितः। 
ढे सुकृतीनां दुष्कृतीनां यद्‌ यत्स्थानं शुभाझुम्‌ । 
रा वर्णनं नरकाणाश्च रोगाणां मोक्षणन्ततः । 
भें . ततो गणेशखण्डे च तजन्मपरिकी तितम्‌ 
मे ” अतीवांचूबंचरित॑ श्रुतिवेदसुदुर्लभम्‌ ॥५२॥ 
| गणेशश्चगुसम्वादसरवेतत््वनिरूपणम्‌ । 
के निगूढुकवचस्तोत्र मन्त्रतन्त्रनिखूपणम्‌ ॥४३॥ 2 
है श्रीकृष्णजन्मखण्डञ्च की तितश्व ततःपरम्‌ । जिया 
र भारते पुण्यक्षेत्रे च श्रीष्णजन्मकमै च ॥ | 
वु सुबो भारावतरणं क्रीड़ाकौतुकमज्ञलम । 
क सतां सेतुविधानभ्व जन्मखण्डनिरूपितम्‌ || 
ूव सारभूतं पुराणेडु केवळं वेदसम्मितम्‌ । 
हः! विवृत्तं त्रह्मकार्त्स्न्य्व कृष्णेन यत्र शौनक 1॥ 


| ब्रह्मबेचत्तेक॑ तेन प्रवदन्ति पुराविद्‌ः॥ 

। ( उपक्रमाध्याय: ) 

| इस बार ब्रह्मवैवर्तं में विषय-सूची बहुत विस्तार से हिन्दी भाषाभाषी 

[॥जनता के छाभाथ दी गई है । आशा है, पुराण-प्रेमियों को इससे सन्तोष होगा । 

[॥अभी कुछ समय से त्रह्मवेवर्त के तृतीयखण्ड का एक काशीरहस्यभाग बनारस से 
मिलने की आशा दै जो सम्पूर्ण अन्थ को साङ्गोपाङ्ग बनाने और अबतक के 

( ब्रह्मवेवत के संस्करणों में विशिष्टता रखनेवाढा . होगा । भगवत्कपा से 

$सको परिशिष्टरूप से ही सम्मिलित करने का विचार है इसके लिये हम श्रद्धेय 

उ प्रतिवादिभयंकर श्रीदेवनायकाचार्यजी महाराज भगवद्रासानुजपीठा- 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


हि जन 


| ८] | 
घिपति, राजमन्दिर, बनारस के शुभाशीर्वाद से अजुग्रहीत हुए हैं । इस ग्रन्थ का 
सादर समर्पण उन्हीं आचार्यश्री के करकमलों में अर्पित कर में अपना कतेव्यका 
पाठन कर सन्तुष्ट होता हूं । अब इसके प्रकाशन के सम्बन्ध में दो शब्दलिखकर्‌ 
उपसंहार करना चाहता हूं । 


इतने बड़े विस्तार को लेकर संस्कृत के ग्रन्थों का सम्पादन वेसे ही कठिन 
है। प्रूफ संशोधन, भूमिका लेखन, . विषय-सूची और शुद्धिपत्र तैयार कर 
भं हमारे श्री मोरप्राच्य शोधप्रतिष्ठान की विट्ठन्मण्डली का पूण सहयोग रहा है। 
प्रभु उन्हें हमारे इस कार्य की पूर्णता के लिये सतत सस्वळ और क्षमता प्रदा 
करते रहे और उनका सदा ही हमें पूर्ण सहयोग मिलता रहे यही शुभ कामना 
है । पूज्यपाद १००८ श्रीमान्‌ गुरुवर्य आचार्य करुणामय सरस्वती और राजुर 
पण्डित हरिद्त्तजी शास्री देहरादून का कृतज्ञतापूण आभार मानता हूं । उभर 
विद्वदूधुरन्धर हें इनके प्रकाण्ड पाण्डित्य, अद्भुत विवेचन, प्रतिभा» विलक्षण स्मृरि 
अपूवे मेधा ओर विचित्र वाग्वैदग्थ्य पूर्ण समन्वय शक्ति से हमें शङ्कास्थलों प 
विशेष प्रमाणों द्वारा सन्देह निवृत्ति के लिये अवसर और शुभाशीवाी 
मिला है । 


पुनः अपने सभी अनुग्राहक सम्मान्य पाठक महानुभावों से अपनी मूर 
के लिये प्रार्थना करते हुए आप सभी को अमूल्य सत्परामशों के लिये बारस्बा 
साग्रह अधुरोध करता हूं जिनसे हमें भूळसुधार में सहायता मिलती रहे । .अ 
आप सभी गुणग्रहणेक पक्षपाती महानुभावों की सेवा में अपने परिवार | 
अनुपम भट 'पुरा नवं भवति! कहते हुए मुझे आत्मसन्तोष एवं गौरव म 
होरहा है। 


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कभ 


(६) 


मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विशवास है कि आप सभी महानुभाव हमारी अपूर्ण 
ताओं को क्षमा करते हुए प्रतिदिन इस दिव्यवाणी के खाध्याय प्रसार द्वारा इस 
परिश्रम को सफळ बनायेंगे और जो कुछ तुच्छ सेवा हमसे होगी उससे उन 
पुराणवक्ता र महर्षिकल्प आचार्यो के आदर्शवाक्यो से जनता का विशेष हित 
सम्पादन करगे । 


लभ 


“त्वदीयं वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव समर्पये” 


6 


कार्तिक शुक्खा ) विद्रञ्ननचरणसेवके-- 
देवोत्थापिनी एकादशी राधाकृष्ण मोर छो 
विक्रम सम्बत्‌ २०११ 


६, छाइच रो, कलकत्ता | 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


श्रीराधाकृष्णी प्रसीदेशाम्‌ | 
सम्पादकीयं निवेदनस्‌ । 


भ्रीभगवतृक्कपया वेष्णवह्ृदयहारीभूतं श्रीज्रह्मबेवर्तपुराणं सहृदयधुरीणानां 
विद्वज्जनचूड़ामणीनां करकमलेषु प्रस्तूयमाना नितरांहृदयतोषं प्रसन्नताश्चाऽनुभवामः। 
रन्थेऽस्मिन्‌ कियता विस्तारेण ज्ञानकमोपासनरहस्यानां शूढुतमं तत्त्वं सविस्तर 
प्रकटीकृतमिति विद्वांस एवाऽवगच्छत्ति। गमिष्यन्ति च ग्रन्थस्य पारं प्रतिदिन पारा 
` अंणैकशीळाः कृष्णभंक्तिविलसितदेहभाजः सञ्जनाः । श्रीमतां भगवत्पाद रासानुजा; 
चार्यपीठाधिपतिनां वाराणसेयप्रतिवादिभयङ्करेत्या दिवि विधविरुदोपेतानां श्री १००८ 
देबनायकाचार्यस्वामिमहाभानां करकमलेषु समप॑यन्त ्रष्टिप्रबरवे दिकचिचारः 
चर्चापरायणैक शाद्रव्यवस्था प्रकाशननिपुणामां गीर्वाणवाणीसेवा सक्तस्वनामधन्यः 
श्रीमनसुखरायमोरम्रहोद्यानां ज्येष्ठसुपुत्राः श्रीराधाळृष्णमोरमहाशया: नितरां 
.घन्यवादाहाः । स्थाने एव यत्सद्धमेप्रचाराय क्तस्य प्रयल्लस्य पूर्णता 
गो विन्द्गुणाडुवाद्कीतनपरायणानां विद्वदूधुरन्धराणां श्रीव्वामिसदृशाचायचरणाना.; 
कृतेऽपू्वज्ञान विज्ञान निधानयोश्रीराधाङ्गषणयोरभेक्तिम्रसङ्गात्मकस्य पुराणस्यास्य समर्प 
विश्वकल्याणकारणपरमिति निश्चिनुमः । आशास्महेऽ्माकं भ्रमप्रमादालस्या दिः 
दोषवशाद्मन्थेऽस्मिन्‌ ` न्रुटयःस्युस्ताः गुणग्रहणेकपक्षपातिनो विद्वांसो निपुण 


नए क 


संशोध्यकृताथयिष्यत्ती ति । 2 यु 

9 विदुषांविधेयाः य 
श्रीव्रह्मदत्तत्रिवेदि कजोड़ीलाळ मिश्र रामनाथदाधीचाः| 
 गङ्गादशहरादिनम्‌ | श्रीमोरम्ाच्यशोधसंस्थानम्‌ | 
जोष इ हरी | ६ छाइबरो, £ 

“२०११ विक्रमाव्द: | “लाता । f 


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| सप्तविंशोऽध्यायः ]:# पृथुना सर्वचर्गेषु.राज्यासने राजवर्गस्थापनम्‌ ऋ ८१ 
| सर्पाणां तु तथा राज्ये अभिषिच्य ख तक्षकम्‌ ॥ १५ ॥ 

'वारणानां ततोराज्ये ऐरावणमसिञ्चुता 1 अश्वानांचेच स्ेषामुच्चैःश्रचसमेच च॥ 
¬) पक्षिणांचेव सर्वेषां वैनतेयमथापिं स;.। सुंगाणां च ततोराज्ये ब्रह्मा सिंहमथादिशत्‌ 


ना ° ° पतिः ह 7227 1० Do 
है गोड्षं तु गचांमध्ये अभिषिच्य प्रजापतिः। वनस्पतीनां सर्वेषां प्लक्षमेष पितामहः ॥ 
_- एवं राज्यानि सर्वाणि संस्याप्य च पितामहः । 


र _ ` द्शापालांस्ततो ब्रह्मा स्थापयामास सत्तमः ॥ १६ ॥ य: 
| ग चेराजस्य तथापुत्रं पूवेस्या दिशिसत्तमः । सुघन्वाने दिश:पाळ राजानं सोऽभ्यविः 
| इक्षिणस्यां महात्मानं कमस्य प्रजापतेः | पुत्रं शङ्खपदंनाम राजानं सोऽम्यषिञ्चत ॥ 
पश्चिमायां तथा छरा वरुणस्य प्रजापतेः | पुत्रं च पुष्करंनाम सोऽम्यविञ्चः्रजापतिः 
गे उत्तरस्यां दिशि ब्रह्मा नलकूबरमेच च | एवं. चैवाम्यषिज्चच्च 'दिक्पालान्स महोजस: ॥ 
ना रियं पृथिवीसर्चा सप्तद्वीपा सपत्तना | यथा प्रदेशमच्चापि धर्मेण प्रतिपाल्यते ॥२४॥ 
ए... › जृथुश्चैचे-महाभागः' सोऽमिषिक्तो 'नराधिपः। - द ल्क 
ता; ` ` राजसूयादिभिः सर्वैरभिषिक्तो महामखैः ॥ २५॥ FN 
चिना वेददृष्टेन, राजराज्यै 'महीपतिः । चाक्लुषेनास्नि सम्पुण्ये -अतीते च महौजसि 
पन्वन्तरे महाभाग देचपुण्यहितेषिणि ।' ततो वैचस्चतायैच मनवे राज्यमादिशत्‌ ॥ 
दि चिर्तरं चांपिव्याल्यास्ये प॒थोञ्चैव महात्मनः । यदि मामेव विप्रेन्द्रशभूषसिअतन्द्रितः 
३।एततदेचमधिष्ठानं महत्पुण्यं प्रंकीतितम्‌। सर्वेष्वेच पुराणेषु पतद्धि निश्चितं सदा ॥ 
शुण्यंयशस्यमायुच्यं स्वगचासकर शुभम्‌ः। धन्यं पवित्रमायुष्यं पुत्रदं वृद्धिदायकम्‌ 
यः श्टणोति नरोभक्त्या भाषध्यानसमन्वितः । अश्वमेधफलं तस्य जाते नात्रसंशयः 
:| इति श्रीपाद्यपुराणे पञ्चपञ्चाशत्सहस्रसंहिठायां द्वितीये भूमिखण्डे ज्याभि्वेको 
१३: “नाम सप्तविशोऽध्यायः-॥ २७॥ - `. ह 


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१ (७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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.वैन्यस्य हि पृथोश्वेव तस्य चिस्तरमेच च । जन्मचीयं तथाक्षेत्रे पौरुषं द्विजसत्ता 


अशंबिशोध्ध्याय: . . हळ | 
ऋषयऊचः । 9 | 


विस्तरेण समाख्याहि जन्म तस्य- महाल्मनः । पूथोश्वेच महाभाग श्रोतुकामा चयं फु 
राज्ञा तेन यथादुग्धा इयं धात्री महात्याना ! पुनदेवेश्व पिदृभिर्खनिभिस्दखववेदिसिः : 


fs 2.2 x बे tC = CN शाचे > गर > पुण्यकर्मा द्‌ 
-यथा देत्येश्च नागैश्च यथायक्षेयेथा हुमेः । शेलेश्चेचः 'पिशाचेश्च गन्धचःपुण्यकमे 
ब्राह्मणेश्च. तथा सिद्धे राक्षसैभीमचिक्रमैः । पूवमेच . यथादुण्या अन्येम्ध सुमहात्मा : 


तेषामेष हि सर्वेषां विरोषं ` पात्र धारणस्‌। 
कीरस्यापि विधि ब्रूहि चिरोषं च -महामते ॥ ५॥ 


घेनरयापि टपस्येच पाणिरेंव महात्मनः । ऋषिभि थितःपूचं स कस्मादिहकारणा ३ 


क्रुद्धश्वैत्र महापुण्येःसूतपुत्र घद्स्वनः। चिचित्रेयं कथापुण्या सर्वपापप्रणाशिनी ` 
` श्रोतुकामा महाभाग तृप्तिनेंच प्रजायते ॥ ८ ॥.” 
सूत उचाच । 


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प्रवक्ष्यामि यथा सर्च चरितंतस्य धीमतः । शुश्रूषध्वं महाभाया मामेवं द्विजसत्तमाः 


. अभक्ताय न चक्तव्यमश्रद्धाय शठाय च । सुमूर्खाय-सुमोहाय कुशिष्याय तथैव च 


-श्रद्धाहीनाय कूटाय. सर्वेनाशाय मा. द्विजाः । अन्यथा पठते यो हि निरयं च प्रयाति 


भवन्तो - सावसंयुक्ताःसत्यधर्मपरायणाः । ` भचतामग्रतःखर्चं चरित्रं पापनाशनम्‌ 

सम्प्रवक्ष्याम्यशेषेण २2 गुध्वं द्विजसत्तमाः 1. स्वग्ययशस्यमा युष्यंघन्यवेदैश्वसम्मि ३ 

रहस्यम्षिभिःप्रोकत प्रवक्ष्या मिद्दिजोत्तमा: । यश्चेनं कीर्तयेन्नित्यं पृथोर्वेन्यस्यविस्तर 

त्रा्मणेभ्ये' नमस्कृत्य न स शोचेत्कृताकृतम्‌ । सप्तजन्मार्जितं पापं श्वतमात्रेण नश्य| 
ब्राह्मणोवेद्विद्वांश्च क्षत्रियो विजयी भवे 


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अष्टार्विशोऽध्यायः ] क वेनस्यौद्धत्यवर्णनम्‌; | 1. ८३ 


| . _ :” वेश्यो घनसमृद्ध स्याच्छूद्रः सुखमवाप्चुयात्‌ ॥ १७॥ 
एूबंफळं समाप्नोति पठनाच्छूवणाद्‌पि। पृथोजेन्मचरित्रै च पवित्रपापनाशनम ॥१८॥ 
श्रमंगोप्ता ' महाप्राज्ञो वेदशास्त्रार्थकोबिंदः !. अत्रिचंश समुत्पन्न पूर्वेमत्रिसमःप्रभुः ॥ 
रषा सर्वेस्य धर्मस्य अङ्गोनाम प्रजापतिः । य आसीत्तस्य पुोवेवेनोनाम प्रजापति 
._धर्ममेव॑ परित्यज्य सर्वदेच प्रवत्तते । म्रृत्यो:कन्या महाभागा सुनीथा नाम नामतः ॥ 
पुः तांतु अङ्गो महाभागःसुनीथामुपये मिचान्‌ । तस्यामुत्पादयामास वेनं धमेपणाशनम्‌ ॥ 
भि! सातामहस्य दोषेण व्रेनःकालात्म जात्मजः । निज्ञधर्मपरित्यज्य अधमेनिरतोऽभचत्‌ ॥ 
मी) कामाछोभान्महामोहात्पापमेव समाचरत्‌ वेदाचारमयं धर्मं परित्यज्य नराधिपः 
मी अन्ववतत पाएन मद्मत्सरमो हितः । घेदाध्यायं विना लोके प्रावर्तन्त तदा जनाः ॥ 
निःस्वाधायवषर्क्ाराःप्रजास्त स्मिन्प्रजापतौ | : 
प्रवृत्तं न पपुःलोमं हुत॑ यज्ञ घुदेचताः ॥ २६ ॥ 
इत्युवाच सदुष्टात्मा ब्राह्मणान्प्रतिनित्यश: । नाध्येतव्यं. न होतव्यं न देयं दानमेव च 
नी च यष्टव्यंन होतव्यमिति तस्यप्रज्ञापतेः । आसीन्प्रतिज्ञाक्र्रेयं चिनारो प्रत्युपस्थिते 
अहमिज्यश्च यष्टा च यज्ञश्चेति पुनःपुनः । मयियज्ञा विधातव्या मयिहोतब्य मित्यपि 
।इत्यत्रवीत्सदाचेनोह्यहं विष्णुःसनातनः । अवंब्रह्मा अहंरूद्रो मित्रइन्द्रः सदागति । | 
अहमेव प्रभोक्ता च हव्यं कव्यं न संशय: । अथ ते मुनय:ःक्रुद्धा वेनंभ्रतिमहावला: 
गः ऊचुस्ते सङ्गताः सर्वे राजानं पापचेतनम्‌ ॥ ३१ .॥ 
| ऋषयः ऊचु । 
ति राजाहि एथिवीनाथःप्रजां पाल्यते संदां.। धर्मेमूतिःसराजेन्द्रतस्माद्धम हि रक्षयेत्‌ ॥ 
चयं दीक्षां प्रवेक्ष्यामो यशेद्वादशवाषिकीम्‌ । अधम कुरु मायागे नषधमःख्रतांगतिः ॥ 
'कुरुधम महाराज सत्यं पुण्यं समाचर । राजाहं पालयिष्यामि.इति ते समयः कृत: ॥ 
स्तथा तरू वतःसर्वान्मदर्षीनत्रवीत्तदा । वेनःप्रहस्य दुबु द्वरिमिमर्थमनर्थकम्‌॥३५॥ 
वेन उवाच। ; . ;, . . न 
जुष्टा घमस्य कश्चान्यःश्वोतव्यं कस्य वामया । श्रृतत्रीयतप:सत्योमयावाकःसमोभुचि 


। (७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| ३ 4 के 2 पंद्पुंराणेम्‌ # वक री TF २ भूमिंखणे ये 


प्रमवं सर्वभूतानां धर्मोणों चं विशेषतः । सम्मूढा न विदुनूनं-मवन्तो 'मांचिचेतसः | 
इच्छन्द्हेयं पर्थिवी प्लावयेयं जलैस्तथा । यां सुचं चैवरुन्धेयं नात्रकार्या विचारणा | 
यंदा न शक्यते मोहादबलेपाच्च पार्थिवः । अपनेतुं तदा वेनं ततःक्रुद्धा महर्षयः ॥इश 
विस्फुरन्तं तदावेनं वलादुग्रह्मततो रुषा | देनस्य तस्य सब्योसं ममन्युर्जात मन्यवः | 


_ कृष्णाञ्जनचयोपेतमतिहस्वं विलक्षणम्‌ । दीर्थास्यं च विरूपाक्ष नीलकञ्चकचचेसम्‌॥ 


| 


लम्बोदरं व्यूढ़कणंमतिमीतं दुरोदरम्‌ | दहुशुस्ते महात्मानो निषीद्देत्यत्र्‌ चंस्ततः | 

तेपांतद्वचनं श्रत्वा निषसादभयातुरः ।० पर्वेतेछु चनेष्देच ` तस्यचंशःप्रतिष्ठितः ॥ ४३। 
निषादाश्च किराताइच भिछानाइळकास्तथा । | 
श्रमराञ्च पुलिन्दाश्च ये चान्ये म्लेच्छजातयः ॥ ४७॥ - ` F 


- षापाचारास्तुते सर्वे तस्मादङ्गातप्रजज्ञिरे। अथ ` ते ऋषयःसं प्रसन्नमनसस्ततः | ! 
` गतकल्मषमेचं तं जातं वेनं दृपोत्तमम्‌। .ममन्थदेक्षिणं पाणि तस्येव च महात्मनः। 


मथितेतस्यपाणौ तु सञ्जातं स्वेदमेचहि । पुनमंमग्थस्ते' विप्रादक्षिणं पाणिमेव च। ९ 
करात्पुरुषोजज्ञे द्वादशादित्य सन्निभः"! तप्तकाञ्चनत्रर्णाङगोदिव्यमाल्याम्बरावृह २ 
दिव्यामरणशोभाङ्गो दिव्यगन्धानुलेपनः । मुकुटेनाकंवर्णन- कुण्डलाभ्यां चिराजते। 
महाकायो महावाहू रूपेणाप्रतिमो सुचि । खड्ग बाणधरो धन्वी कवची च महाप्रभु 
सवेलक्षणसम्पन्न:सर्वालङ्कारभूषणः । तेजसा रूपभावेन सुचर्णैश्च मद्दामतिः ॥ ५१। ` 
दिषिइन्द्रो यथाभाति भुविः वेनात्मजस्तथा । तस्मिञ्जातेमहाभागे देवाश्चक्रषयो ऽमलाः ` 
उत्सवं चक्रिरे सर्वे वेनस्य तनयं प्रति। दीप्यमानःस्वचपुषा साक्षादिरिघोज्ज्वळ र 
आमाजगवंनाम धनुग हा महाचरम्‌.। शारान्तिव्यांश्च रक्षार्थे कवचं च महाप्रभम्‌। ` 
जातेसति मद्दाभागे एथौ वीरे महात्मनि । सम्प्रहृष्टानि भूतानि समस्तानि द्विजोत्ता २ 
स््वेतीर्था नितोयानि पुण्यानि विविधानि च। तस्याभिषेक विप्रेनद्राःसेएचप्रतस्थि, 
पितामहाद्या देवास्तु भूतानि विविधानि च | | 
स्थावराणि चराण्येच अभ्यषिञ्चन्नराधिपम्‌॥ ५७॥ | 
महाचीर प्रजापाल पृथमेच द्विजोत्तम । परथर्वैन्यो राजराज्ये अभिगम्य चराचरै Id 


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प्डे अष्टाविशो5ध्याय: ] # पृथुचरित्रवणनम्‌. # ७ 

: ॥ देवैचिप्रैस्तथा सर्वेरभिषिक्तो.महमिना: । राज्ञां समधिराज्ये यै पृथर्वेन्यःप्रतापचान्‌॥ 

॥ तस्य पित्राप्रजाःसर्चाःकदानैचानुरञ्जिताः। तेनानुरञ्जिताः सर्वा -मुसुदिरि सुखेन चे ॥ 

रैश तस्याचुरागाद्वीरस्य नामराजेत्यजायत । प्रयातस्य सुचीरस्य समुद्रस्य . द्विजोत्तम ॥ 

: | आपस्तस्तम्मिरे सर्वा भयात्तस्य महात्मनः । दुर्ग मार्ग घिलोप्यैच सुमार्ग पर्वेताददुः 

म्‌॥ आज्ञा भङ्ग न चक्रुस्तै गिर्यःसवेएव ते | अकृष्टपच्या पृथिवी' सर्वत्र कामधेनचः ॥ 

र: | पजन्यःकामचर्षी च वेद्यज्ञान्महोत्सवान्‌ । 

३। कुवन्ति व्राह्मणाःसर्व क्षत्रियाश्व तथ्चापरे ॥ ६४॥ 
खर्वेकामफलावृक्षास्तस्मिञ्छासतिपाथिवे । नदुसिक्ष'न च व्याधिर्नाकालमरुणंन णतम्‌ 
सच सुखेन जीवन्ति लोका धर्मपरायणाः । तस्मिञ्छासति दुर्धर्षे राजराजे महात्मनि 

:| एतस्मिन्नेव कालेतु यज्ञे पैतामहे. शुभे । सूतः सूत्यांससुत्पन्नःसौस्येऽहनि महामतिः ॥ 

: | तस्मिन्नेव महायज्ञे जज्ञे प्राज्ञोऽथ मागधः 4 पृथोःस्तवार्थ तौ तत्र समाइतोमहषिभिः 

व| सूतस्य लक्षणं चक्ष्ये महापुण्यं द्विजोत्तमाः । शिखा . सूत्रेणसंयुक्तो वेदाध्ययनतत्पर 

वृठ खबंशास्त्राथवेत्ताऽसावक्निहोत्रसुपासिता । दानाध्ययनसम्पन्नो .त्रह्माचारपरायणः ॥ 


ते। देवानां घ्राह्मणानां च पूजनामिरतःसदा । 
रु याचकःस्तावक:पुण्येवेद्मन्त्रैयजेत्किल ॥ ७१ ॥ 


१। खदाचारपरोनित्यं सम्बन्धो ब्राह्मणेःसह | एवं स मागधोजज्ञे वेदाध्ययनचर्जितः ॥ 
स; बन्दिनश्वारणा:सर्वे ब्रह्माचार विचिताः । ज्ञेयास्ते च महाभागाःस्तावकाःप्रभवन्तिते 
ह स्तवनाथसुभौरुष्टौ निपुणो सूतमागधौ । वावूचुक्र षयःसर्वेस्तूयतामेष पार्थिवः ॥ 
[। कमेतदचुरूपं च यादृशोऽयं नराधिपः । तावूचतुस्तदा . सर्वा स्तानृषीन्बन्दिमागधौ ॥ 
तां आवां देवा टृपीश्चेव प्रीणयावःस्थकप्रेमि । न चास्यविद्वो चे कमे न तथह लक्षणंयश 
श कमणा येन कुर्याचः स्तोत्रमस्य महात्मनः । 
॥ जानीवस्तन्न विप्रेन्द्रा अविज्ञातगुणल्य हि ॥ ७७ ॥ 
।भषिष्यस्तैरणुणौ:पुण्यैःस्तोतव्योथ्यं नरोत्तमः । कृतवान्या निकर्मा णि पूथुरेब महायशाः 


4ऊलुस्तेसुनयःसर्वेशुणा न्बिव्यान्महात्मनः। सत्यचाञज्ञानसम्पन्नो बु द्विमाल्ख्यातविक्रमः 


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टक. ॐ पद्मपुराणप #- [२ भूमिखणे 
. सदाशूरोगुणग्राही पुण्यचांस्त्यागवान्गुणी | घार्मिकःसत्यवादीच यज्ञानांयाजकोत्तभ 
प्रियवाक्सत्यवादीच धाँन्यचान्धनवान्गुणी । गुणज्ञःसगुणग्राही धमज्ञःसत्यचत्सह/ 
सर्वंगःस्चेत्ता च ब्रेह्मण्यो वेदवित्खुधीः । प्रज्ञावान्खुस्वरश्चैच वेदवेदाङ्गपारगः ॥८२ 
धातागोप्ता प्रजानां सबिजयी समराङ्गणे । राजसूयादिकानां तु यज्ञानां राजसत्तमः 
'_ आहर्ता भूतळेचैकःसर्वंधर्मलमन्बितः। एतेशुणा अस्यचाग्रे भविष्यन्ति महात्मुनः| 
ऋषिभिस्तौ नियुक्तौ तु कुर्चाणौ सूतमागधौ । 
गुणेश्वेव भविष्यश्च स्तोत्रं सस्य महात्मनः ॥ ८५ ॥ 
तदाप्रभृति वै लोकाः स्तवैस्तुष्टा महामते | पुरतश्च भविष्यन्ति दातारःस्तावनेगण 
ततःप्रमृ तिळोके५स्मिन्स्तवेषु द्विजसत्तमाः । आशीर्वादाःप्रयुञ्यन्ते तेषां द्रविणमुत्तमा 
सूताय मागधायेच चन्दिने च महोद्यम्‌। 
चारणाय ततःप्रादात्कलिङ्गं देशसुत्तमम्‌ ॥ ८८ ॥ 
पृथुःप्रसादाद्धर्मात्मा हेहयं देशमेव च । रेवातीरे पुरं इत्वा स्वनाञ्ा गृपनन्द्नः ॥८६ 
ब्राह्मणेभ्यो द्विजश्रेष्ठ यजन्दाता पृथ॒ुःपुरा । सर्वज्ञ सर्वेदातारं धप्रेचीयं नरोत्तमम्‌। 
तं ददृशुःप्रजाःसर्वा मुनयश्च तपोऽमलाः । | 
ऊल्चुःपररुपरं पुण्या एष राजा महामतिः ॥ ६१॥ 
देवादीनांच्चत्तिदाता अस्माकं च विशेषतः । प्रजानां पाळकश्चैच वृत्तिदो हि भविष्या 
इयंधात्रीमहाप्राज्ञा उप्त वीजंपुराकिळ । जीचनाथंप्रजाभिस्तु ग्रासयित्वा स्थिराऽभध 
| ततःपृथं द्विजश्रेष्ठ प्रजासमभिडुद्ठवः । | 
विधत्स्वेति सुवृत्ति नो मुनीतां वचनं तदा ॥ ६४॥ |. 
आ्रासयित्वाठदान्नानि-पृथ्वीजातासुनिश्चला । भयंप्रजानां सुमहत्सद्वष्टवाराजसत्ता 
महिचचनात्सो5पि प्रग्रह्म सशरंधनुः । अभ्यधाबतवेगेन पृथ्वीं क्रुद्धो नराधिपः | 
कौञ्जरं रूपमास्थाय भयात्तस्य तु मेदिनी । 
धनेषु दुर्गदेशेषु गुप्ता भूत्वा चचार सा ॥ ६७॥ 
न पश्यति महाप्राज्ञःकुरूपं द्विजसत्तमाः | आचचश्चुमहाप्राज्ञं कुञ्जरंरूपमा स्थिता ॥६ | 


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गणे अष्टाविशो5४पाय: ] ॐ पृथुचरित्रचणेनम्‌ # रत Es | 


त ततःकुञ्ञररूपाँ तामभिढुद्राव पार्थिवः । ताड्यमाना च सा तेन निशितेमार्गणैस्तत: ॥ -- 

उह दरिरूपं समास्थाय पलायनपराऽभवत्‌ । ,हरेरूपं समास्थाय. अभिदुद्रांव. पार्थिव: ॥ 

८ सो5तिक्रृद्धो' महाप्राज्ञो रोषारणसुलोचन:।  . 

मः खुवाणैनिशितेस्तीक्ष्णराजघान स मेदिनीम्‌ ॥ १०१॥ 

:| आकुलव्याकुलाजाता बाणाघातहता तदा । माहिषरूपमास्थाय पलायनपराऽभवत्‌ ॥ 
अभ्येघाचतवेगेन बाणपा णिधनुर्घरः । सा गौर्भूत्वा द्विजश्रेष्ठाःस्वर्गमेच गताधुवम्‌ ॥ ` 
| ऋह्म गःशर णंप्राप्ता विष्णोश्वेव महात्मनः । रुद्रादीनां च देवानां दाणस्थानँ न विन्दात 

णे अरभन्ती भृशंत्राणं वेन्यमेचान्व विन्दत । तस्यपाश्व पुनःप्राप्ता चाणघातसमाकुलयू ॥ 


पर वद्धाञ्जछिपुटा भूत्वा तं पथं चाक्यमत्रचीत्‌। 
| आहि त्राहीति राजेन्द्र सा राजानमभाषत ॥ १०६ ॥ : .° 
इंघाची महाभाग सर्वाधारा वसुन्धरा । निहतायां मयिप निहतं लोकसप्तकम.1 
। कताञलिपुटाभूत्वा पूज्या लोके स्त्रिभिःसदा ॥ 


| उचाच चनं राजानमचध्यास्त्री सदा नप ॥ १०८॥ 
स्त्रीणांवत्रे महत्पातं दृष्टमस्ति द्विजोत्तमैः । गवांवधे- महत्पापं दृष्टमस्ति द्विजोत्तमैः ॥ 
| मयाचिना महाराज कथंधारयसे प्रजा: । अहं यदा स्थिरा राज॑स्तदालोकाश्चराचराः ॥ 
स्थिरत्वं यान्ति ते सर्वे स्थिरीभूता यदाह्यहम्‌ । 
मां विना तु इमे लोका विनश्येयुश्चराचरः ॥ १११.॥ 
ततः प्रज्ञा चिनश्येयुमेमनाशे समागते। कथं धारयिता चासि प्रजा राजन्मया विना ॥ 
मयिलोकाःस्थिरा राजन्मयेदं धायते जगत्‌ । मद्विनाशे विनश्येयुःप्रजाःसर्चा न संशयः 
न मामहेसि वै हन्तुं श्रेयश्चेत्त्वं चिकीषेसिः। प्रजानां पृथिचीपाल शएणुदेव चचोमम ॥ 
उपायश्च महाभाग सुसिद्धियान्त्युपक्रमाः । समालोक्य ह्यपायंत्वं प्रजा येनध रिष्यसि 
| मां हत्वा त्वं महाराज धारणेपाळने सदा । पोषणे च महाप्राज्ञ मद्विनाहि कथंन्प ॥ 
१ घरिष्यसि प्रजां चेमां कोपं यच्छत्वमात्मनः। - ° 
| . अन्नमयां भविष्यामि धरिष्यामि प्रजामिमाम्‌ ॥ ११७ ॥ .. . 


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| ९८ ... . ` = ऋ.पपुराणुमू + [२ भूमिस 
५ ... अहंनारी अध्या च प्रायश्चित्तीमविष्यसि । अवध्यरांतुख्क्रियं्राहुस्तियेग | 
' विचार्यैवं महाराज न धमंत्यक्तुमहेसि । .एवंनाना विधैर्वाक्येरुको घात्र्यानरा धिपः | 
-कोपमेनं महाराज त्यज दारुणमे वहि । सन्ने त्वयि राजेन्द्र तदा स्वस्था भवाम्यह्न | 
एवमुक्तस्तयाराजापृथर्वेन्यःप्रजापतिः । तामुवाच महाभागां. धरित्री -ह्विजसत्तमाः। 
इति श्रीपाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे पथूपाख्यानेऽष्टा्चिंशोऽध्यायः ॥२८॥ 


7 उनत्रिशो ऽध्यायः ` 
i - पृथ्वीम्प्रति प्रथोरुक्तिः 
पृथरुचाच । मा 

हतेचव महापापेएकस्मिन्यापचा रिणि । लोकाःसुखेन जीवन्ति साधवःपुण्यदशिनः। २ 
तस्मादेकःप्रहतव्यःपा पिष्ठःपापचेतनः । तस्मात्त्वां हि ह निष्या मिसर्वसत्त्वप्रणाशिनी! 3 
त्वया वीजानि सर्वाणि छ्त्तान्येतानि साम्प्रतम्‌। : . ष 


ग्रासं कृत्वा स्थिरीभूत्वा प्रजा हत्वा क यास्यसि ॥३॥ |. | 


हते पापे दुराचारे सुखं जीवन्ति साधवः । तस्मात्पापा प्रहन्तव्या सत्यमेव न संशय 
पाछितब्यः प्रयत्नेन यस्माद्ध मेः्रचद्धंते। भवत्या तु. महत्पापं प्रजासंक्षयकारकम्‌। 
एकस्याथ न यो हन्यादात्मनो वापरस्यवा । लोकोपतापकहत्वा न भवेत्तस्यपातकाए 
यस्मिस्तु निहते पाप एकस्मिन्स्ये परै तथा । बहचस्सुखमेघन्ते हन्याङ्दुष्टं न पातकः 
| प्रजानिमित्तं त्वामेव हनिष्यामि न संशयः । यदिमे पुण्यसंयुक्तं चचन न करिष्यसि 
। जगतोऽस्य हितार्थायसाधचैववसुन्धरै । हनिष्येत्वां शितेन णेमेद्वाक्यात्तपराङ्सुखीमन 
स्वीयेन तेजसा चेव पुण्यार्त्रैलोक्यचासिनीः । वि 
प्रजाश्वाहं धरिष्यामि धर्मेणापि न संशयः ॥ १० ॥ 
मच्छासनं समास्थाय धर्मयुतं वसुन्धरै | इमाः प्रजा आज्ञया मे सञ्जीवय सदैव हि tf 


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$ ऊनजिशो च्याय: ] # घरणीप्राथेत्र्‍या पृथुना पृथिव्यास्समीकरणम्‌ # ८६ 


मी एव मे शासततं-मद्रे अयि करिष्यसि । तत प्रीतोऽ स्मिते नित्यंगोपायिच्यां मिखंचंदा 

| स्वामेच हि न सन्देह अन्येचैव पोत्तमाः । घेचुरूपेण सा पृथ्वी वाणाश्वितकंळेवरा ॥ 

॥ उवाचेदं पृथुं वैन्यं धर्माधारं महामतिम्‌ ॥ १४ ॥ 

fi धरण्युचाच । MR 
तवादेशं महाराज सत्यपुण्यार्थसंयुतम्‌। प्रजा निमित्त मत्यथ॑ विधास्यामि न संशयः ॥ 
| उद्यमेनापि पुण्येन उपायेन नरेश्वर । समारम्माःप्रसिद्धय न्ति पुण्याश्चेवाप्युपक्रमाः ॥ 
उपाय पश्य राजेन्द्र येन त्वं सत्यवान्भवेः । धारयेथाःप्रजाशचेमा येनखवाःप्रचरद्वयेः ॥ 
खँछगनाश्वोत्तमावाणा ममाङ्गे ते शिलाशिताः । समुद्धर स्वयंराजंश्छल्यन्निसृतमेकमे 

समां कुरु महाराज तिए्ठे्मयि यथा पयः ॥ १८॥ 
सूत उचाच । 

 ! अ्ुषोऽग्रेण ताऽङैळान्नानारूपान्गुरूस्तथा । उत्सारयंस्ततःसर्वा' समरूपां चकारसः ˆ 

*| सदाघ्रशृति ते शेला बद्धिमापुद्विजोत्तमाः। तस्याअङ्गात्स्वयंब्राणान्स्वक्कीयान्ट्रपनन्दन 

पि समुदुश्वत्य ततोवैन्यःप्रीतेनः मनसा तदा । गर्ताश्च कन्द्राश्चैच वाणाघाते समीङताः ॥ 
एवंपृथ्वीं समांसवीं चकार पुण्यवरद्धनः । समीकृत्य महाभागो वत्संतस्यावच्यकल्पयत्‌ 
| मनुं स्वायम्सुचं पूवं परिचिन्त्य पुनःपुनः । अतीतेष्वथ सर्वेषु मन्वन्तरेषु सत्तमाः ॥ 

यः विषमत्वं गता. भूमिःपन्थानासीच्च कुत्रचित्‌। 

if समानि विषमाण्येवं स्वयमासन्द्रिज्ञोत्तमाः ॥ २४॥ 

पूव मनोश्वाक्चुषस्य प्राप्ते चैवान्तरे तदा । जाते पूर्वविसर्गे च विषमे च धरातले ॥ 

माणां च पुराणां च पत्तनानां तथेव च। देशानां क्षेत्रपन्नानां मर्यादा न हि दृश्यते 

सिंक षिनेंव न बाणिज्यं न॒ गोरक्षा प्रचतेते । ना ठतंभाषते कश्चिन्नलोभो न.च मत्सरः 

मंनाभिमानं च वे पापं न'करोति कदाकिल। वैवस्वतस्य सम्प्राप्ते अन्तरेद्विजसत्तम?॥ 
विन्यस्य खम्भवात्पूचं प्रजानामेव सम्भवः । इमाःप्रजाद्विजाःसर्चा निवास समरोचयन्‌ 
फ़ चिदुभूमौ -गिरोक्कापि नदीतीरेषु वे तदा । कुञ्जेषु सवेतीर्थघु सागरस्यतरेषु च ॥ 
।निवासंच क्रिरे सवाःप्रजाःपुण्येन चे तदा। तासामाहारः सञ्जात फलपूल तथामध ॥ 


| . (८-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


© 


३३ . 7. अंपझपुराणमूक ` [ २ भूमिखणे 
| ` महताकृच्छेण तासामाहारश्च द्विजोत्तमाः। परथुर्वेन्यःसमालोक्य.प्रजञानांकष्टमेच हि; 
स्वायम्सुबो"मनुर्वत्सःकल्पितस्तेन भूभुजा । स्वपाणिः कल्पितस्तेन पात्रमेवं महामते 
सपृथुःपुरुषव्याप्रो दुदोह वसुधां तदा । सर्वेसस्यमयंधीर स सर्चान्नं गुणान्वितम्‌। 
तेन पुण्येन चान्नेन सुधाकहपेन ताः प्रजाः | 
तृप्ति नयन्ति देवान्वै प्रजाःपित स्तथा5परान ॥ ३५॥ . 
,प्रसादात्तस्य वेन्यस्य सुखं जीवन्ति ताः प्रज्ञाः । 
देवेभ्यश्च पितुभ्यश्चः दत्त्वा चान्नं प्रजास्ततः ॥ ३६ ॥ 
“ _ ब्राह्मणेभ्यो विशेषेण अतिथिम्यस्तथैच च । | 
पुण्यास्ता सुञ्जते पश्चात्‌ प्रजाः सर्वा द्विजोत्तमाः ॥ ३७ ॥ | 
यज्ञेश्वान्ये यजन्त्येच तर्पयन्ति जनार्दनम्‌ । तेन चान्नेन देवेशं वृछि गच्छन्ति देवताः। 
पुनर्वषेति पर्जन्यः प्रेषितो माधवेन च | तस्मात्पुण्या महौषध्यः सरभवन्ति खुपुण्यदा 
` सस्यजातानि सर्वाणि पृथोः प्रभृति नान्यथा | 
तेनान्नेन प्रजाः सर्वा वतेन्ते$्यापि नित्यशः ॥ ४०॥ 
ऋषिभिश्चैव मिलितेदु ग्धा चेयं वसुन्धरा । पुनविप्रेमेहाभाग्येः सत्यवद्चिः सुरेस्तथा। 
सोमो वत्सस्वरूपोऽभूद्दोग्धा देवगुरुः स्वयम्‌ । । 
ऊज क्षीर पयः कट्पं येन जीवन्ति चामराः ॥ ४२॥ . 5 
तेषामन्नेन पुण्येन सर्वे जीवन्ति जन्तवः । सत्यपुण्ये प्रवत्तंन्ते ऋषिदुश्धा: चसुन्धरा| 
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि यथा दुग्धा इयं घरा । 
। पितृभिश्च पुरा वत्स विधिना येन बै तदा ॥ ४४ ॥ | 
। सुपात्रं राजतंकझत्वा स्वधाक्षीर सुधान्वितम । परिकल्प्य यमंचल्संदोग्घाचान्तकपवस 
। नागः सपेस्ततो दुग्धा तक्षकं वत्समेच च | अलावुपात्रमांदाय विषं क्षीर द्विजोत्तमा ८ 
नागानां तु तथा दोग्धा धृतराष्ट्रःप्रतापवान्‌ । सर्पानागाहछिजश्रेष्ठास्तेनवर्तन्ति चातुर 
गा चतेन्तितेनापि हत्युभ्रेण द्विजोत्तमाः । विषेण घोररूपेण -सर्पाश्चैच भयानकाः 


तेनेवः चतेयन्त्युग्रा महाकाया महाचलाः । तदाहारास्तदाचारास्तद्वीर्यास्तत्पराक्रमाः 


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| । ९ 


| ऊनत्रिशों ऽध्यायः ] * पृथ्वीदोहनवर्णनम्‌ # १ ७ हर्‌. 
। ' अथातःसम्प्रचक्ष्यामि यथादुग्धा वसुन्धरा । असुरेर्दानवे:सर्वे:कल्पयित्वाद्विजोत्तमाः 
| पत्रमच्रान्नसद्वशमायसं सर्वेकामिकम्‌ । क्षीरं माँथामयंकत्वा सर्वारातिविनाशनम्‌ ॥ . 
| तेषामभूत्स चे घत्सो घिरोचनः प्रतापचान। 
ऋत्विर्द्विमूधां दैत्यानां मधुर्दोग्धा महाबलः ॥ ५२ ॥ 
तया हि मायया दैत्याः प्रचतेन्ते महाबलाः । 
महाप्रज्ञा महाकाया महातेजः पराक्रमाः ॥ ५३ ॥ 
तद्वळंपौरुषं तेषां तेन जीचन्ति दानवाः । तयैते माययाचापि सर्वमायाद्धिजोत्तमाः ॥ 
गरव्तेन्तेऽमितप्रज्ञास्ते तदेषामिदं वलम्‌। तथा तु दुग्धायक्षैःसा सर्वाधारासुमेदिनीः॥ - 
| इतिशुश्चुम चिप्रन्द्राः पुराकल्पे महात्मभिः । अन्तर्धानमयं क्षीरमयस्पात्रे सुचिस्तरे ॥ 
| वैश्रवणो महाप्राज्ञस्तदा चत्सःप्रकल्पितः । मणिधरस्य पितापुण्यःपराज्ञो वुद्धिमतांवरः 
| दोग्धा रजतनाभस्तु॒तस्याश्वासीन्महामतिः । सर्वज्ञः संवेधर्मज्ञो यक्षराजसुतोवली ॥ 
| अएवाहुमंहातेजा डिशीषंःसुमहातपाः । यक्षावर्तेन्ति तेनापि सर्वदूँच द्विजोत्तमाः ॥ 
पुनढु ग्धा इयंपृथ्वी राक्षसेश्च महाबलेः । तथार्चेषा पिशाचैश्च सातुरेदंग्धवारिसिः ॥ 
उत्प्लुतं नूकपाळं तं शावपात्रमयस्छृतम्‌ । 
| सुप्रजां भोक्तुकामास्ते तीव्रकोपपराक्रमाः ॥ ६१॥ 
दोग्धा रजतनाभस्तु तेषामाखीन्महाबलः । सुमालीनामचत्सश्च शोणितं क्षीरमेव च ॥ 
| रक्षांसि यातुधानाश्च पिशाचाश्च महाबलाः यक्षास्तेन च जीवन्ति भूतसङ्घाश्च दारुणाः 
| गन्धवरप्सरोभिश्व पुनदु ग्वा वसुन्धरा । 
| कृत्वा घत्सं सुविद्वांसं तेश्च चित्ररथं पुनः ॥ ६४॥ 
| डुड॒हुःपह्मपात्रे तु गान्धर्वं गीतसडुलम्‌ । खुरुचिर्नासगन्धर्वेस्तेषामासःमहामतिः ॥ 
| दोग्घा पुण्यतमश्चेच तस्याश्च द्विजसत्तमाः । शुचिगीतं महात्मानःसुक्षीरं दुद॒हुस्तदा 
|गन्धर्चास्तेन जीचन्ति यक्षाश्चाप्लरसस्तथा । पर्वतैश्च महापुण्येद ग्धाचेयं वसुन्धरा ॥ 
nese ओषधघीश्वामृतोपमाः । वत्सश्चैच महाभागो हिमचान्परिकल्पितः 


घा च सञ्चातःपात्रेक्त्वा तु शेलजम्‌ । तेनक्षीरैण संब्रद्धाःशैलाःसर्वेमहोच्छयाः 
| ८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 
शान कर... 


| ३ (२ व २» बँ. पझपुराणम्‌. कॅ [२ भूमिखणे 
| पुनर्कुग्घा महावृक्षः पुणये:कल्पदुमा दिभिः 1 पालाशं पात्रमा निन्युश्छिन्नदग्धप्ररोहण, 
शालो दुदोह पुण्याङ्ग: एक्षोवत्सो5भवत्तदा 
गुह्यकेश्चारणेःसिद्धेविद्याघरगणेस्तदा ॥ ७१॥ : .. 
दुग्धाचेयं सर्वधात्री स्वकामप्रदायिनी। यं यमिच्छन्ति ये लोकाः पात्रवत्सविशेषण 
तैस्तैस्तेषा द्दात्येव क्षीरं सद्भावमीद्वशम्‌ । इयं धात्री विधात्री तु इयं श्रेष्ठावसुन्धर 
सर्वकामदुघा घेचुरियं पुण्येरळड्छता । इयंज्येष्ठा प्रतिष्ठा तु इयं सृष्टिरियं प्रजा| 
- पावनी पुण्यदा पुण्या सर्वशस्यप्ररोहिणी। चराचरस्य सर्वस्य प्रतिष्ठायोनिरेच च। 
मदालक्ष्मी रियं विद्या सर्वेविश्वमयी सदा । सर्वेकामदुघा दोग्ध्री सर्वेवीजपरोहिएं 
सर्चेषां श्रेयसांमाता सवेलीकधरा त्वियम्‌। पञ्चानामपि भूतानां प्रकाशोरूपमेव र 
आसीदियं समुंद्रान्ता मेदिनी ति परिश्रुता । मधुकेटभयोःकत्स्ना मेद्सा समभिप्छत 
तेनेयं मेदिनीनाम प्रोच्यते ब्रह्मगादिभिः । ततोऽम्युपगमात्त्राज्ञ पथो वैन्यस्य सत्तम. 
डु हितृत्वमचुप्रात्ता देची पृथ्वीति चोच्यते । तेनराज्ञा द्विजश्रेष्ठाः पालितेयं वसुन्धरा| 
ग्रामाधारा गृहाढ्या च पुरपत्तनमालिनी । सस्या करचंतीरुफीता सर्वेतीर्थमयी द्विज 
एवं चसुमतीदेची सवलोकमयी सदा । एवं प्रभावो राजेन्द्रः पुराणे परिपठ्यते ॥८२ 
पृथुवन्यों महाभागः सवेकपेप्रकाशकः । यथाविष्ण्यथात्रह्मा यथारुद्रः सनातनः| 
नमस्कार्यास्रयो देवा देवाचैत्र ह्वा दिभिः । | 
ब्राह्मणेतर षिभिः सर्वेनेमस्कार्यो दपोत्तमः ॥ ८४॥ . . k 
चणांनामाश्रमाणां यःस्थापकःसवेलोकधक्‌ । 1२ 
पार्थिवैश्च महाभागे:पा्थिवत्वमिहेप्सुमिः ॥ ८५ ॥ | 
आदिराजो ज्रमस्कार्येपृथुरवैन्यःप्रतापचान्‌। धनुर्वेदार्थिभियाधैःसदैच जयकाङ्षिरि 
| `  नमस्कायों महाराजो ब्रत्तिदाता महीभृताम्‌ । 
एवं पात्रविशेषाश्व मया ध्याता द्विजोत्तमाः ॥ ८9 ॥ 
चत्साचां खुःविरोषाश्च दोग्धणां भवदग्रतः । क्षीरस्यापि चिरोषं त यथो द्विष्टंहि 


समाख्यात तथा्र च भवत्ता च यथाथंतः । धन्यं यशस्यमारोग्यं पुण्य पा 
(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ३ 


१ ल्रिशोंक्थोय: 1 # चिस्त॑रैणं बेनंचरिज्रंवर्णनम्‌ * शइ 


न 


| प्थोवॅन्यस्यचरितं यःश्टणो तिद्विजोत्तमा::।?तस्य भागीरथीस्नानमहन्यहनि जायते ॥ 
सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुलोंकं प्रयाति सः॥ ६१॥ 
इति श्रीपाद्यपुराणे पञ्चपञ्चाशत्सहरूसंहितायां द्वितीयेभूमिखण्डे परथपाख्याने 


एकोनत्रिशोडध्यायः ॥२९॥ 

|, हिः | 
१ - ० 
1 | ..  _ निंशोऽध्यायः र 
॥ विस्तरेण वेनचरित्रवर्णनम्‌ । ५ 

॥ ऋषय ऊचः। .. $ ठ 
योऽसौ वेनस्त्वयाऽख्यातःपापाचारैण चर्तित: | ` .. ` . _ .;. 


| ' तस्य पापस्य का.वृत्तिःकि फलं प्राप्तवान्द्रिज कर री 
| चरित्रं तस्य वेनस्य.सप्नाख्याहि यथापुरा । विस्तरेण विदांभ्रेष्ठ त्यै न एतन्महामते ॥ 
|| : सूत. उवाच । हि 
| चरित्रं तस्य. वेनस्य वेन्यस्या पिः महात्मनः । ,प्रवक्ष्यामि सुपुण्यंच यथान्यायं श्रुतंपुरा 
जातेपुत्रे महाभागे तस्मिन्पृथौ महात्मनि । घिमलत्वं गतोराजा धर्मत्वं गतवान्पुनः ॥ 
महापापानि सर्वाणि अजितानि नराधमैः ।. तीर्थसङ्गप्रसङ्गन तेषां पापं प्रयाति च॥०॥ 
सतांसङ्गात्प्रजायेत पुण्यमेच न संशयः । पापानां तु प्रसङ्गन पापमेच प्रजायते ॥ ६॥ 
सम्भाषादर्शनात्स्पर्शादासनाद्गोजनाल्किल । 
पापिनां सम्भवाच्चैच किल्विषं परिसञ्चरेत्‌॥ ७॥ `` ० 
पुण्यात्मकानां च पुण्यमेव प्रसञ्चरेत्‌। मद्दातीर्थेप्रसङ्गेन पापा शुध्यन्ति नास्यथा 
पुण्यां गतित्रयान्त्येते निद्ध ता रोषकल्मषाः ॥ ६॥ ` 
[ ऋषय ऊचुः1। . १ 
(तत्कर्थयान्ति ते पापाःपरांं सिद्धि द्विजोत्तम। ततो विस्तरतो ब्र हिश्रोतु' श्रद्धा प्रवतंते 


[een des CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


। 
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६ 
॥ 
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1 


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र - : ऋ पद्मपुराणम्‌ क ` ` [ -२ भूमिं 


~ , २३००५२०. ऽ सूत उवाच: ) 71:50 1: ००५. जी 
-ुम्बकाश्च महापापाःखञ्जाता दाखघीबरा 1 रेवा चयसुनागज्ञातासामम्मसिसं स्थित 
. ज्ञानतोऽद्ञानतःस्वात्वा सङक्रीडन्ते च वै जले। महानद्ाःप्रसङ्गेनतेयान्तिपरमां गति. 
दासत्वंपापसङ्कातं परित्यज्य ्रजन्ति ते । पुण्यतोयप्रसङ्गाच्च ह्याप्टुताःसवेएब ते। 
महानद्याःप्रसङ्गाच अन्याखां 'नेवसत्तमाः । महापुण्यजनस्यापि पापंनश्यतिपा पिना | 
प्रसज्ञाइ शेनात्स्पर्शान्नात्र"कार्या विचारणा । अत्रार्थे श्रूयते विप्रा इतिहासो ऽघनाशर | 
तंबोह्यद्य प्रचक्ष्यामिवहुपुण्यप्रदायकम्‌। कश्चिदस्ति मृगव्याधः सुलोभाख्यो महावर. 
्वभिर्वायुरिजालेश्च धनुर्वा णैस्तथेचच । खुगान्घातयतेनित्यं पिशितास्वाद्‌ ल्प | 
. एकदा तु मुढुष्टात्मा बाणपा गिर्धनुर्धरः । श्वमिःपरिदृतोदुर्ग वनंविन्ध्यस्य चे गतः | 
_ मृगान्छरन्वराहाश्च भीतान्सूदितवान्वह्न्‌ । श्चातीरं समासाय कश्चिच्छफ एघातकः |. 
शफरान्सूदयित्वा स निजेगाम बहिजेलात्‌ । खुगव्याधस्यलोभस्य भयञ्रर्ताततोसूर्ग ॒ 
छ) 'जीवत्राणपरा खाऽर्ता भीता चढितचेतना । | 
त्वरमाणा -पलायन्ती- रेवातीरं समाश्चिता ॥- २१. ॥ | 
ऽबभिश्चचालिता सा तु बाणघातक्षताठरा । श्वसनस्यापि वेगेन खुलोभो स्ुगघातब. 
यृष्ठणव संप्रायाति पुरतोयाति साम्रगी । दृष्टवांस्तां शफरहा बाणपाणिः समुद्यतः |, 
शनुरानम्यवेगेन अनुरुध्य च तांम्चुगीम्‌ । तावब्लुञ्घकलोभाख्यःश्वभिःसाद्वंसमाग/ 

न्न हन्तव्या मदीयेयं स्ुगयां मे समागता । तस्यचाक्यं समाकर्ण्य मीनहामांसळम्पटः। 
वाण सुमोच दुष्टात्मा तामुद्दि श्य महाबलः । निहता सृगळुऽ्धेन बाणेन निशितेन: 
- प्राता सा म्रगी तत्र व्राणाभ्याँ पापचेतखोः ।' .. | 
शयभिर्देन्तैःसमाक्राभ्तो : त्वरमाणा पपात सा ॥ २७. ॥ 
-शिखराच्च हदेपुण्ये रैवायाःपापनाशने । श्वानश्च त्वरमाणास्ते पतिता विमलेहदे।- 
स्गगव्याधोवदत्येवं धीवर क्रोधमूच्छितः। मदीयेयं सुगी दुष्ट कस्माद्वाणैहता त्वया 
-तस्ुवाचपुन:सोऽपि मीनहाम्रगघातक्रम्‌ । मदीयेयं न सन्देहश्चावलिततःप्रभाषसे। 

` द्युध्यमानौ ` ततस्तौ तु द्वावेतौ तु परस्परम्‌ । क्रोधलोभान्महाभागो पत्त वि 


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| | ॒ 
' नरिशोऽध्यायः ] # मातामहदोत्रेण वेनस्य पापबुद्धित्वचणंनम्‌ ४ ` श 


तस्मिन्काले महापर्व वर्तते गतिदायकम्‌ । 

| अमावास्यासमायोगं महापुण्यफलप्रदम्‌ ॥ ३२॥ 
चेळायां पतिताःख्े पर्वणस्तस्यसत्तमाः। जपभ्यानविहीनास्ते भावसत्यविवर्जिता: ` 
तीथस्नानप्रसङ्गेन स्टगीश्वा च स लुब्धकः । सवेपापचिनिर्मृक्तास्तेगताःपरमांग तिम्‌ ॥ 
तीर्थानां च प्रभावेण सतांसङ्गाु द्विजोत्तमाः । नाशतेत्पापिनांतापं दहदग्निरिवेन्धनम्‌ 
| तेषामेवं हि संसगीद्वषीणां च महात्मनाम्‌ । सम्भाषादर्शनान्नष॑ स्पर्शाच्चेव न्पस्यच 
| वेनस्य कव्मषंनएं सतांसङ्गात्पुराकिल । इत्युग्रपुण्यसंसर्गात्पापंनश्यति पापिनाम्‌ ॥ 
| अत्युग्रपापिनांसङ्गात्पापमेव ्रसञ्चरेत्‌ । मातामहस्यदोषेण संलिप्तो वेन एव स॑ ॥ 
| छ ऋषय ऊचुः | । ७ 

| मातामहस्य कोदोषस्तन्नो विस्संरतो वद । सम्त्युः सच वैकाळः सयमो धर्म एव च - 
| हिंसको हि कस्यापि पद्रेतस्मिन्प्रतिष्ठितः । 'चराचराश्चये लोकाःस्च कर्मेचशवतिन 
| जीवन्ति च प्रियन्ते च भुजन्त्येवं स्वकर्मेिः ।. द 
पापाः, पश्यन्ति तं घोर तेषां कर्मेविपाकतः ॥ ४१ ॥ 
| -निरयेषु च सर्वेषु कमे णैचं सुपुण्यचान । योजयेत्ताडयेत्सूत यम एष दिने दिने ॥४२॥ 
| र्वष्वेच सुपुण्येछु कमंस्वेचं स पुण्यचान्‌.। योजयत्येचधर्मात्मा तस्यदोषो नद्ृश्यते 
त स सुत्योः केनदोषेण पापी वेनस्त्वजायत ॥ ४३ ॥ 

1022 ` _ : “सूत उवाच । 

(-स सत्युःशासको नित्यं पापानां दुष्टचेतसाम्‌ ॥ ४४ ॥ 

।चतेतेकालरूपेणतेषां कमे . विसृश्यति । दुष्कृतं कर्म यस्यापि कर्म णातेनं घातयेत्‌ ॥ 
| तस्यपापं चिदित्वाखौ नयत्येवं हि तं यमः । सुछतात्मा लमेत्स्वर कर्मेणासुङतेन वे 
। योजयत्येष तान्सर्घान्सृत्युरेव रूदूतके: । महता सौख्यभावेन गीतमङ्गलकारिणा ॥ 


| दानभोगादिमिश्चैव योजयेच्च इतात्मकान्‌। 
| 


| 


ह 


| पीडामिवि ब्रधा भिश्च क्लेरोःकाऽेश्चदारुणेः ॥ ४८॥  .. . 
6्सपेत्ताडयेद्विपान्सक्रोथो' मत्युरेवतान्‌ । -कमं ण्येत्रै हितस्यापि व्यापार:परिवर्तते 


| CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 
$ कक... 


fr] + : , भू र | 
| 


इई . ८. 5... जपमपुराणम्‌कः ` ` † ` ! [२ भूमि 
मृत्योश्चापि महाभाग लोमात्पुण्यात्प्रजायते । सुनीथानामवकन्यासञ्जातषामहात्मत 
पितुःकमे चिस्र॒श्यैव क्रीडमाना सदेवसा । प्रजानां शास्तिकर्तारंपुण्यपाप निरीक्षण 
सा तु कन्या महाभागा सुनीथा नाम तस्य सा । | 
रममाणा चनं प्राप्ता सखीभिःपरिचारिता ॥ ५२. ॥ 
~ तत्रांपश्यन्महाभागं गन्धवंतनयं वरम्‌ । गीतकोळाहळस्यापि खुशङ्कनाम सा तदा| 
ददशे चारुसर्वाङ्गं तप्यन्तं सुमहत्त पः । गीत विद्याखु खिद्धेयर्थं ध्यायसानं सरस्वती 
तस्योपघातमेवासौ साचकार दिने दिने । सुशङ्क :क्षमतेनित्यं गच्छगच्छेतिसोऽद्रवी।' 
५ ` प्रेषिता नैव गच्छेत्सा विध्नमेव समाचरेत्‌ * | 
तेनैवमुक्ता सा क्रद्धाऽताडयत्तपसि स्थितम्‌ ॥ ५६ 
- तामुवाचततःक्रुद सुशङ्कु क्रोधसूच्छितः । ढुष्टेपापसंमाचारै कस्माद्विध्नस्त्वया इतः| 
ताडनात्ताडनंद्े न कुर्व न्तिमहाजनाः | आक्रुष्टानेचः कुप्यन्ति इतिधर्ेस्य संखिति/| 
त्वयाऽहं घातितःपापे निर्दोषस्तपसान्वितः । गि । 
एवमुक्तवा. सं धर्मात्मा. सुनीथां पापचारिणीम्‌ ॥ ५६ ॥ | 
विरराम महाक्रोधाज्ज्ञात्वा नारीनिवर्तितः । ततः सपापमोहाद्वा ' वाल्याद्वात मिदैव '॥ 
समुवाच महात्मानं खुशडूं तपसिस्थितम्‌। त्रेलोक्यवासिनां तातो ममेैवपरिधातव 
असतोघातयेन्नित्यं सत्यान्स परिपालयेत्‌ । नेघदोषो भवेत्तस्य महापुण्ये न वतंये 
एवमुक्त्वा गता सातु पितरं वाक्यमत्रचीत्‌ । मया हि ताडितस्तात गन्घवेतनयो व 
तपस्तपन्सदैकान्ते कामक्रोधविवजितः । -समामुवाच धर्मात्मा क्रोधरागसमन्वितः | 
। नांतायेत्ताडयन्तं क्रोशन्तं'नव क्रोशयेत्‌ | इत्युवाच स मां तात तग्मे ` त्वं कारणं षं 
एवमुक्तः सचे मृत्यु:सुनीथां द्विजसत्तमाः । किश्चिज्नोवाच धर्मात्मा प्रश्नप्रत्युत्तर त 
वनंप्रात्ता पुनःसा हि सुशङ्को यत्र संस्थितः । - 
_ कशाघातस्ततो दोष्टयाञ्जघानं तपंतांचरम्‌॥ ६७॥ 
सुशङ्कस्ताडितो विप्रा सृत्योध्येव हि कन्यया । ततःक्रुद्धोमहातेजा:शशाय तनुमध्यर्मा 
निर्दोषो हित्यतो। (दक ायेक्ररिनानिला ।माहसत बत्े/खंस्पर्तस्माज्छापं ददाम्यहम्‌ 


- 
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| रिशोऽध्यायः ] क अड्धस्येन्दरसंपत्तिदवष्ट्चातत्सद्वशपुत्रप्राप्त्यमिळ्ाबत्र्णनम्‌ क ९७ 
गे गाहेस्थ्यं च समास्थाय सदभर्त्रा यदा शटणु । 
॥ पापा वारमयःपुत्रो देवव्राह्मणनिन्दकः ॥ ७०॥ 

खर्वपापरतो दुष्टे तवगर्भे भविष्यति। एवं शप्त्वागतःसो५पि तपणच समाश्रितः ॥ 
गते तस्मिन्महाभागे सा सुनीथा युहंगता । समाचष्ट.महात्मानं पितरं. तप्तमानसा ॥ ` 
| यथाशत्ता तदा तेन गन्धवंतनयेन सा । : तत्सत्रं संश्रुतं तेन सरृत्युना परिभाषितम्‌ ॥ 
॥ कस्मात्त्वया ताडितोऽसौ .तपस्ची दोषघर्जितः। युक्त॑बैच तंपुत्री तपतस्तस्य ताडनम्‌ 
एवमाभाष्य धमात्मा सृत्युःपरम दुःखितः । 

| वभूच स'हेतन्तस्या दिष्टमेवं विचिन्तयन्‌ ॥.७५ ॥ : 09 

| सूत उवाच | 

अचिपुत्रो महातेजा अङ्गोनाम. प्रतापचान्‌।' एकदा तु गतोचिप्रा नन्दनंप्रति स द्विजः॥ _ 
| तन्नद्वष्ट्या देवराजं तमिन्द्र-पाकशासनम्‌ । अप्सरलांगणर्यक्त॑ गन्घर्वे:किन्नरेस्तथा ॥ 

गीयमानं गीतगैश्व सुस्वरेःसत्तकेस्तथा । वीज्यमानं सुगन्धश्च व्यजनेःसर्वतोऽपिं तम्‌ 

'यो षिद्वीरूपयुक्ता भिश्वामरेहँसगा मिमि: । छत्रेण इंसत्रणेन चन्द्रविस्बानुकारिणा॥७३॥ 

राजमानं . सहस्राक्ष सर्चांभरणभूषितम्‌। कामक्रीडा गतंदेचं दृष्टवानमितोजसम्‌ ॥ 

तस्य पाश्वे महाभागां पौळोमीं चारुमङ्गलाम्‌। 

रूपेण तेजसा चैव तपसा च यशस्विदीन्‌॥ ८१ ॥ 

सौभाग्येन चिराजन्तीं पातिव्रत्येन तां सतीम्‌। तयासह सहस्राक्षः सरेमे नन्द्नेचने ॥ 
ख्य लीळांसमाळोक्य अङ्गश्चैव द्विजोत्तमः । धन्यो वै देवराजोऽयमी दुशैःपरियारित 
अहोऽस्य तपसोवीयं येन प्राप्तं महत्पदम्‌ । यदा ममेद्वश पुत्रःसवेलोकप्रघारकः ॥ 
अवेत्तदा. महत्सौख्यं प्राप्स्यामीह-न. संशयः । इतिचिन्तांपरोभूत्वा त्वरमाणो गृहंगतः 
इति श्रीपाद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने निशोऽध्यायः | ३०॥ 


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बन ८८0 Mumukshu 815 ८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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एकत्रिशो$ध्यायः 


अङ्गस्यात्युपदेशेनेन्द्रसदशपुतरग्रापतये 'तपस्याकरणाथंगमनमू | 
र सूत उवाच 1 
' अथत्वङ्गोमहातेजा. द्ृष्ट्वेन्दस्यसंम्पदम्‌ । भोगंचेचचिळाखं च-ळीलां तस्य महात्म 
कथं मे इन्द्रसद्वशःपुत्रःस्याद्धमेसंयुतः । चिन्तयित्वा क्षणं चव अङ्गो घमेस्दृतांचरः ॥२ 
स्थकं गेहे समायातःसत्वङ्गःसत्यतत्परः.। अचि पप्रच्छपितरं प्रणतो नघ्रकन्धरः ॥३ 
कोऽयं पुण्यसमाचारो भुङ्क्त ऐन्द्रंपदं महत्‌ । 
पुण्यस्य वै पुष्टिःकि कृतं कमे कीद्वशाम्‌ ॥ ४ ॥ 
कीदशं तप एतस्य कमाराधितवान्पुरा । पतम्मेचिस्तारैण त्वं रहि. सत्यचतांचर| 
` अत्रिरुवाच 1 | 
साघुसाघु महाभाग यदेवं पृच्छसे मयि | चरित्रमिन्द्रस्थ वत्स तन्मे. निगदतःश्एणु 
खुबतोनाम मेधावी पुरा ब्राह्मणसत्तमः । तेन छष्णो हृषीशस्तपसाचेच तोषितः | 
पुण्यं गर्भ पुनःप्रा्तो . ह्यद्त्याःकश्यपात्किल । | 
चिष्णोश्चैच ` प्रसादेन सुरराजो बभूबह ॥ ८॥ 
अङ्ग उवाच । 
कथमिन्द्रसमःपु्ो ममस्यात्पुत्रचत्सल । तदुपायं समाचक्ष्व त्वं हि ज्ञानवतांवर 
ट अत्रिरुवाच । : ` । 
समासेनेच 'तस्यैच सुव्रतस्य महात्मन: । चरित्रमखिलपुण्ये निशांमयं महामते ॥१ 
यथा सुव्रतमेघावी पुराराधितवान्हरिम्‌ । तस्यभावं च भक्ति च ध्यानंचेव महात्मर 
समालोक्य ऊगन्नाथो दत्तवान्वे महत्पदम्‌ । 
स ऐन्द्रे सर्वेभोगाळ्यं जेलोक्यं सचराचरम्‌ ॥ १२ लसा | 
विष्णोब्ेवप्रसादाच्चपदंभुडक्तत्रिलोकधक । एवतेसवेमाख्यार 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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पद 


| डाचिशोञ्च्यायः ] # अङ्गस्यतपकरणात्प्रादुभू दघाखुदेघस्यस्तोत्रकरणम्‌ ॐ त । 


| भक्त्यात॒ष्यति'गां विन्दो भावध्यानेनसत्तम। सवंददा तितुष्टात्मा भक्त्यासन्तोबितोहरिः 
| वस्मादाराध्य गोविन्दं सब्रेदं सबेसम्मवम्‌ । सर्वेज्ञ' सर्वेत्तारं सर्वेबां पुरुषंचरम ॥ 
| तस्मात्प्राप्स्यसि सर्व त्वं यद्यद्च्छिसि नन्दन ॥ १६ ॥ 
सुखस्यदाता परमाथंदाता मोहस्यद्राता जगतां हि नाथ; 
_तस्मात्तमाराधय गव्छ पुत्र सरप्रापल्यसे इन्दरसप्रं हि पुत्रम्‌ ॥ १७ ॥ 
आकण्य वाक्यं परमाथ युक्तमुक्त मदात्मा ऋषिणा हि तेन । 
सङ्गृह्य तत्त्वं चचनस्य तस्य प्रणम्य तं शाश्वतमम्ययात्स: ॥ १८ ॥ 
आमन्त्य चाङ्गः पितरं महात्मा ब्रह्मात्मजं ब्रह्मलसानमेच। . » 
| सम्पातवान्मेरुगिरेस्तु शङ्गं तं काञ्चने रत्नमयैःसमेतम्‌॥ १६॥ 
|... . इति श्रीपाझपुराणे पञ्चपञ्चाशत्सहस्नसंहितायां द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने 
|. . पकत्रिशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ गरि 


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। i, दरो त्रिशो ऽध्यायः 
अङ्गस्य तष:करणात्मादुभू तवासुद्ेवस्यस्तोत्रकरणम्‌ । 

| सूतउवाच । 
नानारत्ने:खुददीत्ताड़ो हाटकेनापि सवतः राजमानो गिरिश्रेष्ठो यथासूर्यःस्वरश्मिमि 
छायामशोकांसम्प्राप्य शीतलांसुखदा यिनीम्‌ । ध्यायन्ति योगिनःसर्वेडपविष्टाइढासने 
| | क्वचित्तपन्ति मुनयःक्वचिद्वायन्ति किन्नराः | 
र . सन्तुष्टा ऋषिगन्धर्चा वीणातालकराविला: ॥ ३ ॥ के 
'तालमानलयेलीनाः स्वरैः सप्तमिरन्वितेः । मूच्छेनारतिसयुक्तैव्यक्ते गीतंमनोहरम्‌॥ 

स्मिन्बै पर्वेतथेष्ठे चन्दनच्छायसंश्रिता: । गन्धर्वा गीततत्तवज्ञा गीतंगायन्ति तत्पराः 
पति योषितस्तत्र देवानां१पर्वतोत्तमे । पापहा पुण्यदो दिव्यःसुश्नेयसां प्रदायकः ॥ 


| CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


[sce _ -अ पंझपुराणम्‌ # 


| ` द्चदध्वनिःखमधुरःश्रूयते पर्वेतोत्तमे । चन्द्नाशोकपुन्नागैःशालेस्तालेस्तमालकः ॥ ७| 
' चटैस्तु मेघसङ्काशै राजते पवेतोत्तमः । सन्तानकःकटपदक् रम्भापादपसङ्कुळे ॥ ८। 


नगेन्द्रो भाति सर्वत्र नाकवृक्षेःसुपुष्पितेः। 
नानाधातुसमाकीर्णो नानारत्नचयो गिरिः ॥ ६॥ 


कब पक | 


| 


.. नानाकौतुकसंयुक्तो नानामडूलसंयुतः । वैददृन्देःसुसञ्जुष्यो हाप्सरोगणसडकुछः। 


ऋषिभिर्म निभिःसिद्धैगन्थवैं: परिमाति सः । गर्डेश्वाचटसड्डाशैःसिंहनादेविराजते। 
शरमैमंत्तशादू लैस गधूतैंसटडछतः । वापीकूपतडागैश्च सग्पूरणेबिमळोदकेः ॥ १२ 


: * हंसकारण्डवाकीणें: सवत्र परिशोभते । 


कनकोत्पलेश्व श्वेतैश्च रक्तोत्पळवराजते ॥ १३ ॥ 


नदीस्नवणसड्डातैविमलेश्रोदकेस्तथा । शाळताळेश्च रूपश्च सगजे स्फारिकेस्तथा| 
पिस्वीणैं:काञ्ननैदिव्ये:सूर्यवहिसमप्रमैं: । रि.लादलैश्व सम्पूर्णःशैलराजो विराजते। 
'चिमानैदेचतानां च प्रासादैःपर्वेतोत्तमैः । हंसचन्द्रप्रतीकाशेहमदण्डेरलड्छूतः ॥ १६) 


- कलशौश्वामरेयक्तेःप्रासादेःपरिशोभितः । नानागुणप्रमुद्तिदेखबन्देश शोभितः ॥ १७) 


देववृन्देरनेकेथ्व गन्घवेंश्वारणैस्तथा'1<सरवत्र राजते पुण्यो मेरुगिरिविरोत्तमः ॥ १८। 


तस्माद्वङ्गा महापुण्या पुण्यतोया महानदी । 
प्रसूता पुण्यतीर्थाढ्या हंतपझेःसमाकुला ॥ १६॥ 


 सुनिमिःसेन्यमाना सा ऋषिसड्डमंहानदी । एवं एणं गिरिश्रेष्ठं पुण्यकौतुकमङ्गलम्‌। 


अङ्गम्धा चिसुत:पुण्य:प्रविदेश महामुनिः । गङ्गातीरे सुपुण्ये च एकान्ते ` चारुकन्दरे | 


तत्रोपविश्य मेधावी कामक्रोधविंचजितंः । 
वे न्द्रियाणि संयम्य हृषीकेशं मनोगतम्‌ २२॥ 


 आद्रघु चच शुष्केषु सवष्वन्येषु स द्विज: । 


एव च षेशतं जातं तप्यमानस्य च॥ २७ ॥ 
(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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' ध्यायमानःसधमात्सा ष्णं कडेशापहं प्रभुम्‌ । आसने शयनेयाने ध्याने च मधुसूर 
“ नित्यं पश्यति युक्तात्मा योगयुक्तो जितेन्द्रियः । चराचरेषु जीवेषु तेषु पश्यति 


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| 


| द्वानिशोऽध्यायः ] ॐ अङ्गकतमगचदुस्तोत्रम्‌ ॐ र हर 
| सम्रालोक्य जगन्नाथश्वक्रपाणिट्दिजोत्तमम्‌ ।. बहुचिघ्लान्खुघोरांश्च दर्शयत्येच नित्यशः 


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तेजसा तस्यदेचस्य उसिहस्य महात्मनः । निरातङ्कःसधर्मात्मा वहत्यभिरिवेन्थनम्‌ ॥ 


| -नियमैःसंयमैशचान्यैरुपचासै द्विजोत्तमः । क्षीयुमाणस्तु सञ्जातो दीप्यमानःस्घतेजसा॥ 


| सूपपावकसङ्काशास्त्घङ्ग एवं प्रद्धश्यते । पवंतपःखुनिरतं ध्यायमानं जनार्दनम्‌ ४२३॥ 


| आधिर्भूयातरवीददेचो वरं वरय मानद । तं च दृष्ट्या हृषीकेशमङ्गःपरमनित्रतः ॥ ३० ॥ .. 


तुष्टाव प्रणतो भूत्वा घासुदेचं प्रसन्नधीः ॥ ३१ ॥ 
अङ्गउवाच । 


| त्वं गतिःसर्वभूतानां भूतभाचन पावन । भूतात्मा सर्वभूतेश नमस्तुभ्यं शुणात्मने ॥ 
| शणरूपाय गुह्याय गुणातीताय ते नमः | गुणाय शुणकरत्रे च गुणाव्यप्य गुणात्मने 


(| 


८०७. 


| 


|“ अवाय अवकन्न च भक्तानां भवहारिणे । भवोद्वाय शुह्याय नमो भवविनाशिने ॥ 
। न्याय यज्ञरूपाय यज्ञेशाय नमोनमः । यज्ञकमंग्रसङ्गाय नमःशङ्कघराय च ॥ ३५॥ 
| नमोनमो हिरण्याय नमोर्धाङ्गघारिणे। सत्याय सत्यभावाय सर्वसत्यमयाय च ॥. 
| घमाय धमकर च सेके च ते नमः । थमाङ्गाय सुवीराय धर्माधाराय ते नमः ॥ 
| .नमःउुण्याय पुत्राय ह्यपुत्राय महात्मने । .मायामोहविनाशाय सर्चमायाकराय ते॥ 


मायाधराय मूर्ताय त्वमूर्ताय नमोनमः ।. सर्वसूतिघरायेच शङ्कराय नमोनमः ॥ ३६ ॥ 
ह्मण ब्रह्मरूपाय परत्रह्मस्वरूपिणे। नमस्ते सवेधाम्ने च नमोधामधराय च ॥४०॥ 


श्रीपते श्रीनिवासाय श्रीधराय नमोनमः । क्षीरसागरवासाय चाम्रुताय च ते नमः ॥ 


महोषधाय घोराय महाप्रज्ञापराय च । अक्रराय प्रमेध्याय मेध्यानां पतये नमः ॥४२॥ 
अनन्ताय ह्यरोषाय चानघाय नमोनमः । आकाशस्य प्रकाशाय पक्षिरूपाय ते नमः ॥ 


| हुताय हुतभोक्त्रे च हवीरूपाय ते नमः। बुद्धाय बुद्धरूपाय सदाचुद्धाय ते नमः ॥४४॥ 
९. नमो इव्याय कव्याय स्वघाकाराय ते नमः । स्वाहाकारायशुद्धाय ह्यव्यक्तायमहात्मने 
१. व्यासाय वांसवायेच. बसुरूपाय ते नमः । वासुदेचाय विश्वाय चंहिरुंमाय ते नमः ॥ 


इर्ये केघकायैघ घामत्राय. नमोनमः । नमो नरसिइदेचाय सत्त्वपाळाय ते नमः ॥ ४७॥ 


नमो गोविन्द्गोपाय नम एकाक्षराय च । नम सर्वाक्षरायैव हंसरूपाय ते नमः ॥४८॥. 


| 00-0.100006510 818 ७ 0-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri  " 


१०२ व अ पद्मपुराणम्‌ क ` ` [२ भूमिलण्े 
जितत्त्वाय नमस्तुभ्यं पञ्चतत्त्वाय ते नमः । पञ्चविंशातितस्वाय तत्त्वाधाराय थे नमः। 
कृष्णाय कष्णारूपाय लक्ष्मीनाथाये ते नमः । नम पद्मपलाशाक्ष आनन्दाय पराय च। 
नमो बिश्वम्मराबैच पापनाशाय वै नमः ।० नमःपुण्यसुपुण्याय सत्यघमाय ते नमः| 

- 'नमोनमःशाश्वत अव्ययाय नमोनमःसरवनभोमयाय । छ । 
१2 खीपझनामाय महेश्वराय नमामि ते केशव पादपद्मम्‌ ॥ ५२ ॥ | 
` आनन्दर्कन्द्‌ कमलाप्रिय वासुदेव सर्वेशईश मधुसूदन देहि दास्यम्‌। ` 
पादौ नमामि ठच केशव जन्मजन्म पां कुरुष्व ममशान्तिद शङ्खपाणे ॥५३ 
संसारदारुणहुताशनतापद्गधं पुत्रादि बन्धमरणेवंहुशोकतापः । 
ज्ञानोग्बुदेन ममझ्लाचय पझनाभ दीनस्य मच्छरणरूप भवस्य नाथ ॥ ५४॥ 
` ~ उब स्तोत्रं समाकर्ण्य त्वझस्यापि महात्मनः । दर्शयित्वा स्वकंरूपंघनश्यामंमहौजसा 
> शङ्खचक्रगदापाणिं पद्महस्तं महाप्रभुम्‌ । वेनतेयसमारूढमात्मरूप प्रद्शितम्‌ ॥ ५६। 


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सर्वाभरणशोमाङ्ग हारकडुरकुण्डळे: । राजमानं परंदिव्यंनिमेळं चनमालया॥ ५७| 
अङ्घस्याग्रे हृषीकेशःशोभमानमहत्प्रभः । श्रीचत्साङ्केन पुण्येन कौस्तुमेन जनाद्न। 
दर्शयित्वा स्वकंदेहं सर्वदेचमयोहरिः । स उवाच महात्मानं तमङ्गग्दषिसत्तमम्‌। 
भोभोविप्र महाभाग श्रूयतां घचनं शुभम्‌। 
मेघगम्भीरघोषेण समाभाष्य द्विजोत्तमम्‌ ॥ ६०॥ 
तपसाऽनेन तुष्टोऽस्मि घरं घरयशोभनम्‌। तुष्यमाणं हृषीकेशं तंदूष्ट्चाकमलापतिम्‌। 
` दीप्यमानं घिराजन्तं चिश्वरूपं जनेश्वरम्‌ । पादास्बुजद्वयं तस्य प्रणम्य च पुनः पुनः| 
| हर्षेण महताविष्टस्तमुवाच जनादनम्‌ । दासोऽहं तव देवेश राङ्कचक्रगदाधर ॥ ६३ 
वरंमेदातुकामोऽसिदेहि त्वं वंशजं सुतम्‌। दिविशक्रो यथाऽऽभातिसवंतेजःसमन्तिं 
तादृशं देहि मे पुं सवेलोकस्य रक्षकम्‌। सवंदेचप्रियंदेच ्रह्मण्यं घमेपण्डितम्‌। 
दातारं ज्ञानसम्पन्नं धमेतेजःसमन्वितम्‌ । त्रैलोक्यरक्षकं कृष्णं सत्यधर्मानुपालकम्‌ 
यज्चनामुत्तमंचेकं झारंत्रैलोक्यभूषणम्‌ । ब्रह्मण्यं वेदविद्वांसं सत्यसन्धंजितेन्द्रियम्‌ 
अजितं स्चेजेज्रार, त्रिशणुतेज;जरपरशभम. देगा पुण्सक्तताएं, प्रएमजं ग्रेस 


हैं जेयस्त्रिशोध्यायः ] # सुनींथाचरित्रम्‌ #': - १५ शि 


। शान्तं तु तपसोपेतं सर्वशास्त्र. विशारदम्‌ । Ry: = {ह 
1 वेदज्ञं योगिनांध्रेष्ठं अवतो गुणसंनिभम्‌ ॥ ६६.॥ ˆ ` `` 
! इंद्रशं देहि मेपपुत्रं दातुकामो यदा वरम्‌ । 


वाखुदेव इवच । ; 
| एभिगुणेःसमोपेतस्तचपुत्रो भविष्यति । अत्रिचंशस्य वै धर्ता विश्वस्यास्य. महामते ॥ 
तेजसा यशसापुण्यैःपितरं चोद्धरिष्यति । उद्ध रिष्यति यःसत्यैः पितरं च. पितामहम्‌ ॥ 
॥ भवान्यास्यति मे स्थानं तद्विष्णोःपरमं पदम्‌। इत्युक्त्वा देवदेदेशस्तमङ्गभतिसं द्विज ॥ 
कस्य चित्पुण्यचीर्यस्य पुण्यां कन्यांविचाहय । जज 
तस्यासुत्पादय सुतं शुभं पुण्याबहभ्रियन्‌ ॥ ७४ ॥ .. ० 
स भविष्यतिधर्मात्मामत्यसादान्महामते । सजनः सर्ववेत्ता च याद्वशोचाञ्छितस्त्वया 


| एवं चर ततो द्रचा अन्च्धःन्गतोहरिः ॥ ७५ ॥ 2351 
| इतिश्री पाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे देनोपाल्याने अड्डूबरप्रदातं नाम -. :` 
| , द्वा्रिशोऽध्यायः ॥ ३२॥ 7 7 . ¦ 2; 

| 7 निपल 

| त्रयस्िशोऽष्यायः 

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सुनीथाचरित्रम। - .._. 

: ऋषय उचुः। .. 


दसा गन्धर्वपुत्रण सुशद्धेन महात्मना । तस्य शापात्कथंजाताः कि कि.कर्मझतंतया ॥ 
सस लेमे कीदशं पुत्रं तस्य शापाइद्विजोत्तम। रुनीथायाश्च चरितं त्वंनो विस्तरतो चद 
| सूत उचाच | क 

खशद्वेनापि तेनेच सा शप्ता तनुमध्यमा । पितुःस्थानं गतासा तु खुनीथादुःखपीडिता 
[पितरं चात्मनग्वेव चरितं. च प्रकाशितम्‌ । श्रुत्वान्सो5पिधर्मात्मा. सृत्यु:सत्यचतांघरः 


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| |: उघ. - 222 क पद्यापुराणम्‌ पर जट [ २ भूमि, 
' . _' _त्तामुषाच सुनीथां ठु सुतां शप्तं महात्मना । ' ` i | 
म भवत्या दुष्कृतं पापं घर्मेतेजःप्रणाशनम्‌॥ ५॥ ` 
_ कस्मात्ते महाभागेसुशान्तस्य हि ताडनम्‌। विरुद्धंसवेछोकस्यमच॒त्यापरिकल्पित 
कामक्रोध विहीनं तं सुशान्तं घर्मेचत्सकम्‌ । तपोमार्गे विलीनं च परत्रह्वाणिसं स्थित 
- तमेवं घातयेद्योवै तस्यपापं श्टणुष्व हि । पापात्माजायते पुत्र किल्विषं लभते वहु। 
ताडयन्तं ` ताडयेद्यः्रोशन्तं कशयेत्पुनः। तस्य पापं सबै भुङ्क्ते ताडितस्य न संशय 
1 स वे शान्तो जितात्मा च ताडयन्तं न ताडयेत्‌! ` | 
ह हेट निर्दाष प्रति येनापि ताडनं च ङतं सुते ॥ १० ॥ 
पश्चान्मोहेन्‌ पापेन निदोषेऽपि च ताडयेत्‌ । निदोषं प्रतियेनापि दृद्रोगःक्रियतेवृथा|त 
निर्दोष ताडयेत्पश्चान्मोहात्पापेनकेनचित्‌ । स पापी पापमाप्नोति निर्दोषस्यशरीरजा 
निर्दोषो घातयेत्तंवे ताङन्तं पापचेतसम्‌ । पुनरुत्थाय वेगेन साहसात्पापचेतनम्‌। 
पापकर्तश्च यत्पापं निर्दोषं प्रतिगच्छति | ताडनंनेव तस्माद्वं कार्यदोषचतोऽपि च! 
दुष्कृतं च महत्पुत्र त्वयेचपरिपालितम्‌। 
शप्ता तेनापियाच्येव तस्मात्पुण्यं समाचर ॥ १५॥ 
सतां सङ्गं समासाद्य सदेव परिवर्तय। योगध्यानेन ज्ञानेन परिवतेय नन्दिनि I 
सतांसङ्गो महापुण्यो वहुश्रेयो विधायकः। बाळे पश्य सुददष्टान्तं सतां सङ्गस्ययदुगुर्ण 
अरझंसंस्पर्शनात्पानात्खानात्तत्रमह्दा धियः । सुनयः सि द्विमायान्तिवाह्याभ्यन्तरक्षाहितं' 
आयुष्मन्तो भवन्त्येते लोकाः सर्वे चराचराः । | 
आपः शान्ताः सुशीताश्च स॒दुगात्राः प्रियडूराः ॥ १६॥ | 
निर्मला रसव॑त्यश्च पुण्यचीर्या मळापहाः। तथा सन्तस्त्वयाज्ञेया निषेव्याश्च प्रयत्ना 
' ` यथावहि प्रसङ्गाच्च मलंत्यजति काञ्चनम्‌। तथासतां हिसंसर्गात्पापंत्यजति 
सत्यच ह्निःप्रदीपतश्च प्रज्वलेत्पुण्यतेजला । सत्येन दीप्ततेजास्तु ज्ञानेनापि सुनिर्मल। 
अत्युष्णो ध्यानभावेन अस्पृश्यःपापजेनंरे: । सत्यवहेःप्रसङ्गाज्च पापं सवे विनर्श्या 
तस्मात्सत्यस्य.संसगेःकतेव्यःसवेथा-त्वया । पापभारं परित्यज्य पुण्यमेवं समा 


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ऐेघयस्त्रिशो5ध्याय ] # खुनीथयानिजेनवनंप्रतियमनम्‌ ॐ छ म्हट. १०५, र 
, सूत. उचाच:। र 
एवं पित्रा सुनीथा सा दुःखिता प्रतिबोधिता । 


नमस्कृत्य पितुःपादौ गता सा निर्जनं चनम्‌ ॥ २५॥ 
कामं क्रोध परित्यज्य ब्राळमावं.तपस्चिनी।. . .. 
|| मोहद्रोही च मायां च त्यक्त्वा एकान्तमास्थिता ॥ २६ ॥ 
ये 


तस्याःसख्यःसमाजग्मू रभ्भाद्यास्तास्तपोऽ न्विताः । 
तां दद्दशुषिशालाक्ष्यः सुनीथां डुःखभागिनीम्‌ ॥ २७॥ 

ध्यायन्तों चिन्तयानांतामू बुश्चिन्तापरायणाः। कस्मा च्विन्तयसेभद्रेकयाचा चिन्तयान्विता ` 
तन्नो वे कारणंत्र हिचिन्ताढुःखप्रदायिनी । एकैच सार्थकाचिन्ताधर्मस्यार्थविचिन्त्यते 
रा द्वितीया सार्थका चिन्ता योगिनां धर्मनन्दिनी । 1 
| अन्या निरथिका चिन्ता तां नेच परिकल्पयेत्‌ ॥ ३० ॥ 
क्रायनाशकरी चिन्ता वलतेजःप्रणाशिनी । नाशायेत्सर्वसौख्यं तु रूपहानिं निदर्शयेत्‌. 
| तृष्णा मोहं तथा लोभमेतांश्विन्ता हि प्रापयेत्‌ । 

| पापमुत्पादयेश्विन्ता चिन्तिता च दिने दिने ॥ ३२॥ . | 
(चिन्ताव्याधिप्रकाशाय नरकायप्रकउपयेत्‌। तस्माच्चिन्तांपरित्यज्यचानुचर्तस्वशोभने 
जितं कप्रे णापूर्व॑ स्वयमेचनरेण तु । तदेव भुङ्क्तेऽसौ जन्तुर्शानवान्नविचिन्तयैत्‌॥ 
कस्माच्चिन्तांपरित्यज्य सुखदुःखादिकं चद्‌ । तासांतद्वचनंश्रुत्वासुनीथाचाक्यमत्रवीत्‌' 
इतिश्री पाद्मपुराणे पञ्चपञ्चाशत्सदस्नस॑ हतायां द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने 

सुनीथाचरितं नाम अरयस्तरिशोऽध्यायः । 


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` चतु स्त्रिशो ऽध्यायः 
सुनीथयासखीभम्यो निजदुष्कर्म निरूपणम्‌ । 
| सूत उचाच। 
 गझथाशप्ता चनेपूर्व सुशङ्कन महात्मना। ताखु सव समाण्यात सलीष्वेच विचेष्टितम्‌, 
आत्मनश्च महाभागा दुःखेनाति प्रपीडिता ॥ १॥ F 
i न सुनोथोचाच । 


५ अन्यच्चैच प्रवक्ष्यामि सख्यः शएण्चन्तु साम्प्रतम्‌ ॥ २ ॥ 
__ मदीयरुपसम्पत्तिवयःसुगुणसम्पदः । विळोब्य मां पितुश्चिन्तासज्ञाताममकारणात्‌; 
देवेभ्यो दातुकामो5सो मुनिभ्यस्तु महायशाः । ग्र 
मां च हस्ते विग्ृह्मेव सर्वान्चाक्यमुदाहरत्‌ ॥ ४॥ 
गुणयुक्ता सुतावाळा ममेयं चारुलोचना । दातुकामोस्मि भद्रं चोणुणिने सुमहात्मरे; 
मृत्योर्चाक्यं ततोदेचा ऋषयः शुश्चुवुस्तदा । तमूचुर्भाषमाणंते देवा इन्द्रपुरोगमा th 
तघकन्या शुणाळ्येयं शीलानां परमोनिधिः। .दोषेणैकेन सन्दुष्टा ऋषिशापेन तेनै 
अस्यासुत्पत्स्यते पुत्रो यस्य चीर्यात्पुमा न्किङ । 
४ भविता. स महापापी पुण्यवंशविनाशकः-॥ ८ ॥ 
गङ्गातोयेन सम्पूर्णः कुम्भ पवप्रदृश्यते। खुराया विन्डुनालिप्तो मधकुम्मः प्रजायसे 
पापस्य पापसंसर्गात्कुळं पापि प्रजायते | आरनालस्य वै विन्दुःक्षीरमध्ये प्रयातिं 
पश्चान्नाशयते क्षीरमात्मरूपं प्रकाशयेत्‌। तद्वद्विनाशयेद्वशं पापःपुत्रो न संशयः |¦ 
अनेनापि हि दोषेण तवेयं पापभागिनी । अन्यस्मै दीयतां गच्छ देवेरुक्तः पिताममुर 
देवैश्चापि सुगन्धर्वैक्रा षिभिश्च महात्मभिः। तैश्चापि सम्परित्यक्तःपिता मे दुःखपीमि 
ममान्ये चापि स्वीकार न कुर्वन्ति हि सञ्जनाः। , ! 


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एवं पापमयं राकतम्‌, 
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चतुस्त्रिशोऽध्यायः ] # सुनीथयासखींभित्र होन्द्रहराद्त्यानांदो षित्वचर्णनम्‌ # १५७ 


सन्ता दुःखशोकेन वनमेच समाश्रिता । तपएच चरिष्यामि करिष्ये कायशोषणम्‌॥ ` 


भवतीभिः सुंपृष्टाहं कार्यकारण मेच हि । मम चिन्तानुगं कर्म मयातद्वःप्रकाशितम्‌ ॥ 


एचसुक्त्वा सुनांथा सा सृत्योःकन्या .यशास्विनी । 
चिरराम च दुःखार्तां किञ्चिन्नोवाच वै पुनः ॥ १७॥ 
सख्य ऊच्चुः । 

दुःखमेव महाभागे त्यज कायघिनाशनम्‌। नास्ति कस्यकुळेदोषो देवेःपापंसमाश्रितम्‌ 
जिह्मसुक्त पुरा तेन ब्राह्मणा हरसन्षिधी । देवैश्चापि सहित्यक्तो ब्रह्मा पूञ्यतमोऽंभवत्‌ 

्रहमहत्याप्रयुक्तोऽसौ देवराजोऽपि पश्य भोः ` 
| देवैःसाधं महाभागो भुङ्क्ते लोकत्रयं महान ॥ २० ॥ 2 
शौतमस्य प्रियां भार्यामहल्यां गतचान्पुरा । परदाराभिगामी स देवत्वे परिचरत ॥ 
बरह्महत्योपमंकम दारुणं कृतवान्हरः । प्रह्मणस्तु कपालेन चाद्यापि परिचतेते ॥ २२ ॥ 
देवा नमन्ति तं देवम्रृषयो वेद्पारगाः। आदित्यःकुष्ठसंयुक्तस्त्रैलोक्यं च प्रकाशयेत्‌ ॥ 
झोका नमन्ति तं देवं देवाद्याःखचराचराः । छृष्णोमुडःक्त महाशापं भार्गवेण छतंपुरा 
ुरुभायागतश्वन्दःक्षयीतेन प्रजायते । भविष्यति महातेजा राजराजःप्रतापचान्‌ ॥२५॥ 
थाण्डुपुओो महाप्राज्ञो धर्मात्मा सयुधिष्ठिरः। गुरोश्चैव घधार्थाय अङतं स चदिष्यति 
| पतेष्वेच महत्पापं घतेते च महत्सु च। 
| चैशुण्यं कस्य वै नास्ति कस्य नास्ति च लाञ्छनम्‌ ॥ २७ ॥ - 
वैचती स्वल्पदोषेण बिलिसासिवरानने ॥ उपकारं करिष्यामस्तयैच वरवर्णिनि ॥२८॥ 
र तवाङ्गे ये गुणाःसन्ति सत्यस्जीणां यथाशुभे। ` 
५ अन्यत्रापि न पश्यामस्तान्गुणांश्वारुलोचने ॥ २६ ॥ 
शैपमेचगुणःस्रीणां प्रथमं भूषणं शुभे । शीळमेच द्वितीयं च तृतीयं च सत्यमेव च ॥ 
बाजेवत्वं चतुर्थ च पञ्चमं धर्ममेच हि । मधुरत्वं ततःप्रोक्त षष्ठमेव रात्ने ॥ ३१-॥ 
दित्वं सप्तमं बाले अन्तर्बाह्येषु योषिताम्‌ । अष्टमं हि पितुर्भावःशुध्रूषा नघमं किल ॥ 
हिष्णुदेशमंप्रोक्त रतिथ्वेकादशं तथा । पातिव्रत्यं तत:प्रोक्त द्वादशं वरवर्णिनि ॥३३॥ 
000 £20-।॥१णा ९1 8130 00-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


|... १०८ , . 7_. `. ऋपपुराणम्‌ # [ २ भूमिस 

ः तेस्त्वं सम्मूषिता बाळे मा विमेषि चरानने। येनोपायेन ते भरता भविष्यति सुध 

` तमुपायं प्रपश्यामस्तचाथं वयमेव हि । खस्थाभव मदाभागे मा त्वंच साहसं कु 
सूत उचाच । 

-एबसुक्ता सुनीथा सा पुनरूचे सखीस्तु ताः । कथयध्वं ममोपायं येनभर्ता भविष 

- सासूचुस्तावरानार्यो रम्भाद्याश्वारुलोचनाः । रूपमाधुर्यसंयुक्ता भवती भूतिषदिः 

ब्रह्मशापेन सम्भीता चयमत्र समागताः । विद्यामेकां प्रदास्यामःपुरुषाणां प्रमोह 

सर्वेमायाविदां भद्रे सर्वभद्रप्रदायिनीम्‌। विद्यावळं ततो दयुस्तस्ये ताःसुखदायर 

= यं यं मोहयितु भद्रे इच्छास्येचं सुरादिकम्‌ । ` | 

_ तं तं सद्यो मोहयाव इत्युक्ता खा तथाकरोत्‌ ॥ ४० ॥ | 

विद्यायां हि सुसिद्धायां सा सुनीथा सुनन्दिता । | 

भ्रमत्येचं सखीभिस्तु पुरुषान्सा विपश्यति ॥ ४१ ॥ + 

अरमाना गतापुण्यं नन्दनं वनमुत्तमम्‌ । गङ्गातीरे ततोहुष्ट्चा ध्राह्मणंरूपसंयुतः 

सर्वेलक्षणसम्पन्नं सूर्यंतेजःसमप्रभम्‌ । रूपेणाप्रतिमंलोके द्वितीयमिच मन्मथम्‌ 

देवरूपं महाभागं भाग्यवन्तं सुभाग्यदम्‌। अनोपम्यं महात्मानं चिष्णुतेजःसमप्रमध 

` चेष्णवं सत्रेपापध्नं विष्णुतुल्यपराक्रमम्‌। कामक्रोध विहीनं तम त्रिवंशविभूषणम्‌॥ 

दष्ट्वा खुरूपं तपसां खरूप॑ दिव्यप्रभाचं परितप्यमानम्‌। | 

हु पप्रच्छ रम्भां सुसखीं सरागा कोऽयं दिविष्ठः प्रवरो महात्मा ॥ ४६।| 

इतिश्रीपाद्मपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे चेनोपाख्याने चतुत्निशोऽध्यायः ॥ ३॥ 


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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ` | 
रम्भामुखादड्धवृत्त श्रुत्वा तदाप्ये सुनीथायानित्रयः | | 


हि रम्भोचाच । | 
अह्मा अव्यक्तसम्भूतस्तस्माजने प्रजापतिः । अत्रिन | 


>C-0. Mumukshu wan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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टूत्रिशोऽध्यायः 1 अ खुनीथयागानप्रभावादडुंबशीकरणम्‌ # १०६ -: 
मनाम अयं भद्रे नन्दनं वनमागतः । इन्द्रस्य सम्पदं द्रष्ट्या नानातेजस्समन्विताम्‌ - 
ऐकृतास्पृह्या अनेनापि इन्द्रस्य सद्वशेपदे । ईद्ृशो हि यदापुत्रो ममस्याद्धर्मसंयुतः ॥३॥ 
खुश्रेयो मे भवेज्जन्म यशःकीर्ति समन्वितम्‌ । आराधितो हृषीकेशस्तपो भिनियमैस्तथा 
प्सुप्रसन्ने हृषीकेशे घरं याचितचानयम्‌। इन्द्रस्य सद्शापुत्रं चिष्णुतेजःपराक्रमम्‌॥५ा। 
दषणं सर्वपापच्नं देहिमे मधुसूदन । दत्तवारस तदा पुत्रमीदुशं सचंधारकम्‌॥ ६॥ ` 
दाप्रभुति विप्रेन्द्रःपुण्यां कन्यां प्रपश्यति । यथा त्वं चारुसर्चाङ्गी तथा यं परिपश्यति 
'एनंगच्छ वरारोहे अस्मारपुत्रो भविष्यति । पुण्यात्मा पुण्यधर्मज्ञो विष्णुतेजःपराक्रमः 
एतत्ते खबैमाख्यातं यथाहं पृच्छिता त्वया । अयंभर्ता भवत्यहों भवेदेव न संशंयः ||ह, 
खुशद्ुस्यापि यःशापो बथा सोऽपि भविष्यति । ०: 
अस्माज्ञाते महाभागे पुत्रे धमे प्रचारिणि ॥ १० ॥ 
भविष्यसि सुखी भद्दे सत्यंसत्यं वदाम्यहम्‌ । सुक्षेत्रे कृषिकारस्तु वीडंवपति तत्परः 
भल. तथा झुञ्जते देवि यथाबीजं तथाफलम्‌ । अन्यथानैच जायेत तत्सवं सट्गशं भवेत्‌ | 
(भयमेष महाभागस्तपखी पुण्यचीयंचान्‌।. अस्य वीयांत्समुत्पन्नो अस्येच गुणसम्पदा 
थ्रुक्त:पुत्रो महातेजाःसवदेहभृतांघरः। भविष्यति महाभाग्यो युक्तात्मा योगतत्त्ववित्‌ 
॥ ` एवं हि वाक्यं तु निशम्य बाला रम्भाप्रियोक्त शिबदायकं तंत्‌। ` ` 
विचिन्त्यवुद्धयेह सुनीथया तदा तत्त्वार्थमेतत्परिसत्यमेच हि॥ १५॥ 
इति श्रीपाद्मपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने पञ्चनिशोऽध्यायः ॥३५॥ - 


षट्त्रिशोऽध्यायः 
fs: - सुनीथयागानग्रभावादङ्ग वशीकरणम्‌ । 
| : सुनीथोचाच । 2-2: ः 


पत्यमुक्तं त्वया भद्रे एवमेतत्करोम्यहम्‌ । अनयाचिद्यया चिग्रं.-मोहयिष्यांमि नान्यथा 
म MES MRE Se Mes Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 
>> 


" (५१७ . ` #पद्पुराणम्‌# . ५ ' [२ भूमिक्ष 


.. साहाय्यं देहि मे पुण्यं येन गच्छामिसाम्प्रम्‌। . : .. "| 

_. _. . एंचंमुक्ता तया सम्मा तामुवाच मनस्विनीम_॥ २ ॥ | 

कीहृग्ददामि साहाय्यं तत्त्वं कथय भामिनि । दूतत्वं ग व्छमे भद्रे पतंप्रति सुसास 

एवमुक्तं तया तां तु रम्भांप्रति खुळोचनाम्‌। एवमेव प्र तिज्ञातं रम्भयादेवयो षिता || 

करिष्ये तव साहाय्यमादेशो मम दीयताम्‌ । सद्भावेन विशालाक्षी रूपयौवनशाहि 

. मायया दिव्यरूपां सा सम्वभूच वरानना । रूपेणाप्रतिमालोके मोहयन्ती जगत्त्रया, 

मेरोश्चैव महापुण्ये शिखरे चारुकन्द्रे। नानाधातुलमाकीणें नानरलोपशो मिते 

दववृश्ःसमाकीर्णे बहुपुष्पोपशोमिते । देववून्दसमाकीर्ण गन्धर्चाप्सरसेविते। 

मनोहरे सुरम्ये च शीतच्छायासमाकुछे । चन्दनानामशोकानां तरूणां चारुहारि, 

'दोछायां सा समारूढा सवेश्टङ्घारशो भिता । कौशेयेन सुनीलेन राजमाना वरानद, 

अन्धुकपुष्पवर्णेन कज्चुकेन द्विजोत्तमाः । सर्वाङ्गसुन्द्री बाला वीणातालकरापिद; 

गायमाना घरंगीतं सुस्वर विश्वमोहनम्‌। ताभिःपरिद्वृतावाला सखीभि सुमनोहरं 

अङ्कस्तु कन्दरे पुण्ये एकान्ते ध्यानमास्थितः । 

कामकोधविहीनस्तु ध्यायमानो जनादंनम्‌॥ १३ ॥ 

स श्चत्वा सुस्वरंगीतं मधुरं खुमनोहरम्‌। ताळमान क्रियोपेतं सर्वंखत्वविक्षेणम्‌ ॥; 

ध्यानाच्चचाळ.तेजखी मायागीतेन मोहितः । समुत्थायासनात्तूणं घीक्षमाणो सुहु 

जगाम तत्रवेगेन मायाचलित मानसः । दोलासंखां विलोक्यैच बीणादण्डकराषिं 

समानां सुगायन्तीं पूर्णचन्द्रनिभातनाम्‌। मोहितस्तेन गीतेन रूपेणापि महाम 

| स्तस्यालाचण्यभावेनं मन्मथस्य शाराहतः । आंकुळंव्याकुलज्ञानभरषिपुत्रो जि 

प्रलपत्यतिमोहेन जुम्भते च पुनः पुनः । | 

स्वेदःकम्पो$थ सन्तांपस्तस्याजायत तत्क्षणात्‌ ॥ १६॥ + 

सुह्यन्निष महामो हैरर्लानश्चलितसानसः । वेपमानस्ततस्त्वङ्गो 'दूयमानःसमागतः [१ 
तामालोक्य चिशालाक्षीं,सुत्युकन्यां यशस्विनीम्‌ । 

अथोवाच :मदात्मास सुनीथां : चारुदासिनीम्‌॥ २१ | 


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िशोऽच्यांय ] + अङगुनीथयो्गान्धविबाइः $ . “हरर 


कका त्वं कस्य वरारोहे सखी भिःपरिवा रित । केनकार्येण सम्पाप्ता केनत्वं प्रेषिताचनम्‌ . 


तवाङ्गं सुन्दर. संबमत्रभाति महाचने |. समाचक्ष्व ममाद्येव प्रसादसुमुखीभव ॥२३॥ 

शमायामोहेन सम्मुधास्तस्याःकर्म न विन्द्ति! मार्गणैर्मन्मयस्यापिं परिविद्धोमहासुनिः 

| एवंविधं महद्वाक्यं समाकर्ण्य महामनेः | 

रि 'नोवाच किञ्चित्सा विप्रं समालोक्य सखीटुखम्‌॥ २५॥ | 

प्रभा च प्रेरयामास सुनीथां संज्ञया सखीम्‌। समुवाच ततो रम्भा सादरं: तं द्विजंप्रति 
। इयंकन्या महाभागा सत्योग्यापि महात्मनः | 7 याक 


| | = ९ ८ ‘= ^ 
सुनीथाख्या'प्रसिद्धेयं सर्चलक्षणसम्पदा ॥ २७ 


सिति तेमन्विच्छतींचालां धर्मचन्तं तपोनिधिम्‌ । शान्तं दान्तं महाप्राज्ञ वेदविद्यचिशारदम्‌ ` 


सविधं महद्वाक्यं समाकर्ण्य महामुनिः । तामुवाच ततस्त्वङ्गो 
खर्‍या चाराधितो चिष्णुःसर्व विश्वमयो हरिः । तेन दत्तो वरोमहां पुत्राख्यःसर्वसि द्विदः 
लन्निमित्तमहं भत्रे सुतार्थं नित्यमेच च ।. कस्यचित्पुण्यचीर्यस्य कन्यामेकां प्रचिन्तये 
सदेवाहं न पश्यामि सुभार्या' सत्यमीद्वशीम्‌ । इयंघर्मस्य बै कन्या धर्माचारा वरानना 
परमेवं हि भजत्वेषा यदि कान्तमिहेच्छति | य॑ यमिच्छेदियंचाळा तं ददामि न संशयः 
प्रदेयं देय मित्याह अस्याःसङ्गमकारणांत्‌। एकमेच त्वयादेयं रम्भोचाच द्विजोत्तमम्‌ ॥ 
ह. ` चिमेन्द्र त्वं श्णुष्वेह प्रतिज्ञांवच्मि साम्प्रतम्‌ । 

| एघानेव त्वया त्याज्या धर्मपली तवैच हि ॥ ३५॥ 
झस्यादोषो.शुणोनेच आहा एवत्वया कदा । इत्यर्थ त्ययं चिप्र प्रत्यक्षं परिदुर्शय ॥ 
पलहस्तं देहि चिम्रेन्द सत्यप्रत्ययकारकम्‌ । एवमस्तु मयादत्तो ह्यस्याहस्तो न संशयः 
| | सूत उवाच । 26: 
बंसम्वन्थक कत्वा सत्यप्रत्ययकारकप्त्‌ | गान्धर्वेण विवाहेन सुनीथामुपयेमिचान्‌ ॥ 
[स्मैदत्वा सुनीथां तां रम्भा हृष्टेनचेतसा। सा तां चामन्त्रयित्वा वे गतासेहं खकंपुनः 
हश्येवसःसख्यास्यशानं परिजग्मिरे । गतासु ता छु सर्वासु सलीषु द्विजसत्तमः ॥ 
मे ्वज्गस्तयासा प्रिययासार्यया सह । तस्यामुत्पाद्य तनयं 'सवेलक्षणसंयुतम्‌ 


| 215 20061: 20020 Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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धर |: र ११२ र अ पद्मपुराणम्‌ ॐ [३ भूमिद 
दु चकार नामतस्यैव वेनाख्यं तनयस्य 'हि । घत्चघे समहा।तेजाःसुनीथातनयस्तदा |; 
. ब्वेदशाल्ममधीत्यैव धबुर्वदं शुणान्वितम्‌। सर्वासामपि मेधावी चिद्यानां पारमेफि 
तनयोवेनःशिष्टाचारैणवतंते । स वेनो ब्राह्मणश्रेष्ठ क्षत्राचारपरोऽभक 
र, दिविचेन्द्रो यथाभाति सर्वतेजःसमन्वितः । भात्येवं तु महापाश स्ववलेन पराक्रो 
चाश्चुषस्यान्तरेप्राप्ते चैवस्वतसमागते । प्रजापाळं विनाळोके प्रजा सीदन्ति सके 
ऋषयो घमंतत्त्वज्ञाःप्रजाहेतोस्तपो घना: । | 
व्यचिन्तयन्महीपाळं धमेज्ञं सत्यपण्डितम्‌ ॥ ४७ ॥ | 
त॑वेनमेच दहुशुःसम्पन्न॑ लक्षणे युतम्‌। प्राजापत्ये पईपुण्ये अभ्यषिश्चर्दरिजोत्तम 
. -अभिषिक्ते महाभागे त्वङ्गपुत्रे तदा ट॒पे । ते प्रजापतयःसव जग्सुश्च॑च तपोचनम्‌॥; 
ला गतेपु तेषु सर्वेषु वेनो राज्यमकारयत्‌ । । 
सा सुनीथा सुतंद्वष्ट्घा . सवराज्यप्रसाधकम्‌ ॥ ५० ॥ त 
विशङ्कते प्रभावेण शापात्तस्य महात्मनः । ममपुत्रो महाभागो धर्मत्राता भविर्ष्या 
इत्येवं चिन्तयेन्नित्यं पूर्वपापाङ्विशङ्किता । धर्माङ्गानि सुपुण्यानि सुतात्रे परिक 
सत्यभावादिकान्पुण्यान्गुणान्सा वै प्रकाशयेत्‌ । र 
इत्युवाच सुतं सा हि अहं धमता सुत ॥ ५३.॥ | 
पिता ते धर्मतत्त्वज्स्तस्मादवम समाचर । इत्येवं वोधयेग्नित्यं पुत्रवेनं तदा स 
मातापित्रोस्तयोर्वाक्यं प्रजायुक्तं प्रपाटयेत्‌। पवंवेनःप्रजापालःसञ्जातःक्षितिमप्कू 
सुखेन जीवते लोकःप्रजाधर्मेण रञ्जिताः । एवं राज्यप्रभाचं तु वेनस्यापि महात्ता/ 
: धर्मेभावाःप्रचतेन्ते तस्मिञ्छाखति पार्थिवे ॥ ५७॥ 
इति श्रीपाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने षट्त्रिशोऽध्यायः ॥३९॥ 


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यी तिजो 

र सपरत्रिंशोऽध्यायः 

वेनस्य छञ्मलिङ्गधारिणापुरुषेणसह संत्रादः । 
ऋषयऊचः | 


` ३ शु ७ 


(वचनस्य चेवासीत्सष्टिरेच महात्मनः । धर्माचारं परित्यज्य कथं पापमतिभेवेत्‌॥ 


सूतउवाच । 
मानविज्ञानसंघन्ना सुनयस्तत्त्ववेदिनः । शुभाशुभं वदन्त्येवं तन्नस्यादिह चान्यंथा ॥२॥| 
॥प्यसानेन तेनापि सुशङ्कन महात्मना । दृत्तःशापःकथं घिप्रा न यथावञ्चजायते ॥ 
[नस्य पातकाचार. सवमेच घदाम्यहम्‌। तस्मिञ्छासति धर्मज्ञे प्रजापाले महात्मनि 
रुषः कश्चिदायातश्छसलिङ्ग धरस्तदा । नझरूपो महाकाय शिरोझुण्डो महाप्रभः ॥ 
| मार्जनी शिखिपत्राणां कक्षायां ख हि धारयन । 
| गृहीतं पानपात्रं तु नालिकेरमयंकरे ॥ ६ ॥ 
ठमानोह्यखच्छास्त्र वेदधमं विदूषकम्‌ । यत्र चेनोमहाराजस्तत्रायातस्त्वरा न्चितः ॥ 
| सभायां तस्य वेनस्य प्रविवेश स पापचान्‌। 
पात तं दृष्ट्या. समजुप्राप्तं वेनः प्रश्‍न तदाऽकरोत्‌ ॥ ८॥ न 
इचान्को हि समायात इंद्रश्र्पघरो मम | सभायां वर्तमानस्य पुरः कस्मात्समागतः 
म को वेषः किन्तु ते नाम को धर्मः कर्म ते बद्‌ । 
| को वेदस्ते कः आचारः किंतपः का प्रभावना ॥ १० ॥ 


६ ज्ञानं कःप्रभावस्तै कि सत्यंधर्मेलक्षणम्‌। तत्त्वं सच समाचक्ष्व ममाग्रेसत्यमेच च | 


त्वा वेनस्य तद्वाक्यं पापो वाक्यमुदाहरत्‌। करोष्येवं वृथा राज्यमहामूढो नसंशय 
“३ घमंस्यसवस्वमइपूज्यतमस्खुर: । अहं ज्ञानमहंसत्यमहं धाता सनातह्नः॥ १३ ॥ 
इ घमे अहं मोक्षः सर्वदेचमयो ह्याहम्‌। ब्रहमदेहात्समुद्भूतः सत्यसन्धो 5स्मिनान्यथा 
खि बिजानी.हे सत्यघर्मकलेघरम्‌। मामेव हि प्रधावन्ति योगिनो ज्ञानतत्परा || 


€--- CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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का ११४ हट कै पद्मपुराणम्‌ # [ २ भूमिस 
; चेन उवाच | 

तवेच की दुशं कमे कि ते दशेनमेव च! किमात्रारो चदस्वेहि इत्युक्तं तेन भूभुञ. 

पातक उवांच। 


अईन्तो देवता यत्र 'निग्रेन्थो दूश्यते शुरुः। दयाचव परोघमेस्तत्र मोक्षः प्रदृश्ये 
¬ दर्शनेऽस्मिन्नसन्देह आचारान्प्रवदाम्यहम्‌ । यजन याजनं नास्ति वेदाध्ययनमेव २ 
नास्ति सन्ध्या तपो दानं स्वधास्वाहाविवर्जितम्‌। ` 1 
हच्यकव्यादिकं नास्ति नेव यज्ञादिकाक्रिया ॥ १६ ॥ त 
'पित'णां तर्पणं नास्ति दातिथिवैंश्वरेविकय्‌ । क्षपणस्य वरापूजा अहतो ध्यानमुत्तत 
अयं धर्मरामाचारो जैनमार्गे प्रदृश्यते । एतत्ते सर्वेमाख्यातं निजधमस्य लक्षणा 
त _ चेत उवाच | 
वेदप्रोक्तो यथा धमो यत्र यज्ञा दिकाःक्रियाः | दत्‌ गां तपेणं श्राद्धं वेश्वदेवं नह 
न दानं तप एवास्ति कास्ते घमेल्यलक्षणम्‌ । वद्‌ सत्यं ममाग्रे तु द्याधमंश्च कीह 
पातक उवाच । ग्र 
पश्चतत्त्वप्रवृद्धो5यं प्राणिनां काय एच च । आत्मावायुस्वरू पोऽयंतेषांना स्तिप्रसुए 
यथा जलेषु भूतानामपि सङ्गमवेहि तत्‌ । जायते वुद्वुदाकारं तद्वदसूतसमागः 
पृथ्चीभावो रजःस्थस्तु चापस्तत्रैव संस्थिताः । ज्योतिस्तत्र प्रदृश्येतसुचायुवेतते। 
आकाशमाबणोत्पश्चादुवुदुवुदत्वे प्रजायते । अप्छु मध्ये प्रभात्येच सुतेजो वतुळ 
क्षणमात्रं प्रदृश्येत क्षणान्नैच च इश्यते । तद॒दुभूतसमायोग: -सर्वेच परिदृश्य 
` अन्तकाले प्रयात्यात्मा, पञ्चपश्वसुयान्तिते । मोहमुग्धास्ततो मर्त्या चतेन्तेः चपरस 
शराद्धकुचेर्ति मोहेन क्षयाहे पितृतर्पणम्‌ । कास्तेसृतःसमश्ना तिकीद्वशोसौतपोरि 
किज्ञानं ` कीदूशं कार्य वेनदृष्टं ददस्व नः। ... . ` । 
मिष्टान्न भोजयित्वा च तृप्ताया न्त च ब्राह्मणाः॥ ३१॥ `` | 
कस्य श्राद्धं पदीयेत. सा तु श्रद्धा £रथिका। 'अन्यदेअं प्रचक्यामि वेदानांकमेदाश 
यंदाऽतिथिय हे याति महोक्षं पचते. द्विजः अजे घा राजराजेन्द्र अति 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| सप्तजिशो5ध्योयः ] # वेनस्य पापपुरुषेणसहसंचादः # 038 २५५ : 


अश्वमेधमखे अश्वं गोमेथे वृषमेव च.! नरमेघेनर राजन्वाजपेये तथाह्यजान्‌ ॥ ३४ ॥ 
गेराजसूये महाराज प्राणिनां घातनं बहु । पुण्डरीके गजंहन्यादगजमेघेऽथ कुञ्जरम्‌ ॥ 
सौचामण्यां पशु' मेध्यं मेषमेव द्दश्यते । नानारूपेषु सर्वेषु श्रयतां टपनन्दनः ॥ 
प,  नानाजातिविशेषाणां . पशूनां ` घातनं स्सृतम्‌ । 
१ ` यच्चापि दीयते दानं किंतद्दानस्य लक्षणम्‌ ॥ ३७॥ । 
ज्ञेयं तदन्नसुच्छिरं क्रियते भूरिभोजनम्‌। अत्यन्तदोषहीनांस्तान्दिसन्ति यन्महामखे 
तत्र कि इश्यते धेः कि फळं तत्र भूपते | पशूनां . मारणं यत्र निर्दिष्ठवेदपण्डितै; ॥ 
सतस्माङ्विनष्टघमे च न पुण्यं मोश्चद्दायकम्‌ । दयांचिना हि योधर्मेः स धर्मोचिफलायते 
गजञीचानां पालन यत्र तत्र धर्मो न संशय: । स्वाहाकार: स्वधाकारस्तपःसत्यं नृपोत्तम 
| दयाहीनं चापलं स्यान्नास्ति धमेस्तु : तत्र हि। 
र्‌ एते वेदा न वेदास्युः दया यत्र न विद्यते ॥ ४२॥ 
हयादानपरो नित्यं जीवमेव प्ररक्षयेत्‌ । चाण्डालोऽप्यथशूट्रो वा ख वै ब्राह्मणडच्यते 
आह्मणो नियो योवै पशुघातपरायणः । स बै सुनिर्द्‌य: . पापे कठिन: क्ररचेतन: ॥ 
शवक: कथितो वेदो योवेदो ज्ञानवजितः। यत्र ज्ञानं भवे न्नित्यं तत्र वेदः प्रतिष्ठते ॥ 
हेयाहीनेषु वेदेषु विप्रेषु च महामते | नास्ति सत्यं क्रिया तत्र वेद्विप्रेषु चै तदा ॥ 


तो वेदा न चेदा राजेन्द्र ब्राह्मणाः सत्यवर्जिताः । 

| दानस्यापि फलं*नास्ति तस्माद्दानं न दीयते ॥ ४७॥ 
यं यथा श्राद्धस्य वे चिह्न तथा दानस्य लक्षणम्‌ । 

स जिनस्यापि च यद्धमे- सुक्रिसु क्तिप्रदायकम्‌ ॥ ४८॥ 


वाम्रेऽदं प्रवक्ष्यामि वडुपुण्यग्रदायकम्‌। आदौ दया प्रकतेच्या शान्तभूतेन चेतसा ॥ ` 
॥राधयेद्ध्वतादेवं जितं येन. चराचरम्‌। मनसा शुद्धभावेन जिनमेकं प्रपूजयेत्‌ ॥ 
नमस्कारः प्रकतेव्यस्तस्य देवस्य 'नान्यथा । 
. माता पित्रोस्तु वै पादौ कदा नैव प्रचन्द्येत्‌ ॥ ५१ ॥ 
.. अन्येषामपि का वार्ता श्रूयतां राजसत्तमः ॥ ५२॥ | 


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00६ | कपदमपुराणम्‌क- ` __ [२ भूमिर 


चेन उवाच । 
- एते विप्राश्च आचार्या गङ्गाद्याः सरितस्तथा । घद्न्ति पुण्यतीर्थानि बहुपुण्यप्रद| 
र तत्कि घदस्व सत्यं मे यदि धमं मिहेच्छसि ॥ ५३ ॥ त 
पातक उवाच । गर 


` आकाशाह महाराज मेघा वर्षन्ति वे जलम्‌। भूमी हि पर्वतेष्वेचं स्त्र पतते ङ 
सआप्लान्य ततस्तिए्ठेइयां सर्वत्र भावयेत्‌ । नद्यः पापप्रचाहास्तुतासुतीथं श्रुतं ६ 
जलाशया महाराज तडागाः सागरास्तथा । पृथिव्या धारकाश्चेच गिरयो अश्रा 
नास्त्येतेषु च वै तीर्थ जलैजेलदमुत्तमम्‌। स्नाने यदा महत्पुण्यं कस्मान्मत्स्येषु के 

-दृष्टास्नानेन चै सिद्धिमींनाः शुद्धध न्तिनान्यथा । यत्रजिनस्तत्र तीर्थ तत्र घमे:सर्न 
तपोदानादिकं सर्व पुण्यं तत्र प्रतिष्डितम्‌॥ ५६॥ F 
एको जिनः सर्वमयो नरेन्द्र नास्त्येव धमं परमं हि तीर्थम्‌ । 
अयं तु लाभः परमस्तु तस्माद्वयायस्व नित्यं सुसुखो भविष्यसि ॥ ६ 
चिनिन्द्य धमं सकलं सवेद दानं सपुण्यं परयज्ञरूपम्‌ । 
पापस्वभावैबेहुवोधितो नृपस्त्वङ्गस्य पुत्रो सुचि तेन पापिना ॥ ६१॥ 

इति श्रीपापुराणे पश्चपश्चाशत्सहरू.सं.हतार्‍यां द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपार 
` सपत्रिशोऽध्यायः॥ ३७॥ 


ग 

न 
अष्टत्रिंशो ऽध्यायः ॥ 
वेनस्यवेदिकधरमकर्मपरित्याग; | 
सूत उचाच । | 


एवं सग्बोधितो वेनः पापभावं गतः किल । पुरुषेण तेन जैनेन महापापेन मोहिं 
नमस्कृत्य ततः पादौ तस्यैव च दुरात्मनः । वेद्धम परित्यज्य सत्यधर्मादिकांओ 


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शटजिशो5ध्याय: ]  *% ऋषीणां वेनननिराद्रकरणम्‌ # ११७. 
/. सुयज्ञानां निवृत्तिः स्याद्वेदानां हि तथैव च । 
दा पुण्यशास्त्रमयो धर्मेस्तदा नैव प्रवर्तित: ॥ ३ ॥ . । 
लर्वेपापमयो लोकः सञ्जातस्तस्यशासनात्‌ । नैवयागाश्च चेदाश्च धघर्मशास्त्रार्थमुत्तमंम्‌ ` 
ह दानाध्ययनं चिप्रास्तस्मिञ्छासति पार्थिवे। एवं घममंप्रलोपोऽसून्महत्पापं प्रवर्तितम. . 
केजिन चायमाणस्तु अन्यथा कुरुते भुशप्‌ | न ननाम पितुः पादौ मातुञ्चैच दुरात्मचान, . 
ह सनकस्यापिविप्रस्य अहमेकः प्रतापचान्‌ । 
रा पित्रा निचायमाणश्च मात्राचैव दुरात्मवान्‌ ॥७॥ . | ; 
क्ष करोति शुभं पुण्यं तीथेदानादिक कदा । आत्ममावानुरूपं च बहुकालं महायशाः ^ 
चः सर्वेबिचायैंचं कस्मात्पापी व्यजायत। अङ्गप्रजापतेः पुत्रो वंशलाञ्छनमागत: ॥ 
[नःपप्रच्छ घमात्मा खुतां खत्योमेहात्मनः । कस्यदोषात्समुत्पन्नो चद्‌ सत्यं ममप्िये 
सुनीथोचाच । 
[वमेव स्वव्ृत्तान्तमात्मपुण्यं च नन्दिनी | समाचष्ट च अङ्गाय मम दोषान्महामते ॥ 
गल्येकृतं मयापापं सुशङ्कस्यमहातमनः। तपसिसं स्थितस्यापि नान्यत्किञ्चित्ङृतंमया 
पाह कुप्यता तेन दुष्टा ते सत्ततिभवेत्‌ । इति जाने महाभाग तेनायं दुष्टतां गतः॥ 
समाकण्य महातेजास्तयासह वनं ययौ । 
गते तस्मिन्महाभागे सभार्ये च चने तदा ॥ १४॥ 
बत ते ऋषयस्तत्र वेनपाश्व॑ गतास्तथा । समाहय ततः प्रोचुरङ्गस्य तनयं प्रति ॥१५॥ 
॥ वेनसाहसं कार्षो: प्रजापालोभवानिह । त्वयासवे मिदं लोकं तैलोक्यं सचराचरम्‌ 
मि चेव महाभाग सकल हि प्रतिष्ठितम्‌ । पापकमं परित्यज्य पुण्यं कमे समाचर ॥ 
'वमुक्तेषु तेष्वेच प्रहसन्त्राक्यमत्रवीत्‌ । अहमेचपरो धर्मोऽहमेचाहः सनातन: ॥ १८ ॥ 
एं घाता अहं गोप्ता अहं वेदार्थ एव च । अहं धर्मो महापुण्यो जैनधमेः. सनातनः ॥ 
मामेच कमणा विप्रा भजध्वं धमेरूपिणम्‌ ॥ २० ॥ 
| ऋषय ऊचु 
णाः कषत्रिया वैश्याख्रयो घर्णा द्विजातयः । सर्वेषामेच घर्णानां श्चतिरेषासनातनी 


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CR कछ तत 72७. 
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. ` घेदाचारेण वर्तन्ते तेन जीवन्ति जन्तबः । व्रहावंशात्समुदुभूतो भवान्त्राह्मण एव रप 
पश्चाद्वांजा पृथिव्याश्च सञ्जातः इतविक्रमः। `` 


राजपुण्येन राजेन्द्र सुखं जीचन्ति वे द्विजाः ॥ २३॥ ` | 

राज: पापेन नश्यन्ति तस्मात्पुण्यं समाचर । समाद्वतस्त्वया धेः कृतश्वापि नरा 

त्रेतायुगस्य कर्मापि द्वापरस्य तथा नहि । कलेश्चैव प्रवेशं तु चत्तंयिष्यन्ति मार 

जैनधर्म समाश्रित्य सर्वे पापप्रमोहिंताः। वेदाचारं परित्यज्य पापं यास्यन्ति माक 

पापस्य मूलमेवं वै जैनधर्मो न संशयः । अनेन सुग्धा राजेन्द्र महामोहेन पातिता 

मानचाः पापसङ्कातास्तेषां नाशाय नान्यथा । | 

भविष्यत्येव गोविन्दः सर्वपापापहारकः ॥ २८ ॥ | 

_ स्वेच्छारूपं समासाद्य संहरिष्यति पातकात्‌। पापेषु सङ्गतेष्वेचं स्लेच्छनाशाय वै 
कहिकरेच स्वयं देवो भविष्यति न संशयः ॥ २६ ॥ 

व्यवहार कलेश्चैव त्यज पुण्यं समाश्रय । वर्तेयस्व हि सत्येन प्रजापालो भवस्व 

चेन उवाच | 

अहं ज्ञानवतां श्रेष्ठः सवं ज्ञातं मया इह | योऽन्यथा वर्तंते चैव स दण्ड्यो भवतिष्ल 

अत्यथं भाषमाणं तं राजानं पापचेतनम्‌। कुपितास्ते महात्मानः सर्वे चे ्रह्मणःसुर 

कुपितेष्वेच विप्रेथु वेनो राजा महात्मसु । A 

ब्रह्मशापभयात्तेषां घहमीक प्रविवेश ह ॥ ३३॥ | 

अथ ते सुनयः क्रुद्धा वेनं पश्णन्तिसवेतः । ज्ञात्वा प्रनष्टं भूपं तं वल्मीकस्थं सुसाग! 

बलादानिन्युस्तं विग्राः कूरं तं पापचेतनम्‌ । इष्ट्या च पापकर्माणं सुनयःसुसमाहिं 

सव्यं पाणि ममन्थुस्ते भूपस्य जातमन्ययः। - | 

तस्माज्जातो महाहस्वो नीलवर्णो भयङ्कर; ॥ ३६ ॥ | ॥ 

बबेरो रक्तनेत्रस्तु वाणपाणिर्घनुद्धरः । सर्वेषामेष पापानां निषादानां बभूचह ॥ भ 

घाता पालयिता राजा म्लेच्छानां तु विशेषतः । तं हृष्ट्चा पाप॒कर्माणसुषयस्तुमह 

ममन्थुदेणिणंपाणि घेनस्यापिमहात्मन: । तस्माज्जातोमहात्मा स येन दुग्धावसुन 


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क... 
णिफनचत्वा रिंशों धध्यायः ] # रेवातीरे वेनस्यतपस्य़ाक्ररणम्‌ # `. शह. 
पैपृथुर्नाम महाप्राज्ञो राजराजोमहावलः । तस्य पुण्यप्रसादाच्च वेनो: धर्माथको [दः ॥ - 


चक्रवर्तिपद॑ भुक्तवा प्रसादात्तस्य चक्रिण: | जगाम वैष्णव लोक तद्विष्णो:परपंपंदम्‌ . 
इति थ्रीपाद्यपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनो याख्यानेऽष्टात्रिशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥ 


1h >>. 
रे 
है ऊन चत्वारिंशो ऽध्यायः 
| रेवातीरे वेनस्यतपस्याकरणम्‌ । 
| ऋषय ऊचुः । 
[कथं वेनो गतः स्वर्ग पापंत्यत्तवा प्रदूरतः। तन्नो विस्तरतोऽत्रापि वद्‌ सत्यचतां बरी! ` 
सूत उचाच | 


शऱिर्षीणांपुण्यसंतर्गात्संवादाच्चद्विजोत्तमाः । कायस्यमथनात्पापोवहिस्तस्यवि निर्गत 
| पश्चाह्वेनः स पुण्यात्मा ज्ञानं लेमे च शाश्वतम्‌ । 
प्र रेवाया दक्षिणे कुळे तपश्चार स डिजाः ॥ ३॥ 
सुण विन्दोतर घेथ्वेन आश्रमे पापनाशने । घर्घाणां तु शतं साग्रं कामक्रोध विवजितः ॥ 
तस्योग्रतपसा देव: शङ्खचक्रगदाधरः । प्रसन्नोऽभून्महाभागो निष्पापस्य नृपस्य वे 
उचाच च प्रसन्नोऽस्मि न्रियतां चर उ तमः ॥ ५॥ 
वेन उचाच। 


५ 
है यदि देव प्रसन्नोऽसि दे हे मे वरमुत्तमम्‌ । 

| अनेनापि शरीरेण गन्तुमिच्छामि त्वत्पदम्‌ ॥ ६ ॥ 
पित्रासाधं महाभाग मात्रा चेच सुरेश्वर । तवैव तेजसा देव तद्विष्णोः परमं पदम ॥ 
१ श्रीवासुदेव उचाच । 
| क्च गतोऽसौ महामोहो येन त्वँ मोहितो नृप । कछ 


` छोमेनमोदयुक्तेन तमोमार्ग निपातितः ॥.८ ॥ 


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१ i १२० i : कै पुराणम्‌ ॐ EE) 
कर 3 वेन उवाच । 
: अन्मे पूर्वकृतं पापं तेनाहं मो हितो विभो । अतो मामुद्धरास्मात्त्व पापाच्चेच सुदास 
प्रजप्तव्यमथो पाठ्यं तद्दालुग्रहाद्विभो ॥ १० ॥ 

__ भगवानुवाच । | 
साधु भूप महाभाग पापं ते नाशमागतम्‌ | र्‌ 
शुद्धो$सि तपसा च त्वं तत: पुण्यं वदाम्यहम्‌ ॥ ११ ॥ 

पुरा वै ब्रह्मणा तात पृष्टोऽहं भवता यथा । तस्मै यडु'देतं घत्स तत्ते खचं चदाम्य 
एक्तदा ब्रह्मणा ध्यानस्थितिन नाभिपङ्कजे । प्रादुरास ददा तस्य वरदानाय सुचत || 
_ तेन पृष्टं महत्पुण्यं स्तोत्रं पापप्रणाशनम्‌ । वासुदेचाभिधानं च सुगतिप्रदमिच्छत/ 
स्तोत्राणां परमं तस्मै वाखुदेवामिघं महंत्‌। सर्वसौ ख्यप्रदं नुणां पठतां जपतां सद्‌ 
उपादिशं महाभाग चिष्णुप्रीतिकरं परम्‌॥ १५॥ ३ 
चिष्णरुचाच । र 
एतत्सवं जगद्वयाप्तं मया त्वव्यक्तप्रूतिना । अतो मां मुनयः प्राहुविष्णुं विष्णुपरायभ्र 
घसन्ति यत्र भूतानि वसत्येघु च यो विभुः । स थारु देशे विज्ञेयो चिद्ठ द्विस्हमादशर 
सङ्कषेति प्रजाश्चान्ते हा्व्यक्ताय यतो विः | ततः सङ्कर्षणो नाम्ना विज्ेयः शरणागत 
इङ्गिते कामरूपो5हं वहुस्यामिति काम्यया । च 
. प्रद्युम्नो5ह घुभरस्तरुमाद्वि्ञेयोऽस्मि सुदाथिमिः ॥ १६ ॥ | 
'अत्र लोके विनाचेशौ सर्वेशौ हरकेशवौ । निरुद्धोऽहं योगबलाचकेनातो 5निरुद्धवत 
विश्वाख्योऽहं प्रतिजगज्ज्ञानविज्ञानसंयुतः | अहमित्यभिमानी च जाग्रञ्चिन्तासमाइत 
तेजसो5हं जगच्चेष्ठामयश्वे न्द्रियरूपचान । ज्ञानकर्ससमुद्रिक्तः स्घप्राचस्थां गतोह आर 
प्राज्ञो 5हमघिदेवात्मा विश्वाधिष्ठानगोचरः । 
सुषुप्तावास्थितो लोकादुदासीनो चिक ब्पितः ॥ २३ 
तुरीयोऽहं निवकारी गुणावस्थाविवर्जितः । निर्छितः साशिवजिल्वयतिबिस्धि 
चिदाभास श्चिदानन्दश्चिन्मयश्चित्स्वरूपचान्‌। ` 


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“बत 4 


७ ऊनचत्वारिंशोऽध्यायः ] # दानमाहात्म्यचर्णनम्‌ # रे कक ड १२१. 
नित्योऽक्षरो ब्रह्मरूपो बरहमन्नेचमवे हि.माम्‌॥ २५॥ .' कै 
भगवानुवाच । 
इत्युक्त्वा5न्तदेघे विष्णुः स्वरूपं उह्मणे पुरा । 
सो५.पे ज्ञात्वा जगद्वयासि तात्मा समभूत्क्षणात्‌ ॥ २६ ॥ 
राजंस्त्वमपि शद्धात्मा पृथोजेन्मन एच च। तथाप्याराधय विभं स्तोत्रेणानेन सुत्त 
तुष्टो विष्णुस्तमभ्याह घरं घरय मानद ॥ २८ ॥ 


| चेन उचाच । 
19 खुगति देहि मे विष्णो दुष्छतात्तारयस्च माम्‌ । FP 
त शरणं त्वाँ प्रप्नोऽस्मि कारणं चद्‌ सद्गतेः ॥ २६ ॥ : 
र! विष्णुरुवाच । 


रॅचेमेच महाभाग त्वड्जेनापि महात्मना । अहमाराधितस्तेन तस्मै दत्तो घरो मया ॥ 
प्यास्यसि महाभाग वैष्णवं लोकमुत्तमम्‌ । कर्मणा स्वेन विरेन्द्र पुण्येन नृपनन्दन ॥ 
'भात्माथ त्व महाभाग बरमेव प्रयाचय । श्एणु वेन महाभाग वृत्तान्तं पूर्वसम्भचम्‌॥ 
च मात्रे पुरा दत्तः शापः क्रुद्धेन भूपते । सुराङ्गन सुनीथाय वाल्ये पूर्व महात्मना ॥ 
गेतस्त्वड वरो दत्तो मयेच विदितात्मना । त्वां समुद्ध्तुकामेन सुपुत्रस्ते भविष्यति ॥ 
चसुक्त्वा तु पितरं तवाहं शुणवत्सल । भवदङ्गात्ससुदभूतः करिष्ये लोकपालनम्‌ ॥ 
| दितीन्द्रो हि यथा भाति तथाहं भूतलेखितः । 
त्‌ आत्मा वे 'जायते पुत्र इति सत्यवती श्च तिः ॥ ३६ ॥ 
त्त्वं सुगति वत्स लभिष्यसि वरान्मम । गत्यर्थमात्मनो राजन्दानमेकं समाचर ॥ 
स्त्वां पातकरूपोऽहं सुनीथायाः परन्तप । अत्र चं नम्नरूपेण कतु त्वां तु -चि धम गम्‌ 
न्यथा तु सुशङ्कस्य बाक्यमेचान्यथा भवेत्‌ । अतो विधिनिषेधश्च हाहमेव नृपोत्तम 
माडुरूपफळदो वुद्धयतीतो शुणाग्रहः। दानमेव परं श्रेष्ठ दानं सर्वेप्रभावकम्‌ ॥ ४०॥ 
रख ददस्व त्व दानात्पुण्य प्रयतते । दानेन नश्यते पापं तस्माद्दानं ददस्व हि॥ 
मेघा दिभियेज्ञेयजस्घ नृपसत्तम । भूमिदानादिक दानं ्राह्मणेस्यो ददस्व वे ।।४२। 


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१ | ३२ उ पक्चपुराणम्‌ ऋः $ (> [२ भूमिक 
र सुदानात्प्राप्यते. भोग: खुदानात्प्राप्यते यशः। 7 हे । 
सुदानाज्ञायते कीतिः खुदानात्प्राप्यते सुखम्‌ ॥ ४३ ॥ । 

दानेन स्वर्गमाधोति फळं तत्र भुनक्ति च । दत्तस्यापि सुदानस्य श्रद्धायुक्तस्य स्‌ 
कालेप्राप्ते व्रजेत्तीथँ पुण्यस्यापि फलं त्विदम्‌ । पात्रभूताय विप्राय श्रद्धापूतेन च 

. यो ददाति .महादानं मयिभाचं निवेश्य च । तस्याहं सकल ददि मखा ये यमिचछ 


वेन उचाच। | 

कालं दानस्य मे व्र हि कीढूकाळस्य लक्षणम्‌ । 1 

॥ तीर्थस्यापि च यद्वपं पात्रस्यापि सुळक्षणम्‌॥ ४७ ॥ | 
दानस्यापि जगन्नाथ विधि विस्तरतो वद । प्रसादसुसुखो भूत्वा दया मे यदि छ, 
श्रीकृष्ण उवाच । | 


दानकालं प्रवक्ष्यामि नित्यं नैमित्तिकं प । काग्यं चाग्यं महाराज चतुथं प्रायिक 
सूर्योदयस्य वेलायां पापं नश्यति सर्वेतः | अन्धकारा दिकानाँ च घोराणां नाशकापु 
` .दिवि सूयो ममांशोऽयं तेजसां कल्पितोनिधिः । पर 
तस्यैव तेजसा दग्धा भस्मतां-यान्ति कि व्बिषाः ॥ ५१ ॥ त 
उद्यन्तं ममांशं यो दृष्ष्ट्वा दत्ते तु वार्यपि । | 
तस्य कि कथ्यते भूप नित्यं पुण्यविवद्धनम्‌ ॥ ५२॥ ` 
सम्प्राप्तायां सुवेलायां तस्यां पुण्यकरो नरः । ग 
खात्वा5भ्यच्य पितन्देवान्दानदाता भवेरपुनः ॥ ५३॥ RF 
यथाशक्तिप्रभावेन श्रद्धापूतेन चेतसा । अन्नं पयः फळं पुष्पं वस्त्रे दाम्वूलभूषणस 
हेमरल्नादिकं चेच तस्य पुण्यमनन्तकम्‌ । मध्याह्ने तु ततो  राजन्नपराह्ने तथैष । 
मामुद्दिश्य च योदद्यात्तस्य पुण्यमनन्दकम्‌। खाद्यपाना दिक मिष्टं लेपनं गन्धः 
कपूंरादिकमेचापि वस्राळङ्कारसंयुतम्‌ । अविच्छिन्न ददात्येवं भोगसौख्यप्रदाय 
नित्यकालो मयाख्यातो दानपूजाथिनां शुभः । 


अथातः सम्प्रवक्ष्यामि नेमित्तिकमनुत्तमम्‌ ॥५८॥ .  - २ | 


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भे उनचत्वारिंशी$ध्याय. ] ३ दानमहत्कत्रणंनमः% | र्र. 


जिकालेष्वपि दातव्यं दानमेचं न संशयः । गून्मं.दिनं.न क्रतंदय़माठमनो:.हितमिच्छता ` 
यस्मिन्काले प्रदत्तं हि किंचिद्दानं नराधिप । तत्प्रभावान्महाप्राझो बहुसामथ्यसँगुतध्या 
गुणवान्प्राज्ञः पण्डितोऽपि विचक्षण: | पक्षं मासं दिनं याचन्न दत्त चैयदाशनमः 
पाचवे वार्‍याम्येनं भक्ष्याच्चेच नरोत्तमम्‌। स्चमलं भक्षितं चेव अदत्त्वा दानमुत्तमम्‌: 
उत्पादयाम्यहं रोगं सवंभोगनिवारणम्‌। तेषां कायेष्वसन्तुष्टोब हुपीडाप्रदायकम्‌ ॥ ` 
मन्दोनलेन संयुक्तं ज्वरं सन्तापकारणम्‌ | त्रिकालेषु `न दत्तं ये्त्राह्मणेषु सुरेषु च ॥ 
स्वयमश्नाति मिष्टं तु तेन पापं महत्छृतम्‌ । प्रायश्चित्ते न रौद्रेण तमेचं परिशोधयेत्‌ ॥ 
उपचासंमहाराज कायशोषकरादिकेः । चर्मकारो यथाचर्मकुण्डस्योपरि . निरु: 
शोधयेच्च कघायैश्च तच्चर्मर्फोटयत्यथ । तथाऽहं पापकर्तारं शोधयामि न संशय: 
ओषधीनां झुयोगाच्च कषायैः कटुकधुंवम .1 
ब उष्णोद्केश्च सन्तापैवेद्यरूपेण नान्यथा ॥ ६८. ॥ 
'घुखंभुडते ततस्सोऽग्रेभोगान्पुण्यान्मनोऽनुगान्‌ । नकरोतिसमर्थस्सन्सरव॑दानमनुत्तमम्‌ 
प्रदतापापरूपेण तमेचं परितापये। नित्यकालस्य यद्दानमात्मार्थं पापिमिर्यथा ॥ 
तद्त्तराजरजेन्द्र श्रद्धापूतेन चेतसा । तथा ताञ्जास्यास्येतानुपायैर्दारुणेः किल ॥ 
नेमित्तिकं तथा कालं पुण्यं चैव तवाग्रतः । . ¦ .. ` . pe 
प्रवक्ष्यामि नरश्रेष्ठ सुबुद्ध्या »टणुतत्परः ॥ ७२ ॥ 7. 
ममावास्या महाराज पौर्णमासी तथैच च । यदाभवति खङक्रान्तिर्व्यंतीपातो नशेवर 
[धृतिश्च यदाप्रोक्ता यदाचैकादशी भवेत्‌ । महामाघी तथाषाढी वैशाखी कार्दिकीतथा 
पमासोमसमायोगे मन्वादिषु युगादिषु । गजच्छाया तथाः प्रोक्ता पितुक्षयतिथिस्तथा 
६ ' ` एते नैमित्तिकाः ख्यातास्तचात्रे नृपसत्तम । र) 
{ - तेषु दीयते दानं तस्य दानस्य यत्फलम्‌ ॥ ७६ ॥ 
कषत्फल तु प्रवक्ष्यामि श्रूयतां नृपसत्तम । मामुद्दिश्य नरो सक्याब्राह्मणाय प्रयच्छति 
।स्याहं निविकल्पे न प्रयच्छामि न संशयः । गृहं सौख्यं महाराज स्वर्गमोश्षादिकंबहुः 
काम्यं काळं प्रवक्ष्यामि दानस्य फल्दायकम्‌। 


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तर ररर आल `. है क | | 


., ब्रतानामेव सर्वेषां देवादीनां तथव च ॥ ७६ ॥ | 
`- दानस्य पुण्यकाळं तु खाम्रोक्त द्विजसत्तमैः । आम्युदयिकमेवापि काळंचक्या मि ते! 
` शुमानामेव सर्वेषां वेचाहिकमनुत्तमम्‌। पुत्रस्य जातमात्रस्य चौलमोऽज्या दिकं ३ 
` प्रासाद्ध्चजदेचानां प्रतिष्ठादिकिकमेणि । वापीकूपतडागानामारामस्य गृहस्य ३ 
तदाभ्युदयिकं प्रोक्तं मातृणां यत्र पूजनम्‌ । kl 
तस्मिन्काले ददेद्दानं सत्रेसिद्धिप्रदायकम्‌ ॥ ८३ ॥ 
त्रिविधोऽयं तु ते कालः प्रोकश्चे्र ृपोत्तम। 
० अन्यच्चैव प्रवक्ष्यामि पापपीडानिचारणम्‌ ॥ ८४ ॥ 
मृत्युकाले च सम्राप्ते क्षपं ज्ञात्वा नऐोत्तम। तत्रदानं प्रदातऽ्यं यममागछुलप्रस्‌ 
नित्यवे मि त्ति कात्काळात्काम्यांभ्युदयिकात्तथा । 
अन्त्यः कालो महाराज समाख्यातस्तचाग्रतः ॥ ८६ ॥ 
एते काळाःसम्राए्याताःरूपरकगेफ ठद्ययकाः । तीर्थेस्य लक्षण राजन्प्रव द्या मितत 
सुतीर्थानामि य॑ गङ्गा भाति पुण्या सरस्वती । 
रेया च यमुना तापी तथा चप्रेण्वती नदी ॥ ८८॥ 
सरयू्रेधेरावेणा सत्ेपापप्रणाशिनी । कावेरी कपिलाचान्या विशाला चिश्वतारि, 
गोदावरी समाख्याता तुङ्गभद्रा नरोत्तम । पापानां भीतिदां नित्यं भीमरथी प्रप, 
दे विकाङष्णगङ्गा च अन्याः, सरिद्वरोत्तमाः । एतासां पुण्यकाळेषु स न्तितीर्थान्यनेस; 
आमै घा यदि वाऽरण्ये नयः सञ्जेत्र पावना: तत्रतत्रप्रक पेव्या: स्रानदाना दकाः, 
यदा न ज्ञायते नाम तासां तीयेत्यसत्तम । नामोच्वारं प्रकरु्रीतं विष्गुतीथ मिर 
तीथस्य देव. तातद्वदहमेवं न संशयः । मामेवमु उवरेद्योवे तीर्थ देवेछु साधकः ॥ ४५ 
तस्य पुण्यफळ जात मन्नाज्ञा न॒पनन्दून। अज्ञातानां सुतीर्यांनां देवानां पसत 
खननेदाने महाराज मन्नाम हिसमुच्चरेत्‌ । तीर्थानामेव राजेन्द्र घात्राघात्यइमा:दताध 
सिन्धवः सत्रेपुण्यानां सवेस्थाः क्षितिमण्डले । यत्र तत्र प्रकत्तव्यं ख्रानदाना दिवं 
अक्षपंफलमाप्नो ति सुतीर्थानां प्रसादतः । तीर्थरूपा महापुण्याः सागराः सप्त फा 


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| ऊनचत्वारिशोऽध्यायः ] ॐ दानोपयोगिंकाळदेशवर्णनमू $ Se १२८ 
ते मानसाद्यास्तथा राजन्सरस्यश्व प्रकीतिता: । निर्मरा:पल्बलाः प्रोक्तातीथरूपानसंशयः (र 
हं स्वल्पा नद्यौ महाराज तासु तीथं.प्रतिष्ठितम्‌ । - 

| खातेष्वेचं च सर्वेषु चजेयित्वा च कूपकम्‌ ॥ १०० ॥ | 

पर्वेतास्तीथेरूपाञ्च मेर्चाद्याश्च महीतले । यज्ञभूमिश्च यज्ञश्च अग्निहोत्रे यथास्थित: ॥ 

थ्राद्धभूमिस्तथा शुद्धो देवशाला तथापुनः । होमशाळा तथा प्रोक्ता चेदाध्ययनवेश्म च | 

'गरहेषु पुण्य संयुक्त गोस्थानं वरसुत्तमम्‌ । सोमपायी भवेद्यत्न तीर्थं तत्र प्रतिष्ठितम्‌ ॥ 

आरामा यत्रवैपुण्या अश्वत्थो यत्र तिष्ठति । ब्रह्मवृक्षो भवेद्यत्र घटवृक्षस्तथेच च ॥ 

| अन्ये च वन्य संस्थाने तत्र तीथं प्रतिष्ठितम्‌ । Ee 
एते तीर्थाः समाख्याताः पितामाता तथैव च ॥ ५॥ 

पुराणं पञ्चते यत्र गुरुयेत्र स्वयं स्थितः । सुभार्यातिष्ठते यत्र तत्र तीर्थं न संशय: ॥ 
॥उपुतरस्तिष्ठते यत्र तत्र तीर्थ न संशयः : एतान्यापि च तीर्थानि राजवेश्म तथैच च ॥ 

| SHES वेन उचाच । 

पात्रस्य लक्षणं त्र हि तस्मै देयं सुरोत्तम । प्रसाद सुमुखो भूत्वा कृपया मममाधव ॥ 

| वाजुदेच उचाच। 
णु राजन्महाप्राज्ञ पात्रस्यापि खुळक्षणम्‌। यस्मै देयंसुदानं च थद्धापूर्तैमदात्मभिः ॥ 
ब्राह्मण खुकलोपेत॑ वेदाध्ययनतत्परम्‌। शान्तं दान्तं तपोयुक्त शुक्रमेच विशेषतः ॥ 
प्रज्ञाचन्तं ज्ञानघन्तं देवपूजनतत्परम्‌ । सत्यवन्तं महापुण्यं बैष्णवं ज्ञानपण्डितम्‌ ॥ 
रज्ञ मुक्तलौट्य़ं च पाखण्डेस्तु विचजितम्‌ । एवं पात्रं समाख्यातमन्यदेवंबदाम्यहम्‌ 
एचमेतेगुणेयु क्त स्वस्पुत्रे नरोत्तमम्‌ | एतं पात्रं विजानीहि दुहिस्तुस्तनयं तत: ॥ 
जामातरं महाराज भावैरेतैश्व संयुतम्‌। गुरु च दीक्षितं चेव पात्रभूतं नरोत्तम ॥ 
तान्येच सुपात्राणि दानयोग्यानि सत्तम । वेदाचार समोपेतस्तृप्ति नेव च गच्छति ॥ 
जये त्किलत॑ विद्र तथाकाणंसुधूतेकम्‌। अतिङृष्णं महाराज कपिलः प्रिवर्जयेत्‌ ॥ 
र्का सुनील च श्यावदन्तं विवजयेत्‌। नीलदन्तं तथा राजन्पीतदन्तं तथैच च || 
िदुन्तं कृष्णदन्तं च बर्बर चातिपांसुळम्‌। हीनांड्रमधिकाऊुं च कुष्ठिनं कुनखं तथा 


| RR a 0112000 Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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ख ४ १: क पदपुसाणम्‌ ३... 1... ' २ सूम 
डुश्वर्माण महाराज खल्वाटं 'परिचर्जयेत्‌ । अन्यायेषुरतायस्य जायाविप्रस्यकस्य २ 
- स्तौ दानं नदातउ्यं यदि ब्रह्मसमोभवेत्‌ | ख्रीजिताय न दातव्यं शाखारण्डेमहामे 
_“ इ्याधिताय न दातःप्रे सृतभोजिषु भूपते । चोराय च न दातव्य सयद्यत्रिसमो $ 
: अतृपाय न दातव्यं शावं तु परिवर्जयेत्‌ । 
 , अतिस्तव्धाय नोदेयं शठाय च विशेषतः ॥ २२॥ 
चेदशाख्रलमायुक्तःखदाचारैण वर्जित । श्राद्धेदाने च राजेन्द्र नेवयुक्तःकदा भकः 
अथदानं प्रवङ्चामि सफळ पुण्यदायकप्‌। काळतीथ सुपुत्राणा थद्धायोगाठाज 
नास्ति श्रद्धा सम्रंपुण्यं नास्ति श्रद्धा समंखुखम्‌ । 
पक नास्ति श्रद्धासम तीर्थं संसारे प्राणिनां नप ॥ २५ ॥ 
¬ भ्रद्धाभावेन संयुक्तो मामेवं परिसंस्मरेत्‌ । पात्रहस्ते प्रदातव्यं स्वद्पमेव रुपोत्ता, 
एवंविधस्यदानस्य विधियुक्तस्ययत्फलम्‌ । अनन्तंतदवाभोति मत्प्राखादात्सुखीमः 
इति श्रीपादपुराणेभू मिखण्डेवेनोपाख्यानेएकोनचत्घारिशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥ 


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चत्वारिंशोऽध्यायः 
नित्यने मित्तिकदानफलकथनम्‌ । 


चेन उवाच । 
'नित्यदानफलं देव त्वत्त:पूर्वमयाश्रुतम्‌ नेमित्तिकस्यदानस्य दत्तस्यापिहियत्फछ 
` तत्फल मे समाचक्ष्व त्वत्प्रसादात्प्रयत्नत: । १ ८ 
*्टण्वंस्तृत्ति न गच्छामि श्रोतं श्रद्धा प्रवर्दते ॥ २॥ 

८ ' 'िष्णुरुचाच। 


नेमित्तिकं प्रवक्ष्यामि दानमेचं नृपोत्तम । महापर्वणि सम्प्राप्त ` येनं दानानि दर 


सत्याय एकत नि haan oR RE (गय भदत्ते.यो हएवंचापि को 


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ऽना ] # नित्यनेमित्तिकदानफळकथनम्‌ # i श्श्ड 
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सच अत्यस्तु संयुक्त:पुएयदेशे व्॒पोत्तमः । जायते हि महाराज मत्प्रसांदान्न संशयः 


राजा भवति धर्मात्मा ज्ञानचान्वलवान्सुधी:.। अजेय:सर्वभूतानां महातेजा:प्रजायते॥ ` 
णि सम्प्राते भूमिदानं ददाति य: | गोदानं घा महाराज सरवेभोगपति्भचेत्‌॥ . 
ब्राह्मणाय . सुपुण्याय दानं दद्यात्य्रयल्लतः । 
महादानानि यो दद्यात्तीर्थपवेणि पात्रवित्‌ ॥ ८॥ 
षांचिहं प्रच स्यामि भूपति त्वं प्रजायते । तीर्थे पर्वणि सम्प्राप गुत्तदानं ` ददाति य 
>निधीनामाशु सप्यातिरक्षरापरिजायते । महापर्व णिसम्प्राप्ते तीर्थेषु ब्राह्मणाय च ॥ 
सुचेळं च महादानं काञ्चनेनसमम्वितम्‌। 
पुण्यफल प्रवक््यामि तस्य दांनस्य भूयते ॥ ११ ॥ 
पजायन्ते वहवःपुत्राःखुगुणा वेदपारगा: । आयुष्मन्तःप्रजावन्तो यश पुण्यसमन्चिताः ॥ 
मचेपुलाञ्चैच ज्ञायन्ते स्फीता लक्ष्मीर्महामते । सौख्यं च लभतेपुण्यं धर्मचान्परिजायते 
। हापर्वोणिसाात्त तीर्थे गत्वा प्रयत्नतः । कपिलां काञ्चनीं द््यादुत्राझणाय महात्मने 
तस्यपुण्यं प्रचक्ष्यामि दानस्य च महामते । 
| कपिळादो. महाराज सर्वेसौख्यान्मभुज्ञ'ति ॥ १५॥ | 
गवदुत्रह्माप्रजीवेत्स तावत्तिष्ठति तत्र सः। महापर्वेणिसम्पाप्त अलडकतत्य च गां तदा 
शिश्वनेनापिसंयुक्तां वस्त्राटड्डारभूषणे: । तस्यदानस्य राजेन्द्र फलभोगं वदाम्यहम्‌ ॥ 
चेपुछाजायते रक्ष्मीदांनभोग समाङुळा ।  स्ेबिद्यापतिर्भूत्वा विष्णुभक्तो भवेत्किळ 
| . विष्णुलोके वसेन्मर्त्यो याच त्तिष्ठति मेदिनी । 
ठी तीथगत्वा तु यो दद्यादुब्राह्मणाय विभूषणम्‌ ॥ १६ ॥ 
पुक्त्या तु विडुळान्मोयानिन्द्रेण क्रीडतेसह | महापर्रीणसम्प्राप् वस्त्रं च 
(वान्नं भूमिसंयुक्त पात्रे ध्रद्धासमन्वितः| सोदते स तु वेकुण्ठे विष्णुतुल्यपराक्रमः ॥ 
गवस्त्ंक!श्वनं दत्त्वा द्विजायपरिशी लिने । स्वेच्छयाअभिसद्दशो वैकुण्ठे सं घसेत्सुखी 
बट णेस्थ खुकुम्भं च घुतेन परिपूरयेत्‌। पिधानं रोप्यंकर्तन्यं वस्त्रहाररळङ्झतम्‌ 
र पुष्पमाला न्वितं कुर्यादुत्रह्मसूचेण शोभितम्‌ 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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प्रतिष्ठितं वेदमन्त्रैस्तं सम्पूज्य महामते ॥ २४ ॥ 


` उपचारैःपवित्रश्च घोडशैःपरिपूजयेत्‌। स्वलङ्छत्य ततोदद्यादुत्राह्मणाय महात 


बोडशैचतलोगावःसघस्त्राःकांस्यदोहनाः । कुम्मयुक्ताश्चचत्वारो दक्षिणांचसकाङ्गः 


` तथाद्वाद्शका गावो वस्त्रालङ्कारभूषणाः पृथग्भूताय विप्राय दातव्या नात्रसंशर 


एवमादीनि दानानि अन्यानि नृपनन्दन । 

तीर्थकालं सुसम्प्राप्य पात्रसम्पत्तिमेच च ॥ २८॥ 
श्रद्धाभावेन दातज्यं बहुपुण्यकरं भवेत्‌ । विष्गुसु विश्य यदानं कामनापरिकत्पित 
तस्यदानस्य भावेन भावना परिभावितः । ताहूक्फळं समश्ना'ते सानुषोनाच सं] 
आम्युद्यं प्रवक्ष्यामि यज्ञादिषु प्रचर्तते । तेनदानेन तस्यापि भ्रद्धया च द्विजोत्त 

प्रज्ञावद्धि समाप्नोति न च दुखं प्रत्रिस्दिति । 

भोगान्भुनक्ति धर्मात्मा जीवमानस्तु साम्प्रतम्‌॥ ३२॥ 

ऐन्द्रास्तु भुङ्क्ते भोगान्सदाता दिव्यांगति गतः । E । 

स्वक्कुळं नयते स्वग कदपानां च सहस्रकम्‌ ॥ ३३ ॥ | 
एवमाभ्युद्यं प्रोक्तमथान्यत्ते वदास्यहम्‌। कायस्य च क्षयं ज्ञात्वा जयया परिपा 
दानं-तेन प्रदातव्यमाशां कस्य न कारयेत्‌ । स्रुते च मयि मे पुना अन्येस्वजनबाख 
कथमेते भविष्यन्ति मां विना सुहृदोमम्‌। तेषां मोहात्प्रसुग्धो वै न ददाति सकि 
शृत्युंप्रयाति मोहात्मा रुदन्ति मित्रबान्धवाः । दुःखेनपी डिता:सर्वेमायामोहेनपीडि 
सङ्ल्पयन्ति दानानि मोक्षं चै चिन्तयन्ति च । तस्मिन्सृतेमहाराज मायामोहे गतेस। 

` िस्मरन्ति च दानानि लोभात्मानो दिशन्ति न | 

योऽसौ 'सृतो महाराज यमपथं सुदुःखितः ॥ ३६॥ 
ठृषाक्वुधा समाक्रान्तो वहुदुःख:प्रपी डितः । तस्माद्दानं प्रदातव्यं स्वयमेव न 
कस्यपुत्राश्च, पतराश्च कस्य भार्याद्पोत्तम । सं लारेनास्ति कःकस्य तस्माद 
ज्ञानवता प्रदातव्यं स्वयमेव न संशयः । अन्नं पानं च ताग्वूलमुदकं काञ्चनं तष 

खुगां सवत्सां भूमि च फलानि घिदिधानिच।  . | | 


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श्कचत्वारिशोषध्यायः ] # खुकलायापातिव्रत्यच रित्रचर्णनम्‌ अ ह. १२६ छ 


जलपात्राण्यनेकानि सोदकानि नृपोत्तम ॥ ४३॥ ` 


याहनानि विवित्राणि यानान्येच महामते । नानागन्धं सकर्पूरं पादयो सुखप्रदे ॥ | 
फपानहो प्रदातव्ये यदीच्छेद्धिपुलं सुखम्‌ । पतै्दानेर्महाराज यममार्गं सुखेन वे ॥ ४५॥ 


र्‌ प्रयाति मानचो रांजन्यमदूतेरळडक्कतम्‌ ॥ ४६ ॥ ` 
। इति श्रीपापुराणेद्वितीयेभू मिखण्डेवेनोपाल्यानेचत्वा रिशो ऽध्यायः ॥ ४० ॥ 


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एकचत्वारिरोऽध्यायः' f 
| सुकलायापातित्रत्यचरित्रवर्णनम्‌ । 
| ; चेन उचाच। 
'नोभार्या कथंतीर्थ पितामाता कथं चद । गुरुश्चैव कथंती थ तन्मे विस्तरतो चद्‌॥१॥ 
श्री विष्णुरुवाच । 


स्तिवासाणसीरम्याः गङ्गायुक्ता महापुरी । तस्यांचसति वैश्यो हनि कृकलो नामनामतः 
स्य भार्यामहासाध्वी पतिव्रतपरायणा । घर्माचारपरानित्यं सा बै पतिपरायणा ॥ 
इनाम पुण्याङ्गी खुपुत्रा चारुमङ्गला | सत्यंबदा सदाशुद्धा प्रियाकारा प्रियप्रिया 
होंणणेःसमायुक्ता सुभगा चारुकारिणी । सवेश्य उत्तमो नानाघरमज्ञो ज्ञानवान्गुणी ॥ 
पाणे श्रौतधर्मे च सदाश्रवणतत्परः । ती्थेयात्राप्रसङ्गेन बहुपुण्य प्रदाथिकाम ॥ ६॥ 
दयानिर्गेतो यात्रा तीर्थानां पुण्यमङ्गलाम्‌। ब्राह्मणानां प्रसङ्गेन सार्थचाहेन तेन च 
स्थितो. घमंमागं तु तमुवाच पतित्रता। पतिस्नेहेन संमुग्धा भर्तारं वाक्यमत्रचीत्‌॥ 
रा र र ५: . . सुकलोघाच'।. - है 

है ते घमेतःपक्षी सहपुण्यकरी प्रिय । पतिमार्गं अतीक्ष्याहं पतिदेव यज्ञाग्यहम्‌ ॥ 
यी * कदानव मयात्याज्यं सामीप्यं ते द्विजोत्तम। .. 1 
। - : तवच्छायां समाश्रित्य करिष्येः घरमेमुत्तमम्‌ ॥ १० ॥ .. . 


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युवतीनां पथक्तीर्थ विनामर्तनं शोभते । सुखदंनास्ति वे लोके स्वर्गमोक्षभदायकम्‌ 


ह १ क, क पद्मपुराणम्‌ * मोगल [२ भूमिलए १् 


` पतित्रताख्यं पापधन नारीणां गतिदायकम्‌ । 
पुण्यस्री कथ्यते लोके यास्यात्पतिपरायणा ॥ ११ ॥ 


सब्यंपादं च अर्दश्व प्रयागं विद्धिसत्तम | घामं च पुष्कर तस्य या नारी परिकल्यगे 
तस्य पादोदकस्नानात्तत्पुण्यपरिज्ञायते । प्रयागपुप्करसम सान सत्रीणां. न संश दे 
सर्वतीर्थमयो भर्ता सर्वेपुण्यमयःपतिः । मंखानां यजनातपुण्य यक अयात दीक्षिते 


तत्फलं समवाप्तोति सेवया भर्तरेच हि। गयादीनां सुतीर्थानां याचा इत्वा हि यदव 
` तत्फलं समवाप्नोति म्तृःशुश्ूषणादपि । समासेन परवक्ष्यामि तन्मे निगदतः 


नास्त्यासां हि पृथग्धमेःपतिशुश्रूषणं विना । | 
तस्मात्कान्त सहायन्ते कुर्वाणा खुखदायिनी ॥ १८ ॥ | 
तवच्छायां समाश्रित्य आगमिष्यामि नान्यथा । | 
रूपं शीलं गुणं भक्ति समालोक्य यस्तथा ॥ १६ ॥ । 
सौकमार्य विचायेबं ककलःसपुनःपुनः । यद्येवं हि नयिष्यामि डुर्गंमाग खुद़ःखद्य 
रूपनाशो भवेच्चास्याःशीतातप विलोडनात्‌ । पु 
पद्मगर्भे प्रतीकाशमस्याञ्चाङ्ग प्रवणेकम्‌॥ २१ ॥ | 
भज्मावातेन शीतेन कृष्णचर्ण भविष्यति । | 
पन्थाःकर्कश सुग्रावा पादौ चास्याःसुकोमलो ॥ २२ ॥ ल 
एष्यते वेदना तीब्रामथोगन्तु' न च क्षमा । श्वुत्तष्णाभि परीताड़ी कीद्वशीयंभवि 
वामाङ्गी मम च स्थानं सुखस्थानं वरानना । मम प्राणप्रियानित्यंनित्यंघमस्यचा{ 
नाशमेति यदा वाळा ममनाशो भवेदिह । इयं मे जीधिकानित्यमियं प्राणस्य है. 
न नयिष्ये वनं तीर्थमेकञ्चैवाप्यहं बजे । चिन्तयित्वा क्षणं नूनं कलेन महार 
तस्यः चि'ताचुगोभावस्तयाज्ञातो. नृपोत्तम । पुनरूचे महाभागाः भर्त्तारं प्रस्थितं 
अनघा नैव वै त्याज्या पुरुषेःश्टणु सत्तम। मूलमेचं हि घपेस्य-. पुरुषस्य 
एचंज्ञात्वा महाभाग मामेवं नयस्प्रतम्‌ । श्रुत्वा सवंःहि तेनापि प्रियाया | 


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» ९ 


|| 
| प्राणेश्वरो गतःक्वापि भवन्तो मम वान्धवाः ॥ ३६॥ ? 


| यदिद्रष्यो सहाभागाःछकलो मम साम्प्रतम्‌ । भर्तार पुण्यकर्तारं सर्वेज्ञ सत्यपण्डितम्‌ 
कथयन्तु महात्मानं यदिदरष्टो महामतिः । तस्यास्तङ्गावितं श्रत्वा तामूचुस्तेमहामतिम्‌ 
| धर्मयात्रा प्रसङ्गेन. नाथस्ते इकलःशुभे । 

| तीथयात्रां चकारासौ कम्माच्छोचसि सुत्रते ॥ ३६॥ 

| साथयित्वा महातीर्थं पुनरेष्यति शोभने । एवमाश्वासिता सा च पुरुषेरातकारिभिः॥ 

| पुनगह गताराजन्छुकळा चारुभाषिणी । रुरोद करुणं दुःखंसुकलापि परायणा ॥३१॥ 

| यावदायाति मे भर्त्ता भूमौस्वप्स्यामि संस्तरे । 

घृतं तेल न भोक्ष्येऽहं दधिक्षीरं तथैच च ॥ ४२॥ 

वणं च परित्यक्तं तथाताग्बूलमेव च । मधुरं च तथाराजंस्त्यक्तं गुडादिक तथा ॥ 

| एकाहारा निराहारा ताचत्स्थास्ये न. संशयः | . 

| याचच्चागमन्ने भर्तृःपुनरेचर भविष्यति ॥ ४४ ॥ 

आ खान्विता भूत्या एकवेणी धरापुनः। पककञ्ुकसंचीता मलिना च वभूष सा ॥ 

के मल्निनापि वस्त्रेण एकेनेव स्थितापुनः 1 

॥ हाहाकार प्रमुञ्चन्ती निःश्वसन्ती सुदुःखिता ॥ ४६ ॥ 

चियोगानलसन्दग्धा कृष्णाड़ी मलधारिणी 1 
एवंदुःख समाचारा सुङ्शाषिहला तदा ॥ ४७॥ . 


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शत 


| पकचत्वार्रिशोऽध्याय ] # सुकळ्याइढ़तरपातिब्त्यपालनम्‌ # i ; अ १३२ | 


१३२ ` ॐ पद्मपुराणम ॐ ` - ` [२ भूमिखण 
रोदमाना दिवारात्रं निद्रांलेमे न वै निशि। क्षघांनविन्द्ते राजन्दुःखेन विदलीरत 

- ` अथसख्यःसमायाताःपप्रच्छःसुकला तदा ॥ ४६॥ ` स 

सख्यऊचुः। त 

सुकले चारुसर्वाङ्गि कस्माद्रोदिषि सम्प्रति । ततस्त्वं कारणंत्र.हि दुःखस्यास्यचरा मे 

खुकळोवाच १ यः 


मां त्यक्त्वा स गतः स्वामी निर्दोषांपापवर्जिताम्‌ 
अहंसाध्वी समाचारा सदापुण्या पतिव्रता ॥ ५२॥ 
मां त्यक्त्वा सगतो भर्ता दीथखाधनतत्परः । 
तेनाहं दुःखिता सख्योचियोगेनाति पीडिता ॥ ५३॥ भ 
जीवनाशो वरंभ्रेष्टो बरं वै विषभक्षणम्‌! वरमस्निप्रवेशश्च वरंकायचिनाशनम्‌॥ | 
नारीं प्रियांपरित्यज्य भर्तायाति सुनिष्ठ्रः । भतु त्यागो वरेनेव प्राणत्यागोवर स 
वियोग न समथहि सहितुं नित्यदारुणम्‌ । 
तेनाहं दुःखिता सख्यो वियोगेनापि नित्यशः ॥ ७६ ॥ “छुः 
सख्यऊचुः | ` र | 
तीर्थयात्रांगतो भर्ता पुनरेष्यति ते पातः । वृथा शोषयसेकायं वृथाशोक करो 
चृथांत्व॑ तप्यसे बाळे वृथाभोगान्परित्यजेः | पिचस्घ पानंभुडड्ल्वत्वंस्वपदत्तं हिपूर्व 
कस्यभर्ता सुताःकस्थ कस्य स्वजनबान्धवाः । 
कःकस्यनास्ति संसारे सम्बन्धःकेन चेच हि ॥ ५६ ॥ 
` भक्ष्यतेभुज्यतेबाळेसंसारस्यहितत्फलम्‌ । मृतेप्राणिश गह 
पीयते भुञ्यते बाले एतत्संसारतःफलम्‌॥ ६० ॥ 


मत 
| 


3 खुकलोवाच । 
भवतीभिप्रयुक्त यत्तन्नस्याद्वेदसंमतम्‌। ' यातुभर्तुःप्रथग्भूत्त तिष्ठत्येका सदेव पति 
भवेन्नारी तां न मन्य'न्त सञ्जनाः। 


७७५६ 


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३ पकचत्त्रारिशोऽध्यायः ] = पातित्रतघमेकथनमं. १३३ ` 
न भतुःसाधसदा सख्यो दृष्टोबेदेषु सवंदा॥६२॥ . . ... | 
सम्वन्धःपुण्यसंसगाज्ञायते ना्रसंशयः ।.नारीणां च सदातीर्थ भतांशास्त्रेषु पञ्चते 
'तमेचावाहयेन्नित्यं वाचाकायेन कमी भः । मनसा पूजयेन्नित्यं सावसत्येन तत्परा ॥ 
7 भतुःपाश्वमह्दातीथ दक्षिणाङ्ग सदेच हि। तमा श्रत्ययदानारी गृहस्थापरिवत्तेयेत्‌॥ 
यजते दानपुण्यश्च तस्यदानस्य यत्फलम्‌ । चाराणस्यांच गङ्गायां. यत्फलं न च पुष्करे 
हुढारकायाँ न चावन्त्यां केदारे शशिभूषणे । लभतेनैव सा नारी यजमाना सदाकिळ ॥ 
| ताहुशं फलमेवं सा न पाप्नोति कदा सखि । 
| सुसुखं पुत्रसौभाग्यं स्नानं दानं च भूषणम्‌ ॥ ६८ ॥ जा 
वस्त्रालङ्कार सौभाग्यं रूपं तेज फलं सदा । यशःकीतिमचाप्नोति गुणं च वरवणिनी 
भतुःप्रखादात्लव च लभते नात्रसंशयः । विद्यमाने यदाकान्ते अन्यं धर्म करोति या ॥ 
| निष्फळ' जायते तस्याःपुंश्चळी परिकथ्यते । 


| 


त नारीणां यौचनंरूपमचतारं स्मृतं शुचम्‌ ॥ ७१॥ 


एकस्यापि 


हि भ्ुश्च तस्यार्थे भूमिमण्डले । सुपुत्रा सुयशानारी परिकथ्येत वै खदा 
तुटे भतेरि संसारे इश्या नारी न संशयः । पतिहीना भवेन्नारी भवेत्सा भूमिमण्डले 
| कुतस्तस्याःसुखं रूपं यशाःकीतिःसुता सुवि। 

{ सुदौरभाग्यं महद्दुःखं संसारे. परिभुज्यते ॥ ७४ ॥ 

पमाया भवेत्सा च दुःखाचारा सदेव हि । तुष्टेभतेरि तस्यास्तु तुष्टाःसर्चाञ्च देवता - 
तुश्भतेरि तुष्यन्ति ऋषयो देवमानवाः । भर्ता नाथो गुरुमता देवता दैचतःसह ॥७६॥ 
मर्तातीर्थश्व पुण्यश्च नारीणां नूपनन्दन । शउङ्गारं भूषणं रूपं वर्ण सौगन्धमेच च ॥७५ 
"डर त्वा सा तिष्ठते नित्यं वजेयित्वासुपर्वसु । र्ज्ठारेमूंषण:सा तु शुशुभे सा यदा पति 
पत्याचिना भवत्येवं क्षीरंसपंसुखे. यथा । 

भतु रथे महाभागा सुरता चारुमङ्गला ॥ ७६॥ .. 

(तिसेतरि या नारी श्टङ्गारं कुरुते यदि । रूपंचर्ण च तत्सवं शचरूपेण जायते ॥ ८० ॥ 
Be भूतले लोकाःपुंश्चली यं न संशयः । तस्माङ्गतु वियुक्ता या नार्या:एणुत भूतले 


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ता या ३ Moe । 

इः ` ` & पद्मपुराणम्‌# ` [२ भूमिस 
इच्छन्त्या वै.महासौख्यं भंवितव्य॑ कदाचन । य 
सुजायायाःपरोधर्मो भर्तां शास्त्रेषु गीयते ॥ ८२॥ 

तस्माटवैशाश्वतोधरमो न त्याज्यो भाययाकिल । एवंघर्म बिजानामिकथंभतापरित्यङग 


इत्यर्थ श्रयते सख्य इतिहासःपुरातनः । सुदेवायाश्च चरितं सुपुण्यं पायनाशनम्‌॥८४ क 
इति भ्रीपाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डेवनोपाख्यानेसुकलाचरित्रेएकचत्वास्शिषध्यारस 


RS म 
॥ 
द्विचस्वारिशो5ध्यायः | 
सुदेवायाश्ररित्रवर्णनम्‌ । | 
सख्यऊचुः । । 
सुदेघा का त्वयाप्रोक्ता किमाचारा घदस्व नः । (त्वयाप्रोक्तं महाभागेवद नःसल्यमेष | 
सुकलोवाच । 


अयोध्यायां महाराजःस आसीद्धर्मकोविदः। मनुपुत्रो महाभागःसवंधर्मार्थतत्परः 
इक्ष्वाकुर्नाम सर्वज्ञो देवत्राह्मण पूजकः । तस्यभार्या सदापुण्या पतित्रतपरायणा ॥ 
तयासाद्धं यजेद्यज्ञं तीर्थानि विविधानि च। 
वेद्राजस्य. घीरस्य काशीशस्य महात्मनः ॥ ४॥ 
सुदेचानाम चै कन्या सत्याचारपरायणा । उपयेमे महाराज इक्ष्वाकुस्तां महीपति 
सुदेचां चारुसवांड्रीं सत्यत्रत परायणाम्‌ । तयासाद्धं यजेद्यज्ञान्सुपुण्यान्पुण्यनायक' | 
स रेमे नृपशादूलो नित्यं च प्रियया तया । एकदा तु महाराजस्तयासाद्ध॑ वनं ययौ 
गङ्कारण्यं समासाद्य सुगयां क्रीडते सदा । न 
सिहान्हत्वा ' वराहांश्च गजांश्च महिषांस्तथा ॥ ८ ॥ 
क्रीडमानस्य तस्याग्रे चराहय्य समागतः। बहुशूकरयूथेन पुत्रपौत्रेरलङ्क्ृत | ६ 
एका च शूकरी तस्य प्रियापाश्व प्रतिष्ठिता । द्वष्ट्वाच राजराजेन्द्रं दुर्जयं सुगयार 


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धेडिचत्वारिशोईध्यायः 1 बराहयूथपतेःडपेणसहयुद्धार्थ परस्परमंत्रकरणम्‌ हृ १३५ i 
पर्वेताधारमाश्रित्य भार्यया सहशूकरः] तिष्ठत्येकःपरिवृत पुत्रपो्रादिभिस्तु सः ॥ 


है 


महाराज छत तेषां ज्ञात्वा तु कदनं महत्‌ । 
ताचुचाच सुतान्पौच्रान्मार्या ताँ च सशूकरः ॥ १२ ॥ 


वै कोशला धिपतिर्वीरो मनुपुत्रो महाबळ: । क्रीडते सगयां कान्ते म्गान्संहरते बहन ॥ 
रस मां द्ृष्ट्यामहाराज णष्यतेनात्रसंशयः । अन्येषांलुग्धकानां मे नास्तिप्राणभयंघुवम्‌ 
ममरूपं र॒पोद्वष्ट्चा क्षमांनेच करिष्यति। हर्षणं महताविष्टो बाणपाणिघेनुद्धरः ॥ 
श्वमियु कौ महातेजा लुव्धकेःपरिवा रित: । प्रिये करिष्यतेघातं ममाप्येव न संशय: ॥ 


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शूकयु चाच । पा 


यदायंदापश्यसि लुब्धकान्वहन्महाशने कान्तसमाथुधान्बहन_। 

एतैस्तु पुतरेममपौत्रक समं दूरंनुभो यासि पलायमानः ॥ १७॥ 

त्यक्त्वा सुघेय त्रळपौरुषं महन्महाभये नापिचिषण्ण्वेतन: |. 
दृष्ट्या नेन्द्रं पुरुषोत्तमोत्तमं करोषि किं कान्त वदस्व क्रारणम्‌॥ १८ ॥ 
तस्यास्तु वाक्यं सनिशम्य कोळ उचाच तां झूकरराज उत्तरम्‌ः। 


` यदर्थं भीतोऽस्मि सुळुब्धकात्तप्िये दुष्ट्वा गतो दूर निशम्य शूकरान्‌ ॥१६॥ 


सुछश्चकाःपापकरांःशठाःप्रिये कुचे न्ति पापं गिरिदुर्गकन्दरे | 

च दुष्टा बहुपापचिन्तका जाताश्च सर्वे परिपएपिनांकुले ॥ २० ॥ 
तेषां हि हस्तान्मरणाइ्विसेमि ृतोऽपि'यास्यामि पुनश्च पापम्‌ । 
दूरं गिरि पचंतकन्द्रं च ब्रजामि कान्ते अपमृत्युभीत: ॥ २१॥ 
अयं हि पुण्यो नरनाथ आगतो विश्वाधिकःकेशवरूप भूपः । 
युद्धं करिष्ये समरे महात्मनासाद्धं प्रिये पौरुषविक्रमेण ॥ २२:॥ 
जेष्यामि भूपं यदि स्वेनतेजसा भोक्ष्यामि कीति त्घतुळां पृथिव्याम्‌ । 
तेनाहतो वीरवरेण सङ्गरे यास्यामि लोक. मधुसूदनस्य ॥ २३ || 
ममाङ्गभूते न पळे न मेद्सा तृप्ति परांयास्यति भूमिनाथः । 
तृता भविष्यन्ति सुळोकदेवता अस्माद्यं चागतो वञ्भपाणिः॥ २४ ॥ 


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शह .-. ` ` 0 7.१०२.५०० प्रद्मपुराणम्‌.*.. >- ` ` ER भूमिलह, 
: ... अस्यैव हस्तान्मरणं:यदा भवेल्लाभश्चःमे सुन्द्रिकीतिरुत्तमा । | 
_तस्माद्यशो भूमितले जगत्त्रये बजञामि,लोकं मधुसूदनस्य ॥.२५ ॥ | ५ 
नैवंभीतोऽस्मि क्लुब्धोऽस्मि गतोऽहं गिरिसानुषु |. ` | 
पापाद्वीतो गतःकान्ते धमं दष्ट्वा स्थितोह्यहम्‌.॥ २६ ॥ | 
न.जाने पातक पूर्वेमन्यजन्मनि चाजितम्‌। येनाहं शौकरींयोनि गतोऽहं पापसञ्चया 
क्षालयिष्याम्यहं घोरं पूर्वपातक सञ्चयम्‌ । . बाणौदकँमंहाघोरैःखुतीद्णं निशितैः 
पुञान्पौचान्वरांकन्यां कुटुम्वंबालवृद्वकम्‌। गिरिंगच्छग्रहीत्वा तु मस सोहमिमं त २ 
ममस्नेहै परित्यज्य हरिरेष समागतः । अस्यहस्तात्प्रयास्यामि तद्विण्णोःपरमंपदम्‌ 
दैचानापि ममाच्चैव स्वर्गद्वारमचुत्तमम्‌ । उद्घाटित कपाटं तु यास्यामि सुमहाद्ि 
सुकलोचाच। | | 
(तच्छुत्वा बचनं तस्य शूकरस्य महात्मनः । उचाचतत्प्रिया .सल्यःस्रीदमानान्त | 
शुकय॒वाच । | 


२ 


तथैच स्ववलेनापि गजेमानाश्च शूकराः । चिचरन्ति गिरौ . कान्त तनया ममवालद व 
कन्दान्मूलान्सुभक्षन्ति निर्भयास्तव तेजसा । दुगंघु घनकुञ्जेघु ग्रामेघु नगरेषु च| 
न कुर्वन्ति भयं तीव्र सिंहानोमिहपचंते । |f 
मनुष्याणां महावाहो पालितास्तच तेजसा ॥ ३७॥ |च 
त्वया त्यक्ताअमी सर्वेचालका ममदारकाः। दीनाश्चचाकुळाञ्चैच भविष्यर्तिविचेद{ 
नित्यमेवसुखं बत्मे गत्वा पश्यन्ति बालकाः । पतिहीना यथानारी शोभते नैवशोम 
अळङ्कूता यथादिव्यैरलङ्कारै'सकाञ्चनैः । परिच्छदैर लवस्त्रःपितमात सहोदर! 
शवश्चूश्वशुरकेश्चान्येःपतिहीना न भाति सा । चन्द्रहीना यथारात्रि पु्हीनयथाङुरं 
-दीपहीनं यथागेहं नेवभाति कदाचन । त्वांचिनाऽयं तथायूथो नेवशोभेत मानद 
 . आचारेण विनामर्त्यो झानहीनो यतिर्यंथां। - ... f 


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7 द्विचत्वारिंशोऽध्याय ] +# घराहयूथपतेः युद्धार्थमंत्रकरणम्‌ # | १३७ 
| मन्त्रहीनो यथाराजा तथायं नेच .शोभते ॥ ४३ ॥ 
| कैवते'न चिनानौर्वा सम्पूर्णा परिसागरै॥ न भात्येवं यथासार्थःसार्थवाहेन: वे चिनो 
| सेनाध्यक्षे गं च चिना यथासैन्यं न भाति च । त्वांचिना वेतथासेन्यशूकराणांमहामते 
| दीनो भविष्यति तथा वेदहीनो यथाद्विजः। मयिभारं कुटुम्बस्य चिनिवेश्य प्रगच्छसि 


या मरणं सुळभोज्ञात्वा का प्रतिज्ञा तवेद्वशी । 
| त्वां विनाहं न. शक्नोमि धतुः प्राणान्प्रियेश्वर ॥ ४७ ॥ 
ग त्चयेच सहिता स्वगं भूमिवाथ महामते। नरकंचापि भोक्ष्यामि सत्यंसत्यंवदाम्यहम्‌ 
म्‌ त्वं चा पुत्रांस्तु पौत्रांस्तु ग्रहीत्वा यूथमुत्तमम्‌। EE 
| आवां व्रजावयूथेश दुर्गमेवं सुकन्द्रम्‌ ॥ ४६॥ 

| जीवितव्यं परित्यज्य मरणायासिगम्यते । तत्र कोद्दश्यते लाभो मरणे बद्‌ साम्प्रतम्‌ 
वाराह उवाच | 

वीराणां त्वं न जानासि सुधम शएणु साम्प्रतम्‌ । 

षी युद्धाथिना हि वीरैण वीरंगत्वा प्रयाचितम्‌.॥ ५१-॥ 


य! देहि मेयोधनं सङ्ख्ये युद्धाथ्यंहै समागतः । परेणयाचितं युद्धं न ददाति यदानरः ॥ 
'कामाल्लोभादुभयाद्वापि मोहाद्वा श्रणुवलमे । कुम्मीपाके तु नरकेवसेद्॒गसहस्रकम्‌॥ 
| कषत्रियाणां परोधमों युद्धं देयं न संशयः । तथुद्ध॑ दीयमानेन रणभूमि. गतेन चे ॥ 
| निर्जितं तु परंतत्र. यशःकीति' प्रभुञ्जते । सवाहतो युध्यमानः पौरुषेणाति निर्भयः ॥ 
बीरलोकमताप्नोति दिव्यान्भोगान्प्रभुञ्जते । यावद्व्षसहस्राणां विशत्येकां प्रिये शएणु 

4 वीरलोके वसेत्तावद्देचाचारैमंही यते। मुपुःसमायात अयंघीरो न संशयः ॥॥५७॥ 

न सङ्ग्रामं याचमानस्तु युद्ध रयं मपा भरुवम्‌ । . 

युद्धातिथिःसमायातो घिष्णुरूपःसनातनः ॥ ०८ ॥ 

ब सत्कारो युंद्धरूपेण कतेधयश्च मयाशुभे ॥ ५६॥ 

शकर्यचाच। .. द 
यदायुद्धं त्वयादेयं राक्षेचेव महात्मने । ततोऽयं पौरुषं कान्त पश्यामि - तवकीद्वशम्‌ ॥ 


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+ 


। १ ` पद्मपुराणम्‌ # [ २ भूमिके 
sts .... ` सुकलोवाच ।, . | | 
एवसुक्त्वा परियान्पुत्रान्समाइय त्घरान्विता । उघाच पुत्रकायूयं श्टणुऽ्वं वचनं मंम 
` युद्धातिथिःसमायातो विष्णुरूपःसनातनः । मया तत्र प्रगन्तव्यं यत्रायं हि गमिष्या 
यावत्तिष्ठति चै नाथो भवतां प्रतिपालकः। यूयं गच्छत वै दूरं दुर्गं गिरियुहामुख 
सुखं जीवतमेचत्सा वर्जेयित्वा सुलुव्धकान्‌ । | 
मया तत्रैच गन्तव्यं यत्रैष हि गमिष्यति ॥ ६४॥ 
_ भवतां श्रेष्ठोऽयंश्राता यूथरक्षां करिष्यति । एते पितृञ्यकाःसर्वे सचतां आणकारका 
' दूर प्रयात वै सर्वे मांचिहाय सुपुत्रकाः ॥ ६६॥ 


शला कनै 


| 
| 
पुत्राऊचुः । | 
- अयं हि पर्वतश्रेष्ठो बहुमूल फलोद्कः । भयं तु कस्य वे नास्ति सुखं जीवनमस्ति 
युवाभ्यां हि अकस्माद्वै इदमुक्तं भयङ्करम्‌ । तन्नोहि कारणं मातवद्‌ सत्यमिहैषहि | 
| ` झूकर्युचाच । | 
अयं राजामहारोद्रःकाळरूपःसमागतः । क्रीडते सुगयाळुव्यो स्गान्हत्यां बहन्वने ह्‌ 
“ इक्ष्वाकुर्नामढुधेर्घो मनुपुत्रो महावलः । संहरिष्यतिकाळोऽयं दूरंयात सुपुत्रकाः ॥३१ ग्‌ 
पुत्राऊचुः । | 
मातरं पितरं त्यक्त्वा यःप्रयाति स पापधीः। महारौद्रं ` सुघोरं तु नरकं प्रतिपद्यते | ! 
मातुःपुण्यं पयःपीत्वा पुष्ठोभचति निघु'ण: । मातरंपितरं त्यक्त्वा यः प्रयाति सुदुर्बंड 
पूर्यंनरकमेतीह कृमिडुगेन्ध सङ्कलम्‌ । मातस्तस्मान्तयास्यामो गुरुंत्यत्तचा इहैव च| 
एवंचिषादःसज्ञातस्तेषां धर्माथसंयुतः । व्यूरंछत्चा स्थिताःसर्वे बलतेजःसमाकुलाः । 
साहसोत्साहसम्पन्नाःपश्यन्ति नृपनन्द्नम्‌ । | 
न द्न्तःपौरुपे्ुक्ताःक्रीडमाना घनेतदा ॥ ७५ ॥ | 
इति श्रीपाद्य पुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपास्याने सुकलाचरित्रै |. 
द्विचत्वारिशत्तमोऽ्यार्यः। ` | । 


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हे त्रिचल्वारिशो5ध्यायः 
झो मेरुपवतेमनुपुत्रस्य सेनिकेःसह शूकरस्ययुद्धम । 
| | सुकलोचाच । 


| एवं ते शरूकराःसर्वे युद्धाय समुपस्थिताः पुरःस्थितस्य ते राजो हाचतस्थश्चलुन्धकाः: 
9. महावराहो “राजेन्द्र गिरिसानुं समाश्चितः | महता यूथभाचेन ब्यूहंऋत्वा प्रतिष्ठति ॥ ` 
| कपिलःस्थूळपीनाङ्गो महादंष्टो महामुखः । दुःसहःशकरो राजन्गर्जते चातिमैरवमणा 
तानपश्यन्महाराजःशालताळचंनाश्रयान्‌ । तेषां तद्ठचनश्वुत्वा मनुपुत्रःप्रतापचान्‌ 
गृह्यतां शुरवाराहो विध्यतां बळ्द्पितः । एवमाभाष्य तान्बीरो मनुपुत्र:प्रतापचान |. . 
{| अथ ते लुन्घकाःसर्वे खुगय। मदमोहिताः। 
संनद्धादंशिताःसर्चे श्वभिःसाद्धं प्रजग्मिरे ॥ ६॥ | 
॥ हर्षण महताविष्टो राजराजो महावलः.। अश्वारूढःसुसैन्येन चतुरङ्गेण संयतः ॥ ७॥ 


| 
१ गङ्गातीरं समायातो मेरौ गिरिवरोत्तमे । रल्नघातु समाकीर्णे नानावृ्लेरलडछत ॥ 


रुद्राक्लैवेरसिद्धि दायकघनेःकल्पदुमैःशो भते ॥ ११ ॥ न 


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| सुकलोचाच । 

| ` ` योवलघाममरीचिचयर्करनिकरमयप्रोत्तुङ्ोऽत्युच्चं-. 

इ .. गगनमेचसस्प्रा्ोंनानानगांचरितशोभोगिरिराजोभाति ॥ ६ ॥ 

| योजनबहळविमळगङ्गाप्रवाहससुच्चरत्तीरवीचीतङ्गभङ्गैसक्ता-. 
र] फलसद्वर्शेनिमेलाभ्बुकणे :सवंत्रप्रक्षा लिधवलतलशिलातलो- 

| __ 'गिरीन्द्रःखुभ्रियायुक्तः ॥ १० 

| ` . _ दैवेश्वारणकिन्नरेःपरिवृतो गन्धवेविद्याधरेः . 

|... .. सिद्धेरप्सरसांगणेमुनिजनेर्नागेन्दविद्याधरे: । 

| Tr -श्रीखण्डेबहुचुन्द्नैस्ससरळैःशालँस्तमालैगिरीः 


~> लक 


१ १४० # पद्मपुराणम्‌ # [ २ भूमिलणे 
` जानाधातु विचित्रो चै नानारल्ल विचित्रितेः | चिमानेःकाञ्चनेड ण्डेःकळत्रेरुपशोमते। 
. चालिकेरवनैदिव्यैःपूगवृक्षैविराजते । दिव्यपुन्नाग बकुलेःकदली खण्डमणिडते: |. 
पुष्पकश्वम्पकेरद्रिःपारळौ:केतकेस्तथा । नानाचल्लीवितानैश्च पुष्पितेःपद्मकेस्तथा। 
नानावणैं:सुपुष्पैश्च नानावश्ैैरलङक्कतः । दिव्यत्क्षैःसमाकीर्णःस्फारिकस्यशिलातःं 
योगि योगीन्द्रसंसिद्धःकन्द्राम्तनिवासिभिः । निर्फेशैश्चैव रम्येश्च वहुप्रस्रवणेगिरि 
नदीप्रचाह संदृछेःसङ्गमैदपशोभते । हदेश्च पल्वलैःकुण्डैनिरमेलोदकधारिभिः ॥ १७। 
` गिरिराजो विभात्येकःसानुमिःसह संस्थितैः। . | 
शरमैश्चैवशादू ल स्र रयूथैरलङक्कतः ॥ १८ ॥ | 
सहामत्तेश्वामात्तङगमं हिषे रुरुभिःसदा । अनेकेदिव्यभाचेश्च गिरिराजो विभाति स । 
अयोध्याधिपतिर्वीर इक्ष्वाकुर्मचुनन्दनः । तयालुभार्ययायुकतश्चतुरङ्ग वलेन च॥०५ 
पुरतोलुव्धका यान्ति. शूराः््वानश्व॒ शीघगाः । | 
यत्रास्ते शूकरःशूरो भार्यया संहितो वली ॥ २१॥ | 
) च शूकरेगुसो गुरुभिःशिशुभिस्ततः । मेरुभूमि: समाश्चित्य गङ्गातीरं समन्तत | 
सुकलोचाच | | 
तामुवाच वराहस्तु सुप्रियां ह्संयुतः । प्रिये पश्यलमायातःकोशला थिपतिवेली | , 
मामुद्दिश्य महाप्राज्ञो सुगयां क्रीडते रुपः । युद्धमेव करिष्यामि सुरासुरप्रहर्षकम्‌। 
अथभूपो महातेजा वाणपाणिधनुर्घरः । सुदेवां सत्यधर्माङ्गीं तामुचाच प्रहितः | 
पश्यप्रिये महाकोलं .गर्जमानं महाबलम्‌ । 
परिवारसमायुक्‍तं दुःसईं स॒गघातिमिः ॥ २६ ॥ 
अद्येचाहं हनिष्यामि सुवाणैनिशितैःप्रिये मामेव हि महाशूरो युद्धाय समुपाश्रय 
एवमुक्त्वा प्रियोभायों लुब्धकान्वाक्यमत्रवीत्‌ | यथाशूरो महाशराःप्रेषयध्वं हिशूकर 
अथते प्रेषिताःश्रा वलतेज:पराक्रमाः । गरजेमानाःप्रधावन्ति बळतेजःपराक्रमाः | 
कोळंग्रति गताःसव वायुवेगेन साम्प्रतम्‌ । विध्यन्तिबाणजालैस्तै निशितेर्वनचारक 
नाचाशस्त्रैरथास्त्रेश्व वाराह.चीररूपिणम्‌ ॥ ३१॥ . । 


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| त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ] # महायुद्धेलुब्धकानां. चराह्मणांचनाश# २४९ 

| सुकलोचाच । 

पतन्ति बाणतोमरा विमुक्तलुव्धके:शरा 

| घनो गिरिप्रवषिणो यथा तथा घरान्तरे। 

र हतो इुढ्प्रहारिभिःस निजितस्तस्तथाशतेस्तुयूश्रपालकःसक्रोळ सङ्गरंगलः ॥ ३२-॥ 

| स्वपुत्र पौत्रबान्धवेःपरांश्च संहरेत्स-चै 

| पतन्ति ते स्वदंद्र्‍या हताहवेऽव लुब्धकाः । 

| पतन्ति पादहस्तकाःस्थितस्यवेगञ्रामणै 

| सलुव्धगजमेवतं घराही5पश्यदागतम्‌ ॥ ३३ ॥. 

| स्वतेजसा विनाशितं सुखाग्रदष्र्याहतं । 

| गतःसयत्र भूपतिःखवाञ्ङतेःन सङ्गरम्‌ ॥ ३७ ॥ . 

| इक्ष्याकुनाथं सुमहत्प्रसह्य सन्त्रास्यक्रु्र्‍ःखहि शूकरैशः । 

| युद्धं चने वाञ्छति तेनसाद्धमिक्ष्वाकुणा सडुरदषषयुक्तः ॥ ३५.॥ 
बाराहःपुन्रैव युद्धकुशलःसंवाञ्छते . सङ्गरं 
तुण्डात्रेणखुतीक्ष्णदन्त नखरैःभुद्धो धरांक्षोभयन्‌ । 
डुङ्कारोचारगर्चात्म्रहरतिविमळं भूपति. तं च राजञ्ज्ञात्वा 
विष्णुपराक्रमं मचुञुतस्त्वानन्द्रोमाञ्चितः ॥. ३६ ॥. -. 
इष्ट्वा शुकरपौरुषं यमतुळं मेनेपतिरदेचराड्‌ ` 
देवा रिंमनसा विचिन्त्य सहसा चाराहरुपेण चै। 
सम्मेक्ष्येच महाबल बहुतर युक्तत्वरेर्वारणं 
सेन्यंकोळविनाशनाय सहसा सङ्गह्य सङ््यलाम्‌॥. ३७ | 
प्रेषिताश्च चारणा रथाश्च वेगचत्तराः 

ˆ ˆ खुंबाणंखङ्ग घारिणो सृशुण्डिभिश्च मुद्गरें | - 2 

- “सपाशपांणि लुब्धकानदन्तिलत्र॒तत्परा जर मद्य 
. निवारितो. नतिष्ठते हयागजाश्च यद्गताः ॥ ३८॥: ४... :. . :: 


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- कु आ कची ° | 
1 Tt) हौ | 


कचित्कचिन्नदूश्यते कच्रित्कचित्प्रदृश्यते | 
कचिद्भयंप्रदशंयेत्कचिद्धयान््रमदयेत्‌ ॥ ३६ ॥ पे 


ही मर्दयित्वा भटान्वीरान्वाराहो रणडुर्जयः । शब्दं चकार देष क्रोघारुणचिलोच 
कोसलाधिपतिर्वोरस्तं दृष्टया रणदुज॑यम्‌। युध्यमान महाकाय सुञ्चन्त मेघवत्स्वर' a 
| गर्जति समरं विचरति विलसति वीरान्स्वतेजसा धीरः । हि 
तडिदिव सुखेषु दंष्रा तस्यविभात्युल्लसत्येच ॥ ४२॥ | 
मनुपुत्रस्तथा द्रष्ट्या कोळं च निशितेःशाेः । प्रतिभिन्नमेकेकं शत्राहतं च वन्धु 
नरपतिरुवाच-सैन्याःकिमिहद न गृहन्तु ओजसा शूराः । | 
युध्यध्वं तत्र निशितैर्वाणैस्तीक्षणैरनेनापि ॥ ४४ ॥ | ३ 
समाकर्ण्य ततोवाक्यं क्रद्धस्थापिमहात्मनः । ततस्तेसैनिकाःसव युदरायसमुपरपित र 
अनेकेर्थटसाहसर्वने:त॑ समरेस्थितम्‌। दिक्षु:सर्वासुसंहत्य विभिडुःशकरं रणे ॥ ४ 
विद्वश्चकेश्चित्तदा वाणजालेःखुयोधेश्च सङ्ग़रामभूमो विशालः । र 
कचिच्यक्रधातैःकचिदज़पातैहतंडुजेयं सङ्गरेतं महान्तेः ॥४७७॥ | 
ततःपौरुषैक्रोधयुक्तःसकोलःसखुविच्छिद्य पाशान्नणे प्रस्थितः सः । | 
'महाशूकरेःसादधमेच प्रयातस्ततःशोणितस्यापि धाराभिषिक्तः ॥ ४८ ॥ । 
करोति प्रहारं च तुण्डेन चीरहयानां द्विपानां च चिच्छेद्‌ चीरः । ऱ्य 
स्वदं्राप्र भागेन तीक्ष्णेन वीरान्पदातीन्हि सम्पातयेद्रोषभावेः ॥ ४९ ॥ | 
जघानास्य शुण्डं गजस्यापि रुष्टो भरान्हतान्पादनखैस्तुहृ्ट वील ५०॥ | 
सतस्तेशूकराःसर्च लुव्धकाथ्च परस्परम्‌। युयुधुःसङ्गर . छृत्वा कोरणा 
लब्धकेश्व हताःकोलाःकोलेश्वापि सुलुब्धका।।  . ह 
निहताःपतिता भूमौ क्षतजेनापिसारुणाः ॥ ५२ ॥ 
जीवंत्यक्त्दा हताःकोलेछु ्यकाःपतितारणे । झताश्वशुकरास्तत्रश्वान गत 
यत्रतत्र खुताभूमौ पतिता खुगघातकाः। बहव:शूकरा. राज्ञा खड्गपातैनिपातिता/ 


कतिनष्टा हताःकोला भीताढुगघु संस्थिताः । कुज्ञेषु : कन्दरान्तेषु गुहान्तैपु ह 


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भर उ्रचत्वारिशो$ध्याय: ] # युद्धेचीराणांधर्मवर्णनम्‌ $ ह डी र ह 
|. कः लुग्धकाथ्ध. ` सृताःकेचिच्छिन्नादष्ट्रग्रसूकरैः । | ५ जी 

म प्राणास्त्यक्त्वा . गतास्वगं खण्डशोविदलीरता: ॥ ५६.॥ ८ 

१ क कुटका-पञ्चरास्तथा, । नाड्यञ्च पतिताभूमौ यत्रतत्र समन्ततः ॥ | 
| एकोदयितयासाघँ बाराहःपरितिष्ठति । पौरकःपश्चस्तभियुःदवार्थं बलदरपितः ॥ ५८ ॥ 

| तमुवाच तदाकान्तं शूकरं शूक्करी पुनः। गच्छकान्त मयासाउ मे भिस्तु .वाळकेःसह ॥ 
| 'आाहप्रीतो घराहस्तां विवस्तां सुप्रियामिति । । 

' क गच्छामि प्रभप्रो5हं स्थानंनास्ति महीतले ॥ ६०.॥ 

| मयिनष्टे महाभागे कोळ्यूथं विनङ्क्ष्यति । योश्च सिहयोमंध्ये जळ पिवति शकर: 
ई इथोऱमूकर्योमंध्ये सिंहोनेच पिवत्यपः । एवं शकरजातिषु इश्यते. वलसुत्तमम्‌ ॥६२॥ 
ुँ तदहं नाशयास्येव यदाभझो बजाम्यहम्‌ ।. जाने धर्म महाभागे ` बहुश्रेयो विधायकम्‌ ॥ 
१ कस्मालो भाद्कयाद्वापि. युध्यमानःप्रणञ्यति । रणतीर्थप रित्यज्य सस्यात्पापी न संशयः 

। निशितं शस्त्रसंब्यूई दुष्ट्वा हषं प्रगच्छति । 'अवगाह्यामरींसिन्धु तीर्थपारं प्रगच्छति॥ 

|स याति चष्णवंलोकं पुरुषांश्च समुद्धरेत्‌ । समायान्तं च तदहं कथं भझो अजामि चे ॥ 

| योधनं शस्रसङ्कीणँ प्रवीरानन्द्दायकम्‌ । 

| दृष्ट्या प्रयाति संहृष्टस्तस्य पुण्यफलं श्टणु ॥ ६७॥ 

'पदेपदे महत्स्नानं भागीरथ्याः प्रजायते । रणाङ्गो गृहंयाति योलोमाच्च प्रिये श्रणु 
तोष प्रकाशेत सञ्रीजातःपरिकथ्यते । अत्र यज्ञाश्च तीर्थाश्च अत्रदेचा महौजसः ॥ 
| पश्यन्ति कौतुकं कान्ते मुनयःसिद्धचारणाः | 

. तेलोक्यं चतंते तत्र यत्र वी स्पकाशंनम्‌ ॥ ७०.॥ : 
|समराङ्गग्नं पश्यन्ति सर्वे त्रैलोक्यचासिनः । शपन्ति निचुणं पापं प्रहन्ति पुनःपुनः 
गतिं दर्शयेत्तस्य धर्मराजो न संशयः | सम्सुखःसमरे युद्धे ्त्रशिरःशोणितं पिबेत्‌ ॥ 
ड अश्वमेध फलमुङ्क्ते इन्द्रलोको प्रगच्छति। . . :r 
| यदा जयति. सङ्ग्रामे शत्रूज्छरो वरानने ॥.७३॥ . .: .. 
त 


दा प्रमुञ्ञते लक्ष्मी जानामोगान्नसंशयः । यदा तत्न 'त्यजेत्याणान्सेम्सुख : 
Digiized by 604 ॥सक्निराश्रयः 


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।! १४३४ *# प्पुराणम्‌ ॐ [२ भूमिख् 


सगच्छेत्परमंस्थानं देवकन्यां प्रभुञ्जते । एवं धम चिजञानामि कर्थभग्नो . बजञाम्यहम्‌। 
अनेन समरेयुद्धं करिष्ये नात्र संशयः । मनोःपुत्रेण घीरेण राज्ञा इदघाङणासह। 
'डिम्मान्ण्रृहीत्वा याहि त्वं सुख जीव घरानने। उन | 
तस्य श्चत्वा. वचःप्राह बद्धाहं त्ववन्थनः ॥ 99 ॥ fF 
. स्नेह मानरसाख्यैश्च रतिक्रीडनकःप्रिय । पुरतस्ते सुतेःखाद्‌ प्राणांस्त्यक्ष्यामि मार 
एचमेतौ खुसम्माष्य परस्पर हितेषिणौ । युद्धाय निश्चितौभूत्चा समालोकवतो रि 
कोशळाधिपति चीरं तमिद्ष्वाकुं महामतिम्‌ ॥ ८० ॥ 
यथैच मेघःपरिगर्जतेदिचि प्रावृट्सुकालेषु तडित्प्रकारीः । 
तथैच सद्ठुजेति कान्तयासमं समाहयेद्राजवर खुराः ॥ ८१॥ . 
तं गंजमानं ददूशो महात्मा वाराहमेक पुरुषार्थयुक्तम | ` 
ससार अश्वस्य जवेन युक्तःससम्मुखं तस्य न्ववीरधीरः ॥ ८१॥ 
इति श्रीपाद्यपुराणे द्वितीये भूमिखण्डेबेनोपाख्यानेसुकळाचरिजेत्रयश्चत्वारिशी 


SS 


चतुश्चत्वारिंश ऽध्यायः 
शूकरस्पसह मनुपुत्रस्ययुद्वकरणम्‌ । . 


सुकलोवाच्र। . 
स्वसैन्यं दुर्धरंद्वष्ट्चा निर्जितं दुर्धरेणं तत्‌ । चुकोप भूपतिःक्रूरं दुःसहं शूकर मी 


७ २ 
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अनुरादायवेगेन बाण कालानलोपमम्‌! तस्याभिमुखमेचासौ हयेनांभिसंसांर स 
` स यदा नृपतिः हयपृष्ठगतं वरपौरुषयुक्तममित्रहणम्‌ | 
_ परिपश्यति इूकरयूथपतिःप्रगतोऽमिमुखं रणभूमितले ॥ ३ ॥. - | 
निशितेन शरैण हतो हि यदा नपतेहेयपादतले प्रगत: | ` : 1 
5: .तमिहैच विलङ्घ्य च वेगमनाःप्रखरैणःजवेन च कोलवरः ॥ ४॥ 


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| ' बञ्चचत्त्रारिशोऽध्यायः ] # मनुपुत्रस्य सेनिकेसह शूकर्यायुद्धकरणम्‌ # 
व्यथितस्तुरगःसकिरिःकिरिना न हि थाति -क्षितौ स हि चिद्व तिः । 
तुर्गःपतितो सुषि तुण्डहतो लघुस्यन्दनमेबगतो नृपतिः: ॥५॥ = 


स हि गर्जति शकरजातिरवेरथसं स्थित कोशळपेनजचात्‌ । 


कत्वा हि युद्ध समरेहि तेन राह्ञासमं शुकरराजराज:। . . 
पपात भूमो च हतो यदा तु ववर्षिरे देबचराः सपुष्पैः ॥ ८॥ 
तस्योश्वंगःपुष्पचयःसुजातःसन्तानकानामिव सौरभश्च I: 
` सकुङ्कुमैश्चन्द्नवरष्टिमेचःकुरवन्ति देचाःपरितुष्यमाणाः ॥ 8 ॥ 
विस्श्यमानःस हितेन राज्ञा चतुर्भुजःसोऽपि बभूच. राजन्‌ । 


दिव्येनयानेन दिघंगतो यदा सुपूज्यमानःसुरराज देवे: । - 
'गन्धर्वराजःसबभूच भूयःपूर्व स्वकं कायमिहेच 'हित्वा ॥ ११॥ . 


पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः 


सुकलोवाच। . . 


दिव्यास्वरो भूषणदिन्यरूपःस्वतेजसाभांति दिवाकरो यथा ॥ १० ॥ 


मलुपुत्रस्य सेनिकेसह शकर्यायुद्धकरणम्‌ ।. . . . 


"१४५ 


गद्या निहतःकिलभूपतिना रणमध्यगतःसहि यूथपतिः ॥ ६॥ . . 
` परित्यज्य तनु च. स्वकां हि तदा. गतएव हरेश हमेच घरम्‌॥७॥. | 


इति थोपाद्यपुराणे द्वितीये भुमिखण्डेवेनोपाख्यानेसुकळाचरित्रेचतुश्वत्वारिशो ऽध्यायः 


अथ ते लुब्धकाःसर्वे शूकरींप्रति जग्मिरे | श्राश्व द्वारुणाःप्राप्ताःपाशहस्ताश्च.भीषणां: 


} 


| 


| 


| चतुरश्च ततोडिम्मान्वृत्वा स्थित्वा च. शूकरी कुटुग्येनसमं कान्तं हतं इप्ट्चामंहाहने 


भंतुमें चिन्तितं प्रात्तसुपषिदेवेश्व पूजितः! गतःस्वगं महात्मासौ वीर्यणानेन कर्मणा | 


अनेनापि पथायास्ये स्वगं भर्त्ता -सतिष्ठति। ... 


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Vr. (= 


वव 3०5 पत क पदापुराणसू "५ ^ 4 . [२ भूमिखणे,, 
` तथा सुनिश्चित छृत्वा पुत्रान्प्रति विचिन्तितम्‌ ॥ ४ ॥ | 
यदाजीचन्ति मेवाळाश्चत्वारोबंशधारकाः। भवत्यस्य खुवीरस्य कोळस्या पिमहात्मर्‌ , 
केनोपायेन पुत्रान्वे रक्षायुक्तान्करोम्यहम्‌। इतिचिन्ता परामूत्वा इष्ट्वा प्रवेतसडुर| : 
तत्रमागँसुचिस्ती णंनिष्कासायप्रयास्यते । तयासुनिश्चितंृत्वा पुत्रान्प्रतिविचिन्तिता 
तानुवाच महाराज पुत्रान्पति सुमो हितान्‌। यावत्तिष्ठाम्यहं पुत्रास्तावद्गच्छत शीघ्रगा 
तेषांमध्ये सुतोज्येछःकथं यास्यामि मातरम्‌ । ः र 
संत्यज्य जीचलोभाच्च घिङ मे मातःसुजीवितम्‌॥ 8॥ ` | | २ 
पिठ्वैस्करिष्यामि साधयिष्येरणेरिपून। ग्रहीत्वात्वं कनीयसो भ्रातू नस््रीन्दुर्गकन्द्स| 
'पितरंमातरं त्यकत्वा यो याति हि सपापधीः । नरकंचप्रयात्येच झमिकोडिसमाकुस्म 
तमुचाच सुदुःखार्ता त्वां त्यकत्वाहं कथं खुत । ।प 
संयास्यामि महापापा त्रयोगच्छन्तु मे सुताः ॥ १२॥ 1३ 
कनीयसल्लयस्त्येच गतागिरि वनान्तरम्‌ । तौ जग्मतू रणभुवं तेषामेच घपस 
तेजसा सुवछेनापि गर्जेन्तौ च पुनः पुनः । अथ ते छुव्धकाःशूराःसम्प्राप्ता चातरहर 
तथातेनापि दुर्गेण तरयस्तेप्रेषिता टप । तिष्ठतःस्मपथंरुद्धा द्वावेते! जननीखुतो। 
ळव्घकाश्च ततःप्राप्ताःखड्गवाण धनुधराः । प्रज्चुस्तोमरेस्तीक्ष्णश्चक्रेश्वमुसलस्त 
मातरं पृष्ठतःछृत्वा तनयोयुध्यतेसतैः । दं्र्‍यानिहता:केचित्केचित्तुण्डेन घातिताः| 
सञ्जघान खुरागरैश्च शूराश्च पतितारणे। युयुधे शूकरःसङ्कये दृष्टो राज्ञा महात्मना। 
पितुःसकाशाच्छूरोऽयमितिज्ञात्वा सम्मुखः । बाणप्राणिमेहातेजा मनसु 
निशितेनापि वाणेन अद्धचन्द्रानुकारिणा । 
राज्ञाहतःपपातोर्व्या घिद्धोरस्को महात्मना ॥ २०॥ | 
ममार सहसा भूमौ पपात स हि शूकरः । पुत्रमोहं परं प्राप्ता तस्योपरिगता स्वयम्‌ 
तया. च निहताःशूरास्तुण्डघातेमेहीतरे । निपेतुर्ळन्यकाःशराःक तिनट्टा म्रृतानुप ॥२ 
द्रावयन्ती महत्सन्यं दंष््र्याः सूकरीत्ततः। ` ... : ``. | 
यथाळत्या समुदुभूता महाभय विधायिका ॥ २३ ॥ घर | | 


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"ण 


है, बट्चत्वारिंशोऽध्य!यः ] #श्वसन्त्या झूकर्याःसुदेवयाशीतलजळेनमुखसेचनम्‌ # १४७ 
| तमुबाच ततोराज्ञी देवराज सुतोपमम्‌ । अनया निहतं राजन्महत्सन्यं तचेच हि ॥२४॥ 
कस्मादुपेक्षसेकान्त तत्मे त्वं कारणंचद्‌ । तामुचाचमहाराजो नाहं हन्मि इमां स्त्रियम्‌ 
प महादोषं प्रियेद्व्ठं खीचधे दैवतैःकिल । तस्मान्नघातथेन्नारीं प्रषयेऽहँ न कंचन ॥२६॥ 
प  अस्यावध निमित्तार्थे पापादुविमेमि सुन्दरि । 
| एचसुक्त्चा तदा राजा चिरराम महीपतिः ॥ २७ ॥ 
'छन्चको झार्करोनाम द्रो स तु सूकरीम्‌ । कुन्तीं कदनं तेषां दुःसहां सुभरैरपि ॥ 
। आविव्याध सुवेगेन वाणेन निशितेन हि। संलग्ने न तु वाणेन. शोणितेन परिप्लुता 
स शोभमाना त्वरां प्राप्ता चीरश्रिया समाकुला । 
ग दुण्डेनापि इतःसङ्गुये झाझरःस तया पुनः ॥ ३० ॥ 
पतमानेन तेनापि झाकेरेण तदाहता। खड्गेन निशितेनाफिंपपात चिदळी कृता ॥३१॥ 
वसमाना रणेनापि मूच्छेनाभिपरिप्लुता । दुःखेन महता विष्टा जीवमाना महीतले.॥ 
॥ इति श्रीपाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने खुकलाचरित्रे 


; पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५॥ . 

॥ | जल्ला 

| 

| रो 

॥ षटूचत्वारिशो5व्यायः 

| स्वसन्त्याञ्चकयांः सुदेवयाशीतलजरेन ग्रुखसेचनम । 
| सुकलोवाच । 


अबसन्तींशूकरीद्रष्ट्चा पतितांपुत्रवत्संलाम्‌ । सुदेवाकृपयाविष्टा गत्वा तां डुःखितांप्रति 
ी अभिषिच्य सुखं तस्याःशीतलेनोदकेन च। 

रर पुनःसर्वाङ्गमेवापि दुःखितां रणशालिनीम्‌ ॥ २॥ i 
पण्येन शीततोयेन सा उचाचाभिषिञ्चतीम्‌। उचाच मानुषींचाचं सुस्वरं नुपतिप्रियाम्‌ 
प्न भवतु ते देवि अभिषिक्ता,त्वया यदि । सम्पकांदर्शेनात्त5य गतो मे पापसञ्चयः 


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। 
7. १४८  . 9... अँ पद्यपुराणम्‌ # [.. भूमि 


` त्दाकण्यं महद्वोक्यमद्रुताकारसंयुतम्‌ः। चित्रमेतन्मंयादृष्टं इत्‌. तेऽनामयंचचः ॥ ५ 
= पशुजातिमतीचेयं सौष्ठचं भाषतेस्फुटम्‌। स्वरच्यञ्जनसम्पन्न सस्कतसुत्तसं मम ||, 
हर्षण चिस्मयेनापि त्वा साहसमुत्तमम्‌ | $ । 
तत्रस्था सा महाभागा तं पति बाक्यमत्रचीत्‌॥ 9 ॥ | 
पश्यराजन्नपूर्वेयं संस्कृतं भाषतेः महत्‌ । पशुयोनिगताचेयं यथा वै माचुषो बके 
तदाकण्ये:ततोराजा सवेज्ञानवतांवरः । अद्दुतमड्डुताकार यञ्नदु्ट शुत सया ६॥ श 
तामुवीच ततोराज़ा सुदेवां खुप्रियां तदा.। a 
- पूच्छचैनां शुभांकान्ते काचेयं तु भविष्यति॥ १०॥: ` 
श्रत्वा तु वृपतेर्वाक्यं सा पप्रच्छ.च सूकरीम्‌।' `. `` 
का भविष्यसि त्वं भद्रे चित्रे ते दृश्यते बहु ॥:११ ॥ 
पशुयोनिगता त्वं वै भाषसे माइुषंवचः । सौष्ठवं. ज्ञानसम्पन्नं चढ मे पूर्वे 
भर्तश्चापि महाराज भटस्यास्य महात्मन: । कोऽयं धर्मी महाचीयों गतःस्वगं पराइ 


आत्मनश्च स्वसर्तश्व खर्वं पूर्चानुगं बद । एवमुक्त्वा महाभागा विरराम नप्रय 
१ | 
शकयचाच । भ 


ज्या दी 7 व 


यदिपृच्छसि मां भद्रे ममास्य च महात्मनः । तत्सवं ते प्रवक्ष्यामि चरितं पूर्वचे 
अयमेष महाप्राज्ञो गन्धर्वो गीतपण्डितः। रङ्गविद्याधरोनाम सर्वशास्त्रार्थ 
मेरुं गिरिघरश्रे्टं चारुकन्द्र निकरम्‌ | तमाश्रित्य महातेजाःपुळस्त्यो मुनिसत्तमा 
तपश्चचार तेजस्वी निर्व्यलीकेन चेतसा । विद्याधरस्तत्रगतःस्वेच्छया स 
तमाश्रित्य गिरिश्रेष्ठं गीतमभ्यसते तदा । स्वरताल समोपेतं सुस्वरं र 
गीतं श्रुत्वा सुनिस्तस्य ध्यानाच्चलित मानसः। . . | 
गायन्तं तमुवाचेदं गीतविद्याधरं प्रतिं॥ २०॥ - . ... f 
भवद्वीतेन (दिव्येन देघासुह्यन्ति नान्यथा । सुस्वरेण सुंपुण्येन ,ताळमानेनं 
.. ्ययुक्तेन-भाघेन - मूच्छेनासहितेन च । मे मनश्चलितं ध्यानाद्गी तेनानेन सुन्रत॥ २ 


इद्स्थान परित्यज्य अन्यस्थानं ्रजस्चतत्‌ ॥ २३ ॥ 
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 बदूचत्चारिशोध्याय: ] # शूकरस्यात्मनश्व पूवेजन्मचरित्रव्णुनम्‌ # र्ध ; 
५ | 


गीतविद्याधर उवाच | ` ` ग 
'९आत्मज्ञानसमंगीतमहसंत्र प्रसाधये । दुखंददे न कस्यापि सुखदो नृषु सर्वदा ॥ २४॥ 
है! गीतेनानेन दिव्येन सर्वास्तुष्यन्ति देवता: । 


| शम्युश्ापि समान्रीतो गीतध्चनिरतो द्विज ॥ २५॥ 
गीतं सचेरसं प्रोक्त गीतमानन्दद्वायकस्‌ । १उङ्गाराद्मारसाःसर्वे गीतेनापि प्रतिष्ठिताः ॥ 
शोभामायान्तिगीतेन वेदाश्चत्वार, उत्तमा: । गीतेनदेबताःसर्थास्तोषमायान्ति नान्यथा 
तदेवं निन्द्से गीतं मामेवं परिचाल्ये: । अन्यायोऽयं महाभाग तवेच इहद्दश्यते ॥२८॥ 
| पुलस्त्य उवाच | 
सत्यसुक्त त्वयाच गीताथं बहुपुण्यदम्‌ । ३एणुत्वं मामकं वाक्य मानं त्यज महामते ॥ 
चाहं गीतं प्रकुत्सामि गीतंघन्दामि नान्यथा । विद्याश्वतुदेशेवेता एकीभावेन भाषदा 
त प्राणनां सिद्धिमायान्ति मनसा निश्चलेन च । 
त्र तपश्च तडन्मन्त्ाश्वसुसि ददघधन्त्येक चिन्तया ॥.३१ ॥ 
यहिषीकाणां महाचर्गश्चपलो मम संमतः ।. विषयेष्वेच सवषु नयत्यात्मानमुच्चके॥३२॥ 
चालयित्या मनस्तस्माद्वथानादेव न संशय: । यज्ञशब्दं न.रूपं च युचतीनेच तिष्ठति ॥: 
.: . सुनयस्तत्र गच्छन्ति तपः सिधर्थमेच: हिः। 
र ` ` अयंगीतःपंब्ित्रस्ते बहुसौख्यप्रदायकः ॥ ३४ ॥ 
म पश्येम वयं वीर तिष्ठामोचनसंस्थिताः । अन्यत्स्थानंप्रयाहि त्य नो वा चये घजामहे 
गो ` `. .गीतविद्याधर उवाच ... -. ` 
इन्द्रियाणां . वलंवग॑ जितं. येन महात्मना | 
. _ _ स॒ जयी कथ्यते योगी स. च वीरःस साधकः ॥ ३६॥ 
।न्दिशुत्वाथ वा दृष्ट्या रूपमेचं महामते । चलतेनेच यो ध्यानात्सक्षीरस्तपसाधकः ॥ 
तेजसाहीन इन्द्रियेविजितोयतः । स्वर्गेऽपि नास्ति सामथ्य-ममगीतस्यधर्षणे 
जि घनं सर्वे हीनवीर्या न संशय: | अयं साधारणोविप्र, चनदेशो न संशयः ॥ 
| ` . .- चेदानां सवंजीचानां यथामम तथातव। 


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७ 
* 


` १७० ९ # प्मणुराणम्‌ # टे पिश 
` कथं गच्छौम्यहं त्यक्त्वा धनमेवमनुत्तमम्‌॥ ४० ॥ . जक 
यूयं गच्छन्तु तिष्ठन्तु यद्वव्यं तत्त नान्यथा । एवमाभाष्य त विप्र॑ गीतविद्याधरस्ता 
| समाकण्ये ततस्तेन मुनिना तस्य उत्तरम्‌। | 
चिन्तयामास मेधावी किंङृत्वा खुछृतं भवेत्‌ ॥ ४२॥ | 
क्षमांछत्वा जगामाथ अन्यत्स्थानं द्विजोत्तमः । तपश्चचार घमात्मा योगासनगत:छ 
कामंक्रोधं परित्यज्य मोहंलोभ॑ तथैव च । सर्वेन्द्रियाणि संयम्य मनसा सममेव 
` एवं स्थितस्तदायोगी पुलस्त्यो सुनिसत्तमः ॥ ४४ ॥ | 
सुकलोवाच। | 
गतेतस्मिन्महाभागे पुलस्त्ये सुनिपुङ्गवे । काछादिशेन तेनापि गीतबिद्याधरेणः 
चिन्तितं सुचिर काळं न इष्टोऽयं भयान्मम । कगतस्तिष्ठते वापि कुरुते कि कथं व्‌ 
ज्ञात्वा पद्मात्मज खुतमेकान्त वनशालिनम्‌ । गतो वराहरूपेण तस्याश्रममजुत्तम्मू 
आसनस्थं महात्मानं तेजोञ्चालाखमा बिलम्‌ । 
दृष्ट्या चकार वै क्षोभं तस्यचिप्रस्य भामिनि ॥ ४८॥ | 
धर्षयेन्नियतं विप्रं तुण्डाग्रेण कुचेष्टया । पशु ज्ञात्वा महाराज क्षमते तस्यदुष्हृतम्‌ 
मूत्रयेत्पुरतःछृत्वा विष्ठां च कुरुते ततः । नृत्यते क्रीडते तत्र पततिप्ो सेतुर 
ज्ञात्वा परित्यक्तो सुनिनातेन भूपते । एकदा तु तथाऽऽयाते तेनरूपेण वे पुढ 
अट्टाइहासेन पुनर्हास्यमेबं छतं तदा । ` | 
रोदनं च ङतं तत्र गीतं गायति सुस्वरम्‌॥ ५२॥ | 
तथातमागतं विप्रो गीतविद्याधरं नृप । चेष्टितं तस्य वै दृष्ट्या घोणीह्येष भवेत 
ज्ञात्वा तस्य तु वृत्तान्त मामेवं परिचाल्येत्‌ । पशुंज्ञात्वा मयात्यक्तो दष्टपछुनि 
एवंज्ञात्वा महात्मानं गन्धर्चाधममेच हि । चुकोप मुनिशादू रतं शशाप महामतिं 
रास्मात्यूकररूपेण मामेचं परिचाळ्येः । 
तस्मादुबज महापापं पापयोनि तु शौकरीम्‌ ॥ ५६ ॥ 
शा्तस्तेनापि विप्रेण गतोदेवं पुरन्द्रम्‌। तमुवाच महात्मानं कम्पमानो | 


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सप्तचत्वारिशो5ध्यायः ] # शूकर्याआत्मनः पूबे जन्मच रित्रवर्णनम्‌ # ण 
श्टेणुवाक्यं सहस्राक्ष तवकार्य कृतंमयां । 'तपएव हि कुवेन्सम्दारुणं मुनिपुङ्गचः ॥ 
तस्मात्तपःप्रभावात्तु चालितःक्षो भितो मया । शप्तस्तेना स्मि विम्रेणदेवरूपं प्रणा शितम्‌ 
पशुयोनि गतंशक्रमामेंचं परिरक्षय । ज्ञात्या तस्य स वृत्तान्तं गीतविद्याधरस्य च ॥ 
तेनसाद्ध॑ गतश्रेन्द्रस्तं मुनि पर्यभाषत । 
दीयतामजुग्रहो नाथ -सिद्धशो५सिद्धिजोत्तमः ॥ ६१ 1! 
क्षम्यतां मुनिवर्यास्मिन्क्रियतां शापमोक्षणम्‌ ॥ ६२॥ 
पुलस्त्य उवाच ।* 
इतिसमस्प्रार्थितो विमो महेन्द्रेणाह दृष्टधी: । घचनात्तच देवेश क्षन्तव्यं च मयाणि हि 
भविष्यति महाराज मञुपु्रो महाबलः ॥ ६३॥ 
इक्षवाकुर्नास धर्मात्मा सर्वेघरमांनुपाळक: । तस्यहस्ताद्दाशरत्युरस्येच च भविष्यति 
तदेष यैस्वकं देहं प्राप्स्यते नात्रसंशयः । पतत्ते स्वेवृत्तान्तं शुकरस्यनिवेदितम्‌॥ 
आत्मनश्च प्रवक्ष्यामि पत्यासाद्ध श्रणुष्च हि । मया च पातकं घोरं तंयत्पःपयापुरा । 
इति श्रीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे देनोपाख्याने सुकलाचरित्रे - 
षट्चत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४० ॥ | 


` सप्तचत्वारिंशो$ध्याय: ` 
शूकर्याआत्मन:पूर्व जन्म चरित्रवर्ण नम्‌ 
सुकलोचाच । 


शूकयुवाच । | 
पशोर्भावेन मोहेन भुष्टाइं चरवणिनी । (नहता खड्गबाणैश्च पतितारण मूर्धनि ॥ ३। 


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| (एनी # पद्मपुराणम्‌ # , * [२ भूमिलणे 
ः सूच्छंग्रामि परिक्लिन्ना ज्ञानहीना घरानने | त्वयाभिषिक्ता येनाहं पुण्यहस्तेन सुन्दरि 
पुण्योदकेन शीतेन तव हस्तगतेन वै । अभिषिक्ते हि मे काये मोहोनछो विहायमाम्‌| नै 
यथाविनाशं तेजो भिरन्धकारःप्रयाति सः। तथातवाभिषेकेनः मम पापंगतं शुभे॥. 
प्रसादात्तवचाबे क्लि लञ्च ज्ञानं पुरातनम्‌ । पुण्यांगति प्रयास्यामि इति ज्ञातंमया शुभे 
श्रूयतामभिधास्यामि पूवंवृत्तान्तमात्मन: | - : चा 
यत्कृतं तु मया भद्रे पापया दुष्कृतं बहु ॥८॥ 
कलिङ्गाख्य महादेशे श्रीपुरं नामपत्तनम्‌ । सवेसिद्धि समाकीर्ण चतुयेणेनिषेचितम्‌। 
बसतिस्म द्विजःकोऽपि वसुदत्त इतिश्रुतः । ब्रह्माचारपरोनित्यं सत्यधमपरायणः || 
वेदवेत्ता ज्ञानवेत्ता शुचिमान्गु णवान्धनी ।. . | | 
धनधान्य समाकीर्णःपुत्रपौत्रेरळङ्क्रतः॥ ११॥ . ` चं 
तस्याहं तनया भद्रे सोद्रेःस्वजनवान्धवेः । -अळङ्कारेस्तु ` शउङ्गारमू षितास्मिचरानने 
सुदेवानाम मे तातश्चकार स महामतिः।. तस्याहं दयिता नित्यं पितुश्चापि महामते ॥| 
रूपेणा प्रतिमाजाता संसारेनास्ति तादूशी | रूपयौवनगर्चण मत्ताइं चारुदासिनी॥ 
अहंकन्या सुरूपा. वे सर्वालङ्काणशो मिता । हु 
मां च दृष्ट्या ततोलोकाःसर्च स्वजनवगंकाः ॥ १५ ॥ 
) याचमानास्तेचिवाहाथे घरानने। याचिताहं दिजेःसर्वेनंद्दाति पितामम॥ | 
स्नेहाच्चेच महाभागे मुमोह स महामतिः । न दत्ताहं तदातेन पित्राचैच महात्मना | ता 
सम्माप्तं यौचनं वाळे मयि सावसमन्वितम्‌। रूपमेताद्ृशं द्रष्ट्या मममाता सुदुःखिता ६ 
पितरंमडचाचाथ कस्मात्कन्या न दीयते। .. कि 
त्वं कस्मै सुद्विजायेच ब्राह्मणाय- महात्मने ॥ १६ ॥ 
दैहि कन्यां महाभाग सम्प्राप्ता यौचन त्वियम्‌ । वसुदत्तो द्विजश्रेष्ठ प्रत्युचाचद्विजोत्तमः 
मातर मे महाभागे श्रूयतां वचनं मम । महामोहेन मुग्धो5स्मि सुताया चंरचणिनी ॥ f 
यो मे गृहस्थो विप्रो वे भविष्यति शुभे >णु। | 
तस्मै ` कन्याँ प्रदाष्यामि जामात्रे तु न संशयः ॥ २२॥ - .. | 


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ज्ञ, 


दे पप्तचत्वारिशो 5ध्याय:] *सुदेवानास्न्या दुराचारदूषिताया:पतिचः्ञना दिवर्णनम%१५३ - ` 


रिपमप्राणप्रियाचैषा खुदेवानात्र संशय: । एचमूचे -मदर्थस घसुदत्त:पिता मम ॥ २३॥ 

॥ ह शिकस्य कुलेजातःसवेविद्याविशारदः। ब्राह्मणानांगुणैर्यक्त शीळ्वान्युणचाञ्छुचिः | 

।| ` वेदाध्ययनसम्पन्नं पठमानं हि सुस्वरम्‌। 2 र 

मे; भिक्षाथं द्वारमायान्तं ` पितृमातृ विबजितम्‌॥ २५ ॥ 
| >>! ल । तं प्रोवाच पिताएवं को भवान्वेभविष्यति 
क तेनाम कुल र * षद्‌ साम्प्रतम्‌ । समाकर्ण्य पितुर्वाक्यं घखुदत्तमुवाच 

॥ गैशिकस्यान्वयेजाते वेदवेदाङ्गपारगः ।. शिवशर्मेति मेनाम पितृमातृिवर्जित ह 

॥ | . सन्ति मे भ्रातरश्चान्ये चत्वारोवेदपारगाः । 
[` एव पाते पिएं पड की ॥ २६ ॥ Rr 

बं सव समाख्यातं पितः णा । शुभळग्ने 'तिथोप्राप्ते नक्षत्र 
त्रादत्तास्मि सुभगे तस्मै विप्राय वै तदा | र वसास्येका त गा 

| नेव शुश्रूषितो भर्ता मया स पापया तदा! : 

॥ | पितृमाठ सुद्रव्येण गर्वेणापि परमो दिता ॥ ३२॥ 
संवाहनं तस्य नकृतं हि मंयाकदा । रतिभावेन स्नेहेन वचने न मयाशुभे | ३३ ॥ 
| करबुद्धयाहि दृष्टोऽसौ सर्वदा पापया मया । | 

॥ पुग्चलीनां प्रसङ्गेन तद्गावं हि गताशुभे ॥ ३७ ॥ 

॥ तापितोश्च भतुश्च भ्रातृणां हितमेच च । न करोम्यहमेचापि यत्रयत्र त्रजाम्यहम्‌ ॥ 

1 मे डुष्कृतं दृष्ट्या शिवशर्मा पतिमंम। स्नेहाछ्श्रवगेस्य ममभर्ता महामतिः| 
किचिद्वक्ति मां सोऽपि क्षमते दुष्कृतं मम । वार्यमाणा कुटुम्बेन अहमेवं सुपापिनीः . 
| तस्यशील' विदित्वा तेः साध्॒त्वं शिवशर्मण: । 

ः | पितामाता च में.सब्र ममपापेन दुःखिताः ॥ ३८॥ ह 

॥ || मे.दुष्कतं दृष्ट्या स्वग्रहान्निंगतोबहिः । तं देशं ग्राममेन च परित्यज्य यतस्ततः 
भतेरि मे तातःसज्ञातश्चिन्तयान्वितः । ममदुःखेन दुःखात्मा. यथारोगेणपी डित kt 
EE उचाचैनं भर्तारं दुःखपी डितम्‌ । कस्माच्चिन्तयसे कान्त बद्दुखं ममाग्रतः ॥ 


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Ee Bere . # पद्मपुराणम्‌ # [ २ भूमि क्‍ 
वसुदत्त उचाचैनां मातरं मम नन्दने । ` 2 | 
सुतां त्यकत्वा गतोविप्रो जामाता श्टणु चल्लमे ॥ ४२॥ | 

इये पापसमाचारा निर्छुणा पापचारिणी | अनया हि परित्यकतःशिवशमां महाम 

` समस्तस्य कुटुम्बस्य दाक्षिण्येन महामतिः। मामायं सद्विजःकान्ते सुदेचां नेवा | 
चसते सौम्यभादेन नैचनिन्दति कुत्सति। ` | 
सुदेवां पापसञ्चारां स चे पण्डितबुद्धिमान्‌॥ ४५॥ 6 
भविष्यतित्वियं दुष्टा सुदेवा कुलनाशिनी । अहमेनां परित्यञ्य त्रजामि वा 
ब्राह्मण्युचाच । 
अद्यज्ञातं त्वया कान्त सुताया गुणदूषणम्‌। तवमोहेन स्नेहेन नग्रेयं श्रणु सार 
तावद्विलाडयेत्पुतरं यावत्स्यात्पञ्चवाषिकः । शिक्षावुद्धया सदाकान्त पुनमोहिन पोः 
स्नानाच्छादनकेरभक्ष्येभोज्येःपेयेनंसंशयः । गुणेषु योजयेत्कान्त सद्विययासु च तं 
गुणशिक्षार्थ निर्मोहः पिताभवति सर्वदा । ` | 
पालने पोषणे कान्त संमोहःपरिजायते ॥ ५० ॥ । 
सगुणं न वदेत्पुत्र॑ कुत्सयेच्च दिनेदिने। काठिन्यं च चदेन्नित्यं वचनेःपरिपीझे 
यथा हि साधयेन्नित्यं सुविद्यां ज्ञानतत्परः | अभिमाने छलेनापि पापंत्यत्तवा 9 
नेपुण्यं जायते नित्यं विद्यासु च शुणषु च। ।२ 
माता च ताडयेत्कन्यां स्नुषां *्वश्चविताड्येत्‌ ॥ ५३ ॥ र 
गुरुश्वताडयेच्छिष्यंततःसिध्यन्तिनान्यथा । भार्या चताडयेत्कान्त अगायि र 
हयं च ताडयेद्धीरो गजं मात्रो दिनेदिने । शि क्षाबुद्धया प्रसिध्यन्ति ताडनात्पाढना 
त्चयेयं नाशिता नाथ सचदेव न संशय: । 
सार्ध सुत्राहमणेनापि भवता शिवशप्रणा॥ ५६ ॥ 
निरङ्कुशाङतागेहे तेन नष्टा महामते । दाच दधारयेरकन्यां गृहे ज का 
अष्टवर्षान्विता याचत्प्रवळांनेच घारयेत्‌ । पितुर्गेहस्थितापुत्री यत्पापं हि ण 
उभाभ्यामपितत्पापं पितृभ्यामपि विन्दति | तस्मान्नधायंते कन्या समर्था † | 


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| क ट , | 
| अष्टचत्वारिशोष्ध्यायः 1 उग्रसेनराजतनयायापद्मावत्याश्च रित्रवर्णनम्‌ # - रप, 
| यस्य दत्तासवेत्सा च तस्यगेहे प्रपोषयेत्‌। [ 
| तत्रस्था साधयेत्कान्तं सगुणं भक्तिपूर्वकम्‌ ॥ ६० ॥ 
| कुलस्य जायते कीतिःपिता सुखेन जीवति तत्रस्था कुरुतेपापं तत्पापं भुञ्जतेपतिः ॥ 
जे तत्रस्था वर्द्धतेनित्यं पुतरःपौत्रःसदेच सा। पिताकीर्तिमवाप्नो ति सुतायाःसुशुणेः प्रिय 
| तस्मान्नधारयेत्कान्त गेहेपुत्री समतकाम्‌। इत्यर्थे शूयते कान्त इतिहासो भविष्यति 
| अष्टा्विशतिकेप्राप्ते युगेद्वापरके महान्‌। उग्रसेनस्यचीरस्य यदुज्येष्ठस्य यत्प्रभो ॥६४॥ 
| चरित्रं ते प्रवक्ष्यामि *रणुष्वेकमना द्विज ॥ ६५॥ 
॥। इति थ्रीपाद्मपुराणो द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने खुकलाचरित्रे ” 


% सप्तचत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥ 
पो ऱ्य 
तरु 
| 
| अष्टचत्वारिशोऽध्यायः 
| उग्रसेनराजतनयाया पञ्मावल्याश्चरि्रवर्णनम । 
शर ` ब्राह्मण्युचाच। 


| भाधुरे चिषयेरस्ये मथुरायां नृपोत्तमः । उग्रसेनेति विख्यातो यादघःपरचीरहा ॥ १ ॥ 
सर्वेधर्माथतत्त्वशो चेदज्ञःश्चतवांन्बली । दांता भोक्ता गुणग्राही सदुगुणान्वेत्ति भूपति 
राज्यं चकार मेधावी प्रजाधर्मेण पाळयेत्‌। एवं स च मह्दातेजाउग्रसेनःप्रतापचान्‌ ॥ 
ळा विषयेपुण्ये सत्यकेतुःप्रतापचान्‌। तस्यकन्या महाभागा पद्माक्षी कमलानना ॥ 
| नाम्ना पद्मावतीनाम सत्यधर्मपरायणा । 
| सा तु स्त्रीणांगुणेयक्ता द्वितीयेच समुद्रजा ॥ ५॥ 
णुवेद्भी शुंशुभे राजन्खुणेःसत्यकारणे: । माथुरउग्रसेनस्तु उपयेमे सुलोचनाम्‌ ॥ ६ ॥ 
हा मंहाभाग सुखंरेमे प्रतापचान्‌। अतिप्रीतो गुणैस्तस्यास्तयांसह सुखी भवेत्‌॥ 
| तस्याःस्नेहेन प्रीत्या च संमुग्धो माथुरेश्वरः । 


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हि  #पापुपणाूक `` [र 
~ पद्मावती महाभागा तस्य प्राणप्रियाब्मवत्‌ ॥ ८॥ . : - ~ 
तयाचिना न बुसुजे तयासह प्रक्रीडयेत्‌ । तयाविना. न सेवेत परमं सुखमेच'सः ॥ ६| 
_ एवं प्रीतिकरौ जातौ 'परस्परमनुत्तमौ । स्नेहवन्तौ `द्विजश्रेष्ठ खुखसम्प्रीतिदायकौ॥१॥ 
; सत्यकेतुश्च. राजेन्द्रःसस्मार सपद्मावतीम्‌। 
स्वसुतां तां.महाभागो माता तस्याःसुदुःखिता ॥ ११॥ . . . .... 
सदूतान्म्रेषयामास.वैद्‌मों मथुरांप्रति । उग्रसेनं ृचीरेन्द्रं सादरैण द्विजोत्तम ॥ १२] 
उग्रसेनं महाराजं सदूतो घाक्यमत्रचीत्‌। विदर्भाधिपतिर्वीरो, भक्त्यास्नेहेनः नन्द्यन्‌। 
आत्मनःकुरालंव्र ते भवतां परिपृच्छति । सत्यकेतुर्महाराज त्वामेवं परिपृष्टवान्‌ 0१ 
दर्शनाय प्रेषयस्व सुतांपद्मावती मम ।:.यदि त्वं मन्यसेनाश्च प्रीतिस्नेहं हि तस्य च | 
प्रेषयस्व महाभागां प्रियां प्रीतिकरां तच | औत्कण्व्येन महाराज सशोकेनानुचतेते। ` 
समाकण्य ततोवाक्यमुग्रसेनो नृपोत्तमः । व 
प्रीत्यास्नेहेन तस्यापि सत्यकेतोमेहात्मनः ॥ १७ ॥ श्‌ 
दाक्षिण्येन च विप्रेन्द्र प्रेषयामास भूपतिः । पद्मावतीं प्रियांभार्यासुग्रसेन प्रतापवान्‌।प 
प्रेषितानेन राजेन्द्र गतापझ्यावती .स्वकम्‌ | पूर्व ग्रहं सती सा तु महाहर्षेण सङ्कुला|व 
पितृपूर्वं कुटुम्वं तु ददृशो चारुमङ्गला। :पितुःपादी ननामाथ शिरसा सत्यतत्परा 
` झागतायां महाराजःपद्मावत्यां द्विजोत्तम । हर्षेण. महताविष्टो. विद्रर्सोश्िपतिदप 
. वद्धिता दानमानेश्च वस्त्रालङ्कारभूषणैः । 'पद्याचती. सुखेनापि पितुर्गेहे प्रचतंते ॥ २२ 
_ सखीसिःसहिता सा तु निःशङ्का परिवर्तते । रमते. सा तदा तत्र यथापूर्च तथैच' चाप 
ग्रहेबने तडागेषु प्रासादे.च तथेव सा । पुनर्बाळेच भूतासा. निळेज्ञा, सम्प्रचतेते ॥ ९४९ 
निःशङ्का बतेतेविप्र सखी मिःसह .सवेदा ।. पतित्रता :महाभागा न 


| 
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| 


' सुखं तु पितृगेहस्य दुर्लभ श्वाशुरेग्रहे । एवं. ज्ञात्वा 'तदारेमे कदाईद्रग्भविष्यति॥ 
' अनेन मोहभावेन क्रीडालुब्धा .चरानना.। सल्लीभिःसहिता नित्य.घत्नेषंपचने तदा 
इतिश्री पाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे,देनोपाख्याने .सुकलाचरित्रे 
अष्टचत्वारिशोऽध्यायः॥ ४८ ॥ : 


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१:-: .. ` ` : उनपड्याशंत्तमो॒व्याय: : „`. ˆ `. 
वी पद्मावत्याअरित्रवर्णनम MSE 

: .- `. -ब्राह्मण्युचाच। . कडकी, 

2 | ण्कदा तु सहा शा 1 पर्वतोत्तमे । रमणीयं चनंद्वष्ट्या कद्लांखण्डमणि प्डितम्‌ [| 
|. ` ` शाङौस्ताङंस्तमा्ंअच नार्किरिस्तयोत्कक। -. . रि 

७::  -।.पूगीफलेमांतुठिडेनारजैश्वास्जम्युके: ॥२॥. . - .. - 


च | चम्पके:पाटल :पुण्चे:पुष्पिते/कुट कैब: 4 अशोकबकुलोपेत॑ नानावृक्षैरलडकूतस ॥ ३॥ 
ते | पवतंपुण्यवनततं पष्पितेश्व नरोत्तमैः । सर्वत्र द्वश्यतेरम्यो नानाधातु समाकुलः ॥ ७ ॥ 

डां बसो म पुण्यतोयेन पूरितम्‌ । कमले:पुष्पितैश्वान्ये: सुगन्धैः कनकोत्पल: 

| ्वेतोत्पल चिमासन्तं रक्तोत्पल सुपुष्पिते:। नीलोत्पल श्चकहारेहंसे्च जलकुक्कुटैः ॥ 
ग पक्षिमिजेलजैश्वान्येनानाधातुसमाकुल: । तडागं सचेत:शुभ्र नानापक्षिगणैय॑तम्‌ Ish 
| को किलानांरुते:पुएय:खुखरैःपरिशो मितः । सघुराणां तथा शब्दैः संवत्रमधुरायते ॥टाडरे| 
गकट्पदानां' खुनादेन सर्वत्र. परिशोभते । 'एवंविधंगिरिरम्यं तदेवचनमुत्तमम्‌ ॥ ६॥ | | 
पातडागं *सरवेतोभदं दद॒शेठ्पनन्दिनी । 'बैदर्भोक्तीडमाना सा सखीभिः सहिता तदा॥ || 
सुसमालोक्य घनंपुण्यं सर्वत्र कुसुमाकुलम्‌.। चापल्येन प्रभावेन सञ्रीभावेन.च लीलया | 
बर्भावती सरस्तीरे सखी भिःसहिता तदा । जलक्रीडा समालीना हसते गायते पुनः ॥ 
शखलेन रममाण सा तस्मिन्सरसि भामिनी । एवं विप्र तदा सा तु सुखेन परिवर्तयेत्‌ | 
a वे देत्यो' अत्यो वैश्रवणस्य च । दिव्येनापि विमानेनसर्वसोग परिप्लुतः | 
है याति चाकाशमार्गेण गोभिलोदैत्यसत्तमः। ` : . (नु 
रा तेनद्॒शं विशालांक्षी वैदेभी निर्भया तदा ॥ १५ ॥ : 

पयो षिद्वरा सा हि उग्रसेनस्य बै प्रिया । रूपेणाप्रतिमालोके सर्वाङ्गेषु. विराजते ॥ 


| | 
मन्मथस्यापि किचापियं हरिप्रिया । किचापि पावेतीदेची शंची किचाभविष्यति 


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OI. २ 


2 ॐ पद्मपुराणम्‌ # [२ भूमि, 
याद्रशीद्वश्यते चेयं नारीणां प्रवरोत्तमा । अन्यापि ईद्ृशीनास्ति द्वितीया क्षितिमण्छ 
 जक्षत्रेष यथाचन्द्रः सम्पूर्णोभाति शोभनः । गुणरूपकलाभिस्तु तथाभातिचरानना 

पुष्करेषु यथाह॑सस्तथेयं चारुहासिनी । अहोरूपमहोभाच अस्यास्तु परिद्रश्यते 

ग का कस्य शोभनावाला चारुत्ृत्तपयोधरा । र 
व्यसृशद्वोमिळो देत्यःपद्मावतीं वराननाम्‌ ॥ २१ ॥ | 
चिन्तयित्वा क्षणंविप्र का कस्यापि भविष्यति । ज्ञानेन महताज्ञात्वावैद्‌्भो तिनसंश 
दयिता उग्रसेनस्य पतिब्रतपरायणा । आत्मवशेन तिष्ठन्ती डुप्याप्या पुरुषरि 
उग्रसेनो महामूखेःग्रेषिता येन चे. बरा । पितुर्गेहमियं वाळा लु भाग्येन वजि 
अनया चिनासजीवेञ्च कथं कूटमतिःसदा । कि चा नपुंसकोराजा एनांयो दिप रित्ये 
तां दृष्ट्या स तु कामात्मा सञ्जातस्तत््षणादपि। र 
इर्य. पतिव्रता वाळा दुष्प्राप्या पुरुषेरपि ॥ २६॥ 
कथं भोक्ष्याम्यहं गत्वा कामोमामतिपीडयेत्‌ । 
अञुक्त्वैनां यदायास्ये तत्स्यान्सत्युमेमैच हि ॥ २७ ॥ 
अच्चैच हि न सन्देहो यतःकामो महाबलः । इतिचिन्ता परोमूत्वा . गोभिलो 
कृत्वा मायामयंरूपसुग्र लेनस्य भूपतेः । याद्शस्तूग्रसेनश्च साङ्गोपाङ्गो महानु; 
'गोभिलस्ताद्वशोभूत्वा गत्याच स्वरभाषया । यथावस्त्रो यथावेशो वयसा चतथाएच 
दिव्यमाल्यास्बरधरो दिव्यगन्धानुलेपनः । सर्वाभरणशोभाङ्गो यादृशो माथुरेश्वरक 
भूत्वाऽथ तादृशोदैत्य उग्रसेनमंयस्तदा। मायया पर्‍यायुक्तो रूपलाचणग सम्प 
पर्वताग्रे अशोकस्य च्छायामाश्रित्य संस्थितः । 
शिलातलस्थो दुष्टात्मा वीणादंण्डेन चीरकः ॥ ३३ ॥ ङ ॥ 
सुस्वरं गायमानस्तु गीतं विश्वप्रमोहनम्‌ । तालमान क्रियोपेतं सप्तस्वरविभूषि: 
गीत॑ गायति दुष्टात्मा तस्यारूपेणमोहितः। पवेताग्रेस्थितो चिप्र हषेणम 
सखीमध्यगता सा तु .पद्मावती वरानना । .. 
शुश्चवे सुस्वरं गीतं तालमानलया न्वितम्‌ ॥ ३६ ॥ 


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बकोनपञ्चाशत्तमो ऽध्यायः ]# पद्यावत्याञ्चरित्रचर्णनम्‌ बह १५४ 


| 
ज गायति धर्मात्मामहत्सौ ल्यप्रदायकम्‌। गीतं हिस त्क्रियोपेतंसचंभावसमन्वितम्‌ 
है सखी भि:सहिता गत्वा औत्छुक्येन' नृपात्मजा । >: 
क्क अशोकच्छायामाश्रित्य विमले सुशिलातले ॥ ३८॥ 
इदशं भूपवेषेण गोमिळं दानवाधमम्‌ । पुष्पमालाम्वरधर दिव्यगन्धानुळेपनम्‌ ॥ 
, घवाभिरणशोभाड पद्मावती पतिव्रता । मथुरेशःसमायातःकदा धमंपरायणः ॥ 
छ ममनाथो महात्मा चै राज्यंत्यक्त्वा प्रदूरतः । 
पि यावद्धि चिन्तयेत्सा च -तावत्पापेन तेन सा ॥ ४१ ॥ 


| 


| ससाहूताऽऽतुरीभूय एहित्व हि प्रिये मम । आळ 
| चकिता शाङ्किता सा च कर्थमर्ता समागतः ॥ ४२ ॥ 
ठज्ञिता ढुःखिताजाता अधःछृत्वा ततोमुखम्‌ । अहं पापादुराचारा निःशाङ्कापरिचतिता 
तपम महासागःकरिष्यति न संशयः। याब द्विचिन्तयेत्साच  ताचत्तेनापि पापिना 
गमाइटताऽऽतुरीभूय एह्येहि त्वं ममग्रिये । त्याविना कृतोदेचि प्राणान्धर्तः वरानने 
| न हि शक्नोस्यह कान्ते जीवितं प्रियमेच च। 
सै तपस्नेहेन लुब्धो5स्मि त्वां त्यक्त्वा नोत्सहे भृशम्‌॥ ४६ ॥ 
प. :- . ब्राह्मण्युवाच | 
पुनस्ता गता5पश्यत्खुमुखं ढज्ञयान्विता,। समालिझय ततोदैत्यःसतीं पद्यावतींतदा 
बरकान्त तु समानीता सुभुक्ता १च्छ्याततः । दैत्येन गोमिटेनापि सत्यकेतोःसुतातदा 
पद सुकलोवाच । 
प्कस्थागे$स्यसडूतं नाविन्द्त वरानना । स्ववस्त्रं सापरिगह्मशह्डि ताडु: खिताह्मभूत्‌ 
` ॥ सक्रोधावचःप्राह गोभिळं दानवाधमम्‌ । कस्त्वंपापसमाचारो नि णोदानवाकृतिः 
बितुकामा समुयुक्ता दुःखेना कुल्तिक्षणा | वेपमाना ८दार।जन्दुःखभारेण पीडिता 
बर्भाकान्तच्छलेनेच त्वया5्गत्य दुरात्मदन्‌। नाशितं - धर्ममेचाग्रं पातिवत्यमबुत्तमम्‌ 
| च रुदितंकृत्वा . ममज्ञन्म त्वयाहृतम्‌। . 
पश्य मे बळम्ेब शापं दास्ये सुदारुणम्‌॥ ५३॥ 


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१६७ ` `: ` कपडपुराणम्‌# ` -' ` ` ` [२ भूक 


21 एवं सम्माषमाणा तं शप्तुकामा तु गोमिलम्‌॥ ५४४॥ म 
इति श्रीपाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने खुकळाचरितरे 
. ` पकोनपञ्चाशस्तमोऽध्यायः। ` | ग 
` प्रच्चाशात्तमोऽध्यायः 
पद्मावत्याश्वरित्रवणेनम्‌. । 
` सुकलोचाच। ` -' 


तस्यास्तु घचनं श्रुत्वा गोंभिलो चांक्यमत्रेचीत्‌। 

भवती शप्तुकामासि कस्मान्मे : कारणं चद्‌॥ १॥ ` 
केनदोषेण .लिपतोंऽस्मि: यस्मात्त्वं शाप्तुसुद्यता। ` 

गोमिलोनामदैत्योंऽस्मिः पौलस्त्यस्यभटःशुमे ॥ २ ॥ 
दैत्याचारेण वर्तामि जानेविद्यामजुंत्तमाम्‌। वेदंशास्त्रार्थ वेत्तास्मि कलासुनिपुर्ण 
एवं सर्व विज्ञामामि दैत्याचारं श्रणुष्वमे | परस्वं परदारांश्च बठादुभुञ्जामि ना“ 

` चयं देत्याःसमाकण्य देत्याचारैणसास्प्रतम्‌ | कजा तिन लाई 
` ब्राह्मणानां हि च्छिद्राणि. विषेश्यामो दिने दिने । ॥ 

तेषां हि तपसोनाशं चिंध्नेःकुर्माो न संशय: ॥ ६ ॥ ल 
` छिद्रं प्राप्य चयं देवि नाशयामो न संशयः। आ्राह्मणाच्छूयंतां भद्रे देघयज्ञ पब 


41 जन क्ष 7 


: नाशयामो घयंयंज्ञान्धमेयज्ञ'न संशय: । सुब्राह्मणान्परित्यज्य देवंनारायणं 
पतिव्रतां महाभांगां सुमति भत तत्पराम्‌ | दूरेंणापि परित्यज्य तिष्ठामो 
` तेजो देवि सुविप्रस्य हरेश्चैवं महात्मनं: । .नार्याःपतिंब्रतायांश्व सोढं दैत्याश्च न 
पत्तित्रताभयेनापि : चिष्णोःसुंबराह्मणस्यः च | क 
नश्यन्ति 'ब्राह्मणा:सचे दूर राक्षस पुढचा: ॥ ११॥ ` | 
स पु 4 


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किम्चाशन्तिमो5ध्यायः ] # पद्यावत्याश्वरिकबर्णनम.&. - | ' शर. 
'महंदानवधर्मेण विचरामि मंहीलेलम्‌.। कस्म शंप्तुकामासि मंसदो वो विचांयेतांम्‌ - ` 
पमध्मेःछुकायश्च त्वयैव परिनाशितः । अहं पतिवतासांच्वी पतिकामा तपस्विनी ॥ 
| स्वमार्गे संस्थिंता पापमायया परिनाशिता । म -- 

I; तस्मात्त्वामप्यहं दुष्ट: आघक्ष्यामि न संशयः ॥ १४॥ 

9:25” गोमिळ उवाच | . 

।मंमेच प्रचक्ष्यामि भवती यदि मन्यते । अग्निचिदुब्राह्मणस्यापि श्रूयत दपनन्दिनि॥. . 
हन्देचं दविकाळं यो न त्यजैदग्निमन्व्रिम्‌ । सचाग्निहोत्री भवति यजत्येव दिनेदिनें 
न्यच्चेवं ्रवक्ष्यामि भृत्यधर्म चरानने । मनसाकर्मणावाचा विशुद्धोयो५पि नित्यशः 
वत्यमादेशाकारीयः पश्चातिष्ठति चाग्रतः । स भृत्यःकथ्यंते देवि पुण्यभागी: नसंशयः 


| 
|, 
३० 

७ 


+ पुत्रो. गुणवाञज्ञाता पितरं पाळ्येच्छुमः | मातरं च विशेषेण मनसा कायकर्मभिः 
। . तस्यभागीरथी स्नानमहन्यहनि जायते ।. 
। अन्यथा कुरुते योहि स. पापीस्यान्न संशय; ॥ २० ॥ 
त्यच्चैवं प्रवक्ष्यामि पतित्रतमंचुत्तमम्‌ | वाचासुमनसाचैव कर्मणा श्रणु भामिनि 
नाना कुरुते याहि भर्तुखव दिने दिने । तुरेभ्तरि यां प्रीता न त्यजेत्को घनं पुनः ॥- 
दा तस्य दोषं न गृह्णाति ताडिता तुष्यते पुनः । 
` | ... भ्तुकमे सुसर्वेषु -पुरतस्तिष्ठते सदा ॥ २३॥ 
[.चापि कथ्यते नारी पतिब्रतपरायणा । पतितोऽपि पितापुत्रेद हुदोषसम न्वितः ॥ 
E ' कस्मादपि. च न त्याज्यःकुष्ठितःक्रुधितोऽपि घा। ` |` | 
`` ` ` एवं पुत्राःशुश्रूषन्ति पितरं. मातरं किल ॥.२५॥. ._ . 
यान्ति परमंलोक तद्विष्णोःपरंमं पदम्‌। एवं हि स्वामिनं येवै उंपांचरन्तिसृत्यकाः ` 
त पर्लोक यान्त्येते प्रसादात्स्वा मिनस्तद्वा । अग्निनैच त्यजेद्विमो ऽ ह्मलोकंप्रयातिल: 
हि करो विंप्रोव्ृषलीपतिरुच्यते । स्वा मिद्रीहीमवेद्भत्यःस्वामित्यागान्नसंशाय:: 
| च पितरं चेच न त्यजेंत्स्वामिनं शुमे न संदाचिप्र:सुतोत्यःसत्यसत्यचदास्यहम्‌ 


१ १-०००. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


1 
'परित्यज्यप्रगच्छन्ति तेः यान्ति नरकार्णवस्‌। पतितं व्याधितंदेचि चिकल कुष्ठिके 
सर्वकर्म विहीनं च गतवित्तादि सञ्चयम्‌ । भर्तारं न त्यजेन्नारी यदिश्रेयइहेच्छ 

» त्यकत्वा कान्तं व्रजेन्नारी अन्यत्कार्येसिहेच्छति । 8 

सा माता पुंश्चलीलोके सर्वेधरमंबहिष्कृता ॥ ३२ ॥ | 
गते भतेरि या ग्रामं भोगं श्टङ्गारमेव च । छौब्याच्च कुरुते नारी पुंश्चली चद्ते 
एवं घमं विजानामि वेदशास्त्रैश्च संमतम्‌ । दानवा राक्षखाःप्रता धाना सृष्टा यदा 
तत्रेह कारणं सवं प्रवक्ष्यामि न संशयः । ब्राह्मणा दानवाश्च पिशाचाश्चैचराक्षस,, 
धर्मार्थ सकळ प्रोक्तमधीतंस्तैस्तु सुन्दरि। विन्दन्तिसकल सर्वे आचरन्ति न दात 
विधिहीनं प्रकुर्वन्ति दानवा ज्ञानचजिताः। अन्यायेन घजन्त्येते मानवा विधिव 
तेषां शाखनदेत्वर्थं छता एतेऽपिनान्यथा। विधिहीनं प्रकु्ेन्ति ये हि धमं नराषूर 
तान्वयं शासयामो वै दण्डेन महता. किल । भवत्या दारुणं कमे इतमेच खुनिर्घुण! 
गार्हस्थ्यं च परित्यज्य अत्रम्याता किमर्थेतः । घद्त्येवं सुखेनाणि अहं हि पतिते 

कर्मणानास्ति तदुदूषएं पतिदेचत्यमेच ते । 

भर्तारं तं परित्यज्य किमर्थ त्वमिहागता ॥ ४१ ॥ | 
श्टङ्गारं भूषणं वेषं त्वा तिष्ठसि निश्वृणा। किमर्थं हि तं पापे कस्य हेतोरवदर 

-निःशङ्का वत्तेसेचापि प्रमत्ता गिरिकानने । मया त्वं खाधिता पाप दण्डेन महतः 
अघर्मचारिणी दुष्टा पति त्यक्त्वा समागता । छास्ते तत्पतिदेवत्वं दशेयत्वं ममः 
भवती पुंशञ्चलीनाम ययात्यक्तःस्वकःपतिः । पृथक्छय्या यदानारी तदा सा. पुंस 
योजनानां शतैकस्य सोऽन्तरेण प्रवर्तते । कास्ति ते पतिदैचत्य पंखल्याचारचार 
निळ ज्जेनिर्घुणे दुष्टे कि मे वदसिसंसुखी । तपसःकास्ति ते भावः क्क तेजो बलो 

दर्शयख ममाचेच बळचीयें पराक्रमम्‌ ॥ ४८ ॥ 
पद्यावत्युचाच । 

स्नेहेनापिसमानीता श्रूयतामसुराधम । भतुंगेहाद्हं पित्रा क्कास्ते तत्र च - 

नेवकामान्नटोभाच्च न मोहान्न च मत्सरात्‌। 


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पल्चाशत्तमोडध्याय: ] ॐ पद्मावत्याश्चरित्रवर्णनम्‌ # 

है क आगताऽहं पतित्यक्त्वा पतिभाजेन संस्थिता ॥ ५० ॥ 
ला । गवा माथुरंक्षात्वा गताऽहं सम्मुखं तच ॥ 

| गोमिल उवाच। . कः 
चश्चहीना न पश्यन्ति मानवाः श्एणु साम्प्रतम्‌ । धर्मनेत्र विहीनात्वंकथंजानासिमामिह 

दा कति भावउत्पन्नः पितुर्गेहं प्रतिश्टणु । पतिध्यानं परित्यज्य मुक्ताध्यानेनत्वं तदा ॥ 

का तदानष्टं स्फुटं च हृद्ये तव । कथं मां त्वं विजानासि ज्ञानचक्नुदता भुवि ॥ 
| कस्या माता पिता भ्राता कस्याः स्वजनवान्धचाः । अ 
| सवेस्थाने पतिर्ह्मको भार्यायास्तु न संशयः ॥ ५६ ॥ 

त्युक्त्वा हि प्रहस्येच गोमिलोदानवाधमः । न भयंविद्यते तेञ्य ममापि श्टणु पुंश्चलि 


९६३. ` 


॥ कि भवेत्तव शापेन वृथैव परिकस्पसे | 
कहे भमगेहं समाश्रित्य भुङ्छ्वभोगान्मनोऽनुगान्‌ ॥ ५८॥ 
| पझावत्युवाच । 


| गच्छ'पापसमाचार कि त्वं घदसि निघुण: । 

द्स खतीभावेन संस्थास्मि पतित्रतपरायणा ॥ ५६॥ 

श्यामि त्वां महापाप यद्येवं तु घदिष्यसि । एवमुक्त्वा तथैकान्ते निषसाद महीतले 

मई-खेन महताचिषटां तामुवाच सगोभिळः। तवोदरे मयान्यस्तं स्ववीर्यं सुकृतं शुसे॥ 

र्बस्माडुत्पत्स्यते पुत्रस्त्रेलोक्यक्षोभकारकः । एवसुक्त्वाजगामाथ गोभिलोदानचस्तदा 

वाति तस्मिन्दुराचारे दानवे पापचांरिणीः] दुःखेन महताविष्टा नृपकन्या रुरोदह ॥६३॥ 

1 इति_श्रीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने सुकलाचरिन्रे 
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥ 


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| (७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 
110 शी 


“गते तस्मिन्दुराचारे गोमिले पापचैतसि । पद्मावती रुरोदाथ दुःखेन महतान्वित| 


 पकपञ्चाशत्तमोऽध्याय |. ¦ 
ज्ञातदोषायाः पद्यावत्याः पतिगृहंग्रतिग्रेषणम्‌ । 
ब्राह्मण्युचाच । 


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> 


तस्यास्तु रुदितं श्रुत्वा सख्यःसर्चा द्विजोत्तम । 
पप्रच्छस्तां राजकन्यां ताःसर्वाश्व चराननाः ॥ २॥ 
कस्माद्रोदिषिभद्रं ते कथयस्व हि चेष्टितम्‌। क गतोऽसौ महाराजोमाथ॒राघिपतिर. 
येन त्वं हि समाइता प्रियेत्युक्त्वावद्स्व नः। ता उवाच खुदुःखन रोदमाना पुन 
तया आवेदितं सबं यज्ञातं दोषसम्भवम्‌। ताभिर्नीता पितुर्गेहं चेपमाना सुदुःखित 
मातुःसमक्षं तस्यास्तु आचचक्नुस्तदा खियः । ८ 
समाकरण्ये ततो देची गता सा भतू मन्दिरम्‌॥ ६ ॥ द्‌ 
भर्तारं श्रावयामास सुता वृतान्त्तमेवे हि | समाकण्यं ततोराजा महादुःखी व्यजाः 
यानाच्छाद्नकं द्स्वा परिवारः समन्विताम्‌ । मथुरां प्रेषयामास गता खा परियम 
सुतादोषं समाच्छाद्य पितामाताद्विजोत्तमः । उग्रसेनस्तुधमात्मा पद्यावतीं समाग 
स दूष्ट्चा मुमुदेचाशु उचाचेदं वचः पुनः । | 
त्वया चिना न शक्तोऽस्मि जीवितुं हि चरानने ॥ १०॥ ` `. ह 
बहुप्रभासि मे प्रीतागुणशीलैस्तुसवंदा। भक्त्यासत्येन ते कान्ते 2 
समाभाष्य प्रियां भार्या पद्मावती नरेश्वरः | तयासार्ध स चे रेमे उग्रसेनो न्रपोत्ता 
वढ्रुखे दारुणो गर्भःसवेलोक भयप्रदः । पद्मावती विजानाति तस्य गर्भस्य कारण 
स्वोद्रे वद्धमानस्य चिन्तयन्ती दिचानिशम्‌ । अनेन किसुजातेन छोकनाशकरेण स्त 
अनेनापि न मे कारय ढुप्रपुत्रेण साम्प्रतम । 
ओषधं पृच्छते सा तु गर्भपातस्य सर्वतः ॥ १५ ॥ 


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$ । 


! वकपञ्चाशात्तमोऽश्ययः ] # तदुगर्भात्कंसोत्पत्तिवर्णनम # ` र्ष 
चारी मंहौषधीं सा. हि. विन्दन्ती च दिनेदिने.1.गर्भस्य पातनायेव उपाया बहुशःकछृताः॥ ` 
'चवृधे द्वारुणोगर्भेःसवेलोक भयङ्कर: । तामुघाच ततो गर्भःपद्मावती च मातरम्‌ ॥१७॥ 
'कस्माच्वं-व्यथसे मातरोषधी भिदिनेदिने.। पुण्येन चद्धेतेचायु:पापेनावप॑ तु जीवितम्‌, 
। आत्मकमे विपाकेन जीवन्ति च थ्रियन्ति च। 
| आमगर्भा'प्रयान्त्यन्ये'अपक्कास्त महीतले ॥ १६ ॥ .. 
प जातमात्राचरियन्तेऽन्येकति ते यौचनान्विताः । ब्रालाबृद्धाश्रतंरणा आयुषोवशतांगता: 
| सर्वे कमे विपाकेन जीवन्ति च प्रियन्ति च। . 
| - ओषध्यो मन्त्रदेचाश्च निमित्ताःस्युन संशयः ॥ २१ ॥ "कुम 
"7 मामेव हि न जानासि भवती याहुशो ह्यहम्‌ । हृष्ट:शुतस्त्वया पूर्वेकालनेमि महावलः ॥ 
दानवानां अद्दात्रीयंस्त्रैलोक्यस्य भयप्रद: । देवासुरे महायुद्धे हतोऽहं विष्णुना. पुरा ॥ | 
पिसाथयितुं च तद्वैरमांगतोऽस्मि तचोद्रम्‌ । साहस्रं च श्रमं मातर्माङुरुष्व दिनेदिने ॥ 
एवमुक्त्वा दविजश्रेष्ठ मातरं घिरराम सः। मातोद्चमं परित्यज्य महाडुःखादभूत्तदा ॥ 
दशाब्दाश्च गता यावत्ताबदुवृ द्धिमवाप्तवान । पश्चाजञज्ञे महातेजाः क्रसोऽभूत्समहाबलः 
छ र येन सन्त्रासिता लोकास्त्रैलोक्यस्य निचासिनः।. ˆ 
| यो हतो वासुदेवेन गतो मोक्षं न संशयः ॥ २७ ॥. 
एवं थुतं मयाकान्त भविष्यं तु भविष्यति । पुराणेष्वेच सर्वेषु निश्चितं कथितं तव ॥ | 
पिठ्गेहेस्थिताकन्या नाशमेवंप्रयाति सा । ग्ृहाचासाय मे कान्तकन्यामोहं न कारयेत्‌ | 
मां. दुष्टां महापापां परित्यज्य स्थिरोभव । प्राप्तव्यं तु महापापं दुःखं दारुणमेच च ॥ 
2) लोके श्रेयस्कर कान्त तदुभुडक्ष्व त्वं मयासह ॥ ३१ ॥ 


ः शूकर्युवाच । 
7 9 तु थुत्वा.स दि'दिजोत्तमः। त्यागेमतिं. चकारासौ समाहता ह्यहंतदा 
ण कलं वसुत्रश्टङ्घार ममद्तं शुभे श्ट्णु । तवेच दुनेयैविपरःशिंचशमा द्विजोत्तमः ॥ ३३ ॥ 
गतो वै मतिपान्दुष्टे, कुळदुष्ट प्रचारिणि। . .. 
यत्र ते तिष्ठते भर्ता तत्र.गच्छ त संशयः ॥.३७॥. .. 


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` "तब यद्रोचते स्थानं यथादिष्टं तथा.कुरु । एवमुक्त्वा महाभागे पितृमातृ कुप 
परित्यक्ता गताशी्न निर्लज्ञाहं घरानने । न लमाम्यहमेघापि वासस्थानं सुख श 
अत्संयन्ति च मां लोकाःपुंश्चळीयं समागता । अटमाना गतादेशात्कुलमानेनं चङ्ग 
देशे गुजेरके पुण्ये सौराष्ट्र शिवमन्दिरे । . 
घनस्थलेति विख्यात नगरं वृद्धिसङ्कुलम्‌॥ ३८॥ | 
अतीव पीडिता देवि क्षुघयाहं तदा श्रणु । कर्परं दि करेग्रह्म सिक्षाथेसुपचक्रमे |} 
गृहिणां द्वारदेशेषु प्रविशामिसुदुःखिता। ममरुपं विपश्यन्ति लोकाःकुत्सन्ति भाः 
न ददते च मे भिक्षां पापाचेयं समागता । एवं दुःख समाहारा दारिद्र्य परिपी॥ 
अरन्त्या च मयाइएं ग्रहेमेकमचुत्तमम्‌ । तुङ्ग प्राकार संचेष्टं चेदशालासमन्वित 
वेदध्वनि समाकीणं बहुविप्र समाकुलम्‌ । धनधान्य समाकीण दासीदासैरठछ्‌ 
प्रविवेश ग्रहं रम्यं लक्ष्मीसुदितमेचतत्‌। तदुग्रहं सर्वेतोभद्रं तस्यच शिवशमेणः [प 
भिक्षां देहीत्युवाचाथ सुदेवा दुःखपीडिता । 
: शिवशर्माथ शुश्राच भिक्षाशब्दं द्विजोत्तमः ॥ ४५ ॥ द 
मङ्गछानाम चै भार्या लक्ष्मीरूपांचराननाम्‌ । तां हसन्प्राह धर्मात्मा शिवशर्मामहारः 
इयं हि ढुवेलाप्राप्ता भिक्षार्थं द्वारमागता। समाहूय प्रिये चैनां देहि त्वं भोजनं शु 
कृपया परयाऽऽविष्टा ज्ञात्वा मां तु समागताम्‌। | 
प्रोचाचँ मङ्गला कान्तं दास्यामि प्रियमोजनम्‌॥ ४८॥ 
एचसुक्त्वा च भर्तारं मङ्गला मङ्गछान्विता । पुनर्मा भोजयामास मिष्टान्नेन सुदु 
मामुचाचसधर्मात्मा शिवशर्मामहासुनिः । का त्वमत्र समायाताकस्य वा भ्रमसेज 
केन कार्येण सवेत्र कथयस्व ममाग्रतः । 
एवमाकण्ये तद्वाक्यं भतुश्चैच महात्मनः ॥ ५१ ॥ ॥ 
स्वरेण लक्षितःकान्तो मया वै पापया तदा । 
व्रीडयाधोमुखी जाता द्वष्टो भर्ता यदा मया ॥५२॥ 
चारुसर्वाङ्गी सर्तारसिदमत्रचीत्‌ । 


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| टिसस्लाराच्ो:याय-]#स्वचपल्यापापिवत्यद्नैननी डितापाइुरेवादाम रण मं 
| काचेयं हि समाचक्ष्च त्वांदृष्ट्चा हि चिळञ्ञतिः॥ ५३ ॥ 

भ कथयस्व प्रसादेन का च एषा भविष्यति ॥ ५७॥ ` 

दि इति श्रीपाद्मपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्यनि सुकलाच स्त्रि 
Rs :; पकपञ्चाश तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥ ` 


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शी द्िप्थाशत्तमो5ध्याय 

क स्वसपत्न्याः पातित्रत्यरर्शनेन त्रीडितोयाः सुदेवायामरणम । 
ङ्ह शिचशर्मोचाच । 


गले श्रूयतां वाक्यं यदिपृच्छसि साम्प्रतम्‌ । यद्थ हि त्वया पृष्ट'तन्निबो धवरानने 
[यं हि सास्मतं प्राता वराकी भिश्चुरूपिणी । वसुदत्तस्य विप्रस्य सुतेयं चारुलोचने 
उुदेवानास भद्रेयं मम जाया प्रिया सदा । केनापि कारणेनैच देशंत्यक्त्घा समागता 
हतेमदःखेन दग्धेयं वियोगेन घराने | मां ज्ञात्वा तु समायाता भिञ्चुरूपेण तेग्रहम्‌ 
शु एवं ज्ञात्वा त्वया भद्रे आतिथ्यं परिशोभितम्‌ ॥ 

| कत्व्यं.न च सन्देह इच्छन्त्या ममं सुग्रियम्‌॥ ५॥ ` 

[तुचाक्यं निशम्यैव मङ्गलापतिदेषता। हर्षेण महताविष्टा स्वयमेव सुमङ्गला ॥* 
क्न भोज्यं च. मम चक्रे वरानने । रल्लकाञ्चनयुक्तेश्चाभरणैश्च पतिव्रता ॥ 
पेज अहं हि. भूषिता भद्रे तथेव पतिकाम्यया । 

| तयाहं भूषिता . देवि मानस्नानैश्च - भोजने: ॥ ८॥ 

[नाहं मानिता देवि जातंदुःखमनन्तकम्‌। मभोरसि महातीनः सर्वप्राणि विनाशनम्‌ 

मयाद्वष्टो ढुःखमात्मग्रतं. तथा । चिन्ता मे दारुणाजाताययाप्राणाबजन्तिमे 

दापि.वचनं दत्तं न मया पापया शुमम्‌॥ अस्येचं. विप्रवर्यस्य आचरन्त्याचदुष्डतम्‌' 

हिल अङ्गसंवाहनं न:हि 4. एकान्तं न . मयादत्तं :तस्येव हि महात्मन: ॥ 


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ih: oR कला कापावा पग सकु 2141: हि 
सम्भाषां कथमस्यैचः करिष्ये पापनिश्चया ॥ 11:44 ::. लिंगिक | 
राजौचैव तदा .त;; पूतिता दुःखसागरेः॥ १३ ॥ ` , ` +. ! 
एवं हि चिन्तमानायाःस्फुटितं हृदयं मम गता:प्राणास्तद्वा, कायं,परित्यज्यवा! 
तत्र दूताःसमायाता धर्मराजस्य वै तदा ।..चीरास्च: दारुण॥!कछूरा गंदाचक्रासिधा| 
तैस्तु वद्धा महाभागे म्टङ्कलद्व ढबन्धन: । | 
नीता यमपुरं तैस्तु रुदमाना खुडुःखिता ॥ १६॥ 
सुद्गरैस्ताड्यमानाहं दुर्गमागेण पीडिता । भत्स्यंमाना यमस्याग्रे २स्ततराहं प्रवे 
घाहं यमराजेन सक्रोधेन 'महात्मेना । अङ्गारसश्चये क्षि्ताद्षि्त नरकसई 
लोहस्य पुरुषं कृत्वा अझ्निना परितापितः । ममोरसि ससु तिक्षस्तं.निजभतु अब 
नानापीडातिसन्तप्ता नरकाझ्नि प्रतापिता । तैलद्रोण्यां परिक्षिप्ता करम्भ चालुको। 
असिपत्रैश्व . संच्छिन्ना जल्यन्त्रेण चाहिदा । र 
६ कूटशाल्मलि वृक्षेषु क्षित्ता तेन. महात्मना॥ २१ ॥ , 
पूयशोणित विष्ठायां पतिता छृमिसङुले । सर्वेषुनरकेष्वेचं क्षिप्ताहं नपनन्दिनि॥ 
) पीडायुक्तेषु तीन छु तेनेवापि महात्मना । करपत्रेपारिताहं . शक्तिभिस्ताडिताः 
अन्येष्वेच नरकेषु पातिता नृपनन्दिनि। योनिगतेषु क्षिप्तास्मि पतितादुःखसङ 
धर्मराजेन तेनाहं नरकेछु निपातिता । घल्गुलीयोनिमासाच् शुक्तं दुःखं सुदारुण 
; : ` गताहं कौष्टुकीं योनि शुनीयोनिं पुज्गंता।:  . . । 
--;~: ¬ स कुक्कुटीं च मार्जारीमाखुयोनिं गताहाहम्‌॥ २६ ॥ ::: . a 
एवं योनि विशेषेछु पापयोनिष्र तेन'च । क्षिप्तास्मि धर्मराजेन पीडिता स 
तेनेवाहं इताभूमौ शूकर नुपनन्दिनिः। ८वहस्ते महाभागे सन्ति तीथ्चान्यनेकार 
तेनोदकेन, सिक्तास्मि त्वयेच..चरचणिनि । 2 
“, ` मम पापं गतं देवि, प्रसादात्तव; सुन्दरि॥ २६॥ : ` क आ र ऱ्य f 
लवच: तेजःपुण्येन ज्ञातं ज्ञानं घरानने | इद्रानीं माुद्धरस्च ; पर्तितां नरकसई 
युदीनोद्धरसे देवि. पुनग्रास्यामि दारुणम्‌) नरकं च, महासागेन्नांहि'मां दुःखमा 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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मि द्विपन्चाशत्तमोऽध्यायः ] # सुदेवानाम्न्या ब्राह्मणकन्याया: स्वर्गारोहणम्‌ न्य १६६ 
ति गताहं पापभावेन दीनाहं च निराश्रया ॥ ३२॥ 


| 


सुदेचोचाच । . 
है कि कृतं हि मया भद्रे खुछत॑ पुण्यसम्भवम्‌ । येनाहमुंद्धरे त्वां वै तन्मेत्वंचद्साम्प्रतम्‌- 
था, | शकयु वाच । 


। सय राजा महाभाग इक्ष्वाकुमेनुनन्दनः ।.विष्णुरेष महाप्राज्ञो भवती श्रीहि नान्यथा॥ 
| पतिव्रता महाभागा पतित्रतपरायणा | त्वं सती सदा -भद्रे सर्वेतीर्थमयी प्रिया ॥ 

011 देवि सर्वमयी नित्यं सवदे मयी सदा । 

ङ सहापतित्रताळोक पकात्वं नृपतेःप्रिया ॥ ३६॥ 

1३ यथाशुश्रूषितो भर्ता भवत्यादि अहर्निशम्‌ । एकस्य दिचसस्यापि पुण्यं देहि वरानने ॥ 

की) पतिशुश्रूयणस्यापि यदि मे कुरुषे प्रियम्‌। मम मातापितात्वं बै त्वं मे शुरुःसनातन 

| अह पापा दुराचारा असत्याज्ञानचजिता । मामुद्धर महाभागे भीताहं यमताडनै; ॥ 


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| 


| न सुकलोवाच। . 
ं॥ एवंथुत्वा तयाप्रोक्त समालोक्य नृपं तदा । कि करोमि महाराज एष कि- वदते पशुः | 
म इक्ष्वाकुरुवाच | - 


सड एनां दुःखां घराकी वै पापयोनि गतां शुभे ।.समुद्धरस्व पुण्येस्त्वंमहच्छेयोभविष्यति | 
ण! एवसुक्ताचरा नारी सुदेचा चारुमङ्गला । उचाचैक्राव्द पुण्यं ते मयादत्तं वरानने ॥४२॥ | | 
| एवसुक्तेन वाक्येन तयादेव्या हि तत्क्षणात्‌ । रूपयौचनसम्पन्ना दिव्यमाळा चिभूषिता 
|दिव्यदेहा च सम्भूता तेजोज्वालासमावृता । : सर्वभूषणशोमाढ्या नानारत्नेश्चशो सिता 
योसज्ञाता दिव्यरूपा सा दिव्यगर्धाचुलेपना । दिव्यं विमानमारूढा अन्तरिक्ष . गतासती | 
कतासुवाच ततो राज्ञीं प्रणता 'नतकन्धरा । स्वस्त्यस्तु ते महाभागे प्रसादात्तव सुन्दरि | 
` शिजामि पातकान्मुक्ता स्व॒ पुण्यतमं शुभम्‌ । प्रणम्येवं गता. स्वर्ग खुदेचा:श्टणुसत्तम | 
एतत्ते सवेमाख्यातं सुकलाया भिवेदितंम्‌॥ ४८ ॥ । 
“या ति श्रीपाझ पुराणे द्वितीये भूमिखण्डेवेनोपाख्यानेसुकलाच रित्रसुदेवांस्वर्गारोहणंनाम । 
द्विपुञ्चासत्तमोऽऽय्मायः ॥. ५२.॥ ह 


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त्रिपञ्चाहात्तमो ऽध्याय 


सुकलायाः पातिव्रत्यमङ्गाथ इन्द्रस्यश्रमवफल्यस्‌ । 
सुकलोवाच । 
एवं भम शुत पूर्व पुराणेषु `तदामया । पतिहीना कथं भोगं करिष्ये पापनिश्चया 
| कान्ते न तु चिना तेन जीवं कायेन घारये ॥२॥ | 
चिष्णुरुवाच । | 
एवमुक्त्वा परंधर्म पतिव्रतमनुत्तमम्‌। तास्तुसख्यो बरानायों रेण महतान्विता 
श्रुत्वा धमं परं पुण्यं नारीणां गतिदायकम्‌ । स्तुवन्तितांमहाभागांसुकलांधमचत्सद् 
ब्राह्मणाश्च खुराःसर्वे पुण्यस्त्रियो नरोत्तम । तस्याध्यानं प्रकुर्वन्ति पतिकामप्रभाग , 
अत्यर्थं इढतामिन्द्रःसुविचिन्त्य सुरेश्वरः । सुकलायाःपरंभावं खुविचाययांमरेश्वर 
चालये. धेर्यमस्याश्च पतिस्नेहं न संशय: | | 
सस्मार मन्मथंदेवे त्वरमाणः सुराधिपः ॥ 9 ॥ 
पुष्पचापं ससङ्गृह्य मीनकेतुःसमागतः। प्रियया च तयायुक्तो रत्याद्ष्टी महाबळ 
बद्धाञ्जलिपुरोभूत्वा सहस्राक्षमुवाच सः । कस्मादहं त्वया नाथ अधुना संस्मृतोविः 
आदेशो दीयतां मेञ्च सर्वभावेन मानद ॥ ६ ॥ स् 
इन्द्र उवाच । य 
खुकलेयं महाभागा पतित्रतपरायणा । श्टणुष्च कामदेवत्वं कुरुसाहाय्यमुत्तमान 
निष्कर्षय महाभागां सुकलां `पुण्यमङ्गलाम्‌। -स् 
. तच्छुत्वा वचनं तस्य शक्रस्य तमथात्रवीत्‌॥ ११॥ 8 
एवमस्तु सहस्राक्ष करिष्यामि न संशयः । साहाय्यं देवदेवेश तवकौ तुक न 
एवमुक्त्वा मह्दातेजाःकन्दर्पो सुनिदुजेयः । देवाजेतं समर्थोऽहं समुनीन्रषिसत्त 
कि पुनःकामिनां . देव._यस्या बळम्‌.। | 


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| 'त्रिप्चाशत्तमो$व्याय 1#इन्द्रस्यपुरुषरूपंधृत्वातन्मोहनाथ विविधोपाय विधानम# १७१ 


। कामिनीनामहं देव अङ्गेषु निवस्ताम्यहम ॥ १४. | 
_| भाले कुचेषु नेत्रेषु कचाग्रेषु च सर्वदा । नाभौ कट्यां पृष्ठदेशे जघने योनिमण्डळे ॥ 
अघरे दन्तभागेषु कक्षायां हि न संशयः । अङ्गष्वेचं प्रत्यज्ञेजु सर्वत्र निवसाम्यहम्‌ ॥ 
| नारी ममग्रहं देव सदातत्र वसाम्यहम्‌ । 
| तत्रस्थःपुरुषान्सर्वान्मारयामि न संशय: ॥ १७॥ 
पा। स्वभावेनाबलादेच सन्तता मम मागणैः । पितरं मातरं दृष्ट्या अन्यंस्वजनवान्धचम्‌॥ 
| झुरुपं खुशणं देव मम वाणाहृता सती । चलते नात्रसन्देहो चिपाकंनैच चिन्तयेत्‌ ॥ 
| योनिःस्पन्देत नारीणां स्तनाग्रौ च सुरेश्वरः । 


ता;| नास्तिधैयं सुरेशान सुकलों नाशयाम्यहम्‌ ॥ २० ॥ 

[101 इन्द्र उवाच * 

क पुरुषोऽहं भविष्यामि रूपवान्गुणवान्धनी । कौतुकार्थमिमां नारीं चालयामि मनोभव 
रः । नंच कामान्नसन्त्रासान्नवा छोभान्न कारणात्‌। | 


| न वे मोहान्न वे क्रोधात्सत्यंसत्यं रतिप्रिय ॥ २२॥ स्छेछ ४९ 
कथं मे इश्यतेतस्या महदत्सत्यंपतित्रतम्‌। निष्कषिष्यइतोगत्वा भचन्मोहो ऽत्रकारणम्‌ । 
एवं कामं च सन्दिश्य जगाम सुरराट्‌ स्वयम्‌ । | 

वि आत्मविकृति सम्भूतो रूपवान्णुणघान्स्वयम्‌॥ २४ ॥ 
सर्वाभरणशोमाङ्ग सर्वेभोगंसमन्वितः। भोगलीला समाकीर्णः सर्वेदौदार्यसयुतः 
यत्र सा तिष्ठते देवी छृकलस्य प्रियाट्प । आत्मळीलां स्वरूपं च गुणं सावं प्रद्शयेत्‌ | 
मुर पश्यति सा तं तु पुरषं रूपसम्पदम्‌ । यत्र यत्र बजेत्सा हि तत्र तां पश्यते नप ॥ | 
तामिलाषेण मनसा तामेवं परिपश्यति। कामचेष्टा सहस्राक्षो5दर्शयत्सवेभावकैः ॥' | 
पथेतीर्थे यत्रदेवी प्रयाति सा । तत्रतत्र सहस्ताक्षस्तामेच परिपश्यति ॥ २६ ॥ 

त्‌ इन्द्रेण प्रेषिता दूती सुकलां प्रति सा गता। 

| सुकलां सुमहाभागा प्रत्युचाच प्रहस्य वे ॥ ३० ॥ सू 
छि सत्यमहो धेयमहो कान्तिरहो क्षमा । अस्यारूपेण संसारे नास्ति नारी वरानना 


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` आकर: एप 5 7. 26 ॐ... “ऋ पद्मपुराणम्‌ क्‌. `: |. 1: = २ भूमित्रा 
का त्वं भवसि,कल्याणि कस्यभाया भविष्यसि।. ...- | 
`; „ ` यस्य त्वं सगुणा भार्या सधन्यःपुण्यमा'सुचि ॥ ३२॥ | 
(तस्यास्तुवचनंश्चत्वातामुवाचमनस्विनी । 'वैश्यजात्यांसमुत्पन्नोधर्मात्मासत्यवत् 
तस्याहं हि प्रियाभार्या सत्यसन्धस्य धीमतः । छकलस्यापिवेश्यस्य सत्यमेववर्दा!' 
ममभर्ता सधर्मात्मा तीर्थयात्रा गतःसुधीः । .तस्मिन्गते महाभागे ममभतेरि सञ्च 
अतिक्रान्ताःशटणुष्वत्वं जयश्चैचापिवत्सराः । ततोऽहंदुःखिताजाता चिनातेन. महत्व 
गतत्ते सर्वमाख्यातमात्मवृत्तान्तमेचच । भवती पृच्छते मां का भविष्यति वद्स्व) 
सुकलाया वचःश्रुत्वा दूत्या आभाषित पुनः । मामेवं एच्छसे भद्रे तत्त सव वदास 
अहं तवान्तिकं प्राप्ता कार्यार्थ वरचणिनि । 
श्रयताममिधास्यामि श्रत्वा च चावधायताम्‌ ॥ ३६ ॥ 
गतस्तेनिधणो भर्तात्वांत्यक्त्वा तु चरानने । कि करिष्यसि तेनापिप्रियाघातकरे 
यस्त्वां त्यकत्वा गतःपापी साप याचार समन्विताम्‌। 
कि चा सते गतोबाले तत्र जीचति चे मूतः ॥ ४१ ॥ | 
कि करिष्यति तेनैवं भवती खिद्यते बथा। कस्मान्ताशयते चाङ्गं दिव्यं हेमसमर्णा 
वाल्ये वयसि सम्प्राप्ते मानवो न च विन्दति । | 
एकं सुखं महाभागे बालक्रीडां विनाशुभे ॥ ४३ ॥ | | 
'वाद्धेके दुःखसम्प्रासिजेराकायं प्रहिसयेत्‌। तारुण्ये भुज्यते भोग:सखुखात्सर्चो घरात 
यावंत्तिष्ठति तारुण्यं ताचदुभुञ्जन्ति-मानघाः.। सुखभोगादिकं सवं स्वेच्छया रमते! 
दाव त्ति्ठतितारुण्य ताचद्भोगान्प्रसुञ्जतेः।.बयस्यपिगते गतेभद्रे तारुण्ये कि करि 
(|: : सम्प्राप्ते :वादधेके देवि किचिदकायँ न सिध्यति। . जज 
£ 57 £ : स्थविरश्चिन्तये न्नित्यं खुखकाय न. गच्छति ॥ ४७॥  . > | 
पयस्यपि गतेबाले क्रियते सेतुवन्धनमू | ताइशोऽयं भरे त्कायस्तारुण्ये तु गते 
सस्मादुभुङक्ष्वसुखैनापि पिबस्वमघुमाधघीम्‌। कामवाणादहन्त्यडुं तवेमे चार्ली 
'अग्रसेकःसंमायातःपुरुषोरूपघान्णणी .। अये हि पुरुषच्याघःसवेज्ञो गुणघान्धनी | 


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५ 
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खरो त्रिफञ्चाशत्तमो$ध्यायः ] ॐ शारीर विंकारवर्णनम्‌ जॉ क २₹छ 
तवार्थे नित्यसंयुक्तःस्नेहेन घरवणिनि.॥ पशा. 
Ea तटी कोक तारुण्यंनास्ति जीविते । 
| त्य नास्ति चवास्य स्वयंसिद्धःसुसिद्धिदः ॥ ५२॥ 
दवं अमरो निजेरोव्यापी झुसिद्ध:सर्व वित्तम । अकामःकामदोलोके आत्मरूपेण वर्तते ॥ 
एत यथा गेहस्य संस्थानं तथाकायस्य दृश्यते । यथावाद्धेकिनाकायस्तथा सूत्रेण मन्दिरम्‌. 
बु॥अनेक काष्ठ । सृत्तिकयोदकेनापि समन्तात्परिणामयेत्‌ ॥ 
ए विलि लेपके:काष्ठं चित्रं भवति चित्रके । प्रथमं रूपमायाति गृहं सूत्रेण सृत्रितम्‌॥ 
पुष्णन्ति च स्वयं तत्तु खेपनाद्वै दिनेदिने । वायुनादोलितं नित्यं गृहं च मलिनायते ॥. 
मध्यमोचर्तुत कालो गृहस्य परिकथ्यते | रूपहानिर्भवेत्तस्य गृहस्वामी विलेपयेत्‌ ॥ 
रः स्वेच्छया च गृहस्वामी रूपवत्त्वं नयेद्ग्रहम्‌ । . १ 
| तारुण्य तस्यगेहस्य दूतिके परिकथ्यते ॥ ५६ ॥ 
काएसङ्घश्व जीणत्वं बहुकाल:प्रयाति सः । स्थानभ्रडा:प्रजायन्ते मूलाग्रे प्रचलन्तिते ॥ | 
गनी खहेख्छेपनाभारमाधारेण प्रतिष्ठति । एतदुग्रहस्य चार्डक्यं कथितं श्ण दूतिके ॥ 


[तमान यइ दृष्ट्या ग्रहस्वामी परित्यजेत्‌। गृहमन्यं प्रवेशाय प्रयात्येव हि सत्वरम्‌ 


| त॑थाबाइ्यं च तारुण्यं नृणां वृद्धत्वमेच च। 


एकं सवाल्ये बाळरूपश्च ज्ञानहीनं प्रकारयेत्‌ ॥ ६३ ॥ 
ते पित्रयेत्कायमेवापि चस्त्रालङ्कारभूषणैः । ठेपनेश्चन्द्नेश्चान्येतास्बूलप्रमवा दिमिः.॥६४॥; 
रि कायस्तरुणतां याति अतिरुपो घिजायते। ` 
| बाह्याभ्यन्तरमेचापि रसेः सर्वेः प्रपोषयेत्‌ ॥ ६५ ॥ । 
निपोषण भावेन परिपुष्टः प्रजायते.। जायते मांसत्रद्धिस्तु रसेश्वापि नवोत्तमा ॥६६॥ 
दे यान्ति घिस्तरतां राजन्नङ्गाग्याप्यायितान्यपि। ` | 
हो प्रत्यङ्घानि रसेश्चैव स्वं स्वं. रूपं.प्रया न्ति वे ॥ ६७॥ | 
) रो स्तनौ बाहू करि परष्ठमुरूडमे। हस्तपाद तलौतढदुबद्धत्वः प्रतिपेद्रि ॥६८॥ 


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| yi, भ “ ऋ. पद्मपुराणम्‌ # उ भूमि 
उभाभ्यामपि तान्येच. वृद्धिमायान्ति तानि वे । | 
अङ्गानि रसमांसाम्यां सुरूपाणि भवन्ति ते ॥ ६६॥ | 
' दःस्वरपे्भवेन्मरत्यो. रसबद्धश्व दूतिके । सुरूपः कध्यतेमत्यों छोकेकेनप्रियो भवेत्‌ 
विष्ठामूत्रस्य बै कोशः'काय एष च दूतिके । अपवित्र शरीरोऽयं सदास्त्रवति निष 
तस्य किं वर्ण्यते रूपं जल्बुद्वुदवच्छुभे । यावत्पश्चाशह्दर्षाणि तावत्तिष्ठति वै दृढ! . 
_ पश्चाच्चं जायते हानिस्तस्येवापि दिने दिने । |: 
दन्ताः शिथिलतां यान्ति तथालालायते मुखम्‌ ॥ ७३ ॥ | 
चक्षुभ्यामपि पश्येन्न कर्णाभ्यां न श्टणोति च । गतिकतु नशकमो तिइस्तपादेश्चदृहि 
अक्षमो जायते कायो जरा कालेन पीडितः । तद्रस शोषमायाति जराञ्जितापशो षितः 
अक्षमो जायते दूति केनरूपत्वमिष्यते । यथाजीण गृह याति क्षयमैद॑ न संशय ॥४। 
तथा संक्षयमायाति वाद्धके तु कळेषुर्म्‌। ममरूपं:समायातं चणस्यैवं दिने: दिने ॥॥। 
केनाहं रूपसंयुक्ता केनरूपत्वमिष्यते | यथाजीर्ण' गृहं याति केनासौ पुरुषोबढी 
यस्यार्थमागता दूति भवती केन संसति । किमुच्छ त्वयादूर्टं ममाङ्ग चद्‌ सास्तम। 
तस्याङ्गादीह हीनं. च दूतिनास्त्य घिक तथा । | 
यथा त्वं च तथाऽसौ चे तथाहं नात्र संशयः ॥ ८०॥ ? 
कस्यरूपं न विद्येत रूपचान्नास्ति भूतले । उच्छ्रायाः पतनान्ताश्च नगास्तु “गिरयः 
-काठेनपीडितायान्ति तद्वदुभूताश्च नान्यथा । अरूपो रूपवान्द्व्यआत्माखवंगत शु 
स्थाचरेष्वेव सर्वेषु जङ्गमेघु च दूतिके। एको निवसतो शुद्धो घरेष्वेकं यपो 
-घरनाशात्प्रयात्येकमेकत्वं त्वं न च॒ध्यसे । पिण्डनाशादयंचात्मा एकरूपो विजा 
एक रूपं मया दष्टं - संसारेवसतां सदा । F 
आओ एवं वदस्व चं ज्ञात्वा यस्याथेमिहचागता ॥ ८५॥ 
दर्शयस्व अपूर्व मे यदि भोक्तुमिहेच्छसि । व्याधिनापीड्यमानस्य कर्फेनापिवृतस्य 
अङ्गाद्विचकते शोणःस्थानञ्चष्टोऽमि जायते। अङ्गसन्धिघु सर्वासु पलत्वं चान्त 
. एकतो नाशमायाति 'स्वंहिरूणं परित्यजेत्‌ । 


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| 


भे -त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ] ॐ शरीर, विकारचर्णनम्‌ ॐ 
| : : :_ चिष्ठात्वं जायते शीघ्र कृमिभिश्च भवेत्किछ ॥ ८८॥. . | 
न सद्वददुःखकरंचापि निजरूपं परित्यजेत्‌ । श्रूयतां जायते पश्चात्कमिदुगेन्धसङकुलम्‌ ॥ - 
द्‌ जायन्ते तत्र वै यूंकाः छमयो घां न संशयः] . - . . 
पद सक्कमिः कुरुते स्फोट कण्डूं च परिदारुणाम्‌ ॥ ६० ॥ 
ह्‌ व्यथासुत्पाद्येचूका सर्वाङ्गं परिचाल्येत्‌ । नखात्रैधुष्यमाणा सा कण्ड्ःशान्ताप्रजायते 
| तदुद्त्तश्व न्टणुष्वव खुरतस्य न संशयः । भुनक्त्येवरसान्मर्त्य: सुभक्षान्पिवते पुन: ॥ 
| चायुना तेनप्राणेन पाकस्थानं प्रणीयते । यदुभुक्त' प्राणिमिर्दू ति पाकस्थानं गतं पुनः 
हि खर्च अर ट। वायुर्े पातयेन्मलम्‌ । सारभूतो रसस्तत्र तद्रक्तश्च प्रजायते ॥६४॥ 
| निमेलः ब्रहास्थान प्रयाति च । आकृष्टःस समानेन नीतस्तेनापि वायुना ॥ 
४ स्थानं न लभते वीर्य चञ्चलत्वेन वर्तते । 
॥ हः आणिनां हि कपालेषु रूमयः सन्तिपञ्च चे॥ ६६ ॥ नह 
ही दवावेत फर्पासूले तु नेत्रस्थाने ततः पुनः । कनिष्ठाङ्गुलिमानेन रक्तपुच्छाश्व दूतिके ॥ । 
तम चवनीतस्य वर्णन कृष्णपुच्छान संशय: । तेषां नामापि भद्दे त्वं मत्तौ निगदितं श्रणु ॥ 
पिङ्गळीश्उङ्लीनाम डौ इमी कर्णमूलयोः । चपलः पिप्पलश्चैच द्वावेतौ नासिकाम्रयोः | 
?उङ्ग्ली जङ्गली चान्यौ नेत्रयोरन्तरखितौ । हमी णांशतपञ्चाशत्ताइग्भूता न संशयः ॥ 
यु भालान्ते$वस्यिताः सर्वे राजिकायाः प्रमाणतः । १ 
रु कपाळरोगिणःस्ें चिकुवेन्ति न संशयः ॥ १०१॥ [ 
कफेशद्दयं सुखे तस्य विद्यते श्यणु दूतिके । प्राणिनां संक्षयं चिद्धि तत्क्षणे हि न संशय: 
जास्वस्थाने संस्थितस्ग्रापि प्राजापत्यस्य यै सुखे.। तद्वीर्यं रसरूपेण पततेनात्र संशयः ॥ | 
सुखेन पिवते चीयं तेनमत्तः प्रजायते। तालुमध्यप्रदेशे च चञ्चलत्वेन वर्तते ॥१०४ | 
इडा च पिङ्गला नाडी सुषुम्नाख्या च संस्थिता । | 
सा खुबलेनापि तस्यैव नाडिका जालपञ्जरे॥ १०५ ॥ | 
सूमकण्डूमेवेदःदूति सवेषां प्राणिनां किळ। पुंसश्चस्फुरते लिङ्ग नार्यायोनिश्चदूतिके | 
ीपुंसोसम्ममत्तोःत घजतः सङ्गमं ततः | कायेन कायसड्सृष्टिमेंथुनेन हि जायते ॥ | 


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Vr 


शक ३ 


i १३६ Me १% पंद्मपुरा णमः ताम क्र ६ “[-२ भूमिक | | 
` -क्षणमातरं सुखं काये पुनः केण्डूंश्व तादृशी । सर्वत्र इश्यते दूति भाव एवं विधः कि 


| 


' बनत्वमात्मनः स्थोनं नैवास्त्यत्र अपूर्वता । अपूवंनास्ति मे किंचित्करोम्येवनसंश 
इति श्रीपाद्मपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने खुकलाचरित्रे 
'. - त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥ 


—— ० 1 


| चतुःपञ्चाशत्तमो 5ध्याय: शिक 
रतिकन्दर्पेसह इन्द्र इष्ट्वा सुकल्या स्वगृहमध्ये अवेशकरणम्‌। । 
विष्णुरुवाच । टु | 


ए्वमुक्ता गता दूती तया सुकल्या तदा । समासेन सुसम्प्रोक्तमवधाये पुरन्दरः ॥ (| 
तदर्थ भाषितं तस्याः सत्यधर्मसमन्वितम्‌। आलोच्य साहसंघेयज्ञानमेच -पुरन्द्र। 
इदृशं हि चदेत्का हि नारोभूत्वा महीतळे । योगंरूपं खुसंशिष्टंन्यायोदेःक्षालितं षदः 
पवित्रेयं महाभागा सत्यरूपा न संशयः । चरैलोक्यस्य समस्तस्य धुरधर्तु भवेत्का 
एतदर्थं विचाग्रंच जिष्णुःकन्दर्पमत्रबीत्‌। त्वयासह गमिष्यामि द्रप्टुंतां ककलप्रिया 
प्रत्युवाच सह्नाक्षां मन्मध्ोबलदपितः | गम्यतां तत्र देवेश यज्ञस्ते सा पतित्रत, 
मानं वीयं वल धैयंतस्याःसत्यं पतित्रतम्‌।. गत्वाहं नाशयिष्यामि कियन्मात्रासुरेब 
समाकर्ण्य सहस्राक्षो चनं मंन्मथस्य च। भो भो5नडूं शणुष्बत्वमधिकंभाषितंशु 
खुद्ढा सत्य वीर्येण सुस्थिरा धर्मकर्ममिः | सुकरे यमजेया वै तत्र ते पुरुषं न हि 
.. इत्याकर्ण्यं ततः क्रुद्धोमन्मथस्त्विन्द्रमत्रचीत्‌। 

ऋषीणां देचतानां च चळ मायाप्रणाशितम्‌ ॥ १० ॥ 

अस्यावळ' कियन्मात्रं. भवता मम कथ्यते1 ` 2 
; एट पंश्यतस्तवं देवेश नाशयिष्यामि तां खियम्‌ ॥ ११॥ -. `: ८ । र 
नघनीतं. यथाचाग्नेस्तेजो दृष्ट्या द्रवं व्रजेत।:तथे मां द्रावयिष्यामि.स्वेनरूप्रेण 


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ये चतुःपञ्चाशत्तमोध्यायः ] # खुकल्या स्वय्रृहमध्येप्रवेशकरणम्‌ # हि १७७ $ 
किर „ गच्छ तत्र महत्कार्यमुत्पाद्य साम्प्रतं घुधम्‌॥ .- .: 
शि कस्मात्कुत्ससि मे तेजस्त्रैलोबयस्यचिनाशनम्‌ ॥ १३ ॥ . 
जि अ “विष्णुरुवाच । 
आए वाक्यं तु मनोभवस्य एतामसाध्यां तच कामजाने । 
| चपससुयम्य च पुण्यदेहां पुण्येन पुण्यां बहुपुण्यचाराम्‌ ॥ १४। 
| पश्यामि ते पौरुषमुग्रवी यमितो हि गत्चा तु उ 
|. तेनापिसाधं प्रजगाम भूयो रत्या च दूत्या च पतिव्रतां ताम्‌॥ १५॥ 
एकां सुपुण्यां स्वग्रृहस्थितां तां ध्यानेनपत्युश्चरणे नियुक्ताम्‌। ` 
| यथासुयोगी प्रविधाय चित्तं विकल्पहीनं न च कल्पयेत्‌ ॥ १६ ॥ 
| अत्यदुभुतंरूपमनन्ततेजो युतंचकाराथ सटी प्रमोहम्‌। 


i 
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| 
| 


१ नीळाञ्चितं भोगयुतं महात्मा ऋषध्वजश्चैच पुरन्द्रश्च ॥ १७॥ 

र्र इष्ट्चालुळीळं पुरुषं महान्तं चरन्तमेचं परिकामभावम्‌ । 

॥॥ जाया हि वेश्यस्य महात्मनस्तु मेनेनसारूपयुतं शुणज्ञम्‌ ॥ १८॥ 

4 अम्भीयथा पद्मदलेगत॑ वै प्रयाति सुक्ताफलकस्य की तिम्‌ । 

या तद्वत्स्वभाचःपर्सित्ययुक्तो जज्ञे च तस्यास्तु पतिव्रतायाः ॥ १६ ॥ 
| अनेनदूती परिप्रेषिता पुरा या मां युवत्याह गुणज्ञ मेनम्‌ । 

रै लीळास्वरूपं बहुधात्मभाव॑ ममैष सबै परिदर्शयेच्च ॥ २० ॥ 

सु ममैचकाळं प्रबल विचिन्त्या गतो हि मे कान्त गुणेश्च सत्खलः । 

हि रत्यासमेतस्तु कथं च जीवेत्सत्याशमभारेण प्रमदितश्च ॥ २१ ॥ 


ममापिभाचं परिगृह्यकान्तो जीवेत्कियान्वापि सुबुद्वियुक्तः । 
झून्यो हि कायो ममचास्ति सद्यश्चेष्टाविद्दीनो स॒टकल्प एच ॥ २२ ॥ 
कायस्य गामस्य प्रजाःपनष्टाःसुविक्रियाख्यं परिगृद्यकमे । 
ममाधिकेनापिं समं सुकान्त सउ दुऽदशोभामनयञ्चकामः ॥ २३ ॥ 
यदा सतो बळधान्हर्षयुक्तःस्वयंइृशा वै परिनित्यमानः। 


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51 .४- अपाइपुराणम्‌क ` २ भूमि 
तथा अनेनापि प्रभाषयेदुमुतँ यो मां हि वाञ्छत्यपि भोक्तुकामः ॥ २५ 
एवं चिर्चायैंँच तदामहासती सत्याख्यरज्ज्वा दूढबद्धचेतनां। - 
गुहं स्वकीयं प्रविवेश सा तदा, तत्तस्यभाव नियमेनवेत्तुम्‌ ॥ २५॥ 
इति श्रीपाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे घेनोपाख्याने खुकलाचरित्रे 
चतुःपश्चाशत्तमोष्ध्यायः ॥ ५४ ॥ 


>६६:८-८-:२->५८:->५227 


पञ्चपञ्चाहात्तमोऽध्यायः 
सुकलासाधनेशक्रमदनयोः विवादवर्णनस्‌ । 
विष्णुरुवांच । 

भावं विदित्वा सुरराट्‌ च तस्याः प्रोवाच कामं पुरतःस्थितं सः । 
नं-चास्ति शक्या स्मर ते जयाय सत्यात्मकध्यान सुदंशितासती ॥१ 
'र्माख्यचापं स्वकरे गृहीत्वा ज्ञानाभिधानं वरमेव याणम्‌ । 
योद्धं रणे सम्प्रति संस्थिता सती चीरो यथा दर्पित चीर्यमावः ॥ २॥ 
जिगीषयेयं पुरुषार्थमेच त्वमात्मनः कुरुषे पौरुषं तु । 
त्वामं्यजेतुं समरे समर्था यदुभाव्यमेवं तदिहैच चिन्त्यम्‌ ॥ ३॥ 
द्ग्धोऽसि पूर्व त्वमिहेंच शर्सुना मेंहात्मना तेन समं चिरोधम्‌। 
कंत्वाफल तस्य विक णश्च जातोऽस्यनङ्गःस्मरसत्यमेच ॥ ४॥ 
यथां त्वयाकर्मक्कत पुरास्मरं फलंतु प्राप्तं तु तथैव तीवम । 
सुकुत्सितां योनिमवाप्स्यसि धुवं साध्न्यानया साधेमिहैच - कथ्यसे॥ 
ये ज्ञानचन्तःपुरुषा जगत्त्रये वेर प्रकुवेन्ति 'महांत्मभिःसमम्‌। ` 
भुञ्जन्ति ते दुष्छतमेवतत्फलं दुःखान्वितं रूपचिनाशनं च ॥६॥ 
व्याघुष्य'आंचां तुं ्रजावकामं पनांपरित्यंज्य सतं प्रयुज्य । 


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बलासो च्याय, ES | 

| “पसङ्गन पुरामया तु लब्धं फलं पापमयं त्वसहाम॑ tsi 
किरा जातश्च मैपत्ृघणःसदाह्यहं भवान्गतो मां तु विहाय तत्र ॥ ८॥ ` 
ऱ्य तेजःप्रभावो ह्यतुलःसतीनां धाता समर्थेःसहितुं न सूयः । ` - 
| ट सुकुत्सितं रूपमिदं तु रक्षेत्पुरानलूया सुनिना हि शंप्तम्‌॥ ६ ॥' 
| निस्य सूर्य परिवेगवन्तमुद्यन्तमेव प्रभया सुदीप्तम्‌। 

` अटुशच खृत्यु परिबाधमान माण्डव्य शापस्य च कौ ण्डिनस्य ॥१०॥ 
| अन्नेःप्रिया 'सत्यपतित्रताय स्वपुत्नतां देच्रयं हि नीतम्‌। ` | 
जे कि पुरा मन्मथते शरुतं सदा संस्कार्‍युक्ताःप्रभवन्ति सत्य: ॥ ११ 

सावित्रीनाम्नी चुमत्सेनपुत्री नीतंग्रिय सापुनरा निनाय । 
यमादिहेवाश्वपतेःसुपुतरं सतीत्वमेवं परिसंभ्रुतं च ॥ १२॥ . 
अग्ने:शिखां कःप रिसंस्पृशेद्वेतरेद्धिक:सागर मेच मूढ:। 


॥ ¦; 'गछे तु बदुध्चा सुशिलां भुजोम्यां कोचासतीं वश्यतिवरीतरागाम्‌ ॥ १३ ॥ 
| उक्त तु वाक्ये चहुनीतियुक्ते इन्द्रेणकामस्य खुशिक्षणार्थम्‌ । 
॥| 


| 

| 

| 

| 

| आकर्ण्यचाक्यं मकरध्वजस्तु उचाचदेवेन्द्रमथेनमेच ॥ १४ ॥ 

| तवा तिदेशादहमागतो वै धयं सुहृत्वं पुरुषाथमेच । 

। त्यक्वा तदर्थं परिभाषसे मां निःसत्त्वरूपं बहुभी तियुक्तम्‌॥ १५॥ 

: | व्यावुद्धि यास्यामि यदा सुरेश स्यालोकमध्ये मम कीतिनाश: । 
ऊढिङ्करो मानविहीन,एव सर्वे बदिष्यन्त्यंनयाजितं माम्‌ ॥ १६॥ 

| ये चे जिता देवगणाश्च दानवाःपूवंसुनीन्द्रास्तपसाप्रयुक्ता: । 

श दास्यं करिष्यन्ति ममापिं सद्यो नार्याजितोमन्मथ एषभीमः ॥ १७॥ 
तस्मात्प्रयाष्यामि त्वयैचं सार्धमस्याबलं मानतमःसुरेशः। ` क 
तेजश्च धेयं परिणाशंयिष्ये कस्मानवानत्र बिभेर्ति शक्र; ॥ १८ ॥ 
सम्बोध्यचेवं स सुराधिनाथ चापं गृहीत संशरं सुपुष्पम | 


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हे ऱ्य 3 पे > #.पाद्मपुराणस्‌ # [ २ सू | 
त तारा पुरतःस्थितां लां विधायमायाँ भवती प्रयातु ॥ १६॥ | 
वैश्यस्य भार्या' सुकलां खुपुण्यां सत्ये स्थितां धर्मविदां शुणश्ञाम्‌। ¦ 
इतो हि गत्वा कुरुकार्यमुक्तं राहाय्यरूपं च प्रियेखखे श्टणु ॥ २०॥ |' 
क्रीडां समाभाष्य तदो मनोमचस्त्वन्तेस्थितां प्रीतिमथाह्ययत्पुनः। | | 
कार्यभवत्या मम कार्यमुत्तममेतां खुस्नेदैः परिभावयत्वम्‌ ॥ २२॥ | 
नदं हि दृष्ट्वा सुकला यथा भवेत्स्नेहालुगा चारविलोचनेयम्‌। ॥ 
तैस्तैपप्रभाबैर्गुणवाक्ययुक्तैनेयस्व वश्यं.च प्रियेसखे श्टणु ॥ २२॥ | 
भोमोःसखे साधय गच्छशीघे मायामयं नन्दनरूपथुक्तम्‌। | 
पुष्पोपयुक्तं च फलप्रघानं घुष्टेरुतैःको किळ षट्पदायाम्‌ ॥ २३ ॥ 
आहूय वीरं मकरन्द्मेव रसायनं स्वाडुणुणेरूपेतम्‌। 
सहानिलादैनिजकर्म युक्तैःसम्प्रेषयित्वा पुनरेव कामम्‌ ॥ २४ ॥ 
एवंसमादिश्य महत्सलैन्यं त्रेटोकरसंमोहकरं तु कामः । 
चक्रे प्रयाणं सुरराजसाधं संमोहनायैव महासतीं ताम्‌ ॥ २५॥ 
इति श्रीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने सुकलाचरित्रे 
पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५॥ 


षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः 
` मदनेन्द्रचरित्रहष्ट्वा सत्परधर्मादीनांसंवादवर्णनम्‌ । 
, - विष्णुरुराच। | 

तस्याःसत्यविनाशाय मन्मथःसस्ुराधियः । प्रस्थितःसुकळांतरदि' सत्यो धर्ममथा 
पश्य धर्म महाप्राज्ञ मन्थस्यविचेष्टितम्‌। तवार्थमात्मनश्चैव पुण्यस्यापि . महात्‌ 
विरुजामि महास्थानं वास्तुरूपं सुखोदयम्‌। . 

सत्याख्यं स च विप्राख्यं सुदेचाल्यं ग्रहोत्तमम्‌ ॥ ३॥ | 

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(७-0. Mumukshu Bhawan Viranasi Collection. Digitized by eGangotri 


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। भट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ] # सत्यधर्मादीनांपरस्परसंचांद्चर्णनम्‌ ॐ १८१ ` 
| 
| तमेच नाशयेद्गत्वा कामएष प्रमत्त धीः | रिपुरूपःसुदुष्टात्मा अस्माकं हि न संशयः ॥ 
॥ पतिस्तपोधनो विप्रःसुसती या पतित्रता । सुसत्यो भूपतिधेमे ममगेह्दा न संशय: ॥ | 
| यत्राहं वृद्धिसम्पुष्स्तत्रचासो हि ते भवेत्‌ तत्रपुण्यं समायाति श्रद्धया सह क्रीडते ॥ 
क्षमा शान्ति समायुक्ता आयाति मम मन्द्रम्‌ । यथा सत्योद्मश्चैव द्याखौहृदमेच च 
भज्ञायुक्तःलनिलॉभोयत्राहं तत्र संस्थितः । शुचिःस्वमावस्तञ्रैव अमी च ममबान्धवा: 
अस्तेयमप्यहिसा च तितिक्षा वृद्धिरेव च । ममगेहे खमायाता धन्य तां अणु घर्मेराट 
शुरूणांचापि शुश्रूषा विष्णुलक्ष्म्या समावृतः । ब 
मदुगेहं तु समायान्ति देवाश्चाम्निपुरोगमाः ॥ १० ॥ 
| सोक्षमार्ग प्रकारोद्यो ज्ञानी दीप्त्यासमन्चितः । 
| एते:सार्थ वसाम्येव सतीषु घमेवत्सु च ॥ ११॥ 
साधुष्वेतेयु सर्वेषु ग्रहरूपेषु मे सदा । उक्तेनापि कुटुम्वेन चसाम्येच त्वयासह ॥ १२॥ 
खसत्तवाःसाधुरूपास्ते वेधसा मे ग्रहीकृता:। सञ्चरामिमहाभाग स्वच्छन्देन च लीलया 
फस जगत्स्वामी निनेत्रो वृषवाहनः । ममगेहे स्वरूपेण वर्तते शिवयायुतः ॥१४॥ 
तदिदं संशतेःसारं ग्रहरूपं महेश्वरम्‌। सदनं शङ्कुरेत्याख्यं नाशितं मन्मथेन चै ॥ १५॥ 
| विश्वामित्रं महात्मानं तपन्तं तप उत्तमम्‌ । 
| मेनकां हि समाश्रित्य कामोऽयं जितवान्पुरा ॥ १६ ॥ 
पती पतित्रताहल्या गौतमस्य प्रियाशुभा । सुसत्याचालिता तेन मन्मथेन दुरात्मना ॥ 
प पुनयःसत्यधमेजञ नानास्त्रिय:पतिब्रताः । मदुग्रहास्ता इमाःसर्वा दीपिताःकामच हिना 
| ढुधेरो दुःसहो व्यापी योऽतिसत्येषु निष्ठरः। 
र | मामेवं पश्यते नित्यं.: कसत्य:परितिष्ठात,॥ १६॥ . | 
र मां ज्ञात्वा समायाति बाणपाणिर्धेनुर्घरः । नाशयेन्मदुग्रहं पापो वीतिहोचैश्वनामके: 
एपलेशाश्च ये कूराअन्येपाषण्डसंश्रयाः । ते तु बुद्धयाऽहि ताःसर्चे सत्यगेहंविशन्तिहि 
के कब च्छन्चना तेन साधितः । पातयेद्दयेद्गेहँ पाप:शस्त्ेदु रात्मसिः ॥ 


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वं पो महाबळ मनोभवः। अस्यधाम्ता प्रदग्धो5हं शून्यतां हि त्रजासि वै 


-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| 

` द्र - ... #पाड्रपुराणमु# ` [२ 
| नूतनं ग्रहमिच्छामि स्त्रियाख्यं पतिभूपतिम्‌ । 

१ छकलूस्यापि. पुण्यस्य .प्रियेयं शिवमङ्गछा ॥ २४ ॥ 

र तदहं सुकलाख्यं मे दं पापःसमुद्यतः। अयमेष सहस्राक्ष कामेन सहितो क॑! 

कामस्य कारणात्कस्मात्पूर्ववृत्तं विन्दति । अहल्यायाः प्रसङ्गेन मेषोपस्थोव्यतर 

` पौरुषं हि मुनेद्वष्टुवा सत्याश्चैवप्रधर्षणात्‌ । नष्ट कामस्यदोषेण सुरराट्‌ तत्रसंहि 

शुक्तवान्दारुणं शापं दुःखेनमहतान्वितः । | 

कलस्य ग्रियामेनां सुकलां पुण्यचारिणीम्‌॥ २८ ॥ | 

एष हन्तं सहस्राक्ष उद्यतःकामसंयुतः। यथाचेन्द्रेण नायाति काम एष तथाङु 

धर्मराज महाप्राज्ञ भवान्मतिमतां चरः ॥ ३०॥ | 

: घर्मराज उवाच | | 

ऊनं तेजःकरिष्यामि कामस्य मरणं तथा । पकोपायो मया हृष्टस्वमिहैव प्रप, 

प्रज्ञाचैषा महाप्राज्ञा शाक्रुनी रूपचारिणी । भर्तरागमनं पुण्यं शब्देनाल्यातु खेय 

शकुनस्य प्रभावेन भर्तुश्चागमनेन च । दुणैनेंशा न भूयेत स्वस्थचित्ता न संशयः | 

प्रज्ञा संप्रेषिता तेन गता सा सुकला गृहम्‌ । प्रकुवेती महच्छब्दं द्ृश्देचेच सा वा 

पूजिता मानिता प्रज्ञा धूपदीपादिभिस्तदा । ब्राह्मणं सुकलाऽपच्छत्किमेषा च परे 

ब्राह्मण उवाच | | 

सर्तश्चागमनं त्र ते तवैव सुभगे स्थिरा । दिनसत्तकमध्ये स आगमिष्यति न्य 

इत्येचमाकर्ण्य सुमङ्गळं वचःप्रहषेयुक्ता सहसा वभूच । . | 

धमेज्ञमेकं सगुणं दि कान्तं शङुनात्परदिष्टं हि समागतं तम्‌ ॥ ३७॥ | 

इति श्रीपाञपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने सुकलाचरित्रे 


षट्पञ्चाशात्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥ 


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सप्तपञ्चाशत्तमो 5ध्याय 


क्रीडया सुकलांप्रत्यागत्य. तां मोहयित्वा तयासहोपवनंप्रतिगमनम । . 


विष्णुरुवाच । 
कीडा सतीरूपधरा प्रभूत्वा गेहंगता चारुपतिव्रतायाः | 
तामागतां सत्यस्चरूपयुक्ता सा सादर वाक्यमुचाच धन्या ॥ १॥ 
चाक्यःसुपुण्येः परिपूजिता सा उचाच क्रीडा सुकलां विहस्य 
मायानुगं विश्चघिमोहनं सती प्रत्युत्तर संत्यप्रमेययुक्तम्‌ ॥ २॥ 
ममापि भर्ता प्रबलो शुणज्ञो धीरःसविद्यो महिमाप्रयुक्तः:। .... 
त्यकत्वा गतःपापतरां सुपुण्यो मामेच नाथःश्टण पुण्यकीर्तिः ॥ ३ ॥ 
वाक्यस्तु पुण्यरबलास्वभावादाकण्यं सचं सुकला समुक्तम्‌ । 
संशुद्धभावां च विचिन्त्य चाह कस्माद्नतःसुन्द्रि तेऽच्चनाथः ॥ ४॥ 
'विहाय ते रूपमतीव सत्यमांचक्ष्व सद॑ भवतो सुभतः। 
ध्यानोपयुक्ता सकळं करोति सलीस्वरूपा ग्रहमागता मे ॥ ५ ॥ 
क्रीडा बभाषे श्रण सत्यमेतं चरित्रभाचं मम भर्त्तरस्य। ` 
अहं प्रिये यस्य सदेवयुक्ता यमिच्छते तं प्रति सान्त्वयामि ॥ ६ ॥ 
कत्‌ःसुपुण्यं घचनं सुमर्दुध्यानोपयुक्ता सकळं करोमि । 
एकान्तशीला सयुणानुरूपा शुश्रूष्येकस्तमिहैच देवि ॥ ७॥ 


मम पूचेचिपाकोऽयं सम्प्रत्येचंप्रचतंते । यतस्त्यवत्वा गतो भर्त्ता मामेवंभन्द्भागिनीस्‌ | 
. (सखेन धारये जीचं स्वकीयं कायमेव च । पत्याह्दीनाःकथंनार्यःसुजीचन्ति च निघुणा: | 


रूपश्टङ्गारसौ भाग्यं सुखं सम्पत्तिरेव च] . : 
नारीणां हि.महाभागो सर्ताशास्त्रेषु गीयते ॥ १० ॥ 


तया सुबसमाकण्ये यदुक्तं क्रीडया तदा । सत्यभावंविंदित्वा सा मेने सम्भाषितं तदा | 


"| 


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_विश्वस्ता सा महाभागा सुकला पतिदेवता । तामुवाच पुनःसर्वमात्मचेष्टाजुगं घर | 
समासेन समाख्यातं पूर्वेचत्तान्तमात्मनः । यथाभता गतोयात्रां पुण्यसाधनतत्पर 
आत्मदुःखं सुसत्यं च तपं एव मनस्विनि । 
योधिता क्रीडया सा तु समाश्वास्य पतित्रता ॥ १४ ॥ 
एकदा तु तयाग्रोक्त क्रीडया सुकळांप्रति। सखे पश्य घनं सौम्य दिव्यचृक्षे 
तत्रतीर्थं परंपुण्यमस्ति पातकनाशनम्‌। नानावल्लीवितानश्व खुपुष्पे परिशोभिता; 
आवाभ्यामपि गन्तव्यं पुण्यहेतोर्वरानने । समाकण्य तयासाङ झुकला मायया त्द॒ 
प्रविवेश चनं दिव्यं नन्दनो उममेव . सा । सर्वतुंकुसुमोपेतं कोकिला शतनादितम्‌ | 
गीयमानं सुमधुरेनादेप्रेधकरेरपि । कूज द्विःपक्षिभिःपुण्यःपुण्यध्चाने समाङुलम्‌॥ 
चन्दनादिकवृद्वेश्‍च सौरमैश्व विराजितम्‌ । सर्वभोगेःसुसम्पूणं माधव्या माधवेन 
रचितं मोहनायैव सुकलायाश्च कारणात्‌ । तयाखाधं प्रविष्टा खा तद्धतं सभा 
ददर्श सौख्यद्‌ं पुण्यं मायाभाव न विन्दति | वीक्षमाणा घनं दिव्यं तयासहजनेश्वा 
शक्रोऽपि चाम्ययात्तत्र देचमूति विराजितः । तया दूत्या समं प्राप्तःकामस्तत्र समाए 
सर्वेभोगपतिभूत्वा कामलीलासमाकुलः। काममाह समाभाष्य एषा सा खुकुला5ण 
प्रहरस्वमहाभाग की डायाःपुरतः स्थिताम्‌। मायां कत्वा समानीतांक्रीडयातवसल्ि 
पौरुषं दर्शयाचेच यच्चस्ति कुरु निश्चितम्‌ । | | 
काम उचाच | 
-असत्मरूपं दर्शयस्व च उुरं लीलायान्वितम्‌ । येनाहं प्रहराम्येतां पञ्चबाण सहस्त्र 
इन्द्र उवाच । | 
कास्तेते पौरुष॑मूढ येन डोकं विडम्बसे। मामाधार परोमूत्चा योढुधुमिच्छसिसाम/ 
काम उवाच। ८३ 
तेनापि देवदेवेन महादेवेत शूलिना । (वंमेव हृतंरूपं ममकायो .न विद्यते ॥ | 
च्छाम्यहं यदानारीं हन्तुं श॒ पुष्य साम्प्रतम्‌ । पुंसां कायं समाश्रित्य आत्मरूपं र 
पुमांसं बा सहत्नाक्ष नार्याःकायं समाश्रये। पूर्व दृष्टा यदानारीं तामेवं परिचि 


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अष्टपन्चाशत्तमो5ध्याय: ]  सुकल्येन्द्रस्य निराशीकरणचर्णनम्‌ ॐ १८५. र | 
च चिन्त्यमानस्य पुंसस्तु नार्यारूपं पुनःपुनः । अदुष्टं तु समाथित्य पुंसमुन्माद्याम्यहम्‌ . 
र थाप्युन्मादयास्येवं नारीरूपंनसंशयः । संस्मरणात्स्मरोनाम ममजातं सुरेश्वर ॥३३॥ 

तां इष्ट्वा ताइृशोरङ्ग घस्तुरूपं समाश्रय । आत्मतेजःप्रकारेन वाध्यचाधकतां त्रजेत्‌ . 

नारीरूपं समाथित्य धीरं पुरुषंप्रमोहयेत्‌ पुरुषंतुसमाध्चित्यं भावयामि सुयोषितम्‌ - 
्सरूपह्दीनोऽस्मि हे इन्द्र अस्मट्र्पंसमाश्रयेत्‌ । तवरूरंसमाश्रित्य तां साधये यथेप्सिताम्‌ : 
वएवसुकत्या स देवेन्द्रंकायंतस्यमदात्मनः । सखाऽसौमाअवस्यापिसमाश्रित्यसुमायुधः 


त्‌ | तामेच हन्तुं कुसुमायुधोऽपि साध्त्ी सुपुण्यां छकळस्यभायाम्‌। 
ii समुत्सुकस्तिष्ठति चाणलक्ष्यं तस्याश्चकायं नयनैचिलोक्य ॥ ३८॥ 
ht इति श्रीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने सुकलाच रित्रे 
वेग | सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥ 
101 
वा 
पार 
हैं अष्ट्रपञ्चाशात्तमोऽध्यायः 
नरि ` इन्द्रसुकल्योःसंवादे सुकलयेन्द्रस्य निराशीकरणम्‌ । 
| विष्णुरुचाच । 
| क्रीडाप्रयुक्ता खुबनंप्रविष्टा वैश्यस्यभार्या सुकलासुतन्वी । 
हर ददश सर्व. गहनं मनोरमं ठामेव पप्रच्छ सखी सती सा॥ १॥ 
। अरण्यमेतत्प्रवरंसुपुण्यं दिव्यं सखे कस्यमनो भिरामम्‌ । 
र्म सिद्ध सुकामेःप्रवरेःसमस्तैःपप्रच्छ दर्षात्सुकलासखीं ताम्‌ ॥ २॥ 
| क्रीडोचाच 
र । एतद्वनं दिव्यशुणेःप्रयुक्तं सिद्धस्वभावैःपरिमावनेन । 
हं ` “पुष्पाकुल् काम्रफलोपयुक्त विपश्य सर्वे मकरध्वजस्य ॥ ३ ॥ 


बेल वाक्य ततःश्वुत्वा हर्षेणमहतान्विता । समालोक्य महद्वृत्त कामस्य च दुरात्मनः 


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‘ee १८६ . ॥ क पाशपुराणम्‌ क ` ` [ २ भून, 

वायुना नीयमानं तं समाघ्राति न सौरभम्‌ । घातिवायुःस्वभावेन सौरभेणसञ्ग 

तद्वाणोषिशतेनासा यथा तथा सुढीलया । स गन्धंनेव गृह्णाति पुष्पाणां च षष 

न चास्वाद्यते सातु सुरसान्सा महासती । स सखा कामदेवस्यरममाणो विन्न 

लञ्जितःपरङ्सुखोभूत्वा भूपालवचनच्छदैः । फलेभ्यो हि खुपक्क भ्यःपुष्पमञ्ज रिस, 

लचरूपोऽपतदुभूमौ रसस्त्वेष तयाजितः। मकरन्दःसुदीनात्मा फलादुभूमि त्र! 

भक्ष्यते मक्षिकाभिश्च यथास्तो रणे तथा । मक्षिका भक्षयमाणस्तुप्रवाहेन प्रयारि 

मन्दमन्दं प्रयात्येव तं हसन्ति च पक्षिणः । नानारुतेः प्रचलन्ति सुखमानन्द्‌ नि 

प्रीत्या शक्कुनयस्तत्र चनमध्य नगस्थितः । सुकल्या जितोह्येष निस्नंपन्थानमा 

प्रीत्यासमेता रतिःकामभारयां गत्वा ब्रवीत्सा सुकळां विहस्य॥ | 

स्वस्त्यस्तु ते स्वागतमेव भद्रे रमस्व प्रीत्या नयनाभिरामम्‌ ॥ १३]. 

ते रूपमिएममळमिन्द्रस्यापि महात्मन: । यदेष्टं ते तदात्र हि समानेष्ये न खंशयः॥| 

सूत उवाच । | 

बद्न्त्यौ ते स्त्रियो दृष्ट्या श्रत्वोवाच सुभाषितम्‌ । | 

रतिप्रति ग्रहीत्वा मे गतो भत्ता महामति॥ १५॥ | 

यत्र मे तिष्ठते भर्त्ता तत्राहं पतिसंयुता । तत्रकामश्च मे प्रीतिरयंकायो निराध्र 

हे अप्ययुक्त समाकण्य रतिप्रीतिविळञ्ञिते। घ्रीडमाने गते ते द्वे यत्रकामो महा 

ऊचतुस्तं महाचीरमिन्द्रकायसमाश्रितम्‌। चापमाकर्षमाणं तं नेत्रलक्ष्यं महावर 

दुजयेयं महाप्राज्ञ त्यज पौरुषमात्मनः । पतिकामा ' महाभागा पतिव्रता सदैव र 

काम उवाच | । 

अनयाळोक्य ते रूपमिन्द्रस्यास्य महात्मनः । यदि देवि तदाचाहं हनिष्यामि न सँ 
अथ वेषधरोदेवो महारूपःसुराधिपः । ख तयानुगतस्तूणं परया लील्या तदा ॥ 

सवंभोगसमाकी णंःसर्घाभरणशो मितः। दिव्यमाल्याम्बरधरो द्व्यगन्धानुलेपन । 

तयारत्यासमायातो यत्रास्तेपतिदेवता । प्रत्युवाचमहाभागां, सुकलां प 
पूव दूतीसमक्ष ते परीत्या च प्रहिता मया । कस्मान्नमन्य्रसे भद्रे भजन्तु 


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ल अष्टपश्वाशत्तमो५ध्याय: ] # सुकल्येन्द्रस्य निराशीकरणम्‌ # क 228 | 
मह - खुकलोवाच | 
१९ रक्षायुक्तास्मि भद ते भर्तु:पुतरेमंहात्ममिः । एकाकिनीसहायैश्च नेवकस्यभयं मम ॥ - 


ह, शूरेश्व पुरुषाकारे:स्वेत्र परिरक्षिता । नाति प्रस्तावयेवक्त व्यग्राकर्मणि तस्य च ॥२६॥ 
संर) यावत्मस्पन्द्ते नेत्रं ताघत्काळं महामते। भवानलज्जते कस्माद्रममाणो मया सह । 
तत भवान्को हि समायातो निर्भयो मरणादपि ॥ २७॥ 
पी... - | इन्द्र उवाच | . 
नि त्वामेचं हि प्रपश्यामि चनमध्ये समागताम्‌ । 
मा समाख्यातास्त्वया शूरा भर्तुश्च तनयाः पुनः ॥ २८ ॥ 
| कथं पश्यास्यहं तावद्दर्शयस्व ममाग्रतः ॥ २६ ॥ 
३॥ | सुकलोचाच। _ 


:॥ स निजखफळवर्गस्याधिपत्येनिवेश्य घृतिमतिगतिबुद्धयाख्यैस्तुसन्यस्यसत्यम्‌ । 
| अचलसकळधमों नित्ययुक्तो महात्मा मदन सवल धर्मात्मा सदा मां जुगोप ॥ ३० ॥ | 
: सामेवं परिरक्षतेदमगुणैःशौचैस्तु धर्मःसदा | 
सत्यपश्य समागतं ममपुरःशान्ति क्षमाम्यांयुतम्‌ । 
क वोघश्चाति महाबलःपृथुयशा यो मां न सुञ्चेत्कदा | 
म्ह बद्धाहंटूढबन्धनेःस्वगुणजःसा ज्निध्यमेवंगतः ॥ ३१ ॥ 
वढरक्तायुक्ता:कृत्वा:सर्वे सत्याद्या मम साम्प्रतम्‌ । धर्मेळाभादिकासरव दमबुद्धि पराक्रमाः 
इमामेचं हि प्ररक्षन्ति कि मां प्राथयसेबलात्‌ । कोभवाश्निर्भयोभूत्बादूत्यासाध॑समागतः 
सत्य धमेस्तथापुण्यं ज्ञानाचयाःप्रबलास्तथा। ममभुँ:सहायाञ्च ते मां रक्षन्ति वेश्मनि | 
सदं रक्षायुतामित्यं दमशान्तिपरायणा। न मां जेतुं समर्थश्च अपि साक्षाच्छचीपति 
hr मन्मथोवापि समागच्छति वीर्येवान्‌। दंशिताहं सदासत्यं सत्यकेनेच नान्यथा 
न्‍स्यवाणा भविष्यन्ति न खंशयः। त्वामेचं हि हनिष्यन्ति धर्मादयोमहाभराः 
हि; पलायत्वमत्रमातिष्ठ साम्प्रतम्‌ । वार्यामाणो यदा तिष्ठेभस्मीभूतो भविष्यसि 
भर्त्राचिना निरिक्षेत ममरूपं यदा भवान | 


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` "दट - क पाझपुरांणम्‌ $ ` [३ मू 
| यथा दारुद्हेद्मिस्तथा धक्ष्यामि नान्यथा ॥ ३६॥ द | 
एवं श्रुत्वा सहस्राक्षी मन्मथस्यापि संमुखम्‌ ! | 

पश्य पौरुषमेतस्या युध्यस्व निजपौरुबैः ॥ ४० ॥ | 

यथा गतास्तथा सर्वे महाशापभयातुराः । स्वं स्वंस्थानं महाराज इन्द्राद्याःप्रयुयर 
गतेषु तेषु सर्वेषु सुकला सा पतित्रता । स्वगृहं पुण्यसंयुक्ता पतिध्यानेनचागता!!' 
स्वग्रहं पुण्यसंयुक्तं सर्वतीर्थमयं तदा । सर्वयज्ञमद्नं राजन्सस्पाप्ता पतिदेचता | ४१. 
इति श्रीपाद्यपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने सुकलाचरित्रे | 
अप्रपञ्चाशत्तमो5ध्यायः ॥ ५८ ॥ | 


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एकोनषष्टितमो ऽध्यायः 
तीर्थयात्राँकृत्वा गृहग्रतिग्रयातुकामस्य कृकलस्य थमेणपितबन्धदश,नम| 


चिष्णुरुवाच । 
ककलःसवंतीर्थानि साधयित्वा ग्रहंप्रति। ्रस्थितःसार्थवाहेन महानन्द समन्वित 
एवं चिन्तयते नित्यं संसारःखफलो मम। | 
तृप्ताःस्वर्ग प्रयास्यन्ति पितरो मम नान्यथा ॥ २॥ । 
तावत्प्रत्यक्षरूपेण वदुध्वा तस्य पिंतामहान । | 


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पुरतस्तस्य सम्त्र ते न हि ते पुण्यमुत्तमम्‌ ॥ ३॥ 
-दिव्यरूपो महाकायःछकलं वाक्यमत्रवीत्‌ । तच तीर्थफलं नास्ति श्रममेव वथा 
स्वयंसन्तोषमाप्नोषि न हि ते पुण्यमुत्तमम्‌ । एवंश्रुत्वा ततो वैश्यःककलोडुः 
: भवान्कःसंचदस्येवं कस्मादुबद्धाःपितामहाः । केनदोष (प्रभावेण तन्मे त्वं कारणं क 
कस्मात्तोथे फलनास्ति मम यात्रा कथं न हि। 
सर्वेमेव समाचक्ष्व यदि जानासि संस्फुटम ॥ ७॥ 


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पिह पुकोनषष्टितमोऽध्यायः ] # पतित्रतामाहात्म्यकथनम्‌ ॐ | 


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हट 
; घमे उवाच । 
पता पुण्यतमां स्वीयां भार्या त्यक्तचा प्रयाति यः । 
Ue तस्य पुण्यफळं सवं बृथा भवति नान्यथा ॥ ८॥ 
यर - अभक पुण्यां साघुबतपरायणाम्‌ । पतित्रतरतांभार्या सुशुणां 
टाप पत घमकायं याति यः । वृथा तस्य कृतःसचो धर्मो 
[| भव्या घमेसाधनतत्परा । पतिव्रतरता नित्यं सर्वदा 
| एवगुणा भवेदुभार्या यस्य पुण्या महासती । 
क तस्यगेहे सदा देवास्तिष्ठन्ति च महोजस: ॥ १२ ॥ 
| यस खि वाञ्छन्ति तस्यच । गङ्गाद्याःपुण्यनद्यञ्च सागरास्तत्रनान्यथा 
पुण्यासती यस्यगेहे वतेते सत्यतत्परा । .तत्र यज्ञाश्च गाचञ्च 
| तत्र खर्वाणि तीर्थानि पुण्यानि घिविधानि च। 
| सायांयोगेन तिष्ठन्ति सर्वाण्येतानि नान्यथा ॥ १५॥ 
मएण्यभार्या प्रयोगेण गाइँस्थ्यंसम्प्रजायते । गाईस्थ्यात्परमोधमों डितीयोनास्तिभूतले 
स्थस्य एई पुण्य सत्यपुण्यसमन्वितप्र्‌। स्चतीर्थमयं वैश्य सर्वदेयसमन्वितम्‌ ॥ 
त्म स्थ्यं च समा ध्रित्यसर्वे जीवन्ति जन्तचः । तादूशं नैवपश्यामि अन्यमाश्रममुत्तमम्‌ 
| मन्त्राझमिहोत्रं देवाश्च सर्वे घर्माःसनातना: । 
| दानाचाराःप्रयतेन्ते यस्य पुंसश्च वे गृहे ॥ १६॥ 
एवं यो माययाहीनस्तस्य गेह वनायते। यज्ञाश्चवे न सिध्यन्ति दानानि विविधानि च 
§ | भायाहीनस्य पु'सोऽपिःन सिध्यति महाव्रतम्‌ । 
ह धर्मकर्माणि सर्वाणि पुण्यानि विविधानि च ॥ २१॥ 
स्ति भार्या समंतीर्थ ध्नंलाधनहेतवे। श्रणुप्चत्व गृहस्थस्य नान्योधमो जगत्त्रये || 
। हाया ग्रह तत्र पुरुषस्यापि नान्यथा । ग्रामे चाप्यथवारण्ये सर्वधमंस्यसाधनम्‌ ॥ 
ं नास्ति भार्य[सप्रं तीथं नास्ति भर्यासमंसुखम्‌। | | 


| 
| 
पुण्यचत्सलाम्‌ 
भव तिनान्यथा 
ज्ञानचत्सला ॥ 


ऋषयस्तत्र नान्यथा ॥ 


नास्ति भार्यासप्रंपुण्यं तारणाय हिताय च ॥ २४ ॥ 


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7१९० - द पद्मपुराणम्‌ # 
' शर्मयुक्त सतीं मार्या त्यक्त्वा यासि नराधम । 
} गृहं घमं परित्यज्य कास्ते धस्य ते फलम्‌ ॥ २५॥ 
_ त्याविना यदातीर्थे श्राद्धदानं कृतं त्वया । तेन दोषेण वै बद्धास्तवपूर पितामहः 
भवांश्वौरो ह्यमीचौरा येस्तु भुक्तं सुलोलुपैः । त्वया दत्तस्यश्राद्धस्य अञ्नमेचंतयाङ्ि 
सुषुत्रःश्रद्वयायुक्तःश्राद्धदानं ददाति यः । भार्यादत्तेन पिण्डेन तस्य पुण्यं चदास्यह 
यथाऽस्ृतस्यपानेन नृणां तृसिहि जायते। तथापितृणां श्राद्धेन सत्यं सत्यं वदाम 
गार्हस्थ्यस्य च धमेस्य भार्या भचति स्वामिनी । | 
त्वयेषा वञ्चिता मूढ चौरकमे छतं वृथा ॥ ३० ॥ | 
अमी पिता महाश्वौरा ये्भक्त तु तयाविना । भार्या पचति चेदन्नं स्वहस्तेनासृतोप 
तदन्नमेव भुञ्जन्ति पितरों हृश्मानसाः । तेनेव तृप्तिमायान्ति सन्तुष्टाश्च भवन्तिर 
तस्मादुभार्या' चिना धर्म:पुरुषस्य न सिध्यति । 
नास्तिभार्यासमं तीर्थं पुंसां सुग तिदायकम्‌ ॥ ३३ ॥ 
सार्या विना च यो धर्मेःख एच विफलो भवेत्‌ ॥ ३४॥ ` 
इति श्रीपाञपुराणेह्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाल्यानेछुकलाच रित्रनामैकोनषष्टितमो ऽध 


| 
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३ 
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षष्टितमो ऽध्यायः 


थर्मोपदेश्ाद्‌ पत्नीहस्तेनान्नं विपाच्य 'श्राद्वकरणेतत्पितूमुक्तिवणनम | 
ककल उघाच। 
कथं मे जायते सिद्धि:कथं पितृषिमोचनम्‌। एतन्मे विस्तरेणापि धर्मराज त | 
1 धर्मे उचाच | 
यच्छगेहंमहाभाग त्वां विनादुःखमांचरत्‌ | सम्बोधयल्वंसुकलां स्वपलीं धर्मचारिणी 
श्राद्ध दानं गृहं गत्वा तस्या हस्तेन वे. कुरू | 


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पॅश्षब्टितमो5्याय: ] 


# खुकलाचरित्रमाहात्म्यवर्णनम्‌ # १६१ 
200 पुण्यानि तीर्थानि यजस्वत्व सुरोत्तमान्‌ ॥. ३ ॥ “ शिन 
र्थयात्राछतासिद्धिस्तव चेबभविष्यति । भार्याचिना तु यो. लोकेधमंसाधितुमिच्छति 
हित गाहस्थ्य विछोप्यैव एकाकी विचरेद्दनम्‌ ।विफलोजायतेलोके तं न मन्यन्ति देवताः 
निशाःसिडि तदायान्ति यदास्यादुग्रहिणी गृहे | एकाकी स समर्थोनधर्माथंसाधनाय च . 
MRS 771 
फहंवमुक्त्वा च तवश्यं गतोधर्मोयथागतम्‌ । सधर्मात्मा स्वग्रुहंप्रति ; 
| स्वृ प्राप्य मेधावी करण ताज कः `` | 
| सार्थवाहेन तेनापि स्वस्थानं प्राप्य बुद्धिमान्‌ ॥ ८ ॥ 
[ग समागत दुष्ट्वा भर्तारं धर्मेकोचिदम्‌ । तं सुमङ्गछ पुण्य भर्तुरागमने तदा ॥६॥ 
ते समाचष्ट स धर्मात्मा धमैस्या पिविचेष्टितम्‌ । 
| समाकर्ण्य महाभागा भतुर्चाक्यं मुदावहम्‌ ॥ १० ॥ ; 
मचाक्यं प्रशस्याथ अनुमेने च तं वेश्यस्तयासाधं 
कार दधया शराद्धं देवता ग्रह ससि 22 ७०44. “विमानेश्च यन 
। ; देवगन मानेश्च समागताः ॥ 
स्तौ महात्मानौ दम्पती सुनयस्तथा। अहंचाऽपि तथा ब्रह्मा देव्यायुक्तो महेश्वरः 
त देवाःसगन्थर्वा विमानैश्च समागताः | ऊहमेव ततो ब्रह्म देन्यायुक्तो महेश्वरः ॥ ` 
| सर्वेदेवाःसगन्धर्चास्तस्याःसत्येन तोषिताः । 
| ` . ऊचुश्च तौ महात्मानौ धर्मशौ सत्यपण्डितौ ॥ १५ ॥ 
| | भार्ययासह भद्रंते घरं वरय सुव्रत ॥ १६ ॥ 
| : २ सजाय ककल. उवाच | 
त्य पुण्यप्रसङ्गेन तपसश्च सुरोत्तमाः । सभार्याय-घर दातुं भवन्तो हि समागता: ॥ 
इन्द्र उवाच । ` १ 
| सती महाभागा सुकला चारुमङ्गला । अस्याःसत्येन तुष्टाःस्म दातुकामा वरं तव 
रिशीग्लेन तु॒तत्प्रोक्त पृर्वे्रत्तान्तमेच च । तस्याश्चरितं महात्म्य श्रुत्चा भर्ता सहर्षितः 
| सधर्मात्मा हषंव्याकुललोचनः । ननाम देवता:सर्चा उचाच च पुनःपुनः॥२०॥ 


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2222 # पद्मपुराणम्‌ ॐ [२ भू 
. यदि तुष्टा महाभागा अयो देवाःसनातनाः । अन्ये च ऋषयःपुण्याःकपां छत्वाग्रो 

7: जन्म जन्मनि देवानां भक्तिमेवं करोम्यहम्‌ । 
धर्म सत्यरतिःस्यान्मे भवतां हि प्रसादतः ॥ २२॥ 

पश्चाद्धि वैष्णवंळोकं समार्यश्च पितामहैः । गन्तुमिच्छाम्यहं देवा य दितुष्टा 

देवाऊचुः । 
एबमस्तु महाभाग सर्वमेव भविष्यति | सुक ठेयं महापुण्या तवपल्ली यशस्विनी; 
चिष्णुरुचाच । 

` पुष्पवृटि ततश्चक्रस्तयोरुपरि भूपते । जयुगीतं महापुण्यं ललितं सुस्वर ततः ॥ 
गन्धर्वा गीततत्त्वक्षा न टृतुश्चाप्सरोगणाः । 3 
ततोदेवाःसगन्धर्वाःस्वं स्वस्थानं दृपोत्तम ॥ २६ ॥ 

बरं दत्वा प्रजग्मुस्तेस्तूयमानाःपतिब्रताम्‌ ।- नारीतीर्थं समाख्यातमन्यत्किचिद्ा 

एतत्ते सर्वमाख्यातं पुण्याख्यानमनुत्तमम्‌। यःश्टणोति नरोराजन्सवेपापेःश्रमुख 
श्रद्धया श््णुते नारी सुकलाख्यानमुत्तमम्‌ । 
सौभाग्येन तु सत्येन पुत्रपौत्रेने मुच्यते ॥ २६ ॥ 

मोदते धनधान्येन सहभर्त्रा सुखी भवेत्‌ । पतित्रता भवेत्सा च जन्मजन्ममि 

त्राह्मणोवेदचिद्वांश्च क्षत्रियो विजयी भवेत्‌। धनधान्यं भवेच्चेच वश्यगेहे नस! 

घरमेज्ञो जायतेराजन्सदाचारःसुखी भवेत्‌ । शूद्रःखुखमवाप्नोति पुत्रपौत्रे'परवधेते! 
विपुला जायते लक्ष्मीघेनघान्येरलडछता ॥ ३३॥ ! 

इति श्रीपाद्यपुराणे पञ्चपञ्चाशत्सहस्रसं हतायां द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाश्य 
` सुकलाचरित्रे षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥ 


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८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


ह एकषष्टितमो ऽध्यायः 
| ] पिवृतीथवर्णनम 
| र । 
ह वेन उचाच । 
| सार्यातीथं समाख्यातं सर्वेतीथोत्तमोत्तमम | ॒ 
| 'पिठृतीथे समाख्याहि पुत्राणां तारणं परम ॥ १॥ 
| विष्णुर्वाच । 
` एरुक्षेत्रे महाक्षेत्रे कुण्डलो नामत्राह्म 


णः। सुकर्मानाम सत्पुत्रःकुण्डळस्य महात्मन: ॥ 
Ee शुरू तस्य महावृद्धो घमेज्ञी शासतरकोचिदो । 
| द्वावेतौ तु महात्मानौ जश्या परिपीडितौ ॥ ३॥ 
योःशुश्रूषणं चक्रे भक्त्या च परया तत: । धर्मज्ञो भावसंयुक्तो अहर्निशमनारतम्‌ ॥४॥ 
स्माहेदानथीते स पितुःशास्त्राण्यनेकशः । सर्वाचारपरो दक्षो धर्मज्ो ज्ञानवत्सलः ॥ 
डःसंचाहनं चक्रे गर्घोश्च स्वयमेव सः | पादप्रक्षालनं चेष स्नान भोजनकां क्रियाम्‌ ॥ 
[्याचेच स्वभावेन तदुध्याने तन्मयो भवेत्‌ । मातापित्रोश्च राजेन्द्रउपचर्या प्रकारयेत्‌, 
या दतेमानकाले तु बभूव नृपसत्तम । पिप्पलोनाम वै घिप्रःकश्यपस्य महात्मनः ॥ ८॥ 
पस्तेपे निराहारो जितात्मा जितमत्सरः । दयादान दमोपेतःकामं क्रोघं विजित्य स 
शारण्यगतो धीमाञ्ज्ञानशान्तिपरायणः । सर्वेन्द्रियाणि संयभ्य तपस्तेपे महामना: 
पःप्रभावतस्तस्य जन्तवो गतचिप्रहाः । घसन्ति सुयुण तत्र एकोद्र गताइव ॥ ११ ॥ 
तपस्तस्य सुनयो द्वष्टूचा विस्मयमायथु । नेद्वशं केनचित्तप्तं यथासौ तप्यते मुनिः॥ 
[थ इन्द्रप्रमुखाःपरं विस्मयमाययुः । अहो अस्य तपस्तीब' शमश्चेन्द्रियसंयमः ॥ 
[विकासे निरुद्वेगः कामक्रोधविवजितः । शांतवातातपसहो धराधर इचस्थितः ॥१४॥ 
विषये चिमुखो' धीरो मनसोऽतीत सङ्ग्रहम्‌। 
| न शरणो ति यथाशब्दं कस्यचिदुद्विजसत्तमः ॥ १५॥ 


ME क CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


१ डु व) हि | # पदापुराणम्‌ # [२ भू 
. संस्थाना तादशं गत्वा स्थित्वापकाग्रमानसः । ब्रह्मभ्यानमयोभूत्वा सानन्दमुखद 
“ ... अश्मकाष्ठमयो भूत्वा निश्रेष्टोगिरिवत्स्थितः । जी 
स्थाणुचदुद्वश्यते चासौ सुस्थिरो धर्मचत्सलः ॥ १७ ॥ व 
तपङ्किष्ट शरीरो5तिश्रद्धावाननसूयकः । एवं वर्षसहस्लैकं सञ्जातं तस्य धीमतः | (ते 
पिपीलिका मिर्वही भिःकतं खृद्घारसञ्चयम्‌। तस्योपरिमहाकायं चद्मीक निज्मद्धा 
चह्मीकोद्रमध्यस्थो जडीभूत इवस्थितः । | 
स एवं पिप्पलो विप्रस्तपते सुमहत्तपः ॥ २०॥ :_ य 
कृष्णसपैस्तु सर्वत्र वेशितो .द्विजसत्तमः । तमुग्रतेजसं विप्रं प्रदशन्ति विषोल्वक 
" सम्प्राप्य गाचमर्माणि विषं तस्य न भेदयेत्‌ । र्‌ 
तेजसा तस्य विप्रस्य नागाःशान्तिमथागमन्‌॥ २२ ॥ | 
तस्य कायात्समुदुभूता अचिषो दीप्ततेजसः । | 
नानारूपाःसुवहुशो इश्यन्ते च पृथकपृथक्‌ ॥ २३॥ T 
यथावहेःखरतरास्तथाचिधा नरोत्तम । यथामेघोद्रै सूर्यःप्रविष्टो भाति रश्मिमिः एर 
बल्मीकस्थस्तथा चिप्रःपिप्पलौ भाति[तेजसा । सर्पा दशन्ति विप्रं तंखक्रोधादश 
न भिन्दन्ति च दं्राग्राच्चमेमित्वा नृपोत्तम । | 
एवं वर्षेसहरैक तप आचरतस्ततः ॥ २६ ॥ रि 
गतं तु राजराजेन्द्र मुनेस्तस्य महात्मनः | त्रिकालं॑ साध्यमानस्य शीतवर्षातपा 
गतःकालो महाराज पिप्पलस्य महात्मनः । 
तद्वच्चचायुभश्षं तु छृतं तनमहात्मना ॥ २८॥ 
त्रीणिवर्षसहलाणि गतानितस्य तप्यतः । तस्य मूर्थिन ततोदेवे प्पट 
ब्रहमज्ञोऽसि महाभाग धमंज्ञोऽसि न संशयः। सर्वज्ञानमयो5सित्वंसज्ञातःस्वेनर 
यं यं त्वं वाञ्छसे कामं तं तं. प्राप्स्यसि नान्यथा। 
सर्वेकामप्रसिदधस्त्वं स्वतएच भविष्यसि ॥ ३१ ॥ 


समाकण्य पिप्पलो प्रणम्यदेवता 
| CC-0 ह्वय, wan एप महामना: 12 गम्तदवत e सवाभ 


|| 
| ति 
| 


का #१६५ , | 
| टी वचनं प्रत्युचाच सः । इदंविश्व जगत्सर्वं ममवश्यं यथाभवैत्‌ ॥. ` , 


| 


1 


था कुरुध्व॑ देवेन्द्रा विद्याधरोभवाम्यहम्‌ । एचमुक्तवा स मेधावी. विरराम रुपोत्तम - 


बमस्त्विति ते प्रोचुद्विजश्रे्ठ खुरास्तदा । दृत्त्वाचर महाभाग जग्मुस्तस्मै महात्मने ॥ 
(तेषु तेषु देवे पिप्पलो द्विजसत्तमः | ब्रह्मण्यं साधयेन्नित्यं चिश्वचश्यं प्रचिन्तयेत्‌ 
शति राजेन्द्र पिप्पछो द्विजसत्तमः । विद्याधर पद्ल्चा कामयामी महीयते 
एवं स पिप्पलोविप्रो विद्याघरपद्ंगतः। .. . क्ति 
| सञ्जातो देचलोकेशःसर्वशास्त्रविशारद्‌ः ॥ ३८॥ ` ह 
बुएकदा तु-महातेजा:पिप्पलःपर्य चिन्तयत्‌ । बिश्वंचश्य भवेत्स ममदत्तो वरोत्तमः ॥ 
र्थ प्रत्ययं कर्तुसुधतो द्विजपुङ्गवः । यं यं चिन्तयते कतु' तं तं-हि चशमानयेत्‌ ॥ 
| एवं स प्रत्ययेजांते मनसा पर्यकल्पयत्‌ 1 
| ` द्वितीयोनास्ति चै लोके मत्समः पुरुषोत्तमः ॥ ४१ ॥ 
1 हि;कट्पसानस्य पिप्पलस्य महात्मनः । ज्ञात्वा मानसिकं भावं सारसस्तमुचाचह 
[ः षयो राजन्सुस्वर व्यञ्जनान्वितम्‌। स्वनंसौ्वसंयुक्तमुक्तवा न्पिप्पछं प्रति ॥ 
दृशं कस्मादुद्वहसे गवेमेवं त्वं परमात्मकम्‌। _ . 
| सवेवश्यात्मिकींसिदि नाहंमन्ये तवैष हि ॥ ४४॥ 
यावश्यमिदं कर्म अर्वाचीनं प्रशस्यते । पराचीनं न जानासि पिप्पलत्वे हि मूढधीः 
पा वर्षाणां तु सहस्राणि यावत्त्रीणि त्वया तपः। | 
| समाचीण ततो गर्वं कुरुषे कि मुघाद्विज ॥ ४६ ॥ 
कुण्डलस्य, सुतौ धीरःसुकरर्मानाम यःसुधीः । 
हँ धश्यावश्यं जगत्सवं तस्यासीच्छुणुसाम्प्रतम्‌ ॥ ४७ ॥ 
हीचीनं पराचीनं स वै जानाति बुद्विमान्‌ । लोकेनास्तिमहाज्ञानीतत्समःश्टणुपिप्पल 
$ण्डलस्य पुत्रेण सटूशस्त्वं सुकर्मणा । न दत्तं तेन वै दानं न ज्ञानं परिचिन्तितम्‌ 
F _हुतयज्ञादिक कसे न छतं तेन वे कदा। ` 
न गतस्तीर्थयात्रायां न च चहेरुपासनम्‌॥ ५० ॥ 


fe: CC CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


चि. 
TS 
-$ १ ००, 


१६ ` 4 # पद्मपुराणम्‌ ॐ [ २ 
स.कदा कृतवान्विपर घर्मसेचार्थसुत्तमम्‌। स्वच्छन्दचारी ज्ञानात्मा पितुमातृसुः 
चेदाध्ययनसग्पन्नःसर्वेशास्त्राथेकोविदः । याद्वशा तस्य चै ज्ञानं वाळस्यापि छुः 
. _ततादृशंनास्ति तेज्ञानं व॒थात्वं गवेमुद्दहेः ॥ ५३ ॥ प्रा 
Er पिप्पल उचाच । प्रा 
काअवान्पक्षिरूपेण मामेवं परिकुत्सयेत्‌ । कस्मान्निन्दति मै ज्ञानं पराचीनंतु #। 
तन्मेविस्तरतोत्र हि त्वयिज्ञानं कथं भवेत्‌ । अर्घाचीनगर्ति सर्वा'पराचीनस्य सा. 
घद्त्वमण्डजश्रेष्ठ ज्ञानपूर्वेखु 'विस्तरम्‌ । किंवा ब्रह्मा च विष्णुश्च किवारुदरो भरि 
सारस उवाच । र 
नास्ति ते तपसो भावःफलंनास्ति च तस्य तु त्वया न परितप्तल्य तपसःसाझ् 
कुण्डलस्यापि पुत्रस्य वालस्यापि यथाशुणः । | 
तथा तेनास्ति चैज्ञानं परिज्ञातं न तत्पदम्‌ ॥ ५८॥ ` | 
इत्तोगत्वापि एच्छत्वं ममरूपं द्विजोत्तम स वदिष्यति घमात्मा सर्वज्ञानतकै। 
विष्णुर्वाच । । 
एवमाकर्ण्यतत्सव सारसेन प्रभाषितम्‌। निजेंगाम स वेगेन दशारण्यं महर 
इति श्रीपाद पुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेएकष ष्टितमोऽध्यायः। | 


द्रिषष्टितमोऽध्यायः 
सुकर्मपिप्पलसंवादवर्णनम्‌ । 
चिष्णुरुचाच । 


कुण्डळस्याश्रमं गत्वा.सत्यधर्मसमाकुलम्‌। सुकर्माणं ततो दूष्ट्चापिं 
शुश्ूषन्तं महात्मानं शुरूसत्यपराक्रमम्‌ । (मद्दारूपं महातेजं महाज्ञान # । 


मातापित्रो आदान तसपल्रिए बदर स। महा सत्ता न्तितं अतं सर्वेज्ञान 


। >> 
पव्रिषष्टितमो5ध्यायः ] # खुकमेपिप्पलछसंचादचर्णनम्‌ ॐ | १६७ ` ` 


स कुण्डळस्यापि पुत्रेण सुकर्मणा महात्मना । 


आगतं पिप्पछं हुष्ट्चा द्वारदेशे मद्दामतिम्‌॥ ४॥ 
म्ासनाच्ूणंसुत्थाय अस्युत्थानं इतं पुनः । आगच्छत्वं महाभाग विद्याधरमहामते ॥ 
प्रासनं पाद्यमधं च ददौ तस्मै महामतिः । निर्विष्नोऽसिमहाप्रान्ञ कुशलेन प्रवर्तसे ॥ 


[कनेरामयं च पप्रच्छ पिप्पळं तं समागतम्‌ । यस्मादागमनं तेऽद्य तत्सर्व प्रचदास्यहम्‌ ॥ 
{+ वषाणां च सहस्राणि त्रीणि यावत्त्वया तपः । 
परि तप्तमेच महाभाग सुरेभ्यःप्राप्तवान्वरम्‌ ॥ ८॥ 
[यत्व च त्ययाप्राप्तं कामयारस्तर्थच च । तेनमत्तो न जानासि गर्वसुद्ठहसेवृथा ॥ 
ष्टा ते चेष्टितं सवं सारसेन महात्मना । ममाभिधानं कथितं ममज्ञानमनुत्तमम्‌॥ 
पिप्पल उवाच | 
फिऽसौमांसारसोविप सरित्तीरे प्रयुक्तवान्‌। सर्वज्ञानं घदेन्मांहि स तु कःप्रमुरीश्वरः 
Es सुकमोंचाच । 
वन्तमुक्तवान्यो चै सरित्तीरे तु सारसाः ब्रह्माणं त्वं महाज्ञानं तं विद्धि परमेश्वरम्‌ ॥ 
ह्न पिक एच्छसे ब्रहि तमेवं प्रवदाम्यहम्‌ । पवमुक्तःसधर्मात्मा सुकर्मा नृपनन्दन ॥ 
| __ पिप्पल उवाच। 
ब्रयिवश्यंजगत्सर्वमिति शुश्रुम भूतले । तन्मे त्वं कौतुकं विप्र दर्शयख प्रयत्नतः ॥ 
श्यकौतुकमेवाद्य त्वं वश्यावश्यकारणम्‌ । तमुचाच सधर्मात्मासु कर्मा पिप्पलंप्रति 
| ह सस्मार चे देवान्सुकर्मा प्रत्ययाय वै । इन्द्रा्ालोकपालाश्च देवाश्वाग्निपुरोगमाः 
| समागताःसमाहुता नानाविद्याधरास्तथा । 
| सुकर्माणं ततःप्रचुर्देषाश्चाग्निपुरोगमाः ॥ १७ ॥ 
स्मात्स्म्तास्त्वया विप्र ततोऽर्थक्रारणं घद ॥ १८॥ 
| सुकमोंचात़् । 
मेष खुसम्प्राप्तो विद्याधरोहि पिप्पलः । मामेवं भाषते विप्र वश्याचश्यत्वकारणम्‌ 
ष समाहूता अस्येच च महात्मनः । स्वं स्वंस्थानंप्रगच्छध्वमित्युचाचसुरान्प्रति 


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| एवमुक्त्वा गतादेचाःस्वलोंकं नृपनन्दन । सर्वमैश्वयमेतेन तस्याग्ने परिदरशितम्‌। 


| 
| 


i न ; प्या । र हर । 


तमूचुस्ते ततोदेचाःसुकर्माणं महामतिम्‌। अस्माक दशनं चिप्र नमोधं जाय त 


` वरंवरय भद्रं ते-मनसायद्धिं रोचते।। तत्तेदयो न संदेहस्त्वेघमूचु सुरोत्तंमाः।; ३ 


भक्त्या प्रणस्य तान्देचान्ययाचे स द्विजोत्तमः । ३ 
अचलां दत्तदेवेन्द्राःसुभक्तिभावसंयुताम्‌ ॥ २३ ॥ | 
मातापित्रोश्च मे नित्यं तद्वैवरमचुत्तमम्‌ । 'पिता मे वैष्णवं लोक प्रयात्वेतद्वरोच 


` तद्वन्माता च देवेशा वरमन्यं न याचये ॥ २४ ॥ ss 
देवाऊचुः । 
पितृभक्तोऽसि विप्रेन्द्रा भक्त्या तव घयं द्विज । 


सुकर्मञ्छु यतां वाक्यं प्रीत्यायुक्ताःखदेच ते ॥ २५॥ 


TINIE 


ट्रष्ट तु पिप्पलेनापिकोतुकं च महादुतम्‌। तसुचाच सधर्मात्मा पिप्पलंकुण्डला 
अर्चाचीनं त्विदंरूपं पराचीनं च कीदूशम्‌। प्रभावमुभयोश्चेच वदस्व षदतं 
सुकर्मोचाच । | 
पराचीनस्यरूपस्य लिङ्गमेच घदामि ते । रि 
येन लोकाःप्रमोदन्ते इन्द्रायाःसचराचरा ॥ २६ ॥ | 
अयमेच जगन्नाथःसर्वंगो व्यापकःप्रसु । अस्यरूपं न हृष्टं हि केनाप्येच हि योगि 
थुतिरेच वदत्येवं तंवर शङ्ितिवसा | अपाणिपाद्नासश्च. अकण सुखब्जित 
सच पश्यति वे कमे छतं त्रैलोक्यवासिनाम्‌ः। तेषामुक्तमकर्णश्च स श्टणोंतिसुता र 
गतिहीनो बजेत्सोऽपि स हि सर्वत्र द्ृश्यते । :` | 
पाणिहीनोऽपि शृह्णाति पादहीनःप्रधाचति ॥ ३३ ॥ | 
संत्र दूश्यते चिप्र व्यापकःपाद्घजितः। यं न पश्यन्ति देवेन्द्रा मुनयस्तत्र 
स च पश्यति तान्सर्वान्सत्यासत्यपदेस्थितान्‌। | 
व्यापकं घिमळं सिद्धं सिद्धिदं सवंनायकम्‌॥ ३५॥ 
ये जानाति महायोगी व्यासो धर्मार्थकोबिदः। तेजोमूतिःस चाइ 


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प द्विषष्टितमोऽध्यायः ] ॐ अर्घाचीनपराचीनगतिज्ञानवर्णनम्‌ # ९६६ 


यते तदेतन्निमेलरूपं श्चुतिराख्याति निश्चितम्‌ | व्यासश्चैव हि जानाति माकण्डेयश्वतत्पद्म . 
।; अर्चाचीनं प्रचक्ष्यामि शएणुष्वैकाग्रमानसः । यदा संहत्य भूतात्मा स्वयमेकःप्रगच्छति ` 
अप्छुशय्याखमास्थाय शेषमोगासनस्थितः। तमाश्रित्यस्वपित्वेको बहुक्ालंजनार्दन 

| जळान्थकार सन्ततो मार्कण्डेयो महामुनिः । 

तच स्थानमिच्छन्सयोगात्मा निर्विण्णो भ्रमणेन सः ॥ ४० ॥ प 
भ्रंममाणःसदद्दशे शेषपयेड्ुशायिनम्‌ । सूर्यकोरिप्रतीकाशं दिव्याभरणभूषितम्‌॥ ४१॥ 
दिव्यमाल्यांस्वरघरं सवंव्यापिनमीश्वरम्‌ । योगनिद्रां गतं कान्तं शदुःचक्रगदाघरम(॥ 
एकानारी महाभागा क्रष्णाञ्जनचयोपमा । देप्राकरालचघद्ना भीमरूपा द्विजोत्तम ॥ 


| तयोक्तोऽसौ सु निश्चेष्टो माभैरिति महामुनिः । 
प पझपत्रं सुविस्तीणँ पञ्चयोजनमायतम्‌ ॥ ४४ ॥ 
तस्मिन्परे महादेव्या मार्कण्डेयो निवेशितः केशवेसतिसुप्तेऽपि नास्त्यत्र चं भयं तव 

| तासुचाच स योगीन्द्रःका त्वं भवसि भामिनि । ४ 


द्वा 
| अस्मिन्विनिजितेचैका भवती परित्र'हिता ॥ ४६॥ , | 
प्यं झुनिना देवी सादरं प्राह भूसुर । नागभोगाङ्कुपर्यङ्क स यःस्वपिति केशचः ॥४७॥ || 
| अस्याहं वैष्णवी. शक्तिःकाळरात्रिरिहोच्यते । | 

गी मामेवं चिद्धि पिप्रेन्द्र सवेंसायासमन्वितम्‌ ॥ ४८॥ ` 

ठं |िदामाया पुराणेषु जगन्मोहायकथ्यते । इत्युक्त्वा सा गता देवी अन्तर्धानं हि पिप्पल 
देव्यामचुगतायां तु मार्कण्डेयस्य पश्यतः । तस्यनाभ्यां समुत्पन्नं पडूजं हाटकप्रभम्‌ | 

- तस्याज्जज्ञे महातेजा ब्रह्मा लोकपितामहः । तस्माद्विजिशिरे लोकासर्वे स्थावरजङ्गमा 
इन्द्रायालोकपालाश्च देवाश्चाञ्निपुरोगमाः । 

छ अर्घांचीनं स्वरूपं तु दशितं हि मया नृप ॥ ५२॥ 
तह स्वरूपोष्यं पराचीनो निराश्चयः । यदास दर्शयेत्कायं कायरूपा भवन्ति ते ॥ | 
| ब्रह्मााःसवेलोकाश्च अर्वाचीना हि पिप्पल। | 

ल अर्घाचीना अमीलोका.ये भवन्ति जगचये ॥ ५४ ॥ 


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ः -२९०० he * पद्मपुराणम्‌ # [२ भूमि, 


` ` पराचीनःसंभूतात्मा यं खुपश्यन्ति.योगिनः:1 मोक्षरूपं ' परस्थान परबह्मस्वरुद 
अव्यक्तमक्षरं हंसं शुद्धं सिद्धिसमन्वितेम्‌ । पराचीनस्य यहूपे विद्याघरंतवा& १ 
र सर्वमेव मयाख्यातमन्यत्कि ते वदाम्यहम्‌॥ ५9 ॥ . ह. ॥ 
पिप्पल उवाच | |. 
कस्मादेतन्महान्ञानमुदुभूतं तव सुव्रत। अर्वाचीनगतिं विद्वान्पराचीनगति तथा| 
औैलोक्यस्य परंज्ञानं त्वय्येवं परिवत्तंते । तपसोनेच पश्यामि परांनिष्ठां हि स 
यजनं याजनं तीर्थं तपो वा छतवानसि । तत्प्रभावं वदस्वेवं केनज्ञानं तवास्छि 
` सुकर्मोचाच । | | 
तप एच न जानामि न छतं कायशोषणम्‌। | 
यजनं याजनं चापि न जाने तीथेसाधनम्‌ ॥ ६१ ॥ | 
न मया साधितं ध्यानं पुण्यकाळं सुकर्मजम्‌। स्फुटमेकं प्रजानामि पितृमात प्रपर 
उभयोरपि हस्तेन मातापित्रोस्तु नित्यशः । पादप्रक्षालनं पुण्यं स्वयमेव करोम्यह 
अङ्गसंवाहनं स्नानं भोजनादिकमेच च । त्रिकाले ध्यानसंळीनःखाधयामि दिने 
पादोदकं तयोश्चैव मातापित्रोदिनेदिने । भक्तिभावेन विन्दामि पूजयामि सुभाक 
शुरूमे जीचमानौ तु यावत्कालं हि पिप्पल। ¦ . | 
ताचत्काल' हि मे लाभो ह्यतुळश्च प्रजायते ॥ ६६ ॥ | 
त्रिकाळ पूजयास्येतौ शुद्धभावेनचेतसा । स्घच्छन्द्ळीळाखञ्चारी चर्ताम्येच हि | 
कि मे चान्येन तपसा कि मे कायस्य शोषणौः । 
कि मे सुतीर्थयात्राभिरन्येःपुण्येश्च साम्प्रतम्‌ ॥ ६८॥ | 
' मखानामेच सवेषां यत्फल प्राप्यते द्विज | तत्फल' तु मयोद्ृष्टं पितुःशुश्ंषणा् 
मातुःशुश्रूषणं तद्वत्पुजाणां गतिदायकम्‌ । सवेकमेसु सर्चर्चं सारभूतं जगत्त्रये 
पुत्रस्य जायते. लोको मातुःशुश्रूषणाद्गपि । पितु शुश्रूषणे तद्वन्महत्पुण्यं प्रजायते 
-तत्रगङ्का गयातीर्थं तत्र पुष्करमेव च। यत्र मातापिता तिष्ठेत्पुत्रस्यापि न सं 
अन्यानि तत्रतीर्थानि पुण्यानि विधिधानि च। 


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णि -त्रिषष्टितमोऽध्यायः ] ॐ मात्‌ पितृतीथमाहात्म्यवर्णनम्‌ क्ष" 7२७१ 
फे, . भवत्त्येतानि पुत्रस्य पितुःशुथूषणादपि ॥ ७३॥-  : ... 
ग पितुःशुश्रूषणात्तस्य दानस्य तपसःफलम्‌। सत्पुत्रस्य भवेद्विप्र अन्यघर्मःभमायते ॥ 
| पितुःशुश्रूषणात्युण्यं पुत्रःप्राभोत्यचुत्तमम्‌_। स्वकमेणस्तु सर्वस्वमिहैच च परत्र च ॥ 
| जीवमानौ युरुत्वेतौ स्वमातापितरौ तथा । शुश्रूषते सुतोभूत्वा तस्य पुण्य फल'श्टण 
ग देचास्तस्यापि तुष्यन्ति ऋृषयःपुण्यचत्सलाः । 
सः अयोलोकास्तु तुष्यन्ति पितुःशुश्ूषणादिह ॥ ७७ ॥ गज 
सिड) मातापिचरोस्तुयःपादौ नित्यमेच हि क्षालयेत्‌ । तस्य भागीरथीस्नानमहन्यहनि जायते 
| पुण्यैमिश्टान्नपानैये:पितरंमातरं तथा । भक्त्या भोजयते नित्यं तस्य पुण्यंबदाम्यहम्‌ 
। अश्वमेधस्य यज्ञस्य फळं पुत्रस्य जायते । 
तास्वूलेश्छादनेश्वेय पानैश्च शनकैस्तथा ॥ ८० ॥ 


रप भक्त्याचान्नेन पुण्येन गुरूयेनाभिपूजितौ । 
म्ह सर्वज्ञानी भवेत्सोऽपि यशःकीर्तिमचाप्लुयात्‌॥ ८१ ॥ 
नेर मातरंपितरं दृष्टया हर्षात्सम्माषयेत्सुतः । निधयस्तस्य सन्तुष्टास्तस्पगेहे चसन्ति ते ॥ 
माक गावःसोहृ्यमायान्ति पुत्रस्य सुखदाः सदा ॥ ८३॥ 
| - इति श्रीपाद्यपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाल्याने माठपिततीर्थमाहात्स्ये 
| ४ द्विषष्टितमो ऽध्यायः ॥ ६२॥ 
पि । । RRS २० 
। 
त्रिषष्टितमो5ध्यायः 
३ . माठपितृतीर्थमाहात्म्वर्णनम्‌ । 
ते ॥ सुकर्मोचाच । 


पुत्रस्यापिऽहि सर्घाङ्क पतन्त्यम्बुकणा यदा ॥ १॥ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


0 त्या चारण ळा रती 


| 


| 


4५. २०२ - क पद्मपुराणम्‌ ॐ [ २ भूमिद 
- सर्वतीर्थसमंस्नानं पुत्रस्यापि सुजायते । पतितं विकलं वृद्धमशक्त सर्वकमेसु | 
“ व्याधितं कुष्ठिनं तातं मातरं च तथाविधाम्‌ | | 
उपाचरति यःपुत्रस्तस्य पुण्यं वदाम्यहम्‌ ॥ ३ ॥ 
चिष्णुस्तस्य प्रसन्नात्मा जायतेनात्र संशयः । 
प्रयाति वेष्णवंलोक यदाप्राप्यं हि योगिभिः ॥ ४॥ | 
पितरौ चिकलौ दीनौ वृद्धावेतौ गुरूलुतः । महागदेन सम्ग्राप्तौ परित्यजति पापं 
पुत्रो नरकमाप्नोति दारुणक्नमिङ्कसलम्‌ । वृद्धाभ्यां च समाहूतो शुरुम्यामिहसाग 
न प्रयातिसुतो भूत्वा तस्यपापं बदाम्यहम्‌। | | 
घिष्ठाशीजायते मूढो ग्रामघोणी न संशय: ॥ ७ ॥ 
यावज्ञन्मसहस्नं तु पुनःश्वा चाभिजायते । 
पुत्रगेहेस्थिती बद्धौ माता च जनकस्तथा ॥ ८ ॥ 
अभोजयित्वा ताचन्नं खयमत्ति च यःसुतः । मूत्रं चिष्टां ख सुजीत याचञ्जन्मसहक्त 
कृष्णसर्पो भवेत्पापी यावज्जन्मशतद्वयम्‌। मातरंपितरं दृद्धमवज्ञा य प्रवत्तते.॥ । 
ग्राहोऽपि जायते दुष्टो जन्मकोटिशतेरपि । तावेतौ कुत्सते पुत्रःकटुकेवेचनेरपि i 
स च पापी भवेद्व्याघ्रःपश्चाइक्षःप्रजायते । | 
| 


| 
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। 
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मातरंपितरं पुत्रो यो न मन्येत दुष्टघीः॥ १२॥ 
कुम्भीपाके वसेत्तावद्यावद्युग सहस्रकम्‌ । नास्ति मातृसमंतीर्थ पुत्राणां च पितुःसा 
तारणाय हि तायेच इहच च परत्र च । तस्मादहं महाप्राज्ञ पितृदेव॑ प्रपूजये ॥ ११ 
मातृदेवं सर्वेदेव योगयोगी तथाभवम्‌। मातृपित्‌ प्रसादेन सञ्जातं ज्ञानमुत्त मम्‌ | 

त्रिलोकीयं समस्ता तु संयाता ममवश्यताम्‌ । 

अर्घाचीन गति जानेदेचस्यास्य महात्मनः ॥ १६ ॥ 
बासुदेवस्य तस्यैव पराचीना महामते । सबंज्ञानं समुदुभूतं पितृमातृ प्रसादत ॥ 1 
को न पूजयते,विद्वान्पितरं मातरं तथा । साङ्गोपाङ्गैरधीतैस्तै:श्रुतिशास्त्रसमन्तित 

वेदेरपि च कि विप्र पिता येन न पूजितः। 


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| यज्ञश्च तपसा चिप्र कि दानेःकि चपूजनेः । प्रयाति तस्यवेफल्यं न माता येनपूजिता ॥ 


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I जा प्रसादभावाद्वे यदुना सुखमुत्तमम्‌ । कथंप्राप्त सुभुक्त च तन्मे विस्तरतो वद्‌॥१॥ | 


। तुटे पितरि सम्पाप्तं यदुराज्ञा पुरासुखम्‌ । रुष्टेपितरि च प्राप्तं महत्पापं पुरा श्णु ॥ 


| चतुःषष्टितमोऽध्यायः ] # नहुषस्य ययातेश्चचरित्रवर्णनम्‌ # यी २०३ 


माता न पूजिता येन तस्य वेदानिरथका: ॥ १६॥ . 


न पिता पूजितो येन जीवमानो ग्रहेस्थितः । 

एष पु&स्य चे ध्मेस्तथातीर्थ नरेष्विह ॥ २१॥ ३ 
एष पुत्रस्य वे मोक्षस्तथा जन्मफल' शुभम्‌ । एष पुत्रस्य वै यज्ञो दानमेव न संशयः॥ 
पितरं पूजयेच्नित्यं भक्त्याभावेनतत्परः । तस्यजात समस्तं तद्यदुक्तं पूवेमेच हि॥२३॥ 
दानस्यापि फळ तेन तीथेस्यापिन संशयः। यज्ञस्यापि फल प्राप्तंमातायेनाप्युपासिता 

पितायेन सुभक्त्या च नित्यमेवाप्युपासितः । 

तस्य सर्वास्सुसंसिद्धा यज्ञाद्या:पुण्यदाःक्रियाः ॥ २५॥ 
एतदर्थ समाज्ञातं घमंशास्त्रं श्रुत॑ मया । पितृभक्तिपरोनित्यं भवेत्पुत्रो हि पिप्पळ ॥ | 


रुरुणा पौरवेणापि पित्राशप्तेन भूतरे। एवं ज्ञानंमयाचाप्त' द्वावेतीयदुपासिती ॥। 
पतयोश्वप्रसादेन प्राप्त फलमनुत्तनम्‌॥ २६॥ 


इति श्रीपाझपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डेचेनोपाख्यानेमातापितृतीर्थमाहात्म्ये 
त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥ 


पपप आपणा पा 


चतःषष्टितमो ऽध्यायः 


मातृपितृतीथमाहात्म्ये नहुषस्य ययातेश्रचरित्रवर्णनम्‌ । 
पिप्पल उवाच । 


कस्मात्पापप्रभावं च रुर्मुडक्त द्विजोत्तम । 
सकल' विस्तरेणापि बद मे कुण्डलात्मज ॥ २॥ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


4. २०४ : "क पाद्यपुराणम्‌ # | [ २ भूमिस 
: ` ` सुकर्मोचाच। 
` श्ूयतामभिधास्यासि चरित्रं पापनाशनम्‌ । नहुषस्य सुपुण्यस्य ययातेश्च महात्मन 
सोमवंशात्प्रभूतो हि नहुषो मेदिनीपतिः । दानधर्माननेकांश्च चकार ह्ातुलानपि|}| 
मखानामश्वमेधाना मियाजशतमुत्तमम्‌। वाजपेयशतंचापि अन्यान्यज्ञाननेकधा ॥ ६ 
आत्मनःपुण्यभावेन इन्द्र्लोकमचाप सः। पुत्रं धर्मणुणोपेतं प्रजापाल चकार सः |; | 
ययाति सत्यसम्पन्नं घर्मेवीयँ महामतिम्‌ । | 
ऐन्द्रंपदं गतोराजा तस्य पुत्रःपदे स्वके ॥ ७॥ | 
ययातिःसत्यसम्पन्नःप्रजाधर्मेण पालयेत्‌। खयमेव प्रपश्येत्स प्रजाकर्माणि तान्यि। 
याजयामास धमज्ञःश्रृत्वाः धमेनुत्तमम्‌ । यज्ञतीर्था दिक॑ सवं दानपुण्यं चकार स: || 
राज्यं चकार मेधावी सत्यधर्मेण वै तदा । यावद्शीतिसहस्थाणि घर्षाणां नृपनत्त 
तावत्काल गतं तस्य ययातेस्तु महात्मनः । .तस्य पुत्राश्च चत्वारस्तद्वीयेचळ विन्रम 
तेषां नामानि चक्ष्यामि शएणुष्वेकाग्रमानखः । । 
तस्यासीज्ज्येष्ठपुत्रस्तु रुरुर्नाम महाबलः ॥ १२॥ | 
युर्नाम द्वितीयोऽभूत्कुरुश्चान्यरुतृतीयकः । यदुर्नाम सधर्मात्मा चत्तथों नृपतेःसुत! 
एवं चत्वारःपुत्राश्च ययातेस्तु महात्मनः | तेजसापौरुषेणापि पितृतुल्य पराक्रम! 
एवं राज्यं इतं तेन धर्मेणापि ययातिना । | 
तस्यकीर्तियंशोभावस्त्रैलोक्ये प्रचुरो ऽभवत्‌ ॥१५॥ | 
चिष्णुरुवाच। | 
एकदा तु द्विजश्रेष्ठो नारदो ब्रह्मनन्दनः। ऐन्दरलोक गतो राजन्द्रष्टे चैव पुरन्दर 
सहस्राक्षस्ततोऽपश्यद्धुताशन समप्रभम्‌ । देवो विप्रं समायान्तं सर्वेज्ञ दानपणिड 
पूजितं मधुपर्काचे्ेक्या नमितकन्धरः। निवेश्य चासनेपुण्ये पग्रच्छमुनिपुङ्गवम्‌॥ 
` ` इन्द्र उचाच। 
कस्माद्रागमनं तेऽद्य किमर्थमिह चागतः। 
किं ते हि सुमियं विप्र करोम्यद्य महामुने ॥ १६॥ `... ` 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ह... 


| चतुःर्षष्टितमोऽध्यायः ] # नहुषस्य ययातेश्चचरिञचर्णनम्‌ # . २०५ 
नः; नारद्‌ उचाच | र 
। देवराज इतं सव अक्त्यायच्च प्रभाषितम्‌। सन्तुष्टोऽस्मि महाप्राज्षप्रश्नोत्तरं वदाम्यहम्‌ 


५ महीलोकात्खुसम्पाप्तःसाम्पतं तच मन्दिम्‌ । 


१ त्वामन्वेष्टं समायातो दृष्ट्या नाहुषमेच च । 
| इन्द्र उघाच । । 
| सत्यधर्मेण को राजा प्रजाःपाल्यते सदा । सधमंसमायुक्तःश्चुतवाञज्ञानचान्गुणी ॥ 
गि! पृथिव्यामस्ति को राजा वेदक्षो ब्राह्मणंप्रियः । 
ण ब्रह्मण्यो वेद्घिच्छूरो यज्वा दाता सुभक्तिमान ॥ २३ ॥ 
| नारद्‌ उवाच | 


हैः पभिर्युणैस्तुसंयुक्तो नहुषस्यात्मजोबली । यस्य सत्येन घीर्येण सर्वेलोकाःप्रतिश्ठिता 
भवाद्वशो हि भूलोके ययातिनेहुषात्मजः । भचान्स्वर्गेसचैवास्ति भूतले भूतिवर्धनः ॥ | 
। पितुःश्रेे महाराज ह्यश्वमेधशतं तथा । चाजपेयशतं चक्रे ययातिःपृथिघीपतिः ॥ | 
दृत्तान्यनेकरूपाणि दानानि तेन भक्तितः । 

। - शवां लक्षसहस्राणि गवां कोटिशतानि च ॥ २७॥ | 
को रिहोमांश्चकाराथ लक्षहोमांस्तथैच च। भूमिदानानि दानानित्राह्मणेम्योऽद्दाच्च यः | 
| सर्वेयेन स्वरूपं हि धर्मस्य परिपालितम्‌। एवं गुणेःसमायुक्तो ययातिनेदुषात्मजः ॥ | 
| घर्षाणां तु सहस्नाणि अशीतिर्ढपसत्तमः । राज्यं चकार .सत्येन यथादिवि भवानिह 
| सुकर्मोघाच । 

| एचमाकण्ये देवेन्द्रो नारदात्समुनीश्वरात्‌ । 

| समालोच्य स मेघावी सम्भीतो घर्मपालनात्‌ ॥ ३१ ॥ 


प्राप्स्यते नात्रसन्देहःपदमैन्द्रं न संशंयः। येनकेनाप्युपायेन तं भूपं दिवमानये ॥ ३४॥ 
1] CC-0 गास तस्मादुभीत Bhawan सुरेश्वर; ॥ भराच्या ection. Digitized by उतः समददभयात्‌ ॥| 
कक... 


Roe ती क पाद्यपुराणम्‌ # [ २ भूमिस 
:त्मानेतु ततो दूतं प्रेषयामास देवराट्‌ । नहुषस्य चिमानं तु सवेकामसमन्वितप 
| सारथि मातलिं नाम विमानेन समन्वितम्‌ । 
गतो हि मातलिस्तत्र यत्रास्ते नहुषात्मजः ॥ ३७ ॥ : जज 
प्रहितःखुरराजेन समानेतुं महामतिम्‌। सभायां वत्तमानस्तु यथाइन्द्रःपशोभते ॥३५ 
यथा ययाति धर्मात्मा स्वसभायां विराजते । तमुवाच महात्मान राजान सत्यभूषण 
सारथिर्देवराजस्य श्टणु राजन्वचो. मम । प्रहितो देवराजेन सकाशं तव साम्प्रत्म| 
यदत्र ते देवराजस्तु तत्सर्वं सुमनाःकुरु। आगन्तव्यं त्वया देच ऐन्द्रं छोक हि नान्य - 
युते राज्यं विरज्यैच इत्वा चान्त्येण्मित्तमाम्‌ । इलोराजा महातेजा चसते नहुषातार 
पुरूरवा मद्दावीर्यो चिप्रचित्तिमंहामनाः । शिविवंसति तत्रेव मजुरिक्ष्याकु भूपति।; 
सगरोनाम मेधावी नहुषश्च पिता. तव । ऋतवीय:ङृतज्ञश्च शन्तचुत्व महामना: ॥ ४४| 
भरतोयुवनाश्वश्च कार्त॑वीयों नरेश्वरः । यज्ञानाहृत्य वहुधा मोद्न्ते दिवि भूम्तः ॥४५ 
अन्येचैव तु राजानो यज्ञकर्मसुतत्पराः । सर्वे ते दिवि चेन्द्रेण मोदन्ते स्वेनकमेष 
त्वं पुनःसवेधर्मज्ञःसवंधमघु संस्थितः । शाक्रेण सहमोद्स्व स्वगलोके महीपते ॥ ४४य 
ययातिरुवाच । | 


कि मया तत्कृतं कमें येन मय्यर्थिता तच । | 
इन्द्रस्य देवराजस्य तत्सवे मे घद्स्व च ॥ ४८ ॥ स् 
मातलिरुचाच । स्‌ 


यदशी तिसहस्राणि वर्षाणां हि त्वया नृप । दानपुण्यादिककमे यज्ञेस्तु परिसाधित! 
देवंगच्छ महाराज कर्मणास्वैन भूपते । सखित्वं देवराजेन कुरु गच्छ खुरालयमक 
पश्चात्मकंशरीरं॑ च भूमौत्यज महामते । | 


| दिव्यरूपं समास्थाय भुङ्क्ष्व भोगान्मनोनुगान्‌॥ ५१ ॥ ह 
यथा यथा छता भूमी यज्ञादानं तपश्च ते। तथा तथा स्वर्गभोगाःप्रार्थयन्ते नरप 
ययातिरुचाच | न 


येन कायेन सिध्येत सुकृतं दुष्कतंभुवि । मातलेतत्कथ त्यक्त्वा गच्छेहोकसुपानिती 


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र तुः षष्टितमोऽध्यायः 1 % मातळिययातिसंचादचर्णनम्‌ # २०७ ` 

भ |. _ मातलिरुवाच | kr: 
यत्रैचोपाजितं कायं पञ्चात्मकमिद्‌ं नृप । तत्तत्नैव परित्यज्य दिव्येनेच व्रजन्ति तम्‌ ॥ 
इतरे मानवामसर्वे पापपुण्यप्रसाधकाः । तेऽपि कायं परित्यज्य अधऊध्चं बजन्ति वै 

पप ययातिरुवाच । 

ग पञ्चात्मकेन कायेन सुङ्तं दुष्कृतं नराः । उठ्पाच्चैव प्रयान्त्येव अधऊध्चं तु मातले ॥| 

म्‌।को विशेषों हि धमज भूमौ #य॑ परित्यजेत्‌ । पापपुण्यप्रभावाङ्वै कायस्य पतनंभवेत्‌ 

"ब ्टान्तो दृश्यते सूत प्रत्यक्षं मर्त्यमण्डले । विदोषंनैच पश्यामि पापपुण्यस्य चाधिकम्‌ 

त्या सत्यधर्मादिक कमे येनकायेन मानव: । समर्जयति बै मर्त्यस्तं कस्माद्विप्रसजेयेत्‌ ॥ 

तिः ।आत्माकायञ्चद्वावेतौ मित्ररूपाबुभावपि । कायंमित्रं परित्यज्य आत्मायातिसु निश्चित: 

2४] मातलिरूवाच । 

हः सत्यमुक्तं त्वयाराजन्कायं त्यक्त्वा प्रयाति स: ॥ - 

मइ सस्बन्धोनास्ति तेनापि समंकायेन चात्मनः ॥ ६१ ॥ 

#यस्मात्पञ्चत्वरूपोऽयंसन्धिजर्ज रितःसदा । जरयापीड्यामानस्तुव्या घिभिदू षितःसदा 

वरादोषै:प्रभ्ो5सौ अत्रस्थात सनेच्छति । 
| आकुल व्याकुलो भूत्वा जीवस्त्यक्त्वा प्रयाति स: ॥ ६३ ॥ 
सत्येन धर्मेपुण्येश्च दानेनियमसंयमै: । अश्वमेघादिभियज्चैस्तीयैँ:संयमनैस्तथा ॥६४॥ 


= 


सुपुण्येःसुकृतेश्वान्येजेरानेच प्रधार्यते । पातकैश्च महाराज द्रवते कायमेच सा ॥ ६५॥ 

॥ 0 ययातिरुवाच । | 

पप कस्माज्जरा समुत्पन्ना कस्मात्कायं ग्रपीडयेत्‌। मम विस्तरतस्त्वं च बक्तुमहेसिसत्तम | 
| मातलिरुवाच । 2 | 
हन्त ते वर्णयिष्यामि जरायाःपरिकारणम्‌। यस्माच्चेयंसमुदुभूता कायमध्ये नपोत्तम | 

रपञ्चभूतात्मकःकायो विषयैःपञ्चभिःशरितः | यदात्मा त्यजते राजन्सकायःपरिधक्ष्यते | 
बरह्ना दीप्यमानस्तु सरसो उघलते टप । तस्मा द्विजायते भूपो धूमान्मेघाश्च जशिरे. | 

िलीधादापःभवतन्ते अदुभ्यःपथ्वी कल्पते। जळ्मायाति साची सा ाज्ारीरजस्वला | 
fies 7, 60 


CC-0.M u Bhawan Varanasi Collection. 


: २०८ _ ` क पाझपुराणम्‌ ॐ र [२ भूमि प 


तस्मात्मजायते गन्धो गन्धाद्रसो रुपोत्तम । रसात्प्रभवतेचान्नमन्नाच्छुकत न सर 
शुक्राद्विजायते कायःकुरूपःकाय एव च । यथा पृथ्वी स्जेदुद्रन्यानसंध्यरति भूतन | 
तथाकायश्चरेन्नित्यं रसाधारो हि सवसः। 
गन्धश्च जायते तस्माद्रन्धाद्रसोभवेत्पुनः ॥ ७३ ॥ | जन 
तस्माञ्जँज्ञे महाच हिद छान्तं पश्य भूपते | यथाकाष्ठाद्रवेद्धहि पुनःकाष्ठ प्रकाशये | 
कायमध्ये रसादग्निस्तद्वदेव प्रजायते । तत्र. खञ्चरते नित्यं कायं पुष्णाति मे 
याचद्र्खस्यचाधिक्यं तावञ्जीवःप्रशान्तिमान्‌। चरित्वा तादूशं घहिः क्षुधारूपेण 
अन्नमिच्छत्यसौतीतरःपयसा च समन्वितम्‌। प्रदानं ऊभतेचात्नसुदकंचापि भूप 
शोणितं चरिते बहनिस्तद्वद्वीयं न संशयः। यक्ष्मरोगो भवेत्तस्मात्सवेकायप्रणाह 
रसाधिक्यं भवेद्राजन्नथ चह्िःप्रशाम्यति । रसेन पीड्यमानस्तु ज्वररूपो ऽमिजञायं 
ग्रीवा पृष्ठं करि पायुं सर्वास्वेच तु सन्धिषु । 
आरुध्य तिष्ठतेवहिःकाये चह्विःप्रवतेते ॥ ८०॥ | 
. तस्याऽधिक्यं चरेन्नित्यं कायं पुष्णाति सवंतः। रसस्तु बन्धमायाति चलरूदोभरे; 
अतिरिक्तो वलेनेच चीर्यान्मर्माणि चाल्येत्‌। तेनेच जायते कामःशाल्यरूपोमवेन्तरं 
सकामाग्निःसमाख्यातो बळनाशकरो रूप । मैथुनस्यप्रसङ्गेन विनाशत्वं केक 
नारीं च संश्रयेत्प्राणी पीडितःकामवहिना। ह 
मैथुनस्यप्रसङ्गेन मूछितःकामकशितः ॥ ८४॥ 
: तेजोहीनो भवेत्कायो बलहानिश्च जायते । बलहीनो यदोस्याद्वै दुर्बेलो घहिनेखि 
` सचहिःप्रचरेत्काये शोणितंशुक्रमेव च । ुक्रशोणितयोर्शाचछून्यदेहोऽ भिजा 
अतीचजञायते वायुःप्रचण्डोदारुणाकृतिः। विवर्णो दुःखसन्तत्त गून्यबुद्धिस्ततोमवेष 
ष्टा श्रुता तु या नारी तच्चित्तोभ्रमते सदा । रि 
9 तृप्तिने जायते काये लोळुपे चित्तवत्मनि ॥ ८८॥ १ 
विरूपश्च खुरूपश्च ध्यानान्मध्ये प्रजायते । बलहीनो यदाकामी मांसशोणितसंश' 
प्रलितं जायते काये नाशिते,.कासवहिना। तस्मात्सञ्ज वृद्धोभूत्वा 


। तस्मार 
CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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क प्डितसो ऽध्यायः ] * शरीरदोषचर्णनम्‌ अ Ee बह 


संह जुरते चिन्ततेनारीं यथा चाइुघुषिकोनरः । तथा तथा भवेद्धानिस्तेजसो ऽस्यनरेश्वर 


[ले ते कायो नाशरूपं सरूच्छति । अग्निःप्रजायते भूयो जरारूपो न. संशयः 


प्राणिनां क्षयरूपेण ज्वरोमवति दारुणः | स्थावराजङ्गमाःसर्चे ज्वरेणपरिपीडिताः ॥ 


नाशमायान्ति ते सर्वे बहुपीडाप्रपी डित": । एतत्तेसर्बमाख्यातमन्यरिकि ते घदाम्यहम्‌ ॥ 
ये ण्वमुक्तो महाराजो मातलि घाक्यमत्रचीत्‌ ॥. ६५ ॥ 
णे इति श्रीपाद्म पुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्याने मातापितृतीर्थकथने 
ह चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४॥ 
भूपो करः 
गाई, | 
यो पञ्चषष्टितमोऽध्यायः 
| 'शरीरदोषतर्णनम्‌ । 
ह. ८ ___ ययातिरुवाच | 
ह रक्षकःकायो मातलेचात्मनासह । नाकपेषन प्रयाति तन्मेत्व कारणंचद्‌ ॥१॥ 
मातढिरुवाच | 


| 

के ज्ानामपिसूतानां सङ्गतिर्ना स्तिभूपते । आत्मनासहचर्तेन्ते सङ्गत्यानैबपञ्च ते ॥ २॥ 
वि्षां तत्रसङ्घातःकायय्रामै प्रवतंते | जरयापीडिता:सर्वेःस्वं रुवं स्थानं प्रयान्ति ते ॥ 
| यथा रसाधिकापृथ्ची महाराज प्रकल्पिता | 

खि रसेःक्लिन्ना ततःपृथ्वी सुदुत्वं याति भूपते ॥ ४॥ 

ण पिपी लिका भिर्मूषिका भिस्तथैच च । ठिद्राण्येच प्रजायन्ते वर्मीकाश्चमहोद्राः 

Fa ये प्रजायन्ते गण्डमाळा विचचिकाः । छमिभिमिद्यमानथ्व कायपष नरोत्तम ॥ 

्मास्तत्र प्रजायन्ते सचःपीडाकरास्तदा । पभिदोर्ेःसमायुक्तःकायोऽयं नहुषात्मज 

र थे प्राणसमा योगा दिवंयाति नरेश्वर । काये पाथिवभागो5यं समानार्थ. प्रतिष्ठित: 

ष न कायःस्वर्गमायाति यथापृथ्वी तथास्थितः । बट 


॥ 


८०-६६॥०००१५ Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


एतत्ते सर्वमाख्यातं दोषौधैःपार्थिघस्य यः ॥ &॥ 
इति श्रीपाद्म पुराणेद्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्याने मातापितृमाहात्म्ये . |, 


पञ्चषष्टितमो ऽध्यायः । |. 

| 

षट्षष्टितमोऽध्यायः i 
प्रथमतःशरीरोत्पत्तिपूर्वकशरीरवर्णनम्‌ । | 
ययातिरुवाच । | 


पापात्पतति कायोऽयं घर्माच्चश्टणु मातले। विशेषं न च पश्यासि पुण्यस्यापि ग 


पुनःप्रजायते कायो यथाहि पतनं पुरा | कथसुत्पद्यते देहस्तन्मे विस्तरतो घद्‌॥घ 
मातलिरुवाच । - ह 
अथ नाराकिणां पुंसामध्मादेच केवलात्‌ | क्षणमात्रेण भूतेभ्यःशरीरसुपजायते I 


तद्वद्धमण चैकेन देचानामौ पपा दिकम्‌ । सथ्यःप्रजायते दिव्यं शरीरं भूतसारत [ह 


कमेणाव्यतिमिश्रेण यच्छरीरे महात्मनाम्‌ । F 
~ तद्रूप परिणामेन बिज्ञेयं हि चतुविधम्‌ ॥ ५॥ । 
उद्गिज्ञाःस्थाबरा ज्ञेयास्तृणगुल्मादिरूपिण: । कृरमीकीट पतङ्गाद्याःस्वेदजानाम र 


अण्डजाःपक्षिणःसर्वे सर्पानक्राश्व॒ भूपते । जरायुजाश्च चिज्ञे या मानुषाश्च चतुष्ए। 
तत्र सिकाजळभू मिरकस्यो ष्मविपाचिता । | 
चायुना त्रम्यमाना च झेत्रतां तु प्रपद्यते ॥ ८॥ | 
तत्रचोप्तानि वीजानि संसिक्तान्यम्भसा पुनः । उपगम्य झदुत्व॑ं च मूलभावं री 
तन्तूछादङकुरोत्पत्तिस्ङकुरात्पर्णसम्भवः । f 
पण'क्ञाळं ततःकाण्डं काण्डाच्च प्रभवःपुनः ॥ १० ॥ 
प्रभवाच्च भवेत्क्षीर क्षीरात्तण्ड्ळ सम्भवः | ठण्डुछाच्च तत पक्काभवन्त्योषयर 
ु यवाद्याःशालीपयंन्ता:श्रेष्ठास्सप्तदश स्म्वृताः । 


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॥ चद्पष्टितमोधध्याय: ] अ प्रथमतःशपीरोत्पत्तिपूर्वेकशरीरवर्णनम्‌ क ण २११ 
| औओषध्यःफलासोराव्यारेषाःश्ुदाःप्रकी तिताः ॥ १२॥ £ 
एतालूनामिताश्च सु निमिःपूर्वसंस्कृताः । शूर्पोलूखळ पात्राद्यःस्था लिकोदक- वहिभिः॥ 
'बड्विधा दद स्वभेदेन .परिणामं व्रजन्ति ताः । अन्योन्य रससंयोगादनेकस्वादतांगता: 
भक्ष्यं भोज्यं पेयलेहा चोष्यं खाद्यं च भूपते। तासां मेदाःषडङ्गाश्च मधुराद्याश्च षड्गुणः 
तदन्न पिण्डकवलेरमसेभुक्त च देहिमिः । अन्त:स्थूलाशयै सर्वप्राणान्स्थापयति क्रमात्‌ 
अपक्क भुक्तमाहारं सवा युःकुरुते द्विधा । 
सम्प्रचिश्यान्नमध्ये च पक्क छृत्वा पृथग्युणम्‌ ॥ १७ ॥ 
अग्नेरूध्वं जलं स्थाप्यं तदन्नं च जलोपरि । 
र _ जळस्याधःस्वयं प्राणःस्थित्वासि घमते शनैः ॥ १८॥ 
द ॥घायुनाधम्यमानो 5 मिरत्युष्णं कुरुते जलम्‌ । तदश्नसुष्णयोगेन समन्तात्पच्यते पुन: ॥ 
दविधा भवति तत्पक्क पृथक्किट्टप्रथग्रसः । मळैद्वादशमिःकिट्ट भिन्नंदेहादवहित्रजेत्‌ | 
ने [क्रर्णाक्षि नासिका जिह्वा दत्तोष्ठप्रजनं गुदम्‌ । मळान्स्वेदथस्वेदो विण्मूत्रं द्वादशास्रः 
१] आ सर्वेनाड्यःसमन्ततः । तासां सुखेषुतं सूक्ष्मं घा णःस्थापयते रसम्‌॥ 
(सेन तेन ता नाडीःप्राणःपूरयते पुनः | सन्तर्पयन्ति तानाङ्यः पूर्णादेहं : 
त दंगाबीमध्यस्य त तर रसः । पच्यते यमात क. -॥ 
कछ्य पुनः ॥ || 
र त्वग्मांसास्थिमज्ञा मेदोरुधिरं च प्रजायते । 
ष्य रक्ताल्लोमानि मांसं च केशाःस्नायुञ्च मांसतः॥ २५॥ 
| स्नायोमंज्ञा तथास्थीनि निवसामञ्जास्थि सम्भवा । 
|... मज्जञाकारेण वैकल्यं शुक्रं च प्रसघात्मकम्‌ ॥ २६ ॥ 
ति द्वादशचान्नस्य परिणामाःप्रकीतिताः । शुकं तस्यपरीणामःशुक्रादेहस्य सम्भवः ॥ 
व्तुकाले यदाशुक्र निर्दोषं यो निसंस्थितम्‌। तदा तढ्वायुसंसपष्ट स्त्रीरक्तेनेकतांत्रजेत ॥ 
बेसर्गेकाले शुक्रस्य जीचःकारणसंयुतः । नित्यंप्रदिशते योनि कर्मेभिस्वेनियन्त्रितः 
शुक्रस्यसहरक्तस्य.एकाहात्कललं भवेत्‌ ६ 
पञ्चरात्रेण कलले बुदुबुद्त्वं ततो भवेत्‌ ॥ ३० ॥ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


:. २१२ र | झे पाझपुराणम्‌ ॐ [२ भूमि 
मांसंत्वं मासमात्रेण पञ्चघा जायंतेपुनः । ग्रीवाशिरश्च स्कन्धश्च पृष्ठवंशस्तशष 
` ` पाणीपादौ तथापाश्वों करियांत्रं तथैव च 1 मासद्वयेन पर्वाणि क्रमशःसम्भव 
निभिमासैःप्रजायन्ते शतशोऽङ्कुर सन्धयः । मासैश्चतुसिर्जायन्तेअङ्गुल्या दियथा इ 
मुखं नासा च कर्णो च मासैजञयन्ति पञ्चभिः । ज 
दन्तपङ्क्तिस्तथाजिह्णा जायते तु नखाः पुनः ॥ ३४ ॥ | 
कर्णयोश्च भवेच्छिद्रं षण्मासाभ्यन्तरे पुनः । पायुमद्मुपस्थ च शिश्नश्धाप्युपजा| 
सन्धयो ये च गात्रेषु मासैर्जायन्ति खप्तभिः। अङ्गप्त्यङ्गम्पूणं शिरःकेशसमत्विर 
चिभक्ता घयचस्पष्टं पुनर्मासेऽष्टमे भवेत्‌। पश्चात्मकसमायुक्त परिपक्क: स 
मातुराहार घीयेण षड्विधेनरसेन च। | 
नाभिसूत्रानिबद्धेन वद्धंते ख दिने दिने॥ ३८॥ | । 
ततःस्सृति लभेज्ञीवःसम्पूण 5 स्मिउछरी रके । सुखंडुःखं विजानातिनिद्रांस्वप्नपुरात 
सृतश्चाहं पुनर्जातो जातश्चाहं पुन तः । नानायोनिसहस्ञाणि मयादृष्टान्यनेकास 
अधुना जातमात्रोऽहं प्राप्तसंस्कार एव च। ह 
` ततःभ्रेयःकरिष्यामि येन गभे न सम्भवः ॥ ४१॥ | 
गर्मेस्थश्चिन्तयत्येवमहंगर्भा विनिःसृतः । अध्येष्यामि परज्ञानं संसार ` विनिवत 
अचश्यं गर्भेदुःखेन महता: परिपीडितः । जीवःकमंचशादास्ते मोक्षोपायं दिशि 
यथागिरिवराक्रान्तःकश्चिददःखेन तिष्ठ ति । तथाजरायुणा देही दुःखंतिष्ठति दुःिं 
पतितः सागरे यद्दुढु:खमास्ते समाकुछः । गर्भोद्केनसिक्ताङ्गस्तथास्तै व्याकुल 
लोहकुग्मे यथान्यस्तःपच्यते कश्चिद्‌ग्निना । गर्मकुस्मे तथाक्षिसतःपच्यतेजठा 
सूची भिरग्निवर्णाभिर्िन्नगात्रो निरन्तरम्‌ । | 
यदुदुःखं जायते तस्य तद्भेष्ण्गुणं भवेत्‌ ॥ ७७ ॥ 
गर्भेचासात्परंघासं कछंनेचास्ति. कुत्रचित्‌ । देहिनां दुःखमतुळं सुधोरमपिसई' 
इत्येतद्गभेदुःखं हि प्राणिनां परिकीतितम्‌। चरस्थिराणां सर्वेषामात्मगर्भाउ रा 
गर्भात्कोटिशुणा पीडा योनियन्त्रनिपीडनात।  -: ४! 


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के पद्षष्टितमो5ध्यायः ] # प्रथमतःशरीरोत्पत्तिपूर्वकशरीरघर्णनम्‌ # 
वार संभूच्छि तस्य जायेत्‌ जायमानस्य देहिनः ॥ ५०॥ ` 
थ इश्चुवत्पीड्यमानस्य पापमुद्गर पेषणात्‌ | गर्मानिष्क्रममाणस्य प्रबलैःसूतिचायुमिः ॥ 


जायते झुमहद्दुःखं परित्राणं न विन्दति । यन्त्रेण पीड्यमानाःस्युनिसाराञ्चयथेक्षवः 
| तथा शरीरं योनिस्थं पात्यते यन्त्र पीडनात्‌। ` 
जप अस्थिमडतुंलाकारं स्नायुवन्धन वेष्टितम्‌ ॥ ५३॥ न 
न्क्रक्तमांस घसालिप्तं विण्मूजद्रव्य भाजनम्‌ । केशलोम नखाच्छन्नं रोगायतनमुत्तमम्‌ 
त्पचदनेक महाद्वारं गवाक्षाष्टक भूषितम्‌ । ओप्रट्टयकपाटं तु दन्तजिह्वागलान्वितम्‌ ॥ 
| नाडीस्वेद प्रवाह च कफपित्तपरिप्लुतम्‌। 
| जराशोकसमाविष्टं काळचक्त्रानलेस्थितम्‌ ॥ ५६ ॥ 
पुणकामक्रो घसमाक्रान्तं श्वसनैःश्वो पम दितम्‌ । भोगठुष्णातुरं गूढं रागद्वेषवशानुगम्‌ ॥ 
नेकसघणिताडू प्रत्यङ्गं जरायुपरिवेष्टितम्‌। सङ्कटेनाविविक्तेन योनिमार्गेणनिर्गतम्‌॥ 
विण्मूत्ररक्तसिक्ताडु षट्कौ शिक समुद्धवम्‌ । अस्थपञ्जरसङ्घात यज्ञमस्मिन्कलेचरे ॥ 
| ` शतत्रयं षष्टयधिक पञ्चपेशी शतानि च।' आ 
| सार्घामिस्तिस्मिश्छन्नं समन्ताद्रोमकोरिमिः ॥ ६० ॥ 
लो शरीरं स्थूलसूक्ष्मा मिह श्याद्वश्याभिरन्तत: । 
रवि एतामिर्मा'सनाडी मिःकोटिमिस्तत्समन्वितम्‌ ॥ ६१ ॥ 
र स्वेदमशुचिताभिरन्तरस्थं च ते नहि | द्वानिशद्द शनाःप्रोक्ता विशतिम्ध नखा:स्सत: 
ठण तस्य कुडचंज्ञेयं कफस्णाधांढकं तथा । बसायाश्रपलत्रिशत्तद््ध कळलस्य वा ॥ 
[ताबुंदपळं ज्ञेयं पलानि द्शमेद्सः | पळत्रयं महारक्त मञ्जारक्ताश्चतुर्गणा ॥ ६४ ॥ 
गुक्राघँ कुडवं ज्ञेयं तदर्ध देहिनाँ बलम्‌। मांसस्यचेकं पिण्डेन . पलसाहस्नमुच्यते ॥ 
| रक्तंपलशतं शेयं विण्सूचंचाप्रमाणत:।] | § 
इति देह ग्रहे राजन्वासःस्यान्नित्यमात्मनः ॥ ६६ ॥ क 
शुद्ध च विशुद्धस्य कमेबन्ध विनिर्मितम्‌ । शुक्रशोणित संयोगाद्देह:सञ्जायते कचित्‌ | 
गैत्यंविण्मूअलूयुत्तातेनायसशुलिस्खत यश, निप्र: ॥ | 


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"२१४ टक # पादापुराणम्‌ क [ रंभूणि र 
शौचेन शोध्यमानो5पि देहोऽयमशुचिर्मवेत्‌। | 
ये प्राप्याति पवित्राणि पश्चगव्य हवींषि च ॥ ६६॥ . 
अशुचित्वं प्रयान्त्याशु. देहोऽयमशुचिस्ततः । हृद्यान्यप्यन्नपानानि यं प्राप्यसुरमी 
अशुचित्वं प्रयान्त्याशु कोऽन्य स्यादशुचिस्ततः । E 
हे जनाःकि न पश्यध्वं यन्निर्याति दिने दिने ॥ ७१ ॥ २ 
देहानुगो मलःपूतिस्तदाधारःकथं शुचिः । देह संशोध्यमानोऽपि पञ्चगव्य कुशाब २ 
घृष्यमाण इवाङ्गारो निर्मलत्वं न गच्छति। स्रोतांसि यस्य सततं प्रचहन्तिगि 
कफसूत्ाद्यमशुचिःसदेहःशुध्यते कथम्‌ । सर्वाशुचि निघानस्य शरीरस्य न किन 
शुचिरेक प्रदेशोऽपि शुचिनेस्याहृतेऽपि वा । दिवा वा यदिवारात्रौझत्तोयेःशोध्यक र 
_ तथापिशुचिभाङ्नस्यान्नविरज्यन्ति ते नराः । k 
कायोऽयमग्र घधूपाच्चर्यत्नेनापि सुसंस्कृतः ॥ ७६ ॥ 
न जहाति स्वभावं हि श्वपुच्छमिच नामितम्‌ । 
तथाजात्यैच कष्णोर्णा न शुक्लाजा तु जायते ॥ ७9 ॥ 
संशोध्यमानापि तथा अवेन्मूर्तिन निर्मळा । जिघन्तपिस्वदु्गन्धं पश्यन्नपिमठंस्‌' 
न विरज्यतिलोकोऽयंपीडयन्तपिनासिकाम्‌। अद्दोमोहस्यमाद्दात्म्यंयेनव्यामोहितं 
जिघन्पश्यन्स्वकान्दोषान्कायस्य न चिरज्यते। स्वदेहस्यविगन्धेन विरञ्येतनयोग 
'चिरागकारणं तस्य किमन्यदुपदिश्यते । सर्वमेच जगत्पूतं देहमेवाशुचिं 
यन्मलाचयचस्पर्शाच्छुचिरप्य शुचिमेवेत्‌। गन्धलेपापनोदाय शौचं देहस्य की 
द्वयस्यापग्मात्पश्चाद्वावशुध्या विशुध्यति । 
गङ्गातोयेन सर्वेण मृद्वारैगात्रलेपनेः ॥ ८३॥ 
मरो ढुगेन्धदेहो५सौभावदुरोनशुध्यति । तीर्थस्नानेस्तपोमिश्च दुष्टात्मा न च शं 
स्वमूतिःक्षाळितातीथं न शुद्धिमधिगच्छति । अन्तर्भाघ प्रदुष्टस्य बिशतो पि हु, 
-न स्वर्गो नापवर्गश्च देहनिदेहनंपरम्‌ । भावशुद्धिःपरंशौचं न सर्वेकर्मठ | 
-अन्यथालिङम्पते/कान्सा वेन डुहितानफथा।। मनस्मञियतेः 


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फ्रि षठ्बषितमो$9्यायः ] ॐ प्रथमत: शरीरोत्पत्तिपूवेक शरीरवर्णनम्‌ अ २१९५ ; 
। अन्यथैव सतीपुत्रं चिन्तयेद्न्यथापतिम्‌ । यथा यथा स्वभावस्य महाभाग उदाहृतम्‌ ॥ ` 
| परिष्वक्तोऽपि यद्वार्या' भावहीनां न कारग्रेत्‌। | 
मी नाद्याद्विविधमन्नाथं रस्यानि सुरभीणि च ॥ ८६॥ - 

| अभावेन नरस्तस्माद्वावःसवेत्र कारणम्‌ । चित्तं शोधय यत्नेन किमन्यैर्वाह्मशो धने: | 

'भावतःशुचि शुद्धात्मा स्वर्ग मोक्षं च विन्दति । ज्ञानमालम्भसा पुंसःसबैराग्यञ्चदापुनः - 
गान अविद्याराग विष्मूत्र लेपो नश्येद्विशोधनैः । एवमेतच्छरीर हि निसर्गादशुचि बिदुः ॥ 
गिर विद्यादसार निःसारं कदलीसारसन्निभम्‌ । 
व्हि झात्वेवं दोषबद्दैहं यःप्राज्ःशिथिछी भवेत्‌ ॥ ६३॥ 
ध्ये सोऽतिक्रा मति संसारं दढ॒य़ाहो5व तिष्ठति । एवमेतन्महाकरं जन्मदुःखं प्रकीत्तितस्‌ ॥ 

पुंखामज्ञान्दोषेण नाना कमेवंरोन च । गर्भस्थस्यमतिर्यासीत्साजातस्य प्रणश्यति ॥ 

| खुसूच्छितस्य दुःखेन योनियन्त्र निपीडनात्‌ । 

| बांहोन घायुनाचास्य मोहसङ्गेन देहिनाम्‌ ॥ ६६ ॥ | 

स्पृटमाचरस्य घोरैण ज्वरःसमुपजायते । तेन ज्वरेण महता महामोहःप्रजायते॥ ६७॥ | 
ह॑ संसूढस्य स्स्ृतिभ्र शःशीध्रं सञ्जायते पुनः । स्ञ्रतिभ्र शात्ततस्तस्य पूर्वकमेवदोन च ॥ || 
हिपतिःसञ्जायते तस्य जन्तोस्तत्रेच जन्मनि । रक्तोमूदुश्च लोकोऽयमकार्ये सम्पवत्तते ॥ 
योरनचात्मानं विजानाति न परं न च दैवतम्‌ । न श्रणोति परंश्रेयःसं चक्षुरपि नेक्षते ॥ 
ब मे पथि शनेगंच्छन्स्खळतीच पदेपदे । सत्यां बुद्धौ न जानाति बोध्यमानोवुधेरपि॥ 
री संसारै क्िश्यते तेन नरो लोभवशानुगः । 

| गर्भस्सृतेरभावे च शास्त्रमुक्त शिदेन च ॥ २॥ 

तद्‌ दुःखकथनार्थाय स्वर्गमोक्ष प्रसाधकम्‌ । येन तस्मिञ्छिवेज्ञाते धर्मकामार्थसाधने ॥ | 
ठ शी न्त्यात्मनःश्रेयस्तदत्र महददुभुतम्‌ । अव्यक्तेन्द्ियचृत्तित्वाद्वाल्येदुःखं महटपुनः ॥ | 
ह न शक्नोति घक्तु कतु न सत्क्कती । दन्तजन्ममहदुदुःखं लौ ल्येनवायुना तथा | 


५ पाळरोगेथ्ध घिविधेःपीडा बालग्रहैरपि। तडबुसुक्षा परीताङ्गःककचित्तिष्ठति गच्छति ॥ | 
। विण्सूज “ भक्षणाद्यं च मोहाद्वाळःसमाचरेत। | 
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र २१६ क पाझपुराणम्‌ # कु [र्य 
| कौमार:कर्णवेघेन मातापित्रोश्च ताडनैः ॥१०७॥ ` ` गा | 
अक्षराध्ययनायैश्व दुःखंगुर्वादि शासनात्‌। प्रमत्तेन्द्रियवृत्तश्व कामराय भपीक्षि 
रोगादितस्य सततं कुतःसौख्यं हि यौवने । ईष्येयासु महददुःखं मोहाढुढु:खे पळ, 
तत्रस्यात्कुपितस्यैच रागोदुःखाय केवलम्‌ । रात्रौ न चिन्दते निन्द्रांकामा झिपरिकषे| 
दिवाचापि कुतःसौख्यमर्थोपाजनचिन्तया । | 
व्यचायाश्रितदेहस्य ये पुंसःशुक्रबिन्दघः ॥ १११ ॥ | 
न ते सुखाय मन्तव्याःस्वेदजा इच बिन्दवः । क्रमिमि पीड्यमानस्यकुष्ठिनःपामरसः 
कण्ड्यनाञ्नितापेन यत्सुखं स्त्रीषु तद्विदुः | याइशं मन्यते सौख्यमर्थोपाजेनकि् 
तादूशं. सत्रीषु मन्तब्यमधिकंनैच विद्यते । मत्यस्यवेदनासँच यां (चना चित्तनि्वाध' 
ततोऽन्योन्यं पुराप्रात्तमन्ते सैवान्यथा भवेत्‌ । न 
तदेचं जरयाग्रस्तमामयाव्यपि न प्रियन्‌ ॥ ११५॥ | 
अपूर्वचत्स्वमात्मानं जरयापरिपीडितम्‌। यःपश्यन्नविरञ्येत कोऽन्यस्तस्माद्चे 
जराभिभूतोऽपिजन्तुःपल्ली पुत्रादि बान्धवैः । अशक्तत्वाद्दराचारेभ त्यश्च परिभूस्े 
न धर्ममर्थं कामं च मोक्षं च जय्यायुतः । शक्तःसाघयितुँ तस्माद्युवाधमं समार 
घातपित्त कफादीनां चंषम्यं व्याधिरुच्यते । 
चातादीनां समूहेन देहोऽयं परिकीतितः ॥ ११६॥ | 
तस्माह्याधिमयं ज्ञेयं शरीरमिद्मात्मनः । वाताच्चव्यतिरिक्तत्वाद्वयाधोतां न 
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रोगैनांनाविधेया ति देहिदुःखान्यनेकधा । 
तानि च स्वात्मवेद्यानि किमन्यत्कथयारयहम्‌ ॥ १२१ ॥ 
'एकोत्तर॑ म्रत्युशतमस्मिद हेप्रतिष्टितम्‌ । तत्रेकः कालसंयुक्तः शोषाश्वागन्दवःस्मत 
येत्विहागन्तच:प्रोक्तास्ते : शाम्यन्ति भेषजैः । जपहोमप्रदानैश्व काळउत्युने श 
` यदिवाऽपसुत्युनेस्या द्विगास्वादादप ङ्कितः । न चात्ति पुरुषस्तस्मादपशृत्यो विभेति 
विविधा व्याधयस्तत्र सर्पाद्ाःप्राणिनस्तथा । 


८८घिषाणि Mumukshu भिचाराझ् मृत्यो्धाराणि देहिनाम, 10१५ कु 


| 


वटूषष्टितमो5ध्यायः ] # प्रथमतः शरीरोत्परि पूर्वक शरीरवर्णनम्‌ # २१७. 
| पीडितं सवेरोगाच्चैरपि धन्वन्तरिःस्वयम्‌ । | 
| स्वस्थीकतुं' न शक्नोति कालप्रापत' न चान्यथा ॥ १२६॥ 
hनौषधं न तपोदानं नमाता न च वान्धवाः | शक्चुवन्तिपरिच्रातु नरं कालेनपीडितम्‌ ॥ 
1] रसायन तपो जाप्य योगसिद्वैमहात्मभिः । र 
। अचान्तरित शान्तिःस्यात्कालखत्युमवाप्चुयात्‌ ॥ १२८॥ 
ज्ञायते योनिकीरेषु स्त:कमेवशात्पुनः । देहमेदेन यःपश्येद्वियोग कर्म संक्षयात्‌ ॥२९॥ . 
भरणं तद्विनिदिषटं न नाशःपरमार्थतः । महातम:प्रविष्ठस्य छिद्यमानेषु ममेखु ॥ १३० ॥ 
थाढुढु:खं सरणेजन्तोने तस्येहोपमा कचित्‌ हा तात मातःकान्तेति क्रन्दत्येवंसुदढुःखितः 
ण्डूक इच सर्पेण अस्यते म्हत्युना जगत्‌ । वान्धवेःसपरिः्यक्तःप्रियैश्च परिवारितः ॥ 
नेःश्वसन्दीधेमुष्ण च सुखेन परिशुष्यता । खट्वायां परिवृत्तो हि मुह्यते च मुहुमुडु१॥ 
| संसूढःक्षिपते५त्यथ॑ हस्तपादा वितस्तत: । 
क खट्वातो वाञ्छते भूमि भूमेःखट्वां पुनमेहीम्‌ ॥ १३४ ॥ 
यबेवशस्त्यक्तळज्ञश्व मूत्रविष्ठानुळेपित: । याचमानश्च सलिलंशुप्ककण्ठोष्टतालुकः ॥ 


रेबन्तमान:स्व वित्तानि कस्येतानि सृतेमयि । यमदूतेनोयमानःकाळपारोनकर्षितः ॥ 
तयते पश्ययामेव॑ गलेघुरघुरायते । जीवस्तृण्जलौकेव देहादहं विशेषत्क्रमात्‌ ॥३७॥ 
प्नोत्युत्तरमङ्गं च देहं त्यजति पूर्वकम्‌ । मरणात्प्रार्थनादुदुःखमधिक हिचिवेकिनाम्‌ 
साणिकं मरणे डुःखमनन्तं प्राथेनाकृतम्‌ । जगतांपतिरथित्वा विष्णुर्वामनतां गत॥३४॥ 
| अधिकःकोऽपरस्तस्मा्यो न योस्यति लाघवम्‌ । 
ज्ञातं मयेदमधुना श्त्योर्भेचति यद्गुरुः ॥ १४० ॥ 
ता न परं प्राथयेदुभूयस्तृष्णा लाघवकारणम्‌ । 
i आदौ दुःखं तथामध्ये दुःखमन्ते च. दारुणम्‌ ॥ १४१ ॥ 
हिर्गाट्सवभूतानामिति दुःखपरग्परा । वर्तमानान्यतीतानि डुःखान्येतानि यानि तु ॥ 


गरःशोचयेज्जन्म न 'चिरज्यति तेन बै । आत्याहारान्महददुःखमल्पाहारात्तदन्तरम्‌ ॥ 


चरते भोज़ने कण्हो जने च, कृत खुले |... ? Digitized by eGangotri 


टे - 


fe ` -..` क पाइपुराणम्‌ ॐ [रमू 
१५ क्षुधा हि सर्वरोगाणां व्याधिःश्रेष्ठतमःस्म्रतः ॥ १४४॥ 

. सकाम्यौषधळेपेन क्षणमात्र प्रशाम्यति । श्लुदुव्याधि वेदना तीव्राः निःशेष वरू | 
तयासिभूतो ्रियते यथान्येर्व्याधिभिनेरः । तद्रसेऽपिहि कि सौख्यं जिहाम्रपरिः' 
तत्क्षणादर्धकाळेन कण्डं प्राप्य निवतंते । इति श्षुदुव्याधि तस्तानामरनमौषधवत! 

तत्सुखाय मन्तव्यं परमार्थेन पण्डितः । 

मृतोपमश्च यःरोते सवंकार्यविवजितः॥ १४८ ॥ द 

तत्रापि च कुतःखौख्यं तमसा चोदितात्मनः । प्रबोधेऽपि कुत सौ ख्यंका धपा, 
कृषिचाणिज्यसेचाद्य गोरक्षादि परिश्रमैः । प्रातमूं्पुरीषाभ्यां मध्याहे श्ल॒त्णि/ 
तप्ताःकास्येन वाध्यन्ते निद्रया निशि जन्दवः । | 
अर्थस्योपाजनेद:खं दःखमजितरक्षणे ॥ १५१ ॥ | 

नाशेडु:खं व्ययेढुःखमर्थस्वैचकुतःसुखम्‌ । चौरेभ्यःसलिलेभ्यो 5ग्ने स्वजनात्पाधिदू 
भयमर्थचतांनित्यं सरृत्योदे हभ्रतामिच । खे यथा पक्षिभिमां सं भक्ष्यते श्वापदे 
जले च भक्ष्यते मत्स्येस्तथा सच वित्तवान। . | 
चिमोहयन्ति सम्पत्छु वारयन्ति विपत्छु च ॥ १५४ ॥ i 


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खेदयन्त्यर्जनेकारे कदार्थाःस्युःखुखाबहाः । परागर्थपतिरुद्वि्ःपश्चात्सवांथे ति 
तयोरर्थपतिडु:खी सुखीमन्ये विरक्त धीः। र रर 


हेमन्ते शैशिरं दुःखं ग्रीप्मे तापस्य दारुणम्‌ ॥ १५६ ॥ 
प्रावृष्यत्यव्पवृश्स्यां काळेऽप्येचं कुतःसुखम्‌। चिचाहविस्तरेदुःखं तद्रो दह { 
सूतिवैषम्यदुःलश्च दुःखं विष्ठादि कर्मभिः । दग्ताक्षिरोगेपुत्रस्य हा कष्टं कि ङं 
गावो नष्टाःऋषिभेग्ना भार्या च प्रपलायिता । 
अमीप्राधूणिका:प्राप्ता भयं मे शंसिनो गृहान्‌॥ १५६॥ | 
बालापत्या च मे भार्याकःकरिष्यतिरन्धनम्‌। विवाहकालेकन्यायाःकी श 
एतच्चिन्ताभिभूतानां कुतःसौख्यं कुटुम्बिनाम्‌ ॥ १६१ ॥ | 
कहइचित्ताकिलस संश्च ,क ळं न आप सवें । 


| बद्षष्टितसोञ्ध्याय: ] # प्रथमतः शरीरोत्पत्तिपूर्वंक शरीरवर्णमम्‌ # २१६ 
अपककुम्मे निहिता इचापःपरयान्ति देहेनसमं विनाशनम्‌ ॥ १६२ ॥ 
राज्येऽपि हि कुतःसौख्यं सन्धिविग्रहचिन्तया | 
पुत्रादपि भयं यत्र तत्रसौख्यं हि कीदृशम्‌ ॥ १६३॥ 
द्विजाती प्रायःसर्वेषामेघ देहिनाम्‌। एकद्रव्याभिलाषित्वाच्छुनामिव परस्परम्‌ 
न प्रविश्य बनं कश्चिन्पःख्यातोऽस्तिभूतले | निखिलंयस्तिरस्छृत्यसुखंतिष्ठतिनिर्भय 
युद्धे वाइसहस्रं हि पातयामास भूतले। श्रीमतःकार्तवीर्यस्य ऋषिपुत्रःप्रतापवान | 
ऋषिपुजरस्य रामस्य रामो दशरथात्मजः । जघान चीयमतुळमूध्वंगं सुमहात्सन: ॥ ` 
| जरासन्धेन रामस्य तेजसानाशितं यशाः । 
| जरासन्धस्य भीमेन तस्यापि पचनात्मजः ॥ १६८ ॥ 
हनुमानपि सूयेण विक्षि्तःपतितःक्षितौ । निचातकवचान्सर्व दानचान्बळदपिताम्‌ ॥ 
इतवानजुनःश्रीमान्गोपालैःख विनिजितः। सूर्य:प्रतापयुक्तो5पि मेघेःसंछाद्यते कचित: 
| ` क्षिप्यते वायुनामेघो वायोवीयं नगैजितम्‌ । 
| दह्यन्ते बह्विना शैलाःसच हिःशाम्यते जलैः ॥ १७१ ॥ 
ज्जले शो ष्यते सर्येस्तेसूया:सहवा रिणा । त्रैलोक्येन समस्ताश्च नश्यन्ति बरह्मणो दिने 
सहापि निद्शैःसाधमुपसं हियते पुनः । पराधंद्व्य कालान्ते शिवेन परमात्मना ॥७३॥ 
[बं नेचास्ति संसारै यच्च सर्वोत्तमबलम्‌। विहायेक जगन्नाथं परमात्मानमन्ययम्‌ ॥ 
तवा सातिशयं सर्व मतिमानं विचजंयेत्‌ । एवंभूतेजगत्यस्मिन्कःसुरःपण्डितो ऽपिवा 
|| नह्यस्ति सरवेवित्कश्चिन्न वा सूखोऽपि सचंतः । 
i यावस्तु घिजानाति तावत्तत्र सपण्डितः॥ १७६ ॥ 
Jमाधाने तु सर्वत्र प्रभावःसद्वश:स्मतः । वित्तस्यातिशयत्वेन प्रभावःकस्यचिटक्कचित्‌ _ 
[नवेनिजितादेचास्तेदेचैनिजिताःपुनः । इत्यन्योन्यंश्रितो लोको भाग्यैज॑यपराजयेः। | 
वर एवं चस्त्रयुगं राजञां प्रस्थमात्राम्वु भोजनम्‌ | 
| यान शय्यासनंचेव रोषं दुःखाय केचलम्‌ ॥ १७६ ॥ | 
पमेचापि भबले/खद्ब्रससत् ठागिमर /1 उदकर्त “जडनेश्स:करळेशाया्त;प्रविस्तर: ॥ 


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दु ` : .. ` + पादपम्‌ ॐ [ २ म्‌ 
.- अत्यूबे वूर्यनिघोषःसमं पुरनिवासिभिः। राज्ये५भिमानमात्र हि ममेदं वाद्यते ३ 
सर्वमाभरणं भारःसर्वमालेपनं मळम्‌। सवं प्रलपितं गीतं न्ृत्यसुन्मत्त चे 
इत्येचं राज्यसम्भोगैःकुतःसौख्यं विचारतः । | 

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नृपाणां विग्नहेचिन्ता वान्योन्य विजिगीषया ॥ १८३॥ | 
आयेण श्रीमदालेपान्नहुषाद्या महानपाः । स्वर्ग प्राप्तानि पतिता:कःश्रिया विन्दे 
स्वर्गेऽपि च कुतःसौख्यं दृष्ट्या दीप्तां परश्रियम्‌ । ॒ 
उपर्युपरि देचानामन्योन्यातिशय स्थिताम्‌ ॥ १८५ ॥ | 
नरै;पुण्यफळं स्वगे मूलच्छेदेन भुज्यते । न चान्यत्त्रियते के सोऽ दोषःसुत 
छिन्तमूळ तरुयेद्धदिवसेःपतति क्षितौ । पुण्यस्य संक्षयात्तद्वन्निपतन्ति दिवो, 
सुखाभिलाषनिष्ठानां सुखभोगादि सम्प्ल्वेः । | 
अकस्मात्पतितं दुःखं कष्ट स्वगे दिवौकसाम्‌ ॥ १८८ ॥ | 
इतिस्बगेऽपिदेवानांनास्तिसौख्यं विचारतः । क्षयश्चविषया सिद्ध स्वर्गेभोगायकान 
तत्रदुःखं महत्कएं नरकाग्निषु देहिनाम्‌। घोरेश्च चिविधैर्भावैर्वाङ्मनः कायसा, 
कुठारच्छेदनं तीव्र' घल्कलानां च तक्षणम्‌ | पर्णशाखा फलानां च पातश्चप्डेतव 
उन्पूळनान्नदी भिश्च गजैरन्येश्व देहिभिः । दावाग्नि हिमशोयैश्व दुःखं स्थावर ज| 
तद्वडुजङ्ग सर्पाणां क्रोधे: दुःखं च दारुणम्‌ । | 
दुष्टानां घातनं लोके पाशेन च निवन्धनम्‌॥ १६३ ॥ | 
अकस्माञ्जन्ममरणं कीरानां च सुहुमूहुः । सरीस्प निकायानामेवंः दुःखानये 
यशूनामात्मशमनं दण्ड ताडनमेच च । नासावेधेन सन्त्रासःप्रतोदेन सुताडनम्‌॥ 
खेत्रकाष्ठादि निगडेरङदोनाङ्गबन्धनम्‌। भावेन मनसाक्लेशैभिक्षायुवादि पीड 
आत्मयूथ वियोगैश्व वलान्नयन बन्धने । पशूनां सन्ति कायानामेवं दुःखान्यनेर 
वर्षा शीतातपादुदुखं-सखुकएं ग्रहपक्षिणाम्‌ । क्लेशमानाति कायानामेंचं दुःखात 
गर्भवासे महदुदुखं जन्मदुःखं तथा नृणाम्‌ । ` 


००-०. झुब्नाल्पकु अने; नप्रन्नाने कमठे मुर्शाउत्तस/ ॥ १४६६॥,.. . . ३ 


2 


cae ५५ ~ 


| पद्षष्टितमोऽध्यायः ] # प्रथमतः शरीरोत्पत्तिपूर्वंक शारीरचर्णनम्‌  . ` २२१ 


'यौचने कामरागास्यां दः खंचेवेष्यया 
is "णाऱ्या दुःखंचेवेष्यंया पुनः । कृषियाणिज्य सेवादयर्गोरक्षादिक कर्मभिः 
न वृद्धभावे च जरया व्याधिभिश्च प्रपीडनात्‌ । » 
| मरणे च महदुदुखं प्रार्थनायां ततोऽधिकम्‌ 
राजाग्नि जळदाघात चौरशत्रुभ 


प हेर ढुःखमन्योन्यतोभयं महत्‌। 
| न्योन्याच्च प्रकोपश्च राक्षोदुःखं महीभृताम्‌ ॥ २०६ ॥ 


शद्धत्सवेमिदंलोके दुःखं दुःखेन शाम्यति । अंन्योन्या तिशयोपेताःसर्वदा सोगसस्छूवाः 


| < 
है अमेक्षयाच्च देवानां दिवि दुःखमवस्थितम्‌ । 
। नानायोनि सहस्रेषु सम्भवःपुण्य संक्षयात्‌ ॥ २११ ॥ 
| रोगाश्च विविधाकारा देवलोकेऽपि संस्सृता: । 
| यज्ञस्य हि शिरश्छिन्नमश्विभ्यां संहितं पनः ॥ २१२ । 
| संहितं पुनः । 
- दी पुनः ॥ २१२ ॥ 


; on शि । मातेण्ड भानोःकुष्ठं च वरुणस्य जलोदरम्‌ ॥ 
व्ह सुजस्तम्भःशचीपते: । सुमहान्क्षयरोगश्व सोमस्य परिकीयित: ॥ 

[जअ खुमहानासीद्दक्षस्यापि प्रजापतेः । कल्पेकल्पे च देवानां महतामपि संक्षयः ॥ 
द्वय कालान्ते ब्रह्मणश्चाप्य नित्यता। दक्षस्य डुहितां पौत्रीं ब्रह्मा काभितचान्पुनः 
कोधेन च जयां देवीं योगज्ञां शत्तवान्परभुः । I 
कामक्रोधौ स्थितौ यत्र तत्र दोषास्तदात्मकाः ॥ २१७ ॥| 


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` सरर. | हा # पाद्यपुराणम्‌ # ह. २ गणू, 
खानि डा समस्तानिसं स्थितानि न संशय । चिशीर्णजन्ममरणं शेत्वंहरि 
खीवधःकामसक्तिश्व सारथ्यं पाण्डवे बळे । : | 

द्रेण त्रिपुरं दग्ध दक्षयज्ञ चिनाशितः ॥ २१६ ॥ - 

स्कन्दस्य जन्मचेशुक्रात्क्रीडादीवां सहस्तशः । ण्वं त्रयोऽपि रागादेव, 
'पम्यःपरःपरुः्शान्तःपरिपूर्णःखसुक्तिदः । एबलेतञ्जगत्सवंमन्योन्यातिशयेस्थिछ। 
'डुःखेराकुलितं ज्ञात्वा निर्वेदं परमं ब्रजेत्‌ । निवेंदाच्चविसगःस्या द्विरागाज्यान् 

ज्ञानेनतत्परंज्ञानं शिवंसु क्तिमवाप्डुयात्‌ । समस्तदुःख निर्मुक्तःस्वस्थात्मा स इन 

सर्वज्ञःपरिपूर्णश्च सुक्त इत्यभिधीयते ॥ २२३ ॥ पे 

मातलिख्वाच । ha 

उतत सर्वमाख्यातं यस्या परिएच्छितम्‌। धर्माधर्म विवेको हि सर्वेक्षानसपुहुक 

इन्द्रलोके प्रगन्तव्यं देवराजस्य शासनात्‌ ॥ २५५ ॥ ज 

इति श्रीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने पितूमातृतीथमाहात्मे| 


घट्षश्तिमो5ध्यायः ॥ ६६॥ म 
| 
|: 
तं 

सप्तषष्टितमो ऽध्यायः शि 

मनुष्यकृतानां सुकृतदुष्क्ृतकर्मणांविषाकः । | 
ययातिरुवाच । ग्य 


अस्मद्वाग्यप्रक्ेन भवतो दर्शनं मम । सञ्जातं शक्रसंवाह एतच्छेयो मातुलम्‌ 

मानवा मर्त्येळोके च पापं कुर्वन्ति दारुणम्‌। तेषां क्मेचिपाकं च मातले है| 
मातलिरुचाच । 

शरूयतामभिवास्यामिं प|पाचारस्य लक्षणम्‌ । श्रुतेसति महज्ज्ञानमत्रलोके 

चेदनिन्दां प्रकुर्व न्ति ब्रह्माचारस्य कुत्सनम्‌ । महापातकमेचापि ज्ञातव्यं 


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| दितमो ऽव्य र ०९१८ CR) 
| [सवडिवमोऽध्यायः ] # मनुष्यक्कतानां सुङुतदुष्छृतकर्मणांविपाकः # . `` 
है| ० | 
क साधूनामपि सर्वेषां यःपीडां हि समाचरेत्‌ । 
महापातकमेवापि प्रायश्चित्तेन हि ब्रजेत्‌ ॥ ५ ॥ 


२२३ 


कुलाचारं परित्यज्य अन्याचारं ब्रजन्ति च । एतच्चपातक घोरं कथितं कत्यवेदिमिः 
माता पित्रोश् या निन्दा ताडनं भगिनीछु च। पितृष्वसुनिन्दनं च तदेचपातकः भ्॒चम्‌ 
सम्प्राप्ते श्राद्धकाळे5 पि पञ्चक्रोशान्तरेस्थितम्‌ । 4 न 
| जामातरं परित्यज्य तथा च दुहितुःसुतम्‌ ॥ ८॥ 
$वसारंचेच स्वस्रीयं परित्यज्य 

पेतरोनेच भुञ्जन्ति देवाश्चैव न 
पनकाछेऽपि सम्प्राते आगते 


प्रेते । कामात्क्रोधाङ्कयाद्वापि अन्यं भोजयते यदा 

र क पातक तस्य पितृघात समंकृतम्‌ ॥१०॥ 

ते ब्राह्मणे किल । भूरिदानंपरित्यज्य कतिम्यो हि प्रदीयते 

le मयो हि प्रद 

(स्मे दीयते दानमन्येम्योऽपि न दीयते । एतच्च पातकं घोरं दानभ्र शकर॑ स्म्रतम्‌ 
यजमानगृह सेवा स॑स्थितान्ध्राह्मणान्निजान | 

परित्यज्य हि यद्दानं न दानस्य च लक्षणम्‌ ॥ १३ ॥ 


मिश्रित दि यं विप्रे धर्माचार समन्वितम्‌ । सर्वोपायेःसुपुष्येत्त सुदानेवेहुमिटप ॥ 
| समम्यच्पे विद्वांस प्राश्तविप्नं सदाहेयेत्‌। तं हि त्यक्तवा ददेद्दानमन्यस्मै ्राह्मणायचै 
त हुतं भवेत्तस्य निष्फल नात्र संशयः । ब्राह्मणःक्षत्रियो वेश्यःशूद्रश्चापि चतुर्थकः 
| सर्वेषु संभ्रेतं पूजयेद्‌द्विजम । मूख्वापि हि विद्वांसं तस्य पुण्यफळं श्य्णु 
| अश्वमेधस्य यज्ञस्य फळंतस्य प्रजायते । 

रड कस्माद्धिकारणाद्राजञ्छक्यं प्राप्य न कारयेत्‌॥ १८॥ 


विप्रःसमायातस्तत्काल॑ श्राद्धकर्मणि । उभौ तौ पूजयेत्तत्र भोजनाच्छाद्नैस्ततः 
एस्बूळद्‌क्षिणा भिश्च पितरस्तस्य हर्षिताः | ्राद्धभुक्ताय दातव्यं सदादानं च दक्षिणा 
पां न द्देच्छाद्वकर्ता यो गोहत्यादि समं भवेत्‌ । 


ऱ्या द्वावेतौ पूजयेत्तस्माच्छद्वया नृपसत्तम ॥ २१॥ 


प्रभावाद्दै तमेकं हि प्रपूजयेत्‌ । 'व्यतीपातेपिश्सम्प्राप्ते वैधृतौ च न्रपोत्तम ॥ 
जा तथा राजन्क्षयाहे$परपक्षके । श्राद्धमेव प्रकतेव्यं ब्राह्मणादि त्रिचर्णकेः ॥ 


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अर  अपाद्मपुराणम्‌ # ` . [रभूश्‍ 
यज्ञे तथा महाराज ऋत्विजश्च प्रकारयेत्‌ तथा विप्नाःप्रकतेव्यामथाडदानाय १ 
अविज्ञातःप्रकतेव्यो ब्राह्मणोनेव जानता । यस्यापि ज्ञायतेवंशःकुल निप 
आचाराश्च तथा राजन स्तं विप्र सन्निमन्त्रयेत्‌। ` | 
कुल न ज्ञायते यस्य आचारैणविचारयेत्‌॥ २६ ॥ ना 
्राद्धदाने प्रकत्तव्ये विशुद्धो मूखेएव हि । अविज्ञातो भवेडिपो वेदवेदाजूपा 
श्राडदानं प्रकर्तव्यं तस्मादिमं निमन्त्रयेत्‌। आतिथ्यं ठु परकतच्यमपूच च 
अन्यथा कुरुते पापी ख याति नरक शुषम्‌। | 
तस्माडिप्ःप्रकर्तव्यो दानेश्राद्धे च पवेखु ॥ ९९ ॥ | 
आदौ परीक्षयेद्विप्रं धाडधेदाने प्रकारयेत्‌ । नाइनन्ति तस्य चै गेहे पितरो 
, शापंदस्वा ततोयान्ति थराद्धाडिय्र चिवर्जितोत्‌। महापापीभवेत्सां5पित्रह्महासच * वि 
वैत्राचार परित्यज्य यो वर्तेत नरोत्तम। महापापी स विज्ञेयःसब घम वहि 
ये त्यजन्ति शिवाचारं वेष्णवं भोगदायकम्‌ । 
निन्दन्ति ब्राह्मणं धर्म विज्ञे याःपापवद्धनाः ॥ ३३ ॥ | 
ये त्यजन्ति शिवाचारं शिवभक्तान्द्विषन्ति च। हरि निन्दन्ति ये पापा ब्रह्मद्वेषक 
आचारनिन्दकायै ते महापातक कृत्तमाः। आचंपूज्यं परंज्ञान पुण्यंभागवतं ? 
चैष्णवं हरिवंशं चा मत्स्यं वा कूमेमेच च। . 
पादं चा ये पूजयन्ति तेषांश्रेयो वदास्यहम्‌ ॥ ३६ ॥ 
प्रत्यक्षं तेन वैदेवःपूजितो मधुसूदनः । तस्मात्प्रपूजयेउज्ञानं वेष्णवं विष्णुका, र 
देवस्थाने च नित्यं वे वैष्णवं पुस्तकं नप । तस्मिन्प्रपूजितेचिप्र पूजितः 
असम्पूज्य हरेज्ञानं येऽधीयते लिखन्ति च । जगा 
अज्ञाय तत्प्रयच्छन्ति शएणुवन्त्युञ्चारयन्ति च ॥ ३६॥ | 
विक्रीडन्ति च लोमेन कुज्ञान नियमेन च । असंस्कृत प्रदेशेषु यथेष्टं स्थापय 
हरिज्ञानं यथाक्षेमं प्रत्यक्षाच्च प्रकाशयेत्‌ । अधीते च समर्थश्च ण | 
अशुचिश्चाशुचौस्थाने यःप्रचक्ति श्टणौति च । इतिसवं समासेनज्ञ 


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 सत्तषष्टितमोःघ्यायः ] # मचुष्यंकृतानां खुछतदुष्छृतकर्मणां विपाकः ४ ै 

॥ शुरुपूजामरत्वेच यःशास्त्रं श्रोतुमिच्छति । 

| न करोति च शुधूषामाज्ञामङ्गं च भावतः ॥ ४३ ॥ 
नाभिनन्दति तद्वाक्यमुत्तरं सम्प्रयच्छति | गुरुकर्मणि साध्ये च तदुपेक्षां करोति च 


हातमा च विदेशं प्रथितं तथा । अरिभिःपरिभूतं वा यःसन्त्यजति पापक्ृतत्‌॥ 


न पुराण तु तस्यपाप वदाम्यहम्‌ । कुम्भीपाके घसेत्तावयाचदिन्द्राश्चतुदशा ॥ 


पठमानं गुरु यो हि उपेक्षयति पापधीः । 
तस्यापिपातकं घोरं चिरंनरकदायकम्‌ ॥ ४७॥ 
या पे मित्रेषु यश्चावज्ञांकरोति च। इत्येतत्पातकं ज्ञेयं शुरुनिन्दासमं महत्‌ ॥ 
ब्रह्महा स्वणस्तेयी च सुरापीणरुतदपगः । महापातकिनश्चैते तत्संयोगी च पञ्चमः ॥ 
(0012 दवेषाट्टयालोभादुब्राह्मणस्य विशेषतः । मर्मातिङन्तकोयश्च ब्रह्मप्नःसप्रकीतितः॥ 
|. ब्राह्मणं यःखमाइय याचमानमकिञ्चनम्‌ । 
| पश्चान्नास्तीति योत्र यात्स च वै ब्रह्महा रूप ॥ ५१॥ 
-सस्तुविद्यासिमानेन निस्तेजयति वै द्विजम्‌ । उदासीनं सभामन्ये ब्रह्महा सप्रकीतित 
[रथाय नयत्युत्कषेतां पुनः । गुरु विरोधयेद्यस्तु स च वे ब्रह्महास्स्ृतः ॥ 
| श्ुत्तषातप्तदेहानामन्नभोजनमिच्छताम्‌ । 
| यः समाचरते विघ्न तमाहुब्रह्मघातकम्‌॥ ५७ ॥ 
पिशुनःसर्वेलोकानां रन्धान्वेषणतत्परः । उद्देजनकरःक्ररः स च वै इ्ह्महास्म्तः ॥ 
१ द्विजगवांभूमि पूरवेदत्तां हरेत्तु यः। प्रनटामपि कालेन तमांहुव्रेह्राघातकम्‌ ॥ ५६ ॥ 
| 'पहरणं न्यासेनं समुपाजितम्‌ । ब्रह्महत्यासमंज्ञे यं तस्यपातकसुत्तमम्‌॥ 
। _ अग्निहोत्र परित्यज्य पक्चयज्ञादिकमे च । 
| मातापित्रोगरूणां च कूटसाक्ष्यं च यश्चरेत्‌ ॥ ५८॥ | 
ह परियंशिवभर्तानामभक्ष्याणां चं भक्षणम्‌ । घनेनिरपराधानां प्राणिनां च परमारणम्‌ 
र गचां - गोष्ठे, घने चाग्नेःपुरेग्रामे च दीपनम्‌। 
इति पापानि घोराणि सुरापान समानि तु ॥ ६०॥ 


(I Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


२२५. 


| 
` २२६ क 4 पाहपुराणम्‌ ॐ [र मे 
` . दीनसरवेस्वहरणं परस्त्री गजवाजिनाम्‌ । गो भूरजत वस्त्राणामौषधीनां रस; 
चन्दना गुरुकर्पर कस्तूरीपट्टवाससाम्‌। परन्यासापहरणं रुक्मस्तेयसमं स्फू' 
कन्याया वस्योग्याया अदानं सद्दहोबरे । पुत्रमित्रकलत्रेषु गमनं भगिनीघु च॥; 
कुमारी साहसं घोरमन्त्यजस्त्री निषेबणम्‌। सवर्णायाश्व गमन यख्तसपसा | 
महापातक तुल्यानि पापान्युक्तानि यानि तु । | 
तानि पातकसंज्ञानि तन्न्यूनमुपपातकम्‌॥ ६५ ॥ | 
दविजञायार्थ प्रतिज्ञाय न प्रयच्छति यः पुनः । तत्र विस्मरते विप्रस्तुल्यं तदुपपात 
द्विजद्रव्यापहरणं मर्यादाया व्यतिक्रमम्‌ । अतिमानातिकोपश्च दास्भिकत्वं इकत 
[ अन्यत्र चिषयासक्तिः कार्पण्यं शाख्य मत्सरम्‌ । | 
परदाराभिगमनं साध्वी कन्यामिदूषणम्‌ ॥ ६८॥ | 
परिवित्तिःपरिवेत्ता ययाच परिविद्यते । तयोर्दानं च कन्यायारुतयोरैच च याल 
पुत्रमित्र कलत्राणामभावे स्चामिनस्तथा । | 
भार्याणां च परित्योगःसाधूनां च तपस्विनाम्‌ ॥ ७० ॥ । 
गवां क्षत्रिय वेश्यानां स्त्रीशूद्राणां च घातनम्‌। । 
शिवायतन वृक्षाणां पुष्पाराम विनाशनम्‌ ॥ ७१ ॥ | 
यःपी डामाश्रमस्थानामाचरेदल्पिकामपि । तदुभ्रत्यपरिवर्यस्य पशुधान्य घनस्य 
वस्त्र धान्य पशुस्तेयमयाज्यानां च याजनम्‌। यज्ञारामतडागानां दारापत्यस्यकि 
तीर्थयात्रोपचासानां ब्रतानां च सुकमेणाम्‌। | 
स्त्रीघनान्युपजीवन्ति स्त्रीमवाय्न्नजीबिताः ॥ ७४ ॥ | 
स्वधमं वित्रयाचस्तु अधमं चर्णतेनरः । परदोषप्रचादी च परच्छिद्रावलोक 
परद्रव्या मिळाषी च परदाराचलोककः । एते गोघ्न्मानाश्च ज्ञोतव्या नृपवरः 
. `-यःकर्ता सर्वशास्त्राणां गोहर्तागोश्च विक्रयी । निर्दयो5तीवभत्येषु पनां दमः 
` मिथ्या प्रबदते बाचनाकर्णयतियः' परैः 1 स्वामित्रोही -गुरुद्रोही मायावी चपळ 
यो भार्या पुत्रमित्राणि चाळवडङशातुरान 


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] | खं्तषष्टितमोऽध्यायः ] # मचुष्यकृतानां खुछतदुष्छृतकर्मणां विपाकः # २२७ 
"ह भत्यानतिथिवन्धूश्च त्यक्तवा५श्नाति चुसुक्षितान्‌॥ ७६ ॥. ` 

i ` यस्तुस्ष्टं समश्नाति नो चाप्यन्नं ददाति च | 

$: पृथक्पाकी सविज्ञेयो ब्रह्मबादिषु गर्हितः ॥ ८०॥ 
१ नियमान्स्वयमादाय ये त्यजन्त्यजितेन्द्रियाः । प्रबज्यागमितायैश्च सँयुक्ताये च मद्यपैः 
ये चापि क्षयरोगार्ता' गांपिपासा क्रुधातुराम्‌। . 

| न पालयन्ति यत्नेन ते गोप्ता नारकाःस्सुताः ॥ ८२ ॥ 

४ सवेपापरता ये च चतुष्पात्क्षेत्रमेदकाः । साधून्विप्रान्गुरूश्चैव यञ्चगां हि प्रताडयेत्‌ ॥ 
| ये ताडयन्त्य दोषां च नारीं साधु पदे स्थिताम्‌ । 

| आळस्यवद्ध सर्चाङ्गो यःस्वपिति मुहुमुहुः ॥ ८४ ॥ 

| ुरवेलांश्च न पुष्णन्ति नणान्नान्वेषयन्ति च | पीडयन्त्यतिमारेण सक्षतान्वाहयन्ति च 
॥ सर्वपापरता ये च संयुक्ता ये च भुज्ञते । भम्नाड़ीं क्षतरोगार्ता' गोरूपाँ च क्षुघातुराम्‌ 

नन पालयन्ति यत्नेन तेजना नारकाःस्घुता:। वृषाणां वृषणौ ये च पापिष्ठाघातयन्ति च 

| वाधयन्ति च गोवत्साम्महानारकिणो नराः । 

| आशयाखमनुप्राप्त क्वुत्तषाश्रमपीडितम्‌ ॥ ८८॥ 

।यचातिथि न मन्यन्ते ते वै निरयगामिनः । अनाथं चिकलं दीनं वाळं बद्ध भृशातुरम्‌ 
ग\नानुकम्पन्तिये सूढास्ते यान्तिनरकाणेवम्‌ । अजाविको माहिषिको य:गूद्रावृषलीपति 
कि| शूद्रो चिप्रस्यक्षचस्य ये ओचारेण वतेते । शिल्पिनःकारवोवैद्यास्तथादेवलकानराः ॥ 

। भ्रतकामात्यकर्माणःसर्वे निरयगामिनः । 

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यश्चो दितमतिक्रस्य स्वेच्छया आहरेत्करम्‌॥ ६२ ॥ 
नरकेषु सपच्येत यश्च दण्डं बृथा नयेत्‌ । उत्कोचकेरधिङतैरुतस्करेश्चप्रपीञ्यते॥६३॥ 
हयस्य राज्ञाःप्रजा राज्ये पच्यते नरकेषु सः । ये द्विजा:प्रतिग्रहन्ति न्ृपस्यान्यायचतिनः 
यान्ति तेऽपि घोरेषु नरकेषु न संशयः । परदारिक चौराणां यत्पापं पा्थिचस्य च 
कँ भवत्यरक्षलो घोरो राज्ञस्तस्य परिग्रहः। 
अचोरं चौरवद्यश्च चौरं चाचोरवत्पुनः॥ ६६ ॥' .- - . 


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Co. :: # पाद्मपुराणम्‌ & ` . [२ भू 
अविचार्य दपःकुर्यात्सो5पि वै नरक व्रजेत्‌ | शुत तैळान्नपानादि. मधुमांस सुर 
' ` गुडेक्षु क्षीर शाकादि दघिमूळ फलानि च । तृणकाष्ठं पुष्पपत्रं कांस्यं. रजतमेव 
उपानच्छत्र करक शिविकामासनं खडु । ताम्र सीसं त्रपुकार्स्य शाङ्खाधं च जले, 
वादित्रं वेणुवंशाद्यं ग्रहोपस्करणानि च। 
ऊर्णाकार्पास कौशेय रङ्गपझ्ोद्वघानि च॥ १०० ॥ 
तूलं सूक्ष्माणि वस्त्राणि ये लोभेन हरन्ति च। 
एवमादीनि चान्यानि द्रव्याणि विविधानि च ॥ १०१॥ 
नरकेषु हुतं गच्छेद्पहत्याल्पकान्यपि। यद्वा तद्वा परद्रव्यमपि सरषपमात्रकम्‌ १४ 
अपहृत्य नरोयाति नरके नात्रसंशयः | बहृल्पकाद्यपि तथा परस्य ममता' कृतम्‌ 
अपहत्य नरोयाति नरके नात्रसंशयः । एवमाचैर्नरःपापैरुत्क्रान्ति समनन्तरम्‌ ॥६ 
शरीर घातनार्थाय पूर्चाकारमचाप्नुयात्‌ । | 


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यमलोक ब्रजन्त्येते शरीरस्था यमाज्ञया ॥ १०५॥ हो Ef 
यमदूतेमेहाघोरेनीयमानाःसुदुःखिताः । देवतीयडः मजुष्याणामधर्म नियतात्मा : 


SC 


धर्मेराजःस्सृतःशास्ता सुघोरेचि विधैवधैः । | 
चिनयाचारयुक्तानां प्रमादान्मलिनात्मनाम्‌ ॥ १०७ ॥ | 


प्रायश्चितैगंरुशास्ता न च तैरीक्ष्यते यमः । पारदारिकचौराणामन्याय व्यवहारिष : 
नपतिःशासक:प्रोक्त:प्रच्छज्नानां च धमेराट्‌ । तस्मात्छृतस्यपापस्य प्रायश्वित्त॑समावं : 


नाभुक्तस्यान्यथा नाशःकल्पकोटिशतेरपि । | 
यःकरोति स्वयंकमे कारयेद्वानुमोद्येत्‌ ॥ ११० ॥ | 
कायेन मनसावाचा तस्यचाधोगतिःफलम्‌। इति संक्षेपतःप्रोक्ताःपापभेदास्त्रियाश 
कथ्यन्ते गतयश्चित्रा नराणां पापकर्मणाम्‌ ।.. > ष्य 
एतत्ते गृपतेऽधर्मं फलं प्रोक्तं सुविस्तरात्‌ ॥ ११२॥ | 


' अन्यत्कि ते प्रवक्ष्यामि तन्मेत् हि नरोत्तम । अधर्मस्य फलं प्रोत्तं घरमस्यापिवदाख 
इत्याह मातलिस्तत्र राजानं सवेघत्सलम्‌ । 


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अंष्टषछितमोञ्ध्यायः ] क्ष खुकतकमंफलकथनम्‌ ॐ । दर्श 


॥। तस्मिन्धमेप्रसङ्गेन इत्याख्यातं महात्मना ॥ ११४१ + 
\ इति श्री पाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने पितृतीर्थचर्णने 


१... सपतषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७॥ 
| अष्टषष्टितमो ऽध्यायः 
सुकृतकमफलकथनम्‌ । 
| ययातिरुवाच । 
[४ अधमस्य फळं सूत श्रुतं सवे मया विभो । धर्मस्यापि फळं त्र हि श्रोत॑ कौतुहलं .मम 
मातलिरुवाच । 
अथ पापैरिमे यान्ति यमलोक चतुविधा । सन््रासजननं घोरं चिचशाःसर्वदे हिनः ॥२॥ 
॥| गर्भस्थैजायमानेश्च वालैस्तरुण मध्यमैः । पंस्त्रीनपंसकेवृ दवर्यातव्यं जन्तुमिस्ततः ॥३॥ 
शुभाशुभफलं तत्र देहिनां प्रविचायते । 


| चित्रगुत्तादिमिःसवेमंध्यस्थेःसवंदर्शिमिः ॥ ४ ॥ 
ए। न तेऽत्रपाणिनःसन्ति येन यान्तियमक्षयम्‌। अवश्यं हि छृतंकमे भोक्तव्यंतदि 
द 'ये तत्र शुभकर्माणःसौम्य चित्ताद्यान्विताः । ते नरा यान्ति सौस्येन 
| यःप्रद्द्या्च चिप्राणासुपानत्काष्ठपादुके। स विमानेन महता सुखंयाति यमाळ्यम्‌॥ ७ 
| छत्रदानेन गच्छन्ति पथा साभ्रे णदेहिनः। ` 
शु दिव्यवस्त्र परीधाना यान्ति चस्त्रप्रदायिनः ॥८॥ . 
। शिबिकायाःप्रदानेन विमानेन सुखं त्रजेत्‌ । सुखासन प्रदानेन सुखंयान्ति यमालयम्‌। 
। आरामकर्ता छायासु शीतलासु सुखंत्रजेत्‌ । यान्ति पुष्पकयानेन पुष्पाराम प्रदायिन 
र देवायतनकर्ता च यत्तीनामाश्रमस्य च । अनाथमण्डपानां च क्रीडन्याति ग्रहोत्तमेः | 
देवाथि गुरुविप्राणां मातापित्रोश्च पूजकः ॥ १२॥ . 


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७. 


टक, री क || 
50 ३ ६ 


“क . _ ® पापुराणम्‌ ॐ ई भू 
विप्रेषु दीनेषु गुणान्वितेषु यच्छद्धया स्चडपमपि प्रदत्तम्‌। : | 
तत्संवकामान्समुपैति लोके श्राद्धे च दानं प्रवदन्ति सन्तः ॥ १३॥ ` | 

श्रद्धादानेन चिज्ञेयमपि घालाग्रमात्रकम्‌ । यत्पात्रादि चतुष्टयं श्रद्धा तेषु सदाममा; | 

-्रद्धीयतेसदातस्माच्छद्वायास्तत्फल भवेत्‌ । गुणान्वितेषु दीनेषुयच्छत्त्यावसथाह' 
स प्रयाति सवेकामं स्थानंपेतामहं नृप । | 
श्रद्धया येन विप्राय दत्तं काकिणिमात्रकम्‌॥ १६ ॥ स्‌ 

स स्याद्विव्यातिथिर्भूप देवानां कीतिवर्धेनः। तस्माच्छद्धान्वितेद यंतत्फल भवत््रिक 

इति श्री पाद्यपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने माठृपितृतीर्थवर्णने ययाति 

अष्टपश्तिमो5ध्यायः ॥ ६८ ॥ | | 


ना 


ऊनसप्ततितमो ऽध्यायः 


. विविधशिवधमकथनस्‌ । 
मातलिरुबौच । ३ 
अथ धर्माः शिवेनोक्ताः शिवधर्मागमोत्तमाः । ज्ञेया बहुविधास्ते च कमेयोग प्रभेदः 

' हिंसादिदोषनिर्मुक्ताःछु शायासविवजिता । सवंभूतहिता:शुद्धा:सूक्ष्माया सा महता 

: अनन्तशाखाकलिता:शिवमूटोकसंश्रिता: । ज्ञानध्यानसुपुष्पा्याःशिवधर्माःसनाळ 
धारयन्ति शिवंयस्माद्धायते शिवभाषितैः। | 

शिवधर्माःस्म्ृतास्तस्मात्संसारार्णवतारकाः॥ ४॥ | | 

तंथा5हिसा क्षमा सत्यं हीःश्रद्धेन्द्रियसंयमः । दांनमिज्या तपोदानं दशकं घर्मेसाई 

` - अथव्यस्तैःसमस्तैचां शिवधमैंरनृष्ठितेः। शिवेकरस्य सम्प्राप्तैरगतिरेकेव कल्ए| 
| यथाभूःसवेभूतानां स्थानं साधारणं स्मृतम्‌। ˆ . र । 


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१ ऊनसप्ततितमोडध्यायः ] # विविधशिवधर्मकथनम्‌ ३ दळ 
यथेह सर्वेभूतानां भोगाःसातिशयाःस्सृताः । नानापुण्यविशेषेण भोगाः शिवपुरे तथा 
शुभाशुभफळंचापि भुज्यते सर्वदेहिमिः । शिवधमस्य चैकस्य फलं तत्रोपभुञ्यते ॥ 

|. यस्य याद्वग्भवेत्पुण्य॑ श्रद्धापात्र विरोषतः। भोगाःशिषपुरे तस्य ज्ञे याःसातिशयाःशुभा 

पे, स्थानप्रापिःपरंतुल्या भोगाःशान्तिमयाःस्थिताः। - - 

| कुयात्पुण्यं महत्तस्मान्महाभोगजिगीषया ॥ ११ ॥ 

सर्वातिशयमेचैकं भोवितं च सुरोत्तमैः । आत्ममोगाधिपत्यंस्या च्छिवःसर्वजगत्पति 
भे केचित्तत्रेच सुच्यन्ते ज्ञानयोगरता नराः । आवतेन्ते पुनश्चान्ये संसारेभोगतत्पराः ॥ 
वाः तस्माद्विमुक्तिमिच्छंस्तु भोगासक्ति च वर्जयेत्‌ । 

| विरक्तःशान्तिचित्तात्मों शिवज्ञानमवाप्चुयात्‌ ॥ १४ ॥ 

ये चापीशान्यद्ृदया यजन्तीशं प्रसङ्गतः । तेषामपि ददादीशःस्थानं भावानुरूपतः ॥ 

तत्राचेयन्ति ये रुद्रं स छदुंच्छिन कल्मषा: | तेषां पिशाचलोकेषु भोगांनीशःप्रयच्छति 

सन्तप्तादुःखभारैण श्रियन्तेसवंदेहिनः | अन्नदःपुण्यदःप्राक्तःप्राणदश्वापि सर्वदः ॥१७॥ 

| तस्मादन्नप्रदानेन सर्वदानफलं लमेत्‌। | 

| जैलोक्ये यानिरत्नानि भोगस्त्रीवाहनानि च ॥ १८॥ | 
अन्नदानप्रदःसर्वमिहामुत्रफलं लमेत्‌ । यस्यान्नपान पुष्टाङ्ग:कुरुते पुण्यसञ्चयम्‌॥ | 
द्‌ अन्नप्रदातुस्तस्याधं कर्तुश्चार्घं न संशयः । धर्मार्थेकाममोक्षाणां देहः परमसाधनम्‌॥ | 

य स्थितिस्तस्यान्नपानाम्यामतस्तत्सवंसाधनम्‌ । 

ह अन्नं प्रजापतिःसाक्षादन्नं विष्णुः शिवःस्वयम्‌॥ २१ ॥ 

तस्मादन्नसमंदानं न भूतं न भविष्यति । त्रयाणामपि लोकानामुद्कं जीचनंस्म्वतम्‌ ॥ 
पचित्रमुदक दिव्य शुद्धंसवेरसायनम्‌ । अन्नपानाश्वगो वस्त्र शय्यासूत्रासनानि च ॥ 

। | प्रेतलोके प्रशस्तानि दानान्यष्टौ विशेषतः । 

पत एवंदानविशेषेण धर्मराज पुरं नरः॥ २४॥ 

यस्माद्यातिसुखेनैव तस्माद्वमं समाचरेत्‌ । ये पुनःक्रर्कर्माणःपापादानविचजिताः॥ 
भुञ्जते दारुणंदुःखं नरके नृपनन्दन । तथासुख प्रसुञ्जन्ति दानकर्तार एच तु॥ २६॥ 


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" ४३९ ` र # पाहपुराणम्‌ # - [२ मू 

तेषां तु सम्भवेत्सौख्यं कमंयोगरतात्मनाम्‌। अप्रमेयणुणै दिव्यैचिमानै सरेका 
न असङ्ख्येस्तत्पुरंव्याप्तं प्राणिनासुपकारक: । 
सहस्रसोमदिव्यं वा सूर्यतेजःसमप्रभम्‌ ॥ २८ ॥ 

स्द्रलोकमितिप्रोक्तमशेषणुणसंयुतम्‌ । सर्वेबांशिवभक्तानां तत्पुरं परिकीतितन 
रुद्क्षेत्रे सृतानां च जङ्गमस्थावरात्मनाम्‌ । अप्येकदिवर्स भक्त्या यः पूजयति १; 

सो5पि याति शिवस्थानं किंपुनवहुशो5चैयन । | 
वैष्णचा विष्णुभक्ताश्च विष्णुध्यानपरायणाः ॥ ३१ ॥ रा 

Ff 

तेऽपिगच्छन्ति वैकुण्ठे समीपं देचचक्रिणः। त्रह्मयादी च धमात्मा ्रह्मलोकंप्रयाति! 
पुण्यकर्तासु पुण्येन पुण्यलोकं प्रयाति च । तस्मादीरो सदाभक्ति सावयेदात्मनाह 

हरौचापि महाराज युक्तात्मा ज्ञानचान्स्वयम्‌ | 

| तस्मात्सर्वविचारैण भावदोष विचारतः ॥ ३४॥ | | 

एवं विष्णप्रभावेन चिशिष्टेनापि कर्मणा । नरेःस्थानमवाप्येत देशभावानुरफा; 

इत्येतद्परंप्रोक्त श्रीमच्छिवपुरंमहत्‌ । देहिनां कर्मनिष्ठानां पुनराचत्तेक् स्सृतम्‌॥ । 
ऊदुध्वं शिवपुराज्ज्ञ य॑ चैष्णवंलोकसुत्तमम्‌। ' गा 

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वेष्णवामानवा यान्ति विष्णुध्यानपरायणाः ॥ ३७॥ , | 
ब्राह्मणा ब्रह्मलोकं तु सदाचारा नरोत्तमाः। प्रयान्ति यञ्चिनःसवे पुरींतांतत्त्वकोरि 
ऐन्द्रलोक तथा यान्ति क्षत्त्रिया युद्धशालिनः । 
अन्ये च पुण्यकर्ततारःपुण्यलोकान्प्रयान्ति ते ॥ ३६ ॥ 
_ इति थ्री पाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने पितृततीर्थे ययातिचरित ₹ 
पकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६६॥ । 


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| सप्ततितमो ऽध्यायः' 
। ` मह्वादारुणयमलोकपीडावर्णनम्‌ । . 
| . मातलिरुवाच ! 


[मपीडां प्रवक्ष्यामि महातीवां सुदारुणाम्‌ । भुक्षते पापिनःसर्बै क्ूरास्ते ब्रह्मघातकाः 
म्या 'तीत्रे ण करिपाञ्चिना। कचित्सिहैद कैव्य प्रि्ेश:कीटैश् दारुणैः 
!चिन्महाजलोकामि:कचिदाजगरे:पुनः । मक्षिकासिश्च रौद्रामि:कचित्सपेविषोल्वणे: 
ऐत्तमातडूयूथेश् वलोत्छछैःप्रमाथिभिः । पन्थानसुह्लिखङ्गिश्च तीक्ष्णश्टङ्ग महावृषे: ॥ 
| ` झहाम्रङ्घेश्व महिपैढुएगात्र प्रवाधकेः। `... 
| डाकिनी भिश्च रोद्रामिविकरालैश्च राकसैः ॥ ५ ॥ 
प्त | रैः त्र 'न्ति ७ 
बहिनि महाघोरे: पीड्यमानाः बजन्ति ते । महातुळांसमारूढा दह्यमाना दवानले: 
| दावेगप्रधूतास्तै महाचण्डेन वायुना । महापाषाणवर्षेण भिद्यमानाञ्च सर्वतः ॥ 
द्ववज निर्घोषेरुल्कापातेथ्च..दारुणे: । प्रदीपाङ्गारचर्षण इन्यमाना घजन्ति ते ॥ 
| महतापां सुवर्षण पूर्यमाणा यमङ्गताः । 
हि ये नराःपापकर्माणःपापंभुञ्चन्ति दारुणम्‌ ॥ ६॥ 
| एवं पापविशेषेण पापिष्टाःपापकारकाः। _ | 
| नरक प्रतिभुञ्जन्ति बंहुपीडा समाकुलम्‌ ॥ १०॥ ` 
ते So ds ७ विवेक “ 
तै त्ेसवेमाख्यातं विवेक पुण्यपापयोः । अन्यत्कि ते प्रवक्ष्यामि धमेशास्त्रमनुत्तमम्‌ 
| श्री पाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे घेनोपाख्याने पितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्र 
| ३; ल्या सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥ र 
| pe Fe 
| 
1 व 
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एकप्तप्ततितमो 5ध्यायः र 
' देवळोकसंस्थानवर्णनम्‌ । गे 


ययातिरुवाच । | 

यस्वयासर्वमाख्यातँ धर्माधर्ममनुत्तमम्‌ । श्टण्वतो5थ ममश्रद्धा पुनरेव प्रयतते 

देवानां लोकसंस्थानां चद्सङ्ख्याःप्रकीतिताः । यस्यपुण्यप्रसङ्गेन येनप्राप्तेच i 

मातलिरुघाच । | | 

योगयुक्तं प्रवक्ष्यामि तपसायडुपाजितम्‌ । देवानाँ लोकसंस्थानं खुलभोगपरदंक 
घर्मभावं प्रवक्ष्यामि आयासैरजितं पृथक्‌ । उपरिष्टाउच छोकानांस्वरूपंचाप्यकु 
तत्राषटणुणमैश्वय पार्थिवं पिशिताशिनाम्‌ । | 
तस्मात्सद्योगतानां च नराणां तत्समं स्खतम्‌ ॥ ५॥ | 

रक्षसां षोडशगुणं पार्थिवानां च तद्विधम्‌। एवं निरवशेषं च यच्छेषं कुल्ला 

गन्धर्वाणां च चायव्यं याक्षं च सकल स्घतम्‌। . | 


पाञ्चमौतिकमिन्द्रस्य चत्वारिशद्गुणंमहत्‌ ॥ 9 ॥ 
सोमस्य मानसं दिव्यं चिशवेशंपाञ्चमो तिकम्‌ । सौम्यंप्रजापतीशानामहड्डारगुणा 
चतुष्षश्गुणंत्राह्म॑ बौधमैश्वर्यमुत्तमम्‌ । विष्णोःप्राधानिकं तन्तरमैश्वयं रा 
श्रीमच्छिवपुरेदिव्ये ऐश्वर्य सवेकामिकम्‌ । अनन्तणुणमैश्वयं शिवस्यात्मगुणपु 
.. आदिमध्यान्तरहितं विशुद्ध तत्त्वलक्षणम्‌ । ब 
. सर्वाचमासक सूक्ष्ममनौपस्यं परात्परम्‌ ॥ ११ ॥. जज | 
खुसम्पूर्ण जगद्वेषं पशुपाश विमोक्षणम्‌। यो यत्स्थानमनुप्रापस्तस्य भोगस्त 
विमान तत्समानं च भवेदीश प्रसादतः। नानारूपाणि ताराणां दृश्यन्तेकोर््या 
अष्टाविशतिरेवं,ते सन्दोप्ताःसुक्रतात्मनाम्‌ । 


००० "झै, कवेन्ति नमस्कारमीश्वराय,कच्चिक् चित ॥ १५. 


[कसप्ततितमो5ध्यायः ] # देवलोकसंस्थानवर्णनम्‌ # २३५ 


म्पर्कात्कोतुकाळ्लोभात्तद्विमानं लभन्ति ते नामस्डीतंनाद्वा पि प्रसङ्गेन शिवस्य य 
्याद्वापि नमस्कारं न तस्य विळयो भवेत्‌ । इत्येतागतयस्तत्र महः्यःशिवकमेणि ॥ 
समंणाम्यन्तरेणापि पुंसामीशानभाषतः । प्रसङ्गनापि ये कुर्य शङ्करस्मरणंनराः ॥१७॥ 
| तळभ्यंत्वतुळंसौख्यं किपुनस्तत्परायणैः | 
| विष्णुचिन्तां प्रकुषेन्ति ध्यानेन गतमानसा ॥ १८॥ 

यान्ति परमंस्थानं तक्विष्णो:परमंपदम्‌ । शैव च वैष्णवं रूपमेकरूपं नरोत्तम ॥ १९॥ 
प्रोश्व॒ अन्तरंनास्ति एकरूप महात्मनोः । शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णचे ॥ 
रस्य हृद्य विष्णुविष्णोश्व हृदयंशिवः । एकमूर्तिस्त्रयोदेवा ब्रह्मचिष्णुमहेश्वराः ॥ 
| चयाणामन्तरंनास्ति गुणभेदाःप्रकीर्तिताः | 
क) शिवभक्तोऽसि राजेन्द्र तथा भागवतो सि बै ॥ २२॥ 

| तेन देवाःप्रसन्नास्ते त्रह्मविष्णुमहेश्वराः। 

| झुधीता वरदा राजन्कर्मणस्तव सुब्रत ॥ २३॥ 
ितदेशात्समायात सन्निधौ तवमानद्‌ । ऐन्द्रमेनं पदंयाहि पश्चादुत्राह्मंमहेश्वरम्‌॥२४॥ 

णवं च प्रयाहि त्यं दाहप्रलयवजितम्‌ । अनेनापि घिमानेन दिव्येन सर्वगामिना ॥ 
द्व्यमूतिरतोभुङ्क्ष्व दिव्यभोगान्मनोरमान्‌। 
समारुह्य घिमानं त्वं पुष्पकं सुखगामिनम्‌ ॥ २६ ॥ 

शा सुकर्माचाच । 
णधुक्वा द्विजश्रेष्ठ मौनवान्मातलिस्तदा । राजानं धर्मतत्त्वज्ञ ययाति नहुषात्मजम्‌ ॥ 

| 

इतिश्री पाझपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेमाता पितृतीर्थेययातिच रत्रौ 
प॒कसत्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥ 


क. 


—— णय णणाण 


क 
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जा ता 


द्विसप्ततितमो 5व्याय | 
ययातिनास्वशरीरग्रसंसापू्वकं स्वर्गागमनास्वीकरणम्‌ | 
पिप्पल उवाच | 
मातलेश्च बचःश्चत्वा सराजा नहुषात्मजः । किंचकार मदाप्राज्ञस्तन्मे विस्त 
सर्वपुण्यमयीपुण्या कथेयं पोपनाशिनी । श्रोतुमिच्छाम्यहं प्राज्ञ नेवतृप्यामिस 
सुकर्मोचाच । 
. सर्वधर्मभृतांश्रे्ो ययातिद पसत्तमः । तमुवाचागतदूतं मातलि शक्रसारथि। 
शरीरंनैवत्यक्ष्यामि यमिष्ये न दिवं पुनः । शरीरैणविनादूत पार्थिवेन न संश 
यद्यप्येचं महादोषाःकायस्यैव प्रकीतिताः। पूर्चचापि समाख्यातंत्वयासवंगुषमा 
नाहंत्यक्ष्ये शरीरं वै नागमिष्ये दिवंपुनः । | 
इत्याचक्ष्व इतोगत्वा देवदेवं .पुरन्द्रम्‌॥ ६ ॥ | 
एकाकिना हि जीवेन कायेनापि महामते । नेवसिद्धि प्रयात्येयं सांसारिक 
नैव प्राणंचिनाकायो जीवःकायंविना न हि । 'उभयोश्चापि मित्रत्वं नयिष्ये 
यस्य प्रसादभावाद्वे खुखमश्चाति केचलम्‌ । 
शरीरस्याप्ययं प्राणो भोगानन्यान्मनोऽनुगान्‌॥ ६ ॥ 
एवंज्ञात्वा स्वर्गभोग्यं न भोज्यं देवदूतक । 
सम्भवन्ति महादुष्टा व्याधयो दुःखदायकाः ॥ १० ॥ 
मातले किल्विषाच्चेच जरादोषात्प्रजायते । पश्य मे पुण्यसंयुक्तं काय 
जन्मप्रश्रति मे कायःशतार्धाब्दंप्रयाति च । तथापि नूतनोभाव 
ममकाळोगतो दूत अब्दानांशतमुत्तमम्‌। 
यथा षोडशवर्षस्य कायःपंसःप्रशोभते ॥ १३ ॥ 


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॥ 

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i 
यथा मै M शोभतेदेही , बर दी येसमलि [लः राति मे हानि व्याक 


बा 


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ऐसप्ततितमो5ध्याय: ] * मातलेरिन्द्रेप्रतिगमनम्‌ # २३७ ` 
[वळे ममकायोऽपि घरमोत्साहेन वर्डते । सर्वासतमयं दिव्यमौषधं परमौषधम्‌ ॥ .. 
पापव्याधि प्रणाशार्थ घर्माख्यंहि कृतस्पुरा | द 
तेन मे शोधितःकायो गतदोषस्तु जायते ॥ १६॥ 

ब्रीकेशस्य सन्धानं नामोच्चारणमुत्तमम्‌ । एतद्रसायनं दूत नित्यमेवं करोम्यहम्‌ ॥ 
1 तेन मे व्याधयो दोषाः पापाद्याःप्रळ्यंगताः । 
| . विद्यमाने हि संसारे कृष्णनास्नि महोषधे ॥ १८॥ 
गनचा मरणंयान्ति पापव्याधि प्रपीडिताः। न पिवन्तिमहामूढाःछण्णनामरसायनम्‌ 
[व्यानेन ज्ञानेन पूजाभावेन मातले | सत्येन दानपुण्येन ममकायो “निरामयः ॥२०॥ 
|  पापद्धेरामयाःपीडा:प्रभवन्ति शरीरिणः | 
|. पीडाभ्यो जातयेश्त्युःप्राणिनां नात्रसंशयः ॥ २१ ॥ 
पाद्धमे:भकतेव्य:पुण्यसत्याधरयेनर: | पञ्चभूतात्मक:काय:शिरासन्थिविजर्जर: | 
। एवं सन्धीकृतोमत्यो हेमकारीच य्ड्णैः 
। तत्रभाति महानग्निद्धातुरेवचरःसदा ॥ २३ || 
लिण्डमये विप्रः संधत्ते स बुद्धिमान्‌। हरेनाम्ना च दिव्येन सौभाग्येनापि पिप्पळ: 
त्मका दिये खण्डाशतसन्धिविजजेराः । तेनंसन्धारिता:सर्वे कायोधातुसमोभवेत्‌ 
। इरे'पूजोपचारेण ध्यानेन नियमेन च। 

। सत्यभावेन दानेन नूल्ःकायो विजायते ॥ २६ ॥ 

| नश्यन्ति कायस्य व्याधयःश्टणुमातले । वाह्याभ्यन्तरशोचं हि ढुगेन्धिनेवजायते 
स्ततो भवेत्सूत प्रसादात्तस्य चक्रिण: । नाहं स्वगंगमिष्या मिस्वर्गमत्रकरोम्यहम्‌ 
चैव भावेन स्वधर्मेण महीतलम्‌ । स्व्गरूपं करिष्यामि प्रसादात्तस्यचक्रिणः | 
प॥ एवं जञात्वा प्रयाहि त्वं कथयस्व पुरन्द्रम्‌ ॥ ३०॥ 

| सुकर्मोचाच । 

कण्येतत: सूतो नृपतेःपरिभाषितम्‌ । आशीसिरमिनन्याथ आमन्भ्य नुपतिंगतः 


निवेदयामास शाम, महे चार. सहलाङ्को,अवातेस्तु ध्महात्मन: 


3 | 
२३८ - 5 ~ पपन पाद्यपुराणम्‌ क १ [र ष 
| «, तस्याथ चिन्तयामासानयनाथ दिवंप्रति ॥ ३३ ॥ 
` इतिश्रीपाद्मपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेबेनोपा्यानेमातापिठृतीर्थययातिचणि| 
सप्ततितमो 5ध्यायः ॥ ७२ ॥ 


होटल हलले >>>" 


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त्रिसप्ततितमो ऽध्यायः 
ययातिना स्त्राज्येविषगुसेवाज्ञोद्वोषणम्‌ । 
पिप्पल उवाच | | 
नतेवस्मिन्महाभागे दूतइन्द्रस्य वै पुनः । किचकार सधर्मात्मा ययातिनेहुपात 
सुकर्मोंचाच । 


तस्मिन्गते देववरस्यदूते सचिन्तयामास नरेन्द्रसूचः । 
आहुयंदूतान्प्रवरान्ससत्घरं धर्माथेयुक्तंवच आदिदेशः ॥ २॥ 
गच्छन्तुदूताःप्रवराःपुरोत्तमे देशेषु द्वीपेष्वखिलेषुलोके । 
कुर्वन्तुचाक्यं ममधमेयुक्तं बजन्तु लोकाःसुपथा हरेश्च ॥ ३॥ 
भाचे स॒पुण्यैरखतोपमानैध्यनिश्चज्ञानैय जनेस्तपो भि | 
यज्ञश्च दानेमंघुसूदनेकमचेन्तुलोकाधिषयान्विहाय ॥ ४॥ 
सर्वत्र पश्यन्त्वसुरास्मिक शुष्केघुचाद्रेष्वपि स्थावरेषु । 

- अभ्रेषु भूमौ सचराचरेषु स्वीयेषु कायेष्वपि जीवरूपम्‌॥ ५॥ 
देवंतमुद्दिश्य दिशन्तु दानमातिथ्यभावःपरिपेत्रिकेश्व । 
नारायणं देवचरंयजध्व॑ दोषेविसुक्ता अचिराष्ट्रविष्यथ ॥ ६॥ 
यो मामकं चाक्यमिहैच मानचो लोभाद्विमोहादपिनेच कारयेत्‌। 

| स शास्यतां यास्यति नि णोश्नुवं ममापि चौरो हि यथानिह४ 
0001 कससघाक, सत्ता सहर माता ककछा,नु.एथ्चीस्‌। | 


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त्रिसप्ततितमो उध्यायः ]# ययातिनास्वराज्येविष्णुसेवाजोडोषणम्‌# ८ 


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आचख्युरेवं नपते-प्रणीतमादेशभावे सकल प्रजासु ॥ ८॥ 
विभा दिमर्त्या अस्रतंसुपुण्यमानीतमेव भुवितेन राज्ञा ` 
पिवन्तु पुण्य परिबैष्णवाख्य 'दोबेबिहीनं परिणाममिष्टम्‌॥ ६ ॥ 
श्रीकेशवं क्लेशहरं वरेण्यमानस्दरूप परमार्थमेचम्‌ ] 

नामास्ठ॒तं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबन्तुलोकाः ॥ १०॥ 
सखड्गपाणि मधुसूदनाख्यं तं श्रीनिवासं सणुणंसुरेशम्‌ । 
नामास्॒तं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येच पिवन्तुळोकाः ॥ ११ ॥ 
- श्रीपझनाभं कमलेक्षणं चं आधाररूपं जगतां महेशम्‌ । 
नामाश्हुतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येच पिवन्तुलोकाः ॥ १२ ॥ 
पापापइं व्याधिबिनाशरूप्रमानन्ददं दानवदेत्यनाशम्‌ । 
नामाग्दत॑ दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येच पिवन्तुळोकाः ॥ १३ ॥ 
यज्ञाङ्गरूपं च रथाङ्गपाणि पुण्याकरं सौख्यमनन्तरूपम । 
नामाऽतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येच पिवन्तुलोकाः ॥ १४॥ 
विश्वाधिवासं विमछ चिरामं रामामिधानं रमणं मुरारिम्‌ । 
नामाशतं दोषहर तु राज्ञा आनीतमस्त्येघ पिवन्तुळोकाः॥ १५॥ 
आदित्यरूपं तमसांविनाशं बन्धस्यनाशाम तिपङ्कजानाम्‌। 
नामास्टृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येच पिवन्तुलोकाः ॥ १६ ॥ 
नामास्तं सत्यमिदं ख्ुपुण्यमधीत्य यो मानच विष्णुभक्तः । 


प्रभातकाले नियतो महात्मा सयोतिमुक्ति न हि कारणं च ॥ १७॥ 
इतिश्रीपाझपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाल्याने पितृती्थवर्णनेययातिचरिते 


_ त्रिसप्ततितमोऽध्यायः । 


चल sm पात 


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२३६ . 


पत्या 

चतुःसप्ततितमो ऽध्यायः (जि 
उपाझाश्रवणोतरंसंवे:भ्रजाजनेर्मांगवतथमेस्त्रीकरणम्‌ । | 
, सुकर्मोचाच । | 

दूतास्तु ग्रामेषु चदन्ति सर्वे द्वीपेषु देशेष्वथपत्तनेणु । वपु 
लोकाःशरणुध्वं बपतेस्तदाज्ञा सर्वप्रभावैहैरिमचेयन्लु ॥ १॥ . | 
दानस्य चहु भिस्तपो मिर्चेर्मामिलाबैयेजनैमेनोभिः | 

घ्यायन्तुळौका मधुलूदनं तु आदेशमेवं न्पतेस्तु तस्य ॥ २॥ 

एवं सुधुष्टे सकल तु पुण्यमाकण्ये तं भूमितलेजुलोकीः । | 


तदाप्रभृत्येव जयन्ति विष्णुं ध्यायन्ति गायन्ति जपन्ति मत्याः ॥ ३ 
वेदप्रणीतेश्च सुसूक्तमन्त्रःस्तोत्रै:सुपुण्येस्खतोपमानेः | ये | 
श्रीकेशवंतद्गतमानसास्ते ब्रतोपचासैनियमैथ्वदाने: ॥४॥ २ 
विहायदोषान्निजकायचित्त वागुदुभवान्प्रेमस्ताःसमस्ता । लि 
लक्ष्मीनिवासं जगतांनिवासं श्रीवासुदेवं परिपूजयन्ति ॥ ५ की, 
इत्याज्ञातस्यभूपस्य चतेतेक्षितिमण्डले । चैष्णबैनापि भावेन जनाःसर्वे 
नामसमिःकर्ममिदिष्णु' यजन्ते ज्ञानकोविदाः । ॥ 
तदुध्यानास्तद्वथवसिता जन्म ॥७॥ | 
_ याबदुभूमण्डळं सर्वं यावंत्तपतिभास्करः । दाव द्धिमानवालोकाःसर्वेभागवता 
दिष्णोध्यानप्रभावेनपूजास्तोत्रेणनामतः । आधिव्याधिविहीनास्तेसञ्चाता 
बीतशोकाश्चपुण्याश्च सर्वेचेचतपोधनाः । सञ्जाता यैष्णवाचिप्र प्रसादात्त 
आमयैश्च विहीनास्ते दोपैरोषैश्च घंजिताः । 
सर्वेश्वय॑ समापन्ताःसर्वरोगविषजिताः ॥ ११ ॥ 
प्रसॉदासस्यदेवस्य ?खक्षातएरसन्वास्तदा।०।. उप्पर! रट 


पतु सप्ततितमोऽध्यायः ] # सर्वः प्रजाजनेभागन्नतधमेस्वीकरणम्‌ * २४१. 

रत्या विष्णुप्रसादेन पुपौत्रेरलङ्झताः । तेषामेच महाभाग गृहद्वारेषु नित्यशः ॥ 

कद्पदुमाःसुपुण्यास्ते सवेकामफलप्रदा: । सर्वकामदुघा गावःसचिन्तामणयस्तथा ॥ 

पन्ति तेषां ग्रहेपुण्या सरवेकामप्रदायकाः । अमरामानघाजाता पुत्रपौत्रैरलङ्क्ताः ॥ 
सर्वेदोषषिहीनास्ते विष्णोश्चैव प्रसादतः । । 
सवेसौभाग्यसम्पन्नाः पुण्यमङ्गलसंयुताः ॥ १६ ॥ 


| 
। 
। : 
उपुण्यादानसम्पन्ना ज्ञानध्यानपरायणा: । न डुमिक्ष न च व्याधिर्नाकालमरणंन्रणाम्‌ 
| तस्मिञ्शासति धर्मज्ञे ययातौ नृपतौ तदा। 

| 

। 


वष्णवा मानवाःसच विष्णुत्रतपरायणा ॥ १८॥ 
तदुध्यानास्तद्वताःसर्व सञ्जाता भावतत्परा: | 
तेषां शृहाणि दिव्यानि पुण्यानि द्विजसत्तम ॥ १६॥ 
३ पताकाभिःखुशुक्ळाभिःशाङ्खयुक्तानि तानि वै। 
| गदाङ्‌्कितध्चजाभिश्च नित्यं चक्राङ्क्तानि च॥ २० ॥ 
द्याड्रितानि भासन्ते चिमानप्रतिमानि च । ग्रहाणिभित्तिभागेषुचित्रितानि चित्रके 
सितारे पुण्यस्थानेषु सत्तमाः। चनानिसन्ति दिव्यानि शाद्वळानि शुभानि च 
तुलस्या च दविजश्रेष्ठ तेषु केशवमन्दिरैः । 
ही भासन्ते पुण्यदिव्यानि गृहाणि प्राणिनां सदा ॥ २३॥ 
हि निलम मङ्गलो वहुद्वश्यते । शङ्कुशब्दाश्चमूलोके मिथःस्फोटरवेस्सले ॥ 
तत्र विप्रेन्द्र दोषपाप विनाशकाः । शङ्कस्व स्तिकप्मानि गृहद्वारेषु भित्तिषु ॥ 
विष्णुभक्तया च नारीभिछिखितानि द्विजोत्तम । 
गीतरागखुवर्णैश्व सूच्छनातानसुस्वरैः ॥ २६॥ 
गायन्ति केशवंलोका विष्णध्यानपरायणाः ॥ २७ ॥ 
हरि मुरारि प्रवदन्ति केशवं प्रीत्याजितं माघवमेच चान्ये । 
" `श्रीनारसिंहं कमलेक्षणं तं गोविन्द्मेक कमलापति च ॥ २८॥ 
1 `” कृष्ण शरण्यं शरणं जपन्ति रामं च जप्येःपरिपूजयन्ति। 


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[ त `, ` पाणयुपण ले आ न 
न न उ : चास्ते॥ २६|| _ 
; र दण्डप्रणामैःप्रणमन्ति विष्णु तदुध्यानयुक्ता र पितृतीर्थ चर्णने ५ ययाति ˆ 
इतिश्री पादमपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डे बेनोपाख्यानेमातापितृतीथवणने । 


चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७० ॥ 


« ५ म रे Ss ta 


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| ' पञ्चस्ततितमोऽव्यायः ग्वा हि 

घेष्णवधर्माचरणेन ययातेः सदातारुण्यं तत्मजानों च दा 

सुकर्मोचाच। ` न 


केशवं पद्मताभं च वासुदेवं च चामनम्‌। चाराहंकमरंमत्स्यं हृषीकेशंसुराधि 
विश्वेशं विश्वरूपं च अनन्तमनघंशुचिम्‌। पुरुषंपुष्कराक्षं च श्रीघरंश्रीपरत्छि 
श्रीदं श्रीशं श्रीनिवासं माधव मोक्षदं प्रभुम्‌ । | 
इत्यवं हि ससुद्चारं नामभिमानवाःसदा ॥ ४॥ "बे 
प्रकुव न्ति तराःसर्वे वाळवृद्धाःकुमारिकाः । स्त्रियो हरिसुगायन्ति गृहकमेरतासबत 
आसनेशयनेयाने ध्यानेवचसि माधघम्‌। क्रीडमानास्तथाबाला गोविन्द 1 
दिवारात्रौ सुमधुरं छर चन्ति हरिनाम च । विष्णूच्चारोदि सर्वेच शरूयते डि 
वैष्णवेन प्रभावेन मर्त्यां चर्तेन्ति भूतले । 
प्रासादकलशाग्रेषु देवतायतनेषु च ॥ ८ ॥ 
यथा सूर्येस्यबिम्बानि तथा चक्राणिभान्ति च | 
वैकुण्ठे दृश्यते भावस्तद्वावं जगतीतले ॥ ६ ॥ व 
तेन आज्ञाकृतं चिप्र पुण्यंचापि महात्मना । विष्णुलोकस्य समतां तथानीत॑ या 
नहुषस्यापि पुरेण वैष्णवेन ययातिना । उभयोलोकयोर्माइमेकोभूतं . 
भूतलस्यापि विष्णोश्च अन्तरनैच दृश्यते । चिष्णूचचारं तु वैकुण्ठे यथ 


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विष्णक्रष्णहरिरममुकुन्देमघुसूदनम्‌ । नारायणं बिष्णुरूनारसिइतमच्युतम॥ ८ 
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3 ० ५ 0150 Ean क क 
ड ७. शा ककी विचत [0 9.2 : 
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%ऽचसप्ततितमोध्यायः] # ययाते सदातारण्यंतत्परजानांचसुत्युरादित्यवर्णनम्‌ # २४६ : “१ 


भूतले ताद्वशोचार प्रकुवेन्ति च मानवा: 1 उभयोलोकयोचिप्र एकभाव अहुर 

| जरारोगभयंनास्ति सुत्युहदीना नरावभुः। । 

। दानभोगप्रभाषश्च अधिको इश्यते भुवि ॥ १४॥ 

| पुत्राणां तु सुखं पुण्यमधिकं पौच्रजँ नराः । 

| श्रमुञ्ञन्ति खुखेनापि मानवा सुविसत्तम ॥ १५॥ सश 
विष्णोःप्रसाददानेन उपदेशेन तस्य च । सर्वव्याधिविनिर्मक्ता मातवा वैष्णचाःखदा॥ ` 
धर्गलोकप्रभावो हि इतोराज्ञा महीतले । पञ्चविशप्रमाणेन वर्षाणि नृपसत्तम ॥१७॥ 
दविक्षानराःसचे ज्ञानध्यांनपरायणा: । यज्ञदानपराःसर्वे दयाभावाश्व मानवाः ॥१८॥ 
पकाररता:पुण्या"'घन्यास्ते कीतिभाजनाः । सर्वधर्मपराविप्र विष्णुध्यानपरायणाः ॥ 

म ` राज्ञातेनोपदिष्टास्ते सञ्जाता वेष्णचा सुषि । 

गि श्रूयतां रुपशादूल चरित्रं तस्य भूपतेः ॥ २० ॥ 

तह सर्वेधमेपरोनित्य॑ विष्णुभक्तश्च नाहुषिः । 

अब्दानां तत्रलक्षं हि तस्याप्येचं गतंमुवि ॥ २१ ॥ 

; दृश्यते कायःपञ्चविशाब्दिको यथा । पञ्चविशाब्दिकोभाति रूपेणवयसा तदा 

:प्रौ ढिसम्पन्नःप्रसादात्तस्यचक्रिणः । मानुषा भुवमास्थाय यमंनेच प्रयान्ति ते ॥ 

रेषविनिमुक्ताःक्लेशपाशविवर्जिताः । सुखिनोदानपुण्येश्च सवेघमेपरायणा:॥२४॥ 

( ते जनाःसर्वे सन्तत्यापि गतान्रप । यथादू्घांचराश्चैच विस्तार यान्ति भूतले 

तथा ते मानवाःसर्वे पुत्रपौतरैःप्रविस्तृताः । 

सृत्युदोषयिहीनास्ते चिरंजीचन्ति यै जनाः ॥ २६॥ 

स्थिरकायाश्च सुखिनो जरारोगघिवजिताः । 

पश्चविशा व्दिकाःसर्वे नराहुश्यन्ति भूतले ॥ २३॥ 

तं गः सर्वे चिष्णुध्यानपरायणः । एवं सर्वेच मर्त्यास्ते प्रसादात्तस्य चक्रिण 

[ता मानवाःसर्चे दानभोगपरायणः । सुतो न श्रूयते लोके मत्यःको5पि नरोत्तमा 

च॥।३०॥ 


नेच प्रपए यदप 
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क 


- ३ 
२४४ ॐ पाद्यपुराणम्‌ # [ 


सञ्जातं मानवभे्ठ प्रसादात्तस्य चक्रिणः । विश्रष्ट यमदूतास्ते विष्णुदूतेश्च ता 
रुदमानागताःसर्वै धमराजं परस्परम्‌ । 
तत्सर्वं कथितं दूतैश्चेष्टितं भूपतेस्तु तैः ॥ ३२.॥ 
अस्ृत्युभूतळंजातं दानभोगेन भास्करे | 
नहुषस्यात्मज्ञेनापि कृतंदेव ययातिना ॥ ३३ ॥ 
विष्णुभक्तेन पुण्येन स्वगेरूपं प्रदर्शितम्‌ । एचमाकर्णितंसर्व 'घर्मराजेन बै । 
घर्मराजस्तदातत्र दूतेस्यःश्रुतविस्तरः । चिन्तयामास सवांथ शुत्वच ७७५ 


तिसा ला की 
पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ $५ ॥ 


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षटसप्ततितमो ऽध्यायः क 

इन्द्राय ययातिकर्मनिवेदनपुरःसरं ययातेः स्वर्गानयनाय प्रा 
सुकर्मोचाच । 


सौ रिदुतैस्तथासवेःसहस्वर्ग जगाम सः । द्र तत्र सहस्नाक्षं देववृन्दे न 
धर्मराज समायान्तं ददर्श सुररोट्‌ तदा । समुत्थाय त्वरायुक्तो दत्त्वाचाधे 
पप्रच्छागमनं तस्य कथयस्च ममाग्रतः | समाकण्ये महद्वाक्यं देवराजस्य 
घमेराजो5ब्रवीत्सच॑ ययातेश्वरितंमहत्‌ । श्रूयतां देवदेवेश यस्मादागमनं मम॥थ 
कथयाम्यहमत्रापि येनाहमागतस्तव | नहुषस्यात्मजेनापि चेष्णवेन महात्मना 
चैष्णवाश्व छतामरत्या ये सन्ति महीतले । वैकुण्ठस्यसुमंरूपं मर्त्यलोकस्य वै 
अमरामानवाजाता जरारोगविवजिताः । , . .. 
, पापमेच न कुर्वेन्ति असत्यं न वद्न्ति ते .॥ ७.॥- 
स्ते लोममोहचिवजिता 


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शृटूससतित सप्ततितमोऽध्यायः ] * ययातेः स्वर्गानयनप्यप्नाथनम्‌ # 
के | दानशीला महात्मानःसवें धर्मेपरायणाः ॥ ८॥ ` 
सर्वधमैःसमचेन्ति नारायणमनासयम्‌ । तेन वैष्णवधर्मेण मानवा जगतीतले॥ ६॥ 
निरामया चीतशोकाःखवे आ चा । ढुर्वाचटा यंथादेच विस्तारंयान्ति भूतले 
त्या ते विस्तरंप्राता:पुत्रपोत्रेःपपौत्रकेः । तेषां पुन्ै:प्रपौत्रैश्व वंशाद्वंशान्तरंगता:॥११॥ 
एवं दि वेष्णचःसर्चों जराम्वत्युविवजितः । मत्येलोक:छृतस्तेन नहुषस्यात्मजेन चै ॥ 
| १ पदश्रष्टो.स्मि सञ्जातो व्यापारेण विवर्जितः । | 2 
टि एतत्खवं समाख्यातं ममकमे विनाशनम्‌ ॥ १३ ॥ 
| एवं ज्ञात्वा सहस्राक्ष लोकस्यास्य हितंकुरु । 

एतत्ते सर्वमाख्यातं यथापृष्टो5स्मि वै त्वया ॥ १४॥ 
| पसस्मात्कारणादिन्द्र आगतस्तवसन्निधौ | १५॥ | 


रण | 


इन्द्र उवाच । 
रूवमेच मयादूत आगमाय महात्मनः । प्रेषितो धमंराजेन्द्र दूतेनास्यापि भाषितम्‌ ॥ 
ह ह इन्च नागमिष्ये दिवंपुनः । स्वरूपं करिष्यामि सबं तदुमिमण्डलम्‌ 
म! ने भूपालःप्रजापाल्यं करोति सः । तस्य धमेप्रभावेण भीतस्तिष्ठामि सवेदा 
धमे उवाच | 
क: प्युपायेन तमानय सुभूपतिम्‌। देवराज महाभाग यदीच्छसि ममप्रियम्‌ ॥१६॥ 
कर्ण्य चचस्तस्य धर्मस्यापि सुराधिपः । चिन्तयामास मेघावी सर्वेदत्वेनभूपते॥ 
ग समाहूय गन्धर्वा श्च पुरन्दरः । मकरन्दं रतिंदेच आनिनाय महामनाः ॥ २१॥ 
मम ऱ्य कुरु तबैयूयं यथाऽऽगच्छति भूपतिः । थूयं गच्छन्तु भूलोकं मयादिष्टा न संशयः 
मना ` ` काम उवाच | 
प्रियंपुण्यं करिष्यामि न संशयः। राजानं पश्य मांचैच स्थितंचेच समायुधि 
गता सर्वे यत्रराजा स नाहुषि। नररूपेण ते सर्वे कामाद्याः क्मेणाङ्विज ॥ 
बैच ते च ऊचुःखुनाटकम्‌। तेषां तद्वनंश्रृत्वा ययातिःप्रथिचीपतिः ॥ 
देवरूपांछुपण्डितैः । समायातःस्वयंभूपो ज्ञानचिज्ञानको घिदः ॥ 


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= दु » कुक जा डन पाद्मपुराणम्‌ ऋ [२ 


- तेषा तु नाटक राजा पश्यमानःसनाहुषिः । चरितं घामनस्यापि उत्पत्तिविपर दद 
रूपेणाप्रतिमालोके सुस्वरं गीतमुत्तमम्‌। 
गायमाना जराराजन्नायांरूपेण वे तदा ॥ २८॥ रा 

` तस्यागीतविलासेन हास्येन ललितेन च ! मधूरालापतस्तस्य कन्दपेस्य च मा 

` मोहितस्तेनभावेन दिव्येन चरितेन च । बलेश्चैव यथारूपं विन्ध्याचल्या यथाहु 

` घामनस्य यथारूपं चक्रेमारोथताहुशम्‌ । सूत्रधार स्वयंकासो चसन्तः पारिपारश! 
नरीवेष घराजाता सारतिह एवलमा । नेपथ्यान्तश्चरी के 
मकरन्दो महाप्राज्ञःक्षोभयामास भूपतिम्‌ । द बुट 

यथायथा पश्यति नृत्यसुत्तमं गीतं समाकर्णति सक्षितीशः । पूणि 
तथातथामोहितवान्सभूपति नटीप्रणीतेन महाचुभावः ॥ ३४॥ गी 
इति श्रीपाद्यपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थे ययातिर्चाष्टिसद 
षट्‌सत्ततितमो5ध्याय: ॥ ७६ ॥ 


„र 


स्तसप्ततितमोऽध्यायः 
त्यगीतपरवशतयाऽशौचलेशमात्रेण ययातेः शरीरे जराग्रवेशः | 
9 खुकर्मोचाच । 
कामस्य गीतलास्येन हास्येन छलितेन च । मोहितो राजराजेन्द्रो नर 
कृत्वा मूत्रंपुरीषं च सराजा नहुषात्मजः । अक्कत्वा पाद्योःशौचमासने 
तदनन्तर तु सम्प्राप्य सञ्चजार जरान्रपम्‌। कामेनापि नृपश्रेष्ठं इन्द्रकायं प्न है 
निवृत्ते नाटकेतस्मिन्गतेषुतेषु भूपतिः। जराभिभूतोधर्मात्मा कामसंस 
मोहितः काममोहेन विहृलो चिकळेन्द्रियः । ॒ 
अतीचसुग्धो धर्मात्मा चिषयेश्रापचाहितः ॥ ५। 32 | 


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ैवुप्वलप्ततितमौ ५ध्याय: ] # ययातेम् गयार्थेकस्य चित्सरसस्तारंप्रतिगमनम्‌ २४७ छू 


कदा तु गतोराजा खगयाव्यसनातुरः । चने च क्रीडतेसो5पि मोहरागवंशंगत: ॥६॥ ` 
घरसंक्रीडमानस्य नृपतेश्च महात्मनः । सुगश्चैकः समायातश्चतुःङ्गौह्नौपमंः ॥ '७॥ 
्वाङगखुन्दरों राजन्हेमरूप तनुरुह:। रत्लज्योति: सुचित्राङ्गो दर्शनीयो मनोहरः ॥८॥ . 
म न्यधावत्सवेगेन चाँणपाणिरधबुद्धेर । इत्यमन्यत मेधावी कोऽपिदैत्यःसमागरतः ॥ . 
षवुगेण च सतेनापि दूरमाकषितो नृपः । गतः सरथवेगेन श्रमेण परिखेद्तः ॥ १० ॥ .. 
के क्षमा णस्य तस्यापि सुगश्चान्तरथीयत। स पश्यति बनं तत्र नन्दनोपममदभुतम्‌ ॥ 
सबृ्समाकीणं भूतपञ्चकशोभितम्‌। गुरुभिश्चन्द्नैः पुण्येः कद्ळीखण्डमण्डिते 
बरकुलाशोकपुन्नागेर्नालिकेरेश्व तिन्दुकेः। | पूगीफल श्च खजरःकुमुदेः सप्तपणेके: ॥१३॥ 
कणिकारेश्च नानावृक्षैः सदाफलः । पुष्पितामोद्संयुक्तीः केतकेः पाटले र्तत 
रक्षमाणो महाराजो ददशे सरउत्तमम्‌। पुण्योदकेन सम्पूर्ण विस्तीणे पञ्चयोजनम्‌ 
चहिलकारण्डचाकीर्ण जळपक्षिविनादितम्‌। कमल श्वापिमुदितं श्वेतोत्पलविराजितम्‌ 
र्क्तोत्पलेः शोभमानं हाटकोत्पलमण्डितम्‌। 
| नीलोत्पले:प्रकाशितं कहारेरतिशोभितम ॥ १७॥ 
तै पत्तेमेधुकरैश्थापि सर्वेत्रपरिनादितम्‌। एवं सवेगुणोपेतं ददशे खरउत्तमम्‌॥ १८॥ 
प्चयोजनचिस्तीर्ण दशयोजनदीर्घकम्‌। तडागं सवेतोभद्रै दिव्यमावैरलङक्कतम्‌ ॥ 
[थवेगेन संखिन्नःकिचिच्छ मनिपीडितः । निषसाद्‌ तरेतस्य 'चूतच्छायांसुशीतलाम्‌ ॥ 
| छात्वा पीत्वा जल' शीतं पद्मसौगन्ध्यवासितम्‌ । सर्वेश्रमोपशमनमस्ठ॒तोपममेचतत्‌ ॥ 
गो ततस्तस्मिन्नुपविशेन भूभृता । गीतध्वनिःसमाकणि गीयमानो यथातथा ॥ 
यथा खीगायते दिव्या तथायं श्रूयतेध्वनिः। ` 
गीतप्रियो महाराज एवं चिन्तां परांगतः ॥ २३॥ 
1 याबद्चिन्तयतेक्षणम्‌। ताचन्नारीघंराकाचित्पीनश्वीणीपयोधरा 
पश्यतस्तस्य चनेतस्मिन्समागता। सर्वाभरणशोभाङ्गी शीललक्षणसम्पदा ॥ 
समायाता नृण्तेः पुरतः स्थिता । तामुवाच महाराज काहिकस्यसविष्यसि 
म हि समायाता तम्मेत्वं कारणं बद्‌ पृष्टासती तदातेन न किचिदपि पिप्पल ॥ 


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इष्ट ` . _ # पाझपुराणम्‌ ॐ [२ 
' शुभाशुभ च भूपाळ' प्रत्यचोचद्वरानना । प्रहस्वैवगताशीच्रै घीणादण्डकरा, 
-िस्मयेनापि राजेन्द्रोमहताव्यापितस्तदा । मयासम्भाषिताचेयं मां न ब्र जेल 
पुनश्चिन्ता समापेदे ययातिःप्रथिवीपतिः | यो वे स॒गो मयाद्ृएशतुल्यङ्ग:सुव ता. 
तस्मान्नारी समुदुभूता तत्सत्यं प्रतिभाति मे । सो 
मायारूपमिदं सत्यं दानवानां भविष्यति ॥ ३१ ॥ | 
चिन्तयित्वा क्षणंराजा ययातिनेहुषात्मजः । यावञ्चिन्तयते राजाताचन्नारी महा 
अन्तर्धानंगता चिप्र प्रहस्य नृपनन्द्नम्‌। पतस्मिन्नन्तरेगीतं सुस्वर पुनरेवततू 
शुश्रुवे परमंदिव्यं सूछेनातानसंयुतम्‌। जगाम सत्वर राजा यत्रगीतच्वनिमंहा्‌; 
जलान्ते पुष्करंचैव सहसत्रदलसुत्तमम्‌। सः 
तस्योपरिवरानारी शीलरूपगुणान्विता ॥ ३५ ॥ चि 
दिव्यलक्षणसम्पन्ना दिव्याभरणभूषिता । दिव्येर्भावे:प्रभात्येका चीणादुण्डकर्या, 
गायन्ती सुस्वरंगीतंतालमानलयान्वितम्‌ । तेनगीतप्रभावेनमोहयन्ती चराचणए! 
देचान्सुनिगणान्सर्वान्दैत्यान्गन्ध्चे किन्नरान्‌ । 
तां दृष्ट्या सचिशाळाक्षीं रूपतेजोपशाखिनीम्‌॥ ३८.॥ . 
संसारेनास्तिचैवान्या नारीद्वशीचराचरै । पुरानटो जरायुक्तो न्रपतेःकायमेव हि शका 


सञ्चारितो महाकामस्तदासौ प्रकटो ५भवत्‌। ध 
घुतंस्पृष्ट्या यथावही रश्मिवान्सम्प्रजायते ॥ ४० ॥ 
तां च दृष्ट्या तथाकामस्तत्कायात्प्रकरोऽभचत्‌ । जि 


मन्मथाविष्टचित्तोऽसौ तां दृष्ट्या चारुलोचनाम्‌ ॥ ४१ ॥ 
इंद्रग्रूपा न द्वष्टा मे युवती विश्वमो हिनी । चिन्तयित्वाक्षणं राजा कांमसंसक्तमान/ 
तस्याःसविरहेणापि लुब्धो$भून्ट्पतिस्तदा । कामाञ्चिनादह्ममानःकामञ्चरैण 

कथंस्यान्मम चेवेयं कथंभावो भविष्यति । है 

यदा मां गूहते बाला पद्मास्यो पडळोचना ॥ ४४॥ .. | 
यदीयं प्राप्यते तहि सफलंजीवितं भवेत्‌ । एवंचिचिन्त्य धर्मात्माययाति हल्ला र 


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| सप्तसप्ततितमोऽध्यायः] # ययाते सखीमुखाद्शु विन्दुमत्यातृत्तान्तश्रचणम्‌ # २४६ ` 
| 


तामुवाच वरारोहा कात्वं कस्यापि घा शुभे । 
पूर्वंद्व्टा तु या नारी साइषा पुनरेय च ॥ ४६ ॥ 
१ तां पप्रच्छ सघमात्मा काचेयं तवपाशवेंगा । सवंकथय कल्याणि अहं हि नहुषात्मज 
| सोमवंशप्रसूतो5हं सप्तद्वीपाधिपःशुभे । ययातिर्नाम मे देविख्यातो5हं भुचनत्रये ॥ 
| तवसङ्गमनेचेतो, भावमेवं प्रचाञ्छते । देहि मे सङ्गमं भद्दे कुरु सुप्रियमेच हि॥ ४६॥ 
यं यं हि वाञ्छसे भद्रे तद्ददामि न संशयः । दुरजयेनापि कामेन हतोऽहं वरवणिनिं ॥ 
| तस्मात्राहि सुदीनं मां प्रपन्नं शरणं तव । 
TF; राज्यं च सकळासुर्वी शरीरमपि चात्मनः ॥ ५१॥ 
'सड्ठुमे तवदास्यामि त्रेळोकयमिद्मेघ ते । तस्य राज्ञोवचःश्रत्वा सास्त्री पद्मनिभानना 
| विशाखां स्वसखींप्राह त्र हि राजानमागतम्‌। नामचोत्पत्तिस्थानं च पितरंमातरं शुभे 
| ममापि भावमेकाग्रमस्याग्रे च निवेद्य । 
चर तस्याश्च वाञ्छितं ज्ञात्वा विशाला भूपति तदा ॥ ५४॥ 
| उवाच मधुराळापेःश्रयतां नृपनन्दन ॥ ५५॥ 
घिशालोचाच | 
हे कामण न यज देवदेवेन शम्भुना | रुरोद सारतिडु:खाहत्राहीनाऽपि सुस्वरम्‌ ॥ 
'अस्मिन्सरसि राजेन्द्र सार तिन्यंवसत्तदा । तस्यप्रलापमेवं सा सुस्वरं करुणा न्वितम्‌ ॥ 
ततोदेवा:कृपया परयान्विता: । सञ्जाता राजराजेन्द्र शाङुरचाक्यमत्रचन्‌॥ 
सपा महादेव पुनरेव मनोभवम्‌ । वराकीयं महाभाग भतृहीनाहि कीदशी ॥५४॥ 
कामेनापि समायुक्तामस्मत्स्नेहात्कुरुष्व हि। 
पातर तच्छुत्या.च वचःप्राह जीवयामि मनोभवम्‌ ॥ ६० ॥ 
विहीनोऽयं पञ्चबाणोमयोभवः । भविष्यति न सन्देहो माधवस्य सखापुनः 
पेशरीरेण वर्तयिष्यति नान्यथा । महादेव प्रसादाच्च मीनकेतुःखजी वितः ॥ 
रभिनन्दैवं देव्या:कांम॑ नरोत्तम । गच्छकाम प्रवतेस्व प्रिययासह नित्यशः ॥ 
महातेजाःस्थिति संहारकारकः । पुनःकामःसरःप्रासो यास्ते दुःखितारतिः ॥ 


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र न र २६ पादमपुराणम्‌ के [२ भूमिक सप्त 
.- इद्‌ कामसरो राजन्रतिरत्र सुसंस्थिता । द््रेसति महाभागे ees 
रत्याःकोपात्समुत्पत्नः पावको दारुणाकृतिः | अतीवदग्धा तेनापि सारतिरमोहमूडि | 
अश्रुपातं सुमोचाथ भंत हीना नरोत्तम । | 
नेत्राम्यां हि जळेतस्याःपतिता अश्नुचिन्द्वः ॥ ६७ ॥ ।असू 
तेम्योजातो महाशोकःसर्वसौख्यप्रणाशकः । जरापश्चात्ससुपन्ना -अश्रुभ्यो पस देव 
वियोगोनाम दुर्मेघास्तैस्योजङ्गे प्रणाशकः । दुःखसन्तापकौचोभी जज्ञाते दारुणो ह 
मूर्छानाम ततोजज्ञे दारुणा खुखनाशिनी । |. 
शोकाज्जज्ञे महाराज कामज्वरो5थ विश्रमः ॥ 9० ॥ पव 
प्रापो विहलश्चैच उग्मादो सत्युरेच च । तस्याश्च अश्रुविन्दुम्यो जज्ञिरे विश्वनाश््रह 
,रत्या:पार्श्वे समुत्पन्ना:सर्वैतापाङ्गधारिणः । मूतिमन्तो महाराज सद्वावगुणसंयुत 
कामणषसमायातःकेनाप्युक्त तदान्प । महानन्देनसंयुक्ता द्रष्ट्या कामं समागम _ 
नेत्राम्यामश्रुपूर्णाम्यां पतिता अश्रुविन्दवः । अप्सुमध्ये महाराज चापल्याज्जिषेः + 
प्रीलिर्नाम तदाजज्ञे ख्यातिलेज्जा नरोत्तमः । i 
तेम्योजशे महानन्दःशान्तिश्चान्या नृपोत्तम ॥ ७५ ॥ | 
जज्ञाते द्वेशुभेकन्ये खुखसम्भोगदायिके । लीलाक्रीडा मनोभाव संयोगस्तु है. 
रत्यास्तु चामनेत्राहे आनन्दादश्रुबिन्द्चः। जलान्ते पतिताराजंस्तस्माज्जज्ञे सुपडू 
तस्मात्सुपङ्कजाज्जाता इयंनारी वरानना । 
अश्रुविन्दुमतीनाम रतिपुत्री नरोत्तम ॥ ७८ ॥ 
तस्याःप्रीत्या सुखंछत्वा नित्यंवत्त समीपगा । सखीभाषस्वभावेन संहृष्टा 
विशालानाम मेख्यातं वरुणस्यसुता न्प 
अस्याश्चान्ते प्रवर्तामि स्नेहा त्स्निग्घास्मि सवेदा ॥ ८०॥ . 
एतत्ते सर्वमाख्यातमस्याश्वात्मन एच ते | तपश्चचार राजेन्द्र पतिकामा 2 
राजोवाच । br, 
सवमेव त्वया55ण्यातं मयाशातं शमे श्यण । मामे दि भजत्येषा रतिपुती 


Mumukshu Bhawan Var ri 


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& सप्तसप्ततितमो 5ध्यायः ] # ययातिप्रति विशाल्याजराग्रहीतत्वकथनम्‌ # हु २५१ | छ 


वे यमेषा वाञ्छतेवाला तत्सवे तु ददाम्यहम्‌ 
| . तथा कुरुष्व कल्याणि यथामे वश्यतां ब्रजेत्‌ ॥ ८३.॥ 
। विशालोबाच.। 


अस्याबतं प्रवक्ष्यामि तदाकर्णय भूपते । पुरुष यौचनोपेतं सर्वज्ञ चीरछक्षणम्‌॥८७॥ | 
ता देवराजसमं राजन्धमाचार समन्वितम्‌ । तेजस्विनं महाप्राज्ञः दातारं यज्विनांवरम॥ 
शं युणानां धर्मभावस्य ज्ञातारं पुण्यभाजनम्‌ । 

। लोकइन्द्रसमं राजन्सुयक्षेधेमंतत्परम्‌ ॥ ८६ ॥ 

सवैश्वरयेसमोपेतं नारायण मिचापरम्‌ । देवानां सुप्रियं नित्यं ब्राह्मणानामतिप्रियम ॥ 
रण्य वेदतत्त्वज्ञ चरेलोक्येख्यातविक्रमम्‌ । एवंगुणैःसमुपेत त्रैलोक्येन प्रपूजितम्‌ ॥ 


त खुमति सुप्रियंकान्तं मनसावरमीप्सति ॥ ८६॥ 

गा ययातिरुचाच। 

फ्रवंशुणैःससुपेतं विद्धि मामिहचागतम्‌। अस्याचुरूपोभर्त्ताहं सष्टोधात्रा न संशय: ॥ 
विशालोचाच | 


र पुण्यखंचृद्धं जानेराजञ्जगत्त्रये । पूर्वोक्ता ये गुणाःसर्वे मयोक्ताःसन्ति ते त्वयि 


ज्या च दोषेण त्वामेषा हि न मन्यते | एष मे संशयोजातो भवान्विष्णुमयो रूप 
र ययातिरुवाच । 
समाचक्ष्व महादोषं यमेषा नानुमन्यते । 
4१ तत्वेन चारुसर्वाङ्गी प्रसाद्‌ सुमुखीभव ॥ ६३ ॥ 
2 _ विशालोबाच | 


दोष न जानासि कस्मात्त्वं जगतीपते । जरया व्या्तकायस्त्वमनेनेयं न मन्यते ॥ 
श्रुत्वा महद्वाक्यमप्रियं जगतीपतिः । दुःखेन महताविष्टस्तासुवाच पुनन पः ॥६५॥ 
हि जरादोषो न मे भद्रे संसर्गात्कस्यचित्कदा । 
समुदुभूतं ममाङ्गे वे तं न जाने जरागमम्‌ ॥ ६६ ॥ 
ल्ल हि चाञ्छते चैषा त्रैलोक्ये दुलंभं शुभे | तमस्येदातुकामो5हं म्रियतां वरउत्तमः ॥ 


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ह - क पादापुराणम्‌ क [२ भू, 
चिशालोचाच । 
जराह्दीनो यदास्यास्त्वं तदा ते सुप्रियाभवेत्‌ । | 
Ps 7 
एतद्विनिश्चितं राजन्सत्यंसत्यं बदास्यहम्‌ ॥ ९८ ब | 
श्रतिरेचं वदेद्राजन्पुत्रे प्रातरिभ्ृत्यके । जरासङक्रस्यते यस्य तस्याङ्ग | पि 
तारुण्यं तस्य वेगृह्य तस्मैदत्त्वा जरांपुनः । उभयोःप्रीतिसंवादःखुरूच्या जायते | 
तथात्मदानपुण्यस्य कृपया यो द्दाति च! | 
फळं राजन्हि तत्तस्य जायते नात्रखंशयः॥ १०१ ॥ | 
दुःखेनोपाजितं पुण्यमन्यस्मै हि प्रदीयते । सुपुण्यंतदगवेत्तस्य पुण्यस्य फम स्व 
पुतरायदीयतां राजंस्तस्मात्तारुण्यमेब च । प्रणृहय समागच्छ खुन्द्रत्वेन मू 
यदात्वमिच्छसेमोक्तुं तदात्वं कुरुभूपते । एवमाभाष्य खाभूप॑ विशाला 10 
८ सुकर्मोचाच । यो 
एवमाकण्ये राजेन्द्रो विशालामवदत्तदा ॥ १०५ ॥ पा 


राजोवाच । ह 
एवमस्तु महाभागे करिष्ये वचनं तव । कामासक्तस्य मूढस्तु ययातिःपृथिवीर्पा यः 
शृहंगत्वा समाहूय सुतान्वाक्यसुवाच ह। तुरंपूरुकुरं राजा यढु च पि 

कुरुध्वं पुत्रकाःसोख्यं यूयं हि ममशासनात्‌। 
- पुत्राञचुः। | ड 
'पितुवाकयं प्रकतव्यंपतरश्चापि शुभाशुभम्‌ । उच्यतां तात तच्छीघ्रं छतंचिद्धि तसंक 
एचमाकण्यं तद्वावयं पुत्राणांपृथिबीपतिः । आचचक्षे पुनस्तेषु हर्षणाकुछ 
इति श्रीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीथंचर्णने 
सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७9 ॥ 


“98 


* CC-0. Mumukshu छ199वा Varanasi Collection. Digitized by 8081900 १ | 


sos कर चल 


अष्टसप्ततितमो धध्याय 


र पितुराज्ञांश्रुत्वा त्रिभिःपुत्रस्तदाज्ञाप्रत्याख्याने ययातिनातान्यतिशापदानम । 
ययातिरुवाच । 

| एकेन ग्र॒ह्मतां पुत्रा जरा मे दुःखदायिनी । 

| चीरेण भचतांमध्ये तारुण्यं ममदीयताम्‌ ॥ १॥ 

'$ स्वकीयं हि महाभागाःस्वरू पमिदमुत्तमम्‌ । सन्तप्तं मानसंमेऽद्यस्त्रियांसक्तंखुचञ्चलम्‌ 

| फ़ माजनस्था यथापश्च आवत्तेयति पावकः । तथामे मानसं पुत्राःकामानलसुचा लतम्‌ ॥ 
एकोगुहातु से पुत्रा जरांदुःखप्रदायिनीम्‌ । स्वकं ददातु तारुण्यं यथाकामंचराम्यहम्‌ 

यो मे जरापसरणं करिष्यति सुतोत्तमः | स च मे भोक्ष्यतेराज्यं घनुवँशं धरिष्यति ॥ 

तस्यसौख्यं खुसम्पत्तिरघेनंधान्यंभविष्यति। विपुळासन्ततिस्तस्ययश:कीतिर्भविष्यति 


ह पुत्राऊचः । 
भवान्धमेपरो राजन्प्रजासत्येनपालकः । कस्मात्तेहीदृशोभावो जातःप्रक्रतिचापलः ॥ 
त्स राजोवाच। 


सागतानतंकाःपूयं पुरंमे हि प्रनतेकाः । तेभ्यो मे कामसंमोहे जातोमोहश्च इद्रशः ॥ 
- ता मन्मथाविष्टमानसः । सम्बभूव सुतभ्रेष्ठाःकामेन च समाकुलः ॥ 
हू एा मयानारी दिव्यरूपावरानना । मयासम्भाषितापुत्राःकिचन्नोचाचमांसती 
विशालानाभ तस्याश्च सखीचारुविचक्षणा | ` 

सामामाह शुभंचाक्यं मम सौख्यप्रदायकम्‌॥ ११ ॥ 
नराहीनो यदास्यास्त्वं तदाते सुप्रियाभवेत्‌ । एवमड्रीकृतं वाक्यं तयोक्तं ग्रहमागत 
|... तदेवं समुदाहततम्‌। एवंज्ञात्वा प्रकतेव्यं मत्सुखं हि खुपुत्रका: ॥ 

र तुरुरुषाच । 

र प्राप्यते पुजःपितुर्मा तुःप्रसादतः । धर्मश्च क्रियते राजञ्छरीरैण विपश्चिता ॥ 


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| 


रण ॐ पाद्यपुराणम्‌ अ [२ भूष अण 
हि पित्रोःशुभूषणंकायं पुत्रैश्चापि विशेषतः । न च यौचनदानस्य कालोऽयं मे नर 
| प्रथमेवयसि भोक्तव्यं विषयं मानवेळ प । | जित 


: इदानीं तन्‍नकालो5यं चर्तते तवसाम्परतम्‌ ॥ १६॥ । 
` जरां तातप्रद्वा चे पुत्रेतातमहद्गताभ्‌। पश्चात्छुखं प्रभोक्तव्यं न स्यात मह 
` तस्माद्वाक्यं महाराज करिष्येनेच ते पुनः । एचमाभाषत लुपं तुरुज्येष्ठसुतस्त 
तुरोवाक्यं तु तच्छुत्वा कुद्धोराजा वभूचसः । अह 
३ तुरुंशशाप धर्मात्मा क्रोधेनारणलोचनः।। १६ ॥ 
अपध्वस्तस्त्वयाऽऽदेशो ममायंपापचेतन । तस्मात्पापीभचस्वत्वं सर्वेधमेबरिष्यो 
` शिखयात्वंविद्दीनव्ध वेदशास्त्रविबर्जितः ।. सर्चाचारविहीनस्त्वं भविष्यसि नस 
्रह्मञ्नस्त्वं देचदुष्टःखुरापःसत्यचजितः। चण्डकमंप्रकर्तात्वं सचिष्यसि नराधा 
सुराछीनःश्वुधीपापी गोप्नश्च त्वं सचिष्यसि । 
दुशर्मासुक्तकच्छक्च त्रहाद्वेछा निराकृतिः ॥ २३ ॥ ` री 
परदाराभिगामित्वं महाचण्डःप्रलम्पडः । सर्वेअक्षञ्च दुर्मेधाःसदात्वं च | 
सगोत्रां रमसेनारीं सर्वधर्मप्रणाशकः। पुण्यज्ञानविहीनात्मा कुएवांश्च 
- तवपुत्राश्च पौत्राश्च भविष्यन्ति न संशय: । हि 
ईदुशाःसर्वपुण्यघ्ना स्लेच्छाःसुकल॒ुपीकृताः ॥ २६ ॥ 
एवं तुरुंखुशप्त्वेच यदु पुत्रमथात्रचीत्‌ । जरां वेधारयस्वेह भुडक्वराज्यमकण्य्म 
चद्धाञ्जलिपुरोभूत्वा यदू राजानमत्रेवीत्‌। जराभारं नशक्नोमि घोढु तात 018 
शीतमध्चाकद्न्नं च चयोऽतीताश्च योषितः । 1 
मनसःप्रातिकूल्य च जरायाःपञ्चहेतवः ॥ २६ ॥ रि 
जरादुःखं न शक्नोमि नवेबयसि भूपते । कःसमर्थो हि वै धतु क्षमस्वत्वं 
यदः क्रुद्धोमहाराजःशाशाप द्विजनन्दन । राजहों न च तेवेश:कदाचिठ्े ग 
बलतेजःक्षमाहीनःक्षा्रधमं विषजितः। | 
०००मत्रिक्नति ह जेयो, सासन ल |, ३३.० 


अष्टसप्ततितमो 5ध्यायः | #पूरो लफाशात्तारुण्यंग्रहीत्वाअश्रुविन्दुमती प्रतिगमन॑म्‌# २५५ | 
` _____ यदुरुचाच | ; 
| निर्दोषो5हं महाराज कस्माच्छतस्त्वयाधुना । छृपांकुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो सच 
| राजोवाच | 
हि महादेव कुळे ते वे स्वांरेनापि हिं पुत्रकः । करिष्यति विस्ृष्टि च तदापूतं कुलं तव ॥ ` 
यदुरुवाच । 
'अहंपुत्रो महाराज निर्दोषःशापितस्त्वया । अनुग्रहो दीयतां मे यदिमेवत्तेतेद्या ॥ 
राजोवाच | न 
यो भवेज्ञ्येष्ठपुत्रस्तु पितुढु:खापहारकः । राज्यदायं समुङ्ते च भारवोढा भवेत्सहि 
नसर त्वयाधम न प्रवृत्तमभाष्यो;सि न संशय: । भवतानाशिताज्ञा मे महादण्डेनघातिन _ 
न तस्मादनुग्रहोनास्ति यथेष्टं च तथाकुरु॥ ३८ ॥ 
यदुरुचाच । 
यस्मान्मे नाशितंराज्यं कुलंरूपं त्वयादप । तस्मादुदुष्टो भविष्यामि तचवंशपतिद्र प ॥ 
| शे भविष्यन्ति नानामेदास्तु क्षत्रियाः। तेषांग्रामान्सुदेशांश्च स्तरियोरल्लानियानिचै 
| भोक्ष्यन्ति च न सन्देहो अतिचण्डा महावलाः । 
मम वंशात्समुत्पन्नास्तुरुष्का स्लेच्छरूपिणः ॥ ४१ ॥ 
या ये नाशिताः सर्वे सत्ताःशापैःसुदारुणेः । एवं बमाषे राजानं यदुःक्कद्धो नपोत्तम 
ठ यकुदो महाराजः पुनश्वेवं शशापह । मत्प्रजानाशकाः सच वंशजास्ते श्रणुष्च हि ॥ 
ञं प्ाचञचन्द्रश्च सूरयश्च पृथ्चीनक्षत्रतारकाः। तावन्स्लेच्छाः प्रपक्ष्यन्ते कुस्भांपाके च रौरवे 
ततोवाळ' क्रीडमानं सुलक्षणम्‌ ।. समाह्वयति तं राजा न सुतं नृपनन्द्नः 
शिशंज्ञात्वा परित्यक्तःसकुरुस्तेन वै तदा । शमिष्ठायाःसुतंपुण्यं तं पूरै जगदीश्वर: ॥ 
र वभाषे च जरामे गृह्यतापुनः । थुङ्क्ष्वराज्य मयादृत्त सुपुण्यं हतकण्टकम्‌ ॥ 
5 प्त 
[ पित्रासुक्तं यथातव । त्बदादेशं करिष्यामि जरा'मे दीयतां नरप ॥ 
तारुण्येन ममायव भूत्वा सुन्दररूपद्टक्‌ । 


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२५९६ FS ऋ पाझपुराणम्‌ ॐ [ २ भूमिद 
भुङक्ष्व भोगान्छुकर्माणि 'बिषयाखक्तचेतनः ॥ ४६॥ | 
यावदिच्छा महाभाग विहरस्व तयासद | यावजञ्जीचास्यह्‌ तात जरांताबदराम्या 
एवमुक्तस्तु तेनापि पूरुणा जगतीपतिः । हर्षेणमहताबिष्टस्तंपुत्न मत्युवाच सः | 
यस्माद्वत्स ममाज्ञा चै नहता रुतवानिह । तस्मादहं विधास्यामि वहुसौख्यप्रदाक यय 
| यस्माज्जराग्रहीता मे दत्तं तारुण्यक स्वकम्‌ | | 
तेनराज्यं प्रमुङक्ष्वत्वे मयादत्तं महामते ॥ ५३ ॥ जा 
ए्चमुक्तःसपूरुश्च तेनराज्ञा महीपते । तारुण्य दत्तवानस्मै जग्माहास्माज्जरां नृप ६ 
ततःछृते विनिमये वयसोस्तातपुत्रयोः। तस्मादुचद्धतरःपूर:लवाडु चु व्यद्ण्यत ॥ 
नूतनत्वं गतोराजा यथापोडशवाषिकः । रूपेणमहताविष्टी द्वितीयइचमन्मथः ॥ 
घनूराज्य च छत्रं च व्यजनंचासनं गजम्‌। कोशंदेशंवळंसचं चामरस्यन्द्नं तत त 
ददौ तस्य महाराजःपूरोश्चैव महात्मनः । कामासक्तश्च चमात्मा तां नारीमनुचिक्त' 
तत्सर:सागरप्रख्यं कामाख्यं नहुषात्मजः । अश्वुविन्दुमतीयत्र जगाम लघुविक्रम 
तांदृष्ट्वा तु विशालाक्षीं चार्पीनपयोधराम्‌ । विशालां च मदारासक 
राजोवाच | 
आगतोऽस्मि महाभागे विशाळेचारुलोचने । जरात्याग:छृतोभद्रे र 
युवाभूत्वा समायातो भवत्वेषा ममाधुना। - 
यं यं हि चाञ्छतेचेषा तं तं दद्मि न संशय: ॥ ६२ ॥ 
विशालोबाच । 
यदाभवान्समायातो जरांदुष्टां विहाय च । दोषेणेकेनलिसोऽसि भषन्तं न 
राजोचाच | 
ममदोषं वदस्वत्वे यद्जानासि निश्चितम्‌ । तं तु दोषंपरित्यक्ष्ये गुणरूपं न संर 
इति श्रीपादपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे चेनोपाख्याने मातापितृतीर्थचर्णने 
___ ययातिचरितं नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥ 


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१. . _... षकोनाशीतितमोऽ्यायः 
के ययातिनात्वन्मनोरथान्प्रयिष्यामी तिग्रतिज्ञांकृत्वातयासहगान्धर्वविवाहेन वरणम 
| विशालोबाच | 
| शर्मिष्ठा यस्य वे भार्या देवयानी घरानना । सौभाग्यं तत्र बै इृष्टमन्यथानास्ति भूपते॥ 
॥¢ तत्कथं त्वं महाभाग अस्याःकार्यचशोभवेः । सपल्नजेनभावेन भवान्मर्ताग्रतिष्टितः ॥ 
| ससपोंऽसि महाराज भूतले चन्दनं यथा। | ; 
पा... सर्देंश्ववेश्तो राजन्महाचन्द्न एव हि ॥ ३॥ 
त्य! तथात्वं वे ष्टितःसर्पेःसपल्लीसज्ञकेरप । घरमञ्निप्रवेशश्च शिखाग्रात्पतनं चरम्‌॥४॥ 
न) रुपतेजःसभाथुक्तं सपत्तीसहितं प्रियम्‌ । न घरं तादृशं कान्तं सपल्लीविषसंयुतम्‌ ॥५॥ 
का, तस्मान्नमन्यते कान्‍्तं-भवन्तं गुणसागरम्‌ ॥ ६ ॥ 
॥ राजोवाच । 
| देवयान्यानमैकार्य शमिष्ठया चराने । इत्यर्थ पश्य मेकोशं सत्त्वधर्मसमन्वितम्‌ ॥७॥ 
ह .  . अधुबिन्दुमत्युचाच । 
अहंराज्यस्यभोक्तत्री च तवकायस्य भूपते । यचद्वदाम्यहं भूप तत्तत्कार्य त्वयाधुवम्‌ 
इत्यर्थे ममदेहि स्वंकरं त्वं -घमेवत्सल । बहुधर्मसमोपेत॑ चारुलक्षणसंयुतम्‌ ॥ ६ ॥ 


'राजोचाच। 
अन्यभार्या' नचिन्दामि त्वांघिना घरवणिनि । राज्यं च सकलासुचीममकायं चरानने 
| सकोशंभुडक्ष्व चावे ङ्गि एषद्त्तःकरस्तव | 
शर यदेवसाषसे भद्रे तदेवं तु करोम्यहम्‌॥११॥ 
रे : .अश्वुबिन्दुमत्युवाच । 


` अनेनापि .महाभाग तवभार्या भवाम्यहम्‌। . ... 
| Fi. oi! एबखब्राक्रण्ये काजेम्दो हषन्याकुळलोतन॥ 1] शहा by eGangetri ° 


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| 1 
२५८ ऋ पाद्यपुराणम्‌ ३ [ २ मिर 
गान्धर्वेणविवाहेन ययातिः पृथिचीपतिः । उपयेमेखुतांपुण्यां मन्मथस्य नरोत्तम. 
... तयासार्ड महात्मा बै रमते टपनन्दनः । सागरस्य च तीरेष॒ चनेषूपवनेषु च ॥ ४ 
_ पर्वतेषु च सस्येषु सरित्सु च तयासह । रमते राजराजेन्द्रस्तरुण्येन महीपति: ॥ एइत्यु 
एब विशंत्सहस्ञाणि गतानि निरतस्य च । भूपस्य तत्यराजेन्द्र ययातेस्तु महातनर 
Es, विष्णुरूचाच ।. दो 
एवं तया महाराजो ययातिमोंहितस्तदा । कन्दर्पस्यप्रपञ्चिन इन्द्रस्यार्थे महामते || 
TT सुकर्मोचाच । 
एं पिप्पलराजासौ ययातिःपृथिचीपतिः । तस्यामोहेनकामेन रतेचललितेन च ॥[ध्त्तर 
न जानाति दिनंराचि मुग्धःकामस्य कन्यया । एकदामो हितं भूपं ययाति कामननिअन्य 


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उवाच प्रणत्तं नप्न' वशगं चारुलोचना । त्य 
mest: अश्रुबिन्दुमत्युचाच । तुतो 

सञ्जातं दोहदंकान्त तन्मे कुरु मनोरथम्‌ । अश्वमेधं मखश्रेष्ठं यजस्व पृथिवीपते | 
राजोचाच । अन्य 


एवमस्तु महाभागे करोमि तवसुप्रियम्‌। समाहय सुतश्रेष्ठं राज्यभोगे दिन 
समाइतःसमायातो भत्त्यानमितकन्धरः । वद्धाञ्जलिपुरोभूत्वा घणामंमकरोत्हरः 
तस्याःपादौ ननामाथ भत्तयानमितकन्धरः । ओदेशोदीयतां ज्र र्ड 
किकरोमि महाभाग दासस्ते प्रणतोऽस्मि च ॥ २४॥ 


तयासाधं स जग्राह सुदीक्षां कामकन्यया । 

अश्वमेधयज्ञवारे दत्त्वा दानान्यनेकघा ॥ २७ ॥ 
व्राह्मणेम्को महाराज भूरिदानमनन्तकम्‌ । दीनेषु च -बिशोषेण ` ययातिःपृ्ः 
यज्ञान्ते ल.महापज़ातामुन्राक् वताम) ासत्त छप्रियंजराळे क्रो मि'ववर 


। 
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कै अशी तितमो5ध्यायः | % शमिष्ठादेवयात्र्योवेतनवणनम्‌ # २५९. 


hy तत्सचं देघि कर्तास्मि साध्यासाध्य॑ चरानने रच्या: 
र सुकर्मोचाच। ` 


((इत्युक्तातेन साराज्ञा भूपालंप्रत्युवाच ह। जातोमे दोहदोराजंस्तत्कुरुष्व ममानघ ॥३० : 
केइन्द्रकोको प्रह्मलोकं शिवळोकं तथेव च। विष्णुलोक महाराज द्रष्टुमिच्छामि सुप्रियम्‌ 
दर्शयस्व महाभाग यदहं सुमिया तव । एवमुक्तस्तयाराजा तामुवाच सखुप्रियाम्‌॥ 
Ik साधुसाधु वरारोहे पुण्यमेव प्रभाषसे | 
| स्त्रीस्चभावाच्च चापल्यात्कौतुकाच्च घरानने ॥ ३३॥ 
तवोक्तं महाभागे तदसाध्यं विमाति मे । तत्साध्यं पुण्यदानेन . यज्ञेनतपसापि च ॥ 
द्अन्यथा न भवेत्साध्ययत्त्वयोक्तंचरानने। असाध्यं तु भवत्या वै भाषितंपुण्यमिश्चितम्‌: 
मर्त्यछोकाच्छरीरेण अनेनापि च मानवः । सुतोद्ष्टो न मेऽद्यापि गतंःस्वर्ग खपुण्यकृत्‌ 
ततोऽसाध्यं वरारोहे यत्त्वयाभाषितं मम । अन्यदेचकरिष्यामि प्रियं ते तद्वदप्रिये ॥ 
| | हे ६ देव्युवाच || र 432 , : 
अन्येश्चमानुषे राजन्नसाध्यंस्यान्नसंशय: । त्वयिसाध्यं महाराज सत्यंसत्यं चदाम्यहम्‌ 
पूहतपसायशसाक्षात्रैर्दानैयज्षे्व भूपते । नास्तिभवाद्वशश्वान्यो मत्यलोके च मानवः:॥' 
तकसात्रेबकरजुतेजश्च त्वयिसवं प्रतिष्ठितम्‌। तस्मादेवं प्रकतेव्यं मत्प्रियं नहुषात्मज ॥ 
| इविश्री पाझपुराणे ह्वितीयेभूमिखण्डेबेनोपाख्यानेमातापित्तीर्थवर्णनेययातिचरिजरे 
| पकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७६॥ . 


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अशीतितमोऽध्याय।  . ` 
` शर्मिष्ठादेवयान्योवतनवर्णनम्‌ |. . . . . ... . 
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1 यदारान्न उप्येमे.दिजोत्तम 1; किचकाते तदातेड़े पूवमाथ सपुण्यके ॥ र ॥ 


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७ ८३ ० 5 | 
: र. ' . / कँपाइपुराणम * ` [२ भूछि 
देवयानी महाभागा शमिष्ठावार्षपर्वेणी । तयोश्वरिञर तत्सवं .कथयस्व ममाग्रतः. 
i सुकर्मोचाच । | 


यदानीता कामकन्या स्वग्रहं तेन भूसुजा । अत्यर्थं स्पर्धेते सा तु देवयानी मनि, 
तस्यार्थे तु खुतौशापतौ ऋोधेनकुलितात्मना । शमिष्ठां च समाहूय र्य यश 
रूपेण तेजसादानैःसत्यपुण्यत्रतैस्वथा । शमिष्ठा देवयानी च स्पत 
___ दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा | . यथे 
राज्ञे सर्वतया विप्र कथितं ततक्षाणादिह ॥ ६ ॥  मेनः 
अथक्रघो महाराजःसमाहयात्रवीयदुम्‌ । शर्मिष्ठावध्यतांगत्वा शुक्रधुत्री तथापुनर१ का 
सुमरियंकुरू मे चत्ख यविश्रेयो हि मन्यसे। एवमाकण्ये तत्तस्य पितुर्याक्यं यदुस्त। 
प्रत्युचाच नृपेन्द्रं तं 'पितरंप्रति मानद ! नाहंतु घातयेतात मातरौदोषचजिते ॥ 
मातृघाते महादोषःकथितो चेदपण्डितैः। तस्माद्घातं महाराज एतयोने करोम एवः 
दोषाणां तु सहस्रेण मातालिप्ता यदा भवेत्‌ । भगिनी च महाराज दुहिता च तूणज 
पुन्रैर्घा आतृभिश्चैच नेववध्या भवेत्कदा । ए॒वंज्ञात्वा मातरोनेच घाः 
यदोर्चाक्यं तदाश्रुत्वा राजाक्रुद्धो बभूवह । शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः 
यस्मादाज्ञाहतात्वद्य त्वया पापिसमो5पि हि । 
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छाप कलुषीकृतः ॥ १४ ॥ 
एवसुक्त्वा यद पुत्र ययातिःपृथिघीपतिः । पुत्रंशप्त्वा 
रमते सुखभोगेन विष्णोध्यानेनतत्परः । अश्लुविन्दुमती सा च तेनसाडे खुब 
बुभुजेचारुसर्चाड्री पुण्यान्भोगान्मनोऽनुगान्‌। एवंकालोगतस्तस्य ee 
अक्षया निजेराःसर्चा अपरास्तु प्रजास्तथा । : | 
सर्वेलोका 'महाभाग विष्णुध्यानंपरायणाः ॥ १८॥ 
तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पछ। सर्वेलोका महाभागसु:खिनःसाधुरे 
इतिश्री पाइपुराणे द्वितोयेभूमिखण्डेवेनोपाल्यानेमातापिदतीर्थवणनेययारि 
व्र ९८9; की ४७०७० तितमो जाय: billie | यो मकन | 


RE एकाशीतितमो ऽष्यायः 
९ नद्ञ्ञयामेनिकाप्सरसोऽ्विन्दमतीमरत्यागमनम्‌ | 
ह! सुकर्मोचाच । 


यथेन्द्रोऽसौ महाप्राज्ःखदाभीतो महात्मनः । ययातेयिक्रमंद्ृष्ट्या दानपुण्यादिकंचहु॥ 
मेनकां प्रेषयामाख अप्सरां दूतकर्मणि । गच्छमद्रे महाभागे ममादेशं घंदस्व हि॥ २॥ 
i 'कामकन्यासितोगत्वा देवराज घचोघद्‌ । येनकेनाप्युपायेन राजानं त्वमिहानय ॥ ३ ॥ 
स्‌ ` एचंश्रुत्वा गतासा च मेनका तत्रप्रेषिता । 
Ii समाचप्र तु तत्सवं देवराजस्य भाषितम्‌ ॥ ४ ॥ 
हुपसु्ता गतासा च मेनका तत्प्रचोदिता । गतायां मेनकायां तु रतिपुत्री मनस्विनी 
तराजानां ध्मसङ्केतं प्रत्युचाच यशस्विनी । राजंस्त्वयाहमानीता सत्यवाक्येन चै पुरा 
घाहेस्वकरस्यान्सरेदत्तो भवनं च समाहृता । यचद्वदाम्यहं राजंस्तत्तत्कायं हि वे त्वया ॥ 
तदेचं हि त्वयाचीर नङृतं भाषितं मम। : - 
त्वामेचं तु परित्यक्ष्ये यास्यामि पितमन्द्रिम्‌॥ ८॥ 
राजोचाच। 
पथो हि त्वयाभद्रे तत्तेकर्त्ता संशयः । असाष्यं तु परित्यज्य साध्यंदेचि वद्स्वमे 


अश्रुबिन्दुमत्युवाच । : 
लव महीकान्त भवानिह मयावृतः । सरवेलक्षणसम्पन्नःसर्वधर्मेसमन्वितः॥ १० ॥ 
पर्व॑साध्यमितिज्ञात्वा सवैधर्तास्मेव च ।. कर्त्तारं सवेधर्माणां सष्टारं पुण्यकर्मेणाम्‌॥ 
| त्रैलोक्यसाधकंजञात्वा त्रैलोक्यऽप्रतिमं च वै। 


घस  िष्णुभक्तमहंजाने वेष्णचानां महावरम्‌॥.१२॥ 
ve यामयाभर्त्ता भवान्नद्रीकृतः पुरा । यस्यचिष्णुप्रसादोऽस्ति स सर्वत्र परिव्रजेत्‌ 
तचसुन्नत ॥१४॥ 


राजेन्द्र नली Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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२६२ ` |  पाद्ापुराणम्‌ # [ रमू द 
विष्णोश्चैव प्रसादेन गगनेगतिरुत्तमा । मत्यलोकं समासाथ त्वयेच वसुधा) ए, 
जरापलितहीनास्तु रुत्युदीनाजना:झताः । ग्रहद्वारेषु सर्वेषु मर्त्यानां च नरषभ मः 
कल्पट्रमा अनेकाश्च त्वयैच परिकब्पिताः । 
_ एषांग्रहेषु मर्त्यानां सुनयःकामधेनघः ॥ १७ ॥ | 
बेता राजन्स्थिरीभूताःसदाइताः । सुखिनःसर्वंकामैश्च मानवाश्च त्यया पा 
ग्रहेकमध्ये साहस्रं कुलीनानां .प्रदुश्यते | एवं वंशविवृद्धिश्च मानवानां. त्वयाज्न 
यमस्यापि चिरो भेन इन्द्रस्य च नरोत्तम । व्याधिपापविहीनस्तु मत्येलोकस्त्वगा 
स्वतेजसाऽहङ्कारैण स्वर्गरूपं तु भूतलम्‌ । 
दशितं हि महाराज त्वत्संमोनास्तिं भूपतिः ॥ २१ ॥ 
नरोनेच प्रसूतो हि नोत्पत्स्यति भवाहुशः । भषन्तमित्यहंजाने सर्वध्ंपम ती न्न 
तस्मान्मयाक्रतोभर्ता घदस्वैचं ममाग्रतः । नर्ममुक्त्वा दृपेन्द्रत्वं चदसत्यं ममाग्र यः 
यदि ते सत्यमस्तीह घमंश्वास्ति नराधिप। देवलोकेषु मे नास्ति गगनेगतिरत्ता 


| 
1 
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सत्यं त्यक्त्वा यदा च त्वं नेच स्वर्ग गमिष्यसि । पप 
तदाकूटं तचचचो भविष्यति न संशय: ॥ २५॥ डः 
पूबंक्ृतं हि यच्छेयो भस्मीभूतं भविष्यति ॥ २६ ॥ ड 


राजोचाच। 
सत्यसुक्तं त्वयाभद्रे साघ्यासाध्यं न चास्तिमे। सवंसाघ्यंसुलोकं मे सुपस 


स्वगं देवि यतोनेमि तत्र मे कारणं श्रणु । भागं तु तेन दास्यन्ति ह 
ततो मे मानवाःसर्वे प्रजा:सर्वांचरानने । सत्युयुक्ता भविष्यन्ति मयाहीना न संश प 
गन्तुं स्वगे न घाञ्छामि सत्यमुक्तं घरानने ॥ ३० ॥. 
` ` देव्युचाच । 
लोकान्दरष्ट्चा मद्दाराजआगमिष्यसिचै पुनः । पूरयस्व ममाद्यत्व जातां 
-.'.....  राजोबाच | 5 
- संवमेचं करिष्यामि यत्त्वयोक्तं न संशयः । समालोक्य महातेजा 


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झि. एकाशी तितमोऽध्यायः ] # ययातिराज्ञोऽन्तमनसिचिन्ताकरणम्‌ # २३ 


[| एवसुक्त्वा प्रियांराजा चिन्तयामास चै तदा.। अन्तर्जेळचरोमत्स्यःसोऽपिजांलेन वध्यते 
|! मरुत्समानवेगो 5 पि सुगः प्राप्नोति वन्धनम्‌ । योजनानां सहस्रस्थमा मिषं चीक्षतेखगः॥ 
| सकण्ठल्झपाश च न पश्यद्देचमो हितः । 
| सवपम्यकर:काल:कालःसम्मानहानिद: ॥ ३५ ॥ । 
यो! परिभावकरःकालो यत्रकुत्रापि तिष्ठत: । नरकरोति दातारं याचितारं च वै पुनःः॥ 
न भूतानि स्थावरादीनि दिषि वा यदि वा भुचि । सव कलयतेकाल:कालोह्योक इद्‌ जगत्‌ 
र अनादिनिधनोधाता जगतःकारणंपरम्‌। लोकान्कालःसपचति चक्षेफलमिवाहितम्‌ 
| न मन्त्रा न तपोदानं न मित्रोणि न वान्धवा: | 
| . शक्लुचन्ति परित्रातं नरं कालेन पीडितम्‌ ॥ ३६॥ 
| अरयःकाळछताःपाशाःशक्यन्ते नातिषतितुम्‌। विषाहोजन्ममरणं यदायत्र तु येन च॥ 
र| यथा जरधाराव्योल्नि भ्राम्यन्ते मातरिश्वना । तथेदंकमयुक्तेन काळेन भ्राम्यते जगत्‌ 
ता सुकर्मोचाच । 
काळोऽयं कसयुक्तस्तु योनरेःसमुपासितः । कालस्तुप्रेस्येत्कर्म तं त॑ कालःकरो तिस 
उपद्रवा घातदोषा:सर्पाच्वव्याघयस्ततः । सर्वेकमे नियुक्तास्ते प्रचरन्ति च मानुषे ॥४३॥ 
सुखस्यहेतवो ये च उपायाःपुण्यमिश्रिता: । ते सरे कर्मसंयुक्ता नपश्येयुःशुभाशुभम्‌॥ 
कमेदा यदि घा लोके कमेसम्बन्धि बान्धवाः | 
कर्माणि चोदयन्तीह पुरुषं सुखदुःखयोः ॥४५ ॥ १ 
सुवणरजतंचापि यथारूपंविनिश्चितम्‌ । तथानिबध्यते जन्तुःस्वकर्मणिवशाचुग:॥४६॥ . 
पञ्चतानीहसज्यन्ते गर्भेस्थस्यैव देहिनः । आयुःकर्म च वित्तं च विद्या निधनमेच च॥ 
यथास्ट्रत्पिण्डतःकर्ता कुरुते यद्यदिच्छति । तथापूर्वक्ृतंकर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ ४८ ॥ 
देवत्वमथ मानुष्यं पशुत्वं पक्षिता तथा । ` ९ 
तिर्यक्त्वं स्थावरत्वं च प्राप्यते च स्वकमेभिः ॥ ४६ ॥ :2 - 
. | सपवत्तथाभुङ्क्त नित्य विहितमात्मना । आत्माविहितंदुःखं चात्मना घिहितंसुखम्‌ ॥ 


गमेशय्यासुपादाय चित्पुरुषा सुंबिः॥ 
C-0 अञ्जते kshu पदि wan Varariasi Collection. Digitized by eGangotn 


` २६४ - कै पद्मपुराणम्‌ # [२ कर 
बलेन प्रज्ञयावापि समर्थाःकर्तमन्यथां । पचि 
सि सुरुतान्थुपमुञ्जन्ति दुःखानि च सुखानि च ॥ ५२॥ 
` हेतुंप्राप्य नरोनित्यं कर्मेबन्धैस्तु वध्यते | यथाघेनुसहस्तेषु घत्सोचिन्दति माता 
तथाशुभाशुभंकमे कर्तारमनुगच्छति । उपभोगाद्तेयस्य नाशपच न विद्यते ॥ ५ 
प्राक्तनं वन्धनंकर्म को5न्यथाकर्तमहति। खुशीघ्रमपि घावन्तं चिघानमनुधावति (पवि 
शेतेसहशयानेन पुराकम यथाकृतम्‌ । | 
| उपचिष्ठति तिष्ठन्तं गच्छन्तमनुगच्छति ॥ ५६ ॥ | 
करोति कुवंतःकमं च्छायेवानुविधीयते । यथाछाया तपौ नित्यं सुसम्बद्धौ परस्पस्‌। 
तद्वत्कर्म च कर्ता च सुसम्बद्धौ परस्परम्‌। ` 1 । डु 
` ग्रहारोगाविषाःसर्पाःशाकिन्यो राक्षसास्तथा ॥ ५८ ॥ 
पीडयन्ति नरंपश्चात्पीडितं पूर्वेकमेणा । येन यत्रोपभोक्तव्यं खुल था दुःखमेववा 
स तत्रवदुध्वारज्ज्वा वै बलाद्देवेन नीयते । देवःप्रभुहिभूतानां सुखढुःखोपपादने |; 
` अन्यथा चिन्त्यतेकम जाग्रता स्वपतापि चा । 
` अन्यथा स तथा प्राज्ञ देवएवं जिघांसति ॥ ६१ ॥ | १ 
` शस्त्राझि विषदुर्गेभ्यो रक्षितव्यं च रक्षात । अरक्षितं भवेत्सत्य तदेचं न 
देवेन नाशितंयत्त॒ तस्यरक्षा न इश्यते । यथाएथिव्यां चीजानि उप्तानि च घनानि 
तथेवात्मनि कर्माणि तिष्ठन्ति प्रभवन्ति च । तैळक्षयाद्यथादीपो निर्वाणमधिग्ं 1 
कमेक्षयात्तथाजन्तुःशरीरान्नाशस्रच्छति । 
कमक्षयात्तथासरत्युस्तत्त्वघिद्व्रिदाह्ृतः ।। ६५ ॥ 
चिचिधांःप्राणिनस्तस्य सरृत्योरोगाश्च हेतवः । तथाममचिपाकोऽयं 
सम्प्राप्तो नात्रसन्देहःर्त्रीरूपोऽयं न संशय: । छ मे गेहं समायाता च्या 
तेषां सङ्गप्रसङ्गेन जरादेहं समा श्रिता । ॥ 
| ` सवं क्मेङतंमन्ये यन्मे सम्भावित भुवम्‌ ॥ ३ ` 
। _तस्मात्कमेग्रधानं च उपायाश्च निरर्थकाः । पुरा वै देवराजेन मदर्थे-दूतसत्तमः र : 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| ह्‌ | ० हु 
पिद्यशीतितमो5ध्यायः ] क अश्रु विन्दुमत्या स्वगंगमनायात्याग्रहं # २६५ र 
प्रेषितो मातलिर्नाम नृतं तस्यतद्वचः । तस्यकमे विपाकोऽयं हश्यते साम्प्रत मम ॥ 
इति चिन्तापरोभूत्वा दुःखेनमहतान्वितः । 
है यद्यस्याहिवचःप्रीत्या न करोमि हि सर्वथा ॥ ७१॥ 3 
सत्यधर्माचुभावेधी यास्यतस्तौ न संशयः । सद्वशं च समायातं यदुदृषटं ममकर्मणा ॥ 
(भविष्यति न सन्देहो देवो हि दुरतिक्रमः । एवंचिन्तापरोभूत्वा ययातिःप्रथिघीपति 
कृष्णं क्लेशापहंदेवं जगाम शरंणंहरिम्‌ । र 


| 
| ध्यात्वा नत्वा ततःस्तुत्वा मनसा मधुसूदनम्‌ ॥ ७४ ॥ 
र चाहि मां शरणंग्राप्तस्त्वामहं कमलाप्रिय ॥ ७५॥ ` 
| इतिश्रीपाझपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डेबेनोपाल्यानेमातापितृतीर्थवर्णनेययातिचंरिञ 
| एकाशी तितमोऽध्यायः ॥ ८१॥ 
| पण 
I 


_दुव्यशञीतितमोऽध्यायः 


विन्दुमत्याःस्वगममनायात्याग्रहं इष्टवा पूरपुत्रायराज्यंसमप्यं जराग्रहणम्‌ 
नि ॥ सुकर्मोचाच | 
राव चिन्तयतेयाचद्वाजा परमधार्मिकः । तावत्प्रोचाच सा देवी रतिपुत्री चरानना॥१॥ 
चिन्तयसे राजंस्त्वमिहैव महामते । प्रायेणापि स्त्रियःसर्वाश्चपला:स्युनेसंशय 
नाहंचापल्यभावेन त्वामेवं प्रविचालये । 
: ' नाहं हि कारयाम्यद्य भवत्पाश्चं नृपोत्तम ॥ ३॥ ` 
` ` अन्यस्त्रियो यथालोके चपलत्वाद्वदन्ति च। 
। अकायी राजराजेन्द्र लोभान्मोहाच्च लम्पराः ॥ ४॥ 
re दर्शनायेच जाताश्रद्धा ममोरसि । देवानां दशनंपुण्यं दुलेमं हि सुमाजुषेः॥ 
॥६ च दर्शन राजन्कारयामि चदस्व मे । दोषंपापकरंयत्त मत्सङ्घादिह चेद्गवेत्‌॥ ६ ॥ 


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1 
०... जहर ॐ पाद्यपुराणम्‌ अ | [रमू 
कथंचिन्तयसेदुःखं यथान्यःप्राकृतोजनः । महाभयाद्यथाभीतो मोहगत गते, 
त्यैजचिन्ताँ महाराज न गन्तव्यं त्वयादिवि । येन ते जायतेडुःखं तन्नकाय मयार, 
एवमुक्तस्तथाराजा तामुवाच वराननाम्‌ । चिन्तितंयन्मयादेचि तच्छृणुष्व हि सः > 
मानभङ्गो मयाद्ृष्टो नेवस्वस्यमनः प्रिये । मयिस्वगगते कौन्ते प्रजादीना भविष 
त्रासयिष्यति दुष्टात्मा यमस्तु व्याधिमिःप्रजाः । है 
त्वयासार्ध प्रयास्यामि स्वर्गलोकं वरानने ॥ ११ ॥ | 
एवमाभाष्य तां राजा समाइय सुतोत्तमम्‌। | 
पूरं तं सवेधमंज्ञं जरायुक्तं महामतिम्‌ ॥ १२ ॥ 
एह्येहि सर्वंधर्मज्ञ धर्मजानासि निश्चितम्‌ । ममाज्ञयाहि धर्मात्मन्धमे सम्पाहितर 
जरा मे दीयतां तात तारुण्यं गृह्यतां पुनः । राज्यंकुरु ममेद्‌ त्वं सकोश बलवाह| 
आसमुद्रां प्रभुङक्षवत्वं रत्नपूर्णाः घसुन्धराम्‌ । मयादत्तां महाभाग सग्रामचनप यः 
प्रजानां पाळनंपुण्यं कतेव्यं च सदानघ । 
दुष्टानां शासनंनित्यं साधूनां परिपालनम्‌ ॥ १६ ॥ 
कतेव्यं च त्वयाचत्ख ध्मंशास्त्रप्रमाणतः । ब्राह्मणानां महाभाग चिधिनापिस्व 
- भक्त्या च पाळनंकार्य यस्मात्पूज्या जगत्त्रये । 
पञ्चमे सप्तमे घस्रे कोशंपश्य चिपश्चितः ॥ १८॥ 
बलं च नित्यं सम्पूज्यं प्रसादधनभोजनेः । चारचक्षुर्भवस्वत्व नित्यंदानपरोमेव 
भवस्व नियतोमन्त्रे खदागोप्यःसुपण्डितैः । नियतात्मा भवस्वत्वं मागच्छ सा 
विश्वासःकस्य नोकार्यःस्रीबुकोदो महाबळे । 
पात्राणां त्वं तु सर्वेषां कलानां कुरुसङ्ग्रहम्‌ ॥ २१॥ ध 
यजयजञेहृ षीकेशं पुण्यात्माभव खंदा । प्रजानां कण्टकान्सर्वान्मर्दयस् दि 
प्रजानां वाञ्छितंसवेमर्पयस्व दिनेदिने | प्रजासौख्यं प्रकर्तव्यं प्रजाःपो षय प 
स्वकोवंश:प्रकतेव्यःपरदारेषु माकृथा: । मतिदुष्टां परस्वेषु पूर्वानन्वेहि सवदा ॥' 
वेदानां हि सदाचिन्ता शास्त्राणां हि च सर्वदा । 6 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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LN जयशीतितमोऽध्यायः ] # ययाते वेष्णवलोकंप्रतिगमनम्‌ # 


ग कुरुष्वव सदाचत्स शस्राम्यासरतो भव ॥ २५॥ 
सन्तुष्टःसवेदावत्स स्वशय्यानिरतोभव | गजस्यचाजिनोऽभ्यासं स्यन्दनस्य च सवेदा 
| एवमोदिश्य तं पुत्रमाशीमिरभिनन्द्य च । स्वहस्तेन च संस्थाप्य करेदृत्तं स्वमायुधम्‌ 


स्वाजरा तु समाशह्य द्त्वातारुण्यमस्य च। गन्तुकामस्ततःस्वगं ययांतिःपृथिबीपति 
इति श्रीपामपुराणे द्वितीये भूमिखण्डेवेनोपाख्यानेमातापिठ्तीर्थवर्णने ययातिचरित्रे 


२६७ 


| इयशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२॥ 
| SN 
| 
तह तत 
ही 5यशी तिंतमो ऽध्यायः 
| जत र लता 
पा ययातेः बहुभिः प्रजाजनः सह तया श्रुबिन्दुमत्याच सह वेष्णवलोकंग्रतिगमनम्‌। 
| सुकर्मोचाच । 


समाहय प्रजाःस्ां द्वीपानां वसुधाधिपः । हर्षणमदताविष्ट इदंचचनमत्रवीत्‌ ॥ १ ॥ 
लोकं ब्रह्मलोकं रुद्रलोकमतःपरम्‌ । वैष्णवं सर्वपापघ्नं प्राणिनां गतिदायकम्‌ ॥ 
' घजाम्यहं न सन्देहो हानयासह सत्तमाः । ब्राह्मणाःक्षत्रियावेश्या:ःसशुद्राश्व प्रजामम ॥ 
सुखेनापि सकुट॒म्वेःस्थातव्यं तु महीतले। पूरुरैष महाभागो भवतां पालकस्त्विह ॥ 
व स्थापितोऽस्ति मयालोका राज्ञाधीरःसदण्डकः । 
गा i एवसुक्तास्तुः ताःसर्चाःप्रजा राजानमत्र_चन ॥ ५॥ 
सर्ववेदेछु पुराणेषु नृपोत्तम। धर्मएवं यतोलोके न दृष्टःकेन वे पुरा ॥ ६॥ 
हृशोऽस्माभिरसौधमों दशाङ्गःसत्यवल्लमः । सोमवंशसमुत्पन्नो नहुषस्य महाग्रहे ॥ 


द्‌ न वससत । ज्ञानविज्ञानसम्पन्नःपुण्यानां च मदानिधि॥८॥ 
कणानां हि महाराज आकरःसत्यपण्डितः । :कुव्रेन्ति च महाधमं सत्यचन्तो म्रहोजसः 


दृष्टवन्तःस्म भवन्तं कामरूपिणम्‌; भषन्तं कासकेर्तारमीद्वशं सत्यचादिनिम्‌॥ | 
| कमेणा त्रिचिघेनापि वयत्यक्त न शक्‍युमः!!: जड 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varaftasi Collection. Digitized by eGangotri 


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र: (३६८ | #पाइपुराणम्‌ # . [ २भूक् 
` यत्र त्व॑ तत्रगच्छामःखुसुखं पुण्यमेव च ॥ ११॥ 
नरकेऽपि भवान्यत्र वयंतत्र नसंशयः । किंदारैघनमोगैश्व किंजीवेजीवितेन च|| 
त्वां बिना सुमहाराज तेननास्त्यत्र कारणम्‌ | 
त्वयैचसह . राजेन्द्र वयं यास्याम नान्यथा ॥ १३॥ 
णवंश्चत्वा वचस्तासां प्रजानां पृथिवीपतिः । हर्षेणमहताचिष्टःप्रजावाक्यमुवाच 
आगच्छन्तु मयासाद्ध॑ सचलोकाःखुपुण्यकाः । 
नृपोरथं समारुह्य तया घे कामकन्यया ॥ १५॥ | 
रथेनहंसवर्णेन चन्द्रविस्वानुकारिणा । चामरेव्यंजनेश्चापि घीज्यमानो गतव्यथ ॥ 


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केतुना तेनपुण्येन शुभ्र णापि महीयसा । शोभमानो यथादेवो देवराजःपुरन्द्रः ॥एव 
अऋषिभिःस्तूयमानस्तु बन्दिभिश्चारणैस्तथा । प्रजाभिःस्तूयमानश्च यया तिनहुषात 
प्रजाःसर्घास्ततोयानैःसमायाता नरेश्वरम्‌ । गजैरश्वेरथैश्वान्येःप्रस्थिताश्च द 
ब्राह्मणाःक्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्चान्ये पृथग्जनाः । 
सचे च वेष्णवालोका विष्णुध्यानपरायणाः ॥ २० ॥ | 
एतेषां तु केतवःशुक्का हेमदण्डैरलङ्क्कताः । शद्ुचक्रा द्लिता:सर्वेसदण्डाःसपताकि| 
प्रजाबन्देषु भासन्ते पताका मारुतेरिताः । दिव्यमालाघरास्खर्वे शोभितास्तुल्सीयो 
दिव्यचन्द्नदिग्धाङ्गा दिव्यगन्धानुलेपनाः । दिव्यचस्त्रकृताशोभा दिव्यामरण बन 
सर्वलोकःसुरुपास्ते राजानमुपजग्मिरे। प्रजाशतसहस्थाणि छक्षकोटिशतानि चव 
*अरवेखवंसहस्त्राणि तेजनाःप्रतिजग्मिरै। ते तु राज्ञासमंसर्व वैष्णबा:पुण्यकारिण 
विष्णुध्यानपराःसर्व जपदानपरायणाः ॥ २६ ॥ | 
सुकर्मोचाच । 
एवं ते प्रस्थिताःसर्वे हर्षणमहतान्विता; । पूरंपुत्रं महाराज स्वराज्ये 


ते जनाःप्रस्थिताःसर्वे वेष्णवंलोकमुत्तमम्‌ । ततोदेचा:सगन्धर्चा :वि 
सहितादेवराजेन आगताःसंमुखं. तदा । नृपेन्द्रस्य पूजयन्तो 
सुखं. द्‌ तस्येवापि D by eGangotri 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection 


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ह यशीतितमोऽध्यायः ] # ययातेः वैष्णवलोकंप्रतिगमनम्‌ अ २६६ 
ह इन्द्र उघाच। 
| प स्वागतं ते महाराज ममगेहं समाचिश | 
। अत्रभोगान्प्रमुङक्ष्वत्व दिव्यान्कामान्मनो ऽनुगान्‌ ॥ ३१ ॥ 
। राजोषाच। 
१] सहलाक्ष महाभाश्न तवपादास्वुजद्दयम्‌ । नमस्करोम्यहंदेच ब्रह्मलोकं तरजाम्यहम्‌॥३२॥ 
देवेःसंस्तूयमानश्च ब्रह्मलोकं जगामह । पद्मयोनिमहातेजाःसाध॑मुनिवरैस्तथो ॥ ३३ ॥ 
| . आतिथ्यं च चकारस्य पाद्यार्घादिसुविष्रे: । 
ग उवाच विष्णुलोकं हि प्रयाहि त्वं स्वकर्मणा ॥ ३४॥ 
। [एवमाभाषिते धात्रा जगामशिवमन्द्रिम्‌ । चक्रे आतिथ्यपूजां च उमयासह शाङ्करः ॥ 
| तस्यैवापि नृपेन्द्रस्य राजानमिद्मत्रवीत्‌। ` 
मै कृष्णभक्तोडसि राजेन्द्र ममापि सुप्रियो भघान्‌॥ ३६ ॥ 
ततो ययातेराजेन्द घसत्वं मममन्दिरे । सर्वान्मोगान्प्रमुङ्क्ष्वत्वं दुःखप्राप्यान्हिमानुपै: 
। अन्तरंनास्ति राजेन्द्र ममरविष्णोनंसंशयः । 
क्न योऽसौ विष्णुस्वरूपेण स चै रुद्रो न संशयः ॥३८॥ 
सो रुद्रो विद्यते राजन्स च विष्णुःसनातनः। उभयोरन्तरंनास्ति तस्माच्चैव चदाम्यहम्‌ 
षिठविष्णुभक्तस्यपुण्यस्य स्थानमेच ददाम्यहम्‌। तस्मादत्रमहाराज स्थातव्यं हि त्वयानघ ३ 
शिवेनापि ययातिहेरिवल्लमः । भक्त्याप्रणम्य देवेशं शङ्कर नतकन्धरः ॥ | 
महादेव त्वयोक्तमिह साम्प्रतम्‌ । युवयोरन्तरंनास्ति एकामूतिद्धिघा भवत्‌ ॥ 
चेष्णचं गन्तुमिच्छामि पादौतव नमास्यहम्‌ । 
एचमस्तु महाराज गच्छलोक तु . वैष्णवम्‌ ॥ ४३ ॥ 
दिः शिवेनापि प्रतस्थे वसुधा धिप | पृथ्वीशस्तमहापुण्येवंष्णवेविष्णुचलमेः ॥ 
न स्ततस्तैस्तु पुरतस्तस्य भूपतेः । शद्ुशब्दैःसुपापर्नेईसिहनादेःसुपुष्कले: ॥ 
जगाम निःस्वने राजा पूज्यमानःसुचारणे: । 


म । सस्री ीगसातस्त,,पाकीास्तकोविदेः | ३६. by eGangotri 


गायन्ति पुरतस्तस्य गन्धर्वागीततत्पराः। खिमा वता ह 
` अप्खरोमिःखुरूपामिःसेव्यमानःसनाहुषिः । गन्ध किननरै'खिददश्वारणै पुण्य सं 
। जः 


१° 


२३० # पापुराणम्‌,+ .... :: ¦ : [रम २ 


साध्यैर्विद्याधरैराजा मरुद्विवेखुमिस्तथा | | 
दश्वा दित्यवगश्र लोकपाळेदिंगीश्वरेः ॥ ४६ ॥ [छः 
स्तूयमानो महाराजस्त्रैलोक्येत समन्ततः। दहुदों वैष्णवंलोकमनौ पस्यमनाप ब्रह 
चिमानैःकाञ्चनैराजा सवंशोभा समाविलैः । हंसकुन्देन्दुधवलेबिमानेरुपशोफ्ि' 
प्रासादैःशतभौमैश्व मेस्मन्द्रसन्निमैः । शिखिरेरुलिखद्विश्च स्वव्यॉमदारकानति 
जाञचल्यमानैःकळशे:शोभते सुपुरोत्तमम्‌ : >> 
_तारागणैर्यंथाऽकाशां तेजःश्रिया प्रकाशते ॥ ५३॥ | 
प्रज्य॒लत्तेजोज्वालामिलॉचने रिवछोकते । नानारत्नेहरैलोकःप्रदसद्दशनेरिव ॥ | 
समाहयति तांन्पुण्यॉन्वैष्णवान्विष्णुवह्लभान्‌ । । 
ध्वजब्याजेन राजेन्द्र चलिताग्रैःखुपछ्चेः | ५०॥ | 
भ्वसनान्दो लितैस्तैश्च ध्वजाग्रैश्वमनोहरेः । हेमदण्डेश्च घण्टाभिःसर्वत्र समलडइुत 
'सूर्यतेजःप्रकाशैश्व गोपुराट्टाळकेस्ततः । गवाक्षैर्जालमालैश्च वातायनमनोहरेः ॥५ [ 
प्रतोलीनां प्रकाशैश्व प्राकारेहेमरूपकः |. य 
_ तोरणेःसुपताकामिर्नानाशब्देः सुमङ्गलैः ॥ ५८॥ | 
कलशाग्रैश्वक्र विम्वे रबिचिम्बसमप्रमै है| 
ड्‌ सुभोगेःशतककषश्च निजेलाम्बुदसन्निमैः ॥ ५६ ॥ छु 
दृण्डच्छत्रसमाकीणेःकल्शेरुपशोसितेः । प्रावृट्कालाम्वुदाकारेमे न्द्रिर 1 
कलूशेःशोभमानेस्तैऋ कैयौं रिच भूतलम्‌ । ` दण्डजालपताकामिऋ क्षजा 
¦ ` _ताइृशैःरफाटिकाकारेःका न्तिशङ्खेन्दुस न्निभैः । 
! ` ` _ हेमप्रासादसम्वाधेर्नानाधातुमयैस्ततः॥ ६२॥ . 
चिमानेरबुंदसदुयै:शतकोटिसहस्त के: । सर्वेभोगयुतेश्चैच शोभते. हरिपत्तनम्‌॥ , 
येःसमारशितो., दै ाकूवकगदा घर: | ते सातसय, निमसन्ति यहे 


# पाझपुराणम्‌ # [ ४ ब्रह्मलण्डे 
| परांखनं परान्नं परशय्यांपर 


| जनाम्‌। सवेदा घर्जयेद्धिप्र कासिके च विशेषतः ॥ 
छः सौवीरकं तथा माषानामिषं च तथा 


कपित्थं चैब बृन्ताकं कूष्माण्डं कांस्यभोजनम्‌ । 
| द्विष्पाचितं सूतिकान्नं मत्स्यं शक्यां रजस्वळाम्‌ ॥ २३ ॥ 
॥ प हिस्त्रिश्वान्नं स्त्र्यिः सङ्ग घर्जयेत्कासिकवती ॥ 
| धाचीफल शृही चिप्र रवी तत्सवंदा त्यजेत्‌ ॥ २४ ॥ 
| कृष्माण्डे धनहानिः स्याद्‌ बृहत्यां न स्मरेद्धरिम्‌। 
र पटोले तु न बृद्धिःस्याबु वलहानिश्च सूलके॥ २५॥ - 
पै | जायते विस्वे तिर्यग्यो निश्च निम्बुके । ताळे शरीरनाशःस्यान्नारिकेछे चमूखेता 
दृ तुम्बी गोमांसतुल्या स्यादु गोबधं स्यात्कलिन्द्के । 
शिम्बी पापकरा प्रोक्ता पूतिका ब्रह्मघातिका ॥ २७॥ 
वाक्या खुतनाश:स्याव्विररोगीच माषके। मांसेच बहुपापं स्यात्त्यजेत्प्रतिपदा दिषु 
त्किञ्चिद्जयेद्ो ऽन्न श्रीहरैःप्रीतये द्विज । तत्पूनभूंखुरे द्त्वा रतान्ते तस्य भोजनम्‌ | 
|: विप्र यथोक्तकारिणं नरम्‌। यमदूताःपलायन्ते सिंहं दृष्ट्या यथागजा: । 
श्रेष्ठ विष्णुवतं चिप्र तत्तुत्या न शतं मखाः । | 
~ . कत्वा क्रतुं वजेत्स्वग वैकुण्ठं का्तिकत्रती ॥ ३१॥ ` 
यत्किञ्चिद्‌ दुष्कृतं विप्र मनोवाक्कायकमजम्‌ । द 
इष्ट्या तु विल्यं याति कात्तिकवतिनं क्षणात्‌ ॥.३२॥ 


'पुण्यं ब्रह खः समरथामवेडक्त रिणः 
हे नतिनापुण्य अह्याचेव चतुर्मुख: । न समर्थो D -यथोकुनतुका ॥ 


१ 


एकविशतितसो 5ध्यायः 


RRO जिनके 
छै द 
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कार्तिकमासब्रतविधाननियमकथनस्‌ । र 
शौनक उवाच । | 
कथयस्व सुने! सूत! सवेमासोत्तमस्य च । कार्तिकस्य विर्घिसस्यङ्‌नियमान्वदुकलता 


सूत उवाच । कम 
आश्विनस्यद्विजभ्रेष्ट! पौ णेमास्यां समाहितः। कासिकस्यबरतंकर्याच्याचदुदुवोषिीक्षपय 
: कुर्यान्मलसूत्रसुदडसुखः । भवेन्मीनी च सर्वज्ञ रात्रीचेददक्षिणमुधुतध 
दिवा विप्र नरः कुर्यान्मलमूत्रसुदङमुखः 1 भ कः 
पथ्यम्मसि च गोष्ठेषु श्मशाने घल्मिके द्विज ! । छुयांडुत्लजनन्च | 
अत्युत्तमेषुस्थानेछु मलमूत्र न कारयेत्‌ । शुद्धांसुदं गृहीत्वाऽथ बामंप्रक्षाटयेत्शव 
अद्ठिस दापि शुदुध्यथँ पूर्व विशतिसङ्ख्यया । रि 
एका ढिङ्गे शुदे पञ्च तथा चामकरे दश॥६॥ खि 
डभयोद॑श दातव्या पादयोश्च त्रिभिल्रिभिः। सुखशुद्धि ततः कृया म 
हृदि दामोदरं ध्यात्वा इमं मन्त्रं ततोचढेत । कात्तिकेऽहंकरिष्यामिप्रातःर 
दामोद्रस्य प्रीत्यर्थं राधया पापनाशनम्‌। नमः पङ्कजनाभाय इष्णाय 
नमस्ते राधया सादं शृद्दाणाघं प्रसीदमे । स्नानंकुर्यात्ततो चिप्र तिलक तु 
ञच्वपुण्ड्रचिदीनस्तु किञ्चित्कमे करोति यः । 
निष्फल कमे तत्सवं सत्यमेतन्मथोच्यते ॥ ११ ॥ 
यच्छरीरं मनुष्याणासूध्वेपुण्ड्विनाहतम्‌ | तद्दशेन न कतेव्यं दुष्ट्वा सः 
उध्वेपुण्ड' सृदाशुञ्र' लारे यस्य दश्यते । चाण्डालोऽपि विशुद्धात्मा पूड 
अच्छिद्रमूर्व॑पुण्ड्र' तु ये कुबेन्ति नराधमाः । तेषां ळलारे सततं शुनःपादो १ 
प्रातःकालोदितं कमे समाप्य हरिबछभाम्‌ । पूजयेद्वक्तितो चिप्र तुरखीं पाप 


1 तु कथां 'स्थिरमानसः । ततोविप्रं व्रतीभक्त्या 
पौ सुष्ट, तू कथा अतया श्रीहरी सिथ Collection. त by eGangotri 


. कलिप्रियोबाच | 
हा! नाथ कि छतं कमें मया हन्तातिदारुणम्‌ | 


| क॑ लोकं घा गमिष्यामि चद्‌ स्थामिन्मनाग्गिरम्‌ ॥ २१ ॥ 
भत्संनां तु यथाकामंकुर्य्या चाहं खुनिन्दिता 


, १ 
| २५६ ` * पादपुराणम्‌ # [४ ब्रह्मखण्डे 
1 


। किञ्चिन्नचदसिस्वामिन्नेनोयन्मेनविद्यते 
सूत उवाच | 


ताम चरणे तस्य गतान्यनगरं प्रति । तत्र रिष्टा सायोषिदुद्गष्ट्वापुण्यजनान्वहून, 
बि पारामा तत ल उशा । तत्र नद्यां खियञ्चापि राधादामोद्रं द्विज ! 
प्या - च हता चव शाङ्कनाद्‌महोत्सवेः । गन्धपुष्पेधूंपदीपेवेस्त्रेर्नानाचिधे: फले: ॥ 
'मुपुखवासैभक्तियुक्ता दृष्ट्या सा विनयान्दिता | पप्रच्छत्र तयूयंमे किमेतत्क्रियतेस्त्रियः 
खिय ऊचुः । 

त्ममाखोत्तमे चोर्जे राधादामोद्रौ शुभौ । पूजयामो बयं मात: सवेपापहरौशुभौ ॥ 
गडिजन्माजितं पापं नं प्राप्तं निकेतनम्‌ । सपर्यामामिषं त्यक्त्वाङृत्वासाचहरेदिने 
घिन वे पौणमास्याँ गता सा“निर्मेला द्विज || किड्डुराश्चागतातूर्ण यमस्यनिलयंप्रति 
नेतुं तां क्रोधसंयुक्ता बबन्धुश्चरमरज्जुभिः । 
तदाऽऽगता विष्णुदूता विमानं खर्णनिमितम्‌ ॥ ३०॥ 
है. दापझ्मघारिणो घनमालिनः । निजघ्युश्चक्रधारा भियंमदूताः पलायिताः |. 
रसयुते विप्र ! विमाने स्वर्ण निर्मिते । आरूढा सा गतातेस्तु वेष्टिताविष्णुमन्द्रिम, 

तत्र तस्थौ चिरं भोगं इत्वा सा वै यथेप्सितम्‌ । 

या कुर्यात्कात्तिके विग्र ! राधादामोद्रार्चनम्‌॥ ३३॥ 

याति पूजा त्यक्तपापा गोलोकाख्यं मनोहरम्‌ । 

य इद्‌ शएणुयाद्रक्त्या या च नारी समाहिता | 
११ कोरिजन्माजितं पापं तस्य तस्या चिनश्यति ॥ ३४ ॥ 

थरीपाझे महापुराणे चतुथे ब्रह्मलण्डे सूतशौनकसंवादे राधादामोद्रपूज्ा- | 
र ०माहालयुक ताम बित २१.॥, ००१००० 


विशोष्ध्यायः ] # राधादामोद्रपूजनकथनम ॐ १ 


यत्किञ्चिद्यच्छति ब्रहान्कार्तिके च ह्विजातये । 
राधादामोदरप्रीत्यै तस्यापुण्यो5क्षयोमवेत्‌ ॥ ८॥ 
या नारी कात्तिके भक्त्या राघादामोदरं छिज ! । 
प्रातः सपर्या सा याति न कुर्योन्निययं चिरम्‌॥६॥ 
कदाचिज्ञन्मभूमौ सा विधवा प्रति जन्मनि। 
भवेच्यासाच पूचं वे चाप्रिया स्वामिनोऽपि च ॥ १०॥ 
युरा तरेतायुगे विप्र बृषलो नाम शाङ्करः । सौराष्ट्रदेशवासी च तस्य जाया किं ६ 
जारकामा सदा नाम्ना तृणवन्मन्यते पतिम्‌ । 
असौ पतिर्न मे योग्यो मे स्वामी परपूरुषः ॥ १२ ॥ 
इति मत्वा सदा तस्मै चोच्छिष्टं तु ददाति चै । नीचखङ्गान्महासूढा मद्यमांसं क 
स्वामिनो भत्सेनां नित्यं कुर्यात्कामं तु निष्ठरा । 
पापरज्जुरभवेच्चाली कस्माद्दे न सत्तो$पिच॥ १४॥ 
अते तस्मिन्नहं भोगं करिष्यामि यहूच्छया । चिचार्येति हृदासूढा जारेणेकेन स 
अन्यदेशं गमिष्याचःसङ्केतमकरोद्‌ द्विज) सुप्तस्यस्वामिनो रातरौचासिना तदृ 
छित्वा जारकृते सापि सङ्केतस्य स्थळं गता। | 
` आगतं जारपुरुषं द्वीपिना भक्षितं द्विज ! ॥१७॥ 
दृष्टवा खा रोदनं कृत्वा सूच्छिता निपपात ह । 
-चिरादाश्वस्य सा मूढा करुणं विललाप ह॥ १८॥ - 
कलिप्रियोचाच । 
स्वकीय स्वामिनं हत्वा चागता परपूरुषम्‌ । 
तं जारं स्वामिनं दैवाच्छादू लोऽभक्षयन्मम। . 
किं करोमि क गच्छामि विधात्रा घञ्चिताऽस्म्यहम्‌॥ १६॥ 
सूत उवाच । 
-तत7कलिप्रिमा-अहलपराता उजयहस्सलि॥ छप्ते। सत्र मिदोदज्ा सुखं च 


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१ झाविशवितमो5ध्याय: ] ॐ तुळसी धात्रीमाहातम्यकथनम्‌ # | 
-यत्छृत्वा कळुषं सबं अजेद्विप्र दिशो दश। . | । 

क यच्छामि क लिष्ठामि कात्तिकम्॒तिनो भयात्‌ ॥ ३४ ॥ 

-पौणमास्यां यथाशक्ति चान्नचस्त्रा दिक द्विज । 

दद्याद्वै श्रीहरेः प्रीत्यै ब्राह्मणानपि भोजयेत्‌ ॥ ३५ ॥ 

रांची जागरणं कुर्यान्नृत्यगीता दिभित्र ती । 

य इदं म्टणयाद्वक्ष्या तस्य पापं प्रणश्यति॥ ३६॥. 

इति श्रीपाझे महापुराणे चतुर्थ ब्रह्मलण्डे सूतशौनकसंघादे कार्तिकत्रतचिधान कथनं 

कथनंनामैकविशोध्याय: ॥२१॥ 


त ण 


२५६ 


ह? 


PRR, HMO 


द्वाविशो 5व्यायः 
तुलसीधात्रीमाहात्म्यकथनमू । 
| शौनक उवाच । 
र माहात्म्यं ब्र हि सर्वेक्ष शण्वतां पापनाशनम्‌ । 
| खर्वेग्राणिदितार्थाय तुलस्या अनुकम्पया ॥ १॥ 
| सूत उवाच । 


तुळस्याःपरिसरे यस्य काननं तिष्ठति द्विज। गृहस्य तीर्थेरूपत्वान्नायान्ति यमकिङ्कराः 
तुलस्याः काननं चिप्र खबंपापहरं शुभम्‌। रोपयन्ति नराःभ्रे्ास्ते न पश्यन्तिभास्करिम्‌ 
रोपणं पालन सेषां दर्शन स्पर्शनं तु यः । 
कुर्यात्तस्य प्रनष्टं स्यात्सवेपापं द्विजोत्तम ! ॥ ४॥ 
Er हरि तु ये। कालस्य सदनं चिप्र! तेन यान्ति महाशयाः ॥ 
गङ्गायाःस रितःश्रेष्ठा विष्णुब्रहम महेश्वराः । देवैस्तीर्थःपुष्करादये स्तिष्ठन्ति तुलसीद्‌छे 
यो युक्तस्तुळसीपतरैः पापी प्राणान्विसुञ्चति । 
८(चिषप्रोनिक्तेतसं याति चह्यपेत्र्साऐदितम॥84॥ by eGangotri 


क (२६० iE % पाझपुराणम्‌ अ [3 ह 
तुळसी सत्तिकालिपो युक्तपपापशतैरपि। विुञ्जति नरःप्राणान्स याति च न 
यो नरो घारयेद्विप्र तुलसिकाष्ठ चन्दनम्‌। तस्याङ्ग' न स्पृशेत्पापं सयाति परमं फ 
तुलसोकाष्ठमालां तु कण्ठस्थां वहते तु यः । | 
अप्यशोचोऽप्यनाचारो भक्त्या याति हरेण हम्‌ ॥ १०॥ . | तुः 
घात्रीफलक्कता माळा तुळलीकाछसम्मषा । इश्यते यस्य देहे तुस चे भागवतोफ 
तुलसीदलजां मालां कण्ठस्थां घहते तु यः | | 
चिष्णूचछिष्टां विरोषेण स नमस्यो दिघौकसाम्‌॥ १२॥ | 
यः पुनस्तुलसीमालां कण्ठे कृत्वा जनार्दनम्‌ । 
पूजयेत्पुण्यमाप्नोति प्रतिपुष्पं गवायुतम्‌ ॥ १३॥ 
घारयन्ति न ये माझां हैतुकाःपापबुद्धयः । नरकान्न निवर्तन्ते दग्धाःकोपा भिनाहे 
नजह्यात्तुळखीमालां धात्रीमाला विशेषतः । महापातकसंहत्रं' घर्मकामार्थदायिनी 


अ 


स्पृरोद्याचन्ति लोमानि धात्रीमाला कलो . नृणाम्‌ । , 
तावद्दषेसहसत्राणि बसते केशवाल्ये ॥ १६ ॥ ह 
निवेद्य केशवे माळां तुटसीकाष्ठसम्मचाम्‌ । |च 


बहते यो नरो भक्त्या तस्य चे नास्ति पातकम्‌ ॥ १७॥ 
तुळसीकाष्मालां तु प्रेतराजस्य दूतकाः । दृष्ट्या नश्यन्तिद्रेण घातोदुधूतं 
. तुलस्या चिपिने घात्र्याश्छायासु यो नरोत्तमः । 
पिण्डं ददाति पितरो मुक्ति यान्ति द्विजोत्तम ! ॥ १६॥ 
पाणौ सूध्ति गले चेव कर्णयोश्च सुखे द्विज ! । 
धात्रीफलं यस्तु धत्ते स चिज्ञेयो हरिः स्वयम्‌ ॥ २० ॥ 
घात्रीपत्रैफलैचिप्र ध्ीहरिचार्चेयेदु द्विज । को रिजन्माजितं पापंपूजयानश्यतिं 
यज्ञा देवाश्च सुनयस्तीर्थानि कात्तिके द्विज। धात्रीवृक्षं समाश्रित्य तिष्ठन्तिकार्रि 
धात्रीपत्रं कात्तिके च द्वादश्यां तुलसी दलम्‌ । 


C ८न्निन्रोति, यो. नुरो गच्छेत्निरय यातत्तामयम,.].२३५॥ angotri 


एकास 


द्वाविशो$ध्याय: ] ॐ बु क २६९: 
घात्रीच्छायासु यो चिप्र चान्नं भुनक्ति कार्तिके । 
. अन्नसंसर्गजं पापमावषं तस्य नश्यति ॥२४॥ i 
| तुळलीषनमध्ये च थात्रीसूले च कातिके | कुर्याद्ध्यचेनं चिप्र चेकुण्टंयाति सघुचम्‌ ॥ 
तुलूसीमूलदेशे 5पि स्थितं वारि द्विजोत्तम । 

| गुह्वाति मस्तके भक्त्या पापी याति ररेग्रहम्‌ ॥ २६ ॥ 

| तुळसी पत्रगळितं यस्तोयं शिरसाचहेत्‌ । सवेतीर्थेघु स स्नातश्चान्ते याति हरय हम्‌ ॥ 

| पुरा कश्चिद्‌ डिजश्रेष्ठो द्वापरेऽभून्महासुने । स्नात्वैकदा तुलस्ये स घनं दत्त्वा ग्रहंगतः । 
आदित्योचचेसा नाज्ञामात्तेण्ड इच पुण्यतः । तृषातों भक्षकःकश्चिदागतो बहुकल्मष: । 


३ | तुरूस्या सूळतस्तोयं पीत्घाऽसौ हतकल्मषः । 
हर त्वरयाप्यागतो व्याधो नाम्ना यञ्चासिमदेनः ॥३० ॥ 
नी उचाच शुक्तं चान्नं च भुक्त्वा भग्नं गतः किसु । 


छत्वा मे पाकभाण्डस्थं यागतो हिसकस्य ते ॥ ३१ ॥ 
| विव्याध तं गतप्राणं नेतुंचे शमनाज्ञया । आगताः किङ्कराः क्रुद्धाः पाशसुद्वरपाणय: । 
| चदुध्वानेतुं मनश्चक्रुरागता विष्णुकिडुरा: । यदा छित्त्वा चमेपाशं स्यन्दने तं मनोहरे । 
तूर्णमारोहयामासुः पप्रच्छुपिनयान्विताः। 
क तेऽपि पुण्येन भोःसन्तःकेन वै नीयतेऽप्यसौ ॥ ३४ ॥ 
ऊचुस्तेऽसौ पुरा राजा पुण्यं बहुतरं-कृतम्‌। अहरत्सुन््रींकाञ्चिच्चाङ्गनामेच चे तदा ॥ 
अनेन चांहसा राजा गतो चै शमनक्षयम्‌ । तत्र छशा तु युष्माभिद्‌त्तं वे शमनाज्ञया 
ताम्रमय्या स्त्रिया सुप्त्वा सादं क्रीडां चकार सः। 
तप्तायां लोहशय्यायां वैक्लव्यं कमेणा नृप ॥ ३७ ॥ 
| त्तायोभीषणं तप्तं लोहस्तस्मं यमाज्ञया । 
र ततःस्थितः समालिङ्ग्य भुक्त्वा दुःखं चिरं पः ॥ ३८॥ 
सिक्तःक्षाराम्वुघाराभिरन्यैवैँ शमनाल्ये। ततो नरकशेषे च पापयोनौ सुदुः ॥ ३६ 
जन्मासाद्यचिर दुभखमतुभूत जब्र दघी जार प्रीत्वा पति हरेग हम्‌ ॥ 


(र २६२:- | हु र # पाझपुराणम्‌ ऋ [४ 
` दानां तद्वचःश्च॒त्वा गता दूता यथागता । तेन साद्ध॑ विष्णुदूता गता क हि 
माहात्म्यं कथितं त्रह्म॑स्तुळस्याः पापनाशनम्‌ । 
; कुर्वन्ति सेवां ये भक्त्या न जाने कि भवेन्सुने ! ॥ ४२॥ | 
- इति श्रीपाझे महापुराणे चतुर्थ त्रह्माखण्डे सूतशौनकसंचादे तुल्स्यामाहात्म्य 


| 
| 
द्वाचिशो ऽध्यायः ॥ २२ ॥ 


त्रयो विशोऽध्यायः । 


विष्णुपञ्चकमाहार्म्यवणनम्‌ । 
शौनक उचाच | शर 
कथयस्व सुने सूत ! माहात्म्यंकलुषक्षयम्‌ । शेष पश्चदिनस्यापि कात्तिकस्यांनुकग प 
सूत उचाच । | २ 
श्रणु शौनक यत्पृष्टं माहात्स्यं पापनाशनम्‌ । वक्ष्याम्यहं वे चोजेस्य शेषपञ्चद्निस | 
घतानां सुनिशादू ल प्रवर विष्णुपञ्चकम्‌। तस्मिन्यःपूजयेद्गया श्रीहरि राघयासा † 
गन्धपुष्पैधूपदीपैवेस्त्रैनाना घिधै,फलैः ।सयाति चिष्णुसदनं सर्वेपापविचजितः |! 
` _ ब्रह्मचारी गृहस्थो वा घानप्रस्थो$थचा यतिः । 
न प्राप्नोति परं स्थानमरुत्वा चिष्णुपञ्चकम्‌॥ ५॥ 
सर्वपापहरं पुण्यं विख्यातं चिष्णुपञ्चकम्‌ । तत्र खान तु यःकुर्यात्सवेतीर्थफल 
श्रीहरेःपुरतो चिप्र तुरुस्याश्च समीपतः । प्रदीपं सपिषापूणं दद्यायो भक्तिभावतः | 
नभसि श्रीहरेः प्रीत्ये यात्यसौ चिष्णुमन्दिरम्‌ । 
पापी याति हर्‌ घाम सत्यमेतन्मयोदितम्‌ ॥ ८ ॥ 
_ स्रापयेच्चाच्युत भक्त्या मधुक्षीरधतादिभिः । 
_ . 9दद्याल्कि को दरिः प्रीतस्तस्मे! साघुजनायेप्वैताः ९ [०२१००८ ` 


| 

| ब्रयोषिशोऽध्यायः | + दण्डकरचौरवृत्तान्तवर्णनम्‌ # 
| नैवेद्यं देवदेवेशं परमान्नं निवेद्येत्‌। तस्य पुण्यं प्रस 
अचेयित्वा हृषीकेशमेकादश्यां समा दितः । 
| निष्प्राशये गोमयं सम्यशुपास्ते मन्त्रचच्च यः ॥ १२ ॥ 
गा गोमूत्रं मन्त्रचद्‌ भूयो द्वादश्यां प्राशयेदु घठी । 

| क्षीरं तथा अयोद्श्यां चतुदेश्यां तथा दधि॥ १२॥ 
| 
| 
1 


डुघातुं न शक्तो वे चतुमुंखः ॥ 


| 
| 


सम्प्राप्य पापशुद्धयथं लङ्यित्वा चतुदिनम्‌ । 
पञ्चमे तु दिने खात्वा घिधिवत्पूज्य केशवम्‌ ॥ १३॥ 
भोजयेद्‌ ब्राह्मणान्भक्त्या तेभ्यो द्याञ्च दक्षिणाम्‌। 
ततो नक्तं समश्नीयात्पञ्चगव्यं सुमन्त्रितम्‌ ॥ १४॥ 
एवं कर्तमशक्तो यः फलमूलस्य भोजनम्‌ । कुर्याद्धविष्यं चा विप्र यथोक्तविधिना ह चे | 
श्रीहरेःपञ्चकं चिप्र कुर्याद्यस्तुललीदले: । पूजयेत्तं स चिज्ञेयःस्वयं नारायणः प्रभुः ॥१६॥ 
पुरा त्रेयायुगे झूद्रो दस्युवृत्तिपरायणः । नास्ना दण्डकरो नित्यं धमेनिन्दां करोति यः | 
असत्यभाषी मित्र्नो वेश्या विभ्रमलोळुप'। ब्रह्मस्वहारी क्रूरश्च परस्त्रीगमने रतः ॥ | 
[स शरणागतहन्ता च पाखण्डजनसङ्गमाक्‌। गोमांसाशी सुरापश्च परनिन्दाकरःसदा ॥ 
विश्वासघाती ज्ञातीनां वृत्तिच्छेदी द्विजोत्तमा | दुएं सवे समालोक्य ताद्वशं तद्ग्रहेद्विज! | 
आगता ज्ञातयः क्रद्धास्त॑ च पापपरायणम्‌ ॥ २० ॥ 


{ 


रे रे मूढ दुराचार चिनाशं प्रति नीयते। या प्रतिष्ठाऽजिता पूर्वेरस्माकं निमेळेऽच्वये 
इति कद्धा द्विजश्रेष्ठ । अपकी तिभयादपि । पापिनां प्रबरं सवे तत्यज्ञुस्तं कुलाद्रम्‌ ॥ 
ततो गतो महारण्यं विनष्टाख्रिलयैमघः। कुर्यात्स दस्युभिःसाद्धं दस्युकमे निरन्तरम्‌ 
पथि प्रगच्छतां तेषां भयाद्विप्र न खादितुम्‌। 
प्राप्त किञ्चित्ुधार्त्तास्ते गताश्चान्यस्थलं प्रति ॥ २४ ॥ 
तत्र प्रचिष्टास्ते सर्वे दृष्टा पुण्यजनान्बहून | | 
८त्धान्नीपके, स्थितान्तह्या चैष्णचान्द्रिजसत्तमान्‌॥ २५ ॥ 


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2६४ ॐ पाहपुराणम्‌ # [४ 
सर्वे ते द्स्यचो चिप्र गता दण्डकरोऽपि सः । तेषां परिसरं गत्वा प्रणामं बै 
दृण्डकर उवाच | 
श्षुघार्तोऽहं द्विजश्रेष्ठाः ! प्राणा यास्यन्ति मे श्रुघम्‌ । 
` मेदध्चं खादितं किश्चियुष्मांस्तु शरणं गतः ॥ २७ ॥ 
आकण्ये घचनं तस्य चोचुस्ते धमंतत्पराः। सर्वपापहरे त्वं च विख्याते घिष्णुपष्ग : 
कथमन्नं खादितुं ते घाञ्छात्वद्यहरेदिने । घिरोषं ते ब्र दिसंज्ञा का ते भवति साग 
स उवाच मुदा पिप्रान्नाम्ना दण्डकरोऽप्यहम्‌। 
सर्वपापसमायुक्तश्चोद्धारो मे कथं भवेत्‌ ॥ ३०॥ | 
ऊचुस्ते वे व्रत श्रेष्ठ कुरुष्व विष्णुपञ्चकम्‌ । विप्राणामाज्ञया विप्र चकार चिष्णुपञ्चक् 
स प्रेत्य च हरेः स्थानमारह्य स्यन्दनेवरे । आसाद्य श्रीहरेरूपं तस्थौ जन्मविवजित| : 
य इदं श्टणुयाद्भक्त्या चाख्यानं पापनाशनम्‌ । 
कोरिजन्मार्जितं पापं तस्य नश्यति तत्क्षणात्‌ ॥ ३३ ॥ ॒ 
इति श्रीपाझे महापुराणे चतुर्थेत्रहखण्डे सूतशौनकसंचादे विष्णुपश्चकमाहात्स्यं वा/ : 
्रयोचिशोऽध्यायः ॥ २३ ॥ 


ह ली की 


चतुविशोऽध्यायः | 
परथिव्याद्यनेकविधदानमाहात्म्यफलवर्णनम्‌ । | 
शौनक उवाच | | 

विदुषांघर! तत्वज्ञ! कथयस्व महामते ! । इदानीं मम दानानां माहात्म्यं क्रमतो सु 
| | सूत उचाच'। | 
कषितिदानं मुनिश्रेष्ठ दानानामुत्तमं मतम्‌। येन वै तत्कृतं दानं सर्वदानफलं मतम्‌|| 
क्षति 'ससस्यां, यो वदया, ब्राह्मणा ०द्विजोत्तम-]! tl eGangotri | 


4 


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चतुविशोऽध्यायः ] ॐ अनेकविधदानमाद्वात्म्यवर्णनम्‌ क २६५।| 
विष्णुळोके सुखे भुङ्कते याचदिन्द्राञ्चतुदेश ॥ ३॥ क 
पृथिव्यां जन्म चासाद्य सार्वभौमस्ततो नृप ! । 
महीं सर्वा चिरं भुक्तवा बजेद्वै श्रीहरेगहम्‌॥ ४॥ | 

गोचर्ममात्रां भूमिं यः प्रयच्छति द्विजातये। स गच्छति हरेगेंहँ सर्वपापचिवजित: ॥ | 


8 


डे शतं गावो वृषश्वेको यत्र तिषठन्त्ययन्त्रिताः। गोचर्ममात्रां तां भूमि प्रवदन्ति महषयः || 
र; भूमिनेता भूमिदाता द्वौ चापि खर्गंगामिनौ । | 
। आह्या भूमिद्विजेः प्रा्ञैस्त्य्तवा दानशतान्यपि ॥ ७ ॥ | 
| अज्ञानी भूसुरो यस्तु त्यजेदुभूमि घिमो दितः । | 
व परतिजन्मन्यसौ विप्रो भ्वेच्चात्यन्तदुःखभाक्‌ ॥ ८॥ | 


क| अन्यतोयः समासाद्य दद्यादुभूमि द्विजातये । तस्मै विप्र जगन्नाथो ददाति परमं पदम्‌ | 

| खद्त्तां परदत्तां च मेदिनीं यो हरेदद्विज! । युक्तःकोरिकुलैर्याति नरकं चातिदारुणम्‌ ॥ , 

हरेद्यो चे महीं चिप्र! देचत्राह्मणयोरपि। न दुष्टा निष्ङतिस्तस्य कोरिकह्पशतर्मने ॥ 

न| भूमि योऽपरदत्तां च रक्षति क्ष्मापतिद्विज । पुण्यं कोरिगुणं स्याद्वै तस्य दातृजनादपि 
सप्तद्वीपां महीं दत्त्वा यत्पुण्यं प्राप्यते द्विज ! । 

तत्पुण्यं प्राप्नुयान्मर्त्यो धेनुं यच्छन्द्रिजातये॥ १३॥ | 

ददाति वृषभ यस्तु दरिद्राय कुटुम्बिने | खबेपापचिनिर्मक्तश्शिघलोकं स गच्छति ॥ | 

तिळप्रमाणं खर्ण यो ब्राह्मणाय प्रयच्छति । हरेनिकेतनं याति युक्तःकोरिकुळेरपि ॥१५ | 

यो दद्याद्रजतं चिप्र साधवे भूखुराय वै । प्राप्नोति चन्द्रलोक च पिवेत्तत्रास्॒तं सदा | 

प्रचाळं मौक्ति! चैष हीरकं च मणि तथा । यो ददाति द्विजश्रेष्ठ स्वर्गलोकं स गच्छति 

तुळापुरुषदानेन यत्पुण्यं लमतेजनः । शालग्रामशिलां दत्त्वा तस्मात्कोरिशुणं लूमेत्‌ ॥ 

मुने। सप्तद्वीपां क्षितिं द्त्वा सशैळचनकाननाम्‌। यत्पुण्यं लभते तद्दे शाल्मामशिल्लाप्रद: ॥ 


शालग्रामशिलां यो वै दद्यादुभूमिखुराय च । तेन विप्र प्रदत्तानि सुषनानि चतुर्दश ॥ 


| तुरापुरुषदानं यःकरोति द्विजपुङ्गव । जनन्या्चोदरै तस्य पुनजेन्म न विद्यते ॥ २१ ॥ 
साळडायंद्रिज,क्षेष्कत्यां सच ति,यो - र: | लात Digitized by नं पुनरजेन्म विदयते ॥ 


ह २६६ | व *.पाझपुराणम्‌ # - [ ४ ब्रह्न 
कन्याविक्रयिणो नास्ति नरकानिष्छतिः पुनः । 
कन्यादानं कृती नास्ति स्वर्गादागमनं पुनः ॥ २३ ॥ 
उपानहौ चाऽऽतपत्रं यो ददाति द्विजातये । प्रेत्य चेन्द्रपुर गत्वा बसेत्करपचलु। 
वस्त्रं यच्छति यो दिव्यं साधवे वे द्विजातये । स्वग दिव्यास्वरघरश्चिरं तिद द्विजोत्त। 
धेनु पुरातनीं यच्छेद्वस्त्रं च जरितं द्विज ।. नूलां रजोघतीं कन्यां खगच्छेस्निरयं 
कन्याचिक्रयिणो ब्रह्मन्नपश्येलूपनं बुधः । 
दृष्ट्या चाज्ञानतो वापि कुर्यान्मा्तण्डद्शेनम्‌॥ २७ ॥ | 
सतोपमा 


। 


फळदाता नरो गच्छेत्त्रिदिवं च द्विजोत्तम!। भुङक्ते कल्प सहस्ताणिफलं तत्र 
शाकं यच्छति यो मत्यंश्शिवस्य भवनं द्विज । 
याति कव्पद्यं सुङ्क्ते डुल भं पायसं सुरैः ॥ २६ ॥ 
घुतदो द्धिदश्चैव तक्रदो दुग्धदस्तथा | विष्णोनिकेतनं गत्वा सुधापानं करोति ₹ 
गन्धदःपुष्पदश्चैच मत्यां याति सुरालयम्‌। तिछ्टे्यगलहस्माणि गन्धपुष्पचिभूषित ॥ 
शय्यादानं दानसारं व्राह्माणाय ददाति य: । सयाति ब्रह्मसदनं पय्यंङ्गे शेष्यते चिर 
पीठदाता दीपदाता सरवेदुष्छतवजितः । स्वगे सिंहासने तिश्टेज्ज्चलद्दीपावलीवृतः। 
ताम्वूलं यो नरो दद्याद भूमि सुङ्क्तेऽखिलां सुखम्‌ । 
स्वर्ग देवाडूना क्रोडे सुप्तस्ताग्वूलमत्ति वे ॥ ३४ ॥ 
विद्यादानं दानवर॑ करोति यो नरोत्तमः। 
प्रत्य स. सन्निधि चिष्णो स्तिष्ठेद्य॒गशत्रयम्‌ ॥ ३५ ॥ 
प्राप्यज्ञानं ततस्तत्र दुरलेभं वे द्विजर्षभ । दुर्लभं मोक्षमाप्नोति श्रीहरेःकृपया द्विज! 
अनाथं दुःखिःतं विप्रं पाठयेद्वे नरोत्तमः । श्रीहरेभंचनं याति पुनजन्मविचजित | 
| यो नरःपुस्तक दद्याद्ध क्तिश्रद्धासमन्वित: । 
प्रतिवर्ण लभेत्पुण्यं कपिलाकोटिदानजम्‌ ॥ ३८ ॥ 
मधुदो गुडद्श्चेव मर्यो यातीक्षुसागरम्‌ । लचणदो नरो याति घारुणं लोकमेव च 
सर्वेषामेष (क्रात्तातामत्तद्वानंद्विजो क्तम तत्तह मूर्ति भिस्सनें: प्रवदेने; 0 


चतुविशोऽध्यायः ] # अनेकविधदानमाहात्म्यवर्णनम्‌ # ` २६ड 
अन्नं वारि दविजश्रेष्ठ ! येन दत्तं महीतले। तेन दत्तानि दातानि सर्वाणि च द्विजर्षम। 
अन्नदो यो नरोविप्र प्राणदश्च प्रकीतितः | तस्मात्समस्तदानानामन्नदो लभते फलम्‌ । 
यथा चान्नं तथा घारि हवे तुल्ये च प्रकीतिते । 
घारिणा च विना चान्नं सिद्ध न स्यादु द्विजोत्तम ! ॥४३॥ 
क्षुघातूषा द्विजव्याघ्र! द्वेच तुल्ये प्रकोतिते । अतश्चान्नं च तोयं च ध्ेष्टंपरोक्तं बुधैरपि 
अन्नदानं क्षितो ब्रह्मन्ये कुवेन्ति नरोत्तमाः । 
सर्वेपापचिनिर्मुक्ता गच्छन्ति हरिमन्द्रिम्‌ ॥ ४५ ॥ 
याचन्त्यन्नानि भो चिप्र यच्छति क्षितिमण्डले । ब्रह्महत्याश्च ताघन्त्यो नश्यन्त्येच तपोध 
यच्छता चान्नदानानि शरीराणि च पातकम्‌ । 
गात्राणि गृहृतां त्यक्त्वा सहसा यान्ति शोनक ! ॥ ४७ ॥ 
अतः पापीयसोऽन्नानि न गृहुन्ति मनीषिणः । 
शुह्नन्ति मोहाचे मूढा भवन्ति पापभागिनः ॥ ४८॥ 
कुर्यादुभूमिष्ठसुदकं चैक भो द्विजसत्तम !। सवेपापैविनिर्मु्तो व्रजेत्स हरिमन्द्रिम्‌। 
प्रयत्नेन दविजश्रेष्ठ ! कर्तव्यो घनसञ्चयः । सञ्चितं च घनंत्रह्मन्दानकमेणि विक्षिपेत्‌ । 
रक्षन्ति ये च कापेण्याद्धनं ते चातिदुःखिनः । रु 
अन्ते सर्वेधनं त्यक्त्वा निःखा गच्छन्ति भो सुने! ॥५१॥ 
मानचा ये सदा दानं दत्त्वा दत्त्वा दरिदति। दरिद्रास्ते न विज्ञेया नरलोके महेश्वरा 
परलोके द्विजवयाघ्र ! लाघुसंग्रमवजिते । निदंये बन्धुहीने च न दत्तं नोपतिष्ठते ॥५३। 
स्थिते धने नरो यो चै नाश्नाति न ददाति सः । 
दरिद्र इच चिज्ञेयः प्रेत्य निश्वासमुत्सजेत्‌ ॥५४॥ ` 
तपसोऽपि घरं दानं प्रोक्तं च तत्वद्शिभिः । 
अतो यल्लादु दविजश्रेष्ठ दानकमे समाचरेत्‌ ॥ ५५॥ | 
दाता दानं न दद्याद्वे समुत्खज्य द्विजातये । सयाति निरयं घोर सवेजन्तभयाचहम्‌ | 
८० दाने दाता झक त स्म॒रे जान याचते... by EE | | 


॥ 
क १६८ ऋ पाझपुराणम्‌ ॐ [3 रहे रत 
निरये चोभयोर्वासो यावच्चन्द्रदिवाकरों ॥ ५9 ॥ | 
्रह्महत्यादि पापानि यानि वै द्विजसत्तम । 


तानि दानेन हन्यन्ते तस्माद्दानं समाचरेत्‌ ॥ ५८ ॥ 
। इति श्रीपाद महापुराणे चतुर्थत्रह्मखण्डे सूतशौनकसंचादे पृथिव्यानेकषिधदान 
माहात्म्यकथनं नाम चतुषिशतितमोऽध्यायः ॥ 


र मि अमन 


यञ्चविंशोऽध्यायः 
नारदसनत्कुमारसंवादे भगवन्नाममाहरस्यवर्ण नम्‌ । 
शौनक उवाच । 
श्रीप्रदै विष्णुचरितं सर्वोपद्रवनाशनम्‌ । सरवेपापक्षयकरं दएञ्रहनिचारणम्‌॥ १। 
चिष्णुसान्निध्यद्‌ चेव चतुवर्ग फळप्रदम्‌। 
यः श्रणोति नरो भक्त्या चान्ते याति हरेण हम्‌॥ २॥ 
रामोच्चारणमाहात्म्यं श्रयते महदद्गतम्‌। यदुच्चारणमात्रेण नरो यायात्परंपदम्‌॥ 
तद्दद्खाघुना सूत ! विधानं नाम कीतने॥ ४॥ 
सूत उवाच | 
शरण शौनक! वक्ष्यामि संवाद मोक्षखाधनम्‌। नारदःपृष्टवान्पूर्व कुमारं । 
एकदा यसुनातीरे निविष्टं शान्तमानसम्‌ । सनत्कुमारं प्रपच्छ नारदो रचिताञ्जलिः | 
श्रुत्वा नानाविधान्धर्मान्धर्मच्यतिकरांस्तथा ॥ ६.॥ 
श्रीनारद उवाच । 
योऽसौ भगवता प्रोक्तो धर्मव्यतिकरो नृणाम्‌। 
कथं तस्य चिनाशःस्यादुच्यतां भगवत्प्रिय ! ॥७॥ 
श्रीसनत्कुमार उचाच । 


श्ण्णु मारद$ मोषिस्द्प्रिय 4 मॉचिन्द्यर्म विसर! by 88810 


(> ४.) 
~ 


NNO reer IIE £) 
| 


रै ञ्चविशो 5ध्यायः |] ॐ भगवन्नाममाहात्म्यकथनम्‌ % * २६६ 
| यत्पृष्टं छोकनिमुंक्तिकारणं तमस:परम्‌ ॥ ८ ॥ 
। ` सर्वाचारविषजिताः शठधियो व्रात्या जगद्वञ्चका, 
दम्भादङ्‌क्रतिपानपैशुनपराःपापाञ्च ये निष्ठरा; ॥ 
ये चान्ये धनदारपुत्रनिरताः सवैच्धमास्ते५पि हि 
श्रीगोविन्दपदारविन्दशरणा: शुद्धा भवन्ति द्विज! ॥ ६॥ 
तमपि देवकरं करुणाकरं स्थविरजङ्गमसुक्तिकरं परम्‌ । 
अतिचरन्त्यपराधपरा जना य इह॒ तान्हरिनाम पुनाति हि॥ १० ॥ 
| पांपराधछद्पि खुच्यते हरिसंश्चयः । हरेरप्यपराधान्यः कुर्याद्‌ दविपदपांसनः ॥११॥ 
माश्रयःकदा चित्स्यात्तरत्येष स नामतः । नाज्नो हि सर्व सुहृदो ह्यपराधात्पतत्यघ: 
| श्रीनारद्‌ उघाच 
के तेऽपराधा पिप्रेन्द्र ! नाम्नो भगचतः इताः । 
| विनिघ्नन्ति नृणां कृत्यं प्राकृतं ह्यानयन्ति च ॥ १३॥ 
| श्रीसनत्कुमार उवाच | 
| सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वुधजना, 
| चदन्त्येनां कतु' न खलुमचुजः कोऽपि यतने ॥ 
| शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादि सकल, 
घिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः॥ १४॥ 
| युरोरवक्ञा थुतिशास्त्रनिन्दनं तथा5थेचादी दरिनाप्ति*कल्प्यते । 
नामापराधस्य हि पापबुद्धेने विद्यते तस्य यमैहि शुद्धि ॥ १५ ॥ 
धमेत्रतत्यागहुतादि सवे शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः | 
अश्रद्दधानो विमुखोऽप्यश्टण्वन्यश्चोपदेशः शिवनामापराधः ॥ १६ ॥ 
श्रुत्वाऽपि नाम माहात्म्यं यः प्रीतिरदितोऽधमः । 
अहं ममादि परमो नान्नि सोऽप्यपराधक्कत्‌॥ १७ ॥ 


ं कुपया महं मुनीना परं। 
एच नारद, राडूरेपा, a r मुनीनां पर | Digitized by eGangotri 


| 
। 

के ०७ „` क पाझपुराणम्‌ ॐ [ ४ 
१ प्रोक्तं नाम सुखावहं भगघतो घज्य सदा यत्नतः ॥ | | 

ये ज्ञात्वाऽपि न घर्जेयन्ति सहस्रा नास्रोऽपराधान्द्श । | 

> कद्धा मातरमप्यभोजनपरा खिद्यन्ति ते वाळचत्‌॥ १८॥ | 
अपराधविमुक्तो हि नाम्नि जप्ते खदाचर्‌ | नाम्नेच तघ देवष ! सवंसेत्स्यति | 
श्रीनारद उवाच । `| 

सनत्कुमार ! प्रियलाहसानां चिवेकवैराग्यचिवजितानाम्‌। | | 
देहप्रियार्थातमपरायणानां सुक्तापराधा प्रभचन्ति नः कथम्‌॥ २१ 

` ` _श्रीसनत्कुमार उवाच । | 

जाते नामापराधे. तु प्रमादेन कथञ्चन। सदा सड्कीर्तेयन्नास तदेकशणो भके 
नामापराथयुक्तानां नामान्येच हरन्त्यघम्‌ । | 


i अविश्रान्ति प्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि यत्‌॥ २२॥ | 
| नामैकं यस्य चिह्नं स्मरणपथगतं श्रोत्रसूळं गतं घा, . 
शुद्धं घाऽशुद्धवणं व्यचहितरहितं तारयत्येव सत्यम्‌ ॥ २३॥ | 
मं तच्चेददेहद्रविणवनिताळोभपाखण्डमध्ये । 


विदुविष्ण्यभिधानं ये ह्यपराधपरानराः । तेषामपि भवेन्सुक्तिःपठनादेव 

नाम्नो माहात्म्यमखिलं पुराणे परिगीयते। ततः पुराणमखिलं श्रोतुमहेसि 
पुराणश्रचणे श्रद्धा यस्य स्याद्‌ भ्रातरन्वहम्‌ । 
तस्य साक्षात्प्रसन्नःस्याच्छिवो चिष्णुश्च सानुगः ॥ २७ ॥ 

यत्खात्वा पुष्करेतीर्थ प्रयागे सिन्धुसङ्गमे। तत्फल द्विगुणं तस्य श्रद्धया वे 

ये पठन्ति पुराणानि श्टण्वन्ति च समाददिताः । प्रत्यक्षरं लभन्त्येते क । रि 
अपुत्रो लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्‌ । 

०००. तिमा .कपते विद्यां प्रोक्षाशरो,पोक्षपाप्र्चयात1,39 ॥ 


x (७. 


निक्षित स्यान्नफळजनकं शीघ्मेचात्र चिप्र !॥ . 
इद्‌ रहस्यं परमं पुरा नारद्‌ ! शङ्करात्‌ । श्रुतं . सर्वाशुभहरमपराधनिवा 
| 


१ सर्वपुण्येषु दिव्येषु भोगाढ्येघु च मानवा: । 
७ | वष्णवाःपुण्यकर्माणो निर्धूताशेषकल्मघाः ॥ ६५ ॥ 
9 (वंचिधैर हैःपुण्येःशोभितं विष्णुमन्द्रिम्‌। नानावृश्चैःसमाकीर्ण' चनेथ्वन्दनशो सिते 
खुवर्वेकामफलैराजन्सवेत् समलङ्क्कतम्‌ । घापीकुण्डतडागैश्व सारसैरुपशोसितैः ॥ 
| हंखकारण्डवाकीर्णे:कल्हारेरुपशोभिते: । 
४] शतपत्रेमहापद्य:पद्योत्पलविराजितैः ॥ ६८ ॥ 
सत  कनकोत्पलूवर्णैश्व सरोभिश्च विराजते । 
चेकुण्ठे सर्वेशोभाद्यं देचोच्यानेरलङक्कतम्‌ ॥ ६६॥ 
इव्यशोभासमाकीर्ण' वैष्णवैरुपशोभितम्‌ । बैकुण्ठ दहूरोराजा मोक्षस्थानमनुत्तमम्‌ 
धवृन्देःसमाकीर्ण' ययातिनेहुंषात्मज: । प्रविवेश ` पुरंरम्यं सर्वदाहचिचजितम्‌॥ 
| ददूशी सर्वक्लेशध्ने नारायणमनामयम्‌ । . 
I चिसानेरुपशोभन्तं ` सर्चाभरणशालिनम्‌ ॥ ७२ ॥ 
स्त जगन्नाथ श्रीचत्साङ्कं महाद्युतिम्‌ । वेनतेयसमारुढं श्रियायुक्तं परात्परम्‌॥ 
स्षां देयलोकानां योगतिःपरमेश्वरः । परमानन्द्रुपेण केवल्येन घिराजते॥ 
७१ यमानं महालोके:खुपुण्येवे ष्णवेहेरिम्‌ । देवदन्दै:समाकीर्ण' गन्धर्वेगणसेचितम्‌ ॥ 
अप्सरोभिमहात्मानं . दुःखक्लेशापहं हरिम्‌। ` 
| नारायणं ननामाथ स्वपत्न्यासह भूपतिः ॥ ७६ ॥ 
> गीु्मानवा सव चष्णवा मधुसूदनम्‌ । गतां ये वेष्णचाःसव सहराक्षा महामते ॥ 


पादाम्बुजद्धयं तस्य नेम्ुभेक््या महामते । 


या प्रणमन्तं महात्मानं राजोनं दीप्तीजसम्‌॥ ७८॥ 

म तसुचाच हृषीकेशास्तुष्टोऽहं तव सुव्रत ॥ . . 2 

यश "य राजेन्द्र यत्ते मनसिवर्तते । तत्ते ददाम्यसन्दैरं मद्गक्तोऽसि ..महामते ॥ ७९ ॥ 
। | राजोबाच 1... ...... . * 


गल देवदेवेश तुशो5सि मधसदन । दासत्वं देहि. सततमात्मानुश्र. .जगट्पते..॥ 


८८-0 Mukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


ीतितमोऽच्याय ] # ययातेविष्ण्वाज्ञया चिष्णुळोकाचस्थानम्‌ # . २७१ . 


"डर... # पाझपुराणम्‌ # [२ है 
विष्णुरुवाच । ता 
एबमस्तु महाभाग ममभक्तो न संशयः । लोकेमममहाराज.स्थातन्यमनयास 

एवमुक्तो महाराजो ययातिःप्रथिवीपतिः | ्रसादात्तस्यदेचस्य ] 
निवसत्येष भूपालो वैष्णचंलोकमुत्तमम्‌ ॥ ८३ ॥ न 
इति श्रीपादापुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्याने तृतीर्थवणनेययातिचरित्े 
ययातेःस्वर्गारोहणंनामन्यशी तितमोऽध्यायः ॥८३॥ 


>>: 


चतुःशीतितमो5व्यायः 

गुरुतीथमाहात्म्यवर्णने च्यवनचरित्रवर्णनम्‌ । 
सुकर्मोचाच । | 
एतत्तेसर्व॑माख्यात॑ चरित्रं पापनाशनम्‌ । पुत्राणां तारकंदिव्यं बहुपुण्यप्रदायका| 
प्रत्यक्षं दृश्यतेळोके ययातिचरितं श्रुतम्‌ । पूंरुणाप्तं महद्राज्यं ढुगे तिंगतवांस्तुर। । 
पितृप्रसादात्कोपाच्च यथाजातं तथा पुनः । पुराणां तारकंपुण्यं यशस्य धनधान: 
शापयुक्ताविमौचोभौ तुरुश्च यदुरेव च । पिठ्मातृसमंनास्ति अभिष्टफलदायकाि 

साभिलाषेण भावेन पितापुत्रं समाहयेत्‌। 
माता च पुत्रपुत्रीति तस्य पुण्यफळं शएणु ॥ ५॥ 

< समाहतो यथापुत्रःप्रयाति मातरंप्रति । 

यो यातिदद्षेसंयुक्तो गङ्गास्नानफलं लमेत्‌॥ ६॥ | 
पादप्रक्षालनंयस्तु कुरुते च महायशाः । सेतीर्थफल भुङ्ते प्रसादात्तुतयोु 
अङ्गसंवाहनाच्चान्यदश्वमेघफलेलमेत्‌ । भोजनाच्छादनस्नानैर्णरु यःपोषयेतसु 
पृथ्वीदानसमंपुण्यं तत्पुत्रे हि प्रजायते । सवेतीथमयीगङ्गा, तथामाता न सं] ` 
बहुपुण्यमयःसिन्धुर्यथालोके प्रतिष्ठित: । अस्मिलो के पितातद्वत्पुराणकवग्रो र 6 


८८-७0. Mumiikshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by 


दु्ीतितमोऽ्यायः 15 0000) 7707 5 री 
श्रशते क्रोशते यस्तु पित्र 


मातरं पुनः | यौ 
त सपुत्रो नरकंयाति रौरवाख्यं न संशयः ॥ ११ | ० 
दो यो पो सरो बा बम बम 
सते पापकर्ता यो ग॒रंपुत्रःखुदुर्मेतिः । निष्कृतिनैंचदृ्टा बै पुराणेःकविभिःकदा 
एवं ज्ञात्वा ह्यहंयिप्र पूजयामि दिने दिने। 


मातरं पितरं नित्यं भक्त्यानमितकन्धर: ॥ १४ | 
हत्य घदेच्चेच समाइय शुरुमेम । तत्करोम्यविचारेण शत्त्यास्वस्य च पिप्प 
मे परमंक्ञानं सञ्जातं गतिदायकम्‌ । पतयोश्च प्रसादेन संसारे परिवर्ते ॥ १६ ॥ 
यच्चकिचित्प्रवंन्ति मानवा भुविसंस्थिता: । 
गृहस्थस्तद्हंजाने यच्चस्वर्गे प्रचर्तते ॥ १७ ॥ 
नागानां च इहस्थो5पि चारं जानामि पिप्पळ। 
एतयोश्च परसादेन ज्ञानं मे जातमुत्तमम्‌॥ १८॥ 
E भवानचेतु माधवम्‌ ॥ १६॥ 
विष्णुरुवाच | 
स्वोद्तिस्तेन पिप्पलो हि स्वकर्मणा । आनम्यतं दविजश्रेष्ठं लञ्जितोऽपि दिचंययौ 
ऽपि धर्मात्मा गुरुशक्षषते नृप । एतत्ते सवमाख्यातं पितृतीर्थानुगंमया ॥ 
अन्यत्कि ते प्रचक्ष्यामि वद्वेन महामते ॥ २२ ॥ 
|भ्रीपापुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्याने मातापितृतीथमाद्वात्म्यवर्णननाम 
जज चतुरशी तितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥ 


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र पश्चाशीतितमो 5ध्यायः 


गुरुतीर्थमाहात्म्यवर्णनेच्यवनचरित्रवर्णनम्‌ | 
चेन उवाच । 


भगवन्देवदेवेश प्रसादाच्च ममत्वया । भार्यातीथ॑समाख्यातं पतीत 

` मातृतीथ हृषीकेश बहुपुण्यप्रदायकम्‌। प्रसादसुसुखोसूत्चा शुरुतीथ वदस्व मे ॥१॥ 

श्रीमगचाचुवाच । ५ 

कथयिष्यास्यहं राजन्गुरुतीर्थमचुत्तमम्‌ । खबेपापहरं परोक्तं शिष्याणां गतिदायका| 

शिष्याणां परमंपुण्यं धर्मरूपं सनातनम्‌ । परंतीर्थ परंज्ञानं प्रत्यक्ष फलदायकम्‌। 

यस्यप्रसादाद्राजेन्द्र इदैच फलमश्नुते । परलोके सुखंभुङ्क्ते यश:की तिमचाप्जुयात्‌ः 

प्रसादाद्यस्य राजेन्द्र शुरोश्चैच महात्मनः । । 

प्रत्यक्ष दृश्यते शिष्येस्त्रेछोक्य॑ सचराचरम्‌ ॥ ६ ॥ 

व्यवहार च लोकानामाचारं नृपनन्दन । . विज्ञानं विन्दते शिष्यो मोक्षंचेच प्रयाग 

सर्वेषामेवळोकानां यथासूर्यःप्रकाशकः । गुरुःप्रकाशकस्तद्वच्छिष्याणां बुद्धिदाका| 
रात्रावेवप्रकाशच्च सोमोराजा रूपोत्तम। 

तेजसा नाशयेत्सवेमन्धकार चराचरे ॥ ६ ॥ 

गृहे प्रकाशयेद्दीपःसमूहं नृपसत्तम । तेजसानाशयेत्सवंमन्धकारं घंनाषिलम्‌॥ {| 

अज्ञानतमसाव्याप्तं शिष्यं द्योतयतेगुरुः । शिष्यप्रकाशउद्दयोतैरुपदेशमहामते ॥ (| 

दिवाप्रकाशकःसूर्यःशशी रात्रोप्रकाशकः । गुहप्रकाशाकोदीपस्तमोनाशकरःसदा। ¦| 

रात्रौ दिवा गृहस्यान्ते शुरुःशिष्यं सदैघ हि । i 

अज्ञानायं तमस्तस्य गुरुःस्ं प्रणाशयेत्‌ ॥ १३ ॥ 

तस्माङ्युरुःपरंतीथं शिष्याणमघनीपते । एवंज्ञात्वा तत:शिष्यःसवंदा तं प्र 

गुरु पं पुण्यमयंज्ञात्वा त्रिविधेनापि कर्मेणा । 


०६ राजनिति 
इत्यः श्रयते तहास'५ 
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शीतितमो ऽध्यायः ] क च्यचनचरिज्रवर्णनम्‌ अ 
सर्वपापहरःप्रोक्तरच्यचनस्य महात्मनः | 

par: सुनिसत्तमः ॥ १६॥ 

वमुत्पत्ना एकदा तु नृपोत्तम । कदा 

क चिन्तयन्स ज्ञानार्थो सु निसत्तमः। हे उल 

तीर्थयात्रां प्रयास्यामि अभीष्टफलदायिनीम्‌ 

ग्रहक्षेत्रादि सन्त्यज्य भार्या पुत्रंधनं तत: ॥ १६॥ . 

प्रसङ्गेन अटते मेद्नीं तदा । लोमानुळोमयात्रांस गङ्गाया:कतवान्ढप ॥२०॥ 

दायाश्च सरस्वत्या सुनीश्वरः । गोदावर्या दि सर्वासां नदीनां सागरस्य च ॥ 
अन्येषां स्वेतीथानां क्षेत्राणां च नृपोत्तम | 

देवानां पुण्य रिङ्गानां यात्राव्याजेन सोऽभ्रमत्‌॥ २२॥ 

तस्यापि तीथेछु परमेषु च। कायश्च निर्मेलोजात/सूर्यतेज:समप्रभः ॥२३॥ 


- २७५ 


्ःकाशतेदीप्त्या पूतात्मानेनकमंणा । ्ममाणःसमायात क्षेत्राणामुत्तमं तदा ॥ 


क्षणेकुळे नाज्लाअमरकण्टकम्‌ । ददशे सुमहालिङ्ग स्वेषां गतिदायकम्‌ ॥२५॥ 
नत्वास्तुत्वा तु सम्पूज्य सिद्धनाथं महेश्वरम्‌। - 
ज्वालेश्वरं ततो दुष्ट्वा दृष्ट्या चाप्यमरेश्वरम्‌ ॥ २६ ॥ 


है कपिलेशं च मार्केण्डेश्वरमुत्तमम्‌ । एवंयात्रां तत:कृत्वा ओङ्कारं समुपागतः ॥ 
छायांसमा श्रित्य शीतळां श्रमना शिनीम्‌' | सुखेनसं स्थितो विप्रश्‍च्यवनो भ्गुनन्दन 
नं सशुश्राव समुक्तपक्षिणा तदा । दिव्यभाषासमायुक्त क्ञानविज्ञानसंयुतम्‌ ॥ 


शुकश्च एक्तस्तत्रास्तै बहुकाल प्रजीवकः | 

कुञ्जलोनाम धर्मात्मा चतुष्पुत्रःसमायकः ॥ ३० ॥ 

हि पुत्राश्च चत्मारःपितूनन्दनाः । तेषांनामानि राजेन्द्र कथयिष्ये तचाग्रतः 
बढोनाम दितीयस्तुससुजज्वळः । तृतीयो बिज्चकोनामचतु्थ्व कपिः 
एवं पुत्रास्तु चत्वारःकुअलस्य.महांमते । ` | 

शुकस्य तस्य पितुमातृपरायणाः ॥ ३३ ॥ 


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२७६ अ पादापुराणम्‌ के 
- च समाहिताः । भोजनाथ तु सच्छुन्या परिपीक्षि 
ति रि । शलाय गासयन्ति खोज्न 
नित्यंश्चैव रसाढ्यानि आहारां सुपुत्रकाः । 
नीत्वाफळानि दम्पत्यो निक्षिपन्ति प्रयत्नतः ॥ ३६ ॥ 
मातुरथ महाभागा भक्तिमावसमन्विताः । तु्टाआहारसुत्पाद्य अक्षयन्ति पठन्ति३ 
तत्रक्ीडारताःसर्वे विलसन्ति रमन्ति च । सन्ध्याकालसमाज्ञाय ८ | 
आयान्ति भक्ष्यामादाय गुवेथं तु प्रयल्लतः । 
पश्यतस्तस्य विप्रस्य च्यवनस्य महात्मनः ॥ ३६॥ |! 
आगतास्त्वण्डजाःसर्वे पितुनोडं सुशोभनम्‌ । पितरंमोतरंचोभौ प्रणेमुस्ते महा 
ताभ्यां भक्ष्यंसमासाच उपतस्थुस्तयोःपुरः । 
सर्वे सम्भाषिताः पित्रामानितास्ते सुतोत्तमाः ॥ ४१ ॥ | 
मात्रा च कृपया राजन्चचनै'प्री तिसंमितैः । पक्षवातेनशीतेन मात्तापित्नोश्च ते ह. 
तेषामाप्यायनं तौद्दौ चक्राते पक्षिणौ नृप । आशिभिरभिनन्दीच द्वाम्यामपिसुपु 
सेश्चदत्तं सुसम्पुष्टमादारमम्द्तोपमम्‌ । तावेच हि सुसस्प्रीति चक्राते द्विजसत्तम 
पिवतो निर्मलंतोयं तीर्थको टिसमुद्वम्‌ । 
खस्थानं तु समाश्रित्य सुखसन्तुष्टमानसौ ॥ ४७५ ॥ 
चक्राते च कथांदिव्यां सुपुण्या पापनाशिनीम्‌ । 
पित्रा तु कुञ्जलेनापि पृष्ट उज्ज्वल आत्मजः ॥ ४६ ॥ | 
क्कगतोऽस्यद्य पुत्रत्वं किमपूर्वं त्वयापुनः। ततरदृष्टं शरुतं पुण्यं तन्मे कथय कं 
कु्जळस्य पितुर्वाक्यं समाकण्यं सडञ्ज्चलः | पितरंग्रत्युचाचाथ भक्त्या नमित 
प्रणाममकरोन्मूर्थ्या कथांचक्रे मनोहराम्‌ .॥ ४६ ॥ 
उज्ज्वल उवाच । | 
प्लक्षद्वीपं महाभाग नित्यमेव बजाम्यहम्‌। महता उद्यमेनापि आहारां महामते || 
प्लक्षद्वीपे महाराज सन्तिदेशा अनेकशः । पर्वताःसरिदुद्यान घनानि.च.:सरांणि 


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शक्वाशीतितमोञध्यायः ] क उयचनचरित्रवर्णनम्‌ # 
¬ पत्तनाश्वान्ये सुप्रजाभिःप्रमोद्ता: । 


२७७ 
सदासुखेन सन्तुष्टा लोकाहृष्टावसन्ति ते 
दानपुण्य जपोपेताःश्रद्धाभाव समन्विता: । 
प्लक्षद्वीप महाराज आसीत्पुण्यमतिःसदा ॥ ५३॥ 

धर्मात्मा तत्खुतासीदनूपमा । शुणरूपसमायुक्ता 
दिव्यादेचीतिविख्याता रूपेणाप्रतिमा भुवि। 
पित्रा विलोकिता सो तु रूपलावण्यसंयुत्ता ॥ ५५ ॥ 
धो यसि सा च वतते चारुमङ्गला । स तां दृष्ट्वा दिवोदासो दिव्यादेची सुतांतदा 
स प्रदीयते कन्या खुचराय महात्मने । इति चिन्तापरो भूत्वा समालोफ्य नरोत्तमः 
रूपदेशस्य राजानं समालोक्य महीपतिः । 
चित्रसेनं महात्सानं समाहूय नरोत्तमः ॥ ५८॥ 


यां ददौ महात्मासो चित्रसेनाय धीमते। तस्याविवाहकाले तु सम्प्राप्ते समये तूप | 


युक्ता सुशीला चारुमङ्गला ॥ 


सौ चित्रसेनस्तुकालधमेणवे किल । दिवोदासस्तु घर्मात्माचिन्तयामासभूपतिः 
____ सुत्राह्मणान्समाहूय पप्रच्छ नृपनन्दनः | 
अस्याचिचाहकाले तु चित्रसेनो दिवंगतः ॥ ६१ ॥ द 
अस्यास्तु कीद्वशं कमे भविष्यति घदन्तु मे ॥ ६२॥ 
त्राह्मणाउचुः। | 
हो इश्यते राजन्कन्यायास्तुविधानतः | पतिसत्यगरयात्यस्या नोचेत्सङ्गंकरोतिच 


| महाधिव्याधिनाग्रस्तस्त्यागंकृत्वा प्रयाति च। 

| | प्रव्राजितो अवेद्राजन्धर्मशास्त्रेषु दश्यते ॥ ६४॥ 

'झिहिताया:कन्याया उद्वाहः क्रियते बुधैः । नस्याद्रजस्वळायावदन्यःपतिषिधीयते ॥ 
गइ त विधानेन पिताकुर्यान्नसंशयः । एवं राजन्समादिष्टं घमेशास्त्रं बुधैजेनैः ॥. 

| विवाहःक्रियतामस्या इत्यूचुस्ते द्विजोत्तमाः । 

` दिवोदासस्तु धर्मात्मा द्विजवाक्य प्रणोदितः ॥ ६७॥ क 

| शेथ महाराज, उद्यमं कुठवाल्दप।/पुददेच८व, दात बितगदेषी, हिज्ोत्तम ॥६८॥ 


२७८ # पादापुराणम्‌ # [ २ भागित ५ 
` ऋंपसेनाय पुण्याय तस्मैराज्षे महात्मने । खत्युधम गतो राजा चिचाहे तु ५ ४ 
यदायदा महाभाग दिव्यादैव्याश्च. भूपतिः। भता च प्रियतेकाले प्राप्तेलग्नस्य ७ 
एकचिशति भर्तारःकालेकालेग्ट्ताःपितः । 
ततो राजा महाडुःखी सञ्जातःख्यातचिक्रमः ॥ ७१ ॥ हम 
समालोच्य समाहय समामन्त्र्य समन्त्रिभिः । स्व महाबुद्धि चकार 
प्ळक्षद्वीपस्य राजानःसमाहुता महात्मना । स्वयंचराथमाहतास्तथा ते धर्मतत्पा * 
` तस्यास्तु रूपसंमुग्धा राजानोसृत्युनो दिताः । सङ्ग्राम चक्रिरे सूढास्तेस्ृताः 
एवं तात क्षयोजातःक्षत्त्रियाणां मद्दात्मनाम्‌। 
दिव्यादैची सुढुःखार्ता गता सा घनकन्दरम्‌ ॥ ७५ ॥ 
रुरोद करुणंवाळा दिव्यादेची मनस्विनी । एवं तात मंयादष्टमपूचे तत्र वै तदा 
तन्मे खुचिस्तरं तात तस्याःकथय कारणम्‌ ॥ ७9 ॥ 
इति श्री पाापुराणेद्वितीयेमूमिखण्डेवेनोपाख्यानेशुरुतीर्थेच्यघनो पाख्यान 
पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८५॥ | 


कण णा 


` षडशीतितमोऽध्यायः 
कुञ्जरेनतस्या दिव्यादेव्याःपू्वजन्माचरितदुष्कर्मकथनम्‌ । 
ः कुञ्जल उचाच | ee 
तस्यास्तु चेष्टितं चत्स दिव्यादेव्या घदाम्यहम्‌ । पूवेजन्मक्कत॑ सव॑ तन्मे 
अस्ति चौराणसी पुण्या नगरीपापनाशिनी । तस्यामास्तेमहाप्राज्ञःसुबीरोनाम 
वैश्यजात्यां समुत्पन्नो धनधान्य समाकुलः । न 
तस्यभार्या महाप्रोज्ञ चित्रानाम खुविश्वुता ॥ ३ ॥ 


कुलाचार, । CG पृरित्यज्य अनाचरेण मुतु स्वैरुतुत्त्यापरवतंते ¢ | 
Ss CC-0. Mum u Bhawan णां चेते १. मसते हि. अतर ८स्ेरदरत्त्यापवतते। 


(ढशीवितमो$ध्यायः 1 विव्यादेव्यापूर्वजन्माचरितदुष्कमंकथनम्‌ ल: > “ 
कु क २७६: 


साधुनिन्दा पराडुष्टा सदाहास्यकरी च सा | 

अनाचारां महापापां ज्ञात्वा बीरोऽपि नन्दनः ॥ ७ ॥. 
| त्यक्त्वा महाप्राज्ञ उपयेमे महामतिः । अन्यवैश्यस्य वै कन्या तयासह प्रवतेते 
(कारण पुण्यात्मा सत्यधर्ममतिःसदा । निरस्ता तेन साचित्राप्रचण्डा भ्रमतेमहीम्‌ 


| सङ्गति प्राप्ता नराणां tॅ पं तेषां 
ता सङ्गत प्राप्ता नराणां पापिनां सदा । दूतीकमे चकाराथ सा तेषां पापनिश्चया 
गृहमङ्गं चकाराथ साधूनां पापकारिणी । 


साध्वीं नारीं समाहय पापवाक्यैःसुलोभयेत्‌॥ ११॥ 
| मङ्गं चकाराथवाक्येःप्त्ययकारकेः । साधूनां सास्त्रियंचित्राअन्यस्मै प्रतिपाद्येत 
पं गृह शतंभग्नं चित्रया पापनिश्चयात्‌। सङ्ग्रामं सा महादुष्टाःकारयत्पतिपुत्रकेः' 
मनांसि चाळ्येत्पापां पुरुषाणां खियःप्रति । | 
अकारयच्च सङ्ग्रामं यमग्राम विवर्धनम्‌ ॥ १४॥ ह 
. पि गृहशतं भङ्कत्वा पश्चात्सा निधनंगता । शासिता यमराजेन वहुदण्डैःसुनन्दन ॥ 
परोजयत्सुनरकान्रोरवांस्तरणेःसुतः । पाचितारौ रवेचित्रा चित्राःपीडाःप्रदर्शिताः ॥ 
याइशं क्रियतेकमे तादशं परिसुञ्यते । 
तया गृहशते भग्नं चित्रया पापनिश्चयात्‌ ॥ १७॥ 
मँघिपाकोश्यं तयाभुक्तो द्विजोत्तम । यस्मादुगृहशतं भग्नं तस्मादुदु:खं प्रभुज्ञति 
हसमये प्राप्ते देवं च पाकतां गतम्‌ । प्राप्ते विधाहसमये भर्तामृत्यु प्रयाति च ॥ 
यथा गृहशतंभझ्न तथा वरशतं सृतम्‌ । 
स्पयंवरै तदा घत्स विचाहे चैकविशतिः ॥ २०॥ 
दिव्यादेन्या मयाख्यातं यथा मे एच्छितं त्वयां । 
एतत्ते समाख्यातं तस्यापरं िचेष्टितम्‌॥ २१ ॥ ` ` 


CC-0. Mumukshu Bhan चळ उवाच ollection. Digitized by eGangotri 


) 


पूव सम्पूजितः सिद्धस्तया पुण्यवतांवरः । तस्य कमविपाको यं प्राप्त पुण्यवतां इ| 


२८१ `. :- अ पाझपुराणम्‌ # 
दिज्यादेव्यास्त्वयोख्यातं यत्पूर्वेपूर्वेचेषितम्‌ । 
तथा पापं इतं घोरं गृहमङ्गाल्यमेच च ॥ २२॥ 
प्लक्षद्वीपस्य भूपस्य दिवोदासस्य वे सुता । केनपुण्यप्रभावेण तयाप्राप्तं महाकुल्म। 
एष मे संशयस्तात तदेतत्प्रत्रचीतु मे । एवं पापसमाचारा कथंजोता न्पात्मजा ॥२१ | 
कुञ्जछ उवाच | 
चित्रायाश्चे शितंपुण्य॑ तत्सवं प्रवदाम्यहम्‌ । भ्ूयतामुज्ज्वल्ज्त चित्रया यत्छृतंपुर। क 
भ्रममाणो महाप्राज्ञाःकश्चित्सिद्ःसमागतः । | 
कुचैलो वस्त्रहीनश्च संन्यासी स च दण्डशूक ॥ २६ ॥ 
कौपीनेन समायुक्तःपाणीपात्रो दिगम्बरः । गृदवारं समाश्रित्य चित्रायाः परिसंग्रिह। 
समौनी सर्व॑मुण्डस्तु विजितात्मा जितेन्द्रियः। निराहारो जिताद्दारः सवेतत्त्वाथदशक तुर 
दूराध्वानपरिश्रान्त आतपा कुलमानखः। श्रमेण खिद्यामानश्च तृपाकान्तः सुपुत्रक||ंर 
चित्राद्वारं समाश्रित्य च्छायामाश्रित्य संस्थितः । 
तयाद्॒शे महात्मा स चित्रया श्रमपीडितः । सेवां चक्रे च चित्रा खा तस्येचजुमहात्म | 
पादप्रक्षालनं कृत्वा द्त्वा आसनसुत्तमम्‌। आस्यतामासने तात सुखेनापि सुकोमरे प 
श्षुघापनोदनाथ हि सुञ्यतामन्नमुक्तमम्‌। स्वेच्छया परितुएश्च शीतलं सलिलं शि 
एवसुक्तवा तथाहत्वा देवचत्पूज्य तं सुत। अङ्गसंवाहनंषृत्चा नाशितश्रम पव च|| 
तयोक्तो हिःमहात्मा स मुक्त्वा पीत्वा द्विजोत्तम ॥ ३४ ॥ 
एवं सन्तोषितः सिद्धस्तया तत्वार्थेदर्शक: ॥ 
सन्तुएः सवेधर्मात्मा किंचित्कालं स्थिरोऽभवत्‌॥ ३५ ॥ 
स्वेच्छाया स गतो विप्रो महायोगी यथागतम्‌ ॥ 
गते तस्मिन्महाभागे सिद्धेचेव महात्मनी । सा चित्रा मरणं प्राप्ता स्वकम 


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ह ] # दिव्यादेवीवरजीवनायभगवदुध्यानवर्णनम्‌ # . * ` 
प्हाराशे दिवोदासस्य चे णहे. । दिव्यादेवीचरापत्यं सञ्जातं तस्य मानद 
(१ द्तवतीचान्नं पानंपुण्यं महात्मने । तस्यदानस्य सा भुङ्कते महत्पुण्यफलोद्यम्‌ 
| शीतढंतोयं मिष्टान्न च भुनक्ति वे। दिव्यान्भोगान्प्रमुञ्जाना चर्तते पितृमन्दिरै 
| यास्य प्रभावाच्च राजकन्या व्यज्ञायत । पापकर्मप्रभावाच्च ग्रहभद्ान्महामते 
ुञ्जते सा दिव्यादेवी खुपुत्रक । पत्ते सर्वमाख्यातं दिव्यादेव्या विचेष्टितम्‌ . 
अन्यत्कि ते प्रवक्ष्यामि यत्त्वं पृच्छसि मामहि ॥ ४५॥ 

उज्जल उचाच 
कथं सासुच्यते शोकान्महादुःखाद्वद्स्व मे । 
| सास्याच्च कीहूशी बाळा महादुःखेन पीड़िता ॥ ४६॥ 
हुं बीदृशं तस्माद्विपाकश्च भविष्यति । पतं मे संशयंतात साम्प्रतंछेत्तुमहेसि ॥ | 
सा ढमते मोक्षं तं सोपायं वद्स्व मे । एकाकिनी महाभाया महारणे प्रयो दिति 
विष्णुरुवाच । 
यं महच्छुत्वा क्षणमेकं विचिन्त्यः । प्रत्युवाच महाप्राज्ञः कुञ्जलः पुत्रकंप्रति॥ 
वत्स महामाग सत्यमेतद्वदास्यहम्‌ । पापयोनि तु सम्प्राप्य पूर्वकम समुद्गवाम्‌॥ 
हेन च मे ज्ञानं नष्टं सस्प्रतिपु‘क । अस्यवृक्षस्य सङ्घाश्च प्रयतस्य महात्मनः ॥ 
| रेवायाश्च प्रसादेन विष्णोश्चैव प्रसादतः ॥ 
| येन सा लभते ज्ञानं मोक्षस्थानं निवर्तते ॥ ५२॥ 
उपदेशं प्रवक्ष्यामि मोक्षमार्गमनुत्तमम्‌ ॥ 
यास्यते कल्मघान्मुक्ता यथाहेम हुताशनात्‌ ॥ ५३ ॥ 
[१ जायते चत्स सङ्गाद्वहनेःस्वरूपचत्‌ । हरेर्ध्यानान्महाप्राज्ञ शीघं तस्य महात्मनः ॥ 
| भपहोमततात्पापं नाशंयाति हि पापिनाम्‌ ॥ 
मद्त्यजेद्यथा नागो भयात्सिहस्य सर्वदा ॥ ५५॥ ` 
| ण कृष्णस्य तत्प्रयाति हि किल्विषम्‌ । 
| देजसा वैनतेयस्य घिषहीना इवोरगाः ॥ ५६ ॥ 


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३८९ ` ` क पाझपुराणम्‌# . [ २ भूमिस & 
त्रह्महत्यादिकाःपापाःप्रल्यं यान्ति नान्यथा । 
नामोच्चारैण तस्यापि चक्रपाणेः प्रयान्ति ते ॥ ५७.॥ 
यदानाम शतंपुण्यमघराशि विनाशनम्‌ ॥ . 
सा जपेतस्थिराभूत्वा कामक्रोधविवजिता ॥ ५८॥ 
सवे न्द्रियाणि संयम्य आत्मज्ञानेन गोपयेत्‌ । तस्यध्यान प्रविष्टा खा एकभूता 


सा जपेत्परमंज्ञानं तदामोक्षं प्रयाति च। 
तन्मनास्तत्पदेलीना योगयुक्ता यदा भवेत्‌ ॥ ६० ॥ | 
उज्ज्वळ उवाच | 
चद्‌ तात परंज्ञानं परमं मम साम्प्रतम्‌ । पश्चादुध्यानं घतं पुण्यं नाख्चाँ शतमिह्दैच च|| 
कुञ्जछ घाच पि 


यथादीपो निवातस्थो निश्चलो वायुवजितः । प्रज्घलन्नाशयेत्सवमन्धकार महामते 
तद्वद्दोषचिहीनात्मा भवत्येच निराश्रयः । निराशो निर्मलोचत्ख न मित्र न रिपु कदा 
न शोको न च हर्षश्च न लोभो न च मत्सरः। एकोविषादहपैंश्व सुखदुःखैविमुच्यते 
विषयैश्चापि सर्वैश्च इन्द्रियाणि स संहरेत्‌ । तदा ख केवलो जातः केवलत्वं 
अझिकमेप्रसङ्केन दीपस्तेळं प्रशोषयेत्‌ । 
बर्त्याधारेण राजेन्द्र निःसङ्गोचायुचजितः ॥ ६७ ॥ 
कज्जळं वमते पश्चात्तैलस्यापि महामते । । कृष्णासौ दश्यते रेखा दीपस्याग्रे महामे 
स्वयमाङष्यते तेलं तेजसा निर्मेलो भवेत्‌ । 
कायचतिस्थितस्तद्वत्कमेतेल प्रशोषयेत्‌ ॥ ६६॥ 
विषयान्कञ्जलीकृत्य प्रत्यक्षं सम्प्रदर्शयेत्‌ । जनयेन्निमेलो भूत्वा स्वयमेव प्रक 
क्रोधा दिमिःक्लेशसंन्ञर्वायुमिःपरिवजितः । 
निःस्पृहो निश्चलो भूत्वा तेजसा स्वयसुञ्ञ्चलेत्‌ ॥ ७१ ॥ 
रेलोक्यं पश्यते सवं. 


:स्वतेजसा । - 
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} परंज्ञानं प्रवक्ष्यामी यन्नद्वष्टं तु केनचित्‌। श्रूयतां पुत्रकेवल्यं केवलं मलवजितम्‌ (६१ 


तियाय ] * दिव्यादेवीवरजीचनायभगचदुध्यानचर्णनम्‌ # _ २८३ | 
केवल ज्ञानरूपोऽयं मया ते परिकीर्तितः ॥ ७२॥ 
हस्य परवक्ष्यामि द्विविधं तस्य चक्रिणः । केवळ ज्ञानरुपेण दश्यते ज्ञान चक्षुषा न 
योगयुक्ता महातमानः परमार्थपरायणः। | 
यं पश्यन्ति विनिद्रास्तु यत्तपःसवेदशेकम्‌ ॥ ७४ ॥ 
हस्तपादबिहीनश्च सर्वत्र परिगच्छति। 
सर्व गृह्मति त्रैलोक्यं स्थावरजङ्गमं सुत ॥ ७५॥ 
घ्रातिजक्षिति पुत्रक । अकणेःश्टणते: सवं सर्वसाक्षी जगत्पति 
अरुपोरुपसम्बद्धः पञ्चवर्गं चशंगतः । 
| सर्वलोकस्य यःप्राणःपूजितःसचराचरैः ॥ ७9 ॥ 
कहो वदते खर्वं वेद्शास्त्रानुगं सुतः । अत्वचःरुपशेनंचापि सर्वेषामेब जायते ॥ 
१ह्वाल्दो विरक्तात्मा एकरूपो निराश्रयः । निर्जेरो निर्मेमोन्यायी सगुणोनिर्ममोष्मलः 
'सवेवश्यात्मासरवदःसर्ववित्तमः । तस्य ध्याता न चैवास्ति सर्व सर्वमयो विसुः 
एवं सर्वमयंध्यानं पश्यते यो महात्मन: । 
स याति परमंस्थानममूजेमस्रुतोपमम्‌ ॥ ८१ ॥ 
द्वितीयं तु प्रवक्ध्यामि अस्य ध्यानं महात्मनः । 
ूर्ताकारं तु साकार निराकारं निरामयम्‌॥ ८२॥ 
[ण्ड सपेमतुळं वासितं यस्य वासना । स तस्माद्वासुदेवेति-ःउच्यते ममनन्दन ॥ | 
मेघस्य यद्वर्ण तस्यतद्ववेत्‌ । सुर्यतेजःप्रतीकाशं चतुर्बाहु. सुरेश्वरम्‌ | 
शामते शङ्को हेमरल्विभूषितः। सूर्य बिम्बसमाकारं चक्रं पद्मं प्रतिष्ठितम्‌॥ | 
कौमोदकीगदा तस्य महासुर विनाशिनी । क स्य 
३ चामे च शोभते वत्स हस्ते तस्य महात्मनः ॥ ८६ ॥. | 
इगन्धाढ्यं तस्य दक्षिण हस्तगम्‌। शोममानःसदेघास्ते सायुधःकमलाप्रियः | 
इत्तमास्यं प्मपत्रनिभेक्षणम्‌। राजमानं हृषीकेशं दशने रत्नसन्निमेः ॥८८॥ 
अन्त यस्य अधरो विद्रुमाङृतिः | शोभते पुण्डरीकाक्षःकिरीरेनापिपुरक 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


२८४ # पाद्यपुराणम्‌ # [ २ भूमिखषे 
विशालेनापि रूपेण केशवस्तु खुबचेसा । न 
कौस्तुभेनाङ्कितिनेच राजमानो जनाद्‌नः ॥ 8० 

सूयंतेजःप्रतीकाश कुण्डलाभ्यां प्रभाति च। श्रीवत्साङ्केन पुण्येन सवेदा राजतेहरि क 

केयूरकङ्कणे हारं कके क्षसन्निमेः । वपुषा ्राजमानस्ठ विजयो जयतांघरः [| 
श्राजते सोऽपि गोविन्दो हेमवर्णेन चाससा | 
मुद्रिका रत्नयुक्ताभिस्ङ्णुभिविराजते ॥ ६३। 

सर्वायुभैःखुसम्पू्णै दिव्यैरामरणैहरिः । चैनतेय समारूढो लोककर्ता जगत्पतिः| 

एबं तं ध्यायते नित्यमनत्यमनसा नरः । सुच्यते सर्वपापेम्यो रुद्र्छोकं सगच्छति। 
एतत्ते सर्वमाख्यातं ध्यानमेव जगत्पतेः । 
त्रतंचैच प्रवक्ष्यामि सर्वपाप निवारणम्‌ ॥ ६६ ॥ 

इतिश्री पादपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डे वेनोपाख्यानेगुरुती्थंवर्णनेषडशीतितमोऽध्यायः 


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सप्ताशीतितमो ऽध्यायः | 
अशून्यशयनवूतकथनस्‌ | 1७ 
. कुजलउचाच ! 


त्रतमेदान्प्रवक्ष्यामि येयेंश्वारा धितो हरिः । जया च विजयाचैव जयन्ती पाप 
-त्रिस्पृशाचञ्जुलीचान्या तिलदग्धा तथापरा । अखण्डाचारकन्या च मनोरथासु 
दिव्यप्रभावाःसन्त्यन्यास्तिथयःपुत्रपौत्रदाः । अशून्यशयनं चान्यज्जन्माष्टमी महावर 
पतेत्र तेमेहदपुण्येःपापं दूरं प्रयाति च । 
प्राणिनां चात्रसन्देहःसत्यं सत्यं वदाम्यहम्‌ ॥ ४ ॥ 
स्तोत्रं तस्य प्रचक्ष्यामिपापराशि विनाशनम्‌ । सुपुत्र शतनामाख्यं नराणां 


तदा 
तस्य देवस्य कृष्णस्य रातनामाख्यमुत्तमम्‌ | सम्मत्येच भवक्ष्यासि तच्छणुष्वसुत 
CC-0. Mumukshu Bhaw, ranast Col itizedby eGangotr| 


| ह्शीतितमोध्यायः ] # कृष्णशतनाम्राख्यस्तोत्रवर्णनम्‌ # य्य 


| विष्णोर्नामशतस्यापि ऋषिछन्दो घदाम्यहम्‌ । . कट) 
| देवंचैव महाभाग सर्वपाप प्रिशोधनम्‌॥ ७॥ ` | 
|॥लोर्वामशतस्यापित्रपित्रे ह्या प्रकीतितः । चिष्णुस्तु देवतापरोक्तशन्दोऽचुष्टुतथैव दा | 
| सर्वकामिक संसिद्धये मोक्षे च विनियोगकः॥८॥  . | 
पहं हृषीकेश केशवं मधुसूद्नम्‌। सूदनं खवंदेत्यानां नारायणमनामयम्‌ ॥ ६ ॥ | 
' जयन्त विजयं कृष्णमनन्तं वामनं ततः । | 
विष्णुं विश्वेश्वरं पुण्यं विश्वाधारं सुराचितमू ॥ १०॥ 
हं त्वघहल्तार नरसिंह श्रियःप्रियम्‌ । श्रीपति श्रीधर श्रीदं श्रीनिवास महोदयम्‌ ॥ | 
परम माधबंमोक्षं क्षमारूपं जनार्दनम्‌ । सर्वज्ञ' सर्वचेत्तारं सर्वदं सर्वनायकम्‌ ॥ | 
॥पुररिंगोविन्दं पद्मनाभं प्रजापतिम्‌ । आनन्द ज्ञानसम्पन्नं ज्ञानं ज्ञाननायकम्‌ ॥ 
| हुतं सवल चन्द्र चक्रपाणि परावरम्‌। युगाघारं जगद्योनिं ब्रह्मरूपं महेश्वरम्‌ ॥ | 
हुतं तं सुवेकुण्ठमेकरूपं जगत्पतिम्‌ । चासुदेवं महात्मानं ब्रह्मण्यं ब्राह्मणप्रियम्‌ ॥ 
गोप्रियं गोहितं यज्ञ' यज्ञाङ्गं यज्ञवद्धेनम्‌ । 
यशस्यापि खुभोक्तारं वेदवेदाङ्गपारगम्‌ ॥ १६ ॥ [ 
व वेदरूपं तं बिद्याचासं सुरेश्वरम्‌। अव्यक्त तं महाहंसं शङ्कपाणि पुरातनम्‌॥१७॥ 
शिपुष्काराक्षं तु वराहं धरणीधरम्‌ । प्रचुज्ञ' कामपालं च व्यासं व्यालमहेश्वरम्‌॥ . 
| स्ंसौख्यं महासोख्यं मोक्षं च. परमेश्वरम्‌ । | 
योगरूपं महाज्ञानं योगिनां गतिदं प्रियम्‌॥ १६॥ : दनु 
छं तं पद्महस्तं गदाधरम्‌। गुहावासं संवासं पुण्यवासं. महामुजम्‌॥ | 
नमामि निश्चळ नित्यं मनोवाक्काय कर्मभिः ॥ २१ ॥ । 
नाम्नां शतेनापि सुपुण्य कर्ता यःस्तौति कृष्ण मनसास्थिरेण । | 
| 


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ल 


। सयाति लोकं मधुसूदनस्य विहाय लोको निहपुण्यपूतः ॥ २२॥ 
१ "दापुण्यं सवेपातकशोधनन्‌ । जपेद्नन्यमनसा ध्यायेदुध्यान समन्वितम्‌ ॥ . 
 स्पुण्यगङ्गास्नानफछं लमेत्‌। तस्मात्तु सुस्थिरोभृत्वा समाहित मनाजपेत्‌ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


अ पाझपुराणम्‌ ॐ [ २ मूमिले 


| द । क 
त्रिकाळ च जपेन्मर्त्यो नियतो नियमेस्थितः । अभ्वमेघफल तस्य जायते हर 
. एकादश्यासुपोष्यैब पुरतो माघवस्य यः | 
जागरे प्रजपेन्म्त्यस्तस्यपुण्यं घदाम्यहम्‌ ॥। २६॥ 
पुण्डरीकस्य यज्ञस्य फलमाप्नोति मानवः । ` 
तुलसी सन्निधौस्थित्वा मनसा यो जपेन्नरः ॥ २७॥ | 
“पड़ने घर्षेणापि च मानवः । शाल्प्रामशिला यत्र यत्र द्वारावतीशिला॥| । 
राजसूय फलंभुडक्ते घषणा पि कळक |, 
उभयोः सन्निधौ जाप्यं कत्तेव्यं सुखमिच्छता | बहुसौख्यं प्रभुक्त्वेव कुळानांशतमेवच|, 


एकेनचाधिक मत्यं आत्मनासह तारयेत्‌ । कार्तिके स्नानकर्ता यःपूजयेन्मधुसूदनम्‌॥ 
य:पठेत्परयतःस्तोत्रं प्रयाति परमाँगतिम्‌। 
माघस्नायी हरिपूज्य भक्त्या च मधुसूदनम्‌॥ ३९॥ | 
ज्याये्चैच हृषीकेश जपेद्दाथ श्रणोति वा । सुरापानादिक पाएं विहाय परमपद 
) विनाविध्न' नरः पुत्र सम्प्रयाति जनादनम्‌ । श्राद्धकाळे हि यो मर्त्यो विप्रा्णांभुज्जतापुर 
यो जपेञ्च शतंनाम्नां स्तोत्रं पातकनाशनम्‌ | 
पितरस्तुष्टिमायान्ति तृप्तायान्ति परांग तिम्‌ ॥ ३४ ॥ 
्रह्मणो वेद्विद्वान्स्पाल्क्षत्रियोविन्द्ते महीम्‌। घनऋद्धि प्रभुञ्जीत वेश्यो जपतियःसव 
शूद्रःखुखं प्रमुङ्क्ते्थ ब्राह्मणत्वं च गच्छति । 
` प्राप्यजन्मॉन्तरं वत्स वेदविद्यां प्रविन्दिति ॥ ३६ ॥ 
सुखदं मोक्षदं स्तोत्रं जप्तव्यं च न संशयः । केशवस्य प्रसादेन सर्वेसिद्धो भवेशर | 
' इतिश्रीपाद्मपुराणेद्वितीयेभूमिख २डेवेनोपाख्यानेशुरुतीथेवर्णनेच्यचनचरित्रे | 
. सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८9॥ 


हाळ समाल 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


च 
| कुञ्जल उचाच। टे 
र महाका ध्यानंच्चैव खुपुत्रक । मयाख्यातं तवाग्रे चै विष्णोःपापप्रणाशानम्‌ | 
ष्ट्यं सा हि यदापुण्यं समाचरेत्‌ । प्रयाति वैष्णचंलोक' देचानामपि दुळेमम्‌ | 
त्वा ब्रते वत्स दिव्यादेचीं प्रवोधय । अशून्यशयनंनाम घतराजं वद्स्वताम्‌ ॥३॥ ` | 
समुद्धर महापापाद्राजकन्यां यशस्विनीम्‌। | 
त्वयाएृष्टं मयाख्यातं पुण्यदं पापनाशनम्‌ ॥ ४॥ 
गच्छगच्छ महाभाग इत्युक्त्वा चिरराम स: ॥ ५॥ 

श्रीविष्णुद्चाच । 
्ोऽपयेव मुक्तस्तु सपित्रा कुञ्जलेनहि । प्रणम्य पादौ धर्मात्मा मातापित्रोमंहामति 
त्वरितो राजन्प्लक्षद्वीपं सडञ्ञ्वलः । तं गिरिं सर्वेतोभद्रं नानाधातु समाकुलम्‌ 
नानारल्लमयेस्तुङ्गः शिखरेरुपशो मितम्‌ । 
नानाप्रचाह सम्पूर्णेरुद्केरुञ्ञ्चलैन्रप ॥ ८॥ 
स्वच्छनीरास्तस्मिझि रिचरोत्तमे । किन्नरास्तत्रगायन्ति गन्धर्वाःसुस्वरैरप | 
'समाकीणं देववृन्देरुपावृत्तम्‌ । सिद्धचारणसड्घुएं मुनिवन्देरलङकतम्‌'॥ | 
नानापक्षिनिनादेश्च सर्वच परिनादितम्‌। ` । 
एवंगिरि समासाद्य उज्ज्वळो5लघुविक्रमः ॥ ११॥ 
सा कन्या गिरौतस्मिन्प्ररो दिति । रोरूयमाणां सप्राज्ञोचचनं चेद्मत्नवीत्‌ 
f= त्वं भचसि कल्याणि कस्माद्रोदिषि साम्प्रतम्‌ । 
महाभागे केन ते चिध्रियं क्रतम्‌। समाचक्ष्व ममायैच सवंदुःखस्य कारणम्‌ 


दिव्यादेव्युचाच | 
(७-0. Mumukshu Bhawan Vardfiasi Collection. Digitized by eGangotri 


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अष्टादीतितमो ऽध्यायः | 
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- २८८ 


# पाद्यपुराणम्‌ क [२ भूमिस 


विपाको हि महाभाग कर्मणां मम साम्प्रतम्‌ । इहतिष्ठामि दुःखेन वैधव्येन समन 
भचान्को हि महाभाग कृपया ममपीडितः । पक्षिरूपधरो घत्स सोत्सवं परिभापते। 

एचमाकर्ण्य तत्सवं भाषितं राजकन्यया । हँ 

अहंपक्षी महाभागे कृपया तवपीडितः ॥ १६ ॥ लन । 

पक्षिरूपघरो भद्रे नाहंसिद्धो न ज्ञानवान्‌ रुदमानां द्वएचानिह्‌ ॥ १३|| 

ततःपृच्छाम्यहं देखि बद्‌ मे कारणंत्विह । पितुर्गेहे यथाद्ृत्तमात्मत्त्तान्तमेव हि| | 

तया निवेदितं सवं यथासङ्ख्येन दुःखदम्‌ 

समासेन समाकण्यं उज्ज्वलस्तु महामना: ॥ १६ ॥ 

तामुचाच महापश्षी दिव्यादेवीं सुदुः खिताम्‌। यथा चिवाहकाछे ते भर्तारो मरणंग्| 

. स्वयंवर निमित्त ते क्षयंयाताश्च क्षत्त्रियाः । एतत्ते चेष्टितंसवँ सयापितरि भाषितम्‌| 

अन्यजन्मङ्तं कर्म तवपापं सुलोचने । | 

ममपित्रा ममाग्रे तु पया परिभाषितम्‌ ॥ २२॥ हुए 

तेनदोषेण सम्पुष्टा लिसाजाता चरानने। एतावत्कारणं सर्च तातेन परिभाषित 
पूर्वेकमे विपाक तु भुङ्क्ष्वत्वे च.समाश्व स । | 

एवं सा भाषितं तस्य श्रुत्वा कन्योज्ज्यलस्य तत्‌ ॥ २४ ॥ | 

प्रत्युवाच महात्मानं घर चन्तं पक्षिणं पुनः प्रणता दीनया वाचा कुरूपक्चिन्छ्पां मा 
कथयस्व प्रसादेन तस्यपापस्य निष्कृतिम्‌ । प्रायश्चित्त खुपुण्यं च ममपातक शोध 

येन व्रजास्यह पुण्यं चिशुद्धा धौतकल्मषा । .. ॥ए 

प्रायश्चितं महाभाग वद मे त्वं प्रसाद्तः ॥ २७॥ ` | 

उज्ज्वल उचाच। | 

तवाथ तु महाभागे पितरं पृष्ठवानहम्‌। समोख्यातमतःपित्रा प्रायश्चित्तमदुत्तम| 


समाचष्ट सधर्मात्मा सवंज्ञानप्रकाशकम्‌। 


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बॉनस्तोजं व्रत ध्यानं विष्णोश्चैव महात्मनः ॥ ३१ ॥ 
'विष्णुर्वाच । 


ताहारा निराधारा सुढुःखिता । कामक्रोधविहीना सा घर्गसंयम्य नित्यशः 

| इद्भियाणां महाराज महामोहं निरस्य सा । 

_ अब्दे चतु्थकेप्राप्ते खुप्रसन्नो जनादन: ॥ ३४ ॥ ; 

मैदरदातुकामश्चायातो थरनायकः । तस्यै सन्द्शेयामास स्वरूपं घरदःप्रभुः॥ 

हाड घनश्याम शाङचक्रगदाथरम्‌। सर्वाभरणशोमाढ्यं पद्महस्तं महेश्वरम्‌ ॥३६॥ 
वद्धाखलिपुटाभूत्वा वेपसाना निराश्रया॥ | 

उवाच गददेर्वावयेः णता मधुसूदनम्‌ ॥ ३७ ॥. 

(झा तवदिव्येन स्थातु' शक्रोमि नेव हि | दिव्यरूपो भवेःकस्त्वं कृपया ममचाग्रतः 

सस्व प्रसादेन किमत्र तवकारणम्‌ । सर्वेमेच प्रसादेन प्रत्रवीहि महामते,॥ ३६॥ 

क्षिं बिजानामि तेजसा इङ्गीतैस्तव । ज्ञानहीना जगन्नाथ न जाने रूपनामनी ॥ 

कि ब्रह्मा चा भचान्विष्णुःकि घा शङ्कर एच हि। 

एचमुत्तचा प्रणस्येचं दण्डवद्धरणींगता ॥ ४१ ॥ 

तामुाच जगन्नाथःप्रणतां राजनन्दिनीम्‌ ॥ ४२ ॥ 

श्रीसगचादुधाच। _ 

पि देवानामन्तरंनास्ति शोभने । ब्रह्मा समचितो येन शङ्करो वा घरानने ॥ 
तेनाइमचितो नित्यं नात्रकार्या विचारणा। 

| एवौ ममाभिन्नतरौ नित्यंचापि त्रिरूपचान ॥ ४४ ॥ 

[| पनितोयैश्च तावेतौ तैःसुपूजितौ । अहंदेवो हृषीकेशःकृपया तचचागतः ॥ ४५॥ 

[पुण्येन रतेन नियमेन च । सञ्जाता कल्मषैहींना घरं बस्य शोभने ॥ ४६ ॥ 

दिव्यादेव्युवाच । 

| हेषीकेश कृष्ण 'क्लेशापहारक । नमामि चरणडन्दं मामुद्धर खुरेश्वरम॥४५॥ 


® १६-- CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


प्रा 1 + दिल्यादे्याःभगतत्तरसादादिव्यळ्ोोकाचातिवर्णनमूक २८६. 


ता हि प्रजग्राह संस्थिता. निर्जनेचने । सवेडन्द्विनिर्मुक्ता सञ्जाता तपसिस्थिता 


` इइ . # पाह्मपुराणम्‌# ` ` [२ भूमिका 


बरं मे दांतुकामोऽखि चक्रपाणे प्रसीद मे । आत्मपादयुगस्यापि भक्तिदेहि मान 
दर्शेयस्व जगन्नाथ मोक्षमाग निरामयम्‌ ॥ के 
दासत्वं देहि बैकुण्ठ यदितुष्टो जनार्दन ॥ ४६ ॥ 
श्रीमगवाडुघाच। - 


एवमस्तु महाभागे गच्छ निर्धूतकल्मषा | वैष्णव परमंलोकं दुसे योगिमिःस 
गच्छगच्छ परंलोकं प्रसादान्मम खास्प्रतम्‌ | एवमुक्ते ततोचाक्ये माधवेन महात्मना|| 
दिव्यादेबी अभूदिव्या सूर्यतेजःसमप्रभा । ] 

- पश्यतां सर्वलोकानां दिव्याभरणभूषिता ॥ ५२ ॥ 
दिव्यमालान्विता सा च दिव्यहारविलस्विनी । गता सा चैष्णदंलोकंदाहप्रलूयवरजित 
पुनःपक्षी समायातःस्वगृहं हर्षसंयुतः । 'तत्सचं कथयामास पितरंप्रति सत्तमः॥५५ 

इतिश्रीपादपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेगुरुतीर्थेच्यबनचरित्र 
*प्टाशीतितमो$्ध्यायः ॥ ८८ ॥ 


एकोननवतितमो ऽध्यायः 


समुज्ज्बठेननर्मदातीरेव्याधो द्वारपूवेककृष्णहसकथावर्णनम्‌ । 
विष्णुरुघाच । 

कुञ्जलस्तु खुतंचाक्यं समुज्ज्वलमंथाबचीत्‌ । भवान्कथंय भोःपुत्र किमपूर्व तु इरः 
तन्मे कथय सुप्रीतःश्रोतुकामो 5स्मि साम्प्रतम्‌ । एघमादिश्य तं पुत्रं चिरराम सङ] 
पितरं प्रत्युवाचाथ घिनयाचनतर्सुतः ॥ ३ ॥ 

समुज्ज्वल उचाच। | 

हिमवन्तं नगश्रे्ठं देवदृन्द समन्वितम्‌ । आहारार्थं प्रगच्छामि सघतश्चात्मनःपि| 

पश्यामि कौतुकं तत्र न दृष्ट न श्रुतं पुरा । प्रदेश षिभिःकीणंमप्लरो सिःप्रशो मर्त 


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ऽध्यायः ] अ व्याधोद्धारपूर्वेककृष्णहंसकथाचर्णनम्‌ ऋ २६१ 
{ मङ्गल्यं मड़लेयु तम्‌ ।. बहुपुण्यफलोपेतेवेनेनांना विघेस्तत: ॥६॥ . 
अरेमनखःपरिमोददनम्‌ । तत्र दुष्टं मया तातं. अपूर्व मानसान्तिके ॥ ७ ॥ 

12 हंस एकःसमागतः.। ख च कृष्णो महाभाग तरयोऽप्यन्येसमागताः ˆ 
|  अञ्चुपादैरन्यतःगुक्कविप्रददा: । ताइशास्ते च नीला बै अन्येशुभ्रा महामते ॥ 

| वै बायो रोद्राकाराविभीषणाः । दृं्राकराळ सङक्रूरा ऊध्वकेश्योभयानका: . 
| पम्वात्तास्तु समायातास्तस्मिन्सरसि.मानसे । 

कृष्णाहंसास्तु संस्बाता मानसे तातमत्पुरः ॥ ११॥ 

बिप्रान्ताःपरितश्चान्ये न स्वातास्तत्र मानसे । 

| ` इष्णान्दंसास्तु संस्थाताजहखुस्ता:स्त्रियस्तदो ॥ १२॥ 

तस्मात्तडागान्निष्कान्तो हंसएको महातचुः । 

पश्चात्रयो चिनिष्त्रान्तास्तेश्वाहं समुपेक्षितः ॥ १३॥ 

॥आकाशमार्गेण विचदन्तःपरस्परम्‌ । तास्तु स्त्रियो महाभीमाःसमन्तात्परिबभ्नमुः 
विन्ध्यस्य शिखरे पुण्ये वृक्षच्छाया सुपक्षिणः । 

निषण्णास्तत्र ते सर्वे द्ग्थादुःखैःसुदारुणेः ॥१५। . 

ुक्षमाणानां भिलूएकःसमारातः । सुगान्सपीडयित्वा तु बाणपाणिर्धनुद्धरः 

रं समाश्रित्य निषसाद्‌-सुखेन वे । पश्चा द्गिली समायाता अन्नमादाय सोदकम्‌ 
्वयंप्रियं वीक्षते राज्ञा मुद्तिलेक्षणैयु तम्‌ । 

अन्याहूशं समावीक्ष्य स्वकान्तं तेजसाद्वृतम्‌॥ १८॥ 

ब्िसमाक्रान्तं यथासूर्य दिविस्थितम्‌ । नरमन्यं परिज्ञाय तं परित्यज्य सा ययौ 

वी .व्याघ उवाच | | 
एहि त्वं प्रियेचात्र कस्मान्मां त्वं न पश्यसि। ` | 
शया पी्यमानोऽहं त्वामहं चाचलोकये ॥ २० ॥ | 
गु हुताय समाकण्ये शीघ्रंव्याधी. समागता । 

॥ भएपाशवं समासाद्य विस्मिता सा भवत्तदा ॥ २१ ॥ 


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| 
| 
1 
। 
| 


२६२ 


, ` कोऽयं तेजःसमाचारो देवोऽयं मां समाहयेत्‌ | तसुवाच ततोव्याधी भतोरंदी् 
अत्र कि ते इतं धीर भवान्को दिव्यलक्षणः ॥ २२ ॥ 
समुज्ज्वल उवाच | प्र 
अहं ते चल्लभःकान्ते भवती च मम्ल 


एचमासाषितो व्याध्याव्याधःप्रियामसाषत | 
त ७. प्रवर्तते ड 
कस्मात्त्वं मां न जानासि कथंशङ्का प्रवर्तते । श्लुघया पीड्यमानेन पयश्चान्नं 


व्याध्युवाच । 


वर्बरःकष्णवर्णश्र रक्ताक्षःकृष्णकञ्चुकः । ईदृशश्चास्ति मे भर्ता सर्वेसत्त्यमयडुए |ˆ 


भवान्को दिव्यदेहस्तु प्रियेत्युक्त्या समाहृयेत्‌। 

एष मे संशयोजातो घद्सत्यं ममाग्रतः ॥ २६ ॥ 
कुल नाम स्वकंग्रामं क्रीडांलिङ्गं खुतंखुताम्‌। समाचष्ट प्रियाग्रे तु तस्याःऽ 
प्रत्युवाच स्वभर्तारं साव्याधी हृष्टमानसा । कस्मात्ते ईदूशाःकायःश्वेतः 

कथंजातःसमाचक्ष्व ममाश्चयं प्रवतेते ॥ २६ ॥ 

समुज्ज्वल उवाच | 
एवं सम्पूच्छमानस्तु भार्यया खगघातकः । 
प्रत्युवाच ततः श्रुत्वा तां प्रियां प्रश्रयान्विताम्‌ ॥:३० ॥ 


नर्मदा उत्तरेकूले सङ्घमश्चास्ति खुबते। आतपेनाकुलोजीचो ममजातोऽति सुप 


अस्मिन्वै सङ्गमे कान्ते श्रमश्चान्तो हि सत्वर: । . 

गतःस्नात्वा जळ पीत्वा पश्चाच्चाहं समागतः ॥ ३२ ॥ 
तदा प्रभृति मे काय इंद्रशस्तेजसावृतः । सञ्जातो वस्त्रसंयुक्तः कञ्चुकःशुम्रता 

पूर्वोक्तलिड्डसंस्थाने:कुले :स्थानेन वै तथा । 

स्वप्रियं लक्षयित्वा तु ज्ञात्वा पुण्यस्य सम्मचम्‌ ॥ ३४ ॥ 


है. 
17 


क पाझपुराणम्‌ ऋ [२ भूमि | | 


प्रत्युवाचाथ भर्तारं सङ्गमं ममद्शेय। | तच पश्चात्प्रदास्यामि भोजनं पानसंयुर् 


इत्युकतःप्रियया व्याधःसत्वरेण जगाम ह। सङ्गमो दर्शितस्तेन ततोऽग्रे 


समुड्डीना महाभाग पक्षिणो लघु विक्रमाः। तयासाद्ध ययुःसर्व रेवासङ्गमसुत्त 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


घां तु पीक्षमाणानां पक्षिणां ममपश्यतः । 
हया दि स्नापितो भर्ता पुनःस्नाता हि सा स्वयम्‌ ॥ ३८ ॥ 

)चोभौ दिव्यकान्तिसमन्वितो । सञ्चातौ पक्षिणांश्रेष्ट दिव्यचस्त्रानुलेपनों 
बर्बरी दिव्यगन्धाबुलेपनौ । चेष्णचं यानमासाद्य मुनिगन्धवे पूजितौ ॥ 
१. वेष्णवंलोकं वैष्णबैःपरिपूजितौ । स्तूयमानौ महात्मानौ दम्पती दृष्वानहम्‌ 
बै स्वर्गमार्गण कूजन्ते पक्षिणस्तथा । तीर्थराजं परंदृष्ट्या दर्षव्यक्ताक्षरैस्तदा.॥ 

| दत्वारः'कृष्णहंसास्ते सङ्गमे पापनाशने । - 
स्वात्वा वै भावशुद्धास्ते प्राप्ता उज्ज्वलतां पुनः ॥४३॥ 

स्नात्वा पीत्वा जळ ते तु पुनवेहिविनिगंत्ताः । 

| तावत्यस्ताः स्त्रियःक्ष्णा सृतास्तत्स्नानमात्रतः ॥४४॥ 

ता विचेएन्त्यो हाहाकार चिकम्पिताः। यमलोकं गतास्तास्तु:तातद्वष्टा मयातदा 
बास्तु ततो हंसाःस्वस्थानं प्रतिजग्मिरै । एवं तात मयादृष्टं प्रत्यक्ष कथितं तव ॥ 
कृष्णपक्षा महाकाया धातराष्ट्रास्तु तास्त्रियः । र 
कथयस्व प्रसादेन के भचिष्यन्ति चे पितः ॥ ४७॥ 
निर्गेतान्मानखान्मध्याद्धातेराष्ट्रान्वदस्च मे । 

के भविष्यन्ति ते तात कथयत्वं तु साम्प्रतम्‌ ॥४८॥ 

कस्मात्सुरुष्णतां प्राप्ता हंसाःशुद्धाश्च ते पुनः । 

| _ सञ्जातास्ततक्षणात्तात कस्मान्मृतास्तु ताः ख्यः ॥४६॥ 

| यस्तात सञ्जातो दारुणो हृदि । छेत्तुमहेसि अद्यैव भवान्क्ञानविचक्षणः ॥ 
१ इपुषोभूत्या ्णतस्य सदेव मे । एवं सम्माष्य पितरं विरराम समुज्ज्वलः ॥ 
॥ पतः्रवक्तुमारेसे सशुकःकुञ्जलासिधः ॥५१॥ 

त तिशरीपाइपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेगरुतीर्थचर्णनेच्यवनचरिन्र 


| 


॥| एकोननंबंतितमो5ध्याय: ॥८६॥ 


१९ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


हम्रोऽध्यायः ] = व्याधोद्धारपूवेकङृष्णहंसकथाचर्णनम्‌ क | २६३ . 


नवतितमो5ध्याय 
दु्जलेतङृष्णहंसकथानकावसरेतीर्थचरित्रवणनस्‌ । 
विष्णुरुवाच । 
एवमाकर्ण्य तत्सवं समुज्ज्वळस्यभाषितम्‌ । कुञ्जछःस हि धर्मात्माप्रत्युवाच सुह 
कुञ्जलउचाच । 
सम्प्रबक्ष्याम्यहं तात श्रूयतां स्थिरमानसः । 
सर्वसन्देह विध्वंसं चरित्रं पापनाशनम्‌ ॥ २॥ 
इन्द्रलोके प्रवदते संवादो देवकौतुकः | सभायां तस्यदेचस्य इन्द्रस्यापि महाल 
देवंद्रष्ट॑ सहल्ाक्षं नारदस्त्वरितं ययो । समागतं सहस्लोक्ष सूर्यतेजःसमप्रभम्‌ ||. 
तं दृष्ट्या हषेमायातःससुत्थाय महामतिः । ददाचघं च पाद्यं च भक्त्या प्रण 
वद्धाञ्जछि पुटोभूत्वा प्रणाममकरोत्तदा । आसने कोमले पुण्ये विनिवेश्य द्विजोर 
पप्रच्छ प्रणतोभूत्वा श्रद्धयापस्यायुतः । कस्मच्चागमन तेद्य कारणं चद्‌ साम 
इत्युक्तो देवराजेन प्रत्युवाच महासुनिः । 
भवन्तं द्रष्टुमायातःपृथिव्यास्तु पुरन्दर ॥ ८॥ 
स्नात्वा पुण्यप्रदेरोणु तीर्थेषुच सुश्रद्धया | देवान्पितृन्समम्यच्ये दृष्ट्या 
पतत्ते सर्वमाख्यातं यत्त्वया पृच्छित पुरा ॥ १० ॥ 
देवेन्द्र उवाचं । | 
द्ृष्टानि'पुण्यतीर्थानि सुक्षेत्राणि त्वयामुने । कितीर्थ प्राप्यमुच्येत ब्रह्मघ्नो ब्रह्म 
खुरापो मुच्यते पापाद्वोष्नो हेमापहारकः। स्वामीद्रोहान्महाभाग नारीहन्ताकण 
नारद्‌ उवाच 
यानिकानि च तीर्थानि गयादीनि सुरेश्वर । तेषांनेव प्रजानामि विशेष न 
Se पपात उववििगनि,पल्ताति०समनिः च LGangotr 


या ] , क तीर्थचरित्रवर्णनम्‌ # २६८ ` : | 
तर्वाण्येच सुतीर्थानि -जानाम्यहं पुरन्दर ॥ १४॥; . क 

विदोषं वे नैवजानामि साम्प्रतम्‌ । प्रत्ययं क्रियतां देव तीर्थानां गतिदायकम्‌ | 
तद्वाक्यं नारद्स्य महात्मनः । समाहतानि चेन्द्रेण तीर्थानि भूगतानि च 

मन्ति च दिव्यानि समायातानि शासनात्‌ । 

वद्धाञ्जळी निदिव्यानि भूषितानि सुभूषणः॥ १७॥ 

दिव्याम्वराणि स्निग्धानि तेजोवन्ति च सुव्रत । 

स्त्रीएंसोथ्य स्वरूपाणि कृतानि च विशेषतः ॥ १८॥ ` 

प्रकाशानि दिव्यरूपधराणि च । मुक्ताफलस्य वर्णन प्रभासन्ते नरेश्वर ॥ 

वाञ्चवर्णानि सारुण्यानि च तत्रचै। कान्त्या शुक्लसुपीतानिप्रभावन्ति सभान्तरै 

(हि पद्मनिभान्येव मूर्तिमन्ति च तानि तु । सूयतेजःप्रकाशानि तडित्तेजःसमानि च 

| चान्यानि प्रभासन्ते सभान्तरे । सर्वाभरणशोमाढ्येःप्रशोभन्ते नरेश्वर ॥ 

माला मिस्तु खुचन्दनेः । दिव्यचन्द्नदिग्धानि सुरभीणि शुरूणि चः॥ 

कमण्डछुकराण्येच आयातानि सभान्तरे। 

गङ्गा च नमंदापुण्या चन्द्रभागा सरस्वती ॥ २४॥ 

` देविका विस्विका कुब्जा कुञ्जलामञ्जुला श्वता । 

रम्भा भा्ुमतीपुण्या पाराचेव सुघघरा ॥ २५॥ । 

सिन्धुसौवीरा कावेरी कपिलातथा। कुमुदा वेदनदीपुण्यासुपुण्याचमहेश्वरी | 

थती तथाख्याता लोपाचान्या सुकौ शिकी। सुहंसी हंसपादा च हंसवेगामनोरथा | 

पि स्वारुणावेगा भद्रवेणासुपश्चिनी । वाहिनीसरघाचान्यापुण्याचान्यापुलिन्दिका | 

हेमामनोरथा दिव्या चन्द्रिका वेद्सङक्रमा । | 

ज्चालाइताशनी स्वाहा कालाचैव कपिञ्जला ॥ २६॥ . . 

ऱ्य गम्भीरा हिमवाहिनी । देवदीची चीरवाहालक्षहोमा अघापहा | 

“मगभा सुभद्राचसुपु्रिका | एतानद्यो महापुण्या मूतिमत्यो नरेश्वर ॥३१॥ ` 

जिताः । प्रयागःपुष्करश्चैच सर्वेतीर्थभनोरमः ॥ 


CC-0. Mumukshu Es Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


रति 


२६६ क अ पाद्यपुराणम्‌ # - [२ भूमि 
घाराणसी महापुण्या ब्रह्मह॒त्याव्यपी हिनी । । | 
द्वारावती प्रभासश्च अघन्ती नेमिषस्तथा ॥ ३३ ॥ १ 

चण्डकध्य महारत्नो महेश्वर कलेश्वरी । कळिञ्जरो त्रहाक्षेत्रे माथुरो मानवाहरु | 
मायाकान्ती तथान्यानि दिव्यानि विविधानि च। 
अष्टषष्टिःसुतीर्थानि नदीनां शतकोटयः ॥ ३५ ॥ 
गोदावरीमुखाःसर्चाःसमायातास्तदाज्ञया । 
द्वीपानां तु समस्तानि सुतीर्थानि महान्ति च ॥ ३६ ॥ 
मूतिलिङ्गघराण्येच सहस्राक्षं सुरेश्वरम्‌ | समाजग्सु समस्तानि तदादेशकराणि च| 
प्रणेमुदेचदेवेशं नतशीर्षाणि सर्वेशः । तेः प्रोक्तं तु महातीभ्ेदेचराजस्तु साद : 
कस्मात्त्वया समाहूता देचदेच घदस्व नः । 
त्र हि नःकारणंसर्वं नमस्तुभ्यं चराधिपः ॥ ३६ ॥ 
एवमाकर्ण्यतद्वाक्यं देवराजोऽभ्यभाषत । कःसमर्थो मद्दातीथों त्रह्महत्यां व्यपोह 
गोवधाख्यं महापापं स्त्रीवधाख्यमनुत्तमम्‌ । 
स्वामीद्रोहाच्च सम्भूतं सुरापानाचचदारुणम्‌ ॥ ४१ ॥ 
हेमस्तेयात्तथाजातं गुरुनिन्दा समुद्भवम्‌ । भ्र णहत्यां महाघोर्रा कःसमर्थो 
राजद्रोददन्महापापं बहुपीडाप्रदायकम्‌ । मित्रद्रोहात्तथायान्यदन्य द्विश्वासघातका| 
देवभेदं तथाचान्यं लिड्डमेद्मतःपरम्‌ । ङ 
वृत्तिच्छेदं च चिप्राणां गोप्रचार प्रणाशनम्‌ ॥ ४४ ॥ 
` आगारद्हनं चान्यद्‌ ग्रहदीपनक तथा । पोडशैते महापापा अगम्यागमनं तथा| ४| 
स्वामीत्यागात्समुदुभूतं रंणस्थानात्पलायनात्‌ः। ७ 
एतानि नाशयेत्को वे समर्थेस्तीथेउत्तमः ॥ ४६ ॥ 
समर्थो भवतांमध्ये प्रायश्चित्तं विनाधुचम्‌। पश्यतां देवतानां च स्न च 
न्रुवन्तु सर्वे सञ्चिन्त्य विचार्यैवं सुनिश्चितम्‌ । एवमुक्ते शुभेचाक्ये देव 


संमन्त्य प्रोचःशक्र सभागतम्‌ ॥ ४८ ॥ 
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] # शाक्रस्यचाराणस्या दितीर्थेषुस्नानघर्णनम्‌ # २६७ 
तीथान्यचः। ` 

| यामो देवराज नमोऽस्तुते । सन्ति वै सबंतीर्था नि सर्वपापहराणि च ॥ 

दिकान्यांश्च त्वयाप्रोक्तान्सुरैश्वर । महाघोरान्खुदीपांग्य नाशितुनैवशक्नुमः ॥ | 
व अधथेतीर्थमचुत्तमम्‌। वाराणसी महाभाग समर्थापापनाशिनी शा | 

थे चत्वारोऽमितविक्रमाः । उपपातकनाशार्थ चत्वारोऽमितविक्रमाः.॥ 

सुष्टाधात्रा च देवेन्द्र पुष्कराचा महावलाः। 5 

एवमाकण्यें तद्वाक्यं तीर्थानां सुरराट्‌ ततः ॥ ५३ ॥ 

हर्षण महदताविष्टस्तेषांस्तोत्रं चकार स: ॥ ५४ ॥ 

| इतिश्रीपाझ पुराणे ह्विती येसू मिखण्डेवेनो पाल्यानेगुरुतीर्थमाहात्म्येच्यचनचरित्रे 

नवतितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥ 


एकनवतितमोऽध्यायः 


| ब्ृत्याऽगम्यागम्यदोषदूषितस्यशक्रस्यवाराणस्या दितोथेंुस्नानम । 

१. कुञ्जल उवाच । 

हिपामिभूतस्तु सहस्त्राक्षो यदापुरा । गौतमस्य प्रियासङ्गादगदास्यागमनं महत्‌ ॥ 
सञ्ञातं पातकं तस्य त्यक्तोदेवैश्च ब्राह्मणैः । 

| सहञ्नाक्षस्तपस्तेपे निरालम्बो निराश्रयः ॥ २॥ 

मत देवताःसर्वा ऋषयो यक्षकिन्नराः । देवराजस्य पूजार्थमभिषेकं प्रचक्रिरे ॥ 

'ख्क नीत्वा देवराजं सुतोत्तम । चक्रेस्नानं महाभाग कुम्मैरुदकपूरितेः॥ ४॥ 

|: मय नीतो चाराणास्यां स्घयं ततः । प्रयागे तु सहस्राक्ष अधेतीर्थ ततःपुनः 

उष्करेण महात्माऽसौ स्नापितःस्वयमेच हि । 


१रह्मादिसिः एक्स मनित्रन्देडिजञोत्तम जो 
CC-0. MumukSh awa anasi Collection. Digitized by eGangotri 


१९८ . # पाद्यपुराणम्‌ ॐ [२ 

नागै शैनागिसर्गन्धर्वेस्तु सकिन्नरेः । स्नापितो देवराजस्तु वेदमन्त्रैः 
सुनिभिःसरवपापध्ने तस्मिन्काले द्विजोत्तम । 
शुद्धे तस्मिन्महाभागे सहस्राङ्षे महात्मनि ॥ ८ ॥ क... 

ब्रह्महत्यागता तस्य अगस्यागमन तथा । ब्रहमहत्या ततो नष्टा अगर चाप 
पापेन तेन घोरैण साद्धमिन्द्रस्य भूतले । सुप्रसन्नःसहस्नाक्षस्तीथभ्यो हि वरदा] 
भचन्तस्तीर्थराजानो भविष्यथ न संशयः । मत्प्रसादत्पचित्राश्व यस्मादहं चिमोक्षि 
सुधोरात्किल्विषादत्र युष्माभिचिमळेरहम्‌ । 
एवं तेभ्यो वरंदत्त्वा मालवाय वरं ददौ ॥ १२॥ 

_ यस्मात्त्वयामळ'मे$्य विधृतं श्रमदायकम्‌। तस्मात्त्वमन्नपानेश्व धनधान्येरलङ्ुतश 
भविष्यसि न सन्देहो मत्प्रसादन्न संशयः । | 
खुदुष्काळेविना त्वं तु भविष्यसि छुपुण्यचान्‌ ॥ १४ ॥ 

एचंतस्मै चरंदत्त्वा देवराजःपुरन्द्रः। क्षेत्राणि सर्वतीर्थानि देशोमाळवकस्त्ा 

आखण्डलेन साध ते स्वस्थानं प्रतिजग्मिरे । तदाप्रभृति सय पद 
वाराणसी चाघेतीथं प्राप्ता राजत्वमुत्तमम्‌ ॥ १७॥ १ 

अस्ति पञ्चालदेशेघु विदुरोनाम क्षत्रिय: । तेन मोहप्रसङ्गेन त्राह्मणो निहतःपुरा॥ ! 
शिखास्रत्रविहानस्तु तिलकेन विवर्जितः । मिक्षार्थमटतेसो5पि व्रह्मम्नो5हं समाग 
ब्रहाञ्चाय खुरोपाय भिक्षाचान्नं प्रदीयताम्‌ । ग्रहेष्वेचं समस्तेषु भ्रमते याचते पुं 
एवं सर्वेषु तीर्थेछु अरित्वेच समागतः | 
ब्रह्महत्या न तस्यापि प्रयाति द्विजसत्तम ॥ २१॥ 
बृक्षच्छायां समाश्रित्य दह्यमानेन चेतसा । संस्थितोचिदुरःपापो दुःख 
चन्द्रशर्मा ततोचिप्रो महामोहेन पीडितः । न्यवसन्मागघेदेशे शुरुघातकरश्च सः॥१ 
स्वजनेवंन्धुवरेश्च परित्यक्तोदुरात्मचान्‌। स हि तत्र समायातोयत्रासौ चि | 
शिखा सूत्रबिहीनस्तु पिप्रलिङ्गेविवर्जितः । 


००वदासो, परच्छितस्तेन u Bhawan {विदुरेण 1 एप सतमना॥220%॥0001001 


ल «ध्यायः ] # चतुणोमहापातकीनांकाळञ्जरगिरिप्रतिगमनम्‌ ४ २६६ 
अवान्की हि समायातो दुभेगो दग्धमानसः । | 
विप्रलिङ्गविहीनस्त कस्मात्त्वं भ्रमसे महीम्‌ ॥२६॥ | 

मात्रस्तु चन्द्रशर्मा द्विजाधमः । आचष्टे सर्वमेवापि यथापूर्वक्कत॑ स्वकम्‌ ॥ 
महाधोर॑ चखता च गरोग हे । महामोहगतेनापि क्रोघेनाकुलितिन च] २८ ॥ | 
गुरोघांतःछृतःपूचं तेनदग्धो5स्मि साम्प्रतम्‌ । 
चन्द्रशर्मा च चत्तान्तसुक्‍त्वा सवेमपृच्छत ॥ २६॥ 
भवान्को हि खुदुःखात्मा वृक्षच्छायाँ समाश्रितः । 
बिडुरेण समासेन आत्मपापं निवेद्तिम्‌ ॥ ३० ॥ 


द्वाम्यामपि झुसस्पृषटःकोभवान्दुः खिताक्कतिः । 
कस्माद्‌ भ्रमसि चै एथ्वीं घदभावं त्वमात्मनः ॥ ३२॥ 
ततःसवेमातमचेष्टितमेव च । कथयामास ताभ्यां वै ह्मगम्यागमनं इतम्‌ ॥ | 
| अन्येःस्वजनवान्धवैः । तेन पापेन सँलिसो भ्रमाम्येचं महीमिमाम्‌ 
ढोनाम वेश्योऽथ सुरापायी समागतः । सगोष्नश्च विशेषेण तैश्च पृष्टो यथापुरा 
तेन आवेदितं सवं पातक यत्पुराळृतम्‌ । 
तेराकणितमन्येश्च सवं तस्य प्रभाषितम्‌ ॥ ३६॥ ` 
बत्वार:पापिष्टा पकस्थानं समागताः । कःकस्यापि न सम्पर्क सोजनाच्छाद्नेनच ` 
च महाभाग वार्ता चक्रःपरस्परम्‌ । न विशन्त्यासनेचेक्के न स्वपत्न्येक संस्तरे 
३खसमाचिष्टा नानातीर्थेषु वे गताः । तेषां तु पापकाघोरा न नश्यन्ति च नन्दन . 
सामथ्यनास्ति तीर्थानां महापातकनाशने । 
विदुराद्यास्ततस्ते तु गताःकाळञ्चरं गिरिम्‌ ॥ ४० ॥ 
कु भीपाशपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेगुरुतीर्थच्यवनचरित्र 
एकनवतितमोऽध्यायः । 


` mm mm रा 
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द्विनवतितमी 5ध्यायः 
कस्यचिस्सिद्धस्योपदेशेनेतेपाचतुर्णा वाराणस्यादितीरथेपुस्नानान्युक्ति, | 
कुञ्जल उचाच | 
` कालञ्जर समासाद्य निवसन्ति सुदुःखिताः । महापापस्ठु सन्दग्धा हाहाभूता चिचेत 
तत्र कञ्चित्समायातःसिद्धञ्चैव महायशाः । तेन पृष्टाःखुड़ःखाता भवन्तःकेन दुःख 
स तैःप्रोक्तो महाप्राशःसर्वेज्ञानविशारदः । 
तेषां ज्ञात्वा महापापं कृपांचक्रे सुपुण्यमाक्‌ ॥ ३ ॥ 
सिद्ध उचाच। 
अमासोम समायोगे प्रयागःपुष्करश्च यः । अर्घती्थं तृतीयं तु घाराणसी चतुथिक् 
गच्छन्तु तत्र बै यूयं चत्वार:पातकाचिलाः । गङ्गाम्मसियदास्नातास्तदासुक्ता भविष 
पातकेभ्यो न सन्देहो निमेलत्वं गमिष्यथ । 
आदिष्टास्तेन चे सर्व प्रणेसुस्तं प्रयत्नतः ॥ ६ ॥ 
कालञ्जरात्ततो जग्मुःसत्वरं पापपी डिताः । 
बाराणसीं समासाद्य स्नात्वाचेच द्विजोत्तमाः ॥ ७ ॥ 
प्रयागं पुष्करञ्चेच अर्घतीर्थं तु सत्तम। अमासोमं सुसम्प्राप्य जग्सुस्ते च महापुरी 
विदुस्श्न्द्रशर्मा च वेद्शर्मा तृतीयकः । चैश्यो चञ्जुळकश्चैव सुरापःपापचेतनः |! 
तस्मिन्पर्वणि सम्प्राप्ते साता गङ्गोम्भसि द्विज । 
स्नानमात्रेण मुक्तास्तु गोचधाचेश्च किल्विषेः ॥ १० ॥ 
ब्रह्महत्या गुरुहत्याखुरापानादि पातकेः । लिपानितानि तीर्थानि परिञ्रमन्ति म 
पुष्करश्राघतीर्थस्तु प्रयागःपापनाशनः । घाराणसी चतुर्थो तुरलिप्ता पापैद्विजोर्ण 
कृष्णत्वं पेदिरे सवे हंखरूपेण बभ्रमुः । सर्वेष्वेच सुतीर्थेछु स्नानं चक्रुछ्िजोत्त | 


कृष्णत्वं तेषां पापेन 
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|: ऽः ] # रेवाकुब्जासंगममाहात्स्यवर्णनम्‌ % 
| षु महाराज स्नाताःसर्वेषु वै पुनः ॥ १४ ॥ 
| व प्रयान्त्येत सर्वेतीर्था द्विजोत्तम । हंसरुपेण वै यान्ति तैःसाद्ध सुदुःखितोः 
तका य परितस्तथा । अष्टषष्टि सुतीर्थानि हंसरूपेण वभ्रमु: ॥ 
द छुमदाराज महातीथ:सम पुनः । मानसं चागतास्ते च पातका कुलमानसाः ॥ 
| तत्रस्वाता महाराज न जहाति चं पातक: | 

ढञ्जयाविष्ट मनखा मानसो हंसरूपधृक्‌ ॥ १८॥ 

सज्ञात:छृष्णकायस्तु यं त्वं वै दृष्टवान्पुरा । 

रेचातीरं ततोजग्सुरुत्तरं पापनाशनम्‌ ॥ १६ ॥ 
सङ्गमे ते तु खुरसिद्ध नियेविते । स्नानमात्रेण सुक्तास्ते पापेभ्यो द्विजसत्तम 
बिहाय वर्णमेचैतं शुद्धत्वं प्रतिजग्मिरै । 
यं यं तीथं प्रयान्ते ते ह॑साःस्नानं प्रचक्रमुः ॥ २१ ॥ 
नुलाः्तरियो दृष्ट्या पातकंनेच गच्छति । तोयानलेन कुब्जायाःपातकं घरमे च 
हिषशेषंसञ्चातं तदाग्दतास्तु ताः स्त्रियः । ब्रहमहत्या गुरोईत्या सुरापानागमागमाः 
भस्मीभूतास्तु सञ्जाता रैचायाःकुब्जया हता: । 
|  तोस्तुहता महाभाग या स्तास्तु सरित्तरे ॥ २४॥ 
[तीर्थानां हंसरूपेण तानि तु । साध हंसःसमायांतो विद्धितं त्वत्तु मानसम्‌ 
गी रिष्णहंसाञ्च तेषां नामानि मे श्टणु । प्रयागःपुष्करञ्चैव अघेतीर्थमनुत्तमम्‌ ॥ 
वाराणसी चतुर्थी च चत्वारःपापनाशानाः । 
ब्हहत्याभिभूतानि चत्वारि परिवश्नमुः ॥ २७॥ 
| तौनि दुःखेन तीर्थेषु च महामते । न गतं पातकंधोरं तेषां तु भ्रमतां सुतः ॥ 
| 'सडरमेशुद्धा विसुक्ताःकिल्विषात्किळ । तीर्थानामेव सर्चेषांपुण्यानामिहसरंमतः 
ता "नापयागःसज्ञांत इन्द्रस्य पुरतःकिल । 
द ताबद्रजेन्तु तीर्थानि याघद्रेघा न दृश्यते॥ ३०॥ . | 
| पानां विनाशाय प्रतिष्ठिता । कपिलासङ्गभे पुण्ये रेचायाःसङ्गमे तथा ॥ 


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३०९. 


५ 


४ ३०२ हि पाह्मपुराणम्‌ * * [ २ भूमिस 


, मेघनाद समायोगे तथाचैवोरुसङ्गमे । महापुर्या साया रेवासवेजरडुलेमा| 
: साचोङ्कारै भगुक्षेत्रे नर्मेदाकुब्जसङ्घमे । दुष्प्राप्या मानवेरेवा माहिष्मत्यां सुरोत्त, 

विटङ्कासङ्गमै पुण्या श्रीकण्ठे मङ्गलेश्वरै । 

सर्वेत्रढुर्छेमा रैवा सुरपुण्य समाकुछा ॥ ३४ ॥ पट 
तीर्थमाता महादेवी अघराशि विनाशिनी 1 उभयोःकूखयोमध्ये यत्न तत्र सुखीनर| 
अश्वमेध फर्लमुङ्ते स्नानेनैकेन मानवः । पत्त सर्वमाख्यातं यत्त्वया परिपूच्छित्‌। 

सर्वपापापहं पुण्यं गतिदंचापि श्टण्वताम्‌ | 

एचमुक्त्वा महाप्राज्ञ तृतीयं पुत्रमत्रबीत्‌ ॥ ३७ ॥ 

इतिश्री पाझपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डे चेनोपाख्यानेशु्तीथेच्यचनचरित्रे 
द्विनचतितमोऽऽ्यायः ॥ ६२ ॥ 


————— 


त्रिनवतितमो ऽध्यायः 
स 
कुञ्जल उवाच । 
कि चिज्व त्वया दृषण्मपूव भ्रमतोमहीम्‌ । आश्चयण समायुक्तं तन्मे कथय सुद्र 
इतःप्रयासिकं देशमाहाराथं तु सोचमः । यदुद्दष्ट॑ त्वयाचित्रं समाख्याहि सुतोत्त।| 
चिज्चल उघाच । 
अस्ति मेरुगिरेःपृष्ठे आनन्दंनाम काननम्‌ । दिव्यवृक्षै'समाकीणं फलपुष्पमयेःसव| 
देववृन्देःसमाकीर्ण' मुनिसिद्ध्समन्वितम्‌ । अप्खरोभिःसुरूपा भिर्गन्धर्ैः किञ्नः 
यापीकृपतडागैश्च नदीप्र्वणैस्तथा । आनन्दकाननंपुण्यं दिव्यभावैःग्रमासते॥ १ 
विमानेःकोरिलङ्ख्यैश्च हंसकुन्देन्दुसचचिमैः । . 
गीतकोलाहलेरम्येमेघध्वनि निनादितम्‌ ॥ ६ ॥ 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


यायः ] ४ निजनिजशवमांसभक्षणवर्णनम्‌ + fee 


| निनादेन सर्वत्र मधुरायते । चन्दनेश्चूतबृक्षेश् चम्पकेःपुष्पितेतरःतम्‌ ॥ ७ ॥ 
॥ )प्रमत्यिवमानन्दवनमुत्तमम्‌ । नानापक्षिनिनादेन वहुकोळाइळान्बितम्‌॥ ८॥ : | 
| | हुए मयातत्र खुशोभनम्‌। चिमळ' च सरस्तात शोभते : सागरोपमम्‌ ॥ - 
| पर पुष्यतोयेन पद्मसौगन्थिकेःशुभेः । जलजैस्तु समाकीर्ण' हसकारण्डवान्वितम्‌ 
| . तरस्तस्य सुमध्ये काननस्य हि। देवगन्धर्व सम्वाधेर्मुनिवृन्दैरलङ्क्नतम्‌ 
गेणगन्धर्वश्वा रणैश्न खुशोभते । तत्राश्चयं मयादुएं चक्तु तात न शक्यते॥ १२ ॥ 
नापि दिव्येन कलरौरुपशोभते । छत्रदण्डपताकाभि राजमानेन सत्तम ॥ १३॥ 
सर्वभोगाविलेनापि गीयमानेऽथ किन्नरैः । 
गन्धरवैरण्सरो भिश्च शोभमानोऽथ खुबत॥ १४॥ 
तो महासिद्ध ऋषिभिरुतर्वचेदिभिः । रूपेणाप्रतिमोलोके न दृषस्ताद्वशःक्चित्‌ 
परणशोमाङ्गो दिव्यमाळा विशो सितः । महारत्न छृतामाला यस्योरसि विराजते 
र स्थिताचेका नारीट्टटा वरानना । हेमहारैश्च सुक्तानां चल्यैःकङ्कणौर्यता ॥ 
ड गन्धश्च चन्दनैश्वारुछेपनैः। 3 
| स्तूयमानो गीयमानःपुरुषस्तत्र चागतः ॥ १८ ॥ 
बरोह पीनश्रोणि पयोधरा । सर्वाभरणशोभाङ्गी ताद्वशी रूपसम्पदा ॥ 
तौ मयाद्रष्टी विमानेनापि चागतौ । रूपलाचण्यमाधुयों सवंशोभासमाचिलौ 
' समुतीणों विमानात्तावोगतौ सरसोऽन्तिके। 
"| स्नातौतात महात्मानौ ख्रीपु'सौ कमलेक्षणौ ॥ २१ ॥ 
| 'महाशल्नौ दस्पती तु परस्परम्‌ । तादूशौ च शावौ तत्र पतितौ .सरसस्तरे ॥ 
"ऐता तौ तु ख्रीपुसौ कमलेक्षणौ । रूपेणापि महाभाग ताहूशावेच तौ शचौ 
यथा पु सस्तथा शवः । यथारूपं हि तस्यापि ताद्रशस्तत्र इश्यते ॥ 
पथारूप तु भार्यायास्तथा शवो द्वितीयकः । 
र व तु यन्मांसं शस्त्रेणोत्कत्य सा ततः ॥ २५॥ 
[थि मांसानि रक्ताप्लुतानि तानि तु । पुरुषो भक्षते तडच्छबमांसं समातुर: ॥ 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


_ ३०४ # पाझपुराणम्‌ ॐ [:२ 
शुभया पीड्यमानौतौ भक्षेतेपिशितं तयोः! याचतर्ति समायातौ ताचन्मांस छ 
सरस्यथ जलपीत्वा सञ्जातौ 'छुजितौ पितः । कियत्कालंस्थितौतजचिमानेनगतोए 
अन्धैद्वे तु स्त्रियौ तात मयादृष्टे तत्र त । 
रूपसौभाग्यसम्पन्ने ते स्त्रियौ चारुलक्षणे ॥ २६ ॥ नै ] | 
- ताम्यां प्रसुक्षितं मांसं यदा तात महावने | प्रहसे ते तदा ते 5 हास्यरद्ाद्कपुर | 
भक्षेतेच स्वमांसानि तावेतौ दरिनित्यशः । छत्वास्तानादिकं मांस पश्यतो मम ता 
अन्ये स्त्रियौ महामाग रौद्राकार समन्विते । | 
` दंष्राकराळवद्ने तत्रैचाति विभीषणे ॥ ३२॥ ह | 
ऊचतुस्तौ तदाते तु देहिदेहीति बै पुनः । एबंहुएं मया तात चसता चनन. 
नित्यमुत्कीर्यभक्ष्येते तौद्दो तु मांसमेचच । जायेतेच खुसम्पूणी कायो च । 
नित्यसुत्तीयंतावेबं ते चाप्यन्ये च चै पितः । 
कुर्वन्ति सद्दशी चेष्टां पूर्वोक्तां मम पश्यतः ॥ ३५ ॥ हः 
एतदाश्चयं सञ्जातं दृष्टं तात मया तदा। भवता पृच्छितं तात द्वृष्माश्चयमेव च॥ ४ 
मयाख्यातं तवाग्रे वै सवे सन्देहकारणम्‌ । कथयस्व प्रसादाच्च प्रीयमाणेन चेला 
विमानेनागतो योऽसौ स्त्रियासाद्ध॑ द्विजोत्तम ।. दिव्यरूपधरोयस्तु सकस्तु कमलेश 
का च नारी महाभाग महामासंप्रभक्षति । स कश्चाप्यागतस्तात साचेवाम्येत्य म 
प्रहसे ते तदा ते दे स्त्रियौ तात घदस्वच नः । 
ऊचतुस्तौ तथाचान्ये देहिदेहीति चा पुनः ॥ ४० ॥ ु 
ते द्वे त्वं मे समाचक्ष्व महाभीषणके स्त्रियौ । एतन्मे संशयं तात च्छेत्तुमहेसि ३ । 
एवमुक्त्वा महाराज विरराम स चाण्डजः । एवं पृष्टस्तृतीयेन विज्चलेनात्मने। 
प्रोवाच सर्व वृत्तान्तं च्यवनस्यापि £रण्चत: ॥४४॥ 
इतिथ्रीपाद्मपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेगुरुतीर्थच्यचनचरित्रे | 
त्रिनवतितमोऽध्यायः । 


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तत्सचंकारणं सुत । यस्मातौ ताइशौ जातौ स्वमांस परिभक्षकौ | 
ट ५ कारणं कर्म शुभाशुभं न संशयः । पुण्येन कर्मणा पुत्र नरःसरौख्यं प्रभुजति॥ ` 
त भुञ्जते चात्र युका कणा । सूक्षमचत्मंचिचायैचं शास्त्रज्ञानेन चक्चुषा ॥ | 
प्रदृष्ट्वेच खुचिचाय पुनःपुनः । समारभेन्नरःकर्म मनसा निपुणेन च ॥ ४ 
:शिल्पी रसमावत्तेयेद्यया । अन्नेश्चतेजसा पुत्र ज्वालामिश्ध समन्ततः ॥ 
भवेद्धातुवेहिना तापितःशनै; । यादृशं वत्स भक्ष्यं तु रसपक्तक निषेच्यते॥ ` 
| जायते घत्स रूपंचेच न संशयः । यादृशं क्रियते कमे तादूशं परिभुज्यते ॥ ७॥ . | 
(ए प्रधानं यद्दर्घारूपेण वत्तते । कषेत्रेषु याहुशं बीजं घपते कृषिकारकः॥ ८ ॥ 
| सुते तात फलमेच न संशयः । यादशं क्रियते कर्म ताद्रशं परिमुज्यते ॥ ६॥ 
॥% कर्मास्य सर्वे कमेवशावयम्‌ । कर्मदायादका लोके कमेसम्बन्धिवान्धवा: 
ण चोदयन्तीह पुरुषं सुखदुःखयोः । सुषर्णरजतंचापिः यथारूपं निषिच्यते ॥ 
गिपिच्यते जन्तु पूर्वेकमेवशाचुगः । पद्चैतानिह इश्यन्ते गर्भस्थस्येव देहिनः ॥ . ' 
ह वित्तं च विद्यानिधनमेच च । यथा सृत्पिण्डतःकर्तता कुरुते यद्यदिच्छति | 
"तं चैष कर्तार प्रतिपद्यते । देघत्वमथ माचुष्यं पशुत्वं पक्षितां तथा ॥१४॥ 
अ घा यातिजन्तुःस्वमर्ममिः। स एव तु तथासुङ््तेनित्यंचि हितमात्मनः 
100 रत डुःखमात्मनाचिहितं सुखम्‌ । गर्भशय्यासुपादाय ञ्जते पूर्वदेहिकम्‌॥ 
"तकम न. कश्चित्पुरुषोत्तमः । बलेन प्रश्नयावापि समर्थःकर्तु मन्यथा ॥ १७॥ 
सञ्जन्ति दुःखानि. च सुखानि च। हेतुतःकारणेचापि सो.हङ्कारेण बाध्यते. 
षहसेषु घत्सो विन्द्ति मातरम्‌ । तद्वच्छ्माशुकंकमे कर्तारमनुगच्छति ॥ 


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201 


ऋ पाद्यपुराणम्‌ ॐ [२ भूमिक क 
' उपभोगादृते यस्य नाश एव न विद्यते । प्राक्तन वन्घनंकमे कोऽन्यथा कमह 
सुशीघमदुधाचन्तं विधानमदुघावति । शोभते खन्निपातेन यथाकम उच्चय 
उपतिष्ठति तिष्ठन्तं गच्छन्तमचुगच्छति । करोति कुतः क च्छायेचानुविधीये| 
. यथा छायातपौ नित्यं खुसम्बद्धो परस्परम्‌।. उपसर्गा हि विषया उपसर्गा जराद्य: र 
पीडयन्ति नरं पश्नात्पीडितं पूर्वकर्मणा । येन यत्रोपभोक्तव्यं दुःख चा खुलेगा, 
स तत्र वद्धारज्ज्वेच वळादैवेन नीयते । देवं प्राहनुश्व भूतानां खुखदुःखोपपादना ७ 

अन्यथा कर्मतच्चिन्त्यं जाग्रतःस्वपतोऽपिचा । 

अन्यथा हुद्यतेदेवं वध्यते च जिघांसति ॥ २६॥ 
शस्त्राग्नि विषदुर्गस्यो रक्षितव्यं सुरक्षतिः। यथापृथिव्यांचीजानि वृक्षणुष्मतृणार 
तथेवात्मनि कर्माणि तिष्ठन्ति प्रभवंन्ति च । तैलक्षयाद्यथादीपो निर्वाणमधिगच| 
कर्मक्षयात्तथा जन्तोःशरीरं नाशम्हच्छति। कमेक्षयात्तथा. खृत्युस्तच््वचिद्विस्दाइत कि 
विविधा:प्राणिनां रोगःस्तास्तेषाँ च हेतवः । 
तस्मात्तत्त्व प्रधानं तु कर्मेएव हि प्राणिनाम्‌ ॥ ३० ॥ | 
यत्पुरा क्रियते कर्म तदिद प्रमुज्यते । यत्त्वया दृष्टमेचापि एच्छितं तात सागा | 
तस्यार्थं तु मयाप्रोक्त भुज्ञाते तोहि साम्प्रतम्‌ । आनन्देकानने दुष्टं तयोकमे सुदा्ीर 
तयोच्चेष्टां प्रवक्ष्यामि श्टणु घत्स प्रभाषतः । कमेभूमिरियं तात अन्याभोगाथं न 
सर्गादीनां महाप्राज्ञ तासु गत्वा सुभुञ्जति। चौलदेशे महाप्राज्ः खुबाहुनाम भूरि 
रूपवान्युणवान्धीरःपथिव्यांनास्ति ताहुशः | र 
विष्णुभक्तो महाप्राज्ञो वेष्णवानां च सुप्रियः ॥ ३५ ॥ 
कर्मणा त्रिविधेनापि प्रध्यायन्मघुसूदनम्‌ । अश्वमेघादिकान्यज्ञान्यजेत सकल 
पुरोधास्तस्य चैवास्ति जैमिनिर्नामब्राह्मण: । स चाहूयसुबाहु तमिदंचचनमत्रगी 
राजन्देहि सुदानानि यैः सुख तु प्रभुज्यते । दानैस्तु तस्तेलोकान्दुर्गान्परेत्यगतो | 
दानेन सुखमाप्नोति यशःप्राप्नोति शाश्वतम्‌ । * | 
न नाकि क ३,1... म गी 


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| ३०६ 


हबतित्मोःथ्याय ] ४ जैमिनिनादानधर्मकथनम्‌ # ६: 
\ (ातिस्थिताचात् तावत्कर्ता दिवे बसेत्‌ । तद्वनं दुष्कर पोह ती 2 
|)  तस्मात्सबेप्रयत्नेन दातव्यं मानवेःसदा ॥४१॥ `: | wo 

| 1 सुवाहुरुचाच । न 


राव ठपसौवापि द्योमेध्येजुडुष्करम्‌ । कि वा महत्फळं परेत्य तन्मे त्र हि | 
| जैमिनिरुवाच | ड | 


|दलहष्करतरं पृथिव्यामस्ति किचन । राजन्यत्यक्षमेबेक इश्यते लोकसाक्षिकम्‌ ॥ | 
(ज्य प्रियान्प्राणान्धनार्थ लोभमो हिताः । प्रविशन्ति नरालोके _ समुद्रमटवीं तथा | 
ये प्रपद्यन्ते श्वव्वत्तिरिति यास्थिता। हिंसाप्रायां बहुक्लेशं कृषिचैच तथा पुरा 
तस्य दुःखाजितस्यापि प्राणेभ्योपि गरीयसः । 
| अर्थस्य पुरुषव्यात्र परित्यागःसुदुष्करः ॥ ४६ ॥ 
हितो महाराज तस्यन्यायाजितस्य च । द्वया विधिवत्पात्रे दत्तस्यान्तो न बिद्यते 
धुता. देवी पाचनी विश्वतारिणी । सावित्री प्रसचित्री च संसाराणवतारिणी । 


कल 


भ्रद्यया साध्यते धर्मो महद्विनार्थराशिमीः । 

` निष्किञ्चनास्तु सुनयःश्रद्धा घर्मा दिवंगताः ॥ ४६॥ 

रि दातान्यनेकानि नानाभेदेतटपोत्तम । अन्नदानात्परंनास्ति प्राणिनां गतिदायकम्‌ 

मिन प्रदातव्यं पयसा च समन्वितम्‌ । मधुरेणादिपुण्येन घचसा च समन्वितम्‌ | 

पानु परंदानमिहळोके परत्र च । तारणाय हितायेच सुखसम्पत्तिहेतवे ॥ ५२॥ | 
बत्पात्रे निमेलेनापि चेतसा | अन्नैकस्य प्रदानस्य फळं भुङ्के निरन्तरम्‌ | 

ग्रासादग्रासं प्रदातव्यं सुष्टिप्रस्थं न संशयः । | 

, भक्षयं जायते तस्य दानस्यापि महाफलम्‌॥ ५४॥ ः | 

चेच प्रस्थं च घा सुष्टि नरस्य हि न सम्मवेत्‌। 

। अचास्तिक्र्य प्रभावेण प्रवणि प्राप्य मानव: ॥ ५५॥ 

| भक्ष्याचेवं प्रभोजयेत्‌ | एकस्यापि प्रधानस्य अन्नस्यापि प्रजेश्चर 

| अप्य नित्यं चान्नं रुजति । परजन्मनि यदत्तं भक्त्यापात्रे सहन्नरे: 


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रणतं न सल्देहमसतादि समुङ्घचम्‌। ्राणास्तेन त्ता हि येनचान्नं समर्पित! 
अन्नदानं महाराज देहि त्वं तु प्रयल्लतः । एचमाकर्ण्य वै राजा जेमिनेस्तु महात्मर॥! 
` पुनःपप्रच्छ तं चिप्रं जैमिनि ज्ञानपण्डितम्‌ ॥ ६१ ॥ 
नेगुरुतीर्थमहात्म्येच्यवनचरित्रे 
„ = ज्चतुर्नचतितमोऽध्यायः । 


HF आरमममममन. 


पञ्चनवतितमोऽध्यायः 
जेमिनिनास्वर्गगुणवर्णनपुरःसरंदानस्यातिश्रेष्त्यवणनम्‌ । 
- खुबाहुरुचाच । 
स्वर्गस्य मे गणान्त्र हि साम्प्रतं द्विजसत्तम । 
एतत्सव द्विजश्रेष्ठ करिष्यामि स्वभाषिकम्‌ ॥ १ ॥ 
जेमिनिरुघाच । 
नन्द्नोदीनि रम्याणि दिव्यानि विविधानि च। 
तन्नोद्यानानि पुण्यानि सर्वेकामयुतानि च ॥ २॥ . 
सर्वकोमफळैव क्षेःशोभनानि समन्ततः । विमानानि सुदिव्यानि सेवितान्यप्सराग 
स्वेत्रैच विचित्राणि कामगानिघशानि च । 
तरुणादित्य घर्णानि मुक्ताजालान्तराणि च ॥ ४॥ | 
चन्द्रमण्डल शुश्राणि हेमशय्यासनानि च। सर्चकामसमटद्धाश्च स्ेदुःखरषि| 
तिनस्तेषु विचरन्ति यथाभि, 


. „नराः ॒ यथाभुवि । 
‘ CC-0. रास shu Bhawan Varanasi Collectioh. Digitized by eGangotri 


मोऽ ययः ] + दानस्या तिश्रैष्ठ्यत्वचर्णनम्‌ # ३०३ ` 
न वत्रनास्तिका यान्ति नस्तेनानाजितेन्द्रियाः ॥ ६ ॥ हु 

न दृशंसा न पिशुना न कृतप्ना न मानिनः । 

सत्यास्तपःस्थिताःशूरा दयांचन्तःक्षमापराः ॥ ७॥ व 

लो दानशीलाश्च तत्र गच्छन्ति ते नराः। नरोगो नजरा मृत्युर्न शोको न दिमातपौ _ | 

.्ुतपिपासा च कस्यग्लानिने विद्यते । पतेचान्ये च बहवो शुणाःस्वर्गस्य भूपते | 

| द्रोषास्तत्रैच ये सन्ति ताञ्छृणुष्व च साम्प्रतम्‌ । | 
कर्मणःछृत्स्नं फळं तत्रैवमुज्यते ॥ १०॥ ` | 

न चात्र क्रियते भूयःसोऽत्र दोषो महान्स्मृतः । 

असन्तोषश्च भवति दृष्ट्या दीप्तां परांश्चियम्‌ ॥ ११॥ | 

त मतस्कानां सहसा पतनं तथा । इह यत्क्रियते कमे फलं तत्रेच सुज्यते॥१२॥ | 

क्मेभूमिरियं राजन्फलभूमिरखौ स्मृता ॥ १३॥ | 

सुवाहुरुषाच। 
महान्तस्तु इमेदोषास्त्वया स्वगस्य कीतिताः । 
निदोषाःशाश्वतायेऽन्ये तांस्त्वं लोकान्वदद्विज ॥ १४ ॥ 
जेमिनिरुवाच । 

दोषाःसन्ति च वै नृप । अत एच हि नेच्छन्ति स्वर्गंप्रति मनीषिणः | 

ब्सदनादृध्व तद्विष्णोःपरमंपद्म्‌। शुभं सनातन ज्योतिःपरंत्रह्मेति तद्विदुः ॥१६॥ . . 

[ल मूढा गच्छन्ति पुरुषा विषयात्मकाः । दम्भ मोहभयद्रोह क्रोधलोसैरभिङुताः ॥ | 

भि्िरहङ्कारा निट्ठेन्द्वास्सं यते न्द्रियाः । ध्यानयोगरताश्चेच तत्र गच्छन्ति सांघचः। | 

एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ १८॥ | 

न कुञ्जल उचाच । 

'गगुणं धुत्वा सुचाहु:प्रथिवीपतिः । तमुवाच महात्मानं जैमिनि चद्तां चरम्‌॥ 

भ गमिष्यामि न चैवेच्छाम्यहं सुने । यस्माच्च पतनं प्रोत्तंतत्कमे न करोम्य्‌ 

| ` "माग नाहंदास्ये कदा घुवम्‌ । दानाच्च फललोभाच्च तस्मात्पतति चैनरः 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


३१० 


धर्मशीलाः हायज्ञेयजन्ति १५ | 
सत्यसुक्त त्वया भूपः सर्वश्रेयःखमाकुलम्‌। राजानो चमंशीकाश्च म ते|. 


# पाझपुराणम्‌ ॐ [ २ भूमिक 
इत्येवसुक्त्चा धर्मात्मा छुबाहुःपृथिचीपतिः । 
घ्यानयोगेन देवेशं यजिष्ये कमलाप्रियम्‌॥ २२॥ 


दाहप्रल्यसंचर्ज विष्णुलोकं व्रजाम्यहम्‌ ॥ २३॥ 
जैमिनिरुवाच ।. 


सर्वदानानि दीयन्ते यज्ञेषु नृपनन्दन | आदाचन्न तु यज्ञेषु वस्त्रं ताग्वूलमेच च [११६ 


काञ्चनं भूमिदानं च गोदानं प्रद्दन्ति च | सुधक्षेचेंष्णवंलोकं ते प्रयान्ति नरोत्तमः 


ब्राह्मणाय घिभागैकं गोग्रासं तु महामते । खुपाश्वं बतिनांचैक प्रयच्छन्ति तपोधनाः | 


इति श्रीपाझपुराणेद्वितीये भूमिखण्डेवेनोपाख्यानेशुरुतीर्थेच्यचनचरित्रे 


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दानेन तृसिमायान्ति सन्तुष्टाःसन्ति भूमिपाः । 
तपस्विनो मह्दात्मानो नित्यमेवं यजन्ति ते ॥ २७ ॥ 
सुभिक्षा याचयित्वा तु स्वस्थानं तु समोगताः । 
मिक्षार्थ तस्य भागानि प्रकुर्वन्ति च भूपते ॥ २८॥ 


तस्यान्नस्य प्रदानेन फलं भुञ्जन्ति मानवाः | 

क्षुघातृषा चिहीनास्ते विष्णुलोकं ब्रजन्ति चे ॥ ३० ॥ 
तस्मात्वमपि राजेन्द्र देहि न्यायाजितं धनम्‌ । 
दानाज्ज्ञानं ततःप्राप्य ज्ञानात्सिद्धि प्रयास्यसि ॥ ३१॥ 
य इद शणुयान्मत्येःपुण्याख्यानमनुत्तमम्‌ । 
चिसुक्तःसर्वेपापेम्यो विष्णुलोकं सगच्छति ॥ ३२॥ 


पञ्चनवतितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥ 


बण्णवतितमोऽध्यायः - `“ `` ` 
FT दर्ज? मिनस ‘€ | गामिनां br वर्णनम्‌ | ७ : 5 
नरकग च वर्णनम्‌ । 
| ॥ | सजुबाहुरुचाच । | 
होकांमिेत्य गच्छन्ति नरकं नराः । स्वर्ग तु कीदृशै:प्रेत्य तन्मे त्वं चक्तुमहेसि- । 
| जैमिनिरुवाच । Si] 


ब्राह्मण्य पुण्यशुत्स्टुञ्य ये द्विजा लोभमोहिताः। : - 

कुकर्माण्युपजीचन्ति ते चे निरयगामिन:ः ॥२॥ ; 

[तिका भिन्नमर्यादा: कन्दर्पं विषयोन्सुखाः । दाम्मिकाश्च इृतप्नाश्च ते वै निरयगामिनः 

ेम्यग्रतिश्रुत्य न प्रयच्छन्ति ये धनम्‌। ्रह्मस्चानां च हर्तारो नराः निरयगामिनः 

हाः पिशुनाश्चैव मानिनोऽन्तवादिनः । असम्बद्ध प्रलापाश्च ते वे निरयगामिनः ॥ 

।एस्वापहतारःपरदूषण सूचकाः । परस्ञ्रीगामिनो ये च ते चै निरयगामिनः ॥ ६:॥ 
प्राणिनां प्राणहिसायां ये नरा निरताःसदा । 

परनिन्दारता ये चै ते वे निरयगामिनः ॥ ॥ ७॥ 

हितां तडागानां प्रपानां च परन्तप । सरसांचेव भेत्तारो नरा निरयगामिनः ॥८॥ 

सन्ति ये दाराञ्छिन्भृत्यातिथींस्तथा । उत्सन्नपितुदेवेज्या नरानिरयगामिनः 

कया दूषका राजन्ये चेचाश्रमदूषकाः । सखीनां दूषकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ 

पुरुषमीशानं सर्वेलोक महेश्वरम्‌ । न चिन्तयन्ति ये विष्णु ते वै निस्यगामिनः 

| पयाजानां मखानां च कन्यानां सुहृदां तथा । 

साधूनां च गुरूणां च दूषका निर्यङ्गमाः ॥ १२॥ 

|^ रबुमिर्वापि गूळेरशमभिरेव चा । ये मार्गाचुपरुन्धन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ 

| "व विश्वस्ताकामेनार्तास्तथेच च.। सर्वभूतेषु जिह्माश्च ते बै निरयगामिनः 

| आगतान्भोजनाथे तु ब्राह्मणन्ृत्तिर्काशतान्‌। `` . 


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३९२ । छ पादाुयाणस 9 [२ भृमि 
छ तिषेध॑ च कुर्वन्ति ते वे निरयगामिनः ॥ १० ॥ 
` ज्लेत्रवृत्ति कि परिसर ये नराः। आशाच्छेदं प्रकुवेन्ति ते चे निरयगाषनि 
शस्त्राणांचैव कर्त्तारःशाल्यानां धनुषां तथा । _चिक्रेतारश्च राजेन्द्र नरा या 
अनाथं चिक्लवं दीनं रोगाचं वृद्धमेच च । नाुकम्पन्ति ये सदास्ते ब यगाफि 
नियमान्पूर्वमादाय ये पश्चादजितेन्द्रियाः । अतिक्रामन्ति चाञ्चल्यात्ते चे निरयपाष्नि 

इत्येते कथिता राजन्नरा निरयगामिनः । / 

स्वर्गलोकस्य गन्तारो ये जनास्तान्निबोधमे ॥ २० ॥ ॥ 

सत्येन तपसाक्षान्त्या दानेनाध्ययनेन च | ये धर्मजुवर्तन्ते ते नराःस्वर्गगामिन 
ये च होमपराध्यान देवतार्चनतत्पराः । आददाना महात्मानस्ते नराः स्वर्गगामिनः 
शुचयश्च शुचौदेशे बास्रुदेवपरायणाः । पठन्ति. विष्णु' गायन्ति ते नराःस्वगंगाङ्नि 

मातापित्रोश्च शुश्रूषां ये कु चन्ति सदाद्वताः । 

वर्जयन्ति दिवास्वप्नं ते नराःस्वर्गगामिनः ॥ २४ ॥ 
सर्वेहिसा निवृत्ताश्च साधुसङ्गाश्च ये नराः । सर्वेस्यापिहितेयुक्तास्तेनराःस्वगंगामि 
सर्वेलोभनिवृत्ताश्व सर्वेसाहाश्व ये नरा: । सचेस्याश्रयभूताश्च ते नराःस्वर्ग मि 
` शुश्रूषामिस्तपोभिश्च गुरुणां ` मानदा नराः। प्रतिग्रह निवृत्ता ये ते नराःस्वगगाशि 
सहस्रपरिवेष्टारस्तथैव. च सहस्नदाः। त्रातारश्च सहस्राणां ते नराःस्वगंगामित | 

भयात्कामात्तथाऽऽक्रोशादा रिद्रयात्पू्वेकमं णः । 
न कुत्सन्ति च ये नूनं ते नराःस्घगेगामिनः ॥ २६ ॥ 
` आत्मस्वरूपवन्तश्च यौचनस्थाश्च भारतः । ये वै जितेन्द्रियाधीरास्ते नराःस्वर्ग 
सुवर्णस्य च दातारो गचांभूमेश्च भारत । अन्नानां वाससांचेच ते नराःस्व 

ये याचिताःप्रह्ृष्यन्ति प्रियं दत्त्वा घदन्ति च । 

त्यक्त दानफळेच्छाश्च ते नराःस्वगंगामिनः ॥ ३२॥ ` 
निवेशनानां. धान्यानां नराणां च परन्तप । स्वयमुत्पाद्य दातारःपुरुषाः 
द्विषतामपि ये दोषान्नबदन्ति कदाचन । कीतेयन्ति गुणान्ये च ते:नराः 


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तेती 5थ्यायः ] ऋ नरकगामिनांस्वर्गगामिनां च घर्णनम्‌ ३ ३१३ 
`  परेषांश्रियं द्वष्ट्या न वितप्यन्ति मत्सरात्‌ । 
ते नराःस्वगेगामिनः ॥ ३५ ॥ 
) विवृत्तौ च श्चुतिशास्तरोक्तमेच च । आचरन्ति महात्मानस्तेनरा:स्वर्गगा मिन: 
ये नराणां वचोघक्तुं न जानन्ति च विप्रियम्‌ । 
प्रियवाक्यैकचिज्ञातास्ते नराःस्थगंगामिनः ॥ ३७ ॥ 
ज मागान्कुर्वन्ति क्षत्तृष्णाश्रमपीडिताः । हन्तकारस्यकर्तारस्ते नराःस्वर्गगामिनः 
पकपतडागानां प्रपानांचेव वेश्मनाम्‌ । आरामाणां च कर्तारस्ते नराःस्वर्गगा मिनः 
वपि ये सत्यात्ररजचोनाजेवेष्वपि । रिपुष्वपि हिताये च ते नराःस्वर्गगामिनः 
यस्मिन्कस्मिन्कुरैजाता बहुपुत्राःशतायुषः । 
सानुक्रोशाःखदाचारास्ते नराःस्वर्गगामिनः ॥ ४१ ॥ 
वसं धर्मणैकेन सवेदा । बतं गृह्णन्ति ये नित्यं ते नराःस्वर्गगामिन 
आक्रोशन्तं स्तुवन्तं च तुल्यं पश्यन्ति ये नराः । 
शान्तात्मानो जितात्मानस्ते नराःस्वर्गगामिनः ॥ ४३ ॥ 
थे चापि भयसन्त्रस्तान्त्राह्मणांश्व तथा स्त्रियः । 
 सार्थान्वा परिरक्षन्ति ते नराःस्वगंगामिनः ॥ ४४ ॥ 


न षशेचेन्द्रियाणां च ये नराःसंयम स्थिताः । 

त्यक्तलोमभयक्रोधास्ते नराःस्वर्गगामिनः ॥ ४६ ॥ 

फलुणदंशादीन्ये जन्तू'स्तुद्तस्तनुम्‌ । पुत्रवत्परिरक्षन्ति ते नराःस्वरेगामिनः 
ष्व यथोक्तेन चिधिनासञ्जपन्ति च । सर्वद्वन्द्सहालोके ते नराःस्वर्गयामिनः ॥. 
छपरदासंश्च कमेणा मनसा गिरा । रमयन्ति न सत्वस्थास्ते नराःस्वर्गगामिनः 
विन्दितानि न कुर्वन्ति कुर्वन्ति चितानि च । 

आत्मशक्ति चिजानन्ति ते नराःस्वर्गंगामिनः ॥५०॥ 

सव मॅयातर्वेन पार्थिव: । दुगेतिःसद्गतिश्चैव प्राप्यते कमे भिरयेथा ॥ 


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- ३९४ . क # पाझपुराणम्‌ क: र | [ २ भृमि 
नर; परेषां प्रति कूलमाचरन्प्रयातिधोरं नरकं सुदारुणम्‌। . ` ` 
सदानुकूलस्य नरस्य जीविनःसुखावहा मुक्तिरदूरसं स्थिता ॥५२॥ | 

इतिथ्रीपाद्मपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डेबेनोपाख्यानेगुरुतीथेमहात्म्येच्यचनचरिञे | 
र षण्णवतितमो 5ध्यायः ॥६६॥ 


ह 


स्तनवतितमोऽध्यायः 


भार्ययासहसुवाहुद्पस्यतपःग्रभावेणविष्णुलोकंग्रतियमनेऽपिविष्णोरद्‌ | 

, कुञ्जलउवाच । 
एचमाकर्ण्य तां राजा सुनिनाभाषितां तदा । धर्माधमंगति सर्वा तं सुनि सममा 
सुबाहुरुघाच । ह 

सोऽहं धर्म करिष्यामि सोऽहं पुण्यं द्विजोत्तम । घासुदेवं जगद्योनिं यजिष्ये निरा 
होमेन तु जपेनैव पूजयेन्मधुसूदतम्‌। यष्ट्चायज्ञं तपस्तप्त्वा विष्णुलोकं सभूपरि| 
पूजितःसवंकामैश्च प्रापतवान्सत्वरं मुदा । गते तस्मिन्महाळोके देचदेचं न. पश्यति 
श्रुघाजाता महातीबा तृष्णाचा ति प्रवर्तते । तयोश्चापि महाप्राज्ञ जीचपीडाकयशु्ि 
राजापि प्रिययासा्ध क्रुधातृष्णाप्रपीडितः । न पश्यति हृषीकेशा दुःखेनमहतात्विि 
कुञ्जलउवाच । | 


इतश्चेतश्च वेगैश्च धावते वसुधाधिपः । सर्वाभरणशोभाङ्गो वस्त्रचन्दनभूषितः(४! 
पुष्पमालाप्रशामाङ्गो हारकुण्डलकङ्णेः । र्दी सिप्रशोभाङ्गःप्रययो स. मह 
एवं डु.खसमाचारःस्तूयमानश्च पाठकेः। ढुःखशोकसमाचिएःस्वप्रियाँ वाक्य) 
चिष्णुलोकमदंप्राप्तस्त्वयासह सुशोभने । क्र षिभिःस्तूयमानो ऽपि विमानेनापि भा 
कर्मणा केन.मे चेयं क्लुघाऽतीच प्रचद्धेते । विष्णुलोकं च सम्प्राप्य न. दष्टो मा 1 


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धयायः ] * खुबाहु टपस्यवामदेवेनदानमाहात्म्यकथनम्‌ # . ३१५ 
कारणं भद्रे न भुनज्मि मंहत्फलम्‌। कर्मणाथ निजेनापि एतदुदु:खं प्रवत्तेते ` 
हैवं शुत्वा च तद्वाक्यं राजानमिद्मत्रचीत्‌ | 
सत्यमुक्त॑ त्वया राजन्नास्ति धर्मस्य वै फलम्‌ ॥ १४॥ र 

ये पठन्ति च ब्राह्मणा: । दुःखशोकौ विधूयेह सर्वदोषे:प्रमुच्यते | 
नामोच्चारेण देवस्य विष्णोश्वेव सुचक्रिण: । 
पुण्यात्मानो महाभागा ध्यायमाना जनादेनम्‌ ॥ १६॥ 
काणधितोदेवःराङ्ूचक्रगदाथरः। अन्नादिदानं विप्रेभ्यो न प्रदत्त द्विजो दितम्‌ ॥ 
स्य प्रजानामि न दृष्टो मधुसूदन: । श्षुधामे वाधते राजंस्तृष्णाचेव प्रशोषयेत्‌ ॥ 
| कुञ्जल उवाच | 
सतु प्रियया राजाचिन्ता कुलेन्द्रियः । ततोद्वष्ट्या महापुण्यमाश्रमं श्रमनाशनम्‌ 
र्रितसमाकीणं तडागैरूपशोभितम्‌ । वापीकुण्डतडागैश्च पुण्यतोय प्रपूर्तिः ॥' 
झरण्डवाकीणं कहारैरुपशो भितम्‌ । आश्रमःशोभते पुत्र मुनिमिस्तत्त्ववेदिमिः ॥ 
ृ्समाकीणं स॒गवातेश्व शो भितम्‌ । नानापुष्प समाकीर्ण हृद्यगन्ध समाकुलम्‌ 
हि| द्विजसिद्धेः समाकीर्णस्ट्रषिशिष्येः समाकुलम्‌। 
॥ योगियोगेन्द्र सङ्घं देववृन्देरलङकतम्‌ ॥ २३॥ 
कुश्िदनसम्वाधःसुफळ:परिशो सितम्‌ । नानावृक्षसमाकीर्ण सवंकामसमन्वितम्‌ ॥ 
श ्डथारगन्धश्च सुफले:शोभितं सदा । एवं पुण्यं समाकीर्णं ब्रह्मलक्ष्य समायुतम्‌ 
| स सुबाहुस्ततो राजा तया सुप्रिययासह | 
१ प्रबिवेश महापुण्यं तद्वनं सर्वकामदम्‌ ॥ २६ ॥ 
दिश:सर्चा यत्रास्ते सू्यखन्तिभः । राजमानो महादीप्त्या परया सूर्यसन्निभः 
योगपट्ट नसंत्रतः । .घामदेचं ऋषिध्रेष्ठो वैष्णवानां वरस्तथा ॥२८॥ 
हृषीकेश भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्‌ । वामदेवं महात्मानं तं दृष्ट्चा मुनिसत्तमम्‌ 
॥ मणस्येच सराजा प्रिययासह । वामदेचस्ततोदूष्ट्चा प्रणतं राजसत्तमम्‌ ॥ 
जु राजानं प्रिययान्वितम्‌ । उपवेश्यासने पुण्ये सुबाहु राजसत्तमम्‌ 


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, ३१६ . # पाद्मपुराणम्‌ क व [ २: i 
` आसनादि ततःपाद्येरघेपूजादिमिस्तथा | घुनिनापूजितो भूपःप्रिययासह चागद ॥ 
अथ पप्रच्छ राजानं महाभागवतोत्तमंम्‌ ॥ ३३ ॥ 
वामदेव उवाच । 
त्वामहं विष्णुधर्मक्ष' विष्णुभक्तं नरोत्तमम्‌ । जाने ज्ञानेन राजेन्द्र दिव्येन चोल्याग 
निरामयश्चागतोऽसि ताक्ष्येया भाययासह ॥ ३५॥ 
राजोचाच । 
'निरामयश्रागतोऽस्मि प्राप्ती विष्णोःपरंपदम्‌। मया हि परयाभक्त्या 
आराधितो जगन्नाथो भक्तिप्रीतःसुरेश्वयम्‌। कस्मात्पश्यास्यहं तात नदेवं कम 
श्षुधा मे वाघते तोत ठृष्णातीवसुदारुणा । 
ताभ्यां शान्ति न गच्छाव सुखं विन्दावनेच च ॥ ३८ ॥ 
एतन्मे कारणं दुःखं सञ्जातं सुनिसत्तम.। तन्मे त्वं कारणंत्र हि प्रसादात्सुमुखोः 
वामदेव उचाच । 
त्वं तु भक्तोऽसि राजेन्द्र श्रीकृष्णस्य सदेव हि । 
आराधितस्त्वया भक्त्या परया मधुसूदनः ॥ ४० ॥ | 
भक्योपचारैःस्नानाचैरगन्धपुष्पा दिभिस्तथा । न पूजितोऽथ नेचेचैःफलेश्च जगतां 
द्शमों प्राप्य राजेनद्र त्वयेच च सदाकृतम। एकभक्तं न दत्तं तु त्राह्मणाय सुभोगा 
एकादशी तु सम्प्राप्य न छृतंभोजनं त्वया। चिष्णुमुद्दिश्य घिप्राय न दत्तं भोजनंत 
अन्नं चासृतरूपेण पृथिव्यां संस्थितं सदा । 
अन्नदानं विशेषेण कदादत्तं न हि त्वया॥ ४४॥ | 
ओषध्यश्च महाराज नानाभेदास्तु ताःश्टणु । कटुतिक्तकषायाश्च मधुराम्लाश्च शि 
'हिङ्चाद्योपस्कराः सर्वे नानारूपाश्च भूपते । असृताज्जज्ञिरे सर्वा ओषध्यःपुर्थि 
अन्तमेव सुसंस्कत्य ओषधव्यज्ञनान्वितम्‌ । देवेभ्यो विष्णुरूपेम्य इतिसङकल्य 
पितृभ्यो चिष्णुरुपेभ्यो हस्ते च ब्राह्मणस्य हि । 
अतिथिभ्यस्ततो दत्त्वा परिजनं प्रमोजयेत्‌ ॥ ४८ ॥ 


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। हिमोउध्यायः ] . * कर्मवैशिष्ट्यचर्णनम्‌ + ३१७ ` 
ते प्थाततदन्तमस्दतोपमम्‌  परेत्यचुःलं न चैवास्ति तस्यसौख्य तु भूपते 
वा पितरो देवाःकषतररूपाश्च भुपते । यथा हि कर्षकःकञ्चित्सुक्र्षि कुरुते सदा ॥ 
कर्विकुर्यात्कषत्रे विप्रास्यकेल्प । स्वभाषलाङ्गछेनापि श्रद्धाशस्त्रेण मेदयेत्‌ 
lp हु मती नित्यं बुद्धिश्वेच तपस्तथा । सत्यज्ञानानुभाचीश:शुद्धात्मा तु प्रतोदकः 
(नि महाक्षेत्रे नमस्कारैविसजेयेत्‌ । स्फोटयेत्कस्मषं -नित्यं कृपको 

क्षेत्रस्य उचमेयुक्तो विष्णुकामःप्रसादयेत्‌। 
| द्द्राक्यैःशुमैःपुण्यैविप्रांश्वापि प्रसादयेत्‌ ॥ ५७ ॥ 
पीर्धातिकालथ्व घनरूपोऽसिवर्षणे । वप्तुकामो भवेत्क्षेत्री ततशक्षेत्रे प्रचापयेत्‌ ॥ 
नलाय चिप्राय परिदीयते । क्षेत्रस्य उप्तवीजस्य यथाक्षेत्री प्रमुजति ॥५६॥ 
फलमेच महाराज तथादाता भुनक्ति च । 
रे्यचात्रैच नित्यं च तृप्तोमबति नान्यथा ॥ ५७॥ | 
हणा: पितरोदेवाःक्षेत्ररूपा न संशयः: । मानवानां महाराज वापिताःप्रदृदन्ति च ॥ 
हबं न सन्दैहो यादशं तादशं धुवम्‌ | कटुकाद्धि न जायेत राजन्मधुर एव च ॥ 

, त्मिधुराख्याच्य न जायेत कटुकः पुनः । याद्वशं वपतेवीजे तादशं फलमश्युते ॥६०॥ 
ताप पयति यश्षेत्र न स सुञ्चति तत्फलम्‌ । । तद्वद्विपराश्च देवाश्च पितरःक्षेत्ररूपिणः 
„भिति फलंराजन्दत्तस्यापि न संशयः । याद्वशं हि कृतंकमे त्वयैच च शुभाशुभम्‌ ॥ 
“हीं भुझछ्व वै राजन्नन्यथा तन्नजायते । न पुरा देव घि्रेम्यःपितृभ्यश्च कदाचन 

ननमेचापि दृत्तं सुमनसा तदा । खुभोज्येभोजनेस ऐेमंघुरेब्योष्यपेयकः ॥६४॥ 
_ [त्मना कस्मैदत्तं न च त्वया । स्वशरीरं त्वयापुष्ठमन्नेरस्तसन्निभैः ॥ 
र भक्त महाराज तस्मातक्षुधा प्रचर्तते। कर्मेव कारणं राजन्नराणां सुखदुःखयोः 
pn अन्मखृत्योमेहाभाग भुङक्ष्च तत्कमेणःफलम्‌। 

| पूवऽपि च महात्मानो दिवंपराप्ताःस्वकर्मणा ॥६७॥ | 
| ता भूलोक कमेणःक्षयकाठतः । नछो भगीरथञ्चैच विश्वामित्रो युधिष्ठिर; ॥ 
|  स्स्पातत:स्वगं राजन्स्चकालतः । दिष्ट हि प्राक्तनंकमे तेनढु:खं सुखं लमेत्‌ 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


हि यथानृप 


ला 

तडुहङ्गयितुं राजन्कःसमर्थोऽ 
क्वुत्तष्णासम्भवोवेगस्ततो दुं हि कर्म ते। यदि ते क्वुत्प्रतीकारोह्यमीष्टो न्पसत्ता॥ 
तद्गत्वा भुङक्ष्वकायं स्वमान्दारण्यसं स्थितम्‌ । तवचेयं महाराज्ञी श्वुत्क्षामातीव त 
छ सुबाहुरुबाच । | 
कियत्काळमिद्‌ कर्म कतेव्यं प्रिययासह । तनमे त्र.हि महाभागानुग्रही इश्यते क| 

कस्यदानेन किंपुण्यं द्रव्यस्य मुनिसत्तम । तत्यत्र हि महाप्राज्ञ यद्तिष्टो5सि सा| 

घामदेव उचाच । 

अन्नदानान्महासौख्यसुदकस्य महामते । भुञ्जन्ति मर्त्याःस्वर्श चे पीड्यन्तेनेव पाल 2 
यदादानं न दत्तं तु भवेदपि हि मानवैः । सृत्युकालेऽपि सम्प्राप्ते दानं सव ददन 
आदावेव प्रदातव्यमन्नं चोदकसंयुतम्‌ । सुच्छत्रो पानही दद्याजालपात्रे सुशोमना| 
भूमि सुकाञ्चन भेनुमषटौदानानियोऽपयेत्‌। स्वर्ग न जायते तस्य क्लुधातृष्णा दिस 
. श्रुघा न वाधते राजन्नन्नदानात्स तृप्तिमान्‌। 
तृष्णातीन्रा न हि स्याद्वै ठप्तो भवति सवेदा ॥ ७६ ॥ | 
उदकस्य प्रदानेन च्छत्रदानेन भूपते । छायामाप्तोति दाता चे चाइनं च नृपोत्तम [रै 
उपांनहःरदानेन अंनयदेवं बदाम्यहम्‌ । भूमिदानान्महाभाग सर्वकामानवाप्लुयाद 
गोदानेन महाराज रसैःपुष्टोभवेत्सदा । सर्वान्मोगान्प्रसुञ्जानःस्वर्गेलोके वसेलः | 
तृप्तोभबति बै दाता गोदानेन न संशयः । नीरुजः्लुखसमपन्तःसन्तुटन्तु घनानि 
काञ्चनेन सुचर्णस्तु जायते नात्रसंशयः। श्रीमांश्च रूपवांस्त्यागी रत्नमोक्ता भ 
ृत्युकाळे तु सम्प्राप्ते तिलदानं प्रयच्छति । सर्वभोगपतिमभूत्वा विष्णुोकं प्रयाग 
एवं दानविशेषेण प्राप्यते परमंजुलम्‌। गोदानं भूमिदानं तु अन्नोदके च.वै लग 
अवमान राजेन्द्र च दत्तं ब्राह्मणाय चे । खत्युकालेऽपि नोदत्तं तस्मातक्षुधा र i 
'पतत्तेकारणं प्रोक्तं जातं कमेचशानुगम्‌। यादशं तु कृतंकर्म तादृशं परिसुञ्यते।| 
र खुबाहुर्वाच | | | 
"कथं कुच भारित में याति सुनिसतम्‌। अनय्ाशोषितकायो, तीव १ 


। 


न द्विजे प्रायश्चित्तं घद्स्य नौ । कमेणब्यास्थ, घोरस्य यथा शान्तिर्भवेन्मम 
| वामदेवडचाच्र । ` --; `: 2 | 

प्रायश्चित्तं न चेवास्ति अरतेभोगान्ट्पोत्तम |. ~ - ` : 

| कर्मणो$स्य फलं सवं भवान्स्वस्थःप्रभोक्ष्यति ॥.६१॥ 

वे पतितःकायःप्रियायाश्चैच भूपते । युषाभ्यां हि प्रगन्तव्यमितश्रैव न संशयः ॥ 

मपि भोक्तव्यं कायमक्षयमेच तत्‌ | स्वं स्वं राजन्नसन्देहस्त्वया वै प्रिययांसह 


| राजोचाच। - 
त कवत्कालं प्रमोक्तव्यं मयैवं प्रिययासह । तदादिश महाभाग प्रमाणं तद्वचो मम॥६४॥ 
| चामदेवउचाच । 
हेव महास्तोत्रं महापातकनाशनम्‌ । यदा त्वं श्रोष्यसे पुण्यं तदामोक्षं प्रयास्यसि 
शते सरवमाख्यातं गच्छराजन्पसुङ्ष्व दि । एवंधुत्वा ततो राजा भार्ययासह वै पुनः 
स्य वे मांसं भक्षते प्रिययासह । नित्यमेच -महाप्राज्ञ दद्वत्पूर्ण' भवेद्वपुः ॥ 
कं प्रमक्षत राजा राज्ञी तस्य च पुरक । यथायथा च राजा च भक्षते च कलेवरम्‌ 
शिवे सदानायौं तयोर्भावं चदाम्यहम्‌ । प्रज्ञासाद्धं महासाध्वी चरित्र तस्य भूपतेः 
| शि हि कुरुते नित्यं तस्य श्रद्धानपायिनी । प्रज्ञयाप्रेयमाणेन न दत्त श्रद्धयान्वितम्‌ 
ब्राह्मणेम्यःखुसडडुल्प्य अन्नसुद्दिश्य वैष्णवे । 
॥ एवं स भक्षते मांसं र्व स्व कायस्य नित्यशः ॥१०१॥ ` 
दैत २ यात्मकायं च रसेश्भ्ास्ुतसन्निभैः । ततो वर्षशतान्ते तु वामदेव महामुनिम्‌ ॥ 
वा स गहेयामास आत्मानं प्रति सुन्रत । न दत्तं पितृदेवेभ्यो:त्राह्मणेम्योकदा मया 
च ्ातिथिभ्यो `हि वृद्धेम्यश्च विशेषतः । दीनेभ्यो हि नदत्त च कृपया चातुराय च 
॥ पप्फेस्वमांसं . गइयन्स्वीयकमं च । एवं स्वमासं सुञ्जनं सुबाहु प्रिययासह 
| सेते च तदाद्ष्ट्वा प्रज्ञा श्रद्धा च द्वेस्त्रियों | 
। ह कमे विपाकस्य शुभात्मा हसते नरप ॥१०६॥ 
{| १ पैन न दृत्तं पापचेतन | प्रज्ञा च चचनैस्तैस्तु राजानं हसते पुनः ॥७॥ 


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तियाय ] a सुबाहोःसहमार्यस्यस्वस्बशवभक्षणम्‌ .३२६ ५ 


। 


1 
$ 


५ 
१ 


, तत्रापतित्वो मामैव पतितं ढुःखसङ्कटै 
भार्ययासह सुङक्षवत्वं व्यापितःश्ुघयाभराम । 
एवं ते हसते प्रज्ञा सुबाहु प्रिययान्वितम्‌ ॥११०॥ ह 
एतद्धि कारणं सं तयोहासस्य पुत्रक । भक्ष्यमाणस्य भूपस्य देहं स्वंदुःखिते ह 
ऊचतुर्देहीदेहोति याच्यमानःसदेव हि । श्ुघातृष्णा महाप्राज्ञ भीसरूपे भयानके॥ 
पयसा मिश्रितं भक्ष्ये याचेते नृपतीश्वरम्‌। एतत्ते सर्वेमाख्यातं यत्त्वया परिपृच्छि 
अन्यत्कि ते प्रवक्ष्यामि तद्ठदख महामते ॥११४॥ 
विज्वल उवाच । 
वासुदेवाभिधानं तत्स्तोत्रं कथय मे षितः । येन मोक्ष व्रजेद्वाजा तद्विष्णोः | 
इतिश्री पाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्यानेगुरुतीर्थमदातम्येच्यवनचसि | 
सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥ 5 


_ अष्टनत्रतितमोञ्ध्यायः 
विज्वठेनसभायसुवाहुप्रतिवासुदेवस्तोत्रकथनम्‌ । ` 

| विष्णुरुवाच । 
एबमुक्ते शुमेवाक्ये विज्वलेन- महात्मना कुञ्जलो वदतांश्रेष्ठ स्तोत्रं पुण्यः 
ध्यात्वा नत्वा हृषीकेशं सवंक्कश विनाशनम्‌ । सचंश्रेयःप्रदातारं हरेःस्तोत्रम 
वाखुदेवाभिधानं तत्सवंश्रेयःप्रदायकम्‌ । मोक्षद्वारं सुखोपेतं शान्तिदं ९ 
सर्वेकामप्रदातारं ज्ञानदं ज्ञानवद्धेनम्‌। वासुदेवस्य यत्सतोत्रं विड्यलाय' प्रकार 
वासुदेवाभिधानं च प्रमेयं पुण्यंवद्ध॑नम्‌-1. सो 5वगम्य. पितुःसचं चिञ्चलःपकषि कि 
तत्रगन्तुप्रचक्राम पितुं तदाप । पचंगन्तं. झतमति 


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'विज्वळं ज्ञानपर 
वि ज्ञानप | 


b angotri 


५ध्यारः ] कं सभायसुवाहुप्रतिवासुदेवस्तोत्रकथनम्‌ "३२१ | 
उबाच पुत्र धर्मात्मा उपकारसमुद्यतम्‌ ॥9॥ 
कुञ्जल उवाच | » 
पातकं: नूएतेःश्टणु । यतो गत्वा पठस्व त्वं सुवाहोश्चोपश्रण्वतः || 
यथा यथा ध्रोष्यति स्तोत्रसुत्तमं तथा तथा ज्ञानमयो भविष्यति । 
श्रीवाखुदेचस्व न संशयो चे तस्य प्रसादात्खुशिचं मयोक्तम्‌ ॥ ॥ 
सगुरं पश्चाडड्डीय लघुविक्रमः । आन्दकाननं पुण्यं सम्प्राप्तो विज्चळस्तदा 
वृक्षच्छायां समाश्रित्य डपचिष्टो सुदान्वितः। 
समालोक्य सराजानं चिमानेनागतं पुनः ॥ ११॥ 
एष्यत्यसौ कदाराजा खुवाहुः प्रिययासह। 
पातकान्मोचदिष्या सि स्तोत्रेणानेन चे कदा ॥१२॥ 
नःसम्प्रासःकिङ्किणीजाळमण्डितः । घण्टारचसमाकीर्णोची णावेणुखमन्वितः . 
स्वरसङ्ुष्टश्चाप्सरो भिःखमन्वितः । सर्वकामससद्धस्तु अन्नोदकविवर्जितः ॥ 
। तस्मिन्याने स्थितो राजा सुबाहुः प्रिययासह। . 
' समुत्तीर्णो विमानात्स सुताक्ष्ये प्रिययासह ॥१५॥ 
शस्त्रमादाय तीक्णं तु यावत्कृन्तति तच्छचम्‌। | 
| तावद्धि विज्वलेनापि समाह्वानं तं तदा ॥ १६॥ 
शिः पुरुषशादू ल देवोपम भवानिदम्‌। करोति निघणं कमे नुशंसैने च शक्यते. 
रशाद्‌ छ कोऽयं विधिविपरययः । दुष्कृतं साहसं कमे निन्द्यं लोकेषु सर्वदा 
शरषिहीने तु कस्मातप्रारब्धघानिद । तन्मे त्वं कारणं सर्वं कथयस्च यथा तथा 
सत्येवं भाषितं तस्य चिज्चलस्य महात्मनः। ` 
समाकण्यं महाराजःस्चप्रियां घाक्यमत्रचीत्‌ ॥ २० ॥ 
सुकत मयेदं पापकमेणा | कदा न भाषितं केन यथाऽयं परिमाषते ॥२१॥ 
क्षघया. हृदयं प्रिये । निर्गतं चोत्सुकं कान्ते शान्तिश्चित्ते प्रवत्तते 
याषद्स्य श्रतं वाक्यं सवेदुःखस्य शान्तिद 


 CC-0=Mumukshu-shawan:Maranasi:Callecton: DidftizedbyreGangotr 


# पाझपुराणम्‌ ॐ ` ` [२ मृषि 


समाहादो वर्तते चारुहासिनि ॥ २३ ॥ 


ताचच्चित्ते i eee. 
कोऽयं देवोऽनुगन्धर्वःसहस्रा्ष भविष्यति । सुनीनां स्याद्वचःसत्य यदुक्त मुनिना 


एबमासाषितं श्रुत्वा प्रियस्यानन्तर प्रिया । राजानं प्रत्युवाचाथ भार्या पति पराण 
सत्यमुक्तं त्वया नाथ इद्माश्चर्यसुत्तमम्‌ । यथा ते घतते (कान्ति ! मम, चित्ते तथा 
पक्षिरूपघरःको$यं पृच्छते 'हितकारिचत्‌। एवमाभाषितं श्रुत्वा प्रियायाःपृथिवी 
वद्धाञ्जढिपुरो भूत्वा पक्षिणं वाक्यमत्रवीत्‌ । खागतं ते महायाक पक्षिरूपधर प्रती 
शिरसा. ार्ययासाद्धं तब पादाम्बुजद्वयम्‌। नमस्करोम्यहं पुण्यमस्तु नस्त्वतासा 
भचान्कःपक्षिरूपेण पुण्यमेचं प्रभाषते । याहृशं करियते कमे पूर्वेदेहिन सत्तम! ॥ ४६ 
सुतं दुष्कतं चापि तत्त दिहैव प्रभुज्यते । अथ तेनात्मकं दत्तं तस्याग्रे च निवेश | 
यथोक्तं कुञ्जलेनापि पित्रापूवं श्रुतं तथा । कथय खात्मवृत्तान्तं भवान्कोमां प्रमा 
ः सुवाहु' परत्युवाचेदं वाकयं पक्षिवरस्तदा॥ ३३ ॥ 
: विज्वळ उचाच । 

शुकजात्यां समुत्पन्तःकुञ्जलो नाम मे 'पिता । 

तस्याहं विज्वलो नाम तृतीयस्तु सुतेष्वहम्‌ ॥ ३४ ॥ 
नाहं देचो न गन्धर्षो न च लिद्धो महाभुज ! । नित्यमेव प्रपश्यामि कमे चेवं सुदा 
कियरटकाळं महत्कर्म साहलाकारसं बुतम्‌ । करिष्यसि महाराज ! तन्मेकथय साण 

टु सुवाहुरुवाच । 

घासुदेवाभिधानं यत्पूर्वसुक्त हि ब्राह्मणैः । 

श्रोष्याम्यहं यदा मद्र गति स्वा प्राप्चुयां तदा ॥ ३७ ॥ 
पुण्यात्मना भाषित वै मुनिना संयतात्मना । तदाहं पातकान्मुक्तो अचिष्यामिनसं 

चिज्चल उचाच | 
तवार्थे पृच्छितस्तातस्तेन मे कथितं च यत्‌। 
` तत्तेऽहं परवक्ष्यामि शाश्वत शशु सत्तम ॥ ३६ ॥ 


०००. छॅअस्य्रीचासुदेकालिधामस्तेरेनस्य प्परंदआधिरकुंष्णुप्छन्दः 


३२२ 


ो$ध्यायः ] ॐ वासुदेव स्तोत्रवर्णनम्‌ # RES, जल 


उँककारो देवता सवंपातकनाशनार्थ चतुवेर्गसाधनाथे च जपे विनियोग: । 
| 'छॅनमो भगवते वासुदेवाय इत्तिमन्त्रः। . 
| पुणय वेद वेदमन्द्रिम्‌। चिद्याधारं भवाधारं प्रणचं बै नमाम्यहम्‌॥४०॥ 
| त निराकारं सुप्रकाशं महोदयम्‌ । निगु णं गुणसम्वद्ध नमामि प्रणवं परम्‌ 
`न महोत्साहं महामो हविनाशनम्‌ | आचिन्वन्तं जगत्सवं गुणातीत नमाम्यहम्‌ 
(वतर यो भृत्वा सूतानां भूतिवद्धनः । अभयं भिक्षुसम्वद्धं नमामि प्रणव शिवम्‌ 
| सामगायन्तं गीतं गीतप्रियं शुभम्‌ । गन्धवंगीतभोक्तार प्रणवं प्रणमाम्यहम्‌ 
४ बेहरपं तं यज्ञस्थं भक्तवत्खलम्‌ । योनि सवेस्यलोकस्य ओंकारं प्रणमाम्यहम्‌ 
रबी सर्वभूतानां नौरूपेण विराजितम्‌ । संसारार्णचमग्नानां. नमामि प्रणव हरिम्‌. 
केप बसते एकरूपेण नेकथा । धामकेबल्यरूपेण नमामि प्रणवं शिवम्‌ ॥४७॥ 
एकतर शुद्धं निगु णं शुणनायकम्‌ । वर्जित प्राृतेर्भावेवेदस्थानं, नमाम्यहम्‌ 
वियोगश्च वर्जितं लुष्टिभिःसदा । देवश्च योगिमिर्ध्येय तमोङ्कारं नमाम्यहम्‌ 
ह विश्वेत्तार विज्ञानं परमं शुभम्‌ । शिवं शिवणुणं शान्तं घन्दे प्रणचमीश्वरम्‌ 
ग्या प्रविष्टास्तु त्रह्मायाश्च सुरासुराः । न विन्दन्ति परंशुद्धं मोक्षद्वारं नमाम्यहम्‌ 
आनन्दकन्दाय चिशुद्धवुद्धये शुद्धाय हंसाय पराघराय । 
| नमोऽस्तु तस्मै गणनायकाय श्रीवासुदेवाय महाप्रमाय ॥ ५२॥. 
| श्रीपाञ्चजन्येन घिराजमानं रविप्रमेणा पि सुदर्शनेन । 
मदब्जकेनापि विराजमानं प्रभु सदेनं शरणं प्रपद्ये ॥ ५३ ॥ 
` यं बेदशुह्यं सणुणं गुणानामाधारभूतं सचराचरस्य । . 
| यं सूर्यवेश्वानरतुल्यतेजसं तं वाहु देवं शरणं प्रपद्ये ॥ ५४॥ - 
| | चिमंळ' खुरूपमानन्दमानेन विराजमानम्‌ । 
"माप्य जीचन्ति सुरादिलोकास्तं वासुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ ५५ ॥ 
तमोघनानां स्वकरैयिनाशं करोति नित्यं यतिधमंहेतुः। , 


| उदयोतमानं रविदीसतेजुसं त देवं शरण पे 
की गान रविदीसते सत चाउदव शा MAB oor 


३२४ 


0020. लिडर तेज पुरसदिकामित्तरीत्राखवेस्यो/नसामिदतितसम्‌ ॥ ६८॥ 


| स्वाहामुखो देवगणस्य हेतुस्तं वासुदेव शरणं प्रपद्ये ॥ ५६ 


# पाझपुराणम्‌ ॐ [२ ं 
यो भाति सर्वत्र रविप्रभाव करोति शोषं च रसं ददाति। ` | 
यः प्राणिनामन्तरग सघायुस्तंवाखुदेचं शरणं प्रपद्य ॥ ५३॥ 
स्वेच्छानुरूपेण सदेवदेवो बिभति लोकान्सकलान्महात्मा । 
सन्तारणे नौरिच र्ते यस्तं वासुदेवं शरणं भपये॥ ५८॥ 
अन्तर्गतोलोकमयःसदैव भवत्यसौः स्थावरजङ्गमानाम्‌ । 


सुपुण्यैःसकलैःसदैच पुष्णाति सौम्यो शुजदश्च लोके । 
अन्नानि यो निर्मळतेजसैच तं घासुदेवं शरणं पद्यं ॥ ६०॥ 
अस्त्येव सवत्र विनाशहेतुः सर्वाश्रयःसवंमयःख खवः । ने 
विना हृषीकैचिषयान्प्रभुङक्ते तं घाखुदेवं शरणं प्रपद्ये ॥ ६१॥ 
जीवस्वरूपेण विभति लोकांस्ततःर्घमूर्त्तान्सयराचरांश्च। 
निष्केबलो ज्ञानमयःखुशुद्धस्तंचासुदेवं शरणं पद्ये ॥ ६२॥ 
दैत्यान्तकं .दुःखघिनाशमूलं शान्तं परं शक्तिमयं विशालम्‌ । 
यं प्राप्य देचां चिनयं प्रयान्ति तं घासुदेवं शरणं प्रपद्ये॥ ६३॥ | 
सुखं सुखान्तं सुखदं सुरेशं ज्ञानार्णवं तं सुनिपं सुरेशम्‌ । | 
सत्याश्रयं सत्यगुणोपचिष्टं तं वासुदेचं शरणं प्रपद्ये ॥ ६४॥ 
यज्ञाङ्खरूप॑ परमार्थं मायान्वितं मापतिमुग्र पुण्यम्‌ । 
विज्ञानमेकं जगतां निघासं तं वासुदेवं शरणं प्रपचे ॥ ६५॥ 
अस्भोधिमध्ये शयनं हि तस्य नागाङ्गभोगे शयने विशाले 
श्रीपादपद्द्वयमेव तस्य तद्वासुदेवस्य [नमामि नित्यम्‌॥ ६६ ॥ 
पुण्यान्वितं शङ्कमेव नित्यं तीयैरनेकैः परिसेव्यमानम्‌। ` 
तत्पादपद्मद्दयमेष तस्य श्रीघासुदेवंस्य अघापहं तत्‌ ॥ ६७ ॥ 
पादास्बुजं रकमहोत्पलाममम्भोजसल्लिङ्गजयोपशुक्तम्‌ । 


| ऽध्यायः ] * वाखुदेषस्तोजरवरणेनम्‌ # 
| वेः सुलिदेसु निभिः सदैच जतं सुमत्या -उरंगाधिपैश्च। 
| हत्पादंपडरर्हमेव पुण्यं श्रीषासुदेचस्य नंमामि नित्यम्‌ ॥ ६६ ॥ 
यस्यापि पादाम्भसि मञ्जमानाःपूता दिवं यान्ति चिकल्मषास्ते । 
रक्षं लभन्ते सुनयः सुतुष्टास्तं वासुदेव शरणं प्रपथे ॥ ७० ॥ 
यादीदकं तिष्ठति यत्र विष्णोगंङ्गादितीर्थानि सदेव तत्र । 
पिबन्ति ये ऽद्यापि सपापदेहास्ते यान्ति शुद्धाःसुगृहं सुरारेः ॥ ७१॥ 
पादोदकेनाप्यभिषिच्यमाना उग्रैश्च पापैः परिलिपदेहः। २ 
ते यान्ति मुक्ति परमेश्वरस्य तस्येव पादौ सततं नमामि ॥ ७२ ॥ 
नैवेद्यमात्रेण सुभक्षितेय सुच क्रिणर्तस्य महात्मनस्तु । 
श्रीबाजपेयस्य फळं भन्ते खवांर्थयुक्ताश्च नरा भवन्ति ॥ ७३ ॥ 
| नारायणं तं नरका थिनाशनं मायाविहीनं सकलं गुणज्ञम्‌ । 
| यं ध्यायमानाः खुगति प्रयान्ति तं वासुदेव शरणं प्रपद्ये ॥ ७४ ॥ 
| व वन्यस्त्वृषिसिद्धचारणगणेदंवेः सदा पूज्यते, ` 
| यो विश्वस्य विस्वृश्हितुकरणे ब्रह्मादिकानां प्रभुः । 
| यः संसारमहार्णवे निपतितस्योद्धारको घत्सल- . 
स्सस्येवापि नमाम्यहं सुचरणौ भक्त्या बरौ पाघनौ ॥ ७५ ॥ 
यो दृष्टो मखमण्डपे सुरगणैः श्रीचामनः सामगः- 
साम्ोह॒गीतकुतूहलः खुरग णैस्त्रैलोक्य एकः परभुः । 
| इचन्तं नयनेक्षणैः शुभकरेनिष्पापतां तदुबले- 
| स्तस्याहं चरणारचिन्द्युगळं घन्दे परं पाचनम्‌ ॥ ७६ ॥ 
| सजन्तं द्विजमण्डले मखमुखे ब्रह्मश्रिया शोभितं- 
` दिव्येनापि खुतेज्ञसा करमयं यं चेन्द्रनीलोपमम्‌। ` 
देवानां हितकाम्यया सुतनिजं वैरोचनस्यापि तं- 
॥ | अचन्तं मम दीयतां त्रिपदक चन्दै प्रभु चामनम्‌ ॥ ७७ ॥ 


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१ - 


३२६. 


इति श्रीपाइपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे 'घेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये | | 


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~ ... ऐक पाइपुराणमू # - [रया 
तं द्रष्टु रचिंमण्डले मुनिगणैः सम्प्रातचन्त दिचं 
चन्द्रार्कास्तमयान्तरे किल पदा संछादयन्तं तदा | 
तस्यैचापि सुचक्रिणः खुरगणाः प्रापुलेय साउम्रत- | 
काये विश्वंविकोशकेतमतुळं नौमि प्रभोषिक्रमम्‌ ॥ ७८॥ 


ऽष्ठनवतितमो ऽध्यायः ॥ ६८ ॥ 


र री 


नवनवतितमो5व्यायः 
बासुदेवस्तोत्रविधानफलवर्णनय्‌ । 


विष्णुरुवाच । 
स्तोत्रं पचित्रं परमं पुराणं पापापहं पुण्यमयं शिवं च । 
धन्य सुसूक्त परमं सुजाप्यं निशम्य राजा स सुखी बभूच ॥ १॥ 
गतासुतृष्णाक्वुषयासमेता देवोपमो भूमिपतिवभूच । 
भार्या च तस्यापि विभाति रुपैयंक्तावुभौ पापविसुक्तदेही ॥ २॥ 
देचःसुदेवैःपरिचारितोऽसौ विघेःसुसिद्धेहेरिभक्तियुक्तः । 
आगत्य भूपं गतकव्मषे तं श्रीशङ्कचक्राब्जगदा सिधर्ता ॥ ३॥ 
श्रीनारदो भागेचव्यासपुण्याः समागतस्तत्र उकण्डसू नुः । 
घात्मीकिनामा सुनिविष्णुभक्तः समागतो प्रह्मसुतो घसिष्ठः ॥ ४॥ 
गर्गो महात्मा हरिभक्तियुक्तो जाबालिरेभ्याचथ कश्यपश्च। | 
आजग्मुरेते हरिणासमेता विष्णुप्रिया भागवता घ रिष्ठाः ॥ ५॥ 
पुण्याः सुधन्या गतकल्मषास्ते हरेः सुपादास्बुजभक्तियुक्ताः। | 
श्रीवासुदेवं परिवार्य तस्थुः स्तुवन्ति भूपं विघिधप्रकारैः ॥ ६॥ | 


| ] # चासुदेचस्तोत्रबिधानफलवर्णनम्‌ # Fo 


वाञ्च सर्व डुतमुङ सुखाश्च ब्रह्मांहरिश्वापि सुदिव्यदेच्यः । 
गायन्ति दिव्यं मँधुरं मनोहर, गन्ध्ृराजा दिसुगायनाश्च ॥ ७॥ 

: परमार्थंसंमितैः स्तवः सुपुण्येमुंनयः स्तुवन्ति । 
दृष्ट्या पर्ति भूपतिमेच देवो हरिबेभाषे घचनं मनोहरम्‌॥ ८ ॥ 
बरं यथेष्टं घरयस्व भूपते ददाम्यहं ते परितोषितो यतः। 
हरस्तु वाक्यं खे निशम्य राजा दृष्ट्या सुरारि घदमानमग्ने ॥ ६॥ 
नीळोत्पामं सुरघातिनं प्रभुं तं शङ्चक्रासिगदाप्रधारिणम्‌ । 
श्रिया खमेतं परमेश्वरं तं रत्नोज्चळं कडुणहारभूषितम्‌ ॥ १०॥ 
रशिप्रभं देघगणौः झुसे चिते मददार्घहाराभरणैः सुभूषितम्‌। 
हुदिव्यगन्धैवेरखेपनेहेरि सुभक्तिभावैरवनी गतो नप: ॥ ११.॥ 
दण्डप्रणामैः सततं ननाम जयेत्युघाचाथ महासुदं गततः । 
दासोऽस्मि भ्रृत्योऽस्मि पुरः स ते सदा भक्ति न जाने न च भावमुत्तमम॥ 
जायान्वितं मामिह चागतं हरे प्रपाहि वे त्वां शरणं प्रपन्नम्‌ । 
धन्यास्तु ते माधव ! मानवा द्विजाःसदैव ते ध्यानमनोविलीनाः ॥ १३ ॥ 
समुच्चरन्तो भवमाधचेति प्रयान्ति वेकुण्ठमितः सु निमेलाः । 
` तवेष पादाम्बुजनिर्गतं पयः पुण्यं तथा ये शिरसा घहन्ति॥ १४॥ 
, ` समस्ततीर्थोद्‌भवतोयआप्लुतास्ते मानचा यान्ति हरेः सुधाम ॥ १५ ॥, 
नास्ति योगो न मे भक्तिर्ज्ञानं नास्ति न मे क्रिया। 
कस्य पुण्यस्य खङ्गेन घरं मह्यं प्रयच्छसि ॥ १६॥ 

2 हरिरुवाच । 

चास्ुदेवाभिधान यन्महापातकनाशनम्‌ । 
मवताचिज्वलात्पुण्याच्छुतं राजन्‌ विकद्मषम्‌ ॥ १७॥ 
तेन त्वं मुक्तिभागी च संञ्चातो नात्र संशयः। 
मम लोके प्रभुङ्छ्च त्वं दिव्यान्भोगान्मनोऽनुगान्‌॥ १८॥ - 


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, “अ पाझपुराणम्‌ क, "ला 

` यदि देच वरो देयो मम दीनस्य वै त्वया । 
चिज्चलाय प्रयच्छ त्वं प्रथमं चरसुत्तमम्‌॥ १६ Ue म 
` हरिख्चाच । { 


विज्वलूस्य पिता पुण्यः कुञ्जलो ज्ञानपण्डितः । वासुदेचमहास्तोतरं नित्यं पठति भ 
पुत: ्रियासमेतोऽसौ ममगेहं प्रयास्प्रति । पततु जपते स्तोत्र सदा दास्याम्यहं फ 
एवमुक्ते शुभे चाक्ये राजा केशवमत्रचीत्‌। इदं स्तोत्रं महापुण्यं सफल कुर क| 
हरिरुवाच । | 
कृते युगे महाराज यदा स्तोष्यन्ति मानवाः । तदामोक्षं प्रयास्यन्ति तत्क्षणान्नात्र संश 
त्रेतायां मासमात्रेण षड्भिर्मासैस्तुद्वापरे। धर्षेणैकेन च करी ये जपन्ति च मा 
स्वर्ग प्रयान्ति राजेन्द्र वैष्णवं गतिदायकम्‌। kh 
्रिकाळमेककालं चा स्नातो जपति ब्राह्मणः ॥ २५ ॥ 
यं यं तु वाञ्छते कामं स स तस्य भविष्यति । क्षत्रियो जयमाप्नोति धनध 
वैश्यो भविष्यति श्रीमान्खुखी शूद्रो भविष्यति । 
अन्त्यजं आ्राचयेद्योऽयं पापान्सुक्तो भविष्यति ॥ २७ ॥ 
श्रावको नरकं घोरं कदाचिन्नैच पश्यति । मम स्तोत्रप्रसादाच्च सवेसिद्धो.मविण 
भुञ्जानेषु च चिप्रेषु भ्रा्धकाले तु यः पठेत्‌। | 
पितरो वैष्णवं लोकं तृप्ता यास्यन्ति भूपते ॥ २६॥ | 
तपेणान्ते जपं कुर्यादुत्राह्मणो चाऽथ क्षत्रियः । पिबन्ति चासुतं तस्य पितरो इषमा 
होमेषु यज्ञमध्ये च भावाज्जपति मानवः तत्र चिघ्चा न जायन्ते सर्वसिद्धिमविण 
विषमे दुरगसंस्थाने हिस्नब्याघ्रस्य सङ्कटे | चौराणां सङरे प्राप्ते तत्र स्तोत्रमुदीरी 
तत्र शान्तिमेहाराज भविष्यति न संशयः । अन्येष्वेच सुभव्येषु राजद्वारे गते | 
वासुदेवामिधानस्य अयुतं जपते नरः । ब्रह्मचर्येण संस्नातः क्रो! वर्जि 
तिलतण्डुलकेहोंम॑ दशांशमाज्यमिश्चितम्‌ । वासुदेव प्रपूज्यैव दद्यात्ययतमातस 


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यायः ] % सुतो ्रमाहात्म्यंकथनम्‌ # ३२६ | 
कं प्रति ततो देयं होमं ध्यानेन मानघेः। 
तेषां सुश्रत्यवन्नित्यं पाश्वे-नेच त्यजाम्यहम्‌ ॥ ३६ ॥ 
| त ससम्पाप्त स्तोत्रे दास्यं प्रयास्यति । वेदभङ्भप्रसङ्गेन यस्य कस्य न दीयते ` 
कासससृद्धार्: स चैव हि भविष्यति | एव हि सफल स्तोत्रं मया भूपङ्तं *टणु 
निर्मित तेन जप्तं रुद्रेण चे पुरा । ब्रहमहत्या घि निर्मुक्त इन्द्रोसुक्तश्च किल्बिषात्‌ 
देवाश्च ऋषयो युह्या सिद्धविद्याधरामराः। 
नागैस्तु पूजितं स्तोत्रमापुः सिद्धि यथेप्सिताम्‌ ॥ ४०॥ 
पुण्यो धन्यः स वै दाता पुत्रघान्हि भविष्यति । 
जपिष्यति मम स्तोत्नं नात्र कार्या विचारणा ॥ ४१॥ 
| पाच त्वं खिया साथ सम स्थानं नृपोत्तम । हस्तावलम्बनं दत्तं हरिणा तस्य भूपते 
हुईखुमयस्तत्र गन्धर्चा रलितं जगुः | ननृतुश्चाप्सरःश्रेष्ठाः पुष्पवृष्टि प्रचक्रिरे ॥ 
ऋषयः सर्वे वेदस्तोत्रेः स्तुवन्ति ते । ततो दयितया साद्धं जगाम रृपतिहेस्मि 
| तं स्तूयमानं खुरसिद्धसडः सविज्चलः पश्यति हृष्टमानसः । 
समागतस्तिष्ठति यत्र वै पिता माता च वेगेन महाप्रभावः ॥ ४५ ॥ 
इतिश्रीपाझपुराणेद्धितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेगुरुतीथ च्यवनच रित्रे 
नवनचतितमोड्ध्यायः । | 


| 


शततमो ऽध्यायः 
स्तोत्रमाहात्म्यकथनम्‌ । 


चिष्णुरुचाच । 
रम्ये चरे तिष्ठति वै पिता ।.विज्चलो5पि समायातः पितरं प्रणिपत्य स 


चासुदेवामिधानस्य स्तोत्रस्याऽपि महामतिः । 


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. ३३० + पाह्मपुराणम्‌ # [२ 
समाचट्टे स धर्मात्मा महिमानं पितु. पुरः ॥ २ ॥ 
- यथा विष्णु: समागत्य ददौ तस्मै घरं शुभम्‌ । तत्सवं कथयामास सुप्रसन्नेन च 
कुञ्जलोऽपि च वृत्तान्तं समाकण्यं स भूपतेः । 
हषेण महताऽऽधिष्टः पुत्रमालिङ्ग्य घिज्चलम्‌ ॥ ४॥ 
आह पुण्यं इतं घत्स त्वया राज्ञे महात्मने । उपकारं महापुण्यं घासुदेघस्य कीक] 
एचमाभाष्य तं पुत्रमाशीमिरभिनन्य च । पुत्रं देवसमोपेतं स्तुत्वा चेच पुनःपुनः; 
स्थितः सरित्तिटे रम्ये च्यचनस्योपपश्यतः । 
एतत्ते सवेमाख्याते तेषां वृत्त महात्मनाम्‌॥ 9 ॥ 
चेष्णवानां महाराज अन्यत्किं ते वदाम्यहम्‌ ॥ ८ ॥ 
चेनउचाच । 


उत्तमं वैष्णवं ज्ञानं पानानामिह सर्वदा । त्वयेवं कथ्यमानस्य पाने तृत्तिन जायते 
श्रोतुं हि देवदेवेश मम श्रद्धा विवद्धते । कथयस्व प्रसादान्मे कुञ्जलस्यापि | 


श्रीभगवानुचाच । 

श्रूयतामभिधास्यामि चरित्रं कुञ्जलस्य च | वहुश्रेयः समायुक्तं चरित्रं च्यवनस्य 
इद्‌ पुण्यं नरःश्रेष्ठ आख्यानं पापनाशनम्‌ । यः श्एणोति नरोभक्त्या गोसहस्रफलं 
इतिश्चीपाञपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डेवेनोपाख्यानेगुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्र | 
शततमोऽध्यायः । 


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एकाधिकशततमो5व्यायः 
केलाशपर्वतशोभावर्णनम्‌ । 
सूतउचाच । 
हृषीकेशस्त्वङ्घपुत्र नृपोत्तमम्‌ । समाचष्ट महाश्रेय आख्यानं पापनाशनम्‌ ॥ 
श्रयतामभिधास्यामि चरित्रं क्षेमदायकम्‌। 
द्विजस्यापि च दृत्तान्तं कुञ्जलस्य महात्मनः ॥ २॥ 
विष्णुरुवाच । 
जख्धापि धर्मात्मा चतुर्थ पुत्रमेव च । समाहूय मुदा युक्त उचाचैनं कपिञ्जलम्‌ if 
| हु पुत्र त्वयाद्वषमपूर्व कथयस्व मे । भोजनाथ तु यासि त्वमितः कस्मिन्छुतोत्तम 
तदाचक्ष्व महाभाग यदि दुष्टं सुपुण्यदम्‌ ॥५॥ 
कपिञ्जल उचाच ।. 


तदिहैच प्रवक्ष्यामि श्रूयतामधुना पितः !। - 
शए्बन्तु भ्रातरः सर्व मातस्त्वं शएणु साम्प्रतम्‌ ॥ ७॥ 
सः पर्वतश्रेष्ठो धवळश्चन्द्र्खन्निभः । नानाधातुसमाकीणो नानावृक्षोपशोभितः 
| गङ्गाजलैः शुभैः पुण्यैः क्षालितः सवेतः पितः ! । 
नदीनां तु सहस्त्राणि दिव्यानि विषिधानिच ॥ ६॥ 
. यस्मात्तात प्रसूतानि जलानि विविधानि च। 
तडागानि सहस्राणि सोद्कानि महागिरौ ॥१०॥ 
| 5 सन्ति चिशालिन्यो हंससारससेविता: | ` 
तस्मिञ्छिखरिणां श्रेष्ठे पुण्यदाः पापनाशनाः ॥ ११ ॥ 
बनानि विचिधान्येच पुष्पितानि फलानि च। 


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३२२ # पाइपुराणम्‌ # [ भि 
नानावृक्षोपयुक्तानि हरितानि शुभानि च ॥ १२॥ ( 
' किक्षिराणां गणैयुक्तश्वाप्सरोमिः समाकुलः। गन्धर्वेचारणे: सिद्धैदघबन्दैः सुशो, 
'दिव्यवृक्षवनोपेतो दिव्यभावैः समाकुलः । दिव्यगधेः खुशोभाव्येर्नानारत्नसमन्कि [| 
' शिलामिः स्फरिकस्यापि शुक्लामिस्तुखुशोभनः । 
सूर्यतेजोमयो राजंस्तेजोमिस्तुसमाङुलः ॥ १५ ॥ 


>3_ ९ अ 


चन्द्नेश्चारगन्धैश्च बकुलेनींलपुष्पकः । नानापुष्पमयेवृ क्षेः सवत्र समलङ्ङ्तः ।१॥|| 


रुतेश्चको किळानां तु शोभते सबनो गिरिः । “ 

, गणकोटिसमाकीणं तत्रास्ति शिवमन्दिरम्‌ ॥ १८ ॥ र 

अंशुमिधंवलं पुण्यं पुण्यराशिशिलोच्चयम्‌ । सिंहैश्च गजेमानैश्य सैरिमैः कुअरेस्त 
दिग्गजानां सुघोषश्च शब्दितं च समन्ततः । 


नानासुगेः समाकीर्ण' शाखासुगगणाकुलम्‌ ॥ २० ॥ 
मयूरकेकाघोषेश्च गुहासु च चिनादितम्‌ । कन्दरैलपनेः कूटेः सामुभिश्च विराजित 
नानाप्रर्वणोपेतमोषधीभिविराजितम्‌ । दिव्यं दिव्यगुणं पुण्यं पुण्य । 
सेवितं पुण्यलोकेथ्ध पुण्यराशि महागिरिम्‌। पुलिन्दभिह्लको लैश्च से चितं पवंतोत्तम|! 
विकटैः शिखरेः कोरे द्रिराजा प्रकाशते । अन्यैर्नानाविधैः पुण्यैः कौतुकेमंडले: शो) 
गङ्गोदकप्रघाहैश्च महाशब्दं प्रसुस्रवे । शङ्करस्य गृहं तत्र कैलास गतवानहम्‌॥ २५।| 
तत्राश्चयं मयाद्वष्टं यन्न दृष्टं कदा श्रुतम्‌ । श्रयतामभिधास्यामि तात सवं मयोदि|' 
शिखराद्विरिराजस्म मेरोः पुण्यान्महोदयात्‌ । 'हिमक्षीरसुचर्णस्तु प्रचाहः पतते सुषिः 
गङ्गायाश्च महाभाग रंहसा घोषभूषितः । कैलासस्य शिरः प्राप्य तत्र चिस्तरतां गह 


तस्यू.तीरे शिळायां वे हिमकन्या महामते ॥ ३१॥ 


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न ] क्र मुनिवेषधारिपुरुषेणशिचार्चनकर णचर्णनम्‌ % ३३३ 


मुक्तकेशान्ता रूपद्रविणशालिनी । दिव्यरूपसुसम्पन्ना सगुणा दिव्यलक्षणां 
च तस्यास्तीरे घिराजते । न जाने गिरिराजस्य तनया वा महोदघे: 
नो वास्ति ब्रह्मणः पत्नी नो चा स्वाहा भविष्यति । 
| राणी वा महाभागा रोहिणी घा भविष्यति ॥ ३४॥ 
| हसम्पत्तियुंबतीनां न दूश्यते । अन्यासां च सुदिव्यानां नारीणां तात सर्वथा | 
॥ कश हपसम्भावं शुणशीलं प्रद्श्यते । अप्सरसां कदा नास्ति तादशं रूपळक्षणम्‌ ॥ 
इं ठु मया इं तदङ्गे विश्वमोहनम्‌ । शिलापदे समासीना दुःखेनाऽपि समाकुला _ 


हे पस्वरेबांला अनेके स्वजनैचिना । अश्रूणि मुञ्चमाना सा मुक्ताभानि बहुनि च 
|मिंहाति सरस्यत्र पतन्त्येध महामते । - बिन्द्यो मौ क्तिकाभास्ते निपतन्लि . महोदके 
तेम्यो भवन्ति पझनि हृद्यानि सुरभीणि तु । 

पद्मानि जज्ञिरे तेभ्यो नेत्राश्ुम्यो महामते ॥ ४० ॥ 

गङ्गाम्मसि तरन्त्येव असङ्ख्यातानि तानि तु । 

पतितानि सुद्टयानि रंहसा यानि तानि तु॥ ४१॥ 

गृप्वाहमध्ये तु हंसदृन्देः सुसेविते। भागीरथ्याः प्रचाहस्तु तस्मात्स्थाना द्विनिर्गतः 
ह सशिखरं प्राप्य रत्नाख्यं चारुकन्दरम्‌ । वर्तते तोयपूर्णस्तु योजनद्दयविस्तृत्त: ॥ 
,॥|द्समाकीणों जळपक्षिसमाकुलः । नानाचर्णविरोषाणि सन्ति पद्मानि तत्र च ॥ 
ले निमेले तात मु निवृन्दनिघेविते । अश्रुम्यो यानि जातानि प्रभाते कमलानि तु 
अ पिम्छुतान्येच सौरभाणि महान्ति च । प्रतरन्ति प्रवाहे तु निमेले जळपूरिते ॥ 
हि मध्ये हंसश्च जलपक्षिनिनादिते । रत्नाख्ये तु गिरौ तस्मिचत्नेश्वरमहेश्वरः ॥ 
६| देवदेत्यसुपूज्योऽपि तिष्ठते तात सर्वदा। ` 

| ॥ ` तन्न दृष्टो मया तात! कश्चित्पुण्यमयो मुनिः ॥ ४८ ॥. दनक 
न्तो निर्चासा. दण्डधारकः । निराधारो . निराहारस्तपसातीव ढुबेलः 
. रशाङ्गो5प्यस्थिसङ्घातस्त्वचामात्रेण वेष्टितः । 


भस्मोदघलितमाज्राणि, स्वाति, माता त: %२०॥, ००००००४ जी 


डर पाह्मपुराणम्‌ न [२ | | 
शुष्कपत्राणि भक्षेत शीर्णा नि पतितानि च । शिवभक्तिसमासीनो डुराधारो महात्य, 
नि सुरभीणि च! गङ्गातोयात्समानीय देवदेवं 


अश्रुभ्यो यानि जातानि पद्मा | 
रत्नेश्वरं महाभागो गीततृत्यविशारदः । गायते नृत्यते तस्य द्वारस्थखिपुरद्रिप॥ 


मठमागत्य धर्मात्मा रोदते खुस्वरेरपि । एतदुद्एं मया तात अपूर्व वद्तांघर | ९५ | 
` कथयस्व प्रसादान्मे यदि त्वं वेत्सि कारणम्‌ । 

सा का नारी महाभाग कस्मात्तात प्ररोदिति ॥ ५५॥ 

कस्मात्स देवपुरुषो देवमचेन्महेश्वरम्‌ । तन्मेत्वं विस्तराद्‌ घ हि सरवेसन्देहकारणम्‌ 

एवमुक्तो महाप्रक्ष: कुञ्जलोऽपि सुतेन दि । कपिजलेन प्रोवाल विस्तराच्छृण्बतो गो 

इतिश्रीपादमपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाद्दात्म्ये च्यवनचरित 

पएकाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥ 


क लागि 


` ३३४ 


दुञ्यधिकशततमोऽध्यायः 
झुंकरस्य पार्वेतीदोहदपूरणायनन्दनवनग्रस्थानम्‌ । 


एकदा तु महादेवी पार्वती प्रमदोत्तमा । क्रीडमाना महात्मांनमी श्वर छ 

ममोरसि महादेव जातं महत्सुदोहदम्‌। दशयस्व ममाग्रे त्वं काननं काननोत्तम! 
` _श्रीमहादेच उवाच | 

एवमस्तु महादेवि नन्दनं देवसडुलम्‌। दशयिष्यामि ते पुण्यं द्विजसिद्धनिषेषि न 

'एवमाभाष्य तां देवीं तया सहगणैस्ततः । जग्मतुवेत्स तौ देवो नन्दनं वनमेव || 

सर्वाडुखुन्दर दिव्यपृष्ठमाभरणैयु तम्‌ । घण्टामालामिसंयुक्त किङ्किणीजालमार्णि| 

चामरे: दकष कतमा लाउगो सितर,५ ्ंछ्नदीकइ्ं चारलक्षण | 


ऽध्यायः ] ` * नन्दनवनशोभावर्णनम्‌ # 


महादेचो गणकोटिसमावृत: । 
` त्रत्दिभक्रिमहाकालस्कन्दचण्डमनोहरा ॥ ८॥ 
गणेशश्च पुष्पदन्तो गणेश्वरः | अतिबल: सुवलो नाम मेघनादो घरावहः ॥ 
धण्टाकर्णश्व कालिन्दः पुलिन्दो घीरवाहुकः। 
केशरी किङ्करो नाम चन्द्रहासः प्रजापतिः ॥ १०॥ 
बन्य च वहवः सनकाचघास्तपोबकाः। गणैश्च कोरिसङ्घ्यातैः सशिषः परिचारित 
ष बतमेवापि सेवितं देवकिन्नरेः । प्रचिवेश महादेवो गणैदेब्या समन्वितः ॥ 
ग्रास देवेशो गिरिजा झुशोभनम्‌। नानापादपसम्पन्न बहुपुष्पसमाकुलम्‌॥ 
ते| दिव्यरम्भावनाकीर्ण पुष्पचद्व्र्तु चम्पके; । 
मलिकामि सुजुष्पासिर्मालतीजालसङ्कुछम्‌ ॥ १४॥ 
र पुष्पितशाखा मिः पाटळानां वनोत्तमे: । राजमानं महादृक्षश्वन्द्नेश्चारुगन्धिभि 
हिनु ४ तुङ्गवक्षः .खसाङुलम्‌। सरलेर्नारिकेलेश्व तद्वत्पूगीफलद्रमैः ॥ १६ ॥ 
एनसेदिव्येः . फलभाराचना मितेः । परिमलोद्रारसंयुक्तेगु रुवक्षसमाकुलम्‌ ॥१७॥ 
अप्नितेजः समाभासैः सत्तवर्णे: सुशोभितम्‌। 

राजवृक्षः कदस्वश्व॒ पुष्पशोभान्वित सदा ॥ १८॥ न 
(प्वमहावृक्षेमा तु छिङ्गः समाकुलम्‌ । नारङ्गैः सिन्धुषारैश्च प्रियालैः शालतिन्दुकै 
बब; कपित्थेम्च जम्बूपाद्पशोसितम्‌। लकुचेः पुष्पसौगन्धेः स्फुटनागैः समाकुलम्‌ 
धिफछराजाचेनीलैश्चैच घनोपमैः । नीले शालवनेदिव्येर्जाळानां तु घनैस्ततः ॥ 
एषितु विशालश्च सेचितं तपनोपमैः । शोभित नन्दनं पुण्यं शिवेन परिदशितम्‌ ॥ 
च दुमैद्वान्येः सवैनीलवनोपमैः । सवंकामफलोपेतैः कल्याणफलदायकः ॥ 
द E शोभितं नन्दनं बनम्‌ । नानापक्षिनिनादैश्च सङ्कुलं मधुरस्वरैः ॥ 
नं रुते पुण्यरुदुघुष्टं मघुका रिभिः । मकरन्दषिळुब्धानां पक्षिणां रुतनादितम्‌ 
| नानावृक्षे: समाकीर्ण नानासूगगणायुतम्‌। 
भेम्यो निनि पशफेजौगन्जे-प्रतिते्क्ति। IRR by ०0519०0 


वी | 


1. 


३३६ अ पाद्यपुराणम्‌ % ह ~ | 
सा च भू राजते पुत्र पूजितेव सुगन्धिभिः । तत्रवाप्यो bd पद्मसौगर 
तोयैस्ताः पूरिताः पु्रहंसकरण्डसेचिताः । तडागः सागरःप्रख्य गन्थपि 
नन्दनं माति सवंत्र गणैरप्सरसां महत्‌ | विमानेः कळशैः शुभ्र हेमदण्डैः सुशो 
नन्दनो बनराजस्तु प्रासादैस्तु सुधान्वितेः । यत्र तत्र प्रसात्येच किन्नराणां महाण 
गन्धदँरप्सरोभिश्च खुरूपाभिद्ठिजोत्तम । देवतानां चिनोदैश्व सुनिवृन्देः सुयो 
सर्वत्र शुशुमे पुण्यसंस्थानं नन्दनस्य च ॥ ३२ ॥ 
एवं समालोक्य महानुभावो भवः खुदेव्या सहितो महात्मा । 
श्रीनन्दनं पुण्यवतां निवासं सुखाकरं शान्तिशणोपपन्नम्‌। ३३॥ 
आदित्यतेजःसमतेजसां गणैः प्रभाति चै रश्‍्मिभिर्जानरूपः । 
पुष्पैः फलैः कामगुणोपपन्नः कल्मदुमौ नन्द्नकाननेऽपि ॥ ३४॥ | 
एवं चिघं पादपराजमेंव संवीक्ष्य देवी च शिवं वभाषे । | 
अस्याभिघानं कथयस्व नाथ सर्वेस्य पुण्यस्य नगस्य पुण्यम्‌ ॥ ३५॥| 
तेजस्विनां सूर्यचरः समन्तात्सदेवदेचीं च शिवो बभाषे ॥ ३६॥ | 
शिवडवाच । 
अस्य प्रतिष्ठा महती शुभाष्य देवेषु मुख्यो मंधुसूदनम्ध । . र 
नदीषु मुख्या सुरनिम्नगा5पि पिसृशिकर्त्ताडपि यथेव घाता ॥ ३३॥| 
सुखाबद्दानां च यथा सुचन्द्रो भूतेषु मुख्या च यथैच पृथ्वी।. | 
नगेन्द्रराजो हि यथा नगानां जलाशयेष्वेच यथा समुद्रः ॥ ३८॥ 
महीौषधीनामिव देवि चान्नं महीधराणां हिमवान्यथेव । 
विद्यासु मध्ये च यथात्मविद्या लोकेषु सवेछु यथा नरेन्द्रः। | 
तथैष मुख्यस्तरुराज एष सर्घातिथिद्घपतेः प्रियो5्यम्‌.॥ ३६॥ ` | | 
श्रीपार्वत्युवाच । 5 
गुणान्दु शम्भो मम कीत्तेयस्व बृक्षाधिपस्यास्य शुभान्सुपुण्याद। | 
००-0. आकरे देखो: करनं तजे देडमास्तु शम व्खुसतरोदिस् | ४०॥ | 


२] 22) 


८ 


८ तततो ऽध्यायः ] ॐ गिरिज्ञायेकल्पदुमे णरतीरल्लप्रदानम्‌ ह ३३७ 

| प्र यं कल्पयन्ति. खुपुण्यदेचा देवोपमा देववराश्च कान्ते । 

॥ ततं हि तेम्यः प्रददाति दक्षः कल्पद्रुमो नाम चरिष्ठ एषः ॥ ४१ || 
अस्माच्च सर्वे प्रभवन्ति पुण्य दुष्डाप्यमत्रेव तपोऽधिकास्ते | 
ज्ञीवाधिक रत्नमयं .खुदिव्यं देघास्तु भुञ्जन्ति महाप्रधानाः ॥.४२ ॥ 
शु्राव देवी. वचनं शिवस्य आश्चर्यभूतं मनसा विचिन्त्य । ` 
तस्याचुमत्या परिकल्पितं च स्रीरत्नमेक सुगुणं सुरूपम्‌ ॥ ४३ ॥ 
सर्वाडरूपां सशुणां सुरूपां तस्मात्सुवृक्षाद्विरिज्ञा प्रलेमे ॥ 
विश्वस्य मोदाय यथोपविष्टा साहाय्यरूपा मकरध्वजस्य ॥ ४४ ॥ 
क्रीडानिधानं खुखसिद्धरूपं सर्चोपपन्ना कमलायताक्षी । 
पद्मानना पझकरा झुपझा चामीकरस्यापिं यथाः सुंसूतिः ॥ ४५ ॥ 
प्रभाखु तद्वद्विमळाछु तेजोलीलासु तेजाश्च सुकुञ्चितास्ते । 

. प्रलम्वकेशाः परिसूद्ध्मबद्धा- पुष्पे: सुगन्धैः परिलेपिताञ्च ॥ ४६ ॥ 
प्रद्धकुन्ता हुढकेशवन्धैचिभाति सा रूपवरेण बाला.। 
सीमन्तमागें च सुक्ताफलानां माला विभात्येष यथा तरूणाम्‌ ४७। 

: सीमन्तमूळे .तिळकं. सुदेव्या यथोदितो दैत्यगुरुः सतेजा: । 
भालेषु पद्मे सृगनाभिपद्ससुत्थतेजःप्रकरेविभाति ॥ ४८॥ ` 
सीमन्तमूळे तिलकस्य तेजः प्रकाशयेटूपश्चियं जुलोके। | 
केरोषु मुक्ताफलके च भाले तस्याः सुशोमां. विकरोति नित्यम्‌ ॥ ४६ ॥ 
यथा सुचन्द्रः परिभाति.भासा सा रभ्यचेशव बिभाति तद्वत्‌.। 
सम्पूर्णचन्द्रो ऽपि: यथा विभाति ज्योत्स्नाबितानेन हिमांशुजालः ॥ ५० ॥ 

` तस्यास्तु चकत्रं परिभाति तद्वच्छोभाकरे विश्व 'विशारद्‌ंः च । 
हिमांशुरेचापि कलङ्कयुक्तः संक्षीयते नित्यकला विहीनः ॥ ५९॥ 
सम्पूर्णमस्त्येच सदेव इट -तस्यास्तु बबत्रं परिनिष्कलङ्कस्‌ । 


५२ ॥ 


"गन्ध | 
CC-0 एरा कमळे shu :स्वकीयं aranasi समा ection एल ized by eGangotri 


बट अ पाझपुराणम्‌ अ [२ भू, 

 _दमानना सर्वगुणोपपन्ना मदीयमावैः परिनिर्मितेयम्‌। | 

` गनध स्वकीयं तुविपस्य पं तस्या सुखाद्वाति जगत्समीरः ॥ ५३। | 
ळज्जाभियुक्तः सहसा बभूव जल समाश्रित्य सदेच तिष्ठति ॥ ५४ 


सुन्न: सुनासिका तस्याः सुकणौं रत्नभूषितो । 
दा न्सिलमोपेती कपोलौ दीतिसंयुतौ ॥ ५७॥ 
शेखात्रयं प्रशोमेत ग्रीघायां परिसंस्थितम्‌ । सौभाग्यशीळउङ्गरेस्तिस्रो रेखा इहै 
सुस्तनौ कठिनौ पीनौ वर्तलाकारसन्निभौ । तस्याः कम्द्पेकलशाचभिपषेकायकसि 
` अंसावतीव शोभेते सुसमौ मानसान्वितौ । 
सुभुजौ चर्तुळौ शलक्षणौ.सुचणौ लक्षणान्वितौ ॥ ६० ॥ र 
सुसमौ करपद्यमी तु पद्चचणौं सुशीतलो । दिव्यलक्षणसम्पन्नौ . पद्मस्चस्तिकसंय 
सरलाः पद्मसंयुक्ता अजुल्यस्तु नखान्विताः । 
नखानि च सुतीक्ष्णानि जळबिन्दुनिभानि च ॥ ६२॥ 
पझगर्भेप्रतीकाशो चर्णस्तदङ्गसम्भवः | पद्मगन्धा च सर्चाङ्गे पञ्चेति भाति भामि] 
सवंलक्षणसम्पन्ना नगकन्या सुशोभना ।. 
रक्तोत्पलनिभौ पादौ सुश्लक्ष्णी चातिशोभनी ॥ ६४ ॥. 
रत्नज्योतिःसमाकारा नखाः पादाग्रसम्भचाः । 
यथोद्दिष्टं च शास्त्रेषु तथा चाङ्गेषु दश्यते ॥ ६५॥ । 
सर्वाभरणशोभाङ्गी हारकङ्कणनू पुरा । मेखछाकटिसूत्रेण काञ्चीनादेन याजते॥/ 
नीलेन पद्टवस्त्रेण परां शोभां गताशुसा । कञ्चुकेनापि दिव्येन सुरकेन गुणा 
पार्वती कल्पिताद्भाघादु गुणं प्राप्ता महोदयम्‌ । 
करुपदुमान्सुदं हेमे शङ्करं वाक्यमत्रचीत्‌ ॥ ६८॥ . 
यथोक त त्यया देव तथा दरो मया बुम; | दू, कले. स्तादुशं 


तमो $ध्याय: ] केह अशोकसुन्दर्युपाख्यानम्‌ ह ३३४ 
सूतउचाच । 
ब्ला चारुसर्वाङ्गी तयोः“पाशवँ समेत्य च । 
पादाम्बुजं ननामाथ सा भक्त्या भवयोस्तदा ॥ ७०॥ . 
उवाच घचनं स्निग्धं हयं दारि च सा तदा । 
कस्मात्खृष्टा त्वया मातः.कथयर्चाच कारणम्‌ ॥ ७१ ॥ 
श्रीदेव्युवाच । 

4 बौतुकाद्वावान्मया चे प्रत्ययः कृतः । सद्यः प्राप्तं फलं मद्रे,भवती रूपसम्पदा 
अशोकसुन्द्रीनास्ना लोके ख्याति प्रयास्यसि | 
सवंसौभाग्यसम्पन्ना सम पुत्री न संशयः ॥ ७३ ॥ 
हपु विख्यातो यथा देवः पुरन्द्रः। नहुषो नामराजेन्द्रस्तघनाथो भविष्यति ॥ 

खा वर तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम्‌ । कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युत्त 
पाए एणेद्वितीयेसू मिखण्डेवेनोपाख्यानेगुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे 

` इयधिकशततमोऽध्यायः। 


व्यधिकशततमो ऽध्यायः 
अशोकसुन्दर्युपाख्यानम्‌। 
' कुञ्ज उचाच । द 
उदरी जाता सबेयो षिद्वरा तदा । रेमे सुनन्दे पुण्ये सवंकामणुणान्चिते ॥ 
एरुपाभिः सुकन्या भिदेचानां चारुहासिनी । 
` सवान्मोगान्प्रभुज्ञाना गीतन्त्यघिचक्षणा ॥ २ ॥ 
बिप्रचित्तेः सुतो इण्डो- रौद्रस्तीवश्च सवेदा । 
|: सेच्छाचारो मद्यपी छनन्द्ने अरचिचेबाप्द बाद ॥0101700 by ०53100 


2 


# पाद्यपुराणम्‌ ॐ [२ ३ 
अशोकुन्दरी इष्ट्वा स्बालङ्कारसंयुतान्‌ । 


तस्यास्तु दर्शनादैत्यो विद्धःकामस्य मार्गणैः॥ ४॥ 
महाकायः का त्वं कस्यासि चा शुभे । 
कारणाच्चात्र आगताऽसि वनोत्तसम्‌॥ ५॥ 
अशोकसुन्दयु चाच । 
- शिषस्यापि ' सुपुण्यस्य सुताहं शु साम्प्रतस्‌ | 
१ स्वसाहं कार्तिकेयस्य जननी गोत्रजापि मे ॥ ६॥ 
बाळभावेन सम्प्राप्ता लीलया नन्दनं घनम्‌ । भघान्को हि किमथं तु मामेवं परि 
हुण्ड उवाच | | 
१६ १ 


विप्रचित्तेः सुतश्चाहं गुणळक्षणसंयुतः | इण्डेतिनाऱ्ना विख्यातो ळचीयम्ग| 
दवत्यानामप्यहं श्रेष्ठो मत्समो नास्ति राक्षखः । देवेषु मर्त्यळोकेणु तपसा यशस 
अन्येषु नागलोकेखु धनभौगेवंरानने । दर्शनात्ते विशाळाक्षि हतःकन्दपमार्गणैः 
शरण ते हाहं प्राप्तः प्रसादसुमुखी भव । भवस्व बह्मा भार्या मम प्राणसमा 
अशोकसुन्द्यु वाच । 1 
श्रूयतामभिघास्यामि सर्वेसम्बन्धकारणम्‌ । भवितव्या सुजातस्य लोकेस्री पुर 
भवितव्यस्तथा भर्ता खिया यः सद्दशो गणे: । 
संसारे लोकमागोंऽयं शण हुण्ड यथाविधि ॥ १३॥ 
अस्त्येव कारणं चात्र यथा तेन भवाम्यहम्‌ । सुभायां देत्यराजेन्द्र *रणुष्व यल 
वृक्षराजादहं जाता यदा काले महामते । शम्भोर्भाव॑ सुसङ्गृहम पार्वत्या कति 
देवस्यानुमते देव्या सृष्टो भता ममैच हि । सोमवंशे महाप्राज्ञ स धर्मात्मा ग 
` जिष्णुजिष्णुसमो वीर्ये तेजसा पाचकोपमः । सवेज्ञ; सत्यसन्धम् त्यागे व णः 
यज्वा दानपतिः सोऽपि रूपेण मन्मथोपमः । 
नहुषो नाम धर्मात्मा गुणशीलमहानिधिः,॥ १८॥ 
००-०. ००बैत्या-केनेज,मे द-ल्याठो “भरता. अकिष्यति 4००१००४ ` 


३४० 


तामुवाच 
कस्मात्त्वं ड 


मोऽध्यायः ]% इण्डस्याशोकसुन्दर्यासहसङ्गमायचार्तालापः # ३४१. 


पुत्रमाप्स्यांम सुन्द्रम्‌॥ १६ ॥ * 
5 ढोके ययाति जनवल्लभम्‌। लप्स्याम्यहं रणे घीरं तस्माच्छम्भोःप्रसादत 

| परभार्या चिशेषतः । अतस्त्वं सवेथा हुण्ड त्यज भ्रान्तिमितो व्रज 

प्रहस्येच घचो व्रत अशोकसुन्द्री प्रति ॥ २२ ॥ 

हुण्ड उचाच | - 

हत्या प्रोक्तं देव्या देवेन चैव हि । नहुषो नाम धर्मात्मा सोमवंशे भविष्यति 

वयसा श्रेष्ठा कनिष्ठो न ख युज्यते। कनिष्ठा स्त्री प्रशास्ता तु पुरुषो न प्रशस्यते 

भद्रे तव भर्ता भविष्यति । तारुण्यं यौवनं चापि नाशमेवं प्रयास्यति 

म. बठेतापि रूपवत्यः सदा स्त्रियः । पुरुषाणां घललभत्वं प्रयान्ति घरचर्णिनि ॥ 
(हि महामूछं युवतीनां चरानने। तस्याऽऽधारेण भुञ्जन्ति भोगान्कामान्मनो ऽचुगान्‌ 

छ| कदासोऽम्येष्यते भद्रे आयोः पुत्रः श्टणुष्च मे । 


७, 


न शिशुत्वं च कौमारं च निशामय । कदा5सौ यौचनोपेतस्तव योग्यो भविष्यति 
स्य प्रभावेण पिबस्च मधु माधवी । मया सह विशालाक्षि रमस्व त्वं सुखेन चे 
हय षचनं श्रुत्वा शिवस्य तनया पुनः । उचाच दानवेन्द्रं तं साध्वसेन समन्विता 
' तिके प्राप्ते द्वापराख्ये युगे तदा । रोषाघतारो धर्मात्मा वसुदेचसुतो बलः ॥ 
| रेतस्य सुतां दिव्यां भार्या ख च करिष्यति। ` 
` सापि जाता महाभाग छृताख्ये हि युगोत्तमे ॥ ३३ ॥. 
शुक्षप्रमाणेन सा हि ज्येष्ठा बळादपि । बलस्य सा प्रिया जाता रेवती प्राणसंमिता 
बियद्वापरे प्राप्त इह सा तु भविष्यति । मायावती पुरा जाता गन्धवेतनया बरा ॥ 
_ हित नियम्यैव शम्बरो दानवोत्तमः । तस्या भर्ता समाख्यातो माधवस्य सुतो बली 
“ भिनाम धीरेशो यादवेश्वरनन्दनः । तस्मिन्युगे भविष्ये तु भाव्यं दष्टं पुरातनेः ॥ 
व्यासादिमिमेहाभागेज्ञानव द्विमेहात्ममिः । 
एवं हि दश्यते दैश्य वाक्यं देव्या तदो दितम्‌ ॥ ३८ ॥ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


व र र | . क पाझपुराणम्‌ क [२ 
माँ प्रति हिं जगद्धाच्या पुनया हिमघतस्तदा । 
त्वं तु लोभेन कामेन लुब्धो घदसि दुष्ठतम्‌ ॥ ३६ ॥ 
' किस्बिबेण समाचष्ट वेदशाञ्जविवर्जितम्‌ । यद्यस्य दिष्टमेवास्ति शुभं 
पूर्वकर्माचुसारेण तत्तस्य परिजायते । देवानां ब्राह्मणानां च वढ्ने यत्सुाष्ि| 
निःसरेद्यदि सत्यं तदन्यथा नेव जायते । मङ्गाग्यादेचमाज्ञातं नहुषस्यापि तय 
समायोगं विचार्यैवं देव्या प्रोक्तं शिवेन च । 
एवं ज्ञात्वा शमं गच्छ त्यज भ्रार्ति मनःस्थिताम्‌ ॥ ४३॥ 
नैव शक्तो भवान्दैत्य मे मनश्वालितु' झुचम्‌ । 
पतिव्रताहूढं चित्तं ख को मे चालितु क्षमः ॥ ४४ ॥ 
महाशापेन धक्ष्यामि इतो गच्छ महासुर । एवमाकण्ये तद्वाचयं इण्डो वे दानवो{ 
मनसा चिन्तयामास कथं भार्या भवेदियम्‌ । 
चिचिन्त्य हुण्डो मायाची अन्तर्धानं समागतः ॥ ४६ ॥ 
अन्यस्मिन्दिचसे प्राप्ते भायां कृत्वात मोमयीम्‌ । 
दिव्यं मायामयं रूपं इत्वा नार्यास्तु दानचः ॥ ४७ ॥ 
मायया कन्यकारूपो बभूव मम नन्दन । सा कन्याऽपि वरारोहा 
हास्यलीलासमायुक्तं यत्राऽऽस्ते भवनन्दिनी। उवाच चाक्यं,खिग्धेच अशोकसुदरी 
कासि कस्यासि सुभगे तिष्ठसि त्वं तपोचने । किमर्थ क्रियते(वाले कामशोषणर{ 
तन्ममाचक्ष्व सुभगे कन्निमित्तं सुदुष्करम्‌ । 
तन्निशम्य शुभं वाक्यं दानवेनापि भाषितम्‌ ॥ ५१॥ 
मायारूपेण छन्नेन साभिलाषेण सत्वरम्‌। आत्मसृष्टिसुचृत्तान्तं प्रवृत्त तु यथा | 
तपसः कारणं सवं समाचष्ट सुदुः खिता | उपप्लवं तु तस्यापि दानवस्य दुराता 
मायारूपं न जानाति सौहृदात्कथितं तया ॥ ५३ ॥ 
हुण्ड उचाच | 
पतिव्रतासि हे देवि साधुव्रतपरायणा 1 साधुशीलसमात्वारा साधुचारा 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


छौँ :] कऋअशोकसुन्द्योकुमारीछ्रूपधारिणाहुण्डेनचार्तालापः# ३४३ | 
(वा भद्रे पतित्रतपरायणा । तपश्चरामि सुभगे भतु रथें महासती ॥ ५५॥ 

पता हतस्तेन इण्डेनापि डुरात्मना। तस्य नाशाय वे घोरं तपस्यामि महत्तपः ॥ . 
| मे पुण्ये गङ्गातीरै वसाम्यहम्‌ । अन्यैमेनोदरैर्घाक्यैरुका प्रत्ययकारकैः ॥ . 

॥ , सति भावेन मोहिता शिवनन्दिनी । समाकृष्टा सुवेगेन महामोहेन मोहिता ॥ 
आनीता55त्मग्रहं दिव्यमनौपम्यं सुशोभनम्‌। 

मेरोस्तु शिखरे पुत्र वेडूय्यांख्यं पुरोत्तमम्‌ ५६ ॥ 

(त सर्बणुणोपेतं काञ्चनाख्यं महाशिवम्‌ । तुङ्गप्रसादसम्बाधैः कलशदेण्डचामरेः 
ृक्षसमोपेतैबनैनी लैधेनो पमः । चापीकृपतड़ागैश्व नदीभिस्तु जलाशये: ॥ ६१॥ | 
पानं महारत्नैः प्राकारेहेमसंयुतेः । सर्वकामसमृद्धाथं सम्पूर्ण दानघस्य हि॥ | 
सा पुरं रम्यमशोकसुन्द्री तदा । कस्य देवस्य संस्थानं कथयस्च सखे मम ॥ 
बाच दानवेन्द्रस्य दृष्टयूवेस्य वै त्वया । तस्य स्थानं महाभागे सोऽहं दानघपुङ्गवः 
मय एत्वं तु समानीता मायया घरघर्णिनि । 

गुहं नीता शातकोम्मं सुशोभनम्‌ ॥ ६५॥ 

समाञुष्टं केलासशिखरोपमम्‌ । निवेश्य सुन्दरी तत्र दोलायां कामपीडित 
ह स्वरुपी दतयेन्द्रः कामचाणप्रपीडितः । करसम्पुरमाबध्य उचाच वचनं सदा ॥ 
यं यं त्वं चाञ्छसे भद्रे तं तं ददुमि न संशयः। 

भज मां त्वं विशालाक्षि भजन्तं कामपीडितम्‌॥ ६८॥ 


अशोकखुन्द्यंचाच । ब 
चालयितु' शक्तो भवान्मां दानवेश्वर । मनसापि न वै धार्यं मम मोहं. समागतम्‌ । 


हापापदवर्घा दानघाधमैः । दुष्प्राप्याहं न सन्देहो मा घदस्घ पुनः पुनः ॥ 
स्कन्दानुज्ञा सा तपसासियुक्ता जाज्चल्यमाना महता रुषा च | 

सहतु कामा परिदानचं तं कालस्य जिह्ंघ यथा स्फुरन्ति ॥ ७१॥ 

सा देवी तमेचं दानचाधमम्‌। उग्रं कमे इतं पाप ! चात्मनाशनहेतवे ॥७२। 
| . आत्मवंशस्य नाशाय स्चजनस्यास्य वे त्वया। | 


४ 
५ 
| 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


३४४... `. --#पापुराणम्‌क ` ` ' [२ 
दीप्ता स्वग्रहमानीता सुशिला कृष्णवत्मंनः ॥७३॥ 
यथाऽशुभ कूटपक्षी सर्वशोकेः समुद्गतः । ग्रह तु विशते यस्य तस्य नाशं प्रय 
स्वजनस्य च सर्वस्य सघनस्य कुलस्य च। . ` 
द्विजो नाशमिच्छेत विशत्येव यंदा गृहम्‌ ॥ ७५ ॥ 
तथा तेऽहं गृहं प्रा्ता तव नाशं समीहती । पुत्राणां धनधाग्यस्य तव वंशस्य स 
जीवं कुळं धनं चान्यं पुत्रपौत्रादिकं तच । 
“सव ते नाशयित्वाऽहं यास्यामि च न संशयः ॥ $9 ॥ ` 
यथा त्वयाऽहमानीता चरन्ती परमं तपः । पतिकामा प्रचाञ्छन्ती नहुषं चाय 
तथा त्वां मम भर्त्ता च नाशयिष्यति दानव! । मन्निमित्त उपायोऽयं दृष्टो देवेन वेष] 
सत्येयं लौकिकी गाथा यां गायन्ति विदो जनाः । 
प्रत्यक्षं हश्यते लोके न घिन्दन्ति कुवुद्धयः ॥ ८० ॥ ४ 
येनयत्र प्रभोक्तव्यं यस्मादुदुःखसुखा दिकम्‌ । 'स एव भुञ्जते तत्र तस्मादेच न संग 
कर्मणोऽस्य्‌ फलं भुडक्ष्व स्वकीयस्य महीतले । f 
यास्यसे निरयस्थानं परदाराभिमशेनात्‌ ॥ ८२ ॥ 
सुतीक्ष्णं हि सुधारं तु सुखङ्गं च घिघट्टति । 
अङ्गुल्यग्रेण कोपाय तथा मां विद्धि साम्प्रतम्‌ ॥ ८३ ॥ 
सिंहस्य संमुखं गत्वा क्रुद्धस्य गजितस्य च । 
को छुनाति मुखात्केशान्साहसाकारसंयुतः ॥ ८४ ॥ 
सत्याचारां दमोपेतां नियतां तपसि स्थिताम्‌। | 
निधनं चेच्छते यो चे सबै मां भोक्तुमिच्छति ॥ ८५ ॥ 
समणि कृष्णसपेंस्य जीचमानस्य साम्प्रतम्‌ । 
ग्रहीतुमिच्छते सो हि यथा कालेन प्रेषितः ॥ ८६ ॥ 
भचांस्तु प्रेषितो मूढ कारेन कालमोहितः । 
तदा ते इंद्रशी जाता कुंमतिः किं न पंश्यसि॥ ८७॥ ` 


८७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| शक 
| तम ययः 1 ४ हुण्डबंघाथेमशोकसुन्दर्यास्तपःकरणम्‌ ३४५ 


। श एवमाभाषयित्वा तं गङ्गातीरं गता सती । 
| सशोका डुःखसंघिग्ना नियता नियमान्विता ॥ ८६॥ 

रितं { घोरं पतिकामनया तपः | तव नाशार्थमिच्छन्ती चरिष्ये दारुणं पुन: ॥ 
बाला निहतं दुष्ट नहुषेण महात्मना । निशितेवंज्जसड्काशेर्बाणेराशीचिषोपमः ॥ 
केतिपतित पापमुक्तकेशं खलो हितम्‌ । गतासुं च प्रपश्यामि तदा यास्याम्यहं पतिम्‌ 
पं एुतियमं इत्वा गङ्गातीरमजुत्तमम्‌ । संस्थिता हुण्डनाशाय निश्चला शिवनन्दिनी. 
वहेयेथा दीसिमती शिखोज्ज्चला तेजोऽभियुक्ता प्रद्हेत्सुलोकान्‌। 
क्रोधेन दीप्ता चिबुधेशपुत्री गङ्गातटे दुश्चरमाचरत्तपः ॥ ६४ ॥ 
| कुञ्जल उचाचं । | 
त्वा महाभाग शिवस्य तनया गता । गङ्गाम्भसि ततः स्नात्वा स्वपुरे काञ्चनाह्ृये 
रवार तन्वङ्गी डुण्डस्य वधहेतवे । अशोकञुन्द्री चाळा सत्येन च समन्विता ॥ 
पि दुःखितो भूतः शापद्ग्धेन चेतसा । चिन्तयामास सन्तप्त अतीवचचनानलैः 
[हय अमात्यं तं कस्पनाख्यमथात्रचीत्‌। समाचष्ट स वृत्तान्तं तस्याः शापोद्धचं महत्‌ 
' श्तोऽस्म्यशोकसुुन्द्या शिवस्यापि सुकन्यया । 
नहुषस्यापि मे भत्तुंस्त्बं तु हस्तान्मरिष्यखि ॥६६॥ 
नेव जातस्त्वसौ गर्भ आयोर्भाया च गुर्विणी । 
यथासस्याद्वघलीकस्तु तस्याः शापस्तथा कुर ॥ १०० ॥ 

कम्पन उचाच। 

हिय परियां तस्य आयोश्चापि समानय । अनेनापि प्रकारेण तच शत्रुन जायते ॥ 
| पातयस्व त्वं गर्भ तस्याः प्रभीषणैः | अनेनापि प्रकारेण तव शत्ुने जायते ॥ 
| ४ मतीक्षस्व नहुषस्य दुरातमनः। अपहृत्य समानीय जहि त्वं पापचेतनम्‌॥ 
आ तेनापि कम्पनेन स दानव: । अभूत्स उद्यमोपेतो नहुषस्य प्रणाशने ॥ 
| महाभाग आयुर्नाम -क्षितीश्वरः 1 सार्वभौमः स धर्मात्मा सत्यवतपरायण: ॥ 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| 
॥ 
|| 


आयुपुत्रेण समालोकयते हि कः । अन्यो हि निधनं याति ममरूपाचलोकनात्‌ | 


० 


डक पर ` # पाद्पुराणम्‌ क | [२ 
इन्द्रोपेन्द्समो राजा तपसा यशखा बलः । दानयझैः स्यश्च “सत्येन नियमेन इ | 
एकच्छत्रेण वै राज्यं चक्रे भूपतिसत्तमः । पृथिव्यां सर्वेधमेज्ञः सोमवंशस्य भूष्‌ 
| पुत्रं न चिन्दते राजा तेन दुःखी व्यजायत । 

चिन्तयामास धर्मात्मा कथं मे जायते सुतः ॥ १०८॥ 
इति चिन्तां समापेदे आयुश्च पृथिवीपतिः । पुत्रार्थ परमं यत्नमकरोत्सुसमाहिः । 
अत्रिपुत्रो महात्मा बै दत्तात्रेयो महासुनिः । क्रीडमानः स्त्रिया खाद्ध मदिरारणलोक 
चारुण्या मत्तधर्मात्मा खीदृन्दैश्च समावृतः । अड्डे युचतिमाधायसर्वयो षिद्वरा 
गायते नृत्यते विप्रः सुरां च पिवते भ्शम्‌ | विना यज्ञोपवीतेन महायोगीश्वरो 
पुष्पमालाभिदिव्याभिर्मुक्ताहरपरिच्छदेः । चन्द्नागुरुदिग्धाङ्गो राजमानो मुनी 

तस्याश्रमं लुपो गत्वा तं इष्ट्वा द्विजसत्तमम्‌ । ` 
प्रणाममकरोन्मूध्ना दण्डवत्सुसमाहितः ॥ ११४ ॥ 
अत्रिपुत्रः स धर्मात्मा समालोक्य नृपोत्तमम्‌ । 

आगतं पुरतो सत्तया अथ घ्यानं समास्थितः ॥ ११५॥ 
पदं चर्षशातं प्राप्तं तस्य भूपस्य सत्तम । निश्चलं शान्तिमापन्नं मानसं 

समाइय उवाचेदं किमथं क्लिश्यसे नृप । 
ब्रह्माचारेण हीनोऽस्मि ब्रह्मत्वं नास्ति मे कदा ॥ ११७ ॥ 
सुरामांसप्रलुब्धोऽस्मि खियासक्तः सदेव हि । घरदाने न मे शाक्तिरन्यं शुश्रूष 


| आयुरुचाच । | 
अवाद्दशो महाभाग नास्ति त्राह्मणसत्तमः । सवकामप्रदाता वै त्रैलोक्ये परमेध 


अत्रिवंशी महाभाग गोचिन्दः परमेश्वरः । ब्राह्मणस्य स्चरूपेण भघान्ये गरुडध्वश 
नमोऽस्तु देवदेवेश नमोऽस्तु परमेश्वर | त्वामहं शरणं प्राप्तः शरणागतवत्सग 
उद्धरस्व हृषीकेशं भायां इत्वा प्रतिष्ठसि । | 
विश्वस्थानां प्रजानां तु विद्वांसं चिश्वनायकम्‌ ॥ १२२॥ 
जानाम्यहं जगन्नाथं भवन्तं मधुसदेनम्‌ । मामेव रक्ष गोविन्द विश्वरूप नमो 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


2 कुजल उवाच | / $ 
छ रुतिये काळे दत्तात्रेयो दुपोत्तमम्‌ । उचाच मत्तरुपेण कुरुष्व चचन मम ॥ 
कपाले मे खुरां देहि पाचितं मां | ठक 
एवमाकण्ये तद्वाक्यं स चायुः पृथिवीपतिः ॥ १२५ ॥ 
उत्खुकस्तु कपालेन खुरामाहत्य वेगवान । 
पलं खुपाचितं चैव च्छित्त्वा हस्तेन सत्वरम्‌ ॥ १२६ ॥ 


८ राजोवाच | 
वादाता बरं सत्यं कृपया सुनिसत्तम । पुत्र देहि गुणोपेतं सर्वज्ञ गुणसंयुतम्‌ ॥ 
हेतीर्थाचनकरमजेयं दिवदानवैः । क्षत्रियेराक्षसेघोरेदांनवे: किन्नरैस्तथा ॥ १३१ ॥ 
(काह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः । यज्चा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ॥ 
(ता मोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः । घनुर्वेदेघु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः 
्हतमतिर्धीरः सङ्ग़ामेष्वपराजिततः। एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ॥ 


दत्तात्रेय उचाच। 


॥४णेस्तु संयुक्तो वैष्णचांशेन संयुतः । राजा च सार्वभौमश्च इन्दतुल्यो नरेश्वरः 

ड घर द्त्वा ददौ फल्मनुत्तमम्‌। भूपमाह महायोगी सुभार्याये प्रदीयताम्‌ ॥ 

शिखा विसुज्येच तमायुं प्रणतं पुरः। आशीसिरभिनन्येच अन्त्द्धानमधीयत ॥ 
पदमपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्येच्यबनच रिरे 

| ज्यधिकशततमो ध्यायः । 


नल लता आन ना 


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_्कातमोऽ्ययः ] *कुञ्जलखत्कारपसन्नस्यद्त्तात्रयस्यचरप्रदानम्‌ र ३४७. 


हपु महाभाग मम वंशप्रधारकम्‌ । यदि चापि घरोदेयस्त्वया मे कपया विभो | 


दर! प्रददौ चापि दत्तात्रेयाय सत्तम । अथपसन्नचेताः स सञ्जातो सुनिपुङ्गवः ॥ : 
वा भक्ति प्रभावं च शुरुशुश्रूषणं परम्‌ । समुघाच नृपेन््र' तमायुं प्रणतमानसम्‌ | 
| भद्र ते डुलेम॑ सुचि भूपते । सवंमेच प्रदास्यामि यं यमिच्छसि साम्प्रतम्‌ ॥ | 


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चत्रधिकशततमो ऽध्यायः 
२9 
इन्दुमतीगर्भवर्णनम्‌ । 
कुञ्जल उवाच । | 
गते तस्मिन्महाभागे दत्तात्रेये महामुनौ । आजगाम महाराज आ स्वपुरं प्रति|| 
इन्दुमत्या गृहं हृष्टः प्रविवेश श्रियान्वितम्‌ । सर्वेकामसम्दडार्थी सदनोपफा | 
राज्यं चक्रे स मेघाची यथा स्वर्णे पुरन्द्रः। स्वर्भाचुसुतया साद्धमिन्दुमत्या द्विजोग| 
खा च इन्दुमती राज्ञी गर्भमाप फलाशनात्‌ । दत्तात्रेयस्य घचनादिव्यतेजःसमन्वित्र| 
इन्दुमत्या महाभाग स्वप्नं दृष्टमचुत्तमम्‌ | रात्री दिवान्वितं तात चहुमडूलदायक्ष| 
ग्रहान्तरे विशन्तं च पुरुषं सूर्यसन्निभम्‌ । 
मुक्तामालान्वितं विप्रं श्वेतवस्त्रेण शोभितम्‌॥ ६॥ 
श्वेतपुष्पछतामाला तस्य कण्ठे विराजते । सर्वाभरणशोभाङ्गो दिव्यगन्धानुलेप || 
चतुर्भुजः शङ्कुपाणिगेदाचक्रासिधारकः । छत्रेण ध्रियमाणेन चन्द्रविस्बानुकारिण। | 
शोभमानो महातेजा दिव्याभरणभूषितः । हारकङ्कणकेयूरेन्‌ पुराभ्यां विराजिह। न 
चस्द्रविस्बानुकाराभ्यां कुण्डलाभ्यां विराजितः । 
एवं विधो महाप्राज्ञो नरः कश्चित्समायतः ॥ १०॥ | 
इन्दुमती समाइय स्नापिता पयसा तदा । शङ्खेन क्षीरपूर्णन शशिवर्णन भाग 
रत्नकाञ्चनवद्धेन सम्पूर्णन पुनःपुनः । शवेतं नागं सुरूपं च सहस्रशिरसं वर्ण 
महामणियुतं दीप्तं घामज्वालासमाकुलम्‌ । क्षिप्तं तेन मुखप्रान्ते दत्तं मुक्ताफछ 3 
कण्ठे तस्याः स देवेश इन्दुमत्या महायशाः । 
पझं हस्ते ततो दक्त्वा स्वस्थानं प्रतिजग्मिवान्‌ ॥ १४ ॥ 
एवं विधं महास्वप्नं तया दुं सुतोत्तमम्‌। समाचष्ट महाभागा आयुं भूमिप | 
. समाकण्यं महारांजश्विन्तयामास वै पुनः | समाहूंय गुरं पश्चास्कथितं स 


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प 


| | | | 
। ह्ञधिकशततमो$ध्याय: ] क इुण्डेनइन्दुमत्याबाटकस्यछटेनग्रहणम्‌ + ३४६. 
य शौनकं सुमहाभागं सर्वेज्ञ ज्ञानिनां वरम्‌॥ १७॥ । 
फी राजोचाच | | 
अद्यरात्रौ महाभाग मम पत्न्या द्विजोत्तम | | | 
विप्रो गेहं चिशन्दरष्टः किमिद्‌ स्वप्नकारणम्‌॥ १८॥ | 
Ef ` शौनक उचाच | | 
। हो दतस्तु ते पूर्व दत्तात्रेयेण घीमता । आदिष्टं च फळं राज्ञा सुशुणं सुतहेतवे ॥ ' 
। | नळ किते राजन्कस्मै त्वया निवेदितम्‌ । सुभार्यायै मयाद्त्तमिति राज्ञोदितं वचः | 
तोवाच महाप्राज्ञ शौनको दविजसत्तमः । द्त्तात्रेयप्रसादेन तव गेहे सुतोत्तमः ॥ 
॥ ैणवांरोन संयुक्तो भविष्यति न संशयः । स्वप्नस्य कारणं राजन्नेतत्ते कथितं मया 
,्ोपद्रसमः पुत्रो दिव्यचीर्यो भविष्यति । पुत्रस्ते सर्वधर्मात्मा सोमवंशस्य चर्द्धनः 
धनुर्वेदे च वेदै च सगुणो$सो भविष्यति । 
| पवसुक्त्वा ख राजानं शौनको गतवान्ग्रहम्‌ ॥ २४ ॥ 
| हर्षण महताविष्टो राजाभूत्प्रियया सह ॥ २५॥ 
| इतिथ्रीपादपुराणे द्वितीयेभूमिलण्डेवेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यघनचरित्र 
। चतुरधिकशततमोऽध्यायः । | 


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पञ्चाधिकशततमो ऽध्यायः ` 
हुण्डेनइन्दुमत्याःप्रहतबालकस्यछग्मनाग्रहणम्‌ । 
कुञ्जल उचाच । | 

१ ऐसा नन्दनवनं सखी भिः सह क्रीडितुम्‌ । तत्राकर्ण्य महद्वाक्यमभ्रियं तु तदा पितुः 
एणा सुसिद्धानां भाषतां हर्षणेन तु । आयोगेहे महाबीयों विष्णुतुल्यपराक्रमः 
४ उत्थेषठी इण्डसयालतं,क रितिः] पहिम द्वदायकम्‌ 


३००" गड ॐ पाद्यपुराणम्‌ # । 
समाकण्बै समायाँता पितुरमे निवेदितम । समासेन तया तस पुरतो दुःखदायक 
` चितुरम्रे जगादाऽथ पिता शरुत्वा स विस्मितः । 
` शापमशोकसुन्दर्याः सस्मारे च पुरा छतम्‌ ॥५॥ 
उतस्याथै तपस्तेपे. सेयं चाशोकसुन्द्री । गर्भस्य नाशनायैच इन्दुमत्याः स दानका 
चिचक्रे उद्यमं दुष्टः काळाङृष्टो दुरात्मवान्‌ | 
-ठिद्रान्वेषी ततो भुत्वा इन्डुमत्यास्तु नित्यशः ॥ ७ ॥ 
यदा पश्यति तां राज्ञीं रूपौदार्यशणान्विताम्‌ । 
.दिन्यतेजःसमायुक्तां रक्षितां विष्णुतेजसा ॥ ८ ॥ | 
दिव्येन तेजसा युक्तां सूर्येविम्बोपमा तु ताम्‌ । 
तस्याः पाश्वे महाभाग रक्षणार्थं स्थितः सदा ॥ ६ ॥ 
अ दानचो दुष्टस्तस्याश्च वहु दर्शयन, । 
नानाविद्या महोग्नां च भी षिकां खसुचिभी षिकाम्‌॥ १०॥ | 
गर्मस्य तेजसा युक्ता रक्षिता विष्णुतेजसा । भयं न जायते तस्या मनस्येच कदा पुर 
चिफलो दानवो जात उद्यमश्च निरर्थकः | मनीषितं नेव जातं हुण्डस्यापि दुरातः 
'एवं चर्षशत पूणं पश्यमानस्य तस्य च । प्रसूता सा हि पुत्र च स्वर्भानोस्तनया छ| 
रात्राचेच सुततश्रेछ तस्याःपुत्रो व्यंजायत। तेजसातीव भात्येष यथासूर्यो नभस्तरे| 
अथ दासी महादुष्टा काचित्सूतिणुहागता । अशौचाचारसंयुक्ता मदामङ्गखवादिती| 
तस्याः सर्च समाज्ञाय सहुण्डो दानचाधमः। . | 
दास्या अङ्गं प्रविश्येव प्रचिषटश्वायुमन्द्रि ॥ १६ ॥ 
महाजने प्रखुप्ते च निद्र्याऽतीच मोहिते । तं पुत्र देवगर्भाभमपहृत्य वहिगेतः ॥ १४ 
काञ्चनाख्यं पुरं पराः स्वकीयं दानचाधमः । 
समाइयप्रियां भार्या चिपुळां वाक्यमत्रचीत्‌ ॥ १८॥ 
'चधस्वैनं महापापं वाळरूपं रिपुः मम । पश्चात्सूदस्य चै हस्ते भोजनाथ प्रदीयता 
नानामेदैविलेद्रश पातयरुच हि बिष णम । घदहस्ताताहा भा गे क्वोक्ष्ये 289 


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वाक्यमाकण्य तद्वतु चिषुळा विस्मिताऽभवत्‌। 
कस्मान्निछु णतां याति भर्त्ता मम सुनिष्टुरः ॥ २१॥: 


कं कारुण्येन समन्विता । पुनः रि 2 
ह्षिंदिन्तयामास कारुण्येन उन: पप्नच्छ भर्तारं कस्माद्वश््यसि वालकम्‌ 
सङक्नुद्वो अतीवनिरपत्रपः । सवै मे कारणं ब्र 


हि तत्त्वेन दनुजेश्वर | 
[ च वृत्तान्तं समासेन निवेद्तिम्‌ । शोपेमशोकसुन्दर्या हुण्डेनापि बा 
“तया ज्ञातं तु तत्सर्य कारणं दानवस्य वे । 


बध्योऽयं बालकः सत्यं नो वा भता मरिष्यति ॥ २६ ॥ 
[प्रविचायैँच विपुला क्रोधमूच्छिता । मेकलां तु समाहय सैरन्ध्रीं 
हं बालक दुष्टं मेकले 5 महानसे । सूदंहस्ते प्रदेहि त्वं हुण्डभोजनहेतचे ॥ २८ ॥ 
बालक गृह्य सूदमाह्गय चात्रवी त्‌ । राजाऽऽदेशं कुरुष्वाच पचस्वेनं हि बालकम्‌ 
तेन सूदेनापि महात्मना । आदाय वालकं हस्ताच्छखमुद्यम्य चोद्यतः ॥ 
वै देवदेवस्य दत्तात्रेयस्य तेजसा । रक्षितस्त्वायुपुत्रश्न स जहास पुनःपुनः ॥३१॥ 
तं समाळोक्य ससूदः कृपयान्वितः! सैरन्ध्री च छपायुक्ता सूद्‌ तं प्रत्यभाषत 
यस्त्वया सूद शिशुरेव महामते । दिव्यलक्षणसम्पन्नः कस्य जातः सुसत्कुले 
E. सूद्‌ उचाच। 
त्वया भद्रे वाक्यं वै कृपयान्वितम्‌। राजळक्षणसम्पन्नो रूपवान्कस्य बालक: 
कस्माड्गोक्ष्यति दुष्टात्मा. हुण्डोऽयं दानघाधमः । 
येन.वे रक्षितो चंशः पूर्वमेष सुकर्मणा ॥ ३५॥ 
स्व जीवेत दुर्गेघु नान्यथा भवेत्‌ । सिन्धवेगेन नीतस्तु वहिमध्ये गतो5थवा 
य गनसन्देहो यश्च कर्मसहायवान्‌ । तस्माद्धि क्रियते कर्म धर्मपुण्यसमन्वितम्‌ 
| नरास्तेन प्रचद्न्ति सुखं ततः | तारकं पालकं कर्म रक्षते जाग्रते हि तत्‌ 
॥ भयते नित्यं मैत्रस्थानप्रदायकम्‌ । दानपुण्या न्वितं कर्म प्रियवाक्यसमन्वितम्‌ 
यश करोति, शुभक) तपन षे त जगास; ४० ॥ 


| वमो गोऽश्यायः | # डुण्डपत्न्याविपुलायावालकानयनप्रशनः ॐ ˆ. ई 


(शषणसम्पन्ने देवगर्भोपमं सुतम्‌ । कस्य कस्मात्प्रमक्ष्येत क्षमाहीनः सुनिघुण: ॥ ` 


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क पाहपुराणस्‌ क .. [२ भूमिका ; 


अन्ययोनि पयाति स्म प्रेरितः स्वैन कर्मणा । य 
कि करोति पितामाता अन्ये स्वजनवान्धवाः | कर्मेणा निहतो यस्तु नस्युस्तस्य च र| 
कुशल उवाच । : 
येनैच कर्मणा चैव रक्षितश्चायुनन्दनः ॥ ४२ ॥ |. 
तस्मात्कपान्विती जातः सूदः कर्मचशाडुगः । 
सैरन्ध्री च तथा जाता प्रेरिता तस्य कर्मणा ॥ ४३॥ . 
द्वाम्यामेच सुतश्चायो रक्षितश्चारुलक्षणः । रात्रावेच प्रणीठोऽसौ तस्माद्गेहान्मद 
बसिप्टठस्याश्रमे पुण्ये सेरूध्या पुण्यकमेणा । शुभे पर्णकुटिद्वारे तस्मिन्नेच महा 
गता सा स्वगृहं पश्चान्निक्षिप्प वालकोत्तमम्‌ । । 
एवं निपात्य सूदेन पाचितं मांसमेव हि ॥ ४६ ॥ 
भोजयित्वा सुदैत्येन्दो इण्डो हृटोऽभवत्तदा । शापमशोकखुन्दर्या मोघं मेने ताज 
हर्षण महताविष्टः सहुण्डो दानवेश्वरः । प्रभाते विमळे जाते वसिष्ठो सुनिसक् 
 बहिगंतो हि धर्मात्मा कुटीद्वारात्प्रपश्यति । 
सम्पूर्ण वालकं द्ृष्ट्वा दिव्यलक्षणसंयुतम्‌ ॥ ४६ ॥. 
सस्पूर्णन्दुप्रतीकाशं सुन्दर चारुलोचनम्‌ ॥ ५० ॥. 
वशिष्ठ उचाच । | 
पश्यन्तु सुनयः सर्वे यूयमागत्य बालकम्‌ । कस्य केन समानीतं रात्रौ द्वारा 
नेवगन्धर्वगर्भाभं राजलक्षणसंयुतम्‌। कन्दर्पंको टिसङ्काशं पश्यन्तु. सुनयो | 
महांकौतुकसंयुक्तां दष्टा द्विजवरास्ततः । समं पश्यन्सुतं ते. आयोश्चैव ॒ 
वसिष्ठ: स तु धर्मात्मा ज्ञानेनालोक्य वालकम्‌ । आयुपुत्रं समाज्ञातं चरित्रेण सः ॒ 
तान्तं तस्य दुस्य हुण्डस्यापि दुरात्मनः । कृपया ब्रह्मपुत्रस्तु समुत्थाय पुष 
करास्यामथ ग्र॒ह्मति यावदुद्विजवरोत्तमः । ताचत्पुष्पसुवृष्टि च -चनुर्देघाः स] 
ळपितं खुस्वरं गीतं जगुगेन्धवेकिन्नरा; । ऋषयो वेदमन्त्रेस्तु स्तुवन्ति ढ | 
400. \वसिछस्तेछमउलोकया घा चे।०दत्तचांख्तदूव 1०५ 8७8190 . -| 


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नहुचेत्येघ ते नाम ख्यातं लोके भविष्यति ॥ ५८॥ 
|... न तेनापि बालभावेनेराधिप । तस्मान्नहुष ते नाम देवपूज्यो भविष्यसि ॥ 


| ,वेदं चाधीत्यसम्पूण षडङ्गं सपद्कसम्‌ । 
| सर्वाण्बेष च शास्त्राणि अधीत्य द्विजसत्तमात्‌ ॥ ६१ ॥ 


शीष्ठाच्च धनुर्वेदं सरहस्यं महामतिः । शस्त्राण्यस्त्राणि दिव्यानि ग्राहमोक्षयुतानि च 


| ,नशरीपाइपुराणे द्वितीयेभूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्े 
| पञ्चोत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥ 


न तत जी 


बडघिकशततमो ऽध्यायः 
राज्ञआयोरिन्दुमत्या सहबिलापः । 
कुञ्जल उचाच। 

र्या महाभागा स्वर्भानोस्तनया सुतम्‌। अपश्यन्ती सुबाळं तं देचोपममनौपमम्‌ 

९ महत्इत्वा रुरोद्‌ घरवणिनी । केन मे लक्षणोपेतो हृतो बालः सुलक्षणः ॥ 
सा दानयश्षेश्च नियमैद्‌ ष्करे: सुतः । सम्प्राप्तो हि मया घत्स कणैश्व दारुणैः पुनः 
" शिनेयेण पुण्येन सन्तुष्टेन महात्मना । दत्तःपुत्नो हृतः केन रुरोद करुणान्विता॥ 
| ` हा पुत्र चत्स से तात हा बाल गुणमन्दिर ! । 
14 काऽसि केनापनीतोऽसि ममशब्दः प्रदीयताम्‌॥ ५॥ | 
| भस्य सवेस्य भूषणो ऽसि न संशयः। केन त्वमपनीतोऽसि ममप्राणैः समन्बितः 
राजसुळक्षणै दिव्यैः सम्पूर्णः कमलेक्षणः । 


२ 2 : 
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हिक्‍शततमोउच्याय ] ॐ राज्ञआयोरिन्दुमत्यासहचिळापः अ | ३५३ | 


| कर्म तस्य चक्रे द्विजोत्तमः । घतदान्नं विसर्ग च युरुशिष्या दिलक्षणम्‌ | 


| सदिं न्यायराजनी तिगुणा दिकान्‌ | वशिष्ठदायुपुत्रशच शिष्यरूपेण भक्तिमान्‌ | 
ह सर्वनिष्पन्नो नहुपश्चातिसुन्दरः । चशिष्ठस्य प्रसादाच्च चापवाणधरोऽसचत्‌ | 


ह Ye, र पाझपुराणम्‌ # [ २ भागि | 
| केनाद्या5पद्दतो वत्सः किं. करोमि क याम्यहम्‌॥ ७ ॥ 
स्फुटं जानाम्यहं कमे हान्यजन्मनि यत्छृतम्‌ । 

न्यासनाशः कृतः कस्य तस्मात्पुत्रो हृतो मम ॥ ८॥ 
“कि वा छलं इतं कस्य पूर्वेजन्मनि पापया । कर्मेणस्तस्त वै दुःखमनुसुञ्चामि नार] 
रत्नापददारिणीजाता पुत्ररत्न हतं मम । तस्माँचेन मे दिव्य अनौपस्यगुणाकण॥ 
क चा चितर्कितो विप्रः कर्मणस्तस्य वे फलम्‌ । 
प्रातं मया न सन्देहःपुतरशोकान्तितं भ्वुशम्‌॥ ११ ॥ 
कि घा शिशुविरोधश्च इतो जन्मान्तरै मया । 
तस्य पापस्य सुञ्जामि कमेणः फलमीदृशम्‌ ॥ १२॥ 
याचमानस्य चैवाग्रे वैश्वदेवस्य कर्मणः । 
किंबाऽपि नार्पितं चान्नं व्याहृतीमिहु तं द्विजैः ॥ १३ ॥ 
एवं सुदेचमानाच्च स्वर्भानोस्तनया तदा। इन्दुमती महाभाग शोकेन करुणाकुदय 
पतिता मूच्छिता शोकाद्विहृलत्वं गता सती । 
निःश्वासान्सुञ्चमाना सा घत्सहीना यथा हि गौ: ॥ १५॥ 
आयू राजा स शोकेन दुःखेन महतान्वितः । 
बाळं श्रुत्वा हृतं तं तु धेयं तत्याज पार्थिवः ॥ १६ ॥ 
तपसश्च फळ नास्ति नास्ति दानस्य वे फलम्‌। 
यस्मादेवं हृतः पुत्रस्तस्मान्नास्ति न संशयः ॥ १७॥ | 
दत्तात्रेयः प्रसादेन घरं मे दत्तवान्पुरा । अजेयं च जयोपेतं पुत्रं सर्वणुणानित 
तस्य घरप्रदानस्य कथं चिध्नो ह्यजायत । इतिचिन्तापरो राजा दुःखितः प्रारूद म 
इतिश्रीपाद्मपुराणेद्वितीयेभूमिखण्डे वेनोपास्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरि 
षडधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०६ ॥ 


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सत्ताधिकशततमो्यायः__ 


नारदनहुषस्यस्थितिकथनम्‌ | ` 
कुक्षळ उचाच। 

थी वारदः स्वर्गादायुराजानमागतः । आगत्य कथायामास कस्माद्राजन्प्रशोचसे 
हरण तेऽद्य क्षेमं जातं महामते । देवादीनां महाराज ! एवं जञात्वा तु मा शुचः . | 
&: सगुणो भूत्वा सर्वेविज्ञानसंयुतः । सवेकलाभिसम्पूर्ण आगमिष्यति ते सुतः ॥ | 
'्पहतस्तेऽद्य बालो देवगुणोपमः । आत्मगेहे महाराज कालो नीतो न संशय: ॥ | 
तस्याप्यन्तं ख वे कर्ता महावीर्यो महावलः-। - - 
स त्वामभ्येष्यते भूप शिषस्य सुतया सह ॥ ५ ॥: 
इन्द्रोपेन्द्रसमःपुत्रो भविष्यति स्वतेजसा । 
नरत्वं भोक्ष्यते सोऽपि निजैश्व पुण्यकर्मभिः ॥ ६॥ ` 
माध्य राजानमायु' देवर्षिसत्तमः । जगाम सहसा तस्यः पश्यतः सानुगस्य ह ॥ 
॥तसि्महाभागे नारदे देवसंमिते । आयुरागत्य तां राज्ञी तत्सवं चिन्यवेद्यत्‌ ॥ 
प्रियेण यो दत्तः पुत्रो देचवरोत्तमः । स वै राशि कुशल्यास्तेः विष्णोश्चैव -प्रसादतः 
एगो हृतः पुत्रः खगुणो मे घरानने । शिरस्तस्य ग्रहीत्वा तु पुनरेवाऽऽगमिष्यति 
नारदो भदे मा कृथाःशोकमेव च । त्यज चैनं महामोहं कार्यघमेचिनाशनम्‌ ॥ 
क्य निशम्यैचं राज्ञी इन्दुमती ततः। ह्ेणाऽपि समा विष्टा पुत्रस्याऽऽगमनं प्रति 
बैदेक्रषिणा तत्तथेच भविष्यति । दत्तात्रेयेण मे दत्तस्तनयो ह्यजरामरः ॥१३॥ 

भविष्यति न सन्देहः प्रतिभात्येचमेच हि। 

त्येवं चिन्तयित्वा तु ननाम द्विजपुङ्गवम्‌॥ १४॥ 
| चमोऽस्तु तस्मै परिसिद्धिदाय अत्रेः सुपुत्राय महात्मने च। 
पस्य प्रखादेन मया सुपुत्रः प्राप्तः सुधीरः सुगुणः सुपुण्यः ॥ १५॥ . 


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क aman टु . 


३५६ | 

एवमुक्त्वा 1 त सा देची विरराम सुहषिता । साग मिर्यन्कमाशास्‌ नहुषं | | 

पे द्वितीये भूमिखण्डे चेनोपाख्याने गुरुतीथमाहात्स्ये स 
नाहुषाख्यांने सपतोत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १०७ ॥ 


अष्टोत्तरशाततमो ऽध्यायः 
बसिष्ठद्वाराअश्ोकसुन्द्रीतपोवर्णनस्‌ । 


कुशल उचाच। 
ब्रह्मपुत्रो महातेजा चसिष्ठस्तपतांचरः। नहुषं तं समाहूय इदं वचनमत्रवीत्‌ ॥ !| 
बनं गच्छस्व शीघ्रेण बन्यमानयपुष्कलम्‌ । समाकण्ये सुनेर्वाकयं नहुषो घनम 
तत्र किचित्सुवृत्तान्तं शुध्राष नहुषो बल: । 
अयमेष स धर्मात्मा नहुषो नाम चीर्यचान्‌॥ ३॥ 
आयोः पुत्रो महाप्राज्ञो वाल्यान्मात्रा वियोजितः । 

. अस्यैचाऽतिवियोगेन आयुभार्या प्ररोदिति ॥ ४॥ | 
'अशोकसुन्दरी तेपे तपः परमदुष्करम्‌ । कदा पश्यति सा देवी पुत्रमिन्दुमता शि 
नहुषं नाम धमेज्ञं . हृतं पूर्व तु दानवैः । तपस्तेपे निरालम्चा. शिवस्य तनया र । 

अशोकसुन्द्री बाला आयुपुत्रस्य कारणात्‌ । । 
अनेनापि कदा सा हि सङ्गता तु भविष्यति ॥ ७॥ 
एवं सांसारिकं घाक्यं दिचि चारणभाषितम्‌ । 
शुआच स हि धर्मात्मा नहुषो बिश्रमान्वितः ॥ ८ ॥ । 
ख गत्वा घन्यमादाय घसिष्ठस्याश्रमं प्रति । घन्यं. निवेद्य धर्मात्मा चसिष्ठाय म 
बद्धाजञलिपुटो भूत्वा भक्त्या नमितकन्धरः । तमुवाच महाप्राज्ञं चसिष्ठे तपतां पग 
भगव्छू यतां वाक्यमपूर्व चारणेरितम्‌ । एष घै नहुषो नाम्ना आयुपुत्रो बिग 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| _ततमोऽध्यायः ] क बसिष्टद्राराऽशोकसुन्द्रीतंपोचर्णनम्‌ # ३५७ 
| द खडःखैस्त इन्दुमत्या हि दानवेः । शिवस्य तनया बाळा. तपस्तेपे सुदुश्चरम्‌. 
की नहुषस्येति चे शुरो । एवमाभाषितं तैस्तु तत्सचं हि मया श्रतम्‌ 
_ क्षोइसावायुः स धर्मात्मा का सा त्विन्दुमती शुभा । 
अशोकसुन्द्री का खा नहुषेति क उच्यते ॥ १४॥ 
1 संशयं जातं तद्गवांश्छेत्तुमहेति । अन्यः कोऽपि महाप्राज्ञः कुत्राःसौ नहुषेति च 
हत्सव॑ तात मे ब्रूहि कारणान्तरमेच हि ॥ १६॥ 
घसिष्ठ उवाच। 
आयू राजा ख धर्मात्मा सप्तद्वीपाधिपो वळी । . 
भार्या इन्दुमती तस्य सत्यरूपा यशस्विनी ॥ १७॥ 
मत्ादितः पुजो भवान्यै शुणमन्दिरिम्‌। आयुना राजराजेन सरोमचंशस्य भूषणम्‌ 
[य कत्या सुश्रोणी शुणरूपेरलङकता । अशोकजुन्द्री नाम्ना सुभगा चारुहासिनी 
ोस्तपस्तेपे निराळग्चा तपोघने । तस्या भर्ता भवान्सुष्टो धात्रा योगेन निश्चितः 
गङ्गायास्तीरमाश्रित्य ध्यानयोगसमन्विताम्‌ । 
हुण्डश्चदानवेन्द्रो यो दृष्ट्या चेकाकिनीं सतीम्‌ ॥ २१ ॥ 
ता प्रजवलन्ती च सुभगां कमलेक्षणाम्‌ । रूपौदार्यगुणोपेतां कामबाणैः प्रपीडितः 
| तां वभाषेऽन्तिकं गत्वा मम भार्या भवेति च। 
एवं सा तद्ठचः श्रुत्वा तमुवाच तपस्विनी ॥ २३॥ 
एड साहसं कार्षीमां जद्पस्व पुनःपुनः । अप्राप्याऽदं त्वया वीर पराया विशेषतः . 
'शिमे पुरा सृष्ट आयुपुत्रो महाबलः । नहुषो नाम मेधाबी भविष्यति न संशयः | 
` देवदत्तो महातेजा अन्यथा त्वं करिष्यसि । | 
| त्तः शापं प्रदास्यामि येन भस्मीभषिष्यसि ॥ २६ ॥ | 
॥ प्ये तद्वाक्यं कामवाणौः प्रपीडितः । व्याँजेनापि हृता तेन प्रणीता निज्ञमन्दिरे 
॥ आत्या महाभाग शप्तोऽसौ दानघाधमः । नहुषस्यैच हस्तेन तव सुत्युर्भेविष्यति 
अजाते. न्वसि, अञ्जल. लतव तत्‌ |... ७ ००००९०७ 


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त्वमायुसुती धीर हृतो हुण्डेन पापिना ॥ २६॥ 
सूदेन रक्षितो दास्या प्रेषितो मम चाश्रमम्‌ । भवन्त बनमध्ये च द्रष्ट्या चार 
यत्त वैश्राचितं घत्स मया ते कथितं पुनः । जहि तं पापकतारे इण्डाख्यं दानव 
नेत्राभ्यां हि प्रसुञ्चन्तीमश्रूणि परिमाजेय । इतो गत्चा प्रपश्य त्वं गङ्गातीरं महा; Eh 
निपात्य दानवेन्द्रं तं काराग्रहात्समानय । 
अशोकसुन्द्री या हि तस्या भर्तां भवस्व हि ॥ ३३॥ 
एतत्ते सर्वमाख्यातं प्रश्नस्यास्य हि कारणम्‌। आभाष्य नहुषं विप्रो चिरराम महा] 
आक्यं सर्व मुनिना प्रयुक्तमाश्चर्यभूतं स हि चिन्त्यमानः । १ 
तस्यान्तमेकः परिकर्तृकाम आयोः सुतः कोपमथो चकार ॥ ३५॥ 
इतिश्रीपाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यचनर्चात 
नाहुषाख्यानेऽष्टोत्तरशततमोऽध्यायः । 


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नवाधिकइाततमो ऽध्यायः 
हुण्डस्य अशोकसुन्द्रीपाञ्वेगमनम्‌ । . 


कुञ्जल उचाच । 
प्रणिपत्य प्रसाद्येच चशिष्टं तपतां वरम्‌। आमन्त्र्य निर्जगामाऽथ बाणपारि 
एणस्य मांसं सुघिपाच्य भोजितं बालस्तया रक्षित एच वुदुध्या। 
आयोः सुपुत्रः सगुण: सुरूपो देवोपमो देचशुणैश्च युक्तः ॥ २॥ 
तेनेव मांसेन सुसंस्कृतेन सृष्टेन पक्चेन रसाजुगेन। 
तमेच दृत्यं परिमाष्य सूदो दुएं सुहर्षण व्यभोजयत्तदा ॥ ३॥ | 
बुभुजे दानवो मांसं रसस्वादुसमन्वितम्‌ । हर्षेणापि समाविष्टो कुत | 


त्रमोऽध्यारः ] # हुण्डस्याशोकसुन्द्रीपाश्वे गमनम्‌ $ ३५६. | 
परामेव भेज चावेङ्गि भुङ्क्ष्व भोगान्मनोऽचुगान्‌। 
| क्क करिष्यसि तेन त्वं माचुषेण गतायुषा ॥ ६॥ 
| व समाकरण्ये शिवकन्या तपस्विनी । भर्ता मे दैवतेदंत्तो अजरो दोषवर्जितः ॥ 
तयन वै दृष्टो देवैरपि महात्मभिः। एत्रमाकण्यं तद्वाक्यं दानचो दुए्चेष्टितः ॥ 
विशालाक्षीं ' प्रहस्येच पुनःपुनः । अद्येच भक्षितं मांसमायुपुत्रस्य सुन्दरि ॥ 
जातमात्रस्य वाळस्य नहुषस्य दुरात्मनः । 
|| एचमाकण्यं खा घाक्यं कोपं चक्रे सुदारुणम्‌ ॥ १०॥ 
“व स॒त्यसंस्था सा. तपसा भाषिता पुनः । तप एव मया तप्तं मनसा नियमेन वै 
श्व खत्येनेच भविष्यति ॥ ११ ॥ 
ति गच्छ दुराचार यदि जीवितुमिच्छसि । अन्यथा त्वामह शप्स्ये पुनरेव न संशय 
|ाकर्णितं तस्याः सुदेन नृपति प्रति । परित्यज्य महाराज एतामन्यां समाश्रय ॥ | 
कि प्रेषितो दैत्यः सहुण्डः पापचेतनः। निजेगाम त्वरायुक्तः स स्वां भायां प्रियां प्रति | 
तं नेव जानाति दास्या सूदेन यत्कृतम्‌ । तस्ये निवेदितं सवं प्रियाय वृत्तमेच च | 
सुन्दरी सा च महता तपसा किल । दुःखशोकेन सन्तप्ता कृशीभूता तपस्विनी | 
चिन्तयन्ती प्रियं कान्तं तं ध्यायति पुनःपुनः। ` । 
` कि न कुवेन्ति चै दैत्या उपायैविविधैरपि ॥ १७॥ । 
तः सदावुदुध्या उद्यमेनाऽपि सवेदा । घतंन्ते दनुजश्रेष्ठा नानाभावैश्च सवदा ॥ | 
$ येन योगेन हृताऽहं पापिना पुरा । तथा स घातितः पुत्र आयोश्चैव भविष्यति | 
एवा दैवयोगेन भवितारमनामयम्‌ । उद्यमेनापि पश्येत किं वा नश्यति घा न वा | 
कि वा स उद्यमः श्रेष्ठ: कि चा तत्कमज फलम्‌ । | 
भाषिभावः कथं नश्येत्ततो वेदः प्रतिष्ठति ॥ २१ ॥ 
ग भावितो देवे: स कथं चान्यथा भवेत्‌। एवमेवं महाभागा चिन्तयन्ती पुनःपुनः | 
किन्नरो विद्वरो नाम वृहद्दंशो महातनुः । 
सनाह्यो त्रेता करार प्रश्षास्पां (है निमित 23.) eGangotri 


किन्नर विष्णुभक्त मां प्रेषित देवसत्तमैः । दुःखमेचं न कतव्यं भवत्या नहं प्र | 
हुण्डेन पापचारैण घधार्थ तस्य धीमतः । छृतमेचाखिळं कमे हतश्चायुसुतः शुभे |, | 
स तु वै रक्षितो देवेरुपायेविविधेरपि । हुण्ड एवं चिजञानाति आयुपुत्रो हृतो म 
भक्षितस्तु विशालाक्षी इति जानाति चै शुभे । 
भवतीं श्रावयित्वा हि गतोऽसौ दानचोऽधसः ॥ २६ ॥ 


पुण्यस्यापि बलेनैव येषामायुविनि्मितम्‌ । खाजितस्यमदाभागेनाशमिच्छन्तिधात्ा 
दुष्टात्मानोमद्दपापाःपरतेजोविदूषकाः । तेषां येशो चिनाशारथंप्रपञ्चन्ति दिनेदिने 
नानाविधेरुपायैस्ते घिषशास्त्रा दिभिस्ततः | हन्तुमिच्छन्ति तं पुण्यं पुण्यकर्मा भिरक्षित 
:पापिनश्चैवहुण्डाद्यां मोहनस्तम्भना दिभिः । पीडयन्ति महापापा नानाभेदेवेलागिगे 
सुतस्य प्रयोगेण पूचंजन्माजितेन हि । पुण्यस्यापि महाभागे पुण्यचन्तं सुरक्षित 
बैफल्यं यान्ति तेषां चै उपायाः पापिनां शुभे । | 

यन्त्रतन्त्राणि मन्त्राश्च शास्त्राञ्चिविषबन्धनाः ॥ ३६ ॥ 

रक्षयन्ति 'महात्मानं देवपुण्यैः सुरक्षितम्‌ । 

कर्तारो भस्मतां यान्ति स चै तिष्ठति पुण्यभाक्‌ ॥ ३७॥ 
आयुपुत्रस्य वीरस्य रक्षका देवताः शुभे । पुण्यस्य संञ्जयं सर्वे तपसां निधिमेव | 
तस्माच्च रक्षितो वीरो नहुषो बलिनां घर: । सत्येन तपसा तेन पुण्यैश्च संयम 
मा छथा दारुणं दुःखं सुश्च शोकमकारणम्‌ । १ 
स हि जीवति धर्मात्मा मात्रा पित्रा बिना चने ॥ ४० ॥ | 
तपोवने वसत्येकस्तपस्विपरिपाछितः । वेद्वेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदस्य पारगः ।४। 
यथा शशी विराजेते स्वकला भि: स्वतेजसा । | 
०० लभा एजते, लोड पिलजक्रलामि/सुमध्यमेन। bgRGgngot 


गिकशततमो$ध्यायः ] छः विद्वरकिन्नरेणनहुबविषयेप्रकाशनम्‌ # ३६१ 


हुण्डं निहत्य दैत्येन्द्रं त्वामेवं हि प्रलप्स्यते । 
त्वया साद्ध स्त्रिया चेव पृथिव्यामेकभूपतिः ॥ ४४ ॥ 
भविष्यति महायोगी यथा स्वगे तु वासवः | 
त्य॑ तस्मातप्राप्स्यसे भद्रे जुपुत्रं चासचोपमम्‌॥ ४५॥ 
रति नाम धं प्रजापाळनतत्परम्‌ । तथा कन्याशतं चापि रूपौदार्यगुणान्वितम्‌॥ 
पुण्येमंहाराज इन्द्रलोक प्रयास्यति । इन्द्रत्वं भोक्ष्यते देवि नहुषः पुण्यचिक्रमः 
पानम धर्मात्मा आत्मजस्ते भविष्यति । प्रजापालो महाराजः सर्वजीवद्यापरः 
पुत्रास्तु चत्वारो भविष्यन्ति महौजसः । बळ्चीर्यंसमोपेता धनुर्वेदस्य पारगाः ॥ 

ध तुरर्नाम पुरुर्नाम द्वितीयकः । उरुनांम तृतीयश्च चतुर्थो वीर्यचान्यदुः ॥५०॥ 
| एवं पुत्रा महावीर्यास्तेजस्विनो महावलाः। 

भविष्यन्ति महात्मानः सवंतेजः समन्विताः ५१ ॥ 

शिव सुता चीराः सिंहतुस्यपराक्रमाः । तेषां नामानि भद्र ते गदतः शएणु साम्प्रतम्‌ 
भोजश्च भीमकश्चापि अन्धके; कुञ्जरस्तथा । 
वृष्णिर्नाम सुधर्मात्मा सत्याधारो भविष्यति ॥ ५३॥ - 
रत्सेनश्च श्रुताधारस्तु सप्तमः । कालदंग्रो महावीयें: समरे कालजिद्ठली॥५४॥ । 
| यदोः पुत्रा महावीर्या यादवाख्या घरानने। El 
है तेषां तु पुत्राः पौत्रास्ते भविष्यन्ति सहस्रशः ॥५५॥ 
ऐै॥ुषवंशो वे तब देवि भविष्यति । दुःखमेव परित्यज्य सुखेनाऽनुप्रवतेय ॥५६॥ 

| महाप्राश्ञस्तच भर्ता शुभानने । निहत्य दानवं हुण्ड त्वामेवं परिणेष्यात ॥ 
दुःखजातानि सोष्णानि नेत्राभ्यां हि पतन्ति च। 
अश्रूणि चेन्दुमत्याश्च संमार्जयति मानदः ॥ ५८ ॥ 
भयोश्च दु:खमुदुधृत्य स्कुल तारयिष्यति । 

पिता कत्या फ्रज्याकालो अविष्यात ५७-॥-८० by eGangotri 


३६२ अ पाझपुराणम्‌ ॐ [२ 


एतत्ते सबेमाख्यातं देवानां कथन शुभे दुःखं शोकं ` परित्यञ्यः सुखेन परिषद 
अशोकसुन्दयुचाच । 


कदा-होष्यति मे भर्ता विहितो देवतैयेंदि । सत्यं चद्स्व धर्मज्ञ मम सौख्यं चिद 
बिहर उवाच । 
अचिरादुद्रक्ष्यसि भर्तारं त्वमेवं शरु सुन्दरि । 
पचमुक्त्वा जगामाऽथ गन्धो विबुधालयम्‌॥ ६२ ॥ 
अशोकसुन्द्री खा च तपस्तेपे हि तत्र चे । 
कामं क्रोधं परित्यज्य लोमं चापि शिवात्मजा ॥ ६३॥ 
इतिश्रीपाद् पुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थे च्यवनचरित्रे नाइपालरा. 
नवाधिकशाततमोऽध्यायः ॥ १०६॥ 


. दशाधिकशततमो ऽध्यायः 
' नहुपस्यहुण्डवधार्थयुद्ठायगमनम्‌ । 


आमन्त्य समुनीन्सर्चान्चसिष्ठं तपतां वरम्‌ । समुत्सुको गन्तुकामो नहुषो दानं ॥ 
ततस्ते मुनयः सर्वे घसिष्ठाद्यास्तपोधनाः। आशीभिरनन्यैनमायुपुत्रं महावट्म र 
आकारो देवताः सर्वा जध्चुर्वे दुन्दुभीन्सुदा । पुष्पवृष्टि प्रचक्रुस्ते नहुषस्य च 
अथ देवः सहस्नाक्षः सुरेः सादं समागतः । 
, ददौ शस्त्राणि चास्त्राणि सूर्यतेजोपमानि च ॥ ४॥ 
देवेभ्यो ट॒पशादू लो जगृहे द्विजसत्तम । 
तानि दिव्यानि चास्त्राणि दिव्यरूपोपमोऽभघत्‌ ॥ ५॥ | 
अथ ल केवताम मला; अह्ापम्र्रक्ना (वम ।स्यन्द्नो०दीग्रसामर्मे नहुषाय ९ ३ 


छ महात्मानमुह्यतां स्यन्दनेन वे। सध्वजेन महाप्राज्ञमायुजं समरोद्यतम्‌ ॥ 
| नाच सहस्राक्षं करिष्ये तव शासनम्‌ । एवमुक्त्वा जगामाशु ह्यायुपुत्रं रणोद्यतम्‌ 
छत प्रत्युवाचैवं देवराजस्य भाषितम्‌ । विजयी भव धर्मज्ञ रथेनाऽनेन सङ्गरे॥१०॥ 


मण्य स राजेन्द्रः सानन्दपुलकोद्गमः। प्रसादाद्देवदेचस्य घशिष्टस्य महात्मनः ॥ 
सूदयिष्यामि समरे पापचेतनम्‌ । देवानां च विशेषेण मम मायापचारितम्‌ ॥ 
सुकत महावाक्ये नहुपेण महात्मना । अथाऽऽयाततः स्वयं देच शङ्कचक्रगदाधरः ॥ 
चक्राच्चक्रं समुत्पाट्य सूर्य्ये बिस्वोपमं महत्‌ । 
ज्वलता तेजसा दीप्तं खुवृत्तारं शुभाचहम्‌ ॥ १५॥ 
णय ददौ देवो हर्षण महताकिल । तस्मै झूल ददौ शम्भुः सुतीक्षणं तेजसाऽन्वितम्‌ 
हिल्बरेणासौ शोभते समरोद्यतः । द्वितीयः शङ्रश्चासौ त्रिपुरष्नो यथा प्रभु: ॥ 
स दत्तवान्त्रह्मा घरुणः पाशमुत्तमम्‌ । चन्द्रतेजः प्रतीकाशं शङ्कुं च नादमङ्गलम्‌॥ 
पितरस्तथा शक्ति थायुश्चापं समार्गणम्‌। आग्नेयास्त्रं तथा घहिदेदौ त&्मै महात्मने 
शस्त्राण्यस्त्राणि :दिव्यानि बहुनि घिषिधानि च। 
द्दुद्घा महात्मानस्तस्मै राज्ञे. महौजसे ॥ २० ॥ 
युशुतो वीरो देखते: परिमानितः। आशी सिनेन्दितश्चापि मुनिभिस्तत्त्ववेदिभि 
सिह रथं दिव्यं भाखरं रत्नमालिनम्‌ः। घण्टारवैः प्रणदन्तं क्ुद्रघण्टासमाकुलम्‌ 
शुशुभे नृपनन्द्नः। दिवि मार्गे यथा सूर्यस्तेजसा स्वेन चे किल ॥ 
| खा तद्वदुदेत्यानां मस्तकेषु सः | जगाम शीघ्र वेगेन यथा चायुः सदागतिः 
॥ रन: पापस्तिष्ठते स्वबलेर्युतः । तेन मातलिना सादं वाहकेन महात्मना ॥ 
द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये -च्यवनचरित्े 
नहुषाख्याने दशा धिकशततमोऽध्यायः ॥ ११०॥ 


CC-0. Mumukshu Bhawerrvererrees Collection. Digitized by eGangotri 


लतमोऽच्याय ] + नेहुषस्यहुण्डवधार्थयुद्धायगमनम्‌ ` र | 
प्रतमाज्ञाय घञ्चपाणिः स्वसारथिम्‌ । आहय मातलि तं तु आदिदेश ततो द्विज | 


हुवाच सहस्राक्षस्त्वामेव ₹पतीश्वर | जहि त्वं दानवं सङ्ख्ये तं हुण्डं पापचेतनम्‌ - | 


एकादशाधिकरशततमो5व्यायः 
ुद्धोद्यतायनहुषायदेवल्र मिर्मानप्रदानस्‌ 
कुञ्जल उवाच | 

निर्गच्छमाने समराय बीरे नहुषे हि तस्मिन्खुरराजतुल्ये। 

सकौतुकामडूलगी ययुक्ताः स्त्रियस्तु सवा परिजग्सुरच ॥ १॥ 
देवतानां वरा नार्यो रम्भाद्यप्सरसस्तथा । किन्नर्यः कौतुकोत्लुक्यो जगुःस्वरेणसर 
गन्धर्चाणां तथा नायां रूपालङ्कारसंयुताः । कौतुकायगतास्तत्र यत्र राजा स ल 
पुरं महोदय नाम इुण्डस्यापि दुरात्मनः । नन्द्नोपचने दिव्यैः स्त्र समलङ्कृत 
सत्तकक्षान्वितैगेहैः कलशौरुपशोमितम्‌ । सपताकेमेदादण्डेः शोभमानं पुरोत्तमम्‌॥ 
कैळासशिखराकारैः सोन्नतैर्दिवमा स्थितैः । सवे श्रिया न्वितेदिव्येञ्राजमानं पुरे 


नानाप्रभाचैदिव्येश्च शोभमानं महोदयम्‌ । राजध्रेष्ठो महावीरो नहुषो दहुशे पण] 
पुरप्रान्ते घनं दिव्यं दिव्यवृक्षेरलङकतम्‌। तद्विचेश महाचीरो नन्दनं हि यथा| 
रथेन सह धर्मात्मा तेन मातलिना सह । प्रविष्टः स तु राजेन्द्रो चनमध्ये सर 
तत्र ता रूपसंयुक्ता दिव्या नार्यः समागताः । गन्धर्चागीततत्त्यज्ञा 
सूताश्च मागधाः सवे तं स्तुवन्ति नृपोत्तमम्‌ । राजानमायुषुत्रं तं भ्राजमान यथं 
शुश्राच गीतंमधुरं नहुषः किन्निरेरितम्‌॥ १५ ॥ 

इतिश्री पाझपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे घेनोपाख्याने ुरुतीर्थमाहात्स्ये च्यषर्ष| 


नहुषाख्याने एकोदशाधिकशततमो ऽध्यायः ॥ १११ ॥ 
(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi-Callection.Digitized by eGangotri 


द्वादशाधिकशततमो ऽध्यायः 
अशोकसुन्दर्यानहुषंदष्ट्वाप्रेमाकुलता | 
कुञ्जल उवाच । 

.. तदेव गानं च सुराङ्गनाभिंगोतं समाकण्य च गीतकैर्धवै; । 

समाकुला चापि वभूव तत्र खा शस्पुपुत्री परिचिन्तमाना ॥ १ ॥ 
ाूर्णमुत्थाय महोत्साहेन संयुता । तूणं गता वरारोहा तपोभाचसमन्विता ॥ 
तं द्ृष्ट्वा देवसङ्काशं दिव्यरूपसमग्रभम्‌ । 
) दिव्यगन्धानुलिसाडुं दिव्यमाला भिशो भितम्‌ ॥३॥ : | 
॥्ेयभरणैवेस्त्रैः शोभित दपनन्दनम्‌। दीसिमन्तं यथासूय्यं दिव्यलक्षणसंयुतम्‌ म: 
| कि वा देवो महाप्राज्ञो गन्धर्वो घा भविष्यति । hs | 
| कि वा नागसुतः सोऽयं कि वा विद्याधरो भवेत्‌॥ ५॥ : 

नेव पश्यामि कुतो यक्षेषु जायते | अनया लीलया घीरः सहस्नाक्षोऽपि जायते | 
१. शम्भुरेष भवेत्कि चा कि चा चायं मनोभषः | । 
कि.घा पितुः सखा मे. स्यान्पौळस्त्योऽयं धनाधिपः ॥ ७॥ 
एवं समाचिन्तयती च यावत्ताचच््वरं रूपगुणाधिपासा । : . 
| समेत्य रम्भा खुमहासखीभिरुवाच तां शमसुसुतां प्रहस्य ॥ ८॥ 
र िश्ीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने शुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यघनचरित्रे 
| नहुषाख्याने द्वाद्शाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११२ ॥ 


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त्रयोदशाधिकशततसो5ध्यायः 
रम्भायाःग्रश्नकरणम्‌ | 


तपसि मे मनो छीनं नहुषस्यापि काम्यया । 
न माँ चालयितु शक्ता देवासुरमहोरगा: ॥ २॥ 
एनं दृष्ट्वा महाभागे मे मनश्यलते भ्शम । 
रन्तुमिच्छाम्यहं गत्वा एवसुत्खुकतां गतम्‌ ॥ ३॥ > 
टबं विपर्ययश्चाखीन्मनखो मे घरानने । तन्मे त्वं कारणं त्र हि यद्यस्ति हलु 
आयुपुत्रस्य भार्याऽहं देवेः सृष्टा महात्ममिः। कस्मान्मे घावते चेत उत्सुक रन्ते 
रम्भोचाच । | 
सर्वेष्वेच महामागे देहरूपेघु भामिनि । घसत्यात्मा स्वयं ब्रह्म ज्ञानरूप: सनातन | 
यद्यपि प्रक्रियाबदधरिन्वरियेरूपकारिमिः । मोइपाशमयैवेद्धस्तथा सिद्धस्तु सश 
प्रकृति नेच जानाति ज्ञानचिज्ञानकों कलाम्‌ । 
अयं शुद्धश्च 'घमेज्ञ आत्मा वेत्ति च सुन्दरि ॥ ८॥ | 
गच्छन्त्यपि मनस्तापमेनं दृष्ट्या महामतिम्‌ । पापमेवं परित्यज्य सत्यमेवं र| 
अर्तायमायुपुत्रस्ते'एतत्सत्यं न संशयःः। अन्यं दृष्ट्या चिशाङ्केत पुरुष: पापे 
एवं विधि: इतो देवैः सत्यपाशेन बन्धितः । 
यदस्या आयुपुत्रोऽपि भत्‌ त्वसुपयास्यति ॥ ११ ॥ 
} 'एकमाकणितं भद्रे आत्मना तं च सुन्दरि 
त्तद्वाचसत्यसस्बन्ध परिगृह्य स्थितः स्वयम्‌ ॥ १२॥ 


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आत्मा सबं प्रजानाति आत्मा देवः सनातनः ॥ १४ 
अयमेष स वीरेन्द्रो नहुषो नाम वीर्यवान्‌ । 
तस्म्रादगच्छति चेतस्ते सत्यं सम्वन्धमिच्छते ॥ १५॥ 
ज्ञात्वा चायोः खुतं भद्रे अन्यं चैच न गच्छति | 
एतत्ते सर्वमाख्यातं शाश्वतं त्वन्मनोगतम्‌ ॥ १६ ॥ 
४ हत्वा महाघोरं समरे दानवाधमम्‌ । त्वां नयिष्यति स्वस्थानमायोश्च शृहमुत्तमम्‌ 
दैत्येन वीरेन्द्रो निजपुण्येन शोषितः | बाल्यात्प्रभृति वीरेन्द्रो वियुक्तः स्वजनेन वै 
प्ातृविहीनस्तु गतो वृद्धि महाचने । यास्यत्येव पितुर्गदद त्वयेच सह साम्प्रतम्‌ ॥ 
एवमाभाषिते भुत्या रम्भायाः शिवनन्दिनी | 55१ 
हषेण महता55चिष्टा तामुचाच समुद्रजाम्‌ ॥ २० | 
अयमेव ख सत्यात्मा मम भर्ता सुवीर्यवान । 
मनो मे घाचते 5त्यर्थ शोकाकुलितषिहृलम्‌ ॥ २१ ॥ 
:॥ वास्ति चित्तसमो देवो जानाति सुषि निश्चतम्‌ । 
| सत्यमेतन्मया दृं सुचित्रं चारुहासिनी ॥ २२॥ 
समान तु पुरुषं {दिव्यलक्षणम्‌ । न धावति महाचेत एनं दृष्ट्या यथा सखि॥ 
व धावते भद्रे पुंखमन्यं न मन्यते । पनं गन्तव्यमाषाभ्यां सखीभिर्‌ हमेव हि 
र्ष पथ्य सा रम्भा गमनायोपचक्रमे । गमनायोत्छुकां ज्ञात्वा नहुषस्यान्तिकं प्रति 
गसुचाच ततो रम्भा कस्माद्देचि न गम्यते ॥ २६ ॥ 
. . कुञ्जल उवाच। 
सल्या च रम्भया साद्ध नहुषं बीरळक्षणम्‌ । 
स्यान्तिकं सुसम्प्राप्य प्रेषयामास तां सखीम्‌॥ २७॥ 


rich 


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'हाभागे नहुषं देवरूपिणम्‌ । कथयस्व कथामेतां तवार्थे आगता यतः ॥ 


ने पाद्यापुराणम्‌ ॐ [२ 
रम्भोचाच ! 
॥ सखि करिष्यामि खुप्रियं तच सुत्रते । पवशुक्त्वा गता रम्भा नहुषं 
- कला दीरं द्वितीयमिव घासवम । प्रत्युवाच गता रम्भा सख्यावच् 
आयुपुत्र ! महाभाग ! रम्माऽहं समुपागता । शिवस्य ऱ्य! चीर र” ग 
त्थः देवदेवेन देव्या देवेन वैपर । भार्योरूप कीर” we 
दुष्प्राप्यं तु नरभ्रे्ैस्सेन्द्रैस्तपोधनैः । गन्धचः पत्षगः : पुण्य 
स्वयमेव समायातं तवार्थे श्टणु साम्प्रतम्‌ । 
'स्रीरत्ने तम्रा सम्पूर्ण पुण्यनिर्मितम्‌ ॥ ३४ ॥ 
अशोकखुन्द्रीनाम तवार्थं तपसि स्थिता । अत्यर्थं तु तपस्तप्तं भवन्तमिच्छो 
एवं ज्ञात्वा महाभाग भजमानां भजस्व हि। त्वागते खा वरारोहा पुरुषं नेव श 
नहुषेण तयोक्तं तु श्रुत्वाऽवधारितं चचः । प्रत्युत्तर ददौ चाथ स्मे मे श्रूयत 
तत्त सर्व चिज्ञानामि यरवयोक्त ममाग्रतः । ममाग्रे कथितं पूर्वे घसिष्ठेन महात्म 
_ सर्वमेच विजानामि अस्यास्तु तप उत्तमम्‌ । 
शरूयतां कारणं भद्रे यथा सौख्यं भविष्यति ॥ ३६॥ ह 
अहत्वा दानवं हुण्डं न गच्छामि घराङ्गनाम्‌ । सवेमेतत्खुवृत्तान्तमहं जाने तथेव. 
ममार्थे तवसम्भूतिस्तपश्च चरितं त्वया । मम भार्या न सन्देहो भवती विधिता 
ममार्थे निश्चयं कत्वा तप आचरितं त्वया । 
इता तस्मात्खुपापेन भवती नियमास्विता ॥ ४२॥ 
सूतियुदादहं तेन दानबेनाऽघमेन वै । वालभावस्थितो देखि पितमातूविना ₹त* 
तस्मात्तं तु हनिष्यामि हुण्डं वै दानवाधमम्‌ । पश्चात्त्वासुपनेष्येऽहं चशिष्टस्याश्र| 
एवं कथय भद्र ते रम्मे मत्प्रियकारिणीम्‌ः। एवं.विसजिता तेन सत्वर सा 


३६८ 


दती 


...तस्थी तत्र तया साद्धं सुसख्या रम्भया तदा । 


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हशविकशततमो ऽयाः ] ॐ हुण्डदूत स्यनहुषेणवार्तालाप: # ३६६ - 
भर्वश्व कीदशं बीयेमिति पश्यामि चे सदा ॥ ४८॥ क; 5 
वेनोपाख्यानेशुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे 
नहुषाख्याने ्रयोद्शाधिकशततमोऽध्यायः। 


चतुदशाधिकशततमोऽध्यायः 
हुण्डदूतस्यनइुषषेणवार्तालापः । 

। कुञ्जल उवाच | 

गिते दानवाः सर्वे हुण्डस्य परिचारका: । नहुबस्यापि संवाद रम्भया तु यथाश्चुतम्‌ | 
| आचचक्षुश्च देत्येन्द हुण्डं सर्व सुभाषितम्‌ । 

| तमाकण्यं स चुक्तोध दूतं घांक्यमथाऽ्रबीत्‌॥ २॥ 

पीर ममादेशाज्ञानीहि पुरुषं हि तम्‌ । सम्माषते तया सार्ड' पुरुषः शिघकन्यया | 
बामिनिद्शमाकण्यं जगाम ळघुदानचः । चिघिक्ते नहुषं चीरमिदं चचनमत्रचीत्‌ ॥७॥ | 

त साश्वसृतेन दिव्येन परितिष्ठसि। धनुषा दिव्यवाणैस्तु सभायां हि भयङ्करः॥ | 

र| ` ऽस्य केन तु कार्येण प्रेषितः केन वै भवान्‌ । ं 

अनया रम्भया तेऽद्य अन्यया शिवकन्यया ॥ ६ ॥ 

किमुक्त तत्स्फुट॑ सवै कथयस्व ममा5ग्रतः । 

हुण्डस्य देवमद्स्य न बिभेति भवान्कथम्‌ ॥ ७॥ 


नहुष उवाच | 
यो5सावायुबेळी राजा सप्तद्वीपाधिपः प्रभु: । 
uh तस्य माँ तनयं चिद्धि सचेदेत्य विनाशनम्‌ ॥ ६॥ 
`| गम विख्यातं देचत्राह्मणपुजकम्‌ । हुण्डेनापहृतं बाल्ये स्वामिना तच दानव ! ॥ 
“२४-- . FS 42022 


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>“ फिर र जि छ 


. सेयं कन्या शिवस्यापि दैत्येनापहृता पुरा । घोरं तपश्चरत्येषा डुण्डस्यापि वधाप। 
*  योऽहमादौ हृतो वाळस्त्वया यः सूतिका ग्रह्मत्‌। 
दास्या अपि करे दत्त सूदस्यापि दुरात्मना ॥ १२॥ 
बघार्थ श्रयतां पाप सोऽहमद्य समागतः । अस्यापि हुण्डद्त्यस्य दुष्टस्य पापका 
अन्यांश्च दानचान्धोरान्तयिष्ये यमसादनम्‌ । मामेवंघिद्धि पापिष्ठ ! एवं कथयदार|. 
एवमाकण्यं तत्सं नहुषस्यमहात्मन; । गत्वा हुण्डस दुष्टात्मा आचचक्षेऽस्यभापि] । 
निशम्य तन्मुखात्तृर्ण' चुक्रोध दितिजेश्वरः । 
कस्मात्सूदैन पापेन यदा दास्या न घातितः ॥ १६ ॥ 
सोऽयं वृद्धि समायातो मया व्याधिरुपेक्षितः । 
अथैनं घातयिष्यामि अनया शिघकन्यया ॥ १७ ॥ 
आयोः पुत्रं खळं युद्धे वाणैरेमिः शिलाशितेः । 
एवं सचिन्तयित्वा तु सारथि घाक्यमत्रचीत्‌ ॥ १८ ॥ 
स्यन्दनं योजयस्व त्वं तुरगैः साघुभिः शिवैः । सेनाध्यक्षं समाहय इत्युचाचसम 
संज्जतां मम सैन्यं त्वं श्रान्नागान्प्रकरपय । सारोहैस्तुरगान्यो घान्पताकाच्छत्रचाम 
चतुरङ्गबल मेऽद्य योजयस्व हि सत्वरम्‌ । एचमाकण्ये तत्तस्य डुण्डस्यापि ततो छ| 
सेनाध्यक्षो महाप्राज्ञ: सवं चक्रे यथाविधि । चतुरङ्गेन तेनाऽसौ बलेन महता; 
जगाम नहुषं घीर॑ चापबाणधरं रणे । इन्द्रस्य स्यन्दने युक्तं सवंशा्तरसृतां बण | 
उद्यन्तं समरे चीरं दुरापं देवदानवैः । पश्यन्ति गगने देवा विमानस्था महोजत| 
तेजोज्वाळासमाकीर्ण' द्वितीयमिव भास्करम । 
अथ ते दानवाः सर्वे चबृघुस्तं शरोत्तमैः ॥ २५॥ 
खड्डे: पाशमहाशूछःशक्तिमिस्तु परश्वधैः । युयुश्चः संयुगे तेन नहुषेण महात्म 
संरब्धा गजमानास्ते यथा मेघा गिरो तथा । तद्दिक्रमं समालोक्य आयुपुत्रः प्रव 
इन्द्रांयुधसमं चापं विस्फार्य सएणस्वरभ्‌। घञ्चस्फो टसमः शब्द््भरापस्यापि महर 
नहुषेण छतो विप्रा दानवानां भयप्रदः । महता तेन घोषेण दानवाः प्रचकस्िि 


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72 1 * युद्धोचतयोहु एडनहुषयोःसंल्लापः & ` ३७१ ` 

भझसत्वा महाहवे ॥-३०.॥ पड 

रणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्स्ये व्यवनचरित्रे 
- नहुषाख्याने चतु देशा थिकशततमो ऽध्यायः । 


अ न 


पश्चद्शाधिकशततमो$व्याय: ` 
मुद्धोधतयोहु ण्डनहुषयो!संल्लापः । 
कुञ्जल उचाच। - 
ततस्त्वसौ संयति राजमानः समुद्यतश्चापघरो महात्मा । 
यथे! कालः कुपितः सलोकान्संहर्तमैच्छत्त तथा सुदानचान्‌॥ १ ॥ 
'महास्त्रजाळे रवितेजतु स्येः खुदीतिमद्रिनिजधान दानवान्‌। 
र पादपांस्तथेव राजा निजघान दानघान्‌॥ २॥ 
वायुयंथा मेघचयं च दिव्यं सञ्चाल्येत्स्येन वलेन तेजसा । 
तथा स-राजा असुरान्मदोत्कराननाशयद्वा णवरेः सुतीक्ष्णे: ॥ ३॥ ` 
न शेकुर्दानचाः सर्वे बाणवषे महात्मनः । | 
| सताः केचिद्दुताः केचित्केचिन्नष्टा महाहचात्‌ ॥ ४ ॥ 
क तेज महाप्राज्ञं महादानचनाशनप्‌ । चुक्रोध हुण्डो दुष्टात्मा दृष्ट्या तं दपनन्द्नम्‌ 
स्थितो-गत्वेदमाभाष्य तिष्ठ तिष्ठेति .चाहवे.। 
त्वामय च नयिष्यामि आयुपुत्र ! यमान्तिकम्‌ ॥ ६॥ 
` नहुष उघाच। 

स्थितोऽस्मि समरे पश्य त्वामहं हन्तुमागतः । 
महं त्वां तु हनिष्यामि दानवं पापचेतनम्‌॥ ७ ॥ 
ेत्युक्वा धनुरादाय बाणानाग्निशिखोपम 


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उँ तत # पाझपुराणम्‌ अ ~ 
छत्रेण भ्रियमाणेन शुशुंभे सोऽपि संयुगे ॥ ८ ॥ | 
इन्द्रस्य सारथिं दिव्यं मातरि चाक्यमत्रवीत्‌ । रि 
चाइयतु रथं मेऽद्य हुण्डस्य संसुखं भवान ॥ ६॥ 
इत्युक्तस्तेन चीरेण मातलिलेधुविक्रमः । तुरङ्गाश्चोदयामास . छि 
उत्पेतुश्च ततो घाहा हंसा इच यथास्बरे । छत्रेण इन्दुचर्णेन रथेनाऽपि पताकिना 
नभस्तलं तु सम्प्राप्य यथा सूयो विराजते 1 आयुपुत्रस्तथा सङ्ख्ये तेजसा पित्रे 
अथ हुण्डो स्थस्थो5पि राजमानः स्वतेजसा । 
सर्चायुधैश् संयुक्तस्तद्धदीरवते स्थितः ॥ १३ ॥ 
उभयोवीरयोर्यद्ं देवविस्मयकारकम्‌। तदा आसीन्महाभाज्ञ दारुणं भीतिदायक रि 
तेर क्षणैः कङ्कपत्रः शिलीमुखैः । हुण्डेन ताडितो राजा खुवाहोरन्तरे वे 
सुभाले पञ्चमिर्वाणैविद्धः क्ुदोऽभवत्तदा । स विद्धस्तु तदावाणैरधिकं शुशुे न 
सारुणः करमालामिरुद्यश्च दिघाकरः । रुधिरेणःतु दिग्धाङ्गो हेमव 
सूर्यचच्छोभते राजा पूर्वेकाळस्य चास्बरे । - 
दृष्ट्या तु पौरुषं तस्य दानवं घाक्यमत्रचीत्‌ ॥ १८ ॥ 
तिए तिष्ठ क्षणं दैत्य पश्य मे लाघवं पुनः । इत्युक्त्वा तु रणे दैत्यं जघान दृशमिः 
मुखे भाले हतस्तेन मूच्छितो निपपात ह। पश्यमानेः -सुरैदिव्ये रथोपरि महाय 
देवेश्चचारणैः सिद्धैः छतः शब्दः सुहर्षेजः । जयजयेति राजेन्द्र ! शङ्कान्दध्सुः पुन!" 
सकोलाहलशब्दस्तु तुमछो देचतेरितः । कर्णरन्ध्रमाविव्ेश हुण्डस्य मूङितस्य" 
श्रुत्वा ख धनुरादाय वाणमाशी विषोपमम्‌ । प 
स्थीयतां स्थीयतां .युद्धे न सतो ५स्मि त्वया:हतः ॥ २३ ॥ न 
इत्युक्त्वा पुनरुत्थाय लाघवेन समन्वित: । एकविशतिशभिर्बाणैनेहुषं चाऽह 
एकेन सु्टिमध्ये तु चतुभिर्वाहुमध्यतः । चतु्िश्च महाश्यांश्य छत्रमेकेन तेन पे ति 
पञ्चमिर्मातढि विदुध्वा रथनीडं तु सप्तमिः । 
ध्वजदण्डं त्रिभिस्तीक्ष्ण दानव: शिखिपत्रिमिः ॥ २६॥ 


`` :. ३७२ 


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ाधिषशततमो ऽध्यायः 1 * परस्परंहुण्डनहुषयोःयुदब्र्णनम्‌ ४५ ३७३ 
आदानं तु निदानन्तुलक्षमोक्षं दुरात्मनः । | 
लाघवं तस्य स (ते) दृष्ट्या देवता विस्मयं गता: ॥ २७ ॥ 
तस्य पौरुषमापश्य ख राजा: दानवोत्तमम्‌ । 
शूरोऽसि कृतविज्ञोऽसि घीरोऽसि रणपण्डितः ॥ २८॥ 
इत्युक्त्वा दानवं तं तु घबुविस्फायं भूपतिः। 
मार्गणैदेशभिस्तं तु विव्याध रघुविक्रमः ॥ २६॥ 
र वज प्रचिच्छेद ख पपात घरातले । तुरगान्पातयामास चतु्िस्तस्य सायकेः॥ 
इलि त्र तस्यापि चकते लघु विक्रम: | दशभिः सारथिस्तस्य प्रेषितो यममन्दिरम्‌ | 
म छ दशभिश्छित्वा शरश्च विदलीङृतः । सर्वाङ्गेषु च निशद्विषिव्याध दनुजेश्वरम्‌ ॥ 
हयो विरथो जातो वाणपा णिधेबुधेरः ।.अम्यघावत्स वेगेन वर्षयन्तिशितैः शरैः ॥ 
वर्मघरो दैत्यो राजानं तमघाचत । धावमानस्य हुण्डस्य खङ्गं चिच्छेद भूपतिः॥ 
श्षुरपैनिशितेर्वाणेश्वमे चिच्छेद भृपतिः। .. 
:१ अथ हुण्डः स दुष्टात्मा समालोक्य समन्ततः ॥ ३५॥ 
गुरं तूर्ण सुमोच रघुविक्रमः । घञ्जवेगं समायान्तं दरो नृपतिस्तदा ॥३६॥ 


पतितं दृष्ट्या दशखण्डमयं सुषि । गदामुद्यम्य वेगेन .राजानमभ्यघाचत ॥३८॥ 
तीक्ष्णधारेण तस्य वाहु विचिच्छिदे । सगदं पतितं भूमौ साङ्गदं कटका न्वितम्‌ _ 
वं ततः इत्वा चञ्जस्फोटसमं तदा । रुधिरेणापि दिग्धाङ्गो धावमानो महाहवे 
क्रोधेन महताऽऽविष्टो ग्रस्तुमिच्छति भूपतिम्‌ 
दुनिवार्यः समायातः पाश्वं तस्य च भूपते ॥ ४१॥ 

| महाशक््या ताडितो हृदि दानघः। पतितः सहसा भूमौ घञ्जाहतं इवाचलः ॥ 
“त्ये गते भूमा वितरेदानचा गताः । घिघिशुः कति दुर्गेघु कति पातालमाञ्रिताः 
म्हपेमाजग्सुगेन्थर्वा: सिद्धचारणाः । हते तस्मिन्महापापे नहुषेण महात्मना । 
डेह्यघरे पमहाहने देखाब्क्रसर्वकाखुद प्रे भिरे) ८०51501 


ॐ पाद्मपुराणम्‌ # ` [२ 
तां देवरूपा तपसा प्रवद्धितां स आयुपुत्रः प्रतिलम्य हर्षित: | १ । |, 


इतिशरीपाद्यपुराणे द्वितोये भूमिखण्डे वेनो पाल्याने गुरुतीथमाद्दात्म्ये च्यवन 
नहुषाख्याने पञ्चदशाधिकशततमो ऽध्याय 


केरला जाली कल, किला 


`: ३७४, 


षोडशाषिकशततमो ऽध्यायः 
अशोकसुन्दर्या मेनकया सह नहुषदशनस्‌ । 


कुञ्जल उघाच । 
अशोकसुन्द्री पुण्या रम्भया सह हर्षिता । 
नहुषं प्राप्य चिक्रान्तं तसुचाच तपस्विनी ॥ १॥ 
अहं ते धर्मतः पल्ली देवैदिष्टा तपस्विनी । उद्घाहयस्व मां चीर यदि धमेमिहेच्छ 
सदैव चिन्त्यमाना च त्वामहं तपसि स्थिता । भवान्धमेप्रसादैन मया प्राप्त | 
र नहुष उचाच। 
मदर्थे नियता भद्रे यदि त्वं तपसि स्थिता । गुरोवांक्यान्सुह्दतन तच भतां 
अनया रम्भया साडमावां गच्छाच भामिनि । 
समारोप्य रथे तां तु तां रम्भां तु मनोरमाम्‌ ॥ ५॥ 
तेनेव रथवर्येण घसिष्ठस्याभ्रमं प्रति। जगाम लघवेगेन ताभ्यां सह महायशाः।| 
तमाश्रमगतं विप्रं समालोक्य प्रणम्य च । तया साहू महातेजा हषण महता 
यथा युद्ध रणे जातं निहतो दानघाधमः । निवेदयामास सवै चसिष्ठाय महाल 
बसिष्ठोऽपि समाकण्ये नहुषस्य चिचेष्टितम्‌। 
हषेण महताऽऽविष्ट आशीभिरभिनन्य तम्‌ ॥ ६॥ 
तिथौ लगने शुभे प्राप्ते तयोस्तु सुनिपुङ्गवः । 
चिषादं कारयामास अग्नित्रामणसन्निधौ ॥१०॥ 


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ट का ऊर हू उस 


ाविकशततमो ऽच्यायः ] क्र अशोकसुन्दर्यामेनकयासहनहुषदर्शनम्‌ ३७५ भै ; 
कपिएमिनल्यैच मिथुनं प्रेषितं पुनः । मातरं पितरं पश्य दुतं गत्वा महामते ॥११॥ `. 
त्वां च द्ृष्द्चा हि ते माता पिताऽसौ तब सुब्रत ! | ; 
वृद्धिमाप्नोतु पचंणीच तु सागरः॥ १० ॥ 
घीरो सुनिना ब्रह्मसू डुना। तेनेव रथवर्येण जगाम लक्चचिक्रमः ॥ १३॥ 
द्विजेन्द्रं तं गतो मातलिना तदा | स्वपुरं पितरं दष्ट' तथैच च स्वमातरम्‌ 
द्वा मेनका नाम प्रेषिता देवतैस्ततः । आयोभार्या सुदुःखेन पतिता शोकसागरे | 
हवाच महाभागां देवी मिन्दुमतीं प्रति । सुञ्च शोकं महाभागे तनयं पश्य सस्तुषम्‌ ` 
ह्य दानवं पापं तव पुच्रापहारकम्‌ । समायान्तं सभायां च'चीर! श्रिया समन्वितम्‌ 
तं सङग तस्ये नहुषेण यथा कृतम्‌ । तस्यै निवेदयामास इन्दुमत्यै च मेनका ॥ 
मेनकाया वचः श्रुत्वा हषेण महताऽन्िता। 
सखि सत्यं ब्रत्रीषि त्वामित्युवाच स गदुगदम्‌ ॥ १६॥ 
ह| सामृतं खुप्रियं प्रोक्त मनःप्रोत्साहकारकप्‌ । 
जीवादिकं मया देयं त्वयि सवेस्वमेच हि॥ २०॥ 
ष्यतां देवी राजानमिदमब्रवीत्‌ । तष पुत्रो महाबाहुः समायातो हि साम्प्रतम्‌ _ 
त च महाराज एषा मे वै वराप्सराः । भर्तारमेषमाभाष्य विरराम सुहषिता 
ण्ये नृपेन्द्रस्तु तासुवाच प्रियां. प्रति । पुरा प्रोक्तं महाभागे सुनिना नारदेन हि॥ 
पुत्र प्रति न कत्तंव्यं दुःखं राजं स्त्वया कदा । 
तं निहत्य सुचीर्येण दानवं चैष्यते सुतः ॥ २४॥ 
तं सत्यमेचं चै सुनिना भाषितं पुरा । अन्यथा घचनं तस्य कथं देवि! भविष्यति 
दत्तात्रेयो मुनिश्रेष्ठः साक्षादुदेचो भविष्यति । 
` शु्रूषितस्त्वया देवि मया च तपसा पुरा ॥ २६॥ 
तेन दत्त बेष्णांशप्रधारकम्‌। सदा हनिष्यति परं दानवं पापचेतनम्‌ ॥ 
A ५ च प्रजापालो महाबलः । दत्तात्रेयेण मे दत्तो चेष्णवांशः सुतोत्तमः ॥ 
| >भाष्य तां देवी राजा चेन्दुमतीं तदा । महोत्सवं ततश्चक्रे पुत्रस्यागमन प्रति॥ 


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र 


आज . #पाइपुराणम्‌# ` ` ` [भूषन 
हर्षण महताऽऽचिष्टो विष्णु सस्मार चै पुनः ॥ ३० ॥ 
सर्चोपपन्नं सुरवगयुक्तमानन्द्रूप परमार्थमेकम्‌ । 
क्लेशापहं सौख्यप्रदं नराणां सद्वैष्णाचानामिह मोक्षदं परम्‌॥ ३१॥ 
इतिश्रीपापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थे च्यवनचरिञे 
नहुषाख्याने घोड़शाधिकशततमोऽध्यायः । 


सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः 


नहुषपित्रो:पुत्रदशनेनजन्मसाफल्यम्‌ | 

कु्लउचाच। | 
नहुषः प्रियया साद तया चेव सरम्भया 1 ऐन्द्रेणापि स दिव्येन स्यन्दनेन घरे] 
नागाहय॑ पुरं प्राततः सवेशोभासमन्वितम्‌। दिव्येमेङ्गलकेयु कं भवनेरुपशो मितम्‌ 
हेमतोरणसंयुक्तं पताकाभिरळङ्छतम्‌। नानाचादित्रनादेश्च बन्द्चारणशोमित्ि 
देवरूपोपमैः पुण्यैः पुरुषैः समलङ्कृतम्‌ । नारीभिदिव्यरूपाभिर्गजाशचेः' स्यन्दनेस 
नानामङ्गशब्दैश्च वेदध्वनिसमाकुलम्‌ । गीतवा दित्रशब्देश्व घीणावेणुस्वनेस्क३ 
सवंशोभासमाकीणं विवेशस पुरोत्तमम्‌ । वेदमङ्गघोषेश्च . ब्राह्मगैश्ैव पूणि 
दहरो पितरं वीरो .मातरं च सुपुण्यकाम्‌ । हर्षेण महता ५५चिष्टःपितुः पादौ नमीः 
अशोकसुदरी सा तु तयोः पादौ पुनः पुनः । | 
नमाम भक्त्या भावेन उभयोः सा वरानना ॥ ८॥ 
रम्भा च सा ननामाथ प्रीति चैवाप्यदर्शयत्‌ । नमस्छृत्वा समाभाष्य स्वगुड॑ं र्प्त 
अनामयं च पप्रच्छ मातरं पितरं प्रति । एचमुक्तो महाभागः खानन्दपुलकोदु्ग| 
आयुरुचाच। 0 
| कक व्याधयो 0. Mumukshd खशोकाबुभो गतो । सवतो) 101 120 Bg 


है| परशठतमोऽ्यायः ] * नहुष पित्रोःपुत्रदशंनेनजन्मसाफल्यम्‌ # . ३७७ 


कृतकृत्योऽस्मि सञ्जातस्त्वयि जाते महौजसि । 
स्ववंशोद्धरणं कत्वा अहमेच समुद्धृतः ॥ १२॥ 
इन्दुमत्युचाच । 


पर्वणि प्राप्य इन्द्रस्तु तेजो दृष्ट्या महोदधिः । 

वृद्धि याति महाभाग तथाऽहं तच दशनात्‌ ॥ १३॥ . 

“गास्मि सुहृष्टास्मि आनन्देनसमाकुला। दशेनात्ते महाप्राज्ञ धन्या जाताऽ स्मिमानद 
एवं सम्भाष्य तं पुत्रमालिङ्ग्य तनयोत्तमम्‌ । 

शिरश्वाघ्राय तस्यापि चत्सं ध्रेनुयंथा स्वकम्‌ ॥ १५॥ 

त्य सुतं प्राप्तं नहुषं देवरूपिणम्‌ । आशीमिश्चाचंययदुदेची पुण्याइन्दुमती तदा 
एःसौमातरं पुण्यां देवी मिन्दुमतीं सुतः । कथयामास वृत्तान्तं यथाहरणमात्मनः॥ 
स्वभार्यायास्तथोत्पत्ति प्राप्ति चेव महायशाः । 

हुण्डेनाऽपि यथायुद्धं हुण्डस्यांपि निपातनम्‌ ॥ १८॥ 

सेन समस्तं तदाख्यातं स्वयमेव हि । मातापित्रोयंथाव्ृत्तं तयोरानन्ददायकम्‌ ॥ 


गयशसा पुण्येयेज्ञः पुण्यमहोद्येः । सुसम्पूणौ छतो तौ तु पितरौ चायुसूचुना ॥ 

देवा: समागत्य नागाह्वयं पुरोत्तमम्‌ । अभ्यषिञ्चन्महात्मानं नहुषं चीरमदेनम्‌॥ 
थि सुसिद्धश्च आयुना तेन भूभुजा । अभिषिच्य स्वराज्ये तं समेतं शिवकन्यया 

"॥ सार्यायुक्तः स्वकायेन आयूराजा महायशाः। ट 

दिवं जगाम धर्मात्मा देवैः सिद्धैः सुपूजितः ॥ २७॥ 

पद परित्यज्य ब्रह्मलोक गतः पुनः । हरलोकं जगामाथ सुनिमिर्देपूजितः ॥ 

महाराज *-प्रुन्नस्यापि/ व्खुलेजख74 हरेलोकि तात: पुण्य बित्रजव्मेत्र भूपतिः [|| 


FF ST # पाझणुराणम्‌ ॐ [२ भूपि 


* .पुरुषे 'पुण्यकर्माख्येरी दशं पुण्यमुत्तमम्‌ । जनितव्यं मद्दासाग किमन्यैः शोक, 
यथा जातः स धर्मात्मा नहुषः पितृतारकः । कुळस्य धर्त्ता सवस्य नहुषो ज्ञानपर 
एत्तते सर्वमाख्यातं चरित्रं तस्य भूपतेः । अन्यत्कि ते प्रवक्ष्यामि घद्‌ पुत्र क 

एवं विधं पुण्यमयं पवित्रं चरित्रमेतद्यशखा समेतम्‌। 

आयोः सुतस्यापि श्टणोति मर्त्यो भोगान्स भुक्त्वैति पदं सुरारेः | १४ 

इति श्रीपाद्मपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीथमाहात्म्ये च्यवना 
नहुषाख्याने सप्तद्शाधिकशततमो5ध्यायः ॥ ११७॥ ४ 


काना ता 
न 


अष्टादशाधिकशततमो ऽध्यायः 
हुण्डपुत्रविहुण्डस्यतपस्याकरणस्‌ । 
कपिञ्जल उबाच । 
गङ्गामुखे पुरा तात रोदमाना घराडूना । नेत्राभ्यामश्रुविन्दूनि पतन्ति च महार 
गङ्गामध्ये निमज्नन्ति भवन्ति कमलानि च । 
पुष्पाणि दिव्यरूपाणि सौगन्धानि महान्ति च ॥ २॥ 
तस्यास्तात जुनेत्राभ्यां किमथं प्रपतन्ति च । गङ्गोदके महाभाग निमेला अभुव्वि 
| अस्थिचर्माचशेषस्तु जराचीरधरः पुनः । । 
तानि सौगन्ध्ययुक्तानि पद्मानि विचिनोति सः ॥ ४॥ 
हेमवर्णानि दिव्यानि नीत्वा शिचं समर्चयेत्‌। 
सा का नारी समाचक्ष्व स वा को हि महामते ॥ ५॥ 
अचंयित्वा शिवं सोऽथ कस्मात्पश्चात्प्रदेषति । पतन्मे सर्वमाचक्ष्व यद्यं ष्र 
कुञ्जल उवाच | | 
श्टणु चत्स प्रवक्ष्यामि वृत्तान्तं देघनिमितम्‌ । चरित्रं सर्वपापञ्नं चिष्णोश्चैवं पणि 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


शधिर्कराततम ऽध्यायः ] # इण्डपुत्रविहुण्डस्यतपस्याकरणम्‌ # ३ ३७६ ६5०] 
गो5सी हुण्डो महाघीयों नहुषेण हतो रणे । । र. 
प, तस्य पुत्रस्तु विख्यातो विहुण्डस्तप आस्थितः॥ ८॥ . 
रा _ उतर शुत्वा सामात्यं सपरिच्छदम्‌। आयुपुत्रेण घीरेण नहुषेण बलीयसा ॥ 
पति सक्रोधादवान्हन्तु समुद्यतः । पौरुषं तस्य दुष्टस्य तपसा वद्धितस्य च ॥ 
ति देवताः सर्घा दुःखदं समराङ्गणे । हुण्डात्मजो चिहुण्डस्तु तैलोक्यं हन्तुमुद्यतः | | 
वैर करिष्यामि हनिष्ये मानवान्सुरान्‌। एवं समुद्यतः पापी देचत्राह्मणकण्टकः | 
|. समारेमे प्रजाः पीडयते च सः । तस्यैष तेजसा दग्धा देचाशनेन्द्रपुरोगमाः ॥ 
देवदेवस्य जग्मुविष्णोर हात्मनः । देवदेवं जगन्नाथं शङ्कचक्रगदाधरम्‌ ॥ १४॥ 
उचचुश्च पाहि नो नित्यं घिहुण्डस्य महाभयात्‌॥ १५॥ 
श्रीविष्णुरुवाच । 

तु देवता: सर्वाः सुसुखेन महेश्वराः । चिहुण्डै नाशयिष्यामि पापिष्ठं देवकण्टकम्‌ 
भाष्य तान्देचान्मायां कृत्वा जनार्दनः | स्वयमेव स्थितस्तत्र नन्दने सुमहायशाः 
मायामयं चकाराऽथ स्त्रीरूपं च गुणान्वितम्‌ । 
विष्णुमाया महाभागा खरे विश्वप्रमो हिनी ॥ १८ ॥ 
र रुपमतुळं चिष्णोर्माया प्रमोदिनी । विहुण्डस्य बधार्थाय रूपलावण्यशालिनी 
नां धधार्थाय दिव्यमागं जगाम ह। नन्दनान्ते ततो मायामपश्य दितिजेश्वरः ॥ 
तया विमोहितो दैत्यः कामबाणक्तान्तरः । 
आत्मनाशं न जानाति काळरूपां वरस्त्रियम्‌ ॥ २१॥ 
तां द्रष्ट्या नवहेमाभां रूपद्रविणशालिनीम्‌। 
छुन्धो विहुण्डः पापात्मा तासुचाच घराङ्गनाम्‌ ॥ २२॥ 

पिकस्य बरारोहे मम चित्तप्रमाथिनि। सङ्गमं देहि मे भद्रे रक्ष रक्ष घरानने ॥ 
# शिव देवेशि यद्यदिच्छसि साम्प्रतम्‌। तत्तददद्मि. महाभागे दुलंभं देचदानवेः ॥ 
| मायोवाच । 
हि भो्तमिच्छा चेद्दायं मे देहि दानव । सप्तकोटिमितेश्वेव घुष्पेः पूजय शङ्करम्‌ ॥ 


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३८०९ # पाझपुराणस्‌ ॐ 


कू कामोदसम्मवैदिव्चैः सौगन्धैदेचडुलमैः ! तेषां पुष्पकृतां मालां मम | तु पाह 
आरोपय महाभाग एतद्दायं प्रदेहि मे । तदाद सुप्रिया भाया भविष्यामि न संश 


विहुण्ड उवाच । 

एवं देवि ! करिष्यामि चरं दधि प्रयाचितम्‌ । 

बनानि यानि पुण्यानि दिव्यानि दितिजेश्वरः ॥ २८॥ 

बभ्राम मन्मथाऽऽविष्टो न च पश्यति तं दुमम्‌ । 

कामोदकाख्यं पप्रच्छ यत्र तत्र गतः स्वयम्‌ ॥ २६॥ 

कामोदाख्यदुमो नास्ति घदन्त्येवं महाजनाः । 

पृच्छमानः स दुष्टात्मा कामबाणैः प्रपीडितः ॥ ३० ॥ 
पप्रच्छ भार्गचं गत्वा भक्त्या नमितकन्धरः । कामोदकं ठुमं त्र हि का 

शुक्र उवाच | 


कामोदः पादपो नास्ति योषिदेवाऽस्ति दानव । यदा साहस ते चेच प्रसद्धन परह 
तद्धासाज्जशिरे देत्यसुगन्थांनि घराण्यपि । सुमान्येता नि दिव्यानि कामोदाया नरं 
हानि पीतपुष्पाणि सौरभेण युतानि च । तेनाप्येकेन पुष्पेण यः समचेति शङ 
तस्येप्सितं मद्दाकामं सम्पूरयति शङ्करः । अस्याश्च रोदनाददेत्य प्रभवन्ति न संश] 


ताद्वशान्येघ पुष्पाणि लोहितानि महान्ति च | 

सौरमेण चिना दैत्य तेषां स्पशं न कारयेत्‌ ३६॥ 

एवमाकणितं तेन वाक्यं शुक्रस्य भाषितम्‌ । 

उवाच सा तु कुराऽस्ति कामोदा भृशुनन्द्नम्‌।। ३७ ॥ 
शुक्र उवाच । 


. गङ्गाद्वारे महापुण्ये महापातकनाशने। कामोदाख्य पुरं तत्र निर्मित विश्व 
कामोदपत्तने नारी दिव्यभोगेरळडछता । तथाचाभरणैर्भाति सर्वदेवः सुरण 
त्वया तत्नैव गन्तव्यं पूजितव्या घराप्सराः | उपायेनाऽपि पुण्येन तां प्रहासय "| 


CC-0 एनसुाछताएल.उपेरीन्त्रः स एलु छान प्रति ty eGangotri 


| कशततमो उध्यायः ] # कामोदाकथानकवर्णनम्‌ # ' 
महातेजाः स्घकार्यायोद्यतो ५भवत्‌ ॥ ४१ ॥ 


्रपामपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थभाहात्म्ये च्यवनचरित्रे 
कामोदाख्यानेऽछादशा धिकशततमो ऽध्यायः ॥ ११८॥ 


नम रन 


३८१ | 


एकोनविंशत्यधिकशततमो ऽध्यायः 

कामोदाकथानकवर्णनम्‌ । 

कपिञ्जल उचाच। | 
र; प्रहसनात्तात सुददद्यानि भवन्ति चै । पुष्पाणि दिव्यगन्धीनि दुर्मानि सुरासुरे: 
कस्मात्त देवताः सर्वा: प्रचाञ्छन्ति महामते । 
शङ्करः सुखमायाति हास्यपुष्पैः सुपूजितः ॥ २॥ 
को गुणस्तस्य पुष्पस्य तन्मे कथय विस्तरात्‌ । 
कामोदा सा भवेत्का तु कस्य पुत्री घराङ्गना ॥ ३॥ 
हास्यात्तस्या महाभाग सुपुष्पाणि भषन्ति च । 
को गुणस्तत्कथां त्र हि सकळां विस्तरेण च ॥ ४॥ 
कुञ्जल उचाच | 

दै महदेत्येः इत्वा सो हादंसुत्तमम्‌ । ममन्धः सागरं क्षीरमसततार्थ समुद्यताः ॥ 
| त्यानां कन्यारत्नचतुष्टयम्‌ । वरुणेन दशित पूर्व सोमेनैव तथा पुनः ॥ 
दशतं पुण्यमम्टृतं कलशे स्थितम्‌। कन्याचतुष्टयं पूवंदेबानां हितमिच्छति 
सुलक्ष्मीर्नाम सा चैका द्वितीया वारुणी तथा । 
1४ ज्येष्ठा नाम तथा ख्याता कामोदाऽन्या प्रचक्षते ॥ ८॥ 
तासां मध्ये चरा श्रेष्ठा पूर्व जाता महामते । | 
स्स्माज्ज्येष्ठेति विख्याता लोके पूज्या सदेच दि॥ ६ ॥ 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


न - | धर [णम्‌ # 
३८२ # पाद्यपुराणम्‌ [२ 


= 


वारुणी पानरूपा च पयःफेनसमुदुभवा । अस्तस्य तरङ्गाच्च कामोदाख्या | | 
र सोमो राजा तथा लक्ष्मीजेक्षाते अम्दताद्पि । 
औैलोक्यभूषणः सोमः सञ्जातः शङ्कप्रियः ॥ ११॥ 
मृत्युरोगहरा जाता सुराणां वारुणी तथा । 
ज्येष्ठा खुपुण्यदा जाता लोकानां हितमिच्छताम्‌॥ १२॥ 
अम्नृतादुत्थिता देवी कामोदा नाम पुण्यदा । 
-वेष्णोः प्रीत्यै भविष्ये तु बृष्षरूपं प्रयास्यति ॥ १३॥ 
विष्णुप्रीतिकरी सा तु भविष्यति सदेच हि । 
तुळसी नाम सा पुण्या भविष्यति न संशयः: ॥ १४॥ 
तया सह जगन्नाथो -रमिष्यति न संशयः। 
तुलस्याः पत्रमेक यो नीत्वा कृष्णाय दास्यति ॥ १५॥ ` 
मेने तस्योपकाराणां किमस्मे च ददाम्यहम्‌ । 
इत्येचं चिन्तयेन्नित्यं तस्य प्रीतिकरो भवेत्‌ ॥ १६ ॥ 
एवं कामोद्नामासौ पूवं जाता समुद्रजा । यदा साहस ते देची 
सौहृद्यानि सुगन्धीनि सुखात्तस्याः पतन्ति वे। 
. अम्लानानिं सुपुष्पाणि यो शृह्णाति समुद्यतः ॥ १८॥ | 
चूजयेच्छडूरे देवं ब्रह्माणं माधवं तथा । तस्य देवाः प्रतुष्यन्ति यदिच्छिति ददति 
रोदित्येषा यदा सा च केन दुःखेन दुः खिता। 
ेत्रा्रुम्यो हि तस्थास्तु प्रभवन्ति पतन्ति च ॥ २० ॥ | 
तानि चैव महाभाग ! हद्यानि सुमहानि च। सौरमेण चिना तैस्तु यः पूजयति शी 
तस्य दुःखं च सन्तापो जायते नात्र संशयः । पुष्पैस्तु ताहुशदेवान्सहदचेति | 
“तस्य दुःखं प्रकुचेन्ति देघास्तत्र न संशयः । एतत्ते समाख्यातं क 
अथ कृष्णो चिचिन्त्येष दुष्ट्वा विक्रमसाहसम्‌। 


विहुण्डस्यापि पापस्य उद्यमं साहस १ 
CC-0. MuMukshu Bhawan Varanasi सलाह तदा,॥ FB 


व यामास मोहयेनं डुरासदम्‌ । नारदस्त्वथ संश्रुत्य वाक्यं विष्णोमंहात्मनः 


क यासि त्वं च दैत्येन्द्र ! सत्बरं च समातुरः । 
साम्प्रतं केन कार्येण कस्यांथ केन नो दितः ॥ २७ ॥ 


स घर्मात्मा पुष्पैः कि ते प्रयोजनम्‌ । चिप्रवयं पुनः प्राह कार्यकारणमात्मन: 
घनोदशे काचिन्नारी घरानना | तस्यादर्शनमात्रेण गतोऽहं कामवश्यताम्‌ 
तया प्रोक्तोऽस्मि पिप्रेन्द्र पुष्पे: कामोद्सम्भचैः | 
पूजयख महादेवं पुष्पैस्तु सप्तकोटिभिः ॥ ३१ ॥ 

ततस्ते सुप्रिया भार्या भविष्यामि: न संशयः | 

तदर्थे प्रस्थितोऽस्म्यय कामोदाख्यं पुरं प्रति ॥ ३२॥ | 

तामहं कामयिष्यामि सिल्घुजां श्टणु साम्प्रतम्‌ । 

आ पुनः ॥ ३३॥ 

सती महाभागां हसिष्यति पुनःपुनः । तद्धास्यं गद्गदं चिप्र ममकार्यप्रवर्ड्नम्‌ ॥ 

तस्माद्ास्यात्पतिष्यन्ति दिव्यानि कुसुमानि च । 
सतु देचसुमाकान्तं पूजयिष्यामि साम्प्रतम्‌ ॥ ३५॥ 
न प्रदानेन तुटो दारयति मे फलम्‌ । ईश्वरः सर्वभूतेशः शङ्करो लोकभावनः ॥ 


नारद्‌ उचाच | 


येनोपायेन पुष्पाणि कामोदाख्यानि दानव: । 

पब हस्ते प्रयास्यन्ति तमुपायं बदास्यहम्‌.॥ ३८ ॥ 

| पङ्गातोयेषु दिव्यानि पतिष्यन्ति न संशयः । 

' पाहितानि जलेदिव्यैराग मिष्यन्ति साम्प्रतम्‌ ॥ ३६॥ 
क तानि त्वं तु प्रति गृहाण संहयानि महान्ति च। 


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भन गन्तव्यं कामोदाख्ये पुरोत्तमे। बिष्णुरस्ति सुमेधाची स चै दैत्यक्षयाबहः 


ऽध्यायः ] # नारवस्यचिहुण्डम्प्रतिप्रश्नकरणम्‌ ५ २ | 


का 


दुरात्मानं कामोदां प्रति दानवम्‌। गत्वा तमाह दैत्येन्द्रं नारदः प्रहसचिव ` 


| नमस्छृत्य प्रत्युवाच ङताञ्जलिः। कामोदपुष्पार्थमहं स्थितो द्विजसत्तम ॥ | 


हे पाझपुराणम्‌ च 9 [ २५१ 


दानवश्रेष्ठ मोहयित्वा ततः पुनः । ततश्च स तु घमोत्मा चिन्तयामास है| 


भरणि सासुञ्चेत्केनो पायेन दु खिता । चिन्तमानस्य तस्यंवं क्षण वे नारू 
क ततो बुद्धिः ससुत्पन्ना कामोदाख्यपुर गतः ॥ ४३॥ 


` इति श्रीपाद्मपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीथ च्यवनचरि 
- कामोदाख्याने एकोनविशत्यधिकशततभो5ध्याय: ॥ ११६॥ 


O_o 


विंशत्यघिकशततमोऽष्याय 


नारदद्वारा कामोदाय स्तर्नविचारवर्णनम्‌ । 
कुञ्जल उवाच | 
कामोदाख्यं पुरं दिव्यं सर्वेदेवसमाकुलम्‌ । सवकामसम्टदधयथसपरपन्नारदस्त 
कामोदाया गुहं प्राप्य प्रविवेश द्विजोत्तमः । 
कामोदां तु ततो द्ृष्ट्यासवेकामसमाकुलाम्‌ ॥ २॥ 
तया सम्पूजितो विप्रःसुवाक्येःस्वागता दिभिः । 
दिव्यासने समारुढस्तां पप्रच्छ द्विजोत्तमः ॥ ३ ॥ 
सुखेन स्थीयते भद्रे विष्णुतेजः समुद्गे । अनामयं च पप्रच्छ आशीमिरमिनत 
कामोदोचाच । | 
प्रसादाद्ववतां विष्णोः सुखेन वतेयाम्यहम्‌। कथयस्व महाप्राज्ञ त्व प्रश्नोत्तखा 
महामोहः समुत्पन्नो ममाड़े मुनिपुङ्गच | व्यापकः सर्वलोकानां ममाङ्ग म 
तस्मान्निद्राससुत्पन्ना यथा मत्येषु घतते । 
सुतया तु मया दृष्ट: स्वप्नो वै दारुणो सुने।। ७॥ व्य 
केनाप्युक्त समेत्येच पुरतो द्विजसत्तम। अव्यक्तोऽसौ हृषीकेशः संसारं स ग 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


रे ्रकततमोऽध्यायः ] ओ शरीरात्मतत्त्वानांघर्णनम्‌ अ 3 ३८५. . 
| हि दुःखेन व्यापिताऽहं महामते। तन्मे त्वं कारणं त्र हि भवाञ्ज्ञानवंतांवर; . 
नारद्‌ उचाच। ` 
3 2 वैत्तिकअैव कफजः सान्निपातिकः । स्वप्नः प्रवतेते भद्दे! मानवेषु न संशयः 
वते व देवेषु स्वप्नो निद्रा 'च सुन्द्री । आदित्योदयवेळायां दृश्यते स्वप्नउत्तम 
सत्खप्नो मानवानां हि पुण्यस्य फलदायकः | 
अन्यदेव प्रवक्ष्यामि स्वप्नस्य. कारणं शुसे ॥ १२॥ 
बातान्दोलनैम्व चळन्त्यापो वरानने । चुरन्त्यम्बुकणा सूझ्मास्तस्मादुद्कसञ्चयात्‌ 
व पतत्न्येते निर्मेलास्बुकणाः शुभे । पुन्यं प्रयान्त्येते:द्ृश्याद्ृश्या भवन्ति बै ॥ 
तद्वत्स्वप्रस्य चै भावः कथ्यते श्टणु भामिनि ! । 
आत्मा शुद्धो विरक्तस्तु रागद्वेषचिचजितः॥ १५॥ 
अात्मकानां च सुषित्वैव सुनिश्चलः | षड्विशतिसुतत्तानां मध्ये चैष विराजते 
मग केवलो नित्यः प्रङृतेः सङ्गति गतः । तद्वावैचांयुरूपेश्च चलते स्थानतो यदा 
तस्तेजसश्चैव प्रतितेजः प्रजायते । अन्तरात्मा शुभं नाम तस्य एच प्रकथ्यते ॥ 
पयसश्च यथा भिन्ना भवन्त्यस्बुकणाः शुभे । 
आत्मनस्तु तथा तेज अन्तरात्मा प्रकथ्यते ॥ १६ ॥ `` 
स हि पृथ्वी स चै वायुः सचाऽप्याऽऽक़ाश एव हि। 
स वे तोयं स दीप्येत एते पञ्च पुराङताः ॥ २०॥ ` 
आत्मनस्तेजसो भूता मळरूपा महात्मनः । 
| तस्यापि सङ्गति पराप्ता एकत्वं हि प्रयान्ति ते ॥ २१ ॥ 
हक ममावप्रदोषेण नाशयन्ति बरानने | तत्पिण्डमन्यमिच्छन्ति घार वारं घरानने ॥ 
।'शेडाविहारो5यं सष्ठिसम्बन्धकारणम्‌ । उदकस्य तरडुस्तु जायते च चिलीयते 
[९९ पुनहा निस्ताद्ृशस्य ` पुनःपुनः । अपां रूपस्य दृष्टान्तं तद्वदेषां' न संशयः ॥ 
आत्मा न नश्यते देवि तेजो घायुने नश्यति। 
न नश्यतो घराकांशौ न नइयन्त्याप एच च ॥ २५॥ 


“--२७५८-0. Muniukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


ht ३८६ 


र ॐ पाझपुराणम्‌ # | ` [रम 
' एञ्चैच आत्मना सादे प्रभचन्ति प्रयान्ति च ! 
आत्मादयो हामी भद्दे नित्यरूपा न संशयः ॥ २६ ॥ | 
` ण्ड एव प्रणश्येत तेषां सज्ञात एव च । विषयाणां खुदोषेः ख रद्वा | 
प्राणाः प्रयान्ति वै पिण्डात्पञ्चपञ्चात्मका द्विज ! । 
पिण्डान्ते बसते आत्मा प्रतिरूपस्लु तस्य च ॥ २८॥ 
अन्तरात्मा यथा चाग्नेः स्फुलिङ्गस्तु प्रकाशते । 
तथा प्रकाशमायाति द्वश्याद्वश्यः प्रजायते | २६ ॥ 
शुद्धात्मा च परं ब्रह्म सदा जागति नित्यशः । अन्तरात्मा भवद्धस्तु प्रकृतेश् रि 
अन्नाहारेण सम्पुष्टैरन्तरात्मा सुखं जेत्‌ । सुसुखाञ्ञायते सोइस्तस्मान्मनः पर 
पश्चात्सञ्जायते निद्रा तामसी लयघद्धिनी । | 
नाडीमार्गेण यः सूर्यो मेर्मुलङ्घ्य गच्छति ॥ ३२॥ 
तदा रात्रिः प्रजायेत याचन्नोद्यते रचिः । .विषयान्धकारैसु क्तस्तु अन्तरात्मा पर 
भावेस्तत्त्वात्मकानां तु पञ्चतस्तैः प्रपो षितेः । पूर्वेजन्मास्थतैः पिण्डेरन्तरात्मा परा 
स यास्यति च वै स्थानमुच्चावचं महामते । 
संसार अन्तरात्मा चै दोषैवेद्धः प्रणीयते ॥ ३५॥ 
कायं रक्षति जीचात्मा पश्चात्तिष्ठति मध्यगः । 
उदानः स्फुरते तीब्रस्तस्माच्छव्दः प्रज्ञायते ॥ ३६ ॥ 
शुष्का भस्त्रा यथा श्वासं कुरुते वायुपूरिता 1 
तद्वच्छब्दवशाच्छ्वासमुदानः कुरुते बलात्‌ ॥ ३७॥ . | 
आत्मनस्तु प्रभावेण उदानो बलचान्भवेत्‌ । एवं कायः प्रसुग्धस्तु सृतकल्पः 2. 
ततो निद्रा महामाया तस्याड्रेषु प्रयाति सा । 
दि कण्ठे तथा चास्ये नासिकाग्े प्रतिष्ठति ॥ ३६ ॥ 
बाहू सङ्कुच्य सन्तिष्ठेदुपूदतो नामिमण्डले। ` 
आत्मनस्तु प्रभाचाच्च उदानो नाम मारुतः ॥ “४० ॥ 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri, | 


SND 7, 


| चिकशठतमी 307” ] * कामोदाया नारदेनशोकोत्पादनम्‌ # . | ३८७ ` छे 


तीन्रो बळरोधं करोति सः । यथा रज्ज्वा प्रबद्धस्तु दारुकीलघर; स्थित 
तलासु संछगः प्राणवायुने संशयः । अन्तरात्मप्रसक्तस्तु प्राणवायु: शुभानने ! ` 
हितो भद्रे ! अन्तरात्मा प्रधाचति। 
जितान्वाखान्स्मुत्वा तत्र प्रधाचति ॥ ४३ ॥ 
तत्र संस्थो महाप्राज्ञः स्वेच्छया रमते पुनः । 
एवं नानाविधान्स्वप्नानन्तरात्मा प्रपश्यति ॥'४४॥ 
ता विरुद्धाश्च क्मेयुक्तान्प्रपश्यति । गिरींस्तथा सुदु्गा श्च उच्चावचान्प्रपश्यति 
वातिकं विद्धि कफचत्तद्वदाम्यहम्‌ । जलं नदीं तडागं च पयःस्थानानि पश्यति 
द ब पश्यते देवि बहुकाश्वनसुत्तमम्‌ । तदेव पैत्तिकं विद्धि भाव्यं चैव वदाम्यहम्‌ 
ग दुस्यते स्वप्नो भव्यो याऽभव्य एव च । कमेयुक्तो चरारोहे लाभाळाभप्रकाशक 
स्वप्नस्याऽपि अवस्था ते कथिता घर्राणनि। 
तद्गाव्यं च वरारोहे विष्णोश्चैव भविष्यति ॥ ४६॥ 
प्र तन्निमित्तं त्वया दुष्टो दुःस्वप्नः स तु प्रेक्षितः ॥ ५० ॥ . 
| इतिश्रीपामपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने शुरुतीथे च्यचनच रित्रे 
| कामोदाख्याने विंशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२० ॥ 


एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः 
कामोदाया;चारदेनशोकोत्पादमम्‌ । 

| कामोदोघाच । 

|, षताः सर्वा यस्यान्तं रूपमेव च । यस्मिँलीनस्तु सोऽयं स चेकात्मा प्रकथ्यते 
| मयाप्रपञ्चस्तु संसारः »रणु नारद्‌ । कस्मात्प्रयाति संसार मम स्वामी जगत्पतिः 
| सुपुण्यैश्च नरो बद्धस्तु कर्मभिः । संसारं सरते विप्र हरिः कस्मादुनजेद्वद 


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4 न्ती ह # पोइपुराणम्‌ # ` एज 
! 5 `` नारद्‌ उवाच | न्य 
श्टणु देवि प्रवक्ष्यामि यत्क॒तं तेन चक्रिणा । भुगोरस्रे प्रतिज्ञातं यक्षरक्षां ५ ८ | 
इन्द्रस्य घचनात्सद्यो गतोऽसौ दानवः सह । 
योदुघुँ विहाय गोचिन्दो भृगोश्चैव मखोत्तमम्‌ ॥ ५॥ 
मखं त्यवा गते देवे पश्चात्तर्दानवोत्तमैः । आगत्य ध्वंसितः सबेः सजनः पा 
हरि क्रृद्धः स योगीन्द्रः शशाप भगुरेच तम्‌ । 
दशजन्मानि भुङ्क्ष्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः ॥ ७॥ 
कर्मणः स्वस्य सम्भोगं सम्भोक्ष्यति जनादंनः । 
तन्निमित्तं त्वया देवि दुःस्वप्नः परिवी क्षितः ॥ ८॥ 
इत्युक्तवा तां गतो विप्रो ब्रह्मलोकं ख नारदः । 
कृष्णस्यापि सुदुःखेन दुःखिता सा भवत्तदा ॥ ६॥ 
रुरोद करुणं वाला दाहेति दती मुहुः गङ्गातीरोपविष्टा खा जलान्ते शशु कन 
सुनेत्राम्यां तथाऽश्रूणि दुःखेनापि प्रसुञ्चति। 
तान्यश्रूणि प्रमुक्तानि गङ्कातोये पतन्त्यपि ॥ ११॥ | 
जले चैवनिमज्ञन्तितस्याश्रयाप्यश्रुबिन्द्वः । सम्भवन्तिपुनस्तातपद्चरूपाणि ता 
गङ्गातोयै प्रफुल्लानि घाहितानि प्रयान्ति वे। दृद्शो दानवश्चेष्ठो विष्णुमाया 
दुःखजानि न जानाति मुनिना कथितान्यपि । 
हर्षेण महताऽऽविष्टः परिजग्राह सोऽसुरः ॥ १४ ॥ 
पझैस्तु पुष्पितैः सोऽपि पूजयेद्विरिजा प्रियम्‌ । 
सप्तको टिभिदेत्येन्द्रो विष्णुमायाप्रमो हितः ॥ १५॥ | 
अथ क्रुद्धा जगद्धात्री शङ्करं वाक्यमत्रचीत्‌ । पश्यैतस्य विकमंत्वं दानघस्य मर्श. 
शोकोत्पन्नेः प्रफुल्लेश्व भवन्तं परिपूजयेत्‌ । प्राप्यते दुःखसंतापं सुदं परं ग 
ईश्वर उचाच । 
सत्यमुक्तं त्वया भद्दे अनेन पापकारिणा । सत्योद्यमः परित्यक्तः कामोदाथ' | 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


तमोऽध्यायः ] # ढुखाश्रुबिन्दुस्यो निर्गन्‍्धवुष्पोत्पत्ति अ ३८६ 


पद्मानि गङ्गातोयगतानि वै । अयमेष प्रग्रह्मति कामाकुलितचेतन: ॥ ` ` 

शोकसन्तापकारके: । दःखजे:ः शोकजै पुष्पैस्तैः सुश्नेय: कथं भवेत्‌ 

प भावेन मामेव परिपूजयेत्‌ । ताद्वशेना5पि भावेन अस्य सिद्धिर्भविष्यति 

सत्यध्यानविहीनोऽयं कामोदान्यस्तमानसः । 

सञ्जातः पापचारितो जहि देवि ! स्वतेजसा ॥ २२ ॥, 

एवमाकर्ण्य तद्वाक्यं शम्भोञ्चैच महात्मनः । 

अस्यैच संक्षयं शम्भो करिष्ये. तव शासनात्‌ ॥ २३ ॥ 

एबमुक्वा ततो देवी तस्यापि घधकाझ्क्षया । 

बर्तते हि विहुण्डस्य घधोपायं व्यचिन्तयत्‌॥ २४॥ 

गा मायामयं रूपं घ्राह्मणस्य महात्मगः । पूजयेच्छङुरं नाथं सुपुष्पेः पारिजातजैः ॥ 

समेत्य दानवः पापो दिव्यां पूजां चिनाशयेत्‌। 

कामाकुलः सुढुःखातस्तद्वतो भाचतत्परः॥ २६॥ 

गोश्लैव महामायां पूर्वद्वणां स दानवः । सस्मार दानघः पापः कामवाणैः प्रपीडित 
गा; सरणमात्रेण कन्द्पेण बलीयसा । विरहाकुलदुःखार्तो रोदते हि मुहुर्महुः ॥ 

काळाङष्टः. स दुष्टात्मा शोकजातानि तानि सः। 

परिगृह्य समायातः पूजनार्थी महेश्वरम्‌ ॥ २६ ॥ 

देव्या इतां हि पूजां च सुपुष्पैः पारिजातजैः। 

तां निर्णाश्य खुलोभेन शोकजैः परिपूजयेत्‌ ॥ ३० ॥ 

नेत्राभ्यां तस्य दुष्टस्य बिन्द्चस्तेऽश्चुसम्भवाः। 

| अविरछास्ततो वत्स. पंतन्ति लिङ्गमस्तके ॥ ३१ ॥ 

वर्ग त्दाणरुपेण तमुवाच महामते । को भवान्पूजयेद्देवं शौकाकुलमनाः सदा ॥३२॥ 
| शण देवस्य मस्तके शोकजानि ते । अपचित्राणि मे बू दि एतमर्थ ममाग्रतः ॥ 

ह बिहुण्ड उवाच । 


“मया नारी सहेन परापरा. सर्तकशणसम्पत्ता कामस्यायतनं महत्‌ ॥ 


उ No [२ मची 
` तस्या मोहेन संत्दग्धः कामेनाकुलतां गतः । 
तया प्रोक्त हिं संम्मोगे देहि मे दायसुत्तमम्‌॥ ३५ ॥ 
कामौद्संगमवैः पुष्पैः पूजयस्व महेश्वरम्‌ । तेषां पुष्पकृतां मालां मम कण्डे पणि 
कोटिभिः सहसडख्यातैः पूजयस्व महेश्वरम्‌ । तदर्थं पूजयास्येच ईश्वर फरू 


€ ९२५०२१ 


कामोद्सम्भव: पुष्पैःडु लॅमैदंघदानवेः ॥ ३८ ॥ 
_ श्रीदेव्युघाच । 
क ते भावः छ तै ध्यांनं क ते ज्ञानं दुरात्मनः । 
इभ्वरस्यापि सम्बन्धो नास्ति किंचित्त्वयेबदि ॥ ३६ ॥ 
कामोदाया घरं रूपं कीद्रशं चद्‌ साम्प्रतम्‌ । [ 
छ लब्धानि सुपुष्पाणि तस्या हास्योद्ववानि च ॥ ४० ॥ 
- घिहुण्ड उचाच | 
भवं ध्यानं न जानामि न दृष्टा सा मया कदा । 
| गङ्गातोयगतान्येच परिगृह्णामि नित्यशः ॥ ४१ ॥ 
तैरहं पूजयास्येकं शाङ्करं प्रचदाम्यहम्‌। ममाग्रे कथितं चिप्र शुक्रेणापि मह 
घचनात्तस्य देवेशमचंयामि दिने दिने । पतत्ते सर्वमाख्यातं यच्च पृष्टोऽस्मि सा 
श्रीदेव्युचाच । | | 
कामोदारोदनाज्जातेः पुषपस्तैद्‌:खसम्भवैः । लिङ्गम्चयसे दुष्ट ! प्रभाते ति 
याद्वरोनापि भावेन पुष्पैश्च याद्रशेस्त्वया । अचितो देचदेवेशास्ताहुशं फलमा 
दिव्यपूजां घिनाश्येचं शोकपुष्पैः प्रपूजसि । असौ दोषस्तवैचाद्य समुत्पन्नः ह 
तस्माइण्डं प्रदास्यामि भुङक्ष्व स्वकर्मजे फलम्‌ । | 
तस्या वाक्य समाकण्ये कालक्रष्टो बभाष ताम्‌ ॥ ४७॥ 
रै रे दुष्ट | दुराचार! मम कमेप्रदूषक 11 हन्मि त्वामिह खङ्गेण अनेनापि त | 
इतयुकत्वा आहण तं स निशितं सङा । 
०००. ॥हण्लुकाम?स"दुष्ात्मा'अस्यधीविर्ते दोनि १४९१००५ ` ` 


तमोऽध्यायः ] # कुञ्जल्वारादाधरचंशचर्णनम्‌ # क - ३६१ ह 
सङक्रुद्धा परमेश्वरी । स्वस्थानमागतं द्रष्ट्या हुङ्कारं घिससर्ज ह 
| मदेन पठितो दानवाधमाः । निश्चेछः कामरूपेण घज्ञाहत इघाचलः ॥ ५१ ॥ 
| दानवे तस्मिन्सर्वलोकविनाशके । 
फ छोकाः स्वास्थ्यं गताः सव दुःखतापविचजिताः ॥ ५२॥ 
| _ रणाह्वत्स सा स्त्री वे परिदेवति । गङ्गातीरे घरारोहा दुःखव्याकुलमानसा 
एतत्ते सवेमाख्यातं यत्त्वया परिपृच्छितम्‌ ॥ ५४ ॥ 
चिष्णुरुघाच । 
पचमुक्त्वा सुपुत्र लं कुञ्जलस्य (1) अण्डजेश्वरः । | 
बिरणाम महाप्राज्ञः किञ्चिन्नोचाच भूपते | ॥ ५५॥ 
(6 भ्रीपाइपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीथंमाहात्म्ये च्यवनंचरित्रे 
कामोद्एल्याने एकविशात्यधिकशततमोऽध्यायः। ` 


द्वाविशत्यधिकशततमोऽध्यायः 
कुञ्जलद्वासविद्याधरवंशवर्णनम्‌.। 
चिष्णुरुाच । 

कुञ्जलो धमेपक्षी ख इत्युक्त्वा तान्सुतान्प्रति। 
र विरराम महाप्राज्ञः किंचिन्नोचाच तान्प्रति॥ १॥ 
[िषश्थो द्विजश्रेषस्तसुघाच मद्दाशुकम्‌ । को भवान्धमेचक्ता हि पक्षिरूपेण घतते 
कि धा देघोऽथ गन्धर्वः कि घा विद्याधरो भवान्‌। 
कस्य शापादिमां प्राप्तो योनि कीरस्य पातकीम्‌।। ३॥ 
कस्मात्ते ईदशं ज्ञांनं घतंतेऽतीन्द्रियं शुक ! । 
पुण्यस्य ल कुस्यु MT नदी Fe i eGangotri 


| - क Fs =... „ ऋ पाद्मपुराणमू # 
. .. _ किं चा च्छन्नेन रूपेण अनेनापि महामते । 
, -कस्त्वं सिद्धोऽसि देवो घा तन्मे कथय. कारणम्‌ ॥ ५॥ 
कुञ्जल उचाच । 
भोः सिद्ध त्वामहं जाने कुल ते गोत्रसुत्तमम्‌। 
विद्यां तपःप्रभाचं च .यस्मादुञ्रमसि मेदिनीम्‌ ॥ ६॥ . 
सर्व चिप्र !प्रवक्ष्यामिस्वागतं तवसुव्रत । उपविश्याऽऽखने पुण्येछायामाश्रयशीत 
अन्यक्तप्रमचो ब्रह्मा तस्माज्जज्ञे प्रजापतिः । ब्राह्मणस्तु युणैयुक्तो भ्वगुत्र ह्मसमो 
भार्गचो नाम तस्याऽऽसीत्सर्वधमार्थेतत््ववित्‌। 
तस्याऽन्वये भवान्विश्च्यचनः ख्यातिमान्सुषि ॥ ६ ॥ 
नाहं देवो न गन्धवों.नाहं विद्याधरः पुनः । 
योऽहं चिप्र ! प्रचक्ष्यामि तन्मे निगदतः शएणु ॥ १०॥ 
कंश्यपस्य कुले जातः कश्चिदुत्राह्मणसत्तमः । वेदवेदाङ्गतत्वज्ञः सर्वेकमेप्रकाशक 
विद्याघरेतिविख्यातः कुलशीलगुणै युतः । राजमानः श्रिया चिप्र! आचारेस्तपसा॥ 
सम्बभूवुः सुतास्तस्य . विद्याधरस्य ते त्रयः। चसुशर्मा नामशर्मा धर्मशमा च तेम 
तेषामहं धमेशर्मा कनिष्ठो गुणवर्जितः | घसुशर्मा मम भ्राता वेद्शाखार्थेकोपिः 
आचारेण सुसम्पन्नो विद्या दिसुणुणैः पुनः। 
नामशर्मा महाप्रज्ञस्तङ्घच्चासीदुगुणाधिकः ॥ १५ ॥ 
अहमेको महदासूखेः सञ्जातः श्टण सत्तम !। विद्यानासुत्तमं विप्र ! भावमर्थ शुभं के 
न श्टणोमि न वै यामि गुरुगेहमजुत्तमम्‌ | ततस्तु जनको मे तु मामेवं परिचित 
घमेशर्मेति पुत्रस्य नामाऽस्य तु निरर्थकम्‌ । 
सञ्जातः क्षितिमध्ये तु न विद्वान्मे गुणाकरः ॥ १८॥ 
इति सञ्चिन्त्य धर्मात्मा मामुवाच सुदु:खित: । वज पुत्र शुरोगेहं विद्यां परि] 
एवमाकण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं मया शुभम्‌ । ॒ 


नादं तात गमिष्यामि गुरोगेहं खतम 
(७-0. Mumukshu Bhawan Va तड [] 2,७०0 


छ नग्न , 

के क [१ ० नु ७ 
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वेकशततमो5ध्या: ] # कुञजढदवाराविद्याधरवंशवर्णनम्‌ 5 ` ३६३. 
ताडनं नित्यं भर, सङ्गादि च क्रोशनम्‌ । अन्नं न दश्यते तत्र कर्मणा श्र्णु सत्तम! ` 


दवै 


+ 


दिवारात्री न निद्रास्ति नास्ति सुखस्य साधनम्‌। 
तस्माहुःखमयं तात न यास्ये गुरुमन्दिरम्‌ ॥ २२॥ 

विद्याकार्य करिष्ये न कीडार्थमहसुत्सुकः । ` 

मोक्ष्ये स्वप्स्ये प्रसादात्ते करिष्ये क्रीडनं पितः | ॥ २३ ॥ 

डिम्मैः साद्धं सुखेनापि दिघारात्रमतन्द्रितः । 

'  माझुघाच ख धर्मात्मा मूढं ज्ञात्वा सुदुःखितः ॥ २४॥ 

त्र साहस कार्षी विद्यार्थमुद्यम कुरु । चिद्यया प्राप्यते सो ख्यं यशः कीतिस्तथाऽतुळा 
स्वश्च मोक्षश्च तस्मा्वियां प्रसाधय । पूवं सुदुःखमूळा तु पञ्चाद्वि्या सुखप्रदा 
हात्साधय पुत्र त्वं विद्यां गुरुग्रहं बज । पितुर्वाक्यमकुर्वाण अहमेचं दिने दिने ॥ 
यत्र स्थितो नित्यमर्थहानि करोम्यहम्‌ । उपहासः छतो लोकमम चिप्र! प्रकुत्सनम्‌ 


इति चिन्तापरो जातो डुःखशोकसमाकुलः | 
कथं विद्यामहं जाने कथं चिन्दाम्यहं गुणान्‌ ॥ ३० ॥ 


गयतने दुःखी उपचिष्टस्त्वहं कदा । मङ्भा्यैः प्रेरितः कश्चित्सिद्ध एकः समागतः 

निराश्रयो जिताहारः सदाऽऽनन्द्स्तु निःस्पृहः । 

__पकान्तमास्थितो घिप्रो योगयुक्तो जितेन्द्रियः ॥ ३३ ॥ 

[षि संछीनो ज्ञानध्यानसमाधिमान्‌। तमहं संशितो विप्र ज्ञानरूपं महामतिम्‌ ॥ 

पेन भावेन भक्त्या नमितकन्धरः। नमस्ङृत्य मद्दात्मानं पुरतस्तस्य सं स्थितः 
। हाइ जातो मन्दभाग्यस्तथा पुनः । तेनाऽहं पूच्छितो चिप्र कस्माद्ववान्प्रशोचति 

“| केनाऽभिपायभाचेन दुःखमेव सुनक्ति वै । 

तेनेत्युक्तो5स्मि पिप्रेन्द्र ज्ञानिना योगिना तदा ॥ ३७ ॥ 


११४] 


५ १ हरि तस्य पूर्वत्त्तान्तमेध्न दि], तबन क्षावितं सवनेन क्य त्रज्ञेत्‌ ॥३<॥ 


३६४ अ पाझपुराणम्‌ ॐ [ २ भूमि | 
एतदर्थ महादुःखी भवान्ममगतिः सदा । सचोचाच महात्मा मे सचं ज्ञानस्य कार 


इतिश्रीपाद्मपुराणे द्वितीये भूमिंखण्डे घेनो पाल्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवना 
्वार्विशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२२ ॥ 


mms os आका 


त्रयो विदात्यथिकशतमोऽध्यायः ˆ 


सिद्धाज्ज्ञानग्रास्ित्रृत्तान्तकथनस् । 
_ सिद्ध उवाच! 
भ्रूयतामभिधास्यामि ज्ञानरूपं तवाऽग्रतः । 
ज्ञानस्य नास्ति वै देहो हस्तौ पादौ च चक्षुषी ॥ १॥ ` 
नासा कणौ न ज्ञानस्य नास्ति चेवास्थिसडअहः !- 

.  केनदृष्टंतु वै ज्ञानं कानि लिङ्गानि तस्य वे ॥ २॥ 
आकारैर्वसितं नित्य सवं घे त्तिससर्ववित्‌। दिवाप्रकाशकः सूयो रात्रौ प्रकाशये । 
गुहं प्रकाशयेद्दीपो लोकमध्ये स्थिता अमी । तत्पदं केन वै धास्ना दश्यते शगु | 
न विन्दन्ति हि मूढास्ते मोहिता विष्णुमायया | कायमध्ये स्थितं ज्ञानं ध्यानदीहर 
तत्पदं तेन द्वश्येत चन्द्रसूर्या दिभिने च । हस्तपादौ चिना ज्ञानमचक्षुः कर्णष्ग्गि 
सर्वत्र गतिमच्यास्त सवै ग्रह्मति पश्यति । सर्वमाप्राति विप्रेन्द्र श्यणोत्येवं वरण 

नास्ति ज्ञानसमो दीपः सर्घान्धकारनाशने । 

स्वर्ग भूमौ च पाताले स्थाने स्थाने च इश्यते ॥ ८॥ 

कायमध्ये स्थितं ज्ञाने न घिन्दन्ति कुबुद्धयः । 

जञानस्थानं प्रवक्ष्यामि यस्माज्जञानं प्रजायते ॥ ६॥ ` 
ग्राणिनां हृदये नित्यं निहितं स्ेदा द्विज ! । कामादीन्सुमहाभ 
चिवेक्वहिना सर्छ खिघरश्चति/अनैङ्ळ। स०॥८सनेशास्तिसस्रो८८पूत्या 


इन्द्रियाथ | 


| 


तिलचिकशततमो5ध्याय 1 ॐ शुकयो निप्रासिकारणवर्णनम्‌ # ३३८ ` 


जायते शान सवतत्वाथद्‌शकम्‌ । तत्त्वमूळेमिद्‌ ज्ञानं निर्मल सर्वद्शंकम्‌॥ ` 
तस्माच्छान्ति कुरुष्व त्वं सवंसौख्यप्रचद्धिनीम्‌। | | 
समः शत्री च मिते च यथाऽऽत्मनि तथापरे॥ १३ ॥ | 
इव नियतो नित्यं जिताहारो जितेन्द्रियः । मैत्रं नेव प्रकतेव्य वैरं दूरे परित्यजेत्‌ ॥ 
सङ्गो निःस्पृहो भूत्वा पकान्तस्थानमाश्रितः। | 
सर्वप्रकाशको ज्ञानी सचंदशी भविष्यसि ॥ १५॥ ` 
एकस्थानस्थितो वत्स त्रैलोक्ये यद्भविष्यति । 
वृत्तान्त वेत्स्यसि त्वं तु मत्प्रसादान्न संशयः ॥ १६ ॥ 
कुञ्जल उचाच। 
सिद्धेन तेन मे चिप्र ! ज्ञानरूपं प्रकाशितम्‌ । 
| त्तस्य वाक्ये स्थितो नित्यं तद्गावेनाऽपि भाषितः॥ १७॥ 
शिक्ये घत्तेते यददेकस्थाने स्थितो ह्वाइम्‌ । तत्तदेच प्रजानामि प्रसादात्तस्य सदुशुरो 
छते सवंमाख्यातमात्मवृत्तान्तमेच हि । अन्यत्कि ते प्रवक्ष्यामि तदुत्र हि द्विजसत्तम 
| च्यघन उवाच । 
कथं प्राप्तो भवाञ्ज्ञानवतांवरः । तन्मे त्वं कारणं त्र हि सर्वसन्देहइनाशनम्‌ 
7 कुञ्जल उवाच | 
ण सञ्जायते पापं संसर्गात्पुण्यमेघ हि । तस्मा द्विवजेयेच्छुद्धो भव्यं विरुद्धमेच च ॥ 
 'शकेनापि पापेन केनाप्येक शुकःशिशुः । बन्धयित्वा समानीतो चिक्रयाथं समुद्यत 
कार सुरूपं तं पटुचाक्यं समीक्ष्य च । ग्रद्दीतो त्राह्मणैकेन मम प्रीत्या समर्पित 
| शानध्यानस्थितो नित्यमहमेच द्विजोत्तम ! । 
| समे बालखभावेन कौतुकात्करसंस्थितः ॥ २४ ॥ 
."तुकचाक्ये्घा मुग्धो ऽहं द्विजसत्तम । शुकस्य पुत्ररूपस्य नित्यं तत्परमानसः ॥ 
मामेचं घदते सोऽपि ताततातेति आस्यताम्‌ । 
राख्छ सहाभगि”'देचेसतेय-सीस्प्रसम्‌। एशहंटव॥ by eGangotr 


“३७६ हर . # पाह्मपुराणम्‌ क । | २ भूमिक 
इत्यादिचाटुकैर्वाक्यिमामेवं परिभाषयेत्‌ । तस्यचाक्यविनोदेन घिस्स्ुतं न्त्‌ 
युष्पाथं फलभोगाथं गतोऽहं धनमेव च । नीतः शुको बिडालेन मम दुःखस्य हेन 
ममसंसर्निमिः सर्वेवंयस्यैः साधुचारिभिः। 
- बिडाळेन हतः पक्षी तेनैघ भक्षितो हि सः ॥ २६॥ | 
थुत्वा सत्यं गतं विप्र ! शुकं तं चाटुकारकम्‌ । महतादुःखभाचेन अखुखेना 5 तिदु/ि 
तस्य दुःखेन मुग्घो५स्मि तीव णापि सुपीडितः । 
महता मोहजालेन बद्धोऽहं द्विजपुङ्गव ॥ ३१ ॥ 


ततोऽहं दुःखसन्तप्तः सञ्जातः स्वेन कमणा । 
चियोगेनापि विप्रेन्द्र शुकस्य श्टणु साम्प्रतम्‌ ॥ ३३ ॥ 
विस्छृतं तन्मया ज्ञानं सिद्धेनाऽपि प्रकाशितम्‌ । 
संस्मरञ्छोकसन्तपतस्तं शुकं चाटुकारकम्‌ ॥ ३४ ॥ 
चत्सबत्सेति नित्यं बै प्रलपञ्छुण भागव । गद्यपद्यमयेर्वाक्येः संस्कृताऽक्षरसंयुते| 
त्वां घिना कश्च मां वत्स बोधयिष्यति सास्प्रतम्‌। ` 
कथाभिस्तु विचित्राभिः पक्षिराज प्रसाद्य माम्‌ ॥ ३६ ॥ 
` अस्मिन्सुनिजेनोद्याने विहाय क गतो भवान | 
केन दोषेण लिसोऽस्मि तन्मे कथय साम्प्रतम्‌ ॥ ३७॥ 
एवंचिधेरहं वाक्येः करुणैस्तैस्तु मोहितः । एचमादि प्रलप्याऽहं शोकेनापि 
स्तो5हं तेन मोहेन तद्वावेनाऽपि मो हितः । मरणे यादृशो भावो मतिश्चासीच्च 
तादृशेनापि भावेन जातोऽहं द्विजसत्तम! । गर्भवासो मया प्राप्तो ज्ञ 
स्मतं पूर्वेहतं कमे स्वयमेव चिचेष्टितम्‌ । मया पापेन मूढेन किं इतं हतर 
गर्भेयोगसमारुढः पुनस्तं चिन्तयाम्यहम्‌ । तेन मे निमेल ज्ञानं जातं वै सर्वद १ 
गुरोस्तस्य अखादाच्च प्राप्त वै ज्ञानमुत्तमम्‌ । । 
cco य वागली सल ज ऋास्स०म सेक्रम हा लि त 


र न ऽध्यायः र्थमाहात््यचर्णनम्‌ र 
दोिशत्यधिकशततमो ] # गुरुतोर्थमा क ३६७. 
` _ सबाह्याभ्यन्तरं विम क्षालितं निर्मळ कृतम्‌ । | 
तिर्यक्त्वं च मया प्राप्त शुकजातिसमुद्धवम्‌ ॥ ४४ ॥ 
ह्य ध्यानमावेन मरणे समुपस्थिते । तस्मिन्काले मृत्तो विप्र ! तद्भावेनापि भाषितः 
हशो5स्मि पुनर्जातः शुकरूपो महीतल्ले ।'मरणे याहुशो भाव: प्राणिनां परिजायते 
ताद्रशाः स्युस्तु सत्त्वास्तेत ट्रपास्तत्परायणाः | तत्परायणाः] | 
. दहुगुणास्तत्स्वरूपास्ते भावभूता भजन्ति हि ॥ ४७॥ 
हयुकाळस्य विप्रेन्द्र आावेनाऽपि न संशयः । अतुल प्राप्तवाज्ज्ञानमहमत्र महामते | 
सवं विपश्यामि यद्भूतं यङ्गविष्यति । घतंमानं महाप्राज्ञ ! ज्ञानेनापि महामते ॥. 
सबं विदाम्यहं ह्यत्र संस्थितो5पि न संशय: | 
तारणाय मनुष्याणां संसारे परिचतंताम्‌ ॥ ५० ॥ 
स्त तीथं गुरुसमं बन्धच्छेद्कर द्विज । एतत्ते सर्वमाख्यातं शएणु भागेवनन्दन ! ॥; 
यत्त्वया पृच्छितं घिप् तत्ते सवं प्रकाशितम्‌ । 
ह स्थळजाच्चोदकात्सवं बाह्यं मलं प्रणश्यति ॥ ५२॥ 
मान्तरङ्तान्पापान्गुरुतीथं प्रणाशयेत्‌ । संसारतारणायैव जङ्गमं तीर्थसुत्तमम्‌॥ 
| _विष्णुरुवाच । 
खं महामाशश्च्यचनाय महात्मने । तत्त्वं प्रकाशयित्वा तु विरराम नृपोत्तम ॥ 
त सवमाख्यात जङ्गम तीर्थमुत्तमम्‌। घरं वरय भद्र' ते यत्ते मनसि धत्ते ॥५५॥ 
ह... वेन उवाच | 
नाह राज्यस्य कामार्थी नान्यत्किचित्प्रकासये । 


सदेहो गन्तुमिच्छामि तच कायं जनार्दन! ॥ ५६ ॥ ` 
एवं वरमहं मन्ये यदि दातुमिहेच्छसि ॥ ५७॥ 
चिष्णुरुषाच । 

मेयेन राजसूयेन भूपते ! । गोभूस्चर्णास्बुधान्यानां कुरु दानं महामते ॥ 
चे पापं ्रह्मयध्यादिघोरकम्‌ । चतुवंगेस्तु दानेन सिद्धयत्येच न संशयः 


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# पाद्यपुराणम्‌ # [२ मूष | 
तस्माद्दानं प्रकर्तच्यं मामुद्दिश्य च भूपते । याहुदोना5पि भावेन मासुद्दिश्य दाहि 

र ताद्वशं तस्य वै भावं सत्यमेवं करोम्यहम्‌ । ऋषीणां वशोनात्स्पशाढुम्रषस्त पाप 

आगमिष्यसि यज्ञान्ते मम देहं न संशयः । यसमा ता त वत गतो ह 

इति श्रीपाक्ष पुराणे द्वितीये भूमिखण्डे स यां वेनोपा; 

. गुरुतीर्थमाहात्म्यसम्पू्तिव ने च्यवनचरित्रसमाधौ च त्रयो चिशत्यधिकशतमोऽभा 


mn Ws अनममननाम. 


३६८ 


© 


चतुवि'शत्यधिकशततमोऽच्यायः 
पथोर्यज्ञार्थराजाज्ञाम्विधाय तपसेग्स्थानम्‌ । 


अन्तद्धोनं गते चिष्णौ 00 . a 
हर्षेण महताऽऽविएश्चिन्तयित्वा नृपोत्तमः । समाहय न्टपश्चेछठं तं पृथु मधुराक्षर १ 
तमुवान महात्मानं हर्षण महता तदा । त्वया पुत्रेण भूलोके तारितोऽस्मि दुपातर 
नीत उज्ञ्चळतां चत्स वंशो मे साम्प्रतं पृथो ! । 
मया चिनाशितो दोपैस्त्वया गुणे: प्रकाशितः ॥ ४॥ | 
यज्ञेऽहमश्वमेधेन दास्ये दानान्यनेकशः । विष्णुळोकं ्जास्यद् सकायस्ते प्रसाइ 
सम्भरस्व महाभाग सम्भारांस्त्वं द्पोत्तम। आमन्त्रय महाभाग ब्राह्मणान्वेदपाण 
एं पृथुः समादिष्टो बेनेनापि महात्मना । प्रत्युवाच महात्मा स वेनं पितरमादण 
कुरु राज्यं महाराज ! भुङछ्ष्वभोगान्मनोऽनुगान्‌। ` 
दिव्यान्वा मानुषान्पुण्यान्यज्ञेयेज जनादेनम्‌॥ ८॥ 
णवमुत्तचा प्रणस्येच पितरं ज्ञानतत्परम्‌ । धनुरादाय पूथ्चीशः सबाणं यत्न१५४॥ 
आदिदेश भटान्सर्चान्धोषध्वं भूतले मम । पापमेव न कतेव्यं कर्मणा त्रिवि । 
करिष्यन्ति च यत्पापं आज्ञा वेनस्य भूपतेः । क | 


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र त्वणिकराततमो ऽश्यायः ] « वेनपुत्रायत्रह्मणोवरप्रदानम्‌ कक ३६९ द 
इल्लङ्ष्य बध्यतां सो हि यास्यते नात्र संशयः ॥ ११ ॥ . | 
शेव प्रवातव्य यदै जनार्दनम्‌ । यजध्वं मानवाः सर्वे तन्मनस्का विमत्सराः ॥ - 
एवं शिक्षां प्रद्त्वा ऽसौ राज्यं भृत्येषु वेनजः। . ु 

,| निक्षिप्य च गतो चिप्रास्तपी व्य {तपस्या तपोबनम्‌ ॥ १३॥ 
आदीषान्पख्यिज्य संयस्य विषयेन्द्रियान्‌। शतवर्षप्रमाण वै निराहारो बभूच ह ॥ 

हरा तस्य वै तुष्टो ब्रह्मा पृथुसुवाच ह । तपस्तपसि कस्मात्त्वं तन्मे त्वं कारणं चद 

पृथुरुवाच । 

शिएपमहाप्राष्ः पितामे की तिवद्धेनः । समाचरति यः पापमस्य राज्ये नराधमः ॥ 

हेता भवत्वेष तस्य देवो जनादुनः । अदश महाचक्रेदेरिः शास्ता. भवेत्स्वयम्‌ 

मनसा कमेणा बाचा कतु वाञ्छन्ति पातकम्‌ । 

तेषां शिरांसि चुर्थन्तु फळं पक्क यथा दुमात्‌ ॥ १८॥ 

नेव बरं मन्ये त्वत्तः >टण सुरेश्वर ! । प्रजानां दोषभावेन न लिप्यति पिता मम ॥ 

धा कुरुष्व देवेश ! घरं दातु' यदीच्छसि । ददस्व उत्तमं कामं चतुसुंख ! नमोऽस्तु ते 

त ब्रह्मोचाच । 

एवमस्तु महाभाग पिता ते पूततां गत: । 

| विष्णुना शासितो वत्स ! पुत्रेणापि त्वया पृथो ! ॥ २१ ॥ 

ह | पय समुद्दिश्य चरं दत्त्वा गतो विभुः । पृथरेव समायातो राज्यकर्मणि संस्थितः 

| वैन्यस्य राज्ये चिप्रेन्दाः-पापं कश्चिन्न चाचरेत्‌ | 

| ` यस्तु चिन्तयते पापं त्रिविधेना$पि कर्मणा ॥ २३॥ 

(७ भवेत्तस्य यथा चक्रेनिकृन्तितः । तदाप्रभृति वै पापं नेव कोऽपि समाचरेत्‌ 
| पतते तस्य बैन्यस्यापि महात्मनः । सर्वलोकाः समाचारैः परिवर्त न्ति नित्यशः 

, | भवतेन्ते सर्वधमेपरायणाः । सर्वसौस्यैः प्रवडेन्ते प्रसादात्तस्य भूपतेः ॥ 

| "पापुराणे द्वितीये भूमिखण्डे वेनोपाल्याने चतुविशत्यधिकशततमोऽध्यायः 


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` ` पञ्चर्विशत्यधिकशततमो ऽध्यायः 
'देनस्याइवमेधादियज्षकरणपूवकंविष्णुलीकगमनम्‌ । .. 


सूतउचाच। ` 
- . ' घेनस्याज्ञां खुसम्पाप्य पथः परमधार्मिकः । - 
.  सस्बश्न सर्वेसंम्मारान्तानापुण्यान्टपात्मजः ॥ ३ ॥ | 
निमय त्राह्मणान्सर्वान्नानादेशोद्ववानपि | अथ वेन इयाजासाचश्वमेधेन भू 
दानान्यदादुत्राह्मणेम्यो नानारूपाण्यनेकशः । | 
ज़गाम.वैष्णवं लोकं सकायो जगतीपतिः ॥ ३॥ 
चिष्णुना सह धर्मात्मा नित्यमेव प्रवतेते | एतद्ः सर्वमाख्यातं चरित्रं तस्य मूष 
सर्वपापप्रशमनं सर्वदुःखविनाशनम्‌ । प्रथुरेच स धर्मात्मा राजा पृथ्वीं प्रशा 
जैळोक्ये न समं पृथ्वीं दुदोह ृपसत्तमः । प्रजास्तु रञ्जितास्तेन पुण्यधर्मानुकम| 
एतत्ते सर्वमाख्यातं भूमिखण्डमनुत्तमम्‌ । प्रथमं सृष्टिखण्डं तु द्वितीयं भूमिद 
भूमिखण्डस्य माहात्म्यं कथयिष्याम्यहं पुनः । 
अस्य खण्डस्य वे श्लोकं यः श्रणोति नरोत्तमः ॥ ८॥ 
दिनस्यैकस्य चै पापं तस्य चेव प्रणश्यति । 
यो नरो भाषसंयुक्तोऽध्यायं संश्णुते सुधीः ॥ ६8 ॥ | 
तस्य पुण्यं प्रचक्ष्यामि श्रूयतां द्विजसत्तमाः । दत्तस्य गोसहस्त्रस्य ब्राह्मणेभ्यः ए 
यत्फलं तत्प्रजायेत विष्णुस्तस्य प्रसीदति। अस्य पद्मपुराणस्य पठमानस्य | 
कलौ युगे तु वि्नाश्व न जायन्ते नरस्य चे ॥ १२॥ 
व्यासउचाच। 
कस्मात्कलो न जायन्ते शएण्चानस्य च पज ! । 
नरस्य पुण्ययुक्तस्य नानाचिप्ञाः सुदारुणाः ॥ १३ ॥ ` 


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य यत्फळं परिकथ्यते । तत्फलं दृश्यते तात ! पुराणे पह्मसंशके ॥ 

लः पुण्यः कली नैब प्रचतेते । पुराणं चापि यततद्वदश्वमेधसमं किल ॥१५॥ 
अश्वमेधस्य यत्पुण्यं स्वगंमोक्षफलप्रदम्‌ । कर 

न मुञ्जन्ति नराः पापाः पापमागेषु संस्थिता: ॥ १६ ॥ 

पत्यास्य पुण्यस्य पद्मसंज्ञस्य खत्तम !। अःवमेधसमं पुण्यं न भुज्ञन्ति कळी नरा 

ह युगे नरे पापैर्गन्तव्यं नरकार्णवम्‌ । कस्माच्छोष्यन्ति तत्पुण्यं चतुचंगंप्रसाधनम्‌ . 

तमिदं पुण्यं पुराणं पद्मसंज़्कम्‌ | सवं हि साधितं तेन चतुवरर्गस्य साधनम्‌ ॥ 

होधाद्यो यज्ञास्तस्मान्नछा महामते । कलौ युगे गताः स्वे सवेदा: साङ्गसस्बरा 

यःकोऽपि सस्वसस्पनः श्रद्धावान्भगचत्परः । 

श्रोतुमिच्छति धमात्सा सपुत्रो भायया सह ॥ २१ ॥ 

णयं महाश्रद्धा पूर्वं तस्य प्रजायते । शएण्बानस्य नरस्यापि महाविज्नो न सञ्चरेत्‌. 

वा जायते पूर्वं पाठकस्य नरस्य च । लोभश्च जायते तस्य श्2ण्वानस्य डिजोत्तम! 

प्रेषितो चिष्णुदेवेन महामोहः सदारुणः । 

अकरोत्स घिनाशं तु शण्वतश्चास्य नित्यशः ॥ २४ ॥ 

दूषकाः कुत्सकाः पापाः सम्भवन्ति दिने दिने। 

ज्ञातव्यं तु सुबुद्धेन घिध्नरूपं ममाधुना ॥ २५॥ 

सञ्जातं दृश्यते व्यास ! तथा होमं समाचरेत्‌ । 

वेष्णवैश्च महामन्त्रेचिष्णुसूक्तैः सुपुण्यदेः ॥ २६ ॥ 

मन्त्रेण सहस्रशीर्षकेन च । इदं विष्णु सुमन्त्रेण आत्रह्मेण पुनः पुनः ॥ 

च मन्त्रेण होममेवं समाचरेत्‌ । बृहत्साम्ना सुमन्त्रेण द्वादशाक्षरकेण च ॥ 

ेसस्ययो होमस्तस्य मन्त्रेण होमयेत्‌ । अ्टोत्तरतिलाज्यैश्च पालाशैः समिधेरपि 

पपि कतेच्यं स्थापनं पूजनं द्विज ! विध्नेशं पूजयेत्तत्र शारदां च सुरेश्वरीम्‌॥ 

जातवेदां महामायां चण्डिकां क्षेत्रनायकम्‌ । 


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४०२ .. 


तस्याङ्गे जायते रोगो बहुपीडाप्रदायकः | भार्याशोकः पुशोको धनहानिः | 


एकादशी सुसम्प्राप्य पूंजयेन्मधुसूदनम्‌ । षोडशैश्थोपचारेश्ध भावयुक्तेन चेतसा || 
ब्राह्मणान्मोजयेत्पश्चाद्यथा चित्तादुसारतः। केशवाय ततो दत्वासडुल्पंहषिपाएति 


पुराणसंहितापूर्णा श्रोतव्या धर्मेतत्परैः । चतुवं्गस्य वे सिद्धिजायते तस्य तन 


द्वाविशतिसह्माणि संहिता पद्मसंज्ञिता। द्वापरे कथिता चिप्र ! ब्रह्मणा पणा 


` लक्षस्याद्धं ततः इत्स्नं पुराणं पझसंज्ञकम्‌ | 


ॐ पाझपुराणम्‌ # - [२ श 
तिङश्च तण्डुळेराज्येस्तेषां मन्त्रसमुद्यतैः ॥ ३१ ॥ 
एवं होमः प्रकर्तव्यो त्राह्माणेस्यो ददेद्धनम्‌ । 
यथा सम्मविकां तात ! दक्षिणां घेचुसंयुताम्‌ ॥ ३२ ॥ 
ततो चिम्नाः प्रणश्यन्ति पुराणं सिद्धिमाप्चुयात्‌ । 
एवं न कुरुते यो हि तस्य विघ्नं घदाम्यहम्‌ ॥ ३३॥ ` 


नानाचिघान्महान्रोगान' भुञ्जते नाच संशयः । 
यस्य गेहे नास्ति घित्तमुपघासं समाचरैत्‌ । 


स्वयं कुर्य्यात्तत्तः प्राज्ञो भोजनं सह बान्धवैः । 
पुनस्तु भर्यया युक्तस्ततः सिद्धिमवाप्चुयात्‌ ॥ ३८ ॥ 


सपादं लक्षमेकं तु ब्रह्माख्यं पुष्कर *टणु । 
कृते युगे तु निष्पापाः श्टण्वन्ति मनुजा द्विज ! ॥ ४०॥ 


इळोकानां तु सहस्नाम्यां द्वाम्यामेष तथाधिकम्‌ ॥ ४१ ॥ 
त्रेतायुगे तथा प्राप्ते यदा श्रोष्यन्ति मानवा: । 
चतुवेर्गफळं भुक्त्वा ते यास्यन्ति हरि पुनः ॥ ४२॥ ` 


द्वाद्रीष सहस्राणां पद्माख्या सा तु संहिता । 
कली युगे पठिष्यन्ति मानघा चिष्णुतत्पराः ॥ ४४ ॥ 


पकोऽ्थश्चेकभाषश्च चतुष्वेपि प्रथतितः । संहितास्वेच घिप्रेन्द्र | शेषारू 


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द्वादशेव सहस्राणि नाशं यास्यन्ति सत्तम | । 


[ , पधिकशततमो 5ध्यायः | # पाद्यपुराणस्थभूमिखण्डस्यफलश्वति: ४०३ . 

. कलौ युगे तु सम्प्राप्ते प्रथमं हि भविष्यति ॥ ४६॥ - क 
हुईं नरः श्रृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते । सुच्यते सवेदुःखेम्य; सर्वरोग प्रमुच्यते ॥ 
सव परित्यज्य जपं दान तथा शुतम्‌ । श्रोतव्यं हि प्रयत्नेन पद्माख्य पापनाशनम्‌ 


1 शृश्खिण्ड तु द्वितीयं भूमिखण्डकम्‌ । तृतीयं स्वर्गखण्डं च पाताल तु चतुर्थकम्‌ 
पञ्चमं चोत्तरं खण्डं सर्वपापप्रणाशनम्‌ । 


य श्रणोति नरो भक्त्या पञ्चलण्डान्यनुक्रमात्‌ ॥ ५० ॥ 
पहस्नस्य मानचो लभते फलम्‌ । महाभाग्येन लभ्यन्ते पञ्चखण्डानि भूखुरा: ॥ 
भ्रतानि मोक्षदानि स्युः सत्यं सत्यं न संशय: ॥ ५२॥ 


ति श्रीपाहपुराणे द्वितीये भूमिखण्डे पश्चपद्लाशत्सहस्रसंहितायां घेनोपाख्याने 
पञ्च विशत्यथिकशततमो ऽध्यायः ॥ १२५ ॥ 


* समाप्तोऽयं भूमिखण्डो द्वितीय; ॐ 


* शुभमस्तु % 


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ॐ श्रीगणेशाय नमः # 
-- 
पद्मपुराणम्‌ 
अथतृतीयं स्वगंखण्डम्‌ 


प्रथमोष्ध्यायः 
शपुराणपुरुषायनमः । 
नेमिषेस्थगंखण्डकृतेशौनकादीनां सतम्प्रतिप्रष्न; । 
ऊँण्नमो विध्यहतरउँशनमःश्रीमते। . 
नमामि गोविन्दपदारचिन्दं सदै न्दिराव न्दितमुत्तमाळ्यम्‌। 
जगज्जनानां हदि सं निविष्टं महाजनेकायनमुत्तमोत्तमम्‌॥ १॥ 
हिमुनयः सर्वे ज्वळञ्ञ्वळनसन्निमाः। हिमचद्वासिनो वेदवेदाङ्गपरिनिष्टठिताः ॥ 
त्रिकालज्ञा महात्मानो नानापुण्याश्रमाश्रयाः । 
महेन्दराद्रिरता ये च ये च घिन्ध्यनिवासिनः॥ ३॥ 
: पुष्करारण्यचासिनः। श्रीशेलनिरता ये च कुरुक्षेत्रनिवासिनः ॥ 
ये च दण्डकारण्यचासिनः । जंम्वूमागरता ये च ये च सत्यनिवासिनः 
' पते चान्ये च बहवः सशिष्या मुनयोऽमलाः । . 
| नैमिषं खमुपायाताः शौनक दष्ुसुत्खुकाः॥ ६॥ | 
|ित्वा विधिवत्तेन ते च सुपूजिताः । आसनेषु चिचित्रेषु द्स्यादिषु यथाक्रमम्‌ 
| शौनकेन प्रदृत्तेषु आसीनास्ते तपोधनाः। . 
३ 4 ` कैष्णाश्निता: कथाः पुण्याः परल्परमथात्र चन ॥ ८ ॥ 


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हरन # पाझपुराणम्‌ ॐ [३७ | 
कथान्ते ततस्तेषां सुनीनां माषितात्मनाम्‌। आजगाम महातेजाः सूतस्तत्र क, 
व्यासशिष्य पुराणज्ञो रोमहषणसश्क' । तान्प्रणस्य यथान्याय स तश्चेवा 
` उपचिष्टं यथायोग्यं शौनकाद्या महर्षयः । व्यासशिष्यं सुखासीनं सूतं वे रो; 
`` तं पप्रच्छमेहाभागाः शौनकाद्यास्तपोधनाः ॥ १२ ॥ 
ऋषय ऊचुः । 

पौराणिक ! महाबुद्धे !,रोमहषेण ! खुबत ! । 

त्वत्तः श्रता महापुण्याः पौराणिवयःकथाःएुर ॥ १३६ 

साम्प्रतं च प्रवृत्ताः स्म कथायां सक्षणा इः ! 

स वै पंसां परो घमो यतो भक्तिरधोक्षजे ॥ १४ ॥ | 
पुनः पुराणमाचक्ष्व हरिवार्तासमन्वितम्‌ । हरेरन्या कथा सूत शमशानसद्वशी स 
हरिस्तीर्थस्वरूपेण स्वयं तिष्ठति तच्छुतम्‌ । तीर्थानां एण्यदःतणां नामानि फिर 
कुत पतत्समुत्पन्नं केन चा परिपाल्यते । कस्मिन्विळयमभ्येति राद 

क्षेत्राणि कानि पुण्यानि के च पूज्याः शिलोच्ययाः। 

नद्यश्च काः पराः पुण्या गुणां पापहराःशुभाः ॥ १८॥ 

एतत्सर्वं महाभाग कथयस्च यथाक्रमम्‌ ॥ १६॥ 

सूतउचाच | 

साधु साधु महाभागाः साघु ष्टं तपोधनाः । तं प्रणम्य प्रवक्ष्यामि पुराणं परण 
पाराशायं परमपुरुषं विश्ववेदेकयोनि चिद्याधारं विपुलमतिदं वेदवेदान्तवेद्यम! | 
शश्वच्छान्तं स्वमतिचिषयं शुद्धतेजो विशाल वेदव्यासं घिततयशसं संबदाऽई 
नमो भगवते तस्मे व्यासायामिततेजसे । यस्य प्रसादाद्वक्षयामि कया 
प्रवक्ष्यासि महापुण्यं पुराण पद्दसंजितम्‌ । सहन्त पञ्चपञ्चाशत्सपतलण्डेः सा 

तत्राऽऽदौ सष्टिखण्डं स्यादुभूमिखण्डं ततः परम्‌ । ` 

तृतीयं स्वर्गखण्डं च चतुर्थ ब्रह्मवण्डकम्‌ ॥ २४ ॥ | 
पाताल पञ्चमं खण्डं षष्ठसुत्तरमेव च । क्रियाखण्डं सप्तमं स्या दित्येवं खण्ड 


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व ] कै ब्रह्माण्डोत्पत्तिवर्णनम्‌ # १ क | 
| महापदुममदुसुतं यन्मयं जगत्‌ । तदुवृत्तान्ताश्रयं तएमात्पादुम मित्युच्यते बुधै; | 
राणममलं विष्णुमाहात्म्यसुत्तमम्‌ । देवदेवो हरियंद्दे ब्रह्मणे प्रोक्तवान्पुरा ॥२७॥ 

ब्रह्मा तन्नारदाया55ह नारदो5स्मढुणुरोः पुर: । कक 

ब्यासः सवपुराणानि सेतिहासानि संहिताः ॥ २८॥ 
्ापामास सुहुर्मामतिप्रियमात्मनः । तदहं सम्प्रवक्ष्यामि पुराणमतिदुर्छभम्‌ ॥ 
ता ब्रह्महत्यादिपापेस्यो झुच्यते नरः, खवेतीर्थाभिषेकं च लभते श्टणुते हि यः 
हया परया भक्त्या श्रुतम्ात्रेण सुक्तिदः । अश्रद्याऽपि *्टणुते लभते पुण्य सञ्चयम्‌ 
| तस्मात्सवंप्रयत्मेच पादुमं श्रणुत मन्सुखात्‌ ॥ ३२॥ 
तत्रादिखण्ड घक्ष्यासि पुण्यं पापघिनाशनम्‌। | 
| शृण्वन्तु सुनयः सब खशिष्यास्त्वत्र ये स्थिताः ॥ ३३ ॥ े 
ख श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वगेखण्डे सूतम्मतिशौनकादिमहर्षिणां स्वर्गखण्ड 

प विषयकप्रश्‍नकथनं नाम प्रथमो ऽध्यायः ॥. १ ॥. 


द्वितीयो ऽष्यायः 


अब्याकृतनह्मणःमहाभूतादि ब्रहमाण्डोत्त्तिवर्णनम्‌ । 
सूत उवाच। । 
"महे तावत्कथयामि द्विजोत्तमाः । ज्ञायते येन, भगवान्परमात्मा सनातन: ॥ 
| ब्यादूष्ये नाली त्कि द्चिदुद्धिजोत्तमाः । ब्रह्मसंशमभूदेक॑ ज्योतिवै सर्वकारकम्‌ 
१ नित्यं निरञ्जनं शान्तं निर्मलं नित्यनिर्मलम्‌ । 
| भानन्द्सागरं स्वच्छं यत्काङ्क्षन्ति मुमुक्षवः ॥ ३॥ 
| करुपत्वादनस्तमजमव्ययम्‌ । अविनाशि सदास्वच्छमच्युतं व्यापक महत्‌ ॥ 
डा जु त सम्पाप्ते ज्ञात्वा तञ्ज्ञानरूपकम्‌। आत्मलीनं विकारं च तत्ख ष्टुमुपचक्रमे 


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क पाझपुराणम्‌ # [ ३ स्वप | 


तस्मात्य्रधानमुदुभूतं ततश्चाऽपिं मद्दानभूत.। 
त्रिधा महान्‌॥ ६ ॥ 
. सार््विको राजसश्चैव तामसश्च nH 
प्रधानेनावृतो होव त्वचाचीजमिवाव्वृतम्‌ । श्च भूतादिश्चैव तामह 


त्रिविधोऽयमहङ्कारो महत्तत्त्वादजायत । यथा प्रधानेन महान्महता स तथाबृतः। / 
ततः । सखे शब्दतन्सात्ादाकाशं शब्दा 
भूतादिस्तु विकुर्वाणः शब्दतन्मात्रकं | 
` शब्दमात्रं तथाकाशं भूतादि सममावृणौत्‌ । शब्दमाच तथाऽऽकाशं स्पशेमात्र सस 
बळचानभवद्वायुस्तस्य स्पशों गुणो मतः | आकाश शव्दमान तु स्पशमात्रं समार 
ततोवायुविङुर्वाणो रूपमात्रं ससञे ह । 
ज्योतिरुत्पद्यते चायोस्तद्वपणुणमुच्यते ॥ १२ ॥ 
स्पशोमात्रस्तु वे वायूरूपमात्रे समावृणोत्‌ । ज्योतिश्थाषे (वेकुचांणं रसमात्रं सत 
सम्भचन्ति .ततोऽम्मांसि रखमात्राणि तानि लु । 
रसमात्राणि चाम्भांसि रूपमात्रं समावृणोत ॥ १४॥ 
विकुर्वाणानि चाम्मांखि गन्धमात्रं ससजिरे। 
तस्माञ्ञात्ता मही चेयं सर्वभूतगुणा5घिका ॥ १५॥ 
` ससङ्कातोयतस्तस्मात्तस्य गन्धो गुणो मतः । 
तस्मिस्तस्मिस्तु तन्मात्रात्तेन तन्मात्रता स्मृता ॥ १६ ॥ 
तन्मात्राण्यचिशेषाणि विशेषाः क्रमशोऽपराः । भूततन्मात्रसगों 5यमहड्डारातु तग 
की तितस्तुसमासेन सुनिवर्यास्तपोधताः । तैजसानी न्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिका| 
एकादशं मनश्चात्र कीतितं तंत्वचिन्तकेः। ज्ञानेन्द्रियाणिपञ्चाऽत्रपञ्चकम 
तानि घक्ष्थामि तेषां च कर्माणि कुलपावनाः । 
श्रवणं त्वक्वक्षुजिह्य नासिका चैव पञ्चमी ॥ २० १ 
शब्दादिज्ञानसिद्ध्यथं बुद्धियुक्तानि पञ्च वे । .पायपस्थं हस्तपादौ कीर्तिता वा] 
विसर्गानन्द्नादानगत्युक्तिकमे तत्स्म्ृतम्‌। आकाशवायुतेजांसि सलिलं पृ 


शब्दादिमिगुणे उत्तरोत्तरे : 
(७-0. Mumukshu Bhawan ER SS रः, eGangotri 


यायः ] ॐ द्वीपाद्विभागवर्णनम्‌ # NY 
तानावीर्याः पृथग्भूतास्ततस्ते संहति विना ॥ २३॥ 
नाशक्लुवन्प्रजाः सष्टुमसमागत्य त्स्नशः । 
समेत्यान्योऽन्य संयोगपरर्परमथाश्रयात्‌ ॥ २४॥ 
याञ्च सम्प्राप्यक्यमशेषतः । पुरुषाधिष्टितत्वाच्च प्रधानाष्जुप्रहेण च 
विशेषान्ता अण्डसुत्पाद्यन्ति ते ।. तत्क्रमेण विवृद्धं तु जळचुद्चुद्चत्सदा 
_ोऽण्डं महाप्राज्ञा बृद्ध तदुदकेशयम्‌ । प्राकृतं प्रह्मरूपस्य चिष्णोः स्थानमनुत्तमम्‌ 
“| ध्यक्तस्वरुपो5सो विण्णुविश्वेश्वरः प्रभु: । ब्रह्मरूपं समास्थाय स्वयमेच व्यवस्थित 
"| ण्डमभूत्तस्य जरायुश्व महीधराः । गर्भोदकं समुद्राश्च तस्याभून्महृदात्मनः ॥ 
भुद्राश्च सञ्योतिलोकसङ्ग्हः । तस्मिन्नण्डेऽमचत्सर्वं सदेवासुरमानुषम्‌ 
जु त्यैच विष्णोनासेः समुत्थितम्‌ । यत्पद्मं तद्वैममण्डमभूच्छीकेशवेच्छया 
` शिणघरों देवः स्वयमेव हरिः परः । ब्रह्मरूपं समास्थाय जगत्ल्ष्डु' प्रचर्तते ॥ 
च पात्यचुयुगं यावत्कदपविकरपना । नारसिंहादिरूपेण रुद्वरूपेण संहरेत्‌ ॥३३॥ 
स ब्रह्मरूपं चिस्टजन्महात्मा जगत्समस्तं परिपातुमिच्छन्‌ । 
रामाद्रिपं सं तु गद्य पाति बभूच रुद्रो जगदेतदत्तुम्‌ ॥ ३४ ॥ 
इतिश्रीपाे महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे अव्याङतव्रह्मणःपञ्चभूतादि 
त्रह्माण्डोत्पत्तिवर्णनंनाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ 


म्ह 


य | तृतीयो ऽध्यायः ` 
| ढ्वीपादिविभागवर्णनम्‌ | 
की अरषयऊचुः । 


| पेतानां च नामधैयानि सर्वेश: । तथा जनपदानां च ये चान्ये भूमिमाश्चिता 
च प्रमाणज्ञ पृथिव्याः किल सवतः । निखिलेन समाचक्ष्व काननानि च सत्तम 


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>. 


हि # पाझपुराणम्‌ # I 
सूत उवाच । 
पञ्चेमानि महाप्राज्ञ महाभूतानि सङ्ग्रहात्‌ । 
जगतीस्थानि सर्वाणि समान्याहुर्मनीषिणः ॥ ३॥ 
भूमिरापस्तथा घायुरभिराकाशमेव च । गुणोत्तराणि सर्वाणि तेषां भूमिः प्रर 
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः । भूमेरेते गुणाः प्रोक्ता ऋषिभिस्तत्ववेक् 
चत्वारो५प्सु गुणा विप्रा. गन्घस्तच न चिद्यते । 
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च तेजसोऽथ गुणास्त्रयः ॥ ६ ॥ 
शब्दः स्पर्शश्च वायोस्तु आकारो शब्द एघ च । 
एते पञ्च गुणा विप्रा महाभूतेषु पञ्चछु ॥ ७ ॥ 
रन्ते सर्वलोकेषु येषु भूताः परतिष्ठिताः । अन्योन्यं नालिबर्तन्ते साम्यं भवति वहन 
यदा तु विषमीभावमाविशान्ति परस्परम्‌ । तदादेहैदे यन्तो व्यतिरोहन्ति नान 
आनुपूर्व्या विनश्यन्ति जायन्ते चानुपूर्वशः । सर्वाण्यपरिमेयाणि तदेषां रुपमै 
यत्र यत्र हि दूश्यन्ते धाचन्ति पाञ्चभौतिकाः । T 
तेषां मजुष्यास्तर्केण प्रमाणानि प्रचक्षते ॥ ११ ॥ 
अचिन्त्याः खलु ये भावास्तान्न तकण साधयेत्‌ । 
सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु मुनिपुङ्गवाः ॥ १२॥ 
परिमण्डलो महाभागा द्वीपोऽसौ चक्रसं स्थितः । 
नदीजलपरिच्छिन्नः पर्वेतैक्वाब्धिसन्निभैः ॥ १३॥ | 
पुरेश्वविविधाकारेरम्येजेनपदेस्तथा । वृक्षैः पुष्पफलोपेतैः सम्पन्नो धनधान्य! 
रूवणेन समुद्रेण समन्तात्परिचारितः | यथा हि पुरुषः पश्येदादशं सुखमात्मतः॥ 
एवं सुद्शेनो द्वीपो दुश्यते चक्रमण्डलः। द्विरंशे पिप्पलस्तस्य द्विरंदो च शशो # 
सर्वोषधीः समादाय सर्वतः परिघारितः | आपस्ततो ऽन्या विज्ञेयाः रोषः संक्षेप उ 
अषयऊ्चुः ।' : : 
उक्तो यस्य च संक्षेपो वुद्धिमन्विधिवत्त्वया । 


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। | याय |! आ... षड्रत्नपर्वेतवर्णनपूर्वेकमेरुपर्वेतादिकथनम्‌ क्ष 3 


तत्त्वक्षश्वासि सर्वस्य विस्तरं सूत ! नो घद्‌ ॥ १८॥ 
गशोऽयं दृश्यते शशळक्षणे तस्य प्रमाणं प्रत्नु हि ततो चक्ष्यसि पिप्पलम्‌ 
बं तैः किल पृष्टः स सूतो वाक्यमथा५त्रवीत्‌ ॥ २० ॥ 
| सुत उचाच। | 
| पता महाप्राज्ञाः षडेते रल्षपर्वेताः । अचगाढा ह्यू मयत: समुद्री पूर्वपश्चिमौ ॥ 
हेमकूटश्च निषधश्च नगोत्तमः । नीलश्च वेड्यमयः श्वेतश्च शशिसर्निभः ॥ 
| तपिनद्धश्च शउङ्गवान्नामपर्चेतः । पते चै प्ता चिप्राः सिद्धधारणसेचिताः ॥ 
बेष्कम्मा योजनानि सहस्रशः । तत्र पुण्या जनपदास्तानि घर्षाणि सत्तमा 
तेषां सत्वानि नानाजातीनि सर्वेशः । इदं तु भारतं वर्ष ततो हैमचतं परम्‌ ॥ 
ैह्रहात्परं चेच हरिवर्ष प्रचक्षते । दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण च ॥ २६॥ 
प्रागायतो सहाभागा माल्यवान्नाम पवत: । 
म ततः परं माल्यवतः पवतो गन्धमादनः ॥ २७॥ 
परप्डलस्तयोमेध्ये मेदः कनकपर्वेतः । आदित्यतरुणाभासो विधूम इच पावक: ॥ 
| सहस्राणि चतुरशी तिरुच्छितः | अधस्ताच्चतुरशी तिर्योजनानां द्विजोत्तमः 
ऊध्वेमधश्च तिर्यक्च लोकानावृत्यो तिष्ठति । 
तस्य पाश्वेष्चमी द्वीपाश्चत्वारः संस्थिता द्विजाः ॥ ३० ॥ 
(शः केतुमालश्व जम्वूढीपश्च सत्तमाः। उत्तराश्यैच कुरवः छृतपुण्यप्रतिश्रया: ॥ 
बिहङ्गसुसुखो यस्तु सुपाश्वस्यात्मजः किल । 
व| सवै विचिन्तयामास सौचर्णान्प्रेक्ष्य वायसान्‌ ॥ ३२॥ 
0 स्मिमध्यानामधमानां च पक्षिणाम्‌ । अविशेषकरो यस्मात्तस्मादेनं त्यजाम्यहम्‌ 
।त्पोऽुपर्थेति सततं ज्योतिषां घर: । चन्द्रमाश्च सनक्षत्रो वायुश्चैव प्रदक्षिणः 
महापाज्ञा ! दिव्यपुष्पसमन्वितः। भवनैरादृतैः सचेजांग्वूनदमयेः शुभैः ॥३५॥ 
षिप्रा गन्धर्वासुरराक्षसाः । अप्सरोगणसंयुक्ताः शेले क्रीडन्ति सवदा 
च सदरश्च शक्रश्चापि सुरेश्वरः । समेत्य चिषिधेयंज्ञेयंजन्तेऽनेकदक्षिणैः 


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८ बह ,# पाह्मपुराणम. # ` ` रा 
के तुम्बुस्नार्दशैच विश्वावसुहादाइहः । अभिगम्याऽमरश्ेष्ठं स्तुवन्ति चिघिधै, | 
` त्यो महात्मानः कश्यपश्च प्रजापतिः। 
| तत्र गच्छन्ति भद्रं बः सदा पर्वेणि पर्वेणि॥ ३६॥ .. 

- तस्यैव मूद्धन्युशना ! काव्यो देत्येमंहीयते । तस्य हैमानि रत्नानि तस्यैते रू! | 
तस्मात्कुवेरोभगर्वाश्वतुर्थ भागमश्तुते । ततःकलांशं वित्तस्य मचुष्येभ्यः पर 
प्वतस्यान्तरे दिव्यं सर्वतु कुसुमैश्चितम्‌ । कणिकारचनं रस्यं शिलाजाल्समुक्ति 
तत्र साक्षात्पशुपतिदिव्यभूतेः समात्रृतः । उमाखदायो अगवान्रमते भूतमाक) 

कर्णिकारमयों माढाँ बिश्रदापादलम्बिनीम्‌ । 
त्रिभिर्नेत्रैः छृतोद्दयोतस्त्रिमिः सूये रिवो दितेः ॥ ४४ ॥ ` 
तमुग्रतपसः सिद्धाः सुद्रताः सत्यवादिनः । 
पश्यन्ति न हि दुद्व त्तेः शाक्यो द्रष्टं महेश्वरः ॥ ७५ ॥ 
तस्य शैलस्य शिखरातक्षीरधारा द्विजोत्तमाः । विश्वरूपात्परिमिता भीमनिर्घातरित्र 
पुण्यापुण्यतमैर्जुणा गङ्गा भागीरथी शुभा। छचन्ती च भवेगेन हदे चन्द्रमसः शृ 
तया ह्युत्पादितः पुण्यः सहृदः सागरोपमः । तां धारयामास तदा दुडेरां पवते 
शतं वर्षसहराणि शिरसेव पिनाकध्क्‌ । मेरोस्तु पश्चिमे पार्श्वे केतुमालो दवष 
जम्बूखण्डे तु तत्रैव महाजनपदो द्विजाः । आयुर्देशसहस्नाणि घर्षाणां तत्र सत्ता| 
` सुबर्णचर्णाश्च नराःस्त्रियश्चाप्सरखां समा: । | 
अनामया बीतशोका नित्यं मुदितमानसाः ॥ ५१ ॥ 
- जायन्ते मानवास्तत्र निएतकतकप्रभाः । गन्धमादनण्टङ्गेघु कुबेरः सह राक्षसैः 
संब्तोऽप्सरसां सङ्घमोद्ते गुह्यकाधिपः । गन्धमाद्नपार्श्वे तु परे विगतपा| 

एकादशसहस्राणि वर्षाणां परमायुषः । तत्र कृष्णा नरा घिप्रास्तेजो युक्ता म 

खियश्रोत्पलपत्राभाः सर्वाः सुप्रियद्‌शनाःः। 
नीलोत्पलधरं शवेतं शवेताद्धैरण्यक घरम्‌ ॥ ०५ ॥ . | 
वर्षेमैरावतं विप्रा नानाजनपदावृतम्‌। धनुषी ते महाभागा द्वे वर्षे दक्षिणोत्तरे 


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ोऽश्यायः ] # दक्षिणद्वीपप्रदेशवत्तिखण्डवर्षघिभागधर्णमम्‌ # ६ 
मध्यगं तु. पञ्चवर्षाणि चेव हि। उत्तरोत्तरमेतेभ्यो घर्षमुद्रिच्यते गुणै॥५७॥ - 
॥ घर्मेतः कामतो5थंतः । समन्वितानि भूतानि तेषु सर्वेषु सत्तमा 

महाभागाः पर्वतैः पथिवी चिता । हेमकूरस्तु सुमहान्केलासो नामपर्चेतः ॥. 
वैध्रवणो देवो शुह्यकीः सह मोदते । अस्त्युत्तरेण कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति ॥ | 

हिरण्यश्उङ्गः खुमदान्दिव्यो मणिमयो गिरिः। 

तस्य पाइने महदिव्यं शुभ्र काञ्चनवालुकम्‌ ॥ ६१ ॥ 

रम्यं चिष्णुखरो नाम यत्र राजा भगीरथः | 

दृष्ट्या भागीरथीं गङ्गामुवास बहुला: समाः ॥ ६२॥ 

यूपामणिमयास्तत्र क्षेत्राश्चापि हिरण्मयाः । 

तत्रेष्ट्चा तु गतः सिद्धि सहस्राक्षो महायशाः ॥ ६३ ॥ 
षा भूतिपति्यत्र सर्वलोकः सनातनः । उपास्यते तिग्मतेजा यत्र भूतैः समन्ततः ॥ 
ि्लालारायणौ व्रह्मा मज्ुः स्थाणुश्च पञ्चमः । तत्र दिव्या त्रिपथगा प्रथमं तु प्रतिष्टिता 
; शह्यलोकादपाक्रान्ता सप्तधा प्रतिपद्यते । घरोदका सा नलिनी पार्वती च सरस्वती ॥ 
| जम्बूनदी च सीता च गङ्गासिन्धुश्च सप्तमी । 
अचिन्त्या दिव्यसंज्ञा खा प्रभावैश्च समन्विता ॥ ६७॥ 
तस्यते यत्र सत्रं सहस्रयुगपर्यये । दृश्या५दृश्या च भवति तत्र तत्र सरस्वती.॥ 
धि दिव्याः सप्तगड्भास्त्रिषु लोकेषु विश्रुताः । रक्षांसि वे हिमघति हेमकूरे च गुह्यका 
पि नागाश्च निषधे गोकर्ण च तपोधनम्‌ । देवासुराणां सर्वेषां शवेतः पर्वत उच्यते 
पि्ोनिषशे नित्यं नीले ब्रहार्षयस्तथा । शउङ्गवांस्तु महाभागा देवानां प्रतिसञ्चरः ॥ 
| ` इत्येतानि महाभागाः सप्तघर्षाणि भागशः। 
| भूतान्युपनिषिष्टानि गतिमर्ति भ्रुघाणि च॥ ७२॥ 
। षद्धिवदुविधा हुश्यते देवमानुषा । अशक्यं परिसङ्ख्यातुं श्रद्धेया तु विभूषिता 
यां तु पृच्छथ मां विप्रा दिव्यामेनां शशाकृतिम्‌ 1 
पाश्वे शशस्य द्वे वर्ष उक्त ये-दक्षिणोत्तरे॥ ७४॥ - 


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ट्ट पर“ 


: न # पाझ्पुराणम्‌ छ [३ स्वात 


तु नागद्वीपश्च काश्यपद्दीप एव च | कर्णद्वीपशिलो पिप्राःश्री मान्मठ्यएई, 

एतदुद्वितीयं द्वीपस्य दृश्यते शशिसंस्थितम्‌॥ ७६ ॥ र 

इति श्री पाद्ेमहापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे नानाद्वीपविभागवर्णनेषद्रलमेरपरवतारिवा, र 
नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ । 


_ कलि 


चतुर्थोऽध्यायः 
मेरुपवतस्योत्रग्रन्तवर्णनम्‌ । 


ऋषय ऊचुः । i 
मेरोरथोत्तरं पश्चात्पूचेमाचक्ष्व सूत नः। निखिलेन महाघुद्धे भाल्यवन्तं च पेत; 
) सूत उवाच | 
दक्षिणेन तु नीलस्य मेरोः पाश्व तथोत्तरे । 
उत्तराः कुरवो घिप्राः पुण्या: सिद्धनिषेविता: ॥ २ ॥ 
तत्र वृक्षा मधुफला नित्यपुष्पफळोपगा: | 
पुष्पाणि च सुगन्धीनि रसवन्ति फलानि च ॥ ३॥ 
सर्वेकामफलास्तत्र केचिद्वक्षा द्विजोत्तमाः । 
अपरे क्षीरिणो नाम वृक्षास्तत्र द्विजोत्तमाः ॥ ४॥ | 
ये क्षरन्ति सदा क्षीर तत्र पञ्चाम्मुतोपमम्‌ । चस्त्राणि च प्रसूयन्ते फलेष्वाभरणारि१ 


देचलोकच्युताः सर्वे जायन्ते तत्र मानवाः । .शुक्ळाभिजनसम्पन्नाः सर्वे सुप्रिय 
मिथुनानि च जायन्ते स्त्रियश्चाप्सरसोपमाः । | 

| तेषां ते क्षीरिणां क्षीरं पिचन्त्यसरतसन्निभम्‌ ॥ ८ ॥ 
मिथुनं जायते काले समन्ताच्च :प्रचद्धते। 'णोपेतं समवेशं तथैव 1१ 


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क मेरुपचेतस्योत्तरप्रान्तवणेनम्‌ # छः ११ 


| नाम शकुनास्तीकषणतुण्डामहाबला: । तान्निहेरन्तीहस्तान्दरीषु प्रक्षिपन्ति च 
३ कुरवो विप्रा व्याख्यातास्ते समासतः । मेरुपाश्वेमहं पूर्व प्रवक्ष्यामि यथातथम्‌ 
भद्राश्वस्य तपोधनाः । भद्रशालवनं यत्र काळाघ्राश्च महाहुमाः 
कालाम्रास्तु महाभागा नित्यं पुष्पफलाः शुभाः । 
माश्च योजनोत्सेधाः सिद्ववारणसेषिताः ॥ १५॥ 
ते पुरुषाः श्वेतास्तेजोयुक्ता मद्दाबलाः । स्त्रियः कुमुद्वर्णा श्र सुन्दयेः प्रियद्शेना 
दवर्णाश्चतुवरर्णाः पूर्णचन्द्रनिभाननाः । चन्द्रशीतळगात्राश्च नृत्यगीतविशारदाः ॥ 
पहल्लाणि तत्रायुट्टिञसत्तमाः । कालाप्ररसपीतास्ते नित्यं संस्थितयौचनाः ॥ 
पिणेन तु नीळस्य निपभश्योत्तरेण तु । सुदर्शनो नाम महाज्ञरवूवृक्षः सनातनः ॥ 
पफलः पुण्यः सिद्भञ्रारणसेचितः । तस्य नाम्ता समाख्यातो जम्बूद्वीपः सनातनः 
| सहस्रं च शतं च द्विजसत्तमाः । तथा माल्यषतः ङ्गे पूर्व पूर्वानुगान्तकाः 
नां सहस्राणि पश्चाशन्माल्यचार्ह्रिजाः । महारजठसङ्काशा जायन्ते तत्र मानघाः 
च्युताः सर्वे सर्वे च ब्रह्मवादिनः । तपस्तप्यन्ति ते दिव्यं भवन्ति ह्यध्वरेतसः 
तु भूतानां प्रविशन्ति दिवाकरम्‌ । षष्टिस्तानि सहस्नाणि षष्टिरेव शतानि च 
याग्रतो यान्ति परिवार्यं दिघाकरम्‌ । षष्टिवर्षेसह्नाणि षष्टिरेव शतानि च ॥ 
आदित्यतापतप्तास्ते विशन्ति शशिमण्डलम्‌॥ २५॥ 


ति श्रीपाझेमहापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे मेरुपरवेतस्योत्तरपान्तवर्णनंनाम 
| 

चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ 
| र 


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पञ्चमोऽध्यायः 


मेर्म्रदेशस्यदक्षिणप्रान्दवर्णनस्‌ । 
ऋषयऊतचः । 
श्वर्षाणा चैव नामानि पर्वंतानां च सत्तम । आचक्ष्व नो यथातत्त्वं ये च प 
सूत उवाच । 
दक्षिणेत तु शवेतस्य निषधस्योत्तरेण तु । चर्ष रमणकं नाम जायन्ते तत्र मान 
` शुछ्काभिजनसम्पन्नाः सर्वे ते प्रियदर्शनाः । निःखपत्नार ते खर्चे जायन्ते तत्र मान 
दशवर्षेसहस्त्राणि शतानि दश पञ्च च । जीचन्ति ते महाभागा नित्यं मुदिता 
दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण तु । घर्णः हिरण्मयं नाम यत्र हैरण्वती | 
यत्र चायं महाप्राज्ञाः पक्षिराट्‌ पतगोत्तमः । यज्ञानुगा दिप्रथरा धन्विनः प्रिय 
सहावलास्तत्र जना विप्रा मुदितमानसाः । एकादशसहस्राणि चर्षाणां ते तपो 
आयुः प्रमाणं जीचन्ति शतानि दश पञ्च चे । 
श्टङ्वाणि च पचित्राणि त्रीण्येच द्विजपुङ्गघाः ॥ ८ ॥ 
एकं मणिमयं तत्र तथेकं रौक्ममदुभुतम्‌। सवेरत्नमयं चेक भवनेरुपशोमितम्‌॥| 
तत्र स्वयं प्रभा देवी नित्यं घसति शएङ्गिणी । । 
उत्तरेण तु म्टङ्गस्य समुद्रान्ते द्विजोत्तमाः ॥ १० ॥ 


चन्द्रमाश्च सनक्षत्रो ज्योतिर्भूत इचा ५५वृत: । पद्मप्रभाः पद्म वर्णा: पद्मपत्रतिभेष 
यझपत्रछुगन्धाश्च जायन्ते तत्र मानघाः । अनिष्पन्ना नष्टगन्धा निराहारा 
देवलोकच्युताः सवे तथा घिरजसो द्विजञाः 
त्रयोदशसहस्राणि वर्षाणां ते द्विजोत्तमाः ॥ १४॥ 


आयुःप्रमाणं जीवन्ति नरा धामिकपुद्धधा समुद्दस्य 
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4 याय ] भं भार्तस्यकुलपवेतमहानदीदेशवर्णनम्‌ ई ; १३ " 
ति बैकण्ठः शकटे कनकामये । अशि तथानं भू | 
३३ महातेजों जाग्यूनदविभूचितम.। सुः बू दि दिल | 
संक्षेपे विस्तरे चैव कर्त्ता कारयिता तथा । ; 
पृथिव्यापस्तथाऽऽकाशं घायुस्तेजश्च सत्तमाः ॥ १८ ॥ 
सयज्ञः सर्वेभुतानामास्यं तस्य हुताशनः ॥ १६ ॥ 
बाण इति श्रीपाझे महापुराणे तृतीये स्वगेखण्डे मेरुपवेतस्यद्क्षिणप्रदेशवर्णननाम; 
पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ 


नि 0 मय 


षष्ठोञ्च्यायः 
भारतबर्षवर्णनेनतस्यकठपर्वतमहानदीदेशवर्णनम्‌ । 


. _ अरषयऊचुः । 

यद्दि भारतं घं पुण्यं पुण्यविधायकम्‌। . 

तत्सवं नः समाचक्ष्व त्वं हि नो बुद्धिमान्मतः ॥१॥ 

1॥॥ सूत उचाच। . 

| वः कीत्तेयिष्यामि वर्ष भातरसुत्तमम्‌ । प्रियमित्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च. 
पिभ परो वे न्यस्य तथेक्ष्वाकोमेहात्मनः | ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च 
लक्षि मुचुकुन्द्स्य कुवेरोशीनरस्य च । ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा ॥४॥ 
र ५ 'एकस्येच राजषंगांधेश्वेच महात्मन: । सोमस्य चैव राजर्षेदिलीपस्य .तथैच च ॥ 
| अन्येषां च महाभागाः क्षत्रियाणां बलीयसाम्‌। 

हे सर्वेषामेव भूतानां प्रियं भारतमुत्तमम्‌ ॥ ६ ॥ 

॥ तु प्रवक्ष्यामि यथाश्चुतमहो. द्विजाः । महेन्द्रो मलयः सह्यः शक्तिमाटक्षवानपि 
| स पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वताः । तेषां सहस्रशो चिप्राः पर्वेतास्ते समीपतः 


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क पाझपुराणम्‌ # [३ 


अविज्ञाताः सारवन्तो विपुळाश्वित्रसानवः | 

अन्ये तु ये परिज्ञाता हस्वा हस्वोपजीविनः ॥ ६ ॥ 

आर्यम्लेच्छसधर्माणस्ते मिश्राः पुरुषद्विजाः । . 

नदीं पिवन्ति विमलां गङ्गा सिन्धुं सरस्वतीम्‌ ॥ १ ०॥ | 
गोदावरीं नर्मदां च बहुदां च महानदीम्‌ । शतद्र चन्द्रभायां च यसुनां च महा] 

हूषद्वतीं चितस्तां च चिएाशां स्वच्छबालुकाम्‌ | 

नदीं वेत्रवतीं चैव कृष्णां चेणीं च निम्नगास्‌ ॥ १२॥ 

इरावतीं वितस्तां च पयोष्णीं देविकामपि | 

वेदस्मृति वेदशिरां त्रिदिवां सिन्घुळाळमिम्‌ ४ १३ ॥ 

करीषिणीं चित्रवहां त्रिसेनां चैव निम्नगाऱ ¦ 

गोमतीं घूतपापां च चन्दनां च महानदीम्‌ ॥ ९४ ॥ 

“कौशिकीं त्रिदियां हृद्यां 'नाचितां रोहितारणीम्‌। 

रहस्यां शतकुम्भां च सरयं च द्विजोत्तमाः ॥ १५ ॥ 
चर्मण्वतीं वेत्रवतीं इस्तिसोमां दिशं तथा । शरावतीं पयोष्णीं च भीमां भीमरथी 

कावेरीं चुलुकां चापि तापीं शतमळामपि । 

नीवारां महितां चापि सुप्रयोगां तथा नदीम्‌॥ १७॥ 

यचित्रां कष्णलां सिन्धुं घाजिनीं पुरमालिनीम्‌ । 

पूर्वाभिरामां चीरां च भीमां माळावतीं तथा ॥ १८॥ 
पलाशिनीं पापहरां महेन्द्रा पारळावतीम्‌ । करिषिणीमसिङ्कीं च कुशचीरी महर 
मरुतां प्रवरां मेनां हेमा घृतवतीं तथा । अन्नाचतीमचुष्णां च सेव्यां कापी च र| 

सदाचीरामधरष्यां च कुशचीरां महानदीम्‌ । 

रथचित्रां ज्योतिरथां घिश्वामित्रां कपिञ्जलाम्‌॥ २१॥ (५ 
उपेन्द्रां बहुलां चेव कुचीरामम्बुचाहिनीम्‌ । वैनन्दीं पिङ्गलां वेणां तङ्गवेगाँ मह. 

चिदिशां कृष्णवेणां च ताघ्रां च कपिछाम | 


। 
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१४ 


if 


बः] यम 

| घेनुं सकामां वेद्स्वां हचिःस्रावां महापथाम्‌ ॥ २३ ॥ 

क्षिप्रा च पिच्छलां चेच भारद्वाजीं च निम्नगाम्‌ । 

कौणिकीं निम्नगां शोणां बाहुदामथ चन्द्रमाम्‌ ॥ २४ ॥ 

मन्तःशिछां चेव ब्रह्ममेध्यां द्वषद्दतीम्‌ । परोक्षामथरोहीं च तथा जस्वूनदीमपि ॥ 
सुनासां तमखां दाखीं सामान्यां घरणामलिम्‌ । 

| नीलां धृतिकरी चैव पर्णाशां च महानदीम्‌ ॥ २६॥ 

परी वृषभां भाखां त्रहम्नेश्याँ हुषद्वतीम्‌। एताश्चान्याश्च वहुला महानद्यो दविजर्षभाः 

. सदा निरामयं कृष्णां मन्दगां मन्दा हिनीम्‌ । 

ब्राह्मणीं च महागौरीं डुर्गामपि च सत्तमाः ॥ २८॥ 

चित्रोत्पला 'खित्ररथामतुलां रोहिणी तथा । 

मन्दाकिनी बैठरणी कोकां चापि महानदीम्‌ ॥ २६॥ 

ङ्गां च तर्थेब. वृषसाहृयाम्‌ । लोहित्यां करतोयां च तथैच वृषकाहयाम्‌ 

कुमारीस्थृषितुल्यां च मारिषां च सरस्वतीम्‌ । 

मन्दाकिनीं छुपुण्यां च सर्घा' गङ्गां च सत्तमाः ॥ ३१॥ 

विश्वस्य [भातरः सर्वा: सर्वाश्चैव महाफलाः । 

तथा न नः सुपकाशाः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३२॥ 

इत्येतास्सरितो विप्राः समाख्याता यथास्मृति । 

| अतउद्ध्चं जनपदान्निबोधत चदाम्यहम्‌ ॥ ३३॥ 

| " इस्पाञ्चलाः शाल्घमात्रेयजाङ्गलाः । शूरसेनाः पुलिन्दाश्च बौधा मालास्तथैच च 

| मत्स्याः कुशट्टाः सौगन्ध्याः कुत्सपाः काशिकोशलाः | 

चेदिमत्स्यकरूषाश्च भोजाः सिन्धुपुलिन्दकाः ॥ ३५ ॥ 

_ शे दशार्णाश्च मेकळाश्चोत्कलैःसह। पञ्चालाःकोशलाश्चैव नैकपृष्टयुगन्धराः ॥ 

थी, कलिङ्गाश्च काशयोऽपरकाशयः । जठराः कुकुराञ्चैव सुदशार्णा: सुसत्तमाः 

| 'भन्तयञ्चैच तथैचापरकुन्तयः। गोमन्तामछुकाः पुण्द्रा विदर्भा नृपधादिकाः 


(०-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


१५ 


~ 
कु 


_ अश्मका | 
: माळचाश्चोपवास्याश्च चक्रावाकत्रालयाः शकाः । 
विदेहा मगधाः सद्मा मलजाचिजयास्तथा ॥ ४० ॥ 

अङ्का बङ्गाः कलिङ्गश्च यक्कलोमान एवं च। 


मल्लाः सुदेष्णाः प्रहादा महिषाः शशकास्तथा ॥ ४१ ॥ 


बाहिकावाटधानाश्व आभीराः कालतोयकाः । 
अपरान्ताः परान्ताश्व पड्कलाश्च्मेचण्डिकाः ॥ ४९॥ 


नि # पाझपुराणम्‌ * क >. [| | स्पंद 
; सोत्तराश्चैच गोपराष्ट्राः कनीयसः । अघिराज्यकुशद्वाञ महराष्राश्व केश; 


अरवीशजाराख्ैच मेरुभूताश्च सत्तमाः । उपावृत्तानुपाडत्ताः सुराष्ट्राः वेकयास्त्या| 


कुट्टापरान्ता माहेयाः कक्षाः सामुद्र निष्कुटाः । 
अन्धाश्च वहचो विप्रा अन्तगिर्येस्त्थेव च ॥ २७ ॥ 


0 १ प्राळणे रे । 
वहिगिय्योंडड्डमलदा मगधामालवाघेटा: । सत्वतराः भाई या भागंवाश्र दविज 


पुण्ड्रामार्गाः किराताश्च सुदेष्णा भाखुरास्तथा । . 

शाका निषादा निषधास्तथैवानतेनेञऋ ताः ॥ ४६ ॥ 

पूर्णलाः पूतिमत्स्याश्च कुन्तलाः कुशकास्तथा । 

तरिग्रहाशशरसेना ईजिकाः कदपकारणा; ॥ ४७ ॥ 

तिलभागामसाराश्च मधुमत्ताः ककुन्दकाः । 

काश्मीराः सिन्धुसौचीरा गान्धारा दर्शकास्तथा ॥ ४८॥ 
अभीसाराः कुदुताश्च सौरिला वाहिकास्त्था । दघी च मालवादर्वाचा 

बळरट्टास्तथा विप्राः सुदामानः सुमलिकाः । 

बन्धा करीकषाश्चैव कुलिन्दा गन्थिकास्तथा ॥ ५०॥ 

बना यवोदशा: पाश्वंरोमाणः कुशबिन्दवः । 

काच्छा गोपाळकच्छाश्च जाङ्गलाः कुरुचर्णकाः ॥५१॥ 

किराता वर्वराः सिद्धाःवेदेहास्तात्रलिसिकाः: ॥ : . . 

ओड्रम्लेच्छाः ससेरिन्‍्द्राः पार्वतीयाश्च सत्तमाः ॥ ५२॥ .... 


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] न भारतस्यमहानदीदेशादिवर्णनम्‌ क न १७ 
परे जनपदा दक्षिणा सुनिपुङ्गवाः । द्रविडाः केरला प्राच्यामूषिकावालमूचिका: ` 
कर्णाटका माहिषका विकन्धा मूषिकास्तथा । ८ 
झछिकाः कुन्तलाश्च॑च सौहदानछकाननाः ॥ ५० ॥ 
कौंबकुंटकास्तथ्रा बोला: कोडूणा सणिवाळका: 
समङ्गाः कनकाश्चेच कुङ्राङ्गारमारिषाः॥ ५५ ॥ 


च्वजिन्युत्सवसङ्कतास्त्रिवर्गा माल्यसेनयः। 
व्यूढका कोरकाः प्रोष्टाः सङ्गवेगधरास्तथा ॥ ५६ ॥ 


व वित्यरुलिकाः पुलिन्दा वल्वलेः सह। मालवामलराश्चैच तथैवापरवर्तकाः ॥५७॥ 
कुलिन्दाः. काळदाश्चेच चण्डकाः कुररास्तथा । 

मुशलास्तनचालाश्व सतीर्थाः पूतिसञ्जयाः ॥ ५८ ॥ 

बिदायाः शिवाराश्च तपना; सूतपास्तथा । ऋषिकाश्च विद्र्भाश्च स्तङ्खनापरतङ्गका 
उत्तराश्चापरै स्लेच्छा जना हि मुनिपुङ्गवाः | ` 

जवनाञ्च सकाङ्गोजा दारुणा म्लेच्छजातयः ॥ ६०. ॥ 

सहृघुहा: कुलख्याश्व हूणाः पारिसिकेः सह | 

तथैच रमणाश्चान्यास्तथा च दशमालिकाः ॥ ६१ ॥.: 

पत्रियोपनिवेशाम्च वेश्यशूद्कुलानि च । शूराभीराश्च. दरदाः काश्मीराः पशुभिः सह॥ 
| खाण्डीकाश्चतुषाराश्च पद्दगा गिरिगह्वराः । 

आद्रेयाः . सभिरादाजारुतथैच _स्तनपोषकाः ॥ ६३॥ 

काश्च कलिङ्गाश्च फिरातानां च जातयः । तोमराहन्यमानाश्चतथेव करभञ्जकाः ॥ 
| एते चान्ये जनपदाः प्राच्योदीच्यास्तर्थेच च | 

। देशमात्रेण मया . देशाः सङ्घीतिता द्विजाः ॥ ६५॥ 

| यथाणुणबलं चापि त्रिघगंस्य महाफलम्‌ ॥ ६६ ॥ 

| गिश्रीपादुमपुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे भारतवर्षस्य कुलपर्षतमहानदीदेशादीना- 

5 म्वर्णनंनाम षष्ठोऽध्यायः ६॥ 


२--80-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitiagd by eGangotri 


सत्तमो5व्यायः 


मारतवर्षस्थकाल निर्णयपुरःसरंलोकस्थितिवर्णनम्‌ । . 
ऋषय ऊचुः। 
भारतस्यास्य वर्षस्य तथा हैमवतस्य च। प्रमाणमायुषः सूत बल चापि शः | 
अनागतमतिक्रान्तं चतंमानं च सत्तम। आचक्ष्व नो विस्वरेण हरिवषं तथैच च|| 
सूत उघाच। | 
चत्वारि भारते वर्षे युगानि मुनिपुङ्गवाः | इतं त्रेता द्वापर च कलिश्व द्विजसत्ता 
पूवं कृतयुगं नाम ततस्त्तायुग द्विजाः। तत्पश्चादुद्वापरं चाथ ततस्तिष्यः प्रे 
चत्वारि तु संह्लाणि वर्षाणां मुनिपुङ्गवाः । 
आयुः सङ्ख्या कृतयुगे सङ्ल्याता हि तपोधनाः ॥ ५॥ 
तथा त्रीणि सहस्राणि त्रेतायामायुषो विदुः । 
डे सहस्रे द्वापरे तु सुचि हिष्ठन्ति साम्प्रतम्‌ ॥ ६ ॥ 
तत्प्रमाणस्थितिह्ास्ति तिष्ये तु सुनिपुङ्गवाः । 
गमेस्थाश्च श्रियन्ते5त्र तथा जाता प्रियन्ति च ॥ ७॥ 
महावळा महासत्त्वा: प्रज्ञागुणसमन्विताः । प्रजायन्ते च जाताश्च शतशोऽथ सह 
द्विजाः कृतयुगे घिप्रा वलिनः प्रियदर्शनाः । प्रजायन्ते च जाताश्च सुनयो वे तपो 
महोत्साहा महात्मानो धार्मिकाः सत्यचादिनः । 
प्रियदर्शा वपुष्मन्तो महाघीर्य्या धनुर्धराः ॥ १०॥ 
बीरा हि युधि जायन्ते क्षत्रियाः शूरसंमताः । 
चतायां क्षत्रियास्तावत्सवे वै चक्रवतिन: ॥ ११॥ 
सर्ववर्णाश्च जायन्ते सदैव द्वापरे युगे । महोत्साहा चीयचन्तः 
'तेजसान्मेन संयुक्तः क्रोधनाः पुरुषाःकिलः । 


८-0. Mumukshu ghawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


लावः] * ज्वुदीपादिपरिमाणवणेनम्‌ # क 
लुन्धाश्रातकाश्चैव तिष्ये .जायन्ति भो द्विजाः !॥ १३ ॥ 

इर्ष्या मावस्तथा क्रोधो मायाऽसूया तथैच च। ... 

तिष्ये भवन्ति भूतानां रागोलोभश्च सत्तमाः ॥ १४ ॥ 

बर्तते विप्रा द्वापरे युगमध्यगे । गुणोत्तरं हैमघतं हरिचषषं ततः परम्‌ ॥ १५॥ 

१श्रीपादुमेमहापुराणे तृतीये स्वगेखण्डे भारतवर्षस्थकालनिर्णयपुरस्सरंछोकस्थिति 


वणनंनामसक्तमो ऽध्यायः ॥७॥ 


अष्टमोऽध्यायः 
जम्भू्ठीपविष्कम्भपरिमाण' शाकद्रीपवर्णनश्न 
ऋषय ऊचुः। 


ञम्बूखण्डस्त्वया प्रोक्तो यथावदिह सत्तम ! । 
विष्कम्भस्य च प्रत्र हि परिमाणं हि तरतः ॥ १॥ 
` समुद्रस्य प्रमाणं च सम्यग च्छिद्रद्शेन ! । 
शाकद्वीपं च नो ब्रू हि कुशद्वीपं च धार्मिक !॥ २॥ 
शाल्मलं चेव तत्वेन क्रौञ्चद्वीपं तथैच च ॥ ३॥ 
५ सूत उवाच | 
ति सुवहवो द्वीपा यैरिदं सन्ततं जगत्‌ । सप्तद्वीपान्प्रवक्ष्यामि श्टणुध्वं द्विजपुङ्गचाः 
अष्टादशसहस्तराणि योजनानि द्विजोत्तमाः ।, 
घद्चतानि च पूर्णानि विष्कम्भो अम्बुपः ॥ ५॥ 
रुषणस्य खसुदस्य .चिष्कम्भो द्विगुणः स्मतः । 
नाचाजनपदाकीरणो मणिषिहुमचित्रितः ॥ ६ ॥ 
बिचित्रैक्व पर्वतैरुपशो भितः । सिद्धचारणसङ्कीर्णः सागरः परिमण्डलः ॥ 


हा गप भः १ ७ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


२० >>ऋषपाइएसपायक ~ ` - [शेस्क 


जम्वूद्वीपप्रमाणेन द्विएुणः स द्विजषेमाः। ब्रिष्कस्मन महाभागाः खागरोऽपि दिए 
झीरोदो मुनिशादू ला येन सम्परिघारितः । तत्र पुण्या जनपदास्तत्र न प्रियते 
कुत पच हि दुसिक्षं क्षमातेजोयुता हि ते। शाकद्वीपस्य संक्षेपो यथाघन्छ 


; ऋषयऊचुः । 

शाकद्वीपस्य संक्षेपो यथावदिह धार्मिक ! । उक्तस्त्वया महाप्राज्ञ चिस्तर ब्र हित 
सूत उवाच । 

तथेव पर्वता विप्राः सप्ताऽत्र मणिपवेताः । रत्नाकरास्तथा नद्यस्तेषां नामानि ( 

अठीवगुणवत्सव॑ तत्त्वं पृच्छथ धार्मिकाः । देवर्षिगन्धर्वयुतः प्रथमो मेर 


-ततः परेण मुनयो जळधारो महागिरिः । 
ततोनित्यमुपादत्ते वासवः परमं जलम्‌ ॥ १६ ॥ । 
ततो वर्ष प्रभवति वर्षाकाले द्विजोत्तमाः । उच्चैगिरीरैवतको यत्र नित्यं प्रतिष्ठ 
रेवती दिचि नक्षत्रं पितामहक्कतो विधिः । उत्तरेण तु चिप्रेन्द्राः श्यामो नाम महा 
नवमेघप्रमः प्रांशुः श्रीमानुञ्ञ्वळचिग्रहः । यतः श्यामत्वमापन्नाः प्रजा मुदिता 

अषयङऊछुः । 

सुमहान्संशयोस्स्माकं प्राप्तोऽयं सूत यरचया । 
प्रजाः कथं सूतसम्यक्सम्प्राप्ताः शयामतामिह ॥ २० ॥ 
सूत उचाच । | 
सर्वेष्वेच महाप्राज्ञा द्वीपेषु मुनिपुङ्गवाः गौरः कृष्णश्च पतगस्तयोवेर्णान्तरे ह| 
श्यामो यस्मात्प्रवृत्तो वै तस्माच्छ्यामगिरिः स्खतः । | 
ततः परं मुनिश्रेष्ठा दुर्गशैलो महोदय: ॥ २२ ॥ 
केशरीकेशर्‍युतो यतो वातः प्रवत्तेते । तेषां योजनचिष्कम्भो द्विगुणः प्रपिमारी 
वर्षाणि तेषु पिप्रेन्द्राःसम्प्रोक्तानि मनीषिभिः । महामेरुमंहाकाशो जलदः ई | 


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यः] # शाकद्वीपचरणनम्‌ # २१ 

रो माराः सुकुमार इतिस्म्॒तः । रेतस्य तु कौमारः श्यामश्च मणिकाञ्चनः 
च मौदाकी परैण तु महान्पुमान । परिषाय्ये तुविप्रेन्द्रा दैध्यं हस्वत्वमेष-चः 

" जम्बूद्वीपेन खङ्ख्यातस्तस्य मध्ये मद्दादुमः । 

शाको नाम महाप्राज्ञाः प्रजास्तस्य सहाइनुगा: ॥ २७॥ 

रुण्या जनपदाः पूज्यते तत्र शाङ्करः । तत्र गच्छन्ति सिद्धाश्च चारणा देवतानि च 

| घामिकाश्व प्रजाः सर्वाश्चत्वारो गतमत्सराः । 

| रणाः स्वकर्मनिरता न च स्तेनोऽत्र दृश्यते ॥ २६ ॥ 

दवाय महाप्राज्ञा जरा्रत्युवियजिताः । प्रजास्तन्न विवर्द्धन्ते चर्षास्विष समुद्रगाः 

ह पुण्यजलास्तत्र गङ्गा च बहुधागता । सुकुमारी कुमारी च शीता शीतोद्का तथा 

ही च भो विप्रास्तथा मणिजळा नदी । इक्षुवद्धेनिका चेच नदी सुनिघराः स्मृताः 

ह प्रवृत्ताः पुण्योदा नद्यः परमशोभनाः । सहस्राणां शतान्येच यतो घर्षेति चासचः 

न तासां नामधेयानि परिस्मतु तथेव च्च । ` ८ 

शक्यन्ते परिसडख्यातु' पुण्यास्ता हि सरिद्वराः॥ ३४ ॥ 

गि पुण्या जनपदाश्चत्वारो लोक विश्नुताः । सुगाश्च मशकाश्चैच मानसा मलकास्तथा 

 सुगाश्च ्र्मभूयिष्ठाः स्वकमेनिरता द्विजाः । 

. मशकेषु तु राजन्या धार्मिकाः सवेकामदा: ॥ ३६ ॥ 

|फसाश्च महाभागा वैश्यघमोपजी विनः । सर्वेकामसमायुक्ताः शूरा धमार्थ निश्चिताः 

| शूद्रास्तु मलका नित्यं पुरुषा धर्मशीलिनः । । 

| नतत्र राजा घिप्रेन्दा न दण्डौ न च दण्डिकाः ॥ ३८॥ 

1 षणैव धर्मज्ञास्ते रक्षन्ति परस्परम्‌ । एताघदेघ शक्यं तु तत्र द्वीपे प्रभाषितुम्‌॥ 

| पतदेव च श्रोतव्यं शाकद्वीपे मदौजसि ॥ ४०॥ 

. इतिश्रीपाक्मेमहापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे जमबूद्वीपविष्कम्मपरिमाणंशाकद्वीप- 

i । वर्णनंनामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ 


अनन सामाना ततिमतणाणी शाला 


८८-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


नवमोऽध्यायः 
रृततोयससरृतिसर्वावशिष्टवीपविभागवर्णनम्‌ । 
सूत उवाच । 
उत्तरेषु च भो विप्रा द्वीपेषु श्रूयते,कथा | एवं तत्र महाभागा न्‌ घतस्तन्निोकग 
' घुततोयः समुद्रोऽथ दधिमण्डोदकोऽपरः । सुरोदखागरश्चैव तथान्यो दुग्धसाग| 
परस्परेण द्विगुणाः सर्वे द्वीपा द्विजर्षभाः । पर्वताश्च महाप्राज्ञाः समुद्रैः परित 
गौरस्तु मध्यमे द्वीपे गिरिमेनःशिलो महान्‌ । 
पर्वतः पश्चिमे कृष्णो नारायणसखो द्विजाः ॥ ४ ॥ 
तत्र रल्लानि दिव्यानि स्वयं रक्षति केशवः । प्रसन्नश्चांभयत्तत्र प्रजानां व्यदधालुक्न 
शरद्वीपे कुशस्तम्बो मध्ये जनपदस्य ह । 
सम्पूज्यते शाल्मलिश्च द्वीपे शाल्मलिके द्विजाः ॥ ६ ॥ 
क्रौञ्चद्वीपे महाक्रौञ्चो गिरीरललचयाकरः । सम्पूज्यते भो विप्रेन्द्राश्चातुवेप्यन गित 
गोमन्तः पर्वतो विप्राः सुमहान्सवंधातुकः । यत्र नित्यं निवसति श्रीमान्कम 
मोक्षिभिः सङ्गतो नित्यं प्रभुर्नारायणो हरिः । 
कुशद्वीपे तु पिप्रेन्द्रा: पर्वतो विद्रुमैश्चितः ॥ ६ ॥ 
सुनामा च सुदुर्धषों द्वितीयो हेमपर्वतः | द्यतिमान्नाम विप्रेन्द्रास्तृतीयः कुमुदी गि 


तेषामन्तरचिष्कम्मो द्विगुणः प्रविभागशः । ओ द्विद्‌ं प्रथमं वर्ष द्वितीयं रेणुमप्ण 
तृतीयं सुरथं नाम चतुथं लम्चनं स्सृत्तम्‌ । घ्रतिमत्पञ्चमं वर्ष षष्ठं वर्ष प्रभां 
`. सप्तम कापिलं वर्ष सप्तैते वर्षेलम्बकाः । एतेषु देघगन्धर्चाः प्रजाश्च मुदिता बि 


घिद्दरन्ति रमन्ते च न तेषु त्रियते जन | 
न तेषु दस्यचः सन्ति म्लेच्छजात्य द्विजाः ॥ १५॥ 
(८-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


न ] धुततोयादिससुद्वेसडावशिष्टद्ीपविभाग: ॐ २३. 
ज्ञनं सर्वे सुकुमारश्च सत्तमाः। अचशिष्टेषु सवेषु वक्ष्यामि द्विजपुङ्गव I 
यथाश्रुतं. महाप्राज्ञा चण्यते श्टणुत द्विजाः। 
क्रौञ्चढीपे मद्दाभागाः क्रौञ्चो नाम महागिरिः ॥ १७॥ 
तपरो बामनको वामनाद्न्धकारकः । अन्धकारात्परो दिप्रा रैनाकः पर्दतोत्तमः 
कातपरतो विप्रा गोचिन्दो गिरिश्त्तमः । गोविन्दात्परतश्चैव पुण्डरीको महागिरिः 
गत्परश्चापि प्रोच्यते दुन्दुभिस्वनः । 
| पुरस्तादृद्वि्ुणस्तेषां विष्कम्मो मुनिपुङ्गवाः ॥ २०॥ 
हल्त्रप्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः श्टणु । क्रौञ्चस्य कुशलो देशो चामनस्य मनो $चुगः 
दिऽुगरत्परो देश उष्णो नाम तपोधनाः । उष्णात्परः प्राचरकः प्राचराद्न्धकारकः 
(अकारकदेशात्तु सुनिदेशाः परः स्म्टतः । सुनिदेशात्परश्चेच प्रोच्यते दुन्दुभिस्चनः-॥ 
सिद्धचारणखङ्कीणों गौरः प्रायो जनः स्मृतः। 
पते देशाः समाख्याता देवगन्धवंसेषिताः ॥ २४ ॥ 
पुष्करो नाम पर्वतो मणिरत्नघान्‌। तत्र नित्यं प्रसरति स्वयं देवः प्रजापतिः 
पर्युपासन्ति तं नित्यं देवाः सर्वे महषयः । 
वाग्मिमंनोऽनुकूलाभिः पुजयन्ति द्विजोत्तमाः ॥ २६॥ 
ूदीपातप्रधत्तेन्ते रत्नानि घिविधानि च । द्वीपेषु तेषु सर्वेषु प्रजानां सुनिसत्तमाः । 
ग्राणां व्रहाचयंण सत्येन च दमेन च । आरोग्यायुष्प्रमाणाभ्यां द्विगुणं द्विगुणं,तत 
ऐ जनपदा विप्रा द्वीपेषु तेषु सत्तमाः । उक्ता जनपदा येषु धमेश्चैकः प्रवत्तते ॥२६॥ 
रो दण्डमुद्यम्य स्वयमेच प्रजापतिः। द्वीपानेतान्मुनिवरा रक्षंस्तिष्ठति:सवदा ॥ 
स राजा स शिवो चिप्राः ख पिता स पितामहः । - 
'गोपायति द्विजश्रेष्ठाः प्रजा स द्विजपण्डिताः ॥ ३१ ॥ 
भोजनं चात्र चिप्रेन्द्राः प्रजाः स्वयमुपस्थितम्‌ । 
१ सिद्धमेच महाभागा भुञ्जते तद्धि नित्यशः ॥ ३२ ॥ 
तत: परं महारीलो दृश्यते लोकसं स्थितिः। 


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` उछ ; # पाझपुराणम्‌ # ..- - `` ` [उप |, 
चतुरस्र महाप्राज्ञ सर्वतः परिमण्डलः ॥ ३३॥ 7. ` . गा A 
- तत्र तिष्ठन्ति चिप्रेन्द्राश्चत्वारो छोकखंमताः। ` 10%... ` ` 1 
दिग्गज्ञा हि सुनिश्रेष्ठा चामनरावताञ्जनाः ॥ ३४ ॥ 
` सुप्रतीकस्तथा चिप्राः प्रभिन्नकरटामुखाः। तस्येह परिमाणं न सङ््यातुममः 
असङ्ख्यातः खुनित्यं हि तियंगूदुध्वेमघस्तथा । 
तन्न वै वायवो वान्ति दिसम्यः सर्वाभ्यः एव च ॥ ३६॥ | 
असम्बन्धा मुनिश्रेष्ठास्तान्नियुहृन्ति ते गजाः। पुष्कर पड्मसङ्काशेचिकषनतिमह 
शतधा पुनरेवाशु ते तानपुञ्चन्ति नित्यशः । श्वखदभिमुखनासास्यां चम 
आगच्छन्ति ह्विजश्रेष्ठास्तत्र तिष्ठन्ति वे प्रजाः । 
यथोदुदिष्टं मया प्रोक्तं सनिर्माणमिद जगत्‌ ॥ ३६ ॥ 
श्रुत्वेदं पृथिवीमानं पुण्यदं च मनोऽचुगम्‌ । 
श्रीमांस्तरति विप्रेन्द्राः सिद्धार्थः साधुसंमतः ॥ ४० ॥ 
आयुर्वेलं च कीत्तिश्च तस्य तेजश्च घद्धेते । यः श्टणोति समाख्यानं पर्वं णीदं धृतम 
प्रीयन्ते पितरस्तस्य तथेव च पितामहाः ॥ ४२ ॥ 
इति श्रीपादुमेमहापुंराणे तृतीये स्वर्गखण्डे घुततोयससुद्रप्रश्वतिसर्वांवशिष्ट 
द्वीपविभागवर्णनं नाम नचमोऽध्यायः ॥ ६ ॥ | 


‘दशमोऽध्यायः 
एथिवीस्थतीर्थवणेनम्‌ तेषांमाहात्म्यश्च । 
ऋषयऊचः । | 
पृथिव्या हि परीमाणं संस्थानं सरितस्तथा । तवत्तः शच॒त्वा महाभाग असतं पीठो 
तत्र भूमौ च तीर्थानि पावनानीति न | 


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न | याय: ] र ए थिवीस्थतीर्थेवर्णनम्‌ # २७ 
| „` आवक्ष्व तानि सर्वाणि यथाफलक़सणि च ॥*२॥ 
लविदोषं महाप्राज्ञ श्रोतुमिच्छाम हेतव ॥ ३॥. 
सूत उचाच। - 
पुय महाख्यानं पृष्टमेच तपोधनाः । यथामति प्रवक्ष्यामि यथायोगं यथाश्रुतम्‌ 
प्रवक्ष्यामि देवर्षर्ारदस्य हि । युधिष्ठिरेण संवाद श्टणुत द्विजसत्तमाः ॥ 
हृतराज्याः पाण्डुपुत्रा चने तस्मिन्महारथाः । 

निवसन्ति महाभागा द्रौपद्या सह पाण्डवाः ॥ ६ ॥ 
ष्यन्महात्मानं देवषि तत्र नारदम्‌ । दीप्यमानं श्रिया ब्राह्मयादी्ताग्निसमतेजसम्‌ 
(३ परिवृत्तः श्रीमान्श्ादभिः कुरुनन्दनः। दिवि भाति हि दीप्तौजा देवेरिव शतक्रतु 
ग च देवान्सावित्री याज्ञसेनी तथा पतीन्‌। न जहौ धर्मतः पार्थान्मेरुमकेप्रभा यथा 
ह्य ततः पूजां नारदो अगवान्ट॒षिः । आश्वासयद्धमपुत्रं युक्तरूपप्रियेण च ॥१०॥ 
उवाच च महात्मानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्‌ । 
ऋ त्रहि धर्मभृतां श्रेष्ठ कि प्राथ्यं हि ददामि ते॥ ११॥ 

रधमसुतो राजा प्रणम्य भ्रातृभिः सह । उवाच प्राञ्जलिर्वाक्य नारद्‌ं देवसंमितम्‌ 
_ गि तुटे महाभागः खवेलोकाभि पूजिते । कृतमित्येव मन्ये हि प्रसादात्तव सुत्त! ॥ 
र त्वहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ ! । सन्देहं मे मुनिश्रेष्ठ हृत्स्थं त्वं छेत्तुमहेसि 
प्रदक्षिणां यः कुरुते एथिवीं तीर्थतत्परः । 
कि फलं तस्यकारस्न्येन तदुत्रह्मन्वकतुमहसि ॥ १५ ॥ 
नारद्‌ उवाच।. , 
शुराजन्नवहितो दिलीपेन यथा पुरा । चलिष्ठस्य सकाशाद्वै सर्वमेतदुपश्च्तम्‌ ॥ 
भागीरथी तीरे दिलीपो राजसत्तमः । धम्यं वतं समास्थाय न्यघसन्सुनिवत्तदा 
॥ देरे महाराज पुण्ये'देचर्चिपूजिते । गङ्गाद्वारे महातेजा देवगन्धवेसेषिते ॥ १८॥ 
स्तपेयामाख देवांश्च परमद्यतिः । ऋषींश्च तपंयामास विधिदृष्टेन कमंणा.॥१३॥ 
वथ कालस्य जपन्नेच महामनाः । ददशे भूतसङ्कारं बसिष्ठ्छषिसुत्तमम्‌॥ 


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१० है. के # पाझपुराणम्‌ # न ३ 
पुरोहित स तं दष्ट्वा दीप्यमानमिव श्रिया।। 
्रहर्मतुळं लेमे विस्मयं परमं ययो ॥ २१ ॥ 
उपस्थित महाराज पूजयामास भारत स हि धम्मध्यतां श्रेष्ठो चिधिदटे काश 
शिरसा चार्थ्यमादाय शुचिः प्रयतमानसः । नाम सङ्कीत्तयामास | 
दिलीपोऽहं तु भद्रं ते दासोऽस्मि तव सुब्रत ! । तव सन्दशेनादेव मुक्तोऽहं 
एवमुक्त्वा महाराजो दिलीपो द्विपदां घरः । . 
वाग्यतः प्राञ्जलिमू त्वा तूष्णीमासीद्यु धिष्ठिरः ॥ २५-॥ 
तं दुष्ट्वा नियमेनाऽथ स्वाध्यायेन च कर्शितम्‌ । 
दिलीपं नृपतिश्रेष्ठे सुनिः प्रीतमनाभवत्‌ ॥ २६ ॥ 
इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे पृथिवीस्थतीर्थचर्णनं दिली 
सहसमागमकथनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १०॥ 


एकादशोऽध्यायः 
वशिष्ठदिलीपसंबादे जु | 
वसिष्ठ उवाच | 
अनेन तच धर्मज्ञ ! प्रश्रयेण दमेन च । सत्येन च महाभाग ! तुष्टोऽस्मि तव सवश 
यस्येद्वशस्ते धर्मो ऽयं पितरस्तारितास्त्वया । 
तेन पश्यसि मां पुत्र याज्यश्चासि ममानघ ॥ २॥ 
प्रीतिम वद्धेते तेऽद्य ब्र हि कि करचाणि ते । 
यद्वक्ष्यसि. नरश्रेष्ठ ! तस्य दाताऽस्मि तेऽनघ ॥ ३॥ 
दिलीप उवाच] ` | 
वेदवेदाङ्गतत््वज्ञ सवेलोकाभिपूजित । कृतमित्येव मन्ये: हि 


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उघ्याय ] ने तीर्थफलसेवनाधिकारित्वचर्णनम्‌ क्ष - .‰७ 
__आहास्तव घर्मेशृतां चर प्रक्ष्यामि हृत्स्थ सन्देहं तन्मे त्वं चक्तमईसि ॥ 
अस्ति मे भगवन्कश्चित्तीर्थ यो धर्मसंशयः । 
तदहं श्रोतुमिच्छामि पृथक्खङ्कीतेनं त्वया ॥ ६॥ 
“णां यः पृथिषीं करोति ह्विजसत्तम!। कि.फलं तस्य विप्रषें! तन्मे ब्रहि तपोधन 
वसिष्ठ उवाच | 
तदहम्टूषीणां मत्परायणम्‌ । तदेकाग्रमनास्तात »टणु तीर्थेषु यत्फलम्‌॥ 
यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयुतम्‌ । 
चिद्या तपश्च कीतिश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ ६॥ 
ग्रहादपावृत्तः सन्तुष्टो नियतः शुचिः अहङ्कारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥१०॥ 
अकल्किको निराहारोऽलबव्धाहारो जितेन्द्रियः । 
विमुक्तः खवंदोषेयेः ख तीथफलमश्नुते ॥ ११॥ 
भर राजेन्द्र खत्यशीलो दृढव्रतः । आत्मोपमश्च भूतेषु स तीथंफल्मश्नुते ॥ 
ऋषिभिः क्रतवः प्रोक्ता देवेष्वपि यथाक्रमम्‌। 
फळं चैव यथातत्वं प्रेत्य चेह च सर्वेशः ॥ १३॥ 
[ते शक्या दरिद्रेण यज्ञाः प्राप्तं महीपते | बहूपकरणा यज्ञा नानासम्भरचिस्तराः ॥ 
यन्ते पाथिवेरेते सम्ुद्धर्वा नरैःक्कचित्‌ । न निधनेनेरगणैरैकात्मभिरखाधनेः ॥१५॥ 
यो द्रिद्वैरपि विधि: शक्यः प्राप्तुं जनेश्वर ! । 
तुल्यो यज्ञफळेः पुण्यैस्तं निबोध महीपते ! ॥ १६ ॥ 
गुह्यमिदं धर्म्मश्चतां घर ! । तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि घिशिष्यते ॥ 
पोष्य त्रिरात्राणि तीर्थाभिगमनेन च । अदत्त्वा काञ्चनं गाश्च दरिद्रो नाम जायते 
पिोमादिमि रिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः । न तत्फलमचाप्तोति तीर्थाभिगमनेन यत्‌ : 
बिके देवलोकस्य तीर्थं च्रैलोक्यचिश्वुतम्‌। पुष्करं तीर्थमासाद्य देवदेचसमो "भवेत्‌ ॥ 
दशकोटिसहस्राणि तीर्थानां वै महीपते ! । 
सान्निध्यं पुष्करे येषां त्रिसन्ध्यं सूर्येवंशजञ ! ॥ २१॥ 


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लट - 1. , क पोझ्पुराणम्‌ के . `> [इसका 
` आदित्यां बसंषो रुद्राः साध्याश्च समरुद्गणाः... - . 
` गन्धर्वाप्सरसश्चैव तत्र सन्निहिताः प्रभो | ॥ २२॥ : 
यत्र देचास्तपस्तप्त्वा दत्यां त्रझषयस्तथा। _ 
दिव्ययोगा महाराज पुण्येन मेहता द्विजाः ॥ २३ ॥ 
मनसाऽप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनीषिणः । पूयन्ते सचेपापानि नाकपृष्ठे च | 
अस्मिस्तीर्थ महाभाग ! नित्यमेव पितामहः । उवास परमप्रीतो देवदानवसंफ, ॥ 
पुष्करेषु महाभाग ? देवाः सर्षिपुरोगमाः । 
सिद्धि परमिकां प्राप्ताः पुण्येन महताऽन्विताः ॥ २६ ॥ | 
तत्राभिषेकं यः कुर्यात्पितुदेबाचंने रतः। अश्वमेधाइशशुणं प्रचदन्ति मनीष 
अप्येकं भोजयेद्विप्रं पुष्करारण्यमाश्रितः । 
तेनैति पूजितां्ोकान्ट्र्णः सदने स्थितान्‌ ॥ २८॥ 
सायं प्रातः स्मरैद्यस्तु पुष्कराणि छृताञ्जलिः। उपस्पृष्टं भवेत्ते न सर्वतीर्थेषु प, 
जन्मप्रभृति यत्पापं स्त्रियो. चा पुरुषस्य वा । पुष्करे गतमातरस्यः सर्वमेच प्रण 
यथा सुराणां सवेषामा दिस्तु मधुसूदनः । तथेव पुष्करो राजंस्तीर्थानामादिरुो 
उष्ट्चा द्वादशवर्षाणि पुष्करे नियत: शुचिः । | 
क्रतून्सवोनचाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ ३२॥ । 
यस्तु शतं पूर्णमग्निमहोतरसुपाचरेत्‌। कातिकीं घा वसेदेकां पुष्करे सममेव ह| 
दुष्करं पुष्करे गन्त्‌ं दुष्करं पुष्करे तपः | दुष्करं पुष्करे दानं घस्तुं चैव सुद 
त्रीणि श्ङ्गाणि शुभ्राणि त्रीणि प्रस्चणानि च । ' 
पुष्कराण्यादितोर्थानि न घिद्यस्तत्र कारकम्‌ ॥ ३५ ॥ - रण 
* उष्द्वा द्वादशवर्षाणि नियतो नियताशनः । समुक्तः सर्वपापेभ्यः, सर्वक्रतुफछ छ 
इति भ्रीपांधे महांपुराणे तृतोयेस्वगंखप्डे पुष्करतीर्थमाहात्म्यचर्णनंनामैकादशोऽण| 


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द्वादशोऽध्यायः . 
नानातीथांश्रममाहात्म्यकथनम्‌ । 
| घसिए्उचाच । 
टु दक्षिणमुपाबत्तो जस्वूमाग समाविशेत्‌ । जम्वूमागे समाविश्य पितृदेचषिपूजितम्‌॥ 
अश्वमेधमवाप्नोति चिष्णुलोकं च गच्छति। 
तत्रोष्य रजनीः पञ्च षष्ठे कालेऽश्नुवन्नरः ॥ २ ॥ - 
न दुर्गतिमवाप्नोति सिद्धिचाऽऽप्नोत्यनुत्तमाम्‌। 
जम्वूमार्गाडुपावृत्तो गच्छेत्त दुळिकाश्रमम्‌॥ ३॥ 
{गतिमवाप्नोति स्वगंलोके च पूज्यते । अगस्त्याश्रममासाद्य  पितदेचाचने रतः ॥ 
न्रिरात्रोपोषितो राजन्नश्निष्टोमफळं ळमेत्‌। 
शाकवृत्तिः फलैर्वापि कौमारं चिन्दते परम्‌ ॥ ५॥ 


लि प्रविष्टमात्रो वे पापेभ्यो विप्र! सुच्यते। अचेयित्वापि तन्देघान््रयतो नियताशन 


फ़कामसमृद्धस्य यज्ञस्य फलमश्नुते । प्रादक्षिण्यं ततः इत्वा ययातिपतनं ब्रजेत्‌ ॥ 


क बरितीथेमुपस्पृश्य हयमेधफलं लमेत्‌। ततो गच्छेत्‌ धमेज्ञ स्थानं तीर्थसुमापतेः॥ 
मना भद्र्घरं नाम त्रिषु लोकेषु विश्वतम्‌ । तत्राभिगुम्य चेशानं गोसहस्रफलं लभेत्‌ 
'हदेवप्रसादाच्च गाणपत्यमचाप्नुयात्‌। ससुद्धमसपत्नं तु भ्रियायुक्तं नरोत्तम ॥ 
भां तु समासाद्य नदीं त्रैलोक्यविश्नुताम्‌ । तपेयित्वा पितृन्देवानझिछोमफलं लभेत्‌ 
| इतिश्रीपाद्मेमहापुराणे तृतीये रुवर्गखण्डे नातातीर्थाश्रममाहात्म्यकथनं 
नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥ 


क एक ए 


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` शयोदशो5ध्यायः 


युधिष्टिरप्रश्‍नोत्तरे नारदेनसविस्तरंनर्मदामाहात्म्यवर्णनगू | 
युधिष्ठिर उवाच । 

चसिएँन दिलीपाय कथितं तीथमुत्तमम्‌। नमेदेति च विख्यातं पापपवेतदारणम । 
भूयश्च श्रोतुमिच्छामि तन्मे कथय नारद्‌ ! । नमेदायाश्च सहात्स्यं चसिष्ठोकत द्वग 
कथमेषा महापुण्या नदी सर्वत्र विश्रुता । नमंदा नाम विख्याता तन्मम ब्रहि बई 
नारद्‌ उवाच । 
नर्मदा सरितां श्रेष्ठा सर्वपापप्रणाशिनी । तारयेत्सवभूतालि स्थाघराणि चराः 

नर्मदायास्तु माहात्म्यं वसिष्ठोक्त मया श्रुतम्‌। 
तदेतद्धि महाराज ! सवं हि कथयामि ते ॥ ५॥ 
पुण्या कनखले गङ्गा कुरुक्षेत्रे सरस्वती । ग्रामे वा यदि घाऽरण्ये पुण्या सर्वत्रगं 
त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम्‌ । सद्यः पुनाति गाङ्गेयं दशेनादेव गाम 
कलिङ्गदेशो .पश्चार्द पर्वतेऽमरकण्उके | पुण्या च त्रिषुलोकेषु रमणीया मनोज 
सदेवासुरगन्धर्षा ऋषयश्च तपोधनाः । तपस्तप्त्वा महाराज सिद्धि च पणम 
तत्र स्नात्वा महाराज नियमस्थो जितेन्द्रियः । | 
उपोष्य रजनीमेकां कुलानां तारयेच्छतम्‌ ॥ १० ॥ 

` जनेश्वरै नरः स्नात्वा पिण्डं द्त्वा यथाविधि । 
पितरस्तस्य तृप्यन्ति याघदाभूतसम्प्लचम्‌ ॥ ११ ॥ 
पर्वतस्य समस्तात्तु रुद्रकोरिः प्रतिष्ठिता । स्नानं यः कुरुते तत्र शन्धमाल्यादु् 


तत्र स्नात्वा शुचिभू त्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । 
पितृकाय॑ तु कुर्चीत विधिदृष्टेन कर्म॑णा ॥ १४॥ 


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_शोऽध्यायः TF: . क नमेदामाद्वात्स्यवर्णनम्‌ अ ३१ 
क तत्रैच . तपंये त्पितृदेवताः । आसप्तमं कुल तस्य स्वर्गे तिष्ठति पाण्डच ! ॥ - 
(र्वह्लाणि स्वगेळोके महीयते । अण्सरोगणसङ्कीणों दिन्यस्रीपरिवारितः॥ - 
त्धादुळिपतश्च दिन्यालङ्कारभूषितः । ततः स्वर्गात्परिश्रष्टो जायते विपुले कुळे 
, | नानशीलश्च धार्मिकश्चैव जायते | पुनः स्मरति तत्तीथंगमन तत्र कुर्वते ॥१८॥ 

त्वा कुळशतं रुद्रलोकं स गच्छति । योजनानां शतं साग्रं श्रूयते सरिदुत्तमा ॥ 

वारेण तु राजेन्द्र ! योजनद्वयमन्तरम्‌ । षष्टिस्तीर्थसहस्राणि षष्टिकोट्यस्तथैच च 

[स्य समन्तात्तु तिषठन्त्यमरकण्टके । ब्रह्मचारी शुचिर्भूत्वा जितक्रोधो जितेन्द्रियः 

।.हतानिवृत्तश्च सर्वभूत हितेरतः । एवं सवेसमाचारः क्षेत्रपालान्परित्रजेत्‌ ॥ २२॥ 

म पुण्यफळं राजञ्छुणुष्याऽचददितो हि मे | शतं षषेसह्राणां स्वर्गे मोदेत पाण्डव - 
रेगणसड्कीर्णे दिव्यश्जीपरिचारिते। दिव्यगन्धानु लितश्च दिव्यालङ्कारभूषितः ॥ 
ते देवलोके तु दैतैः सह मोदते। ततः स्वर्गात्परिश्रष्टो राजा भवति चीर्यवान्‌ 
हंस लभते चैव नानारत्नविभूषितम्‌ । स्तम्मैमं णिमयैविन्यंजरवेडूयंभूषितैः ॥२६॥ 
आलेख्यसहितं दिव्यं . दाखीदाखसम न्वितम्‌ । 

मत्तमातङ्गशब्देश्व हयानां हे षितेन च ॥ २७॥ 

स्राथिते तस्य तढुद्वारमिन्द्रस्य भवनं यथा । राजराजेश्वरः श्रीमान्सवेस्रीजनवळभ: ॥ - 
न्हे उपित्चा तु क्रीडाभोगसमन्वितः । जीवेद्वर्षशतं साग्रं सर्वरोग चिवजित: ॥ 
रिमोगो भवेत्तस्य यो सखुतो5मरकण्टके । अझ्निप्रवेरोऽथ जले तथा चैष अनाशने ॥ 
अनिवतिकाग तिस्तस्य .पवंतस्याम्वरे यथा । 

पतनं पतते यस्तु स नरो मानघाधिपः ॥ ३१ ॥ 

कन्यासत्रीणि सहस्नाणि  एकैकस्यापि चापरे। 

| _हिष्ठन्ति भवने तस्य प्रेषणं प्रार्थयन्ति च ॥ ३२॥ 

नैमोगससुत्पन्न: क्रीडते कालमक्षयम्‌। पृथिव्यामासमुद्रायामीद्वशो नैव जायते 
[ऽयं नरश्रेष्ठ पर्चतेउमरकण्टके । कोरितीर्थ तु विज्ञेयं पर्वेतस्य तु पश्चिमे ॥३४॥ 
|| पडेश्वरो नाम त्रिषु लोकेघु विश्रुतः । तस्य पिण्डदानेन सन्ध्योपासनकर्मेणा 


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क पंच्वपण् । | 
दवय लंच भव द नयो कपिल 
| सरलार्जनसञ्छन्ना नातिदूरे व्यवस्थिता a न 
अस्ति पुण्या महाभागा त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥ ३७ ॥ 
तत्र कोटिशतं साग्रं तीर्थानां तु युधिष्ठिर । पुराणे श्रूयते राजन्खवं कोरि 
तस्यास्तीरे तु ये वृक्षाः पतिताः कालपर्येयात्‌ । 
नर्मदातोयसंयुक्तास्तेऽप्नि यान्ति परां गतिम्‌ ॥ ३६॥ : 
द्वितीया तु महाभाग ! विशल्यकरणा शुभा । 
तत्र तीरे नरः स्नात्वा विशल्यो भवति क्षणात्‌ ॥ ४०॥ 
तत्र देवगणाः सर्वे सकिन्नरमहौरगाः | यक्षराक्षखगन्धर्घा ऋषयश्च तपोधनाः॥| 
सर्वे समागवास्तत्र पर्वतेऽमरकण्टके । तैश्च सर्वेः समागम्य सुनिभिश्च तपो 
नर्मदा संश्रिता पुण्या विशल्या नास नामतः । 
उत्पादित्ता महाभागा सर्वपापप्रणाशिनी ॥ ४३ ॥ 
तत्त स्नात्वा नरोराजन्त्रह्चारी जितेन्द्रियः | उपोष्य रजनीमेकां कुलानां तार 
कपिला च विशल्या च श्रूयते राजसत्तम । । 
ईश्वरैण पुराणोक्ता लोकानां हितकाम्यया ॥ ४५॥ 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्नश्वमेर्‍फलं छमेत्‌ । अनशनं तु यः कुर्यात्तस्मिस्तीथ करा 
सर्वेपापपिशुद्धात्मा इन्द्रलोक॑ स गच्छति । नमंदायां तु राजेन्द्र ! पुराणं यच्छतं 
तन्त तत्र नरः स्नात्वा अश्वमेधफलं लभेत्‌ । । ये घसन्त्युत्तरे कूलइन्द्रलोकेषस| 
सरस्घत्याँ च गड़ायां नमेंदायां युधिष्ठिर ! 
समं दानं च स्नानं च यथा मे शङ्करोऽत्रचीत्‌॥ ४६ ॥ 
परित्यजति यः प्राणान्पर्वतेऽमरकण्डके । वर्षेकोरिशतं साग्रमिन्द्रलो के मद 
नमेदायाजल पुण्यं फेनोमिसमलङ्ङतम्‌ । पवित्र शिरसा बद्धं सवेपापैः ^ 
नमदा सबेपुण्या च ब्रहाहत्यापहारिणी । अहोरातरोपचासेन मुच्यते बहत] 
बं पुण्या च र्या च नमेदा पाण्डनववत | जयाशामपि कोकानां तात्य 


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शो ल्याय ] नेर ज्वालेश्वरतीर्थोत्पत्तिवर्णनम्‌ ३ , र ड्ड 

बरै महापुण्ये गङ्गाद्वारे तपोचने । एतेषु सर्वस्थानेषु येऽरदिताः संशितम्रता ॥५४७॥ - 

ˆ श्रूयते दशगुणं पुण्यं नमंदोद्वास सङ्गमे ॥ ५५॥ | 

इति श्रीपाइ महापुराणे तृतीये स्वग्रंखण्डे नमंदामाहात्म्यकथनं नाम 
तयोदशोड्ध्याय: ॥ १३॥ 


हाडा 


चतुर्दशो5ध्यायः 
ज्वालेशवरतीथों त्पत्तिवणनम्‌ | ` 
नारद्‌ उघाच | 
नमंदा तु नदी श्रेष्ठा पुण्या पुण्यतमा त्रिषु । , 
. मुनिभिस्तु महाभागेविभक्ता धर्मकाङक्षिभिः॥ १॥ 
ह प्रचिभक्तानि पाण्डव । तेषु स्नात्वा तु राजेन्द्र सर्वपापै प्रमुच्यते 
हवर च यत्तीथं त्रिषु लोकेषु विश्वुतम्‌। तस्योत्पत्ति कथयतः शणु पाण्डघनन्दन॥ 
[एुनिगणाः सर्वे सेन्द्राश्चैच मरुदुगणाः । स्तुषन्ति ते महात्मानं देवदेवं महेश्वरम्‌ 
॥शिंमानास्तु सम्प्राह्ता यत्र देवो महेश्वर; । विज्ञापयन्ति देवेशं सेन्द्राश्चैव मरुद्गणा 
| भयोद्विग्नान्विरूपाक्ष परित्रायस्व नः प्रभो ॥ ६॥ ` 
ट ईश्वर उचाच । 
स्वागतं तु सुनिश्रेष्ठाः किमथेमिहं चागताः । 
| कि दुःखं को चु सन्तापः कुतो वा. भयमागतम्‌॥ ७॥ * 
1 भिपध्वं महाभागा एतदिच्छामि वेदितुम्‌ । एवसुक्तास्तु रुद्रेणाकथयन्नमितव्रताः ॥ 
॥। क्राषयञचुः । 
अपि घोरो महाघीयों दानघो बलद्‌पितः । 
वाणो नामेति चिख्यातो यस्य वै तरिपुरं पुरम्‌॥.६॥ 


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३४ अ पाझपुराणम्‌ कः. [ ३ | 
_ गगने तु घसे द्विव्यं परमते तस्य तेजसा | तस्मादुभीता विरूपाक्ष स्च शरं 
च्रायस्व महतोदुःखाद्‌ देवत्वं हि परागतिः । एवं प्रसादं देवेश सर्वेषां क 
चेनदेवा: सुप्रसन्नाः सुखमेधन्ति शङ्कर । परां निव[ति मायान्ति तत्परो कु 
देव उवाच । 
एतत्सर्व करिष्यामि मा विषाद्‌ं करिष्यथ । अचिरेणेच कालेन कुयों युष्म 
आश्वासयित्वां तान्सर्वीन्नमेदातटमा स्थित: । 
चिन्तयामास सर्वेशस्तद्वधं प्रति पाण्डव ॥ १४ ॥ 


स्मरणादेवसम्प्राप्तो नारदः समुपस्थितः ॥ १६ ॥ 
३ नारद्‌ उवाच । 


ईश्वर उचाच । i 
गच्छ नारद तत्रैव यत्रतत्तिपुरं पुरम्‌। बाणस्य दानवेन्द्रस्य शीघं गच्छाथ तत्कु 
भर्तारो देवतामाश्च स्त्रियश्चाप्सरसोपमाः । तासां चे तेजसा चिप्र भ्रमते त्रिपुर शि! 
तत्र गत्वा तु विप्रेन्द्र मन्त्रमन्यं प्रचोदय । देवस्य घचनं श्रुत्वा सुनिस्त्वरितक्मि 
स्रीणां हृद्यनाशाय प्रचिष्टस्तं पुरं प्रति। शोभते तत्पुरं दिव्यं नान न 
शतयोजनचिस्तीणं ततो द्विुणमायतम्‌। ततः पश्यति तत्रैव बाणं तु बल्दप्णि। 
माळाकुण्डलकेयूरेसु कुटेन घिराजिंतम्‌। हाररत्नैश्व संछन्नं चन्द्रकान्तिविभाषग| 

ललनास्तस्य रत्ना्यकराः कनकमण्डिताः । | | 

उत्थितो नारद्‌ दृष्ट्या दानवेन्द्रो महाबळ: ॥ २४ ॥ , 

-- वाण उचाच | 21 

सदेवषिः स्वयं प्राप्त मद्गृहं प्रति सम्प्रति। अर्घ पाद्यं यथान्यायं क्रियतां बिसी 
चिरात्समागतो विप्र र्थीयतामिदमाखनम्‌ । 

एवं सम्माधयित्वा तु नारदं समुपस्थितम्‌ ॥ २६ ॥ .. 


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| दोऽव्यायः ] च निपुरद्हनवर्णनम्‌ अ 


३५ 
तस्य भार्या महादेवी अनौपम्या तु नामतः ॥ २७ ॥ । 
` अनो पस्योचाच । , 
॥ मुष लोके देवास्तुष्यन्ति-केन च । रतेन नियमेनापि दानेन तपसाऽथचा ॥ 
| नारद्‌ उघाच | 


शक च यो दद्याद ब्राह्मणे वेदपारगे | ससागरा नवद्दीपा दत्ता भवति मेदिनी ॥ 
हशोटिपरतीकाशेविमाने: खवेकामिकेः । मोदते चाक्षयं कालं सुचिरं कृतशासन: ॥ 
्नातककपित्थानि कद्लीवनमेच च । कद्स्वचम्पकाशोका अनेकचिबिधट्रमाः 
| . अष्टमी!च चतुर्थो च द्वादशी च तथा उसे। र 
सङ्क्रान्तिविषुचं चेव दिनच्छिद्रमुख तथा ॥ ३२ ॥ 

पुण्यान्येतानि ।सर्वाणि उपवसन्ति याःस्त्रियः | 

` तासां तु धम्मंयुक्तानां स्वर्गे घासो न संशयः ॥ ३३ ॥ 

हिबालात्तु निमु क्ताः: सर्वपापविव्जिताः । उपघासरता नायो नोपसर्पन्ति तापसाः 
[धुत्वा तु सुथ्रोणि ! यथेष्टं कतु महेसि । नारदस्य चचः शरुत्वा राज्ञी वचनमत्रचीत्‌ 
शिझाद कुरु विप्रेन्द्र दानं ग्रह्न यथेप्सितम्‌ । सुषर्णमणिरत्नानि चस्त्राण्याभरणानि च 
कि दास्याम्यहं चिप्र यच्चान्यदपि दुर्लभम्‌ । प्रतिग्रह द्विजश्रेष्ठ प्रीयतां हरिशङ्करौ 
म. ` नारद्‌ उवाच । 

` अन्यस्मै दोयतां भद्रे क्षीणवृत्तिश्व यो द्विजः । 

षयं तु शीलसम्पन्ना भक्तिस्तु क्रियते मया ॥ ३८॥ 

॥ गर्सा मनो हृत्वा सर्वासामुपदिश्य.चा । जगाम भरतश्रेष्ठ | स्वकीयं स्थानकं पुनः 
'्छमनास्तास्तु अन्यत्र गतमानसाः । पुरिच्छिद्रं समुत्पन्नं बाणस्य तु महात्मनः 


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पञ्चदशोऽध्यायः 
इरस्य प्रेरणया वह्निना निपुरदहनवर्णनम्‌। 
नारद्‌ उवाच । 
यन्मां पृच्छसि कौन्तेय ! तन्निवोध च तच्छूणु । तस्मिन्नन्तरे रुद्रो नमेदातरम 
नास्ना महेश्वरं स्थानं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ ! 
तस्मिन्स्थाने महादेवश्चिन्तयंस्त्रपुर घघम्‌॥ २॥. 
` गाण्डीवं मन्द्रं इत्वा गुणं इत्वा तु चाखुकिम्‌ । 
स्थानं त्वा तु वैशाखं विष्णु इत्वा शरोत्तमम्‌ ॥ ३॥ 
अग्रे चालि प्रतिष्ठाप्य मुखे वायुः समर्पितः | हयाश्च चतुरो वेदाः सवेदेचमयं 
चक्रंगौ चाश्चिनौ देवा वक्षे चक्रधरः स्वयम्‌ । 
स्वयमिन्द्रञ्च चापान्ते वाणे वैश्रवणः स्थितः॥ ५॥ 
यमस्तु दक्षिणे हस्ते वामे कालस्तु दारुणः । 
चक्राणामारकेन्यस्ता गन्धर्घा लोकविश्रुताः ॥ ६ ॥ 
प्रजापती रथभ्ेछे ब्रह्मा चेच तु सारथिः। एवं कृत्वा तु देवेशः सवंदेवमयं रथ 
सोऽतिष्ठत्स्थाणुभूतो हि सहस्रं परिवरसरान्‌। 
यदा त्रीणि समेतानि अन्तरिक्षचराणि च ॥ ८॥ 
त्रिपुराणि त्रिशल्येन तदा तानि बिभेद सः। शरः प्रचो द्तिस्तत्र रुद्रेण त्रिपुरं 
भ्रष्टतेजा स्त्रियो जाता चलं तेषां व्यशीर्यत । उत्पाताश्च पुरे तस्मिन्पादुभूंता: स 
त्रिपुरस्य विनाशाय कारूपोऽभधत्तदा। अट्टदासं प्रमुञ्चन्ति रूपाः काष्ठमया] 
निमेषोन्मेषणं चैष कुवेन्ति चित्रकर्मणा । स्वप्ने पश्यन्ति चात्मानं रक्तान्तरविभूर्ण 
स्वप्ने पश्यन्ति ते चैवं चिपरीतानि यानि तु । 
एतान्पश्यन्ति तूत्पातांस्तत्र स्थाने तु ये जनाः॥ १३ ॥ 


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यायः ] * देत्यस्रीविलापवर्णनम्‌ # प ३३ र 
बढ च वुद्धिख दरक्रोधेन नाशितम्‌ । संवतेको नामवायुयु गान्तप्रतिमो महान्‌॥ ` 
रतो$नल्ये उत्तमाङ्गेघु बाधते । ज्वलन्ति पादपास्तत्र पतन्ति शिखराणि च . 
ओ- सर्वन्तद्वयाकुलीभूतं हाहाकारमचेतनम्‌ । 
भन्नोद्यानानि खर्वाणि क्षिप्रं तु प्रज्ज्वलन्ति च ॥ १६ ॥ 

तेनैव दीपितं सवं ज्वलते विशिखैः शिख: । 

हुमा आरामगण्डानि गुद्दाणि घिविधोनि च॥ १७॥ र 

रु प्रवृत्तो$यं समिद्धो इव्यवाहनः | तत: शिला: प्रमुञ्चन्ति दिशोद्शविभागशः 


x 


हहरत्युग्रैः प्रज्वलन्ति हुताशनेः | सवं किशुकसम्प्रर्यं ज्वलितं दश्यते पुरम्‌ 

हहुगृहान्तरै नेव गन्तु' धूमेश्च शक्यते । हरकोपानळादग्यं क्रन्दमानं सुदुःखितम्‌ ॥ ` 

सेतो दिक्षु दह्यते तरिपुरं पुरम्‌ । प्रासादशिखराग्राणि विशीर्यन्ति सहस्रशः ॥ 

बारलविचित्राणि विमानान्यप्यनेकधा । गृहाणि चैव रम्याणि दह्यन्ते दीप्तव हिना 

हतो दुमखण्डेछु जनस्थाने तथैच च । देवागारेषु सर्वेषु प्रज्चळन्ते ज्चलन्त्यपि ॥ 

सीदन्ति चानलस्पृष्ठा: क्रन्दन्ति चिचिधैः स्वरैः । 

गिरिकूरनिभास्तत्र इश्यन्तेऽङ्गारराशयः ॥ २४ ॥ 

[पतति देषदेवेशं परित्रायस्व मां प्रभो ! । अन्योन्यं च परिष्वज्य हुत्ताशनप्रपीडिताः 
दानवास्तत्र शतशोऽथ सहस्रशः । हंसकारण्डवाकीर्णा नलिनीसहपङ्कजाः ॥ 

दह्यतेऽनळद्ग्थानि पुरोद्यानानि दीधिकाः। । 

अम्लानेः पङ्कजेश्छन्ना चिस्तीर्णा योजनैः शतेः ॥ २७॥ 

तत्र प्रासादारत्नभूषिताः । पतन्त्यनळनि्दग्धा निस्तोया जलदा इच ॥ 
गी कवालबृद्धेघु गोषु पक्षिषु चाजिषु । निदयो दहते घहिहिरकोपेन प्रेरित: ॥ २६ ॥ 

| काथ्येव सुप्ता: संसुप्ता बहचो जनाः । पुत्रमालिङग्यते गाढं दह्यते त्रिपुरारिणा 
। तस्मिन्पुरे दीप्ते स्त्रियश्चाप्सरखोपमाः । अझिज्चालाहतास्तत्रे पतन्ति धरणीतले 

_ काचिदुवाळा विशालाक्षी. सुत्तावलिविभूषिता । | 

पूमेचाकुङ्लिता सा त तिब शिखा हिता ॥ 921, 0, ८०,०००" 


३८: ; FT पाझपुराणम्‌ # 
खुतं सञ्चन्तमाना सा पतिता धरणीतले । काचित्खुवर्णवर्णाभा नीररत्ैर क 
धमेना55कुलिता सा तु पतिता घरणीतले । अन्या गृहीतहस्ता तु दह्यते सह वार 
कल दिव्यरूपान्या दृष्टा मद्विमोहिता । शिरखा प्राञ्जछि कृत्वा विज्ञापयति पार. 
यदि त्वमिच्छसे वैरं पुरुषेष्वपकारिषु । स्त्रियः किमपराध्यन्ते गृहपञ्जरको कि 
पाप ! निर्दय ! निर्लज्ज ! कस्ते कोपो5ङ्गनासु वे। 
ना दाक्षिण्यं न ते लज्ञा न सत्यं शौचचतिता ॥ ३७ ॥ 
अनेकरूपवर्णाळ्या उपलम्या वदस्व ह । कि त्वया न श्रुतं लोके अवध्याः सः 
किंतु तुभ्यं गुणा होते दहनस्त्र्यदेने प्रति । न कारुण्यं दया वापि दाक्षिण्यं वाइनो 
दयां कुर्वन्ति म्लेच्छाश्च दनं प्रेक्ष्य योषितः । 
म्लेच्छानामपि कष्टोऽसि दुनिवार्यो ह्यचेतनः ॥ ४०॥ 
पते चैव गुणास्तुभ्यं दहनोत्सादनं प्रति। आखामपि दुराचार स्त्रीणां कि विग 
ढुष्टनि णनिर्लेज हुताश ! मन्दभाग्यक ! । निराशास्त्वं दुराचारवालान्दहसि ति 
एवं प्रहपमानास्ता जल्पमाना वहु स्वरम्‌ । 
र अन्याः क्रोशन्ति सङ्क्रुद्धा वाळशोकेन मोहिताः ॥ ४३॥ . 
दृहते निर्दयो वहिः सङ्क्रुद्धः सवंशत्रुवत्‌। पुष्करिण्यां जळे ज्वालाकूपेष्चपि ते| 
अस्मान्सन्द्ह्य म्लेच्छत्वं कां गति प्राप्स्यसेऽशुभाम्‌ । 
एवं प्रलपतां तासां घहिवेचनमत्रचीत्‌ ॥ ४५ ॥ 
वश्वानर उवाच ( 
स्वघशो नेव युष्माकं चिनाशं तु करोम्यहम्‌ । अहमादेशकर्ता चे नाहं कर््ताऽसणु 
अत्र क्रोधसमाविष्टो घिचरामि यट्ूच्छया | 
_ ततो चाणो महातेजास्त्रपुरं घीक्ष्य दीपितम्‌ ॥ ४७॥ 
आसनस्थोऽत्रवीदेचमहं देवैषिनाशितः । अल्पसारैदु राचारैरीश्वरस्य गिषेि 
अपरीक्ष्य ह्यहं द्गधः शङ्करेण महात्मना । | 
नान्यः शस्त मा इनत घज्जे पिता महिम्‌) 8911 


अशोजव्याय ] ॐ बाणस्तचप्रसन्नस्यशङ्करस्यतस्मैघरप्रदानम्‌ # क । 
उत्थितः शिरसा-छृत्वा लिङ्ग त्रिमुघनेश्वरम्‌ । 
निर्गतः स पुरद्वारात्परित्यज्य सुद्त्स्वयम्‌ ॥ ५० ॥ 
रत्नानि खुविचित्राणि स्त्रियो नानाविधास्तथा | 
शुहीत्वा शिरसा लिङ्ग न्यस्तं नगरमण्डले ॥ ५१ ॥ 
देवदेवेश च लोक्याधिपति शिषम्‌। हर! त्थयाऽहं निदःघो यदि घध्योऽस्मि शङ्कर | 
बहासादान्महादेच मामे लिङ्गं विनश्यतु । अचितं हि महादेव ! भक्त्या परमया सदा | 
दया यद्यपि वध्योऽहं मा मे लिङ्गं विनश्यतु । भ्ाप्यमेतन्महादेच ! त्वत्पादशरहणं ममः 
इमजन्म महादेव त्वत्पादनिरतो ह्यहम्‌ । तोरकच्छन्दसादेचं स्तुत्वा तु परमेश्वरम्‌ ॥ 
ओं शिव शङ्कर खर्वेकराय नमो भव भीम महेश शिवाय नमः । 
कुसुमायुध ! देहविनाशकर ! चिपुरान्तकरान्धक्ूर्णकर ! ॥ ५६ ॥ 
प्रमदाप्रिय ! कामचिभक्त नमो हि नमः सुरसिद्वगणैनेमितः । 
हयचानरस्िहगजेन्द्रसुखैरतिहस्बसुदी घंमुखैश्च गणैः ॥ ५७ ॥ 
उपळन्धुमशक्यतरेरसुरेव्येथितो न शरीरशतैबेहुभिः । 
प्रणतो भगघान्बहुभक्तिमता चळचन्द्रकलाधरदेच ! नमः ॥ ५८॥ 
_ सहपुत्रकळत्रकळापधनेः सततं जय देहि अनुस्मरणम्‌। . 
व्यथितोऽस्मि शरीरशातैबंहु भिगंमिताऽद्य महानरकस्य गतिः ॥ ५६ ॥ 
न निवर्तेति यन्ममपापगतिः शुचिकम्मेविशुद्धमपि त्यजति। 
अनुकम्पति दिग्थ्रमति भ्रमति भ्रम एष कुबुद्धि निवारयति ॥ ६०॥ 
॥ केत्तोरकं दिव्य प्रयत्तः शुचिमानसः । बाणस्यैषु यथा रुदरस्तस्यैच घरदो भवेत्‌ | 
स्तवं महादिव्यं श्रत्वा देवो महेश्वरः । प्रसन्नस्तु तदा तस्य स्वयं देषो महेश्वरः | 
ईश्वर उघाच | | 
त्यं त्वया चत्स ! सौवर्णे तिष्ठ दानव | । पुत्रपौत्रेः सपत्नीकं भार्याभृत्यजनैः सह ` 
| अति वाण ! त्वमघध्य स्त्रिदशैरपि। भूयस्तस्य घरो दत्तो देवदेवेन पाण्डव !॥ | 
| भिषश्चाव्ययो लोके चिचार ह निर्भयः । ततो निवारयामास रुद्रः सप्तशिखं तथा ॥ | 


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तृतीयं रक्षितं तस्य शङ्करेण महात्मना । भ्रमतें गगने नित्यं | । 
एवं तु त्रिपुर दग्धं शङ्करेण महात्मना | ज्वालामाठापरद नत लु पतितं घरणीळे 
एकं निपातितं तस्य भ्रीशैंले तरिपुरान्तके । दवितीयं पातितं तत्र पवंतेऽमरक्् 
दग्धे तु त्रिपुर राजन्न _द्रकोटिः प्रतिष्ठिता । ज्वलन्तं पातितं तत्र तेन ज्वालेभ्वरःस्ू 
ऊर्ध्वेन प्रस्थिता तस्य दिव्या ज्वाला दिवं गता । 
हाहाकारस्तदा जातो सदेबुसुरकिन्नरान्‌॥ ७० ॥ जाळत: 
ते शरंस्तम्मयेहुद्रो माहेश्वरपुरोत्तमे । एवं बजेत यस्तस्मिन्पवतेश्मरकण्टके | &। 
चतु्देशसुवनानि स भुक्त्वा पाण्डुनन्दन ! । चर्षको टिसहस तु त्रिशत्कोस्यस्तथाएए 
ततो महीतळं प्राप्य राजा भवति धामिकः । 
पृथिवीमेकच्छत्रेण भुङ्क्ते नास्त्यत्र संशयः ॥ ७३ ॥ 
एष पुण्यो महाराज सर्वतोऽमरकण्टकः | चन्द्रसूर्योपरागेछु गच्छेथयोऽमरकण्ठकम्‌। 
अश्वमेघाइशणुणं प्रचदन्ति मनीषिणः । स्वर्गळोकमवाप्नोति इष्द्चा तत्र महेभ्वण। 
सन्निहत्यागमिष्यन्ति राहुग्रस्ते दिचाकरै । तदेव निखिल पुण्यं पचते $मरकण्खे|| 
पुण्डरीकस्य यज्ञस्य फळं प्राप्नोति मानवः । तत्र ज्वालेश्वरो नाम प्चतेऽमरकणसे 
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये सुतास्तेऽपुनर्भेचाः । 
ज्वालेश्वरे महाराज ! यस्तु प्राणान्परित्यज्ञेत्‌ ॥ ७८ ॥ 
चन्दरसूर्योपरागे तु भक्त्या पि श्टणु तत्फळम्‌.। अमरा नाम देचास्ते पवेते$मरकप्णी 
रुद्वछोकमवाप्नोति यावदाभूतसम्प्लबम्‌। अमरेश्वरस्य देवस्य पर्वतस्य तरे जे 
कोटिशऋषिमुख्यास्ते तपस्तप्यत्ति सुत्रताः। समन्ताद्योजनं राजन्धेत्रं 
` अकामो चा सकामो वा नमंदायां शुभे जळे । | 
स्नात्वा मुच्येत पापेभ्यो रुद्रलोकं स गच्छति ॥ ८२॥ ` 
इति श्रीपाझमहापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे अमरकण्टकपतितपुराज्चालेश्वरीत्यतिस। 
न्माहात्म्यवर्णनं नामपञ्चदशो ऽध्यायः ॥ १५ ॥ | 


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षोडशोऽध्यायः 
5 | 


सूत उवाच | 
तै महात्मानो नारदं हि मह्दाजनाः । युधिष्ठिरपराः सर्वे षयश्च तपोधनाः 
आख्याहि भगवंस्तथ्यं कावेरी सङ्गमं महत्‌ । 
लोकानां च हितार्थाय अस्माकं च चिवृद्धये | २॥ 
सदा पापरता ये तु नरा दुष्कृतिकारिण: | 
मुच्यन्ते सर्ेपापेश्यों गच्छन्ति परमं पदम्‌ ॥ ३॥ 
एतदिच्छामो विज्ञातुं भगवन्धक्तुमईसि ॥ ४॥ 
नारद उवाच | | 
बं सहिताः सर्वे चुधिष्ठिरपुरोगमा: । अन्न कृत्वा महायज्ञं कुबेर: . सत्यविक्रमः ॥ 
इदं तीथमनुप्राप्य साम्राज्यादधिको$भवत्‌ । 
सिद्धि प्रातो महाराज ! तन्मे निगदतः श्रणु ॥ ६॥ 
कावेरी नर्मेदां यत्र सङ्गता लोकविश्रुताम्‌ । 
तत्र स्नात्वा शुचिभूत्वा कुवेरः सत्यविक्रमः ॥ ७॥ 
हे ॥ ति केन्द्र दिव्यं चर्षशतं महत्‌ । तस्य तुटो महादेवः प्रदयाह्रसुत्तमम्‌॥ 
झि यक्ष! महासत्व घरं छू हि यथेप्सितम्‌ । त्र्‌ हि कार्य यथेष्टं तु यद्वा मनसि वत्तेते 
हः. कुवेर उवाच | | 
E यदि तुष्टोःसि देवेश यदि देयो घरो मम । 
| भादिकृच्चैच सर्चेषां यक्षाणामाधिपो भवेत्‌ ॥ १० ॥ 
| पे भृत्वा तुष्टो देवो महेश्वरः । एवमस्तु ततश्रोकत्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥ 
| शबरो यक्षः शीघ्र यक्षकुलं गत:। पूजितः सर्वयक्षेन्द्रैरभिषिक्तस्तु पार्थिव: 


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७, १.) 


३. # पाझपुराणम्‌ ॐ . (वल 
| कावेरीसङ्गमं तत्र सर्वपापप्रणाशनम्‌ । ये नरा नाभिज्ञानन्ति चञ्चितास्ते न संश. 
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन तत्र स्नायीत मानवः । कावेरी च महापुण्या नमेदा च मह 
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र अचेयेदुव्ूषभध्वजम्‌ । अश्वमेधफलं प्राप्य र्द॒लोके मील 
अस्निप्रवेशं यः कुर्याद्यश्च कुर्य्यादनाशनम्‌ । | 
अनिवर्तिकागतिस्तस्य यथा मे शङ्करो5व्रचीत्‌ ॥ १६ ॥ 
सेव्यमानो वरस्त्रीभि्मोंद्ते दिघि,खुद्वचत्‌ । षछ्विर्षेसहस्जाणि पष्टिकोर्यस्तथा: 
मोदते रुद्रलोकस्थो यत्र यत्रैच गच्छति । पुण्यक्षयात्परिञ्रष्टो राजा भवति] 
भोगचान्धर्मशीलश्च महांख्चैव कुलोद्भवः । 
तत्र पीत्वा जळं संम्यक्चान्द्रायणफलं लभेत्‌ ॥ १६ ॥ 
स्वर्ग गच्छन्ति ते मर्त्यां ये पिबन्ति जलं शुभम्‌ । 
गङ्गायसुनयोमध्ये यत्फळं यान्ति मानघाः ॥ ९० ॥ ६ 
कावेरीसङ्गमे स्तात्वा तत्फलं तस्य जायते । एवं तु तस्य राजेन्द्र कावेरीसझां; 
पुण्यं महत्फलं तत्र सर्वपापप्रणाशनम्‌ ॥ २२ ॥ 
इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गलण्डे कावेरीनमंदासङ्गममाहात्सवे 
ख्यानवर्णनं नामषोड्शोऽध्यायः ॥ १६ ॥ 


_ सप्तदशोऽध्यायः 
र्मदोत्तरतीर्थस्थपतेश्वरतीर्थमाहात्म्यवर्णनम्‌ । ` 
नारद्‌ उचाच | | 
उत्तरे नमंदाकूले तीर्थ योजनचिस्तरम्‌। पत्रेश्वरैति विख्यातं सर्वपापहरं प 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्देचतैः सह मोदते,। पञ्चपर्षं सहस्राणि क्रीडते का | 
गजेन तु ततो गच्छेद्यत्र मेघ उपस्थितः । इन्द्रजिन्नाम सम्प्राप्तं तस्य प] 


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|) गच्छीत राजेन्द्र ब्रह्मावतेमिति स्मृतम्‌ । तत्र सन्निहितो ब्रह्मा 'नित्यमेव युधिष्ठर 

ब ल्ञात्वा तु राजेन्द्र ब्रह्मलोके महीयत । ततो ऽङ्ारे्वरे तीर्थे नियतो नियमासनः ॥ 
 दापविशुद्धात्मा रुद्रलोकं स गच्छति। ततो गच्छेत राजेन्द्र कपिळाती्थमुत्तमम्‌ 

तत्र स्नात्वा नरो राजन्गोप्रदान फलं लमेत्‌। 

॥ काश्चीतीर्थं ततो गच्छेद्देघषिगण सेवितम्‌ ॥ ८॥ 

| तत्र स्नात्वा नरो राजन्गोलोकं समवाप्नुयात्‌ । 

ततो गच्छेत्तु राजेन्द्र ! कुण्डलेश्वरसुत्तमम्‌ ॥ ६॥ 


रहेशं ततो गच्छेत्सचंपापप्रणाशिनम्‌ । तत्र गत्चा तु राजेन्द्र ! रुद्रळोके महीयते ॥ 
॥ गच्छेत्तु राजेन्द्र विमळं 'पिघलेश्वरम्‌ । तत्र देच शिखा रम्या ईश्वरेण निपातिता 

भ तत्र प्राणान्परित्यञ्य रुद्रलोकमचाप्नुयात्‌। 

ततः पुष्करिणीं गच्छेत्तत्र स्नानं समाचरेत्‌ ॥ १३॥ 

त्रे नरस्तत्र इन्द्रस्याद्धांसनं लमेत्‌ । नमंदा सरितां श्रेष्ठा रुद्रदेहाद्विनिःसृता 


कथिता ऋषिसङ्गेभ्यो हास्माक॑ च विशेषतः । 
मुनिभिः संस्तुता हयेषा नमदा प्रचरा नदी ॥ १६ ॥ 
'शद्विनिष्क्रान्ता लोकानां हितकाम्यया | सर्वपापहरा नित्यं सर्वेप्राणिनमस्ङता 
पुत देघगन्धर्वेरप्सरोभिरुतथैच च । नमः पुण्यजले आद्ये .नमः सारगामिनि ॥ 
| नमोऽस्तु ते ऋषिगणैः शङ्करदेहनिःस॒ते॥ १९॥ | 
नमोऽस्तु ते घमेवृते चरानने नमोऽतु ते देवगणैकवन्दिते । 

"| नमोऽस्तु ते सवंपचित्रपावने नमोस्तु ते सर्वजगत्खुपूजिते ॥ २०॥ 
| यशचेद्‌ परतेस्तोत्रं नित्यं शुद्धस्तु मानवः । 

| ह्मणो वेदमाप्नोति क्षत्रियो विजयी भवेत्‌॥ २१ ॥ 


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न्यायः ] * पत्रेश्वरतीर्थमाहात्यचर्णमम्‌ # . धइ | 
वं ततो गच्छेद्यत्र मेघाभिगजितम्‌ । मेघनादो गणस्तत्र घरखम्पन्नतां गत: ॥४॥ 


॥सनिहदितो रुद्रस्तिप्ठते उमया सह । तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र अवध्यस्त्रिदशैरपि 


त्सरवभूतानि स्थावराणि चराणि च।. सर्वदेचातिदेवेन ईश्वरेण महात्मना | 


00 0 NN 


ह. यी 25 पनन पाझपुराणम्‌ $ | ५ 

चैश्यस्तु लभते लाभं शूद्रश्चेष शुभांगतिम्‌। अन्नार्थी लभते त स्मरणादेच 
. नमदा सेविते नित्यं स्वयं देवो महेश्वरः । तेन पुण्या नदी शेया 

: इति श्रीपादुमे महापुराणे तृतीये खर्गखण्डे नमेदातीरचतिपत्रेश्वरतीर्थमाहा 

न स्तोत्रकथनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥ 


फि अमनममममम 


अष्टादशोऽध्यायः 
नर्मदातीरेशूमेदादिनानातीर्थमाहारम्यवर्णनम्‌ | 
नारद्‌ उवाच । 


तदा प्रसृति ब्रह्माद्या ऋषयश्च तपोधनाः । सेवन्ते नर्मेदां राजन्कामक्रोधवषिवञि| 
` तस्मिन्निपतितं दृष्ट्या शूलंदेवस्य भूतरे । तस्यपुण्यं खमाख्यातं शङ्करेण रहत 
शूलमेदेति घिख्यातं तीथं पुण्यतमं महत्‌ । तत्र स्नात्वाच्चेयेददेवं गोसहस्रफहं ते 
त्रिरात्रं कारथेद्यस्तु तस्मिस्तीर्थे नराधिप । अचयित्वा महादेव॑ पुनजेन्म न किम 
भीमेश्वरं ततो गच्छेन्नमंदेश्वरसुत्तमम्‌। आदित्येशं महापुण्यं तथाऽऽज्यमधुना छ 
, मल्लिकेश्वरमभ्यच्यं पर्याप्तं जन्मनः फलम्‌ । 
बरुणेशं ततः पश्येन्नीराजेश्वरसुत्तमम्‌ ॥ ६ ॥ 
सर्वतीर्थफळं तस्य पञ्चायतनदर्शनात्‌। ततो गच्छेत्तु राजेन्द्र युद्ध वे यत्र स 
कोरितीर्थ तु विख्यातमसुरा थत्र योधिताः । यत्र ते निहता राजन्दानवा व| 
तेषां शिरांसि गृह्यन्ते निहतास्ते समागताः। तैस्तु संस्थापितो देवः शूलपाणिश 
कोरिचिनिहता तत्र तेन कोरीश्वरः स्मृतः । 
` दर्शनात्तस्य तीर्थस्य सदेहः स्वर्गमाचहेत्‌ ॥ १० ॥ hl 
स्तदा इन्द्रेण ध्लुद्॒त्वाइज्नकीलेन यन्त्रितः । तदाप्रभृति लोकानां स्घर्गमत्व | 
CC-0. (सपत श्रीफल दत्ता कलएान्ते,मब्रक्षिणम, boangott 


| ऽध्यायः ] # नमंदातीरेशूलभेदादिनानातीर्थमाहात्य्यवर्णनम्‌ म 
-सर्वतः सह देवेन शिरखा55दाय धारयेत्‌ ॥ १२॥ ` | 

न सम्पूर्णो राजा भवति पाण्डच । स॒तो रुद्वत्वमाप्नोति न चेह आयत म ; | 
स्वर्ग गत्वा ततो राज्यं कृत्वा55गत्य ततो दिषम्‌ । शक 
महादेवं तथोपास्य त्रयोद्श्यां हि मानवा: ॥ १४ ॥ 

त्रो नरस्तत्र सवंयज्ञफलं लभेत्‌ | ततो गच्छेत राजेन्द्र ! तीथं 
"णां पापनाशाय अगस्त्येश्‍वरमुत्तमम्‌ । तत्र स्नात्वा नरो राजन्मुच्यते ब्रह्महत्यया 
कस्य तु मासस्य कृष्णपक्षचतुद्शी । घृतेन स्नापयेद्देवं समाधिस्थो जितेन्द्रियः 
एकविशकुलोपेतो न मुच्येदेश्वरात्पदात्‌ । ! 
यानं चोपानही छत्रं तथा दद्याच्च कम्बलम्‌ ॥ १८॥ 


॥लात्वा नरो राजन्लिद्दासनगतिभेवेत्‌ । नम्मंदादक्षिणे कूले तीर्थ शक्रस्य विश्वृतम्‌ 

फलं तस्य विष्णुलोकं स गच्छति। ऋषितीर्थं ततो गच्छेत्सवपापहर न्णाम्‌ 

[मत्र नरस्तत्र शिवलोके महीयते। नारदस्य च तत्रेच तीर्थ परमशोभनम्‌ ॥२३॥ 

मारी नरस्तत्र गोसहस्रफलं लमेत्‌। देषतीथं ततो गच्छेदुव्रह्मणा निमितं पुरा 
| तत्न स्नात्वा नरो राजन्त्रह्मलोके महीयते । 

. अमरकण्टकं ततो गच्छेद्मरस्थापितं पुरा ॥ २५॥ 

पी नरस्तत्र गोसहस्नफलं लमेत्‌ । ततो गच्छेत राजेन्द्र चामनेश्वरसुत्तमम्‌ ॥ 

नकं हुदा मुच्यते ब्रह्मत्यया । ऋषितीथं ततो, गच्छेदीशानेशं पुमान्धुषम्‌ ॥ 
| { ततो इष्ट्चा पर्य्याप्त' जन्मनः फलम्‌ । ठ 

१ भीमेश्वर ततो गच्छेत्सर्वव्याधिविनाशनम्‌ ॥ २८ ॥ 

| मी नरो राजन्सवेदुःखात्य़रमुच्यते । ततो गच्छेत राजेन्द्र वारणेश्‍वरसुत्तमम्‌ ® 

| शत्वा नरो राजन्स्वे दुःखात्प्रसुच्यते । सोमतीर्थं ततो गच्छेत्पश्येचचन्द्रमनुत्तमम्‌ 

| `न स्नात्वा नरो राजन्भक्त्या परमया युत: । ः 


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०३८ 4 


परमशोभनम्‌ ॥ 


नं चैव विप्राणां सर्व कोटिगुणं भवेत्‌। ततो गच्छेत राजेन्द्र रविस्तचमचुत्तमम्‌ 


पय रजनीमेकां स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । स्नानं कृत्वा यथान्यायमच्चयेत्त जनार्दनम्‌ - | 


क क पाझपुराणम्‌ ऋ [3 
तत्क्षणादिव्यदेहस्थः शिववन्मोदते चिरम्‌ ॥ ३१॥ ` 
बरिबर्षसहखाणि शिवलोके मंहीयते । तवो गच्छेत राजेन्द्र द 
अहोरात्रोपवासेन त्रिरात्रफलमाप्चुयात । तस्मिस्तीथ त राजेन्द्र कपिलां यः 
याचन्ति तस्या रोमाणि तत्मसुतकलस्य च । तावद्वषेसहत्ताणि खरो र 
यस्तु प्राणपरित्यागं तत कुर्य्यान्नराधिप ! । अक्षयं मोदते काळं यावच 
नर्मदातटमाश्रित्य तिष्टन्ति ये तु मानवाः । ते सुताः स्वर्गमायान्ति तथा सुझुत्नित 
खुरमिकेश्‍वर गच्छत्नारकं को टिकेश्वरस्‌ । गङ्काचतरणे तत्र दिने पुण्यो न स॑ 

नन्दितीथं ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । 
तुष्यते तस्य नन्दीशः सोमलोके महीयते ॥ ३८॥ 
तदोद्वीपेश्वरं गच्छेद्व्यासतीर्थं तपोचनम्‌। निवर्तिता पुरा तत्र व्यासभीता गह 
हुड्डारिता तु व्यासेन दक्षिणेन ततो गता । प्रदक्षिणं तु यः कुर्यात्तस्मिस्तीये तग 
ब्यासस्तस्य भवेत्प्रीतो वाञ्छितं लभते फलम्‌ । 
सूत्रेण वेश्येद्यस्तु दीप्तः देवं सवेदिकम्‌ ॥ ४१ ॥ 
कोडते हाक्षयं काले यथा रुद्वस्तथैच खः । ततो गच्छेत राजेन्द्र एरण्डीतीथमुर 
सङ्गमे तु नरः स्नात्वा मुच्यते सचे पातकः । 
एरण्डी त्रिषु लोकेछु घिख्याता पापनाशिनी ॥ ४३॥ 
अथवाश्वयुजे मासे शुक्कपक्षस्य चाष्टमी । शुचिभूत्वा नरः खात्वा सोप 

ब्राह्मणं भोजयेदेकं कोरिभेवति भोजिता । एरण्डीसङ्गमे स्नात्वा भ 

शुक्तिका शिरसि,स्थाप्य अचगाह्य च चै जलम्‌ । 
नमंदोद्कसंमिश्रं सुच्यते सवेकिल्विषेः ॥ ४६ ॥ | 
प्रदक्षिणं तु यः कुर्यात्तस्मिस्तीर्थ नराधिप ! । प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा ' | 
तततः सुवर्णतिलके स्नात्वा द्त्वा च काञ्चनम्‌ । काञ्चनेन विमानेन ॥। 

. ततः स्वर्गच्युतः कालाद्राजा भवति चीर्यचान। 
ततो यच्छेत राजेन्द्र इक्षुनयास्तु सङ्गमम्‌ ॥ ४६ - 


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>. 1६ ६ १ 4 क 


| यायः ] ४ नर्मदातीरेशळ्मेदाविनानातीथमाहात्म्यवर्णनस्‌ & `” ४७ ˆ 
त्रैलोक्ये विश्रुतं दिव्यं तत्र सन्निहितः शिव: । 

तत्र स्नात्वा नरो राजन्गाणपत्यमचाऽऽप्नुयात्‌ ॥ ५० ॥ 

तीथ ततो गच्छेत्सवंपापप्रणाशनम्‌ । आजन्मनः कृतं पापं स्नानमात्राद्वयपोइति 


त्सं ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । गोसहस्रफलं तस्य रुद्रलोके महीयते 
लाङ्खलतीथं ततो गच्छेत्सर्वंपापप्रणाशनम्‌ । आ 


हत्र गत्वा तु राजेन्द्र ! स्नानं तत्र समाचरेत्‌ ॥ ५३ ॥ 
हतैः पापैमुच्यते नात्र संशय: । घरेभ्वरं ततो गच्छेत्सर्वेतीर्थमचुत्तमम्‌ ॥ 


अथ नारी भवेत्काऽपि तत्र स्नानं समाचरेत्‌ ॥ ५७ ॥ 

गौरी तुल्या भवेत्सा तु इन्द्रं याति न संशय: | 

अङ्गारेशं ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ ॥ ५८ ॥ 

म्र नरस्तत्र रुद्रलोके महीयते । अङ्गारक्यां चतुर्थ्या' तु स्नानं तत्र समाचरेत्‌ 


कैधरकं गत्वा स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । अक्षय मोदते काळमवध्यस्तु सुरासुरैः 
| विष्णुछोकं ततो गत्वा क्रीडाभोगसमन्वितः । 
तत्र भुक्वा महाभोगान्मत्यं राजाऽमिजायते ॥ ६२ ॥ 
कस्वो तिकेश्वरं गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । 
E उत्तरायणे सम्प्राप्ते यदिच्छेत्तस्य तद्गवेत्‌॥ ६३॥ 
तवो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । स्नातमात्रो नरस्तत्र सोमलोके महीयते 
॥ | त राजेन्द्र तीर्थ शक्रस्य बिश्रुतम्‌। पूजितं देवराजेन देवेरपि नमस्क्कतम्‌ ॥ 
| पन स्नात्वा नरो राजन्दानं द्त्वा च काञ्चनम्‌ । 
अथवा नीलवर्णाभं वुषभं यः समुत्सजेत्‌ ॥ ६६॥ 


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j मोदते काळं मुरारीक्कतशासनः । अयोनिसङ्गमे स्नात्वा न पश्येद्योनिमन्द्रिम ॥ ` | 


# पाद्यापुराणम्‌ # [३२६ 


वृषभस्य तु रोमाणि तत्प्रसतिकुलेड न । ताबद्व्सहस्राणि नरो हरु हू 
तत; खर्गात्परिस्रष्टो राजा भवति बीयचान | अश्वानां श्वेतवर्णानां सहल्षेप है 
स्वामी भवति मत्येषु तस्य तीर्थप्रभावतः । ततो गच्छेत राजेन्द्र! द हयव 
तत्न स्नात्वा नरो राजंस्तपयेत्पितुदेबताः। उपोष्य रजनीमेकां डं दरवा ब 
कन्यागते यथाऽऽदित्यं अक्षय सञ्चितं भवेत्‌ । 
तत्तो गच्छेत राजेन्द्र | कपिलातीर्थसुत्तमम्‌ ॥ ७१॥ ` 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्कपिलां यः प्रयच्छति । 
सम्पूर्णा पृथिवीं दत्त्वा . यत्फलं तदचाऽप्दुयात्‌॥ ७२॥ 
नर्मदेशात्परं तीथं न भूतं न भविष्यति । तत्र स्नात्वा नरो राजन्नशचमेधफहं 
तत्र सर्वगतो राजा एथिव्यामभिजायते । सर्वेलक्षणसस्पूर्णः सवेन 
नार्गदीयोत्तरे कूले तीथे परमशोभनम्‌ आदित्यायतनं रस्यमीश्वरेण तु भान 
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र ! दानं दत्त्वा च शक्तितः । 
तस्य तीर्थप्रभावेण दत्तं भवति चाक्षयम्‌ ॥ ७६ ॥ 
दरिद्वा व्याधिता ये तु ये च -दुष्छतकर्मिणः । 
मुच्यन्ते सबंपापेभ्यः सूर्येलोकं प्रयान्ति च ॥ ७9॥ 
` माघमासे तु सम्प्राप्त शुक्लपक्षस्य सप्तमीम्‌ । 
बसेदायतने यस्तु निरन्नो यो जितेन्द्रियः ॥ ७८ ॥ 
न जायन्ते व्याधितश्च काछेऽन्धो बधिरस्तथा । 
सुभगो रूपसम्पत्त्तः सत्रीणां सवति वल्लमः ॥ ७६॥ 
इद्‌ तीर्थं महापुण्यं मार्कण्डेयेन भाषितम्‌ । ये प्रयान्ति न राजेन्द्र ! | | 
मासेश्वरं ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । | 
- स्नातमात्रो नरस्तत्र सवेलोकमचा५५प्युयात्‌ ॥ ८९॥ | 
मोदते स्वर्गळोकस्थो याचदिन्द्राशचतुर्दश । ततः समीपतः स्थित्वा नागेश" 
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र शुचिभू त्वा समाहितः । .. 


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| ] ऋ नमेदातीरस्थडूरमेदा दिनानातीर्थमाहात्यचर्णनम्‌ 


बहुमिर्नागकन्याभिः क्रीडते काऊमक्षयम्‌ ॥ ८३॥ 
1 गच्छेत्कुबेरो यत्र संस्थितः । कालेश्वरं परं तीर्थ कुवेरो' यत्र तोषितः ॥ 


तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र ! शुचिभूत्वा समाहितः। 
काञ्चनं तु ततो दद्यादन्नं श्त्या तु बुद्धिमान्‌ ॥ ८६॥ 


कृष्णपक्षे चतुद्श्यां स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । 
नक्तं भोज्यं ततः छुर्यान्न गच्छेद्योनिसङ्कटम्‌ ॥ ८८॥ 
अहल्यातीथं ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । 
स्नातमात्रो नरस्तत्र अप्सरोभिः प्रमोदते ॥ ८६॥ 
पारमेश्‍वरै तपस्तप्त्वा अहट्या मुक्तिमागमत्‌ । 
चेत्रमासे तु सम्प्राप्ते शुक्लपक्षे ्रयोद्शी ॥ ६०॥ - 
ह तस्मिन्नहल्यां तु प्रपूजयेत्‌ । यत्र तत्र समुत्पन्नो नरस्तत्र प्रियो.भवेत्‌ 
लीवल्भो भवेच्छीमान्कामदेव इचापरः | 
अयोध्यां तु समासाद्य तीथं शक्रस्य विश्वुतम्‌ ॥ ६२॥ 
स्नातमाचो नरस्तत्र गोसहस्रफलं लभेत्‌ । 
सोमतीथं ततो गच्छेत्स्नानमात्रं समाचरेत्‌ ॥ ६३ ॥ 
नरस्तत्र सर्वेपापै: प्रमुच्यते । सोमग्रहे तु राजेन्द्र ! पापक्षयकरं भवेत्‌ ॥ 
त्रेलोक्यचिश्रुतं राजन्खोमतीथं महाफलम्‌ । 
यस्तु चान्द्रायणं कुर्यात्तस्मिस्तीर्थ नराधिप ! ॥ ६५॥ 
| पबिशुद्धात्मा सोमलोकं स गच्छति । अग्निप्रवेशे त जळे$प्यथवा5पि हानाशने 
ओ- सोमतीर्थे खतो यस्तु नासौ मत्यो5मिजायते । 
स्तम्भतीर्थे ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ ॥ ६७॥ 
नरस्तञ सोमलोके महीयते । ततो गच्छेत राजेन्द्र | घिष्णुतीथमचुत्तमम्‌॥ 


॥ ४--- 00-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


बिमानेन घायुळोकं स गच्छति। मम तीर्थ ततो गच्छन्माघमासे युधिष्टिर ! | 


लात्वा तु राजेन्द्र सवेसम्पद्माप्चुयात्‌ । ततः पश्चिमतो गच्छेन्मरुताल्यमुत्तमम्‌ | 


. ५ 9 


. # पाझपुराणमू क. [३२७ 
यो 


म्‌ । अखुरा योधितास्तत्र चासुदेचेन . 
. तत्र तीर्थ समुत्पन्नं विष्णुः प्रीतो भवेदि। अहोरानोपचासेन व्रह्महत्यां चय; 


ततो गच्छेत्त राजेन्द्र ! तापसेश्वस्सुत्तमम्‌। अमोहकमिति ख्यातं पितन्यस्तत्र | 
पौर्णमास्याममाचास्याँ श्राद्ध, कुर्याद्यथाविधि । | 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्पितृपिण्डं तु दापयेत्‌ ॥ १०२ ॥ 
गजरूपाः शिलास्तत्र तोयमध्ये प्रतिष्ठिताः । 
४ तस्मिस्तु दापयेत्पिण्ड चेशाखे तु विशेषतः ॥ १०३ ॥ 
तप्यन्ति पितरस्तावद्यावत्तिष्ठति मेदिनी । ततो गच्छेत राजेन्द्र ! सिद्धेश्वर 
तत्र गत्वा तु राजेन्द्र! गणपत्यन्तिकं ब्रजेत्‌ । ततो गच्छेद राजेन्द्र ! लिङ्गो यत्रज 
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र | विष्णुलोके महीयते । नर्मदादक्षिणे कूले तीथं परमो 
कामदेचः स्वयं तत्र तपस्तप्यत्यसौ महान्‌। दिव्यं घेलहस्तं तु शङ्कुरे प 
समाधिपद्ग्धस्तु शङ्करेण महात्मना । श्वेतपर्चोपमश्चैय इुताशः शुक्कपवणि [१५ 
एते दग्यास्तु ते सर्वे कुसुमेश्वरसंस्थिताः । द्व्यवषेसहरत्र ण॑ तुएस्तेषा महेश 
उमया सहितो रुद्रस्तेषां तुष्टो वरप्रदः । | 
विमोक्षयित्वा तान्सर्वान्नम्मंदातरमास्थितान्‌॥ ११० ॥ 
तस्य तीथेप्रमावेण पुनर्देवत्वमागतः । त्वत्प्रसादान्महादेच तीथ च भवत 
अर्धयो जनविस्तीणं तीर्थं दिक्षु समन्ततः। तस्मिस्तीर्थे नरः स्नात्वा उपवास 
कुखुमायुधरूपेण रुद्रलोके महीयते । वेश्वानरे यमेनेव कामदेवेन वायवे |!| 
तपस्तप्त्वा तु राजेन्द्र तत्रैव च पुरागतैः । अन्धोनस्य समीपे तु नातिदूर तु 
स्नानं दानं च तत्रेव भोजनं पिण्डपातनम्‌ । . ; 
अग्निवेशे जळे चापि अथघाऽपि अनाशने ॥ ११५ ॥ 
अनिवतिकागतिस्तस्य मृतस्याप्यद्धयोज्ञने । त्रैयम्बकेण तोयेन स्तापयेत 
अन्धोनमूले द्या तु पिण्डं चैव यथाविधि | 
पितरस्तस्य तृय्यन्ति याचच्चन्द्रदिचाकरौ | ११७ ... - 


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ष्या ] & मार्गेवेश्वरतीथेमाहात्म्यशुक्कतीर्थोत्पत्तिवृत्तान्तः # घर्‌ | 
[यणे सम्प्राप्ते? तत्र'स्नानं करोति यः। . 

पुरुषो वापि खी-चापि वसेदायतने शुचिः॥ ११८॥ 

ह च्य दैवस्य प्रभाते पूजनान्नरः । सतां गतिमवाप्नोति न तां सवैमह्वामखैः ॥ 

"| दतीर्थकाळेन रूपवान्छुभगो भवेत्‌। मत्ये भवति र।जासावासमुदरान्तगोचरे ॥ 

षेत्रपाळं न'पश्येचच दण्डपाल महावळम्‌ । 

वृथा तस्य भवेद्यात्रा अदुष्ट्चा कर्णकुण्डलम्‌ ॥ १२१ ॥ 

हतीर्थफलं जात्वा खवे:देवाः खमागताः। मुञ्चन्ति पुष्पबृष्टि तु स्तुचन्ति कुखुमेश्वरम्‌ 

श्रीपाद महापुराणे तृतीये.खर्गखण्डे नप्रेदाती थ त्थमूलमेदादिनानातीर्थमाद्दात्म्य 

| घर्णनंनामाष्टादशो5$व्याय; ॥ १८ ॥ 


एकोनावशोऽध्यायः 


भार्गवेखरतोथेमाहात्म्यशुक्ृतीर्थो त्पत्तिवृत्तान्तं माहात्म्यञ्च । 
, नारद्‌ उवाच | 


भागेवेशं ततो गच्छेद्रक्त्या यत्र. च चिष्णुना | ` 

इड्टारितास्तु'देवेन दानवाः प्रलयं गताः ॥ १॥ , 

तत्र स्नात्वा तुरराजेन्द्र सर्वेपापै: प्रमुच्यते । 

शुक्लतीर्थस्य चोत्पत्ति शएणु त्वं पाण्डुनन्दन !॥ २॥ 

पिष्छिलरे रम्ये नानाधातुविचित्रिते । .तरुणादित्यसङ्कारे त्तकाञ्चनसन्निमे ॥३॥ 

_ रिसरिकसोपाने: : चित्रपद्दशिळातळे । जाम्बूनदमये दिव्ये नानापुष्पोपशोसिते॥ 

णु नं महादेवं सर्वज्ञ प्रभुमव्ययम्‌ । लोकाजुग्राहक॑ शान्तं गणबृन्दैः समावतमः॥ 
सििन्दिमदाकालैवीरभद्रगणादिभिः । उमया सहितं देवं मार्कण्डः प रिपूच्छति॥ 

| ॥ देव महादेव :इन्द्रकामादिसंस्तुत ! । संखारभवमीतोऽहं सुखोपायं अबी हि मे॥७॥ 


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2 ड र # पाझपुराणम्‌ # [३२ । 
भगवन्भूतभव्येश सर्वपापप्रणाशनम्‌ । तीर्थानां परमं तीथ तद्वदस्व महेश्वर || | 
इश्वर उचच । 
णु चिप्र महाभाग ! सर्वेशास्रविशारद्‌ ! । 
स्नानादि कुरु गच्छ त्वं ऋषिसङ्भैस्समाब्रृतः ॥ ६॥ 
मन्व तरियाज्ञचल्क्याश्च काश्यपश्चैव चाङ्गिराः । यमापस्तम्वसंचर्ताः 
नारदो गौतमश्चैव च्छन्ति धर्मकाङ्क्षिणः । 
गङ्गा कनखले पुण्या प्रयागं पुष्करं गया ॥ ११॥ . 
कुरुक्षेत्र तु पुण्यं च राहुग्रस्ते दिवाकरे । 
दिवा घा यदि बा रात्रौ शुक्लतीथं महाफलम्‌ ॥ १२॥ 
दर्शनात्स्पर्शनाच्चैच ख्ञानादुध्यानात्तपोऽजेनात्‌। 
होमाच्चैवोपचाखाच्च शुक्ळतीर्थफलं महत्‌ ॥ १३॥ 
शुक्लतीर्थं महापुण्यं नद्याँ तु संव्यवस्थितम्‌ । 
चाणिक्यो नाम राजषिः सिद्धि तत्रं समागतः ॥ १४॥ | 
पतत्क्षेत्रे समुत्पन्नं योजनावृत्तिसं सितम्‌ । शुक्लतीथं महापुण्यं खवेपापग्रणान 
पादपाग्रेण इटे ब्रह्महत्यां व्यपोहति । अहमत्र क्राषिथ्रेष्ठ ! तिष्ठामि ह्युमया सही 
वेशाखे विमले मासि कृष्णपक्षे चतुदेशी । 
केलासाच्चापि निर्गत्य तत्र सन्निहितो ह्यहम्‌ ॥ १७ ॥ 
देवकिन्नरगन्धर्घाः सिद्धविद्याधरास्तथा । गणाश्चाप्सरसो नागाः सर्वे देवाः सा 
गगनस्थास्तु तिष्ठन्ति विमानेः सर्वकामकेः । 
शुक्लतीर्थे तु राजेन्द्र आगता धर्मेकाङक्षिणः ॥ १६॥ 
रजकेन यथा वस्त्रं शुक्लं भवति वारिणा । आजन्मसञ्चितं पापं शुक्लतीय म 
स्नानं दानं महापुण्यं माकंण्ड ! गर षिसत्तम ! । शुक्‍्लतीर्थात्पर तीर्थ न भूतं तभी | 
पूर्वे वयसि कर्माणि इत्वा पापानि मानवः । अहोरात्रोपवासेनं शुक्छतीथ न 
तपसा व्रहाचयंण यज्ञोदानेन घा पुनः । देवदानेन या पुष्टिर्न सा क्रतुशतैरपि 


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क 


त्य च मासस्य कृष्णपक्षे चतुरदेशो । घृतेन स्नापयेद्देषमुपोष्य परमेश्वरम्‌ ॥ 
त्कुळोपेतो न च्यवेच्चैश्वरात्पदात्‌ । शुक्लतीथ पुरं तीर्थस््ूषिसिद्धनिषेविततम्‌ 
तत्र स्वात्वा ततो राजन्पुनजेन्म न चिद्यते। 
| स्तात्वा वै शुक्लतीर्थेऽपि' अचंयेदुदृषभध्वजम्‌ ॥ २६॥ 
॥एंकासयेत्तत्र शत्यगीतादिमङ्गलैः । प्रभाते शुक्लतीथे तु स्नानं बै देवतार्चनम्‌ ॥ 
आचार्य भोजयेत्पश्चाच्छिषत्रतपरः शुद्धिः । ` 
भोजनं च यथाशक्या वित्तशाठ्यं न कारयेत्‌ ॥ २८॥ | 


एवं या कुरुते भक्तया तस्याः पुण्यफलं श्णु । 
मोदते देवलोकस्था यावदिन्द्राश्वतुदंश ॥ ३२॥ 
अयने चा चतुर्दश्यां सङ्क्रान्तौ चिषुवे तथा । 
उ स्नात्वा तु खोपचासः स निजितात्मासमाहितः ॥ ३३ ॥ 

द्याद्यथाशक्त्या प्रीयेतां हरिशङ्करौ । शुक्लतीथंप्रभावेण सवै भवति चाक्षयम्‌ ॥ 
थं हुगंत॑ चिप नाथवन्तमथापि घा । उद्घाहयति यस्ती्थे तस्य पुण्यफलं श्टणु ॥ 
गि्रोमसङ्च्या तु तत्प्रसूतिकुलेषु च । तावद्वरषसह्ाणि शिवलोके महीयते॥३६॥ 
पे महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे भार्गचेशवरतीर्थमाहात्म्यशुककतीर्थात्पत्ति- 
वत्तान्तमाहदत्म्यचर्णनंनामैकोनविंशोऽध्यायेः ॥ १६॥ 


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७,  _८ऽ्यायः ] कटंभार्गवेश्‍वरतीथेमाहात्म्यशुक्षतीथोत्पत्तिवृत्तान्त: ३ प्‌ ' 


विंशतितमोऽध्यायः 


नरकतीर्थादिनानातीर्थमाहात्म्यकथनम्‌ । 
नारद्‌ उवाच। 
ततस्तु नरकं गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । स्नातमाचरो नरस्तत्र नरकं न च 
अस्य तीर्थल्य माहात्यं श्रणु त्वं पाण्डुनन्दन ! । 
तस्मिस्तीर्थ तु राजेन्द्र यान्यस्थीनि विनिक्षिपेत्‌ ॥ २॥ 
चिळयं यान्ति सर्वाणि रूपवाञ्जायते नरः । 
गोतीर्थं तु ततो गच्छेद्रष्ट्या पापात्प्रसुच्यते ॥ ३॥ 
ततो गच्छेत राजेन्द्र! कपिलातीर्थमुत्तमम्‌ । तत्र स्नात्वा नरो राजन्गोसहसफर मे 
ज्येष्ठमासे तु सम्प्राप्ते चतुर्दश्यां विशेषतः 
तत्रोपोष्य नरो भक्तया कपिलां यः प्रयच्छति ॥ ५॥ 
घृतेन दीपं प्रज्वाल्य घृतेन स्नापयेच्छिवम्‌ । 
सघुतं श्रीफळ दत्त्वा इत्वा चान्ते प्रदक्षिणम्‌॥ ६ ॥ 
घण्टाभरणसंयुक्तां कपिलां यः प्रयच्छति । शिवतुल्यो नरो भूत्वा न चेह जागते! 
अङ्गारकदिने प्राप्ते चतुथ्यां' तु विशेषतः । 
स्नापयित्वा शिवं भक्तया त्राह्मणेभ्यस्तु भोजनम्‌ ॥ ८॥ 
अङ्गारकनवम्यां तु अमाचास्यां तथैष च । स्नापयेत्तत्र यत्नेन रूपचान्सुमगो र 
घृतेन स्नापयेलिङ्ग पूजयेद्र क्तितो द्विजान्‌। पुष्पकेण घिमानेन सहनः पर्ण 
शेवं पदमचाम्रोति नात्र चाभिगतं भवेत्‌ । अक्षयं मोदते कालं यथा रतये 
यदा तु कर्मसंयोगान्मत्यंलोकसुपागतः । राजा भवति धर्मिष्ठो रूपचाञ्ञायते तीं 
ततो गच्छेत राजेन्द्र! ऋषितीर्थमनुत्तमम्‌ । तृणबिन्दुक्राषिर्नाम शापदग्धो व्यय | 
थप्रभावेण पापमुक्तो पबरदङ्गिजि॥ वतो आलेत छाजित्द्व.!!आ्रणेश्‍वरर ४ र्ण 


` ऽध्यायः] ॐ नरकतीर्था दिनानाती्थेमाहात्म्यकथनम्‌ इ ५७ 
श्रावणे माखि सम्प्राप्त कष्णपक्षे चतुर्दशीम्‌ । 

स्नातमात्रो नरस्तत्र रुद्रलोके महीयते ॥ १५॥ 

ग ठ्पणं छत्वा सुच्यते च ऋणत्रयात्‌ । गणेश्वरसमीपे तु गङ्गाबदनसुत्तमम्‌॥ 
अकामो था सकामो घा तत्र स्नात्वा तु मानव: । 

-आजन्मजनितेः पापेसु च्यते नात्र संशयः ॥ १७ ॥ 


१ यत्फलं दृष्टं शाङुरैण महात्मना । तदेव निखिल पुण्यं रङ्गाराहुर्कसङ्ग मे ॥१६॥ 
वैवं पश्चिमे स्थाने समीपे नातिदूरतः। दशाश्वमेधिकं नाम त्रिछु लोकेषु चिश्रुतम्‌ 
उपोष्य रजनी मेकां मासि भाद्रपदे तथा । 
अमाघास्यां नरः स्नात्वा अजेद्वे यत्र शङ्करः ॥ २१ ॥ 
हा पर्व दिवसे स्नानं तत्र खमाचरेत्‌। पितृणां तर्पण कृत्वा अश्वमेघफल लभेत्‌ ॥ 
ेघात्पश्चिमतो अृशुर््ाह्मणसत्तमः। दिव्यं वर्षसहस्नं तु इश्वर पयु पासत॥२३॥ 

बस्थितश्चासौ दक्षिणं च निकेतनम्‌। आश्चयं च महञ्जातमुमाया शङ्करस्य च 
गौरी तु एच्छते देवं कोऽयमत्र तु संस्थितः 
देवो चा दानको घाथ कथयस्व महेश्वर ! ॥ २५॥ 

ईश्वर उचाच। 
रतम दविजश्रेष्ठ ऋषीणां प्रवरो सुनिः । ध्यायते मां समाधिस्थो चरं प्रार्थयते प्रिये! 
तर प्रहसिता देवी ईश्वर प्रत्यभाषत । घूमावतं शिखा जाता ततोऽद्यापि न तुष्यसि ॥ 
दुराराध्योऽसि तेन त्वं नात्र कार्या घिचारणा ॥ २७॥ 

देव उचाच | 
॥ गानासि महादेचि! अयं क्रोधेन चेष्टितः । दर्शयामि यथातथ्यं प्रियं ते च करोम्यहम्‌ 
शितो देवदेवेन धर्मरूपो वृषस्तदा । स्मरणादेच देवस्य वृषः शीघ्रमुपस्थितः ॥२६॥ 
इ प्राहासौ मानुषीं घाचमादेशो दीयतां प्रभो । 
वल्मीकैश्छादितो चिप्र ! एनं भूमौ निपातय ॥ ३० ॥ 


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कपाइखुरणू७. | [ | 


योगस्थस्तु ततो ध्यायंस्तंतस्तेन 'निपातितः। . .. 
तत्क्षणात्क्रोधसन्तप्तो हस्तसुत्झिप्तवान्वृषम्‌ ॥ ३१ ॥ 
एवं सम्माषमाणस्तु कुत्र गच्छसि भो वृष! । 
` अद्य त्वामथ पाप्मानं प्रत्यक्षं हन्म्यहं वृष! ॥ ३२॥ 
घर्षितस्तु तदा विप्रो ह्यन्तरिक्षं गतं वृषम्‌ । आकाशे प्रेक्षते भूप ! | 
ततः प्रहसिते रुद्रे ऋषिरगरे व्यवस्थितः। तृतीयं लोचनं इष्ट्या चे लक्ष्यात्पतिवेश 
प्रणस्य दण्डचदुभूमौ स्तुते बै परमेश्वरम्‌ ॥ ३४ ॥ | 
प्रणिपत्य भूतनाथं भवोद्भवम्‌ त्वामहं दिव्यरूपम्‌ । 
भवभीतो भुषनपते भूतं विज्ञापये किंचित्‌ ॥ ३५ ॥ 
त्वदुगुणनिकरान्वक्तुं कः शक्तो भवति मानुषो नाथ ! ॥ 
घासुकिरयं हि कदाचिद्वदनसहस्नं भवेद्यस्य ॥ ३६ ॥ 
सत्तया तवा5पि शङ्कर सुषनपते :त्वत्स्तुतौ तु सुलरस्य । 
_ वन्य क्षमस्व भगचन्प्रसीद्‌ मे तब चरणपतितर्य ॥ ३७॥ 
सत्वं रजस्तमस्त्व स्थित्युत्पत्तौ विनाशाने देव ! । 
त्वां सुत्वा सुचनपते ! भुवनेश्वर ! नेव देवतं किंचित्‌ ॥ ३८॥ 
यमनियमयज्ञदानेवेदाभ्यासाचधारणोद्योगात्‌ । ; 
त्वद्धक्तेः सर्वे मिदं नाहेति कलासहस्रांशेन ॥ ३६ ॥ 
उत्कृशरसरसायनखङ्गाञ्जनपादुकादिसिद्विर्चा । 
चिहानिभवत्प्रणतान्‌ं इश्यन्त इह॒ जन्मनि प्रकटम्‌ ॥ ४० ॥ 
शाव्येननमतियद्यपि ददासि त्वंधर्म मिच्छतांदेच । 
भक्तिभवच्छेदकरी मोक्षाय विनिर्मिता नाथ ॥ ४१ ॥ 
परदारपरस्घरतं परिभषपरिदुःखशोकसन्तप्तम्‌ । 
परवद्नवीक्षणपरं परमेश्वर मां परित्राहि ॥ ४२॥ 


अलोकाभिमानदग्धं क्षणमङ्गुरचिभवविळलितं देच । 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| ह. 


क्रूर कुपथाभिसुखं पतितं मां चाहि देवेश ! ॥ ४३ ॥ 

दीनेन्द्रियगणसार्थेबेन्धुजनेरेव पूरिता आशा । 

तुच्छा तथापि शङ्कर ! कि मूढुं मां विडम्बयसि ॥ ४४॥ 

तृष्णा हरस्व शीघ्रं लक्ष्मी मे देहि ह्ृदयवालिनी नित्याम्‌ । 

छिन्धि मदमोहपाशाचुत्तारय मां महादेव ! ॥ ४५ ॥ 

करुणास्युदयं नाम स्तोत्रमिदं सिद्धिदं, दिव्यम्‌ । 

यः पठति भक्तियुक्तस्तस्य तुष्येद्‌ भृगोर्यंथा हि शिव: ॥ ४६ ॥ 

ईश्वर उघाचं | 
अहं तुष्टोऽस्मि ते विर चरं प्रार्थय स्वेप्सतंम । 
उमया सहितो देवो घरं तस्य हि दापयेत्‌ ॥ ४७ ॥ 
. अेगुरुवाच | 
तुशेष्सि देवेश यदि देयो बरो मम | रुद्रवेदीभवमेतत्सम्पादयस्व मे ॥ ४८॥ 
इश्वर उवाच | * 

मवतु विरेन्द्र को घस्थानं भविष्यति । न पितापुत्रयोश्चैव एकचाक्यं भविष्यति 
परभृति ब्रह्माद्याः सर्वे देवाः सकिन्नरा: । उपासते भृगोस्तीथं तुष्टो यत्र महेश्वरः ॥ 
हितस्य तोथेस्य सद्यः पापात्प्रमुच्यते । अवशाः स्वंवशाश्चापि ध्रियन्ते तत्न जन्तवः 
गुहास्य गतिस्तेषां निःसंशया भवेत्‌ । पतत्क्षेत्रै सुविपुलं सर्वपापप्रणाशनम्‌ ॥ 
तत्र खात्वा दिवं यान्ति ये म्रृतास्ते५पुनर्भचाः । 
औपानहं तदा त्रं देयमन्नं च काञ्चनम्‌ ॥ ५३ ॥ 
१ ७ यथाशक्त्या अक्षयं तस्य तदुवेत्‌ | सूर्योपरागे यो दद्याद्दानं चैच यथेच्छया ॥ 
"तु यद्दानमक्षयं तस्य तद्भवेत्‌ । चन्द्रसू्योपरागेघु वषोत्सर्गमनुत्तमम्‌ ॥५५॥ 
न जानन्ति नरा मूढ़ा विष्णुमायाविमोहिताः । 
| गमदायां स्थितं दिव्यं वृषतीथ नराधिप ! ॥ ५६ ॥ 
| उगुतीशस्य माहात्म्य यः श्रणोति नरः स 


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हततम ऽध्यायः ] * खगवेशिवस्य घरपदानं भृगुतीर्थमाह स के | 


पट कै पाझपुराणम्‌, ऋ [ ३ 
| विमुक्तः सर्वपापेभ्यो रुद्रलोकं'स गच्छत्ति॥ ५७॥ | 
ततो गच्छेत राजेन्द्र ! गौतमेश्वरमुत्तमम्‌ । तत्र खात्वा नरो रा 
काञ्चनेन विमानेन व्रहालोके महीयते । धौतपापं ततो गच्छेद्धौत यत्र वृषेण र |, 
नर्मदायां सथितं राजन्सर्वपातकनाशनम्‌ । तञ तीथ नरः स्मात्वा ऋहमहत्यां व्यपोह 
तस्मिस्तीर्थ महाराज! प्राणत्याग करोति यः । चतुर्भुजरित्रनेत्रस्तु रुद्रतुल्यवरी न 
वसेत्कल्पायतं साग्रं रुद्रतुल्यपराक्रमः । कालेन महता प्राप्तः पृथिव्यामेकराइ 1 
ततो गच्छेत राजेन्द्र ! परण्डीतीर्थसुत्तमम्‌ । प्रयागे यत्फछं दुष्टं माकण्डेयेन मागि 
तत्फलं लभते राजन्लातमात्रस्तु मानवः | मासि भाद्रपदे चेच शुक्लपक्षस्य चा 
उपोष्य रजनीमेकां तत्र खाने समाचरेत्‌ | यमदूतेने बाध्येत इन्द्रलोक स गर्च्छा 
ततो गच्छेत राजेन्द्र सिद्धो यत्र जनार्दनः । हिरण्यद्वीपविख्यातं सर्वपापप्रणाशनम 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्धनचान्र्‌ पचान्भवेत्‌ | 
'ततो गच्छेत राजेन्द्र ! तीथं कनखलं महत्‌ ॥ ६७ || 
गरुडेन तपस्तप्तं तस्मिंस्तीर्थ नराधिप !। विख्यातं सबलो केषु योगिनी तत्र गि 
क्रीडते योगिभिः साथ शिवेन सह नृत्यति । तत्र स्रात्वा नरो राजन्न्‌ द्रलोके मई 
ततो गच्छेत राजेन्द्र ! ईशतीर्थमचुत्तमम्‌ । ईशस्तत्र विनिर्मुक्तो गत ऊध्व न संश| 
ततो गच्छेत राजेन्द्र ! सिद्धो यत्र जनार्द्नः। चाराहं रूपमास्थाय अचिन्त्यः परे 
घराहतीथे नरः स्नात्वा द्वादश्यां तु विशेषतः । 
चिष्णुळोकमवाप्रोति नरकं तु न गच्छति ॥ ७२॥ 
ततो गच्छेत राजेन्द्र सोमतीर्थमचुत्तमम्‌। पौर्णमास्यां चिहोषेण तत्र स्नानं स] 
प्रणिपत्य च ईशानं बलिस्तस्य प्रसीदति । हरिश्चन्द्रपुरं दिव्यमन्तरिश्षे तुक 
चक्रध्चजे समावृत्ते सुप्ते नागारिकेतने। नर्मदातोयवेगेन रुरुकच्छोपसेवित्प 
तस्मिन्थाने निवासं च विष्णु शङ्करमत्रचीत्‌ | | 
द्वीपेश्वरे नरः स्नात्वा लमेदु बहुसुचर्णकम्‌ ॥ ७६ ॥ 
ततो गच्छेत राजे Bhawan तु संहूमे। स्नातमा तो नरस्तत्रदेव्या: 


(विश वध्यायः ] 9 विहगेश्वराद्यनेकतीथमाह्वात्म्यवर्णनम्‌ क प, 
दीं ततो गच्छेत्सर्वेदेषत्‌मस्ङतम्‌ । तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र !,दैचतैः सह मोदते ॥ 
| दि गच्छेत राजेन्द्र ! शिखितीथमजुत्तमम्‌ । तत्र चै दीयते दानं खर्व कोरिगुणं भवेत्‌ 
| पै पमाघास्यां स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । त्राह्मणं भोजयेदेकं कोटिभवति भोजिता 
भूगुतीर्थे तु राजेन्द्र ! तीर्थो रिव्यंचस्थिता । 

| अकामो वा खकामो घा तत्र स्नायीत मानच: ॥ ८१ ॥ 

मेधमवाप्नोति देषतेः सह मोदते । तत्र सिद्धिमवाप्नोति भृगुस्तु मुनिपुङ्गचः ॥ 
| अवतार: इतस्तेन शडुरेण महात्मना ॥ ८३ ॥ 


विशतितमो ऽध्यायः ॥ २०॥ 


एक विशो ऽध्यायः 
विहगेश्वराद्यनेकतीथमा हा त्म्यवर्णनम्‌ । 
| नारद उवाच | 
गग गच्छेत राजेन्द्र विहगेश्वरसुत्तमम्‌ । दर्शनात्तस्य राजेन्द्र ! सुच्यते सर्वपातरकेः ॥ 
गे गच्छेत राजेन्द्र नमं देश्वरसु्तमम्‌ । तत्र स्नात्घा नरो राजन्स्वर्गलोके महीयते ॥ 
[तथं ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ । सुभगो दर्शनीयश्च भोगघाञ्जायते नरः ॥ 
£| पितामहं ततो गच्छेदुत्रह्मणा निमितं पुरा ।' 
| तत्र स्नात्वा नरो भक्त्या पितृपिडं तु दापयेत्‌॥ ४ ॥ 
|भिषिमिश्रं तु उदक तु प्रदापयेत्‌ । तस्य तीर्थप्रभावेण सव॑ भवति चाक्षयम्‌ ॥५॥ 
| नतीथमासाद्य यस्तु स्नानं समाचरेत्‌। विधूय सर्वपापानि ब्रह्मलोके महीयते 
} ` चे त्रच तीर्थ परम्‌ शोभनम्‌ । तत्र स्तात्वा नरो राजन्पितृळोके महीयते ॥ 


'शिंणाच्छेत राजेन्द्र हाथ 
कि मानस दीशमुत्तमम । गी Varanasi 0110 (नरो र by चदळोवे ते 


६० # पाझपुराणम्‌ # ` ३ स्व | 
ततो गच्छेत राजेनद्र ! करतुतीर्थमतुत्तमम्‌। विख्यातं सवेलोकेषु सवेपापप्रणार। 
यान्यान्प्रार्थयते कामान्पशुपुत्रधनांनि च । 1 
प्राप्लुयात्तानि सर्वाणि तत्र स्नात्वा नराधिप ॥ १०॥ 
ततो गच्छेत राजेन्द्र त्रिद्शद्यो तिविश्नुतम्‌ । 
तत्र ता ऋषिकन्यास्तु तपस्तप्यन्ति सुरताः ॥ ११ ॥ 
भत्ता भवतु सर्वासामीश्वरः प्रभुरव्ययः । प्रीतस्ते षां महादेवश्वण्डरूपघरो हः; । 
चिकृताननवीभत्सस्तच्चय तीर्थमुपागतः । तत्र कन्या महाराज ! चराय परमेश्वर: |! 
कन्याऋद्धि च यः सेवेत्कन्यादानं प्रयच्छति । 
तीर्थ तत्र महाराज दशकन्येति विश्रुतम्‌ ॥ १४ ॥ 
तत्र स्नात्वा५च्चेयेद्देवं सवेपापैः प्रसुच्यते। ततो गच्छेत राजेन्द्र स्वगेबिन्दुरिति 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्दुर्गति च न पश्यति । 
अप्सरेशं ततो गच्छेत्स्नानं तत्र समाचरेत्‌ ॥ १६ ॥ 

_ क्रीडते नागलोकस्थोऽप्सरोमिः सह मोदते। ततो गच्छेत राजेन्द्र ! नरकं तीथभुक् 
तत्र स्नात्वाऽच्चयेद्देवं नरकं च न गच्छति । भारभूतं ततो गच्छेडुपवासपरायष 
एतत्तीर्थ समासाद्य अवतारं तु शाम्भवम्‌ । अचंयित्वा हि रूपाक्षं रुद्रलोके 

तस्मिस्तीर्थ नरः स्नात्वा भारभृते महात्मनः । 
यत्र तत्र खृतस्यापि घुब॑ गाणेश्वरी गतिः ॥ २०॥ 
कार्तिकस्य तु मासस्य अर्चयित्वा महेश्वरम्‌ । अशचमेधाच्छतणुणं प्रवदन्ति म 
दीपकानां शतं कृत्वा घृतपूर्ण" तु दापयेत्‌। चिमानैः सूर्यसङ्कारीव्रजते यत्र श 
चृषभं यः प्रयच्छेत शङ्ुन्देन्दुसंनिभम्‌। वृषयुक्तेन यानेन रुद्रलोकं स गछ 
चरुमेकं तु यो दद्यात्तस्मिस्तीथ नराधिप !। पायसं मधुसंयुक्तं भक्ष्याणि विदिशा | 
यथाशत्त्यनु राजेन्द्र भोजयेत्सहदक्षिणम्‌ । तस्य तीर्थप्रभावेण सर्व कोटिगुणं 
नमेदाया जल सित्तवा अचेयित्वा वृषध्वजम्‌ | | 
दुरति च न पश्यन्ति तत्तीर्थस्य प्रभावत: ॥ २६.॥ 
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ऽध्यायः ] २ विहगेश्वराचनेकतीर्थमाहात्म्यचर्णनम्‌ ह 

तीं समासाद्य यस्तु प्राणान्परित्यजैत्‌ । सर्वपाप विशुद्धात्मा बजते यत्र अ शङ्कुः 
शं यः कुर्यात्तस्मिस्तीर्थे नराधिप । हंसयुक्तेनयानेन रुद्रठोकं स गच्छति ॥ 
: सरितो यावत्तावत्स्व्गे महीयते 


। ५०, 0 < पि 
पर्थं ततो गच्छेत्लवपापप्रणाशनम्‌ । तत्रापि ्नातमात्रस्य ध्रवं गाणेश्वरी गति:॥ 


एरानम्‌॥ 


यत्रेष्ट्या यहु भिय रिनद्रो देवाधिपो ऽभवत्‌ । 
तत्र खात्वा नरो राजन्नर्मदोद्धिसङ्गमे ॥ ३६ ॥ 
त्रिगुणस्याश्वमेधस्य फळं प्राप्नोति मानव: | 
पश्चिमोदधिसायुज्यं सु क्तद्वारविघाटनम्‌ ॥ ३७ ॥ 
तत्र देवा: सगन्धर्घाः ऋषयः सिद्धचारणाः । 
जियो आराधयन्ति देवेशं त्रिसन्ध्यं चिमलेश्वरम्‌ ॥ ३८ ॥ 
पपविशुद्धात्मा रुद्रलोके महीयते । विमलेशं परं तीर्थ न भूतं न भविष्यति । 
५ सत्वा ये पश्यन्ति विमलेश्वरम्‌। सर्वेपापविनिमुक्ता रुद्रलोक जन्ति ते 
'१ गच्छेत राजेन्द्र ! केशिनीतीर्थमुत्तमम्‌ | तत्र खात्चा नरो राजन्नुपघासपरायणः॥ 
रजनीमेकां नियतो नियताशनः । तत्र तीर्थप्रभावेण सुच्यते ब्रह्महत्यया ॥४२॥ 
सर्वेतीर्था भिषेक॑ च यः पश्येत्सागरेश्वरम्‌ । . 
योजनाभ्यन्तरे तिष्ठेदावत सं स्थितः शिवः ॥ ४३ ॥ 
तं दृष्ट्या सवंतीर्थानि इष्टानि स्यु ने संशयः । 
सबेपापघिनिसु क्तो यत्र रुद्रः ख गच्छति ॥ ४४॥ 


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६१ 


| 
| 
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| 


) 


*तीर्थात्तीर्थाटनं चर्या ऋ 


हर # पाइपुराणम्‌ # [रस 
नमेदासङ्गमं यावद्यावच्चामरकण्टकम्‌ । तत्रान्तरे महाराज ! तीर्थ कोट्यो दृश 
बिको टिनिषेविता । अग्निहोचेश्च दिव्यांशीः सै्ञीनपरः 
सेचितास्तेन राजेन्द्र ! इ्सितार्थप्रदायिकाः। यश्चेदं चै पठेन्नित्यं शटणुयाद्वाऽपि ३६ 
. तंतु तीर्थानि सर्वाणि अमिषिञ्चन्ति पाण्डव ! । | 
नर्मदा च सदा प्रीता अवैद्दै नात्रसंशयः ॥ ४८ ॥ | 
प्रीतस्तस्य भवेद्रुद्दो माकण्डेयो महामुनिः | चन्ध्या च लभते पुत्रान्दुभेगा सुभगा!: | 

कुमारीं लभते भत्ता यच्च यो घाञ्छते फलम्‌ । 

तदेव लभते सवं नात्र कार्या विचारणा ॥ ५० ॥ 

ब्राह्मणो वेदमाप्नोति क्षत्रियो बिजयी भवेत्‌ । 
चैश्यस्तु लभते धान्यं शूद्रः प्राप्तोति सद्गतिम्‌ ॥ ५१॥. 
मूर्खस्तु मते बिद्यां त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः । नरकं च न पश्येत वियोनि चन ग 
इति श्रीपाद्े महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे विहगेश्वरायनेकतीर्थमाहात्यव्| 
नामैकचिशो ऽध्यायः ॥ २१ ॥ | 


ह्वाविशो ऽध्यायः 
_ नर्मदामाहात्मयेप्मो दिन्या दिगन्धवेकन्याना मितिह्वसवर्णनम्‌। | 
नारद्‌ उवाच । ८ जा 
एवं ते कथितं राजन्नरमंदातीथंमुत्तमम्‌ । पुरा गन्धर्वेकन्यानां शापजं  मयमुख। 
नाशितं तन्महाराज ! रैचाजलकणा पिना । रेघांजलकणस्पर्शान्मुक्तो भवति मी 
युधिष्ठिर उवाच । र 

भगवन्वहुकन्या भिः शापो लब्धः कथं कुतः 1. 
कस्यापत्यानि तास्तासां नाम कि कीदशं बय:.॥.३.॥ 


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चायः ] ® गन्धर्वकन्याना मितिहासवर्णनम्‌ ५ य 


५ ¦ 


- कथं रैवाजलस्पर्शादविपाकांच्छापसम्भवात्‌ |. ` | 
|  विमुक्ताः कुत्र ताः सस्चुः सवं मे कथय प्रभो ! ॥ ४॥ शक 
पु तीर्थमाहात्म्यं चमत्कारकरं भवेत्‌। श्रवणादपि पापानां मळनाशनमुच्यते.॥५॥ | 
अदनर्मदारब्दो येन केनचिदुच्यते । तस्य स्याच्छाश्वती मुक्तिर्याचदाचन्द्रतारकम्‌ ॥ | 
(तं भवता पूर्व रेवामाहात्म्यसुत्तमम्‌ । तथापि चरितं साधो ! यदेतत्तन्निगद्यताम्‌ 
अथ चोत्तमावार्ता या सेवितव्या मनीषिभिः | 
अतः पृच्छमि विप्रेन्द्र रेवामाहात्म्यसुत्तमम। 
इतिहासं वद्‌ विभो ! कन्यानां चरितोज्ञ्चळम्‌ ॥ ८॥ | 
नारद्‌ उवाच | 
शत राजशादू छ | चर्मगर्भा परा कथा | यथा रणिवेहिगर्भा धम्मंस्तु त्रह्मसूरिव ॥ 
दबा गन्धवः शुकसङ्घीतस्तस्य“ कन्याप्रमोहिनी । 
खुशीलस्य शुशीला च सुस्वरा स्वरवेदिन: ॥ १० ॥ | 
रा चन्द्रकान्तस्य चन्द्रिका सुप्रभस्य च | इमानि घरनामानि तासामप्सरसां नृप | 
झाप पञ्चसर्वास्ता चयसा सुभगाः पुनः। भाषन्ते च मिथस्तास्तु भगिन्य इच सर्वदा : 
चन्द्रा दिव विनिष्क्रान्ताश्वन्द्रिका इच सोज्ज्वला: | 
` चन्द्राननाः सुकेश्यश्च चन्द्रकान्ता इचोज्ज्वलाः ॥ १३॥ 
हिषेता विलासिन्यः कौमुद्यः कैरवेष्विव । लाबण्यपिण्डसम्भूता दिव्यरूपा मनोहराः ` 
[लिकुचपञ्चिन्यः केतक्य इच माधवे ।. उत्पन्नयौचनेः कान्ता वल्लीच नवपछ्वैः ॥ | 
रश्च हेमाभा हेमाभरणभूषिताः । हेमचम्पकमालिन्यो हेमच्छविसुचासस: ॥ 
| | 'मावलीहाखु विविधामूच्छेनाजु च । ताळंवाचविनोदेषु वेणुचीणाप्रचादने ॥ 
ाद्सस्मिन्नळास्यमध्यल्येषु च । चित्रादिषु विनोदेषु कला च विशारदाः ॥ 
| शिव ताः कन्या शसु कीडे । पिदभिला छिताः स्वाश्च घनदालये 
| कोतुकादेकदा पञ्च मिलित्वा मासि.माधवे। | | 
कन्यामन्दारपुष्पाणि घिचिन्चन्त्यो घनाद्वनम्‌ ॥ २० ॥ 


. (2-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


। 
| 


॥ 
>. 


. चै. 


पुनःपुनस्तमभ्यच्ये नयनेः पडुजेरिच । डु 
यद्ययं कामदेघो हि रतिहीनः कथं भवेत्‌ | अथवा ह्यश्चिनो देवौ ताबुभौ 


_ गौरी समाराधयिवँ खुराङ्गताः कदाचिदच्छोदसरोचरं ययुः। 


` ऋषिपुत्रो धथवा कश्चित्कश्चिद्वा मनुजोत्तमः ॥ ३३ ॥ 


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न पाझपुराणम्‌ ने [ ३ 


हेमाम्बुजानि प्रचराणि ताः पुनस्तस्मादुपादाय घरोत्पलैः सह । २, 
चेडू्यशुद्धस्फटिकप्रकुट्टिमे खात्वा तु घट्टे परिधाय चास्वरम्‌। | 
मौनेन च खण्डिलपिण्डिकामुमां खुवर्णसुक्ताभरणां चिनिमेमु: | र 
समर्थितां चन्दनगन्थकुडुमैरम्यच्ये गौरीं चरपङ्कजादिभिः | 
नानोपहारेः शुभभक्तिभाचिता ढास्यप्रयोगैनेनूतुः कुमारिका;॥ २३॥ 
गान्धर्वमाश्रित्य परं स्रं ततो गेयं स्वभावध्वनिमिः समूछेनम्‌। 
एणीदूशस्ताः प्रजगुः कलाक्षरं तारप्रवृद्धं गतिमिश्च सुस्वरम्‌॥ २१ | 
तस्मिन्सुभावे रसचर्षेहर्ष कन्यास्वलं निभेरचित्तवृत्तिषु । 
अच्छोद्तीर्थ प्रवरे तदागतः स्नातुं सुनेर्घदनिधेः सुतो ऽग्रजः ॥ २५॥ 
रूपेण निःसीमतरो घराननः प्रफुलपझ्यायतलोयनो युचां। 
विस्तीर्णवक्षाः सुभुजोऽतिसुन्दरः . श्यामच्छविः काम इचापरो हि 
स ब्रह्मचारी खुशिखो हि शोभते दण्डेन युक्तो घनुषेच मन्मथ: । 
एणाजिनप्रावरणः समुद्रधुग्धेमाभमो ज्ञीकडिमेखलः परः ॥ २७॥ 
तं द्रृष्टवा ब्राह्मणं बाळास्तास्तत्र सरसस्तरे । 

जहृषुः कौतुकाचिष्टा अयं नो भविताऽतिथिः ॥ २८ ॥ 
सम्घुक्तगीतनृत्यास्तास्तस्याऽऽलोकनलाळसाः । 
हरिण्यो छुब्धकेनेव विद्धाः कामेन सायकः ॥ २६ ॥ 
पश्यपश्येति जल्पन्त्यो मुग्धा: पञ्च ससम््रमम्‌। 
तस्मिन्विप्रचरे यूनि कामदेचम्रमं ययुः ॥ ३०॥ . 


गन्धर्वेः किन्नरों घाऽथसिद्धो घा कामरूपृध्रक्‌ । 


| ] ३ अरो हिन्या दिगन्धर्वकन्याना मितिहासबर्णनम्‌ ह -६५ 
अस्ति चा कश्चिदेचायं धातरा सृष्टो हि नः कृते । | 
यथा भाग्यवतामर्थे निधानं पूर्वकर्म सिः ॥ ३४ ॥ द 
स्कं कुमारीणां गौर्याऽऽनीतो घरोत्तमः| करुणाजलकल्लोललब्धाद्रीक्कतचित्तया 


वृतस्त्वया चायं त्वया द्वृतस्तथानया । एवं पञ्चसु कन्यासु घदन्तीषु नुपोत्तम ॥ 
श्रत्वा तद्वचनं तत्र छृतमाध्याहिकक्रिय: | 


चिन्तयामास मेधावी कि कृत्वा खुछतं भवेत्‌ ॥ ३७॥ 
गाधिसस्भवपराशाराद्यः कण्डुवेवलमुखाश्र ये द्विजाः। 

तेऽपिं योगिबलिनो विमोहिता लीलया तदवलाभिरदुभुतम्‌ ॥ ३८॥ 
योषितां नयनतीक्ध्णसायकेभ्र लतासुदूढचापनिरगतैः । ' 
धन्विना मकरकेतुना हत: कस्य नो पतति घा मनोभृशम्‌ ॥ ३६ ॥ 
तावदेच नयधीचिराजते ताघदेचं जनताभयं भवेत्‌ । 

तावदेच 'घतचित्तता भृशं ताबदेच . गणना कुलस्य च ॥४०॥ 

तावदेव तपसः प्रगल्भता तावदेष शामसेचनं नृणाम्‌ । 

` याबदेव ललनेक्षणासवेमांद्यते दुतमदेने पूरुषः ॥ ४१ ॥ 

मोहयन्ति मदयन्ति रागिणं योषितः स्वलळितैमनोहरैः । 
मोदयन्ति मदयन्ति मामिमा धर्मरक्षणपरं हि स्वेगुणैः ॥ ४२ ॥ 
मांसरक्तमलसूत्रनिमिते योषितां घपुषि निर्गणेऽशुचौ । 
कामिनस्तु परिकल्प्य चारुतामाविशन्ति सुविमूढचेतसः ॥ ४३॥ 
दारुणा हि परिकी तिताङ्गना साघुमिविमल्वुद्धिमिदुंधै: । 

 यावदेच न समीपगा इमास्तावदेव हि गृह त्रजञाम्यहम्‌ ॥ ४४ ॥ 

८ तस्य याचन्न आगच्छन्ति घरख्रियः । वेष्णवेन प्रभावेण तावदन्तदंधे द्विज 
सि पोगयळादुभूप गतस्यादर्शनं तदा । दृष्द्चा तददुसुतं कमे बैष्णघत्रह्मचारिणः ॥ 
_ : वित्रस्तनयना बालाः कुर्‌ङ्ग्य इच कातराः । 

सङ्क्रान्तनयना शून्या दद्दशुस्ता दिशो दश ॥ ४७ ॥ 


५ TEC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


१ oi ere > CI 
| ` . कन्याऊचुः 1 
इन््रजाळं स्फुटं वेत्ति मायां जानाति वा पुनः । 
दृषो5प्यद्वषटरूपो5भूदित्यूचुस्ता परस्परम्‌ ॥ ४८॥ 
व्याप्तं च हृदयं तासां तदेघ घिरहाझिना । ज्वलद्दाचानलेनेव . सुस्निग्ध सक 
त्यजेन्द्रजाळिकां चिद्यां कान्त दशय सत्वरम्‌। 
आत्मानं न हि ते त्यक्तं प्राग्प्रासे मक्षिकोपमम्‌ ॥ ५० ॥ | 
हा कष्ट दर्शतः कस्माद्धात्रा त्वं घटितः कुतः। ज्ञातं महाजुसन्तापहेतुनेः स्वं विः 
कच्चित्ते निर्दयं चेतः कञ्चिदस्माछु नो मतिः । 
कच्चि्क्रूरोऽसि हे कान्त कच्चिन्सुष्णासि नो मनः ॥ ५२॥ 
, कच्चिन्न प्रत्ययो ऽस्मा कञ्चिदरुमान्परी क्षसे । 
` कञ्चिनिर्ममता शीलः कञ्चिन्मायाविशारदः ॥ ५३॥ 
कञ्चिचित्ते प्रवेष्टं च वेत्सि विज्ञानळाघयम्‌ | 
कच्चिन्निष्क्रमणोपायं न जानासि कुतः पुनः ॥ ५४ ॥ 
कर्चिद्विनाऽपराधं तु किमस्मासु प्रकुप्यसे । 
कर्चिदुदुःखं न जानासि परेषां चिप्रलम्भनम्‌ ॥ ५५॥ 
त्वद्दशेनं चिना नषा हृदयेश्वर खाम्प्रतम्‌। न जीचामोऽथ जीघामः ५ 
वयं नीयामहे तत्र शीघ्रं यत्र गतो भवान्‌। 
त्वददशेनहरो धाता व्यधान्मोहाङकुरच्छिदाम्‌ ॥ ५9 ॥ 
सवथा दशनं देहि कारुण्यं भज सवेथा । पर्य्यन्तं न प्रपश्यन्ति कस्यचित्पुजवाग 
इत्थं विळप्य ताः कन्या प्रतीक्ष्य च बहुक्षणम्‌ । 
पितुर्मयादुणुहं गन्तं शीघ्रमारेभिरे तंत: ॥ ५६ ॥ 


आगत्य पतिताः सर्चा मातणां तु ससीपतः । 
किमेतन्मा तृभिः पृष्टा; कुतः. कालात्ययोऽभचत्‌.॥ ६.१ ॥ . 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri १ 


, ] * प्रमोहिन्यादिगन्धर्वंकन्यानामितिहासवर्णनम्‌ & . ६७ 
कन्या ऊचुः। 

क्रीडन्त्यः किन्नरीभिस्तु सार सङ्गतकं यदा । 

संखितास्तैन न ज्ञातो दिवलो5च्छोदसरोचरे॥ ६२॥ 

| द्व ्न्ता षयं मातः सन्तापस्तेन नस्तनौ । मोहेन महता चक्तु न केनाप्युत्सहामहे 

° नारद्‌ उवाच | 

इत्युक्त्वा लुठितास्तत्र मणिभूमौ कुमारिकाः । 

| आकारं गोपयस्त्यस्ता सुग्धा जल्पन्ति मातृभिः ॥ ६४॥ 

ह्ववित्नतयति क्रीडामयूरं न सुदा तदा । . न पाठयति तं कीरं पञ्चरेऽन्या कुतूहलात्‌ ॥ 

्ेन्तकुळं नान्या नोह्लापयति सारिकाम्‌ । अपरातीच संसुग्धा नैव खेळति सारसैः ` 

॥शिरे न विनोदं ता रेमिरे नेव मन्दिरे । ऊचिरे बान्धबैर्नालं चीणाचाद्यं न चक्रिरे ॥ 

हसदुमप्रसूनं यत्सचं तञ्चानलोपमम्‌ । मन्दारकुसुमामोदि न पपुर्मधुरं मधु ॥ ६८॥ 

योगिन्य इच ताः कन्या नासाग्रन्यस्तलोचनाः । 

अळक्ष्यध्यानरन्तानाः पुरुषोत्तममानसाः ॥ ६६॥ | 

कद्रकान्तमणिच्छन्ने जवद्वारिणि कन्दरे | क्षणं वातायने खित्वा जल्यन्त्रग्रहे क्षणम | 

रचयन्ति क्षणं शय्यां दीधिकाम्भोजिनीद्लैः । 

` . चीज्यमानाः सखी भिस्ताः शीतळेनेलिनीद्लैः ॥ ७१ ॥ | 

ह्यं युगसमां रात्रिमनयंस्ता घरस्त्रिय: । कथंचिद्धारणं कृत्वा पिहलाः सज्वरा इच | 

प्रातव्योममणि द्रष्ट्या मन्यमानाः स्वजी वितम्‌ । 

विज्ञाप्य मातरं स्वां स्वां गौरां पूजयितुं गता: ॥ ७३॥ . 

स्वात्या तेन विधानेन पुष्पैधूपैस्तथा पुनः 1 

र विधाय पूजनं देव्या गायन्त्यस्तत्र ताः स्थिताः ॥ ७४ ॥ 

ऐस्मत्नन्तरे विप्रः स्वातं सोऽपि.समागतः। पितुराश्रमतस्तसंमादच्छोदेऽन सरोवरे 

मित्रं दृष्ट्येव राभ्यन्ते पत्य इच कन्यकाः | 

तत्झुलूनयना जातास्तं दूष्ट्चा ब्रह्मचारिणम्‌ ॥ ७६ ॥ 


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३ - ऋ पाझपुराणम्‌ ॐ . [३ स! 
` गत्वा तञ्रैव ताः कत्याः समीपं ब्रह्मचारिणः । सव्यापसव्यवन्धेन भुजपाशं ३. | 
गतोऽसि प्रिय पूरवुर्गन्तुमद्य न लभ्यते । वृतस्त्वं नूनमस्मामिर्नाञ तेऽस्ति ष 
इत्युक्तो ब्राह्मणः प्राह प्रहसन्वाहुपाशगः | युष्मामिरुच्यते भद्रमनुकूळं प्रि 
प्रथमाश्रमनिष्टस्थ किं तु नश्येत मे व्रतम्‌। बिद्याभ्यसनशीळस्य नाभूत्पार गुरे 
आश्रमे यत्र योधर्मो रक्षणीयः सुपण्डितैः | घिचाहो5यमतो मन्ये न धिन 
आकण्ये चिप्रचाक्यानि, विप्रमूचु्वरस्त्ियः । 
सकळध्वनिसोत्कण्ठयः कोकिला इच माधवे ॥ ८२॥ 
धर्मादर्थों र्थतः कामः कामात्सुलफलोदयः । इत्येवं निश्चयज्ञस्ते वर्णयन्ति पि 
` सकामो धर्मबाहुल्यात्पुरतस्ते समुत्थितः । सेव्यतां चिविधेभोगेः स्वच्छाभूमिलि 
रत्वा तद्वचनं तासां प्राह गम्भीरया गिरा। तथ्यं वो वचनं कि तु ममाप्यावष्यक ले 
८ प्राप्यानुज्ञां गुरोः कुचे घिवाहकमे नान्यथा । 
इत्युक्ताः पुनरूचस्ताः स्फुटं मूढो५सि सुग्द्र ॥ ८६॥ 
सिद्धौषधं ब्रह्मधिया रसायनं सिद्धिनिधिः साधुकुलाघराङ्गनाः | 
मन्त्रस्तथासिद्वरखश्च ध्मेतो सुने निषेव्याः सुधिया समागताः॥ ८१|| 
कार्य जु दैवाद्यदिसिद्विमागतं तस्मिन्लुपेक्षां च यान्ति नीतिगाः। | 
` यस्मादुपेक्षा न पुनः फलप्रदा तस्मान्न दीर्घीकरणं प्रशस्यते ॥ ८८।| 
घिषादप्यसुतं ग्राह्मममेध्यादपि काञ्चनम्‌ । नीचादप्युत्तमां विद्यां खीरत्वं दुम 
सान्द्राचुरागाः कुलजन्मनि्मेलाः स्नेहा चित्तासुगिरः स्वयंघराः। 
कन्याः सुरूपाः खलु चारुयौघना धन्या लभन्तेऽत्र नरास्तु नेतरे। ६ 
क चयं सुरसुन्द्य्यंः क भवांस्तापसो बटुः । दुर्धरस्य चिधानेन भन्ये धातैव प 
तस्माद्स्मानिदानां तु स्वीकु्य्यान्मङ्गं सचान्‌। ` 
गान्धर्वेण चिवाहेन अन्यथा नोपजीचनम्‌ ॥ ३२॥ 
श्रुत्वा वाक्यं ततः प्राइ ब्राह्मणो धमं बित्तमः । 
भो सगाक्ष्यः कथं त्याज्यो धमो घर्मधनेनरे: ॥ ६३॥ 


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ऽध्यायः ] + प्रमोहिन्या दिगन्धवेकन्यानामितिह्वासचर्णनम्‌ # ६६ | 
र्यश्च कामश्च मोक्षश्वेतच्चतुष्टयम्‌ । यथोक्तं फ्‌ ज्ञेय विपरीतं तु निष्फलम 
ब्रती कुर्यामतो दारपरिग्रहम्‌ । न क्रियाफलमाप्नोति क्रियाकाळं न वेत्ति य 


क ॥ विचारेऽस्मिन्प्रसक्त मम मानसम्‌ । तस्माच्छुणुत हे कन्या न समीहे स्वयंचरम्‌ 
| एवं ज्ञात्वाऽऽशयं तस्य समीक्ष्यैव परस्परम्‌ । 


करात्करं विसुच्याथ जन्राद्दाङघरि प्रमोहिनी ॥ ६७ ॥ 
भुजी जणुहतुस्तस्य सुशीला सुस्वरा तथा । 
आलिलिङ्ग खुतारा च घकत्रं चुम्वति चन्द्रिका ॥ ६८॥ 
निविकारो5सो प्रलयानळसन्निभः। शशाप ब्रह्मचारी ता: क्रोधेनात्यन्तमूच्छितः 
पिशाच्य इच मां लय़ास्तत्पिशाच्यो भविष्यथ | 
एवं तेनाशु शत्तास्तास्तं त्यक्तवा पुरतः स्थिताः ॥ १०० ॥ 
किमेतच्चेष्टितं पापं हानागसि चिचेष्टया । 
प्रियङ्छृतोऽप्रियं इत्वा धिक्तां धर्मकृतान्तकम्‌ ॥ १०१॥ 
हेषु भक्तेषु मित्रेषु द्रोहकारिण: । पुंसो लोकोभयोः सौख्यं नाशमेतीति नः श्रुतम्‌ 
तस्मात्त्वमपि नः शापात्पिशाचो भव सत्वरम्‌। 
इत्युत्तवापि च ता वाळा निःश्वसन्त्यः क्रुधाकुलाः॥ १०३॥ 
ररम्भात्तस्मिन्सरसि पाथिव !। ताः कन्याव्रह्मचारी च सर्वे पैशाच्यमागताः 
स पिशाचः पिशाच्यस्ताः क्रन्दमानाः सुदारुणम्‌ । 
' क्षपयन्ति विपाकांस्तान्पूर्वोपात्तस्य कर्मणः ॥ १०५॥ 
ठे प्रवत्येच पूर्वोपात्तं शुभाशुभम्‌ । खच्छायेच च दुर्वारं देघानामपि पाथिच 
त पतरस्तासां मातरस्तत्र तत्र च । भ्रातसञजैच बालानां देवं हि दुरतिक्रमम्‌ ॥ 
छिथ पिशाचास्ते आहारार्थं सुदुःखिताः । इतस्ततश्च घायन्तो चसन्ति सरसस्तटे 
भर पाये महापुराणे तृतीये स्घर्गखण्डे प्रमो हिन्या दिगन्धर्वेकन्यानामितिहासचर्णनं 
| नाम द्वाविशोऽध्यायः ॥ २२॥ 


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त्रयोविशो$ध्यायः 
लोमशझुनिनासह पिशाचीगणसहितस्य पिशाचस्य संवादः 
नारद्‌ उचाच । 
एवं बहुतिथे काळे लोमशो सुनिसत्तमः | आगतश्च महाभागस्तन्न यादृच्छिक 
त॑ दृष्ट्वा ब्राह्मणं सर्च एशाचाः श्वुत्समाकुलाः । ; 
घाचन्तो ह्यत्तकामास्ते मिलित्वा यूथवर्नितः ॥ २॥ 
दह्ममानास्तु तीत्रेण तेजसा लोमशस्य तु । 
असमर्थाः पुरः खातु' ते सर्वे दूरतः खिताः ॥ ३ ॥ 
) तत्र पूर्वकर्मवळात्पिशाचेः सह चे द्विजः । समीक्ष्य लोमशं राजन्साषाङं प्रणिता 


उवाच सूनृतां वाचं बदुध्वा शिरसि चाञ्जलिम्‌ । 

महाभाग्योदये विग्र साधूनां सङ्गतिभेवेत्‌ ॥ ५॥ 
गङ्गादिपुण्यतीर्थेघु यो नरः ख्नाति सर्वथा । यः करोति सतांसङ्ग न सत्सङ्गगो 
शुरूणां सङ्गमो चिप्र दृष्टाहृशफलौ सुबि। स्वगेदो रोगहारी च कि तमोऽपहरेष 

इत्युक्ता कथयामास पूर्वेब्रत्तान्तमदुभुतम्‌ । 

इमा गन्धर्वेकन्यास्ता मुने सोऽहं द्विजात्मजः ॥ ८॥ 
सर्वे पिशाचरूपेण मिथःशापचिमो हिताः । दीनाननास्खुतिष्ठामस्तवाग्न 
त्वइर्शनेनवाळानां निस्तारो नो भविष्यति । सूर्योदये तमस्तोमः कि न नश्येत] 
शरुत्वैतलोमशोषाक्यं इपाद्रीृतमानसः । प्रत्युचाच मद्दातेज्ञाः दुःखितं तं सुतै] 

मत्प्रसादाच्च सर्वषां स्मरतिः सपदि जायताम्‌ । 

धमे च चतंतां येन मिथः शापो लये त्रजेत्‌ ॥ १२॥ 

पिशाच उघाच । 
महर्षे !,कथ्यतां धर्मों सुच्येम्‌ येन किल्बिषात्‌ । 
नायं कालो विलम्वस्य शापाझनिर्दारुणो यतः ॥ १३॥ 


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विश थ्यायः ] ॐ लोमशु निनासह पिशाचीगणस हितस्यपिशाच ध्यसंघाद्‌ #७१. . 
लोमश उवाच] 

प्रया साडं प्रकुर्वन्तु रेवास्नानं विधानतः । 

शापान्मोक्ष्यति वो रेघा नान्यथा निष्क्ृतिभेचेत्‌ ॥ १४॥ 

हेतो विप्र पापनाशो शुचं नृणाम्‌ । रेवास्थानेन जायेत इति मे निञ्चिता मतिः 

जमतं पापं बतेमान च पातकम्‌ । रेवास्नानं दहेत्सवं तूलराशिविभानलः ॥१६॥ 

(मत्तं न पश्यन्ति यस्मिन्पापे पिशाचक । तत्सूवं नमंदातोये रुनानमात्रेण नश्यति 

[न्र्मदास्तानमतो मोक्षफला हि सा । हिमवत्पुण्यतीर्थानि सर्वपापहराणि वै 

ढुलोकप्रदै हीदं निमितं त्रह्मवा दिभिः । सवेकामफला रेवा मोक्षदा प रिकी तिता ॥ 

फनी पापहारिणी सर्वेकामफलप्रदा । चिष्णुलोकदआप्छावोनार्मद्‌: पापनाशनः ॥ 


प्रोक्ता चिशाला हि पिशाचक | पापेन्धनदवा झिस्तु गर्भहेतुक्रियापहः ॥ 
काय मोक्षाय नार्मदः परिकीतितः। सरयूगण्डकी सिन्धुश्चन्रभागा च कौशिकी 
गोदावरी भीमा पयोष्णी कृष्णवेणिका | 

कावेरी तुङ्गभद्रा च अन्याश्चापि समुद्रगाः ॥ २४॥ 

ताझु रैवा परा परोक्ता चिष्णुळोकप्रदायिनी । 

गु प्राप्यते पुण्यैः पूरवेजन्मछततेद्विजञ | अपुनर्भचद्‌ं तत्र मञ्जनं मुनिपुत्रक ॥ २५ ॥ 
गायन्ति देवाः सततं दिविष्ठा रेवा कदा द्ृश्गिता हि नो भवेत्‌ । 

स्नाता नरा यत्र न गर्भेवेदनां पश्यन्ति तिएन्ति च विष्णुसन्निधौ ॥ २६ ॥ 
मञ्जन्ति ये प्रत्यहमत्र.मानघा रेवासु तोये बुहुपापकञ्चुकाः । 

मञ्जन्ति ते नो निरयेषु धम्मेतः स्वर्ग तु ते चारु चरन्ति देघवत्‌ ॥ २७ ॥ ` 
तीवर तर्दानतपो भिरध्वरै: साधं चिधात्रा तुळया धृता पुरा। 
रेवापिशाचाऽऽशु तयोद्वयोरंभूद्रेवा घरा तत्र च मोक्षसाधिका ॥ २८॥ 

k नारद्‌ उचाच। 

| क्या चचस्तस्य रोमशस्य पिशाचकाः । तेन सादं ययुः -शीघ्रं रेवामज्ञनहेतवे 


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७२ :. : # पाद्यपुराणम्‌ # ह: | । 
` - ततो दैवात्समुत्पन्नो रेवारोधसि मार्तः । तेषां प्रचाहरूपृष्टानां गात्रे जळ: 
श्वाजळकणस्पर्शात्पैशाच्यात्तेविमोचिताः । तत्क्षणाद्दिव्यवपुषः परशाशंुश्च न; 
ततो लोमशब्ाक्येन ताश्च गन्थवेकन्यकाः । परिणीताः सुखं तेन विप्रेण न 
उचास सुचिरं काळं स्नानपानावगाइनैः । अचित्वा नमेदामत्र विष्णुलोकं | 
एवं ते कथितो राजन्नमंदागुणसंश्रयः | इतिहासो मद्दापुण्यः श्रवणात्पापनाक| 
इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे नमेदामाहात्म्यव ्णनेपैशाच्यास्मोच्र 

अयोविशो5ध्यायः ॥ २३ ॥ 


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चतुवि'शोऽध्यायः 
अन्यतीथमाद्वात्म्यवर्णनम्‌ । 
युधिष्ठिर उवाच । 
अथान्यानि तु तीर्थानि बासिष्ठोक्तानि मे वद्‌ । 
श्रत्वा यानि च पापानि विल्यं यान्ति नारद ! ॥ १ ॥ 
. ` नारद उघाच। 
शणुष्वात्र हिं तीर्थानि घसिष्ठोक्तानि पार्थिव ! | 
दक्षिणं सिन्धुमासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥ २॥ 
अझिष्टोममचाप्नोति विमानं चाधिरोहति । चमंण्वतीं समाखाद्य नियतो निर्णी 
रन्तिदेवास्यनुज्ञातश्चा झिष्टोमफल ऊमेत्‌। ततो गच्छेत घर्मज्ञ ! हिमचत्सुत्मुर| 
पृथिव्या यत्र वे छिद्रं पूर्वमासीयुधिष्टिर । तत्राश्रमो वसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु शि 
. तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत्‌ ।  पिङ्गातीर्थमुपस्पृश्य ब्रह्मचारी तरि 
कपिलानां नरव्याघ्र ! शतस्य फलमाप्नुयात्‌ | ततो गच्छेत धर्मज्ञ प्रभासंलो र्षि 
यत्र सन्निहितो नित्यं स्वयमेष हुताशनः । देवतानां मुखं चीर ! अनलो 


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| (ऽध्यायः ] _ बै अन्यतीथेमाहात्म्यवर्णनम्‌ + ; ७३ | 
तस्मिस्तीर्थवरै स्नात्वा शुचिः प्रयनमानसः । ह 
अग्निष्टोमातिराजास्यां फळं प्राप्नोति मानवः ॥ ६ ॥ 
ततो गत्वा§खरस्वत्याः खागरस्य च सङ्गमम्‌ । 
गोसहस्नफल प्राप्य स्वर्गलोके महीयते ॥ १० || 
5भिवन्नित्यं प्रमया भरत्षेम ! । तीथ सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः 
बितस्तत्र तर्पयेत्पितृदेवताः । विराजति यथा सोमो चाजिमेधं च चिन्दति ॥ 
ततो गच्छेततीथे भरतसत्तम !। व्रिष्णोदुर्वाससा यत्र बरो दत्तो युधिष्टिर ! 
नरः स्नात्वा गोसहस्रफळं रमेत । ततो द्वारघतीं गच्छेन्नियतो नियताशनः 
पिण्डारके नरः स्नात्वा लमेदु बहुसुषर्णकम्‌ । 
तस्मिस्तीर्थे महाराज ! पद्मलक्षणलक्षिताः ॥ १५ ॥ 
पि मुद्रा द्ृश्यन्ते तदद्शुतमरिन्दम ! । त्रिशुलाङ्कानि पद्मानि दूश्यन्ते कुरुनन्दन ॥ 
स्य सान्निध्यं तत्रेव भरतर्षेभ ! । सागरस्य च सिन्धोश्च सङ्गमं प्राप्य भारत! 
थे सठिळराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः । तर्पयित्वा 'पितन्देवानृषीश्च भरतर्षभ ! ॥ 
पराप्नोति वारुणं लोक दीप्यमानः स्वतेजसा । 
शङ्कुकर्णेश्वरं देवमचेयित्वा युधिष्ठिर !॥ १६॥ 
मधे दशगुणं प्रचदन्ति मनीषिणः । प्रदक्षिणसुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ ॥ २० ॥ 
र कुस्चरथ्रेष्ठ जिषु लोकेषु विश्वुतम्‌ । तिमी ति नाम्ना विख्यात सर्वपापप्रमोचनम्‌ 
| शक्रादयो देवा उपासन्तेमहेश्वरम्‌। तत्र खरात्वाऽ्चेयित्वा च रुद्रं देवगणे वं तम्‌ 
छ शत पापानि कृतानि सुदते नरः | तिमिरत्र नरश्रेष्ठ सवंदेवेरभिष्टुत्तः ॥ २३ ॥ 
| तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ हयमेधमघाऽऽप्लुयात्‌ । 
9 जित्वा तत्र महाप्राज्ञा विष्णुना दितिनन्दनम्‌॥ २४ ॥ 
ब छृतं राजन्हत्वा दैचतकण्टकम्‌ । ततो गच्छेत धमंज्ञ ! वसुधारामभिष्टुताम्‌ 
| ` वश्यां हि हयमेधमघाप्तुयात्‌ । खात्वा कुरुवरस्रेष्ठ ! प्रयतात्मा तु मानवः ॥ 
क | जा पितन्देचान्विष्णुलोके महीयते । तीथं चापि परं तत्र घसूनां भरतषभ ! ॥ 


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# पाद्मपुराणम्‌ ॐ श्र 


तत्र स्नात्वा च पीत्या च घखुनां सम्मतो भवेत्‌। 
सिन्घुतममिति ख्यातं खबेपापग्रनाशनम्‌॥ २८ ॥ | 
तत्र सनात्वा नरश्रेष्ठ लमेद्वहुसुवर्णकम्‌ । व्रहातङ्गै समासाय शुचिः प्रयतमानसः | 
ब्रह्मळोकमवाशोति सुछृती विरजा नरः | कुमारिकाणां शक्रस्य तीथं 
` तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ शक्रलोकमवाप्नुयात्‌। रेणुकायाश्च तचच तीथं 
सनात्वा तत्र भवेद्विमो विमलश्चन्द्रमा इव । अथ पञ्चनदं गत्चा नियतो नियता 
पञ्चयज्ञानवाप्रोति क्रमशो ये तु कीतिताः । 
ततो गच्छेत धर्मेज्ञ भीमायाः स्थानमुत्तमम्‌ ॥ ३३ ॥ 
तत्र स्नात्वा न योन्यां वै नरो भरतसत्तम! । देव्याः पुत्रो भवेद्राजंस्तत्र कुण्डम 
गवां शतसहस्जस्य फळं चैचाऽऽप्जुयान्महत्‌। गिरिकुञ्जं समासादय त्रिषु लोकेषु किए 
पितामहं नमस्कृत्य गोसहल्नफल लमेत्‌। ततो गच्छेत धर्मज्ञ ! चिमलं तीर्थमुत्ता| 
अद्यापि यत्र दूश्यन्ते मत्स्याः सौचर्णराजताः । 
तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ घाजपेयमवाप्नुयात्‌॥ ३७ ॥ 
सर्वपापचिशुद्धात्मा गच्छेत्परमिकां गतिम्‌ ॥ ३८॥ 
इतिश्रीपाझे महापुराणे तृतीयेस्वर्गखण्डे जु 


७४ 


पञ्चविंशो ऽध्यायः 


कास्मीरस्थतक्षकनागमवनवितस्तादितीर्थमाहात्यवर्णनम्‌। | 

नारद्‌ उचाच। | 

चितस्तां च समासाद्य सन्तप्ये पितृदेघताः । नरः फलमघांप्नोति वाजपेयस्य १ 
काश्मीरेष्वेच नागस्य भवनं तक्षकस्य च । 
चितस्ताख्यमित ख्यातं संवेपापप्रमोचनम्‌ ॥२॥ 


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| (शोधध्यायः ] ॐ तक्षकनागभवनवितस्तादितीर्थमाहात्स्यचर्णनम्‌ £ ७५ 


_द्वात्वा नरो नून बाजपेयमचाप्नुयात्‌ । सवेपापचिशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम्‌ 

-च्छेत मळदं नि लोकेषु विशुतम्‌। पश्चिमायां तु सन्ध्यायामुपस्पृश्य यथाविधि 

॥५ हि सप्तासिषे राजन्यथाशक्ति निवेदयेत्‌ । पितणामक्षयं. दानं प्रवदन्ति मनीषिण: ॥ 

शतसहस्रेण राजसूयशतेन च। अश्वमेघसहस्रेण श्रेयान्सप्तासिषय्वरु: ॥ ६ ॥ 

भ निवृत्त राजेन्द्र ! रुद्रास्पदमथाविशेत्‌ । अभिगम्य महादेवमश्‍वमेधफलं लभेत्‌ ॥ 

ततं समासाद्य त्रह्मचारी समादितः । एकरात्रोषितो राजन्नझिोमफळं रमेत्‌ ` 

॥गच्छेत राजेन्द्र ! देविकां लोकविश्रुताम्‌। प्रसूतिर्यत्र चिप्राणां श्रयते भरतर्षभ! 

त्रिशूलपाणेःस्थानं यत्त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ । 

देविकायां नरः स्नात्वा अभ्यच्ये च महेश्वरम्‌ ॥ १०॥ 

शक्ति नरस्तत्र निवेद्य भरतषभ । .सवेकामससृद्धस्य यज्ञस्य लभते फलम्‌ ॥११॥ 

कामाख्यं तत्र रुद्रस्य तीथं देवषिसम्मतम्‌ । 

तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं सिद्धिमाप्नोति भारत ! ॥ १२॥ - 

नं याजनं गत्वा तर्थेव ब्रह्मयाळकम्‌ | पुष्पन्यास उपस्पृश्य न शोचेन्मरणं ततः ॥ 

वेस्तारां पञ्चयोजनमायताम्‌। पताचद्दे विकामाहुःपुण्यां देवषिखंमताम्‌ः॥ 

ऽ गच्छेत धमंज्ञ | दीर्घसत्रं यथोक्रमम्‌। यत्र ब्रह्मादयोदेवाः सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ 
ित्रमुपासन्ते दीक्षिता नियतव्रताः । गमनादेच राजेन्द्र दीर्घसत्रम रिन्दम ! ॥१६॥ 

पाश्वमेधाभ्यां फळं प्राप्नोति मानवः । ततो विनाशनं गच्छेन्नियतो नियताशनः 

हेता यत्र मेरुपृष्ठे सरस्वती । चमंसे च शिवोद्वेदे नागोद्वेदे च इश्यते॥१८॥ 

| स्नात्वा तु चमसोद्भेदे अग्निष्टोमफलं लभेत्‌ 1 

 शिषोद्गेदै नरःस्नात्चा गोसहस्नफलं लमेत्‌॥ १६॥ 


मतिच्छन्नाःपुष्करा यत्र भारत । सरस्वत्यां महाभाग ! अनुसंबत्सरं हि ते ॥ 
खायन्ते भरतश्रेष्ठ ! बत्ता वे कात्तिकी सदा। 
तत्र खात्वा नरव्याघ्र ! द्योतते शिवषत्सदा ॥ २२॥ 


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3६ : न पाद्यपुराणम्‌ कॅ [ ब 


गोसहल्रफळंचैच प्राप्चुयाद्वरत्षेभ । कुमारको टिमासाद्य नियतःकुरुनन्दन irk 
_तत्रासिषेकं कुवीत पित्देवाचंनेरतः । गवामयुतमाप्रोति कुलं चेष सुरत, 
` ततो गच्छेत धर्मज्ञ रुद्रकोर्टि समाहिताः । 
पुरा यत्र महाराज ! ऋषिकोटिः समाहिता ॥ २५ ॥ 
. चर्षेण च समाविष्टा देवदरीनकाङक्षया । अहं पूर्वमहं पूर्व द्रक्ष्यामि वृषमध्यजञ 
एवं सम्प्रस्थिता राजन्दुषय:किल भारत | ततो योगीश्वरैणापि योगमास्थाय मृ 
तेषां मन्युप्रशान्त्यर्थम्रृषीणां भावितात्मनाम्‌ । 
सृष्टात कोटीरुद्राणासृषीणामग्रतः स्थिता ॥ २८ ॥ 
मया पूर्व दरोद्दष्ट इति ते मेनिरे पृथक्‌ । तेषां तुष्टो महादेव अपी णामुग्रतेजसा| 
भक्त्या परमया राजन्वरं तेषां प्रदत्तवान्‌। अद्यप्रभृति युष्माकं धमेवृद्धिमविर्ण। 
तत्र खात्वा नरव्याघ्र ! रुद्रकोट्यां नरःशुचिः । अश्वमेधमवाप्नोति कुल चेव सपु 
ततो गच्छेत राजेन्द्र! सङ्गमं लोकविश्रुतम्‌ | सरस्वत्यां महापुण्यसुपासीत 
यत्र ब्रह्माद्योदेबा ऋषयःसिद्धचारणाः । अभिगच्छन्ति जु चेत्रशुक्कचतुरश 
तत्र खात्वा नरव्याघ्र! विन्देद्‌ बहुखुवर्णकम्‌ | सवेपाप विशुद्वातमा शिवलोक चा 
ऋषीणां यत्र सत्राणि.समाप्तानि नराधिप ! । तत्राचसानमसाद्य गोसहरूफर मे 
इतिश्रीपाझे महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे काश्मीरस्थतक्षकन 
____ माहात्म्यवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५॥ 


` षड्विंशोऽध्यायः | 
कुरक्षेत्रमत्तणकपारिप्ठवतीथनेमिषादितीर्थानांनानाहदनदनदीनाथरग! 
तारद्‌ उवाच । . ः | 

ततो गच्छेत राजेन्द्र ! कुरुक्षेत्रमभिष्टुतम्‌। :पापेभ्यो विप्रमुच्यन्ते तद्गता 
कुरुक्षेत्र गमिष्यामि कुरुक्षेत्र घसाम्यहम्‌ | य एवं सततं ब्र यात्लबपपैुर 


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ङ महीपते ! । ब्रह्मक्षत्र महापुण्यमभिगच्छन्ति ह, 
चिप्रणश्यन्ति त्रह्मलोक॑ च गच्छलि 


{ राजन्द्वारपाळं महाबलम्‌ । यंचे समभिवाद्येव 
ततो गच्छेत धर्मेज्ञ विष्णोःस्थानमचुत्तमम्‌ । 
सततं नाम राजेन्द्र ! यत्र सन्निहितो हरिः ॥ ८ ॥ 
तत्र खात्वा च दृष्ट्या च त्रिलोकप्रभवं हरिम्‌। 
अश्वमेधमवाप्नोति घिष्णुलोकं च गच्छति.॥ ६॥ 
ततःपारिप्ळचं गच्छेत्तीर्थं त्रेलोक्यविश्वुतम्‌। 
| अझ्निष्टोमातिरात्नाभ्यां फळं प्राप्नोति मानवः ॥ १०॥ 

तीर्थमासाद्य गोखहसत्रफलं रमेत्‌ । ततःशाल्विकिनी गत्वा तीर्थसेची नराधिप! 
मेधिके खात्वा तदेव लभते फळम्‌। सर्पनीचि समासाद्य नागानां तीर्थमुत्तमम्‌ 
मवाप्नोति नागलोकं च गच्छति । ततो गच्छेत धर्मज्ञ दारपालमतर्णकम्‌ ॥ 
कां गोसहस्रफलं लमेत्‌। ततःपश्चनदं गत्वा नियतो नियताशनः ॥ 
तीयसुपस्पृश्य हयमेधफळं लमेत्‌। अश्विनीतीर्थमागम्य रूपचानमिजायते || 
"छत घमज्ञ! चाराहं तीर्थमुत्तमम्‌ । चिष्णुर्वाराहरूपेण पुरा यत्रस्थितो५भवत्‌॥ 
| तत्र स्थित्वा नरव्याघ्र ! अग्निष्टोमफलं ल्भेत्‌। 
| ततो जयिन्यां राजेन्द्र सोमतीथं समाषिरोत्‌ः॥ १७॥ 
| समवाप्नोति राजसूयस्य मानबः। पकहंसे नरःस्रात्वा गोसहर्फछ लभेत्‌ 
। ` समासाद्य तीथसेची कुरूद्वह ! । पुण्डरीकमचाप्नोति कृतशौचो भवेच्च सः ॥ 
| ई नाम महादेवस्य धीमतः । तत्रोष्य रजनीमेकां गाणपत्यमचाप्नुयात्‌ ॥ 
| पेष च महाराज ! जयां लोकपरिश्रुताम्‌। | 
्ात्वाऽभिगम्य राजेन्द्र सर्वकाममवाप्लुयात्‌॥ २१ ॥ 


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गोसहस्रफलं मेत्‌ ॥ ७॥ 


# पाझपुराणम्‌ ३ [क । 
तै भरतर्षभ ! । प्रदक्षिणसुपावृत्य तीर्थसेवी समा, है 


2. 1, 

- कुर्क्षेत्रस्य तदुद्वारं विश 

आर पुष्कराणां तु स्नात्वाच्ये पितृदेवताः । 

जामदग्न्येन रामेण आहते चै महात्मना ॥ ३३ ॥ | 

कृतकृत्यो भवेद्राजन्तश्वमेधं च विन्दति । ततो रामह गच्छेत्तीर्थसेवी | 

तत्र रामेण राजेन्द्र! तरखा दीप्ततेजसा । क्षत्रसुत्खायं वीर्येण हदि | 

पूरयित्वा नरव्याघ्र रुधिरेणेति नःश्रुतम्‌ | पितरस्तरपिताःसर्वे तथेव प्रपत 

हतस्ते पितरःप्रीता राममूचुर्महीपते ! । रामराम महाभाग ! प्रीता:स्मस्तव माप 
अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण च तेऽनघ । 

चरं वृणीष्च भद्रं ते किमिच्छसि महामते ॥ ३ ॥ 

दबमुक्तख राजेन्द्र | रामःप्रवदर्तांवर: । अत्रवीत्याञ्ञलिर्वाक्यं पितन्स गगगेस्ि 
भवन्तो यदि मै प्रीता यद्युग्राह्मता मयि । 

पितृप्रसादादिच्छेयं तपसाप्यायनं पुनः ॥ ३० ॥ . 

यच्चरोषाऽभिमूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया । ततश्च पापान्छुच्येयं युष्माक तेजसाहलत 

' दाश्च तीर्थभूता मे भनेयुर्भुविविश्रुताः। पतच्छत्वा शुभंचाक्यं रामस्य पा 

ग्रत्यूचुःपरमप्रीता रामं तोषसमन्विताः । तपस्ते चद्धतां भूयः पितृभक्त्याविशेव 

यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं त्वया । 
ततश्च पापान्सुक्तस्त्वं निहतास्ते स्वकर्मणा ॥ ३४ ॥ 


पितरस्तस्य वै प्रीता दास्यन्ति भुचि दुल्लेभम.। 

ईप्सितं मनसःकामं स्वर्गलोकं च शाश्वतम्‌ ॥ ३६ ॥ | 
एवं दृता बरे राजन्रामस्य पितरस्तदा । आमन्ध्य भागोचं प्री तास्ततरवात् | 
"एवं रामहदाःपुण्या भार्गवस्य महात्मन: । स्नात्वा हृदेखु राम ष्य ब्रह्मचारी १ 
राममम्यच्ये राजेन्द्र ! लमेदुबहु सुवर्णकम्‌ । वंशमूछं समासाद्य तीर्थसेवी ईश 
-स्ववंशमुद्धरेद्राजन्स्नात्वा वे वंशमूलके । कायशोधनमासाद्य तीथं भरतस्त| 


| 
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र ऽध्यायः 1. अ नेमिषादितीर्थानाँनानाहद्‌नद्नदीनाञ्चवर्णनम्‌ अ ३६ 
। शरीरणुद्िमाप्नोति स्नातस्तस्मिन्नसंशय:। ` क 
शुदधदेहस्तु संयाति शुभांल्लोकानजुत्तमान्‌ ॥ ४१ ॥ 
ततो गच्छेत राजेन्द्र | तीथं त्रेलोक्यदुर्लमम्‌ | 
लोका यत्रोद्धुताःपूर्व विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ ४२ ॥ 
लोकोद्धारं समासाद्य. तीर्थ तरेलोक्यविशुत्म । 
स्नात्वा तीर्थवरे राजँलोकाबुद्धरते स्वकान्‌ ॥ ४३ ॥ 
श्रोतीथं च समासाद्य चिन्दते श्रियमुत्तमाम्‌ । 
कपिळातीर्थमासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः ॥ ४४॥ 
तत्र स्नात्वा$चेयित्वा च देवानिह पित स्तथा । 
| कपिलानां सहस्रस्य फलं विन्द्ति मनन ॥ ४५ 
तीं समासाद्य स्नात्वा .नियतमानसः । अर्चयित्वा पितन्देबानुपघासपरायणः ॥ 
िोम्मवाप्नोति सूर्यलोकं च गच्छति । गचां भवनमासा्य तीर्थसेवी स 
ह मिपेक कुर्वाणो गोसहस्रफलं लमेत्‌.। गङ्गातीथं समासाद्य तीर्थसेची नराधिप! 
स्यास्तीथ नरःस्नात्वा लभते वीर्येधुत्तमम्‌ । ततोगच्छेत राजेन्द्र द्वारपाळं उवर्णकम्‌ 
तस्य तीर्थे सरस्वत्यां यथेन्द्रस्य महात्मनः | र 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्नप्निष्टोमफल लभेत्‌ ॥ ५० ॥ 
जा गच्छेत धर्मज्ञ ब्रह्माचर्त नराधिप । ब्रह्माचे नरःस्नात्वा व्रहालोकमचाप्चुयात्‌ ॥ 
ति छेत - धर्मज्ञ सुतीर्थकमचुत्तमम्‌ । यत्र सन्निहिता नित्यं पितरोदेबतेःसह ॥ 
पेक कुर्वीत पितृदेवार्चनेरतः | अश्वमेधमवाप्नोति पितृळोकं च गच्छति ॥ 
त ज्यतीर्थ मश ! समासाद्य यथाक्रमम्‌ । काशीश्वरस्य तीर्थेषु स्नात्वा भरतसत्तम 
| है । : वक महीयते । सा ठरत यत स्नातस्य पार्थिच || 
ह हे न समला जाल 1 तःश तवनं गच्छेन्नियतो नियताशनः ॥ 
| “ महद्न्यत्रदुळभम्‌ । पुनाति दर्शनादेव दण्डेनेक नराधिप ! ॥५७॥ 
| पेप्य चे तस्मिन्पूतोभवति भारत । तत्र तीर्थवरं चान्यत्स्नातलोकातिहं स्छतम्‌ 


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८० ऋ पादपुराणम्‌ ॐ लर [३ | 
तत्र चिप्रा नरव्यात्र ! विद्वांसस्तत्र तत्पराः । गति न्ति परमां स्नात्वा 
स्वर्णलोमापनयने तीर्थे भरतसत्तम ! । प्राणायामैनिहेरन्ति स्वळोमानि दच 
पूतात्मानश्च राजेन्द्र ! प्रयान्ति परमां गतिम्‌ । द्शाश्वमे थिकेचेच तस्िसतीध गर; 
तत्र स्नात्वा नख्याघ्न ! गच्छन्ति परमां गतिम्‌ । 
ततो गच्छेत राजेन्द्र ! मानुषं लोकविश्रुतम्‌ ॥ ६२ ॥ 
णासुगा राजन्व्याधेन शरपीडिताः । विगाह्य तस्मिन्सरसि मानुषत्वमपा 
तस्मिस्तीर्थ नरःस्नात्वा ब्रह्मचारी समाहितः । 
सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते ॥ ६४ ॥ 2 
माजुषस्थ तु पूर्वेण क्रोशमात्रं महीपते ! । आपगानाम विख्याता नदी सिद् | 
श्यामाकभोजनं तत्र यःप्रयच्छति मानवः । देवान्पितृन्सझुद्दि श्य तस्य धह हे 
ओ- एकस्मिन्भोजिते चिप्रे कोटिमेवति भोजिता । 

तत्र स्नात्वाऽचेयित्वा च दैचतानि पित स्तथा ॥ ६७॥ 

डबित्वा रजनीमेकामग्निष्टोमफळं लमेत्‌। ततो गच्छेत घम्मेज्ञ व्रह्माणःस्यान 
्रहमानुस्वरमित्येवं प्रकाशं झवि भारत ! । तच सप्तषिकुण्डेषु स्नातस्य भल 
केदारे चैव राजेनद्र! कपिलस्य महात्मनः । त्रह्माणमभिगग्याथ शुचिःप्रयतमास 
सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोकं प्रपद्यते । कपिष्ठलस्य केदारं समासाच इुइल 
अन्तर्धानमवाप्नोति तपसा दग्धकिटिबषः । 

ततो गच्छेत राजेन्द्र ! सवेकं छोकघिश्वुतम्‌ ॥ ७२ ॥ 

कृष्णपक्षे चतुर्देश्याममिगम्य 'वषथ्वजम्‌। लमते सर्वकामान्दि 'स्वगेलोक ब 
तिल्नःकोट्यञ्च तीर्थानां प्रवर कुरुनन्दन ! | रुद्रकोट्यां तथाकूपे हृदेषु च समर 
इलास्पदं च तत्रैव तीर्थं भरतसत्तमम्‌ । तत्र स्नात्वाऽचेयित्वा चदैचतानि | 
न ढुगंतिमचाप्नोति वाजपेयं च चिन्दति | कि दाने च नरःस्नात्या कि यही व | 
अप्रमेयमचाप्नोति दानं यज्ञं तथैच च। कलश्यां वाय्यु स्पृश्य श्रदधानों रि] 
अझिष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानव: । सरकस्य तु पूर्वेण नारदस्य ' 


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तत्र झष 


| ही ऽध्यायः] उ नानानदनदीनांमाहात्म्यवर्णनम्‌ + र is ८१ 
सि शुम तीर्थ रामजन्मेतिविश्रुतम्‌ । तत्र तीर्थे नरःस्नात्वा प्ाणांश्चोत्सुज्य भारत 
दै नारदेनाम्यचुज्ञातो लोकानाप्नोति दुल्लंभान । 
के शुक्छपक्षे दशास्यां तु पुण्डरीकं समाविदोत्‌ ॥ ८०॥ 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्पुण्डरीकफलं लभेत्‌ । 
ततस््रिषि्टपं गच्छेत्त्रिषु लोकेषु विश्वतम्‌ ॥ ८१॥. 
त वैतरणी पुण्या नवी पापमोचनी । द्र स्नात्वा चेयित्वाच शूलपाणि बृषध्चजम्‌ 
(अपविशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम्‌ । ततो गच्छेत राजेन्द्र ! फलकीचनसुत्तमम्‌ 
देवाः सदा राजन्फछकीषनमाश्चिताः । तपश्चरन्ति विपुलं वहुघर्षेसह्सकम्‌।८४॥ 
दूषत्पाने नरःस्नात्वा तर्पयित्वा च देवता: । 
| अ्निष्टोमातिराचराभ्यां फळं चिन्दंति मानवः ॥ ८५॥ 
पं च सर्वदेवानां स्नात्वा भरतसत्तम ! । गोसहस्रस्य राजेन्द्र | फलमाम्नोतिमानवः ॥ 
पाणिख्याते नरःस्नात्चा तर्पयित्वा च देवता: | 
फ़ अवाप्नुते राजसूयस्टषिलोक॑ च गच्छति ॥ ८७॥ 
त गच्छेत घमेज्ञ ! मिश्रकं लोकविश्रुतम्‌ । तत्र तीर्थानि राजेन्द्र मिश्रितानि महात्मना 
व्यासेन दपशादूछ द्विजार्थमिति नःश्रुतम्‌ । 
सर्वतीर्थेषु ख स्नाति मिश्रके स्नाति यो नरः ॥ ८६ ॥ 
व्यासवनं गच्छेन्नियतो नियताशनः । मनोजवे नरःस्नात्त्रा गोसहस्रफलं मेत्‌ 
गत्वा मधुघनीं चापि देव्याः स्थानं नरः शुचिः । 
` तत्र स्नात्वाऽचेयेद्देवान्पितुश्चनि यतःशुचिः ॥ ६१॥ 
ळा समनुज्ञातो गोसहस्रफलं लमेत्‌ | कौ शिबयाःसङ्गमे यस्तु दुषद्वत्याश्च भारत 
णि वे नियताहार:सर्वेपापैःप्रमुच्यते । ततो व्यासस्थलीनाम यत्र ब्यासेन धीमता 
णिकाभितप्तेन देहत्यागाय निश्चयः । इतो देवैश्च राजेन्द्र पुनरुत्थापितस्तथा ॥ 
अभिगम्य स्थलीं तस्य गोसहस्रफलं लमेत्‌। 
ऋणान्तं कूपमासाद्य तिल्प्रस्थं प्रदाय च ॥ ६५॥ 


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मे | # पाझपुराणम्‌ # [दर 
गच्छेत परमां सिद्धिखणेसुक्तो नरेश्वर । चेदीतीर्थे नर:स्नात्वा गोसहलफह ले 
अहश्च सुदिनम्रैच दवेतीर्थ टपदुलंभे । तयोःस्वात्वा नरश्च सोचा | 
खृगधूम ततो गच्छेत्त्रिषुळोकेषु विश्रुतम्‌ । तत्र रुद्रपदेस्नात्वा समम्यच्ये च मर 
शूलपाणि महात्मानमश्वमेघफलं लमेत्‌ । | 
कोटितीर्थे नरःस्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत्‌ ॥ ३६॥ 
अथ चामनकं गत्वा तरिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ । 
तत्र चिष्णुपदे स्नात्वा समभ्यच्ये च चासनम्‌ ॥ १००॥ 
सर्वपापविशुद्धात्मा घिष्णुलोकमवाप्चुयात्‌। कुलस्णुने नरःस्नात्वा पुनाति सु 
पचनस्य हदं गत्वा मरुतांतीर्थमुत्तमम्‌ । तत्र स्नात्वा,नरव्याघ ! घायुलोके मीस, 
अमराणां हदेस्नात्वा समभ्यच्यामराधिपम्‌। अमराणां धसाचेण स्वर्गलोके मार 
शालिहोत्रस्य राजेन्द्र ! शाढिसूर्य यथाविधि । 
स्नात्वा नरवरश्रेष्ठ गोसहस्रफलं रमेत्‌ ॥ १०४॥ 


तीर्थयात्रां पुरस्त्य कुरुक्षेत्रे गताःपुरा । ततःकुञ्जःखरस्चत्यां छतो भरतस 
ऋषी णामचकाशःस्याद्यथातुष्टिकरो महान्‌ । 
तस्मिन्कुञ्जे नरःस्नात्वा गोसहस्रफळं लभेत्‌ ॥ १०८॥ 

इति श्रीपाझे मद्दापुराणे .तृतीये स्वर्गखण्डे नानानदनदीनांमाहातम्यघर्णनं ग 
चढ्विशोञ्ध्यायः ॥२६॥ 


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सप्तविंशोऽध्यायः 


कन्यातीथसोमतीर्थादितीर्थानांमाहात्म्यवर्णनम्‌ । 

नारद्‌ उवाच | 
पो गच्छेत घमेश कन्यातीर्थमचुत्तमम्‌ । कन्यातीर्थ नरःस्नात्वा अनिष्ठोमफळं ल्मेत्‌ 
ततो गच्छेन्नरव्याघ ! ब्रह्मणःस्थानमुत्तमम्‌। 
दुक तत्र बणांचरःस्नात्वा ब्राह्मण्य लभते नरः ॥ २॥ ५ 
दैशद्वणस्तु विशुद्धात्मा गच्छेत परमांगतिम्‌ । ततो गच्छेन्नरव्यात्र ! सोमतीर्थमबुत्तमम्‌ 
एक्षलात्वा नरो राजन्लोसलोकमवाप्नुयात्‌ सप्तसारस्वतं तीर्थ ततो गच्छेन्नराधिप! 
पडुणकःसिद्धो त्रह्मषिलॉक विश्वुतः । पुरामङ्कणको राजन्कुशाग्रेणेतिविश्नतम ॥ 
क्षत: किल करे राजंस्तस्य शाकरसोऽस्रवत्‌ । 
स वे शाकरसं दुष्ट्वा इषांऽऽचिष्टो मद्दातपाः ॥ ६॥ 
सोनक किङविप्रषिविस्मयोत्फुछलोचनः । ततस्तस्सिन्प्रबृत्ते वै स्थावरं जङ्गमं च यत्‌॥ 
स्तमुभयं चीर तेजसा तर्य मो हितम्‌ । ब्रह्मा दिमिस्ततो- देवे षिभिश्च तपोधनैः ॥ 
को वे ऋषेरथ महादेवो नराधिप ! । नायं त्येचथा देव! तथात्वं तुमहसि ॥ 
_ ततो देवो सुनि दृष्ट्या हर्षाऽऽविष्टेन चेतसा । 
| नृत्यन्तमत्रचीच्चेनं स्थिराणां हितकाम्यया ॥ १० ॥ 
हषे ! घमेज्ञं किमर्थं वृत्यते सवान्‌ । हषेस्थानं किमर्थं चा तवाद्य मुनिपुङ्गच ! ॥ 
| ऋषिरुवांच । 
तपस्विनो धम्मेपथै स्थितस्य द्विजसत्तम ! । 
| ` किन पश्यसि मे ब्रह्मन्‌! क्षताच्छाकरसं सृतम्‌ ॥ १२॥ 
वा सम्पृत्तो ऽहं हर्षेण महता ५5त्रतः । तं प्रहस्यात्रवीदेव ऋषि रागेण मोहितम्‌ 
॥ १ तु विस्मय विप्र नांगच्छ।मीह पश्य माम्‌ । एवसुक्तवा नरश्रेष्ठ महादेवेन वे तदा ॥ 


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& SS # पाझपुराणम्‌ ॐ [३७ | 
. ` ` ` अङ्गुल्यग्रेण राजेन्द्र ! सुबाङ्शुष्ठस्ताडितोऽनघ ! । 

तस्य भस्मक्षताद्राजन्निस्सत॑ हिमसन्निभम्‌ ॥ १५॥ | 
ते दृष्ट्या ब्रीडितो राजन्स सुनिः पाद्योर्गतः । नान्यं देवमहम्मन्ये सदरात 
| सुराखुरस्य जगतो गतिरत्वमसि शूलघूक्‌ !। 

त्वया सृष्टमिदं विश्‍वं त्रेलोक्यं सचराचरम्‌ ॥ १७:॥ 
त्वामेव भगचन्सर्वे प्रविशन्ति युगक्षये | देवेरपिन शक्‍्यस्त्वं:*परिज्ञातुुते ष | 

त्वयि सर्वेश ! द्ृश्यन्ते खुराः शक्रादयो5नघ ! । | 

सर्वस्त्वमसि लोकानां कर्ता कारयिता 5न्वहम्‌ ॥ १६॥ 

त्वत्प्रसादात्खुराः सर्व मोदग्तेऽत्राकुतोभयाः । 

एवं स्तुत्वा महादेवं ख ऋषिः प्रणतो5त्रचीत्‌ ॥:२०॥ 
त्वत्प्रसादान्महादेच ! तपो मे न क्षरेत वै । ततो देवः प्रहष्टातमा ब्रह्मषिमिदफ| 
तपस्ते बद्धतां चिप्र मत्प्रसादात्सदस्र धा । आश्रमे येह घत्स्यांमि त्वया साईप 

सप्तसारस्वते स्नात्चा अचेयिष्यन्ति ये तु माम्‌ । 

न तेषां दुळेभं किञ्चिदिहलोके परत्र घा ॥ २३ ॥ 

गच्छेत्सारस्वतं चापि लोक नास्त्यत्र संशयः ॥ २४॥ 

नारद्‌ उचाच। ट 

पचसुक्त्वा महादेवस्तत्रेचा5न्तरधीयत । ततस्त्वौशनसं गच्छेत्‌ त्रिषु लोवेसु वा 
यत्र ब्रह्मादयो देषा ऋृषयश्चतपो धनाः । कार्तिकेयश्च भगचांस्त्रिसन्ध्यं किड 
सान्निध्यमकरोत्तत्र भागेषप्रियकाम्यया । कपालमोचनं तीथं सर्वपापग्रणा 
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र ! सरवे पाः प्रसुच्यते । अग्नितीर्थं ततोगच्छेत्सनात्वा च मए 
अग्निहोकमषाप्नोति कुल चेच समुद्धरेत्‌ । विश्वामित्रस्य तत्रेव तीथं भर 
तत्र स्नात्वा महाराज ! ब्राह्मण्यमभिज्ायते । ब्रह्मयोनिं समासाद्य शुचिः प्रय] 
तत्र सनात्वा नरव्याप्र ! ब्रह्मलोक प्रपचते । पुनात्यासप्तमं चैच कुलं नास्त्य 
ततो गच्छेत राजेन्द्र! तीथे त्रैलोक्यविश्वुतम्‌ । पृथूदकमिति ख्यातं कारिकेय | 


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रऽ ज्यायः ] % कन्याती थेसोमतीर्ा दितीर्थानांमाहात्म्यचर्णनम्‌ ऋँ `" टण 
मेक कुवीत पितुदेवाचंने रतः । अन्ञानाज्ज्ञानतो वापि खियो चा पुरुषेण घा 
कमे छृतं मानुषचुद्धिना । तत्सचं नश्यते तत्र स्नातमात्रस्य भारत! ॥ 
,ोधफळं चापि लभते स्वर्गमेष च । पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्र कुसक्षेत्रात्सरस्वतीम्‌ ॥ 
| सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीथेम्यञ्च पृथूदकम्‌ । 
| उत्तमे सवंतीथांनां यस्त्यजेदात्मनस्तनुम्‌ ॥ ३६ ॥ 
पकै जप्यपरो नैव संसरणं लमेत्‌। गीतं सनत्कुमारेण व्यासेन च महात्मना ॥ 
हब नियतं राजन्नभिगच्छेत्पृथूदकम्‌ । पृथूदकात्पुण्यतमं नान्यत्तीथं नरोत्तम! ॥ 
एतन्मेध्यं पवित्र च पाचनं च न संशयः | 
तत्र स्नात्वा दिचं यान्ति अपि पापकृतो जनाः ॥ ३६॥ 
भके नरश्रेष्ठ प्राहुरेवं मनीषिणः । मधुश्चवं च तत्रैव तीर्थं भरतसत्तम ॥ ४० ॥ 
| तत्र स्नात्वा नरो राजन्गोसहस्रफलं लभेत्‌ । 
ततो गच्छेन्नरश्रेष्ठ ! तीथं देव्या यथाक्रमम्‌ ॥ ४१ ॥ 

सरस्घत्यारुणायाश्च सङ्गमं लोकविश्रुतम्‌ । 

त्रिरात्रोपोषितः स्नात्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥ ४२॥ 
गमातिराच्राभ्याँ फळं चेच समश्नुते । पुनात्याऽऽसस्तमं चैच कुल नास्त्यत्र संशयः 
ण च तत्रेच तीर्थं कुरुकुलोद्वह ! । घिप्राणामनुकम्पाथं दर्भिणा निमितं पुरा ॥ 
ब्रतोपनयनास्यां चाऽप्युपषासेन वा द्विजः । 
' ` क्रियामन्त्रैश्च संयुक्तो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः ॥ ४५॥ 

त्रषिहीनोऽपि तत्र सनात्वा नरर्षभ ! । चीर्णव्रतो भवेद्विप्रो दृष्टमेतत्पुरातनम्‌ 
समुद्राश्चापि चत्वारः समानीताश्च दर्भिणा । 
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र ! न दुर्गेतिमवाप्नुयात्‌ ॥ ४७ ॥ 
फलानि गोसहस्राणां चतुर्णा विन्दते च सः । 
| ततो गच्छेत राजेन्द्र ! तीथं शतसहस्रकम्‌ ॥ ४८॥ 
रे च तनके, कोकलिधुते।, उयो हि. लावला. गोलं लमेत 


टु ` + पाद्यपुराणम्‌ # 

दानं घाप्युपवासो वा सहस्नगुणितो भवेत्‌। ततो गच्छेत राजेन्द्र! 
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवाचेने रतः । सवंपाप विशुद्धात्मा 
विमोचनडपस्पृश्य जितमन्युजितेन्द्रियः । प्रतिग्रहकृतेः पापैः सये बे 
ततः पञ्चवट गत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । पुण्येन महता युक्तः स्वर्गलोके कह | 
यत्र योगीश्वरः स्थाणुः स्वयमेव वृषध्वजः । तमचेयित्वा देवेशं गमनादे, | 


सवर्गद्वारं ततो गच्छेन्नियतो नियताशनः । अग्निोममवाप्नोति ्रह्मलोकं च गर्न 
दतो गच्छेदनरकं तीर्थसेची नराधिप! । तत्र स्नात्वा नरो राजन्न दुग तिमवाः 


तत्रेच च महाराज विश्वेश्वरसुमापतिम्‌। अभिगम्य महादेवं सुच्यते स 
नारायणं याभिगम्य पदानाभमरिन्दम !। शोभमानो महाराज ! 
तीर्थेषु सर्वेदेवानां स्नातमात्रो नराधिप ! । सवंदुःखपरित्यक्तो योतते रि 


तिस्तःकोख्चस्तु तीर्थानां तस्मिन्कूपे महीपते ! । तत्र नात्वा नरो राजन्त्रहालोक। 
आपगायां नरः स्यात्वा अचेयित्या महेश्वरम्‌ । | 
गति परामवाप्नोति कुछ चैव समुद्धरेत्‌ ॥ ६८॥ . 
ततः स्थाणुवरं गच्छेत्त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ । 
तत्र स्नात्वा स्थितो रात्रि रुद्र्छोकमचाप्नुथात्‌॥ ६६॥ 
बद्रीणां चनं गच्छेद्वसिष्ठस्याश्रमं ततः । बद्री भक्ष्यते यज्ञ त्रि 


CC-0 ला बक कत्या (| जिराजोप्रोषि पोषपरितत्रेत, 


| -च्यायः ] ॐ कन्यातीथेसोमतीर्था दितीर्थानांमाहात्म्यवर्णनम रे ८७ 
गै समासाद्य तीर्थसेची नराधिप!। अहोरात्रोपवासेन स्वर्गेलोके महीयते ॥ 
: समासाद्य एकरात्रोषितो नरः। नियतः सत्यवादी च ब्रह्मलोके महीयते :! 
तथा गच्छेच्च राजेन्द्र! तीर्थ त्रेळोक्यचिश्रुतम्‌ । 
आदित्यस्याश्रमो यत्र तेजोराशेमेहात्मन ॥ ७४॥ 
तस्मिस्तीर्थे नरः स्नात्वा. पूजयित्वा. विभावसुम्‌ । 
| आदित्यलोकं ब्रजति कुल चैव समुद्धरेत्‌ ॥ ७५॥ 
ख पिमतीर्थ नरः स्नात्वा तीर्थसेची कुरूद्वह । सोमलोकमवाप्नोति नरो नास्त्यत्रसंशयः 
हो गच्छेत धर्मज्ञ ! दधीयस्य नराधिप। तीर्थः पुण्यतमं राजन्पाचनं लोकचिश्ुतम्‌ 
यत्र खारखतो यातः सिद्धि स तपसो निधिः |. 
तस्मिस्तीथ नरः स्नात्वा वाजपेयफलं लभेत्‌ ॥ ७८ ॥ 


िात्रमुषितो राजन्दुपवासपरायणः । ऊमेत्कन्याशातं दिव्यं ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ 
६ घमेज्ञ तीथ सन्निहितीमपि । यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः 
मासि माखि समेष्यन्ति पुण्येन महताऽन्विताः । 
सन्नि हित्यासुपरुपृश्य राहुग्रस्ते दिघाकरै ॥ ८२॥ 


तत्र स्नात्वा च पीत्वा च स्वगंलोके महीयते । 

अमावास्यां तथा चैच राहुग्रस्ते दिवाकरे ॥ ८६ ॥ 

"श्रां कुरुते मत्येस्तस्य पुण्यफल श्णु । अश्वमेधसहस्नस्य सम्य गिष्टस्य यत्फलम्‌ 
स्नात एव तदाप्नोति श्राद्ध त्वा च मानघः। 

यत्किञ्चिदुदुष्ङतं कम्मं खिया घा पुरुषस्य घा ॥ ८८॥ 

तत्सर्व नश्यते नात्र संशयः । पद्मचर्णेन यानेन ब्रह्मलोकं स गच्छति॥ 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


2 ~ ' # पाझपुराणम्‌ # ` [उस | 


अभिबाद्य ततो नास्ता द्वारपालं मचक्रुकम्‌। गङ्गाहदश्च तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम! | 
तत्र स्नायीत घ्म ब्रह्मचारी समाहितः । राजसूयाश्वमेघाम्यां फळं चिन्ह, 
पृथिव्यां नैमिषं पुण्यमन्तरिक्षे च पुष्करम्‌। त्रयाणामपि लोकानां कुरुक्षेत्र पि १ 
पांसचोऽपि कुरुक्षेत्रे घायुना5तिसमी रिताः । अपि ढुष्कतकर्म्माणं नयन्तिएा 
दक्षिणेन सरस्वत्यासुत्तरेण सरस्वतीम्‌। ये सन्ति कुरुक्षेत्रे ते घसन्ति र| 
कुरुक्षेत्र गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्‌ । अप्येवं चाचसुत्स्‌ज्य स्वगंठोके मुक 
ब्रह्मवेद्यां कुरुक्षेत्र पुण्यं ब्रह्मबिसेवितम्‌। तस्मिन्वसन्ति ये राजन्न ते शोच्याः इ] 
तरण्डकारण्डकयोर्यद्न्तरं रामहदानां चमचक्रुकस्य च । ॥ 
एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपश्चकं पितामहस्योत्तरचे दिरुच्यते ॥ ६७ ॥ | 

) इति श्रीपादे महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे कन्यातीर्थलोसतीर्था दितीर्थानां माहा 


घर्णनं नाम सप्तचिशतितमोऽध्यायः ॥ २७॥ 


अष्टाविंशो ऽध्यायः 
र्मतीर्थकलापवना दितीर्थानां माहात््यवर्णनम्‌ । 


तेन तीथं छतं पुण्यं स्वेन नाम्ना च चिह्नितम्‌ । 
तन्न सतात्वा नरो राजन्धमंशीळः समाहितः ॥ २॥ 
आसप्तमं कुळं चैव पुनीते नाऽत्रसंशयः। ततो गच्छेत घर्मज्ञ ! कलापघनसुत्तम 

इच्छो ण महता गत्वा तत्र स्नात्वा समाहितः । | 


न 4490 विष्णुलोक च गच्छति ॥ ४॥ न 
न्धकं घनं राजंस्ततो गच्छेत मानव: ् _ तपोधाः 
CC-0. Mumukshu 5150 त मानव; यून ब्ह्मादुयो दवा, षश्च तपो ङ 


ऽध्यायः ] + घमेतीथंकलापचनादितीर्थानांमाहात्म्यवर्णनम्‌ ७... द्धः 
हवारणगन्थर्चाः किन्नराः eh । तद्वनं प्रविशन्नेव सर्वपापे: प्रमुच्यते ॥ 
ततो हि खा सरिच्छ छा नदीनामुत्तमा नदी | 

गक ,' प्लक्षादेवी स्म्ट॒ता राजन्महापुण्या सरस्वती ॥ ७॥ 

१ भिपेक कुर्घीत घल्मीकान्निस्खते जले । अर्चयित्वा पितन्देचानश्वमेथफलं रमेत्‌ 

वश ताध्युषितं नाम तत्र तीथं सुदुलेभम्‌ । षङ्शुणं यन्निपातेषु घल्मीकादिति निश्चयः 

(हातां सहस्रं च घाजिमेधं च चिन्दति। तत्र रुनात्वा नरव्याघ्र ! द्ृष्टमेतत्पुरातनेः 

धां शतकुम्भां च पञ्चयज्ञं च भारत । अभिगम्य नरश्रेष्ठ! स्वर्गलोके महीयते ॥ 

पात्रं तत्रेव तीर्थमासाद्य दुळेभम्‌। तत्राभिषेकं कुचीत पितृदेवाचंने रतः ॥ 

गाणपत्यं य लभते देहं त्यक्ता न संशयः | 

ततो राजगृहं गच्छेद्देव्याः स्थानं सुदुलंभम्‌ ॥ १३॥ 

ति घिख्याता त्रिषु लोकेषु विश्रुता । दिव्यं घर्षसहस्रं च शाकेन किळ भारत 

आहारं सा छृतवती मासि मासि नराधिप ! । 

अषयोऽभ्यागतास्तत्र देव्या भक्तास्तपो घना: ॥ १५॥ 

आतिथ्यं च इतं तेषां शाकेन किल भारत। 

ततः शाकम्भरीत्येवं नाम तस्याः प्रतिष्ठितम्‌ ॥ १६ ॥ 

| मासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः । जरिरात्रसुषितः शाकं भक्षयेन्नियतः शुचिः 

हरस्य यत्सम्यग्वषेंद्दादशभिः फलम्‌ । तत्फलं तस्य भवति देव्याश्छन्देन भारत ! 

काशिच्छेत्सुबर्णाल्यं जिछु लोकेषु विश्रुतम्‌ । यत्र कृष्ण प्रसादार्थ रुद्रमाराधयत्पुरा 
रपरे देवैरपि सदुलभान्‌। उक्तश्च पुरस्तेन परितुष्टेन भारत ! ॥ २० ॥ 

अपि चात्माप्रियतरो लोके कृष्ण | भविष्यसि । 

त्वन्सुखं च जगत्कृत्स्नं भविष्यति न संशयः ॥ २१ ॥ 

| राजेन्द्र ! पूजयित्वा वृषध्वजम्‌ । अश्वमेघमवाप्नोति गाणपत्यं च विन्दति 

| वतो गच्छेत्त्रिरात्रमुषितो नरः । मनसा प्राथितान्कार्मांहसते नात्र संशय: ॥ 

| किन, चोक. वजय दले] अलो. जलेन्द्रः . 


६० # पाझपुराणम्‌ * [३ 
. महादेवप्रसादेन गच्छेत परमां गतिम्‌ । प्रदक्षिणसुपावृत्य गच्छेत भरतम - 
घरां नाम महाप्राज्ञ ! सर्वपापप्रणाशिनीम्‌। तत्रस्मात्वा नरव्यात्र ! न शोच 
ततो गच्छेन्तरव्याघ ! नमस्कृत्य महागिरिम्‌ । स्चगेद्वारैण तत्तुल्यं गङ्गाद्वारं न | 
तत्रडामिघेकं कुघौंत कोटितीर्थे समाहितः । लभते पुण्डरीकं तु कुल चेव सुक 
उष्यैकां रजनी तत्र गोखहस्रफळं लमेत्‌। सप्तगड़े चिगङ्गे च शक्राचत्तें च ताग 
देवान्पित 'श्व विधिवत्पुण्यछोके महीयते । ततः कनखले स्वात्वा चिरात्रोपोपिते, 
अभ्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति । 
कपिलावरं तु गच्छेत तीर्थसेची नराधिप ! ॥ ३१॥ 
उष्यैकां रजनी तत्र गोसहस्रफलं लमेत्‌। नागराजस्य राजेन्द्र ! कपिलस्य रह 
तीर्थं कुरुवरश्रेष्ठ ! सर्वलोकेषु विश्रुतम्‌ । तत्राभिषेकं छुचीत नागतीथ नरा] 
कपिलानां सहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानवः । 
ततो ळलितकां गच्छेच्छन्तनोस्तीर्थसुत्तमम्‌॥ ३४ ॥, 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्न ठुर्गतिमवाप्नुयात्‌ ॥ ३५॥ 
इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे धर्मतीर्थकलापचनादि तीर्थानां 
वर्णनं नामाष्टाविशोऽध्यायः ॥ २८॥ 


ज 


एकोनत्रिशोऽध्यायः 
यञ्चनातीर्थमाहात््यवर्णनस्‌ । 


नारद्‌ उवाच | . 
ततो गच्छेत राजेन्द्र ! कालिन्दीतीर्थमुत्तमम । 
तत्र स्नात्वा नरो राजन्न डुग तिमचाप्नुयात्‌ ॥ १॥ 


रै 
उ ठु र kshu हाव awan asi विमुक्ते सुचर्णाख्ये-य गी फुट 


- हेतदिशो$ध्यायः ]  यमुनातीथमाहात्म्यवर्णनम्‌ # ` £१ 
मवाप्नोति यसुनांयां नरोत्तम ! । स्वर्गभोगेऽतिरागो बै येषां मनसि घतते 
तां विशेषेण स्नानदानेन सत्तम ! । आयुरारोग्यसम्पत्तौ रूपयौचनतागुणे ॥४॥ 
येषां मनोरथस्तेस्तु न त्याज्यं यमुनाजलम्‌। 
ये बिभ्यति नरकादेर्दा रिद्रयाचेऽत्र सन्ति च ॥५॥ 
| धा तैः प्रयत्नेन तत्र कार्य निमज्जनम्‌ । दारिद्रयपापदौरमाग्यपडपरक्षालनाय चै ॥ 
[| ऋते वै यामुनं तोयं न चान्योऽस्ति युधिष्ठिर! । 
श्रद्धाहीनानि कर्माणि मतान्यर्धफलानि चे ॥ ७॥ 
ह ददातिसस्पूर्ण यामुने स्नानमात्रतः । अकामो घा सकामो वा यासुने सलिलेन्प ! 


च दुःखानि मञ्जनान्नैव पश्यति । पक्षद्वये यथा चन्द्रः क्षीयते घडते तथा ॥ 
पातकं नश्यते तत्र स्नानात्पुण्यं चिवद्धेते । 


यथाब्धौ खुखमायान्ति रल्लानि विविधानि च ॥ १०॥ 
आयुवित्तं कल्ताणि सम्पदः सम्भवन्ति च । 
ना चिन्तामणिचिचिन्तितम्‌ ॥ ११॥ 
यमुनास्नान तद्वत्सवँ मनोरथम्‌ । कृते तपः परं ज्ञानं तरेतायां यजनं तथा ॥ 
एच कळी दानं कालिन्दी वेदा शुभा । सर्वेषां सवेवर्णानामाश्रमाणांच भूपते ! 
पुगे मज्जन धम धाराभिः खलु वर्षेति । अस्मिन्वे भारते वर्ष कमेभूमौ विशेषतः ॥ 
कालिन्यस्नायिनां नणां निष्फलं जन्म कीत्तितम्‌। 
नेश्वयं गगने. यक्धवान्द्रे$मायां तु मण्डले ॥ १५॥ 

भाति सत्कर्म यसुनामञ्जनं विना। , 
_ नतेदानेस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरिः ॥ १६॥ 
'िनमात्रेण यथा प्रीणाति केशव: । न समं विद्यते किञ्चित्तेजः सौरेण तेजसा 
|, सुनास्नानसमानाः क्रतजाः क्रियाः । प्रीतये घासुदेवस्य सवेपापापजुत्तये ॥ 
|" मञ्जनं कुर्यात्स्वर्गलाभाय मानवः । कि रक्षितेन देहेन सुपुष्टेन बलीयसा ॥ 
॥ २ धुदेहेन यसुनामञ्जनं चिना । अस्थिस्तम्मं स्नायुवन्धं मांसक्षतजलेपनम्‌॥ 


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) 


चर्मावनद्धं ढुगेन्धे पूर्ण मूत्रपुरीषयो हु जराशोकविपद्यय्ाप्त' रोगम 
वा 20003 अल 0290 फैट न पे 

रागमूलमनित्यं च सर्वेदोषसमाश्रयम्‌ । परोपकारपापातिपरद्रोहपरेरे ` हपरेविकप 
_छोलुपं पिशुनं कूर छतप्न' क्षणिक तथा । निष्ट र निष्टर ढुधेर दुष्टः दोष 


जायन्ते मरणायैच यमुनास्नानवर्जिताः । अवेष्णचो हतो विप्रो हतं 
अब्रह्मण्यं हतं क्षत्रमनाचारहतं कुलम्‌ । सदम्भश्च हतो धम्म: क्रोधेनेव ल्न | 


न हतो जपः । हतमश्रो त्रिये दानं हतो लोकथ गार्ति 
_अशड्या शतं लव रतं पारलौकिकम। इद लोके हतो नृणां दरणं स 


३२ # पाझपुराणम्‌ & [३ 


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र 


अशुचि तापि दुर्गन्धितापत्रयविमो हितम्‌ । निसगेतोऽ धमेरतं तृष्णाशतसमाइुतर 


कामक्रो घमहालोभनरकद्वारसंस्थितम्‌ । छमिघचेस्तु अस्मादिपरिणामगुणाज्ञ 


इंद्रव्छरीरं व्यथं हि यसुनामञ्जनं विना । बुदुबुदा इज तोयेषु प्रत्यण्डा इच पि 


अद्दूढ च हतं ज्ञाने प्रमादेन हतं थुतम्‌ । परमत्या हता नारी ब्रह्मचारी जलिय 
अदीप्तेऽञ्यौ हतो होमो हता भक्तिः समायिका । 
उपजीव्या हता कन्या स्वाथ पाकक्रिया हता ॥ ३०॥ 
शूद्रभक्षो हतो योगः कृपणस्य हतं धनम्‌। 
अनभ्यासहता विद्या हतो वोधो विरोधक्कत्‌ ॥ ३१ ॥ 
जीविताथ हतं तीथं जीवनार्थं हतं व्रतम्‌ । असत्या च हता वाणी तथा पै 


Ls 


मनुष्याणां हतं जन्म कालिन्दीमञ्जनं घिना | 

उपपातकसर्चाणि पातकानि मह्दान्ति च ॥ ३५॥ 
भस्मीभवन्ति सर्वाणि यमुनामञ्जनान्नप । वेपन्ते सर्वपापानि यमुनायां 

नाशके सवेपापाना यदि स्नास्यन्ति बारिणि । 

पाचका इच दीप्यन्ते यमुनायां नरोत्तमाः ॥ ३७॥ 
विसुक्ताः सचंपापेभ्यो मेघेभ्य इव चन्द्रमा: । ला वाड्मन 
तत्र स्नातं बहेन पावक, समिध्येज्याप्रामॉंविक य यत्याप्रश 


करि 


- 
होतरिशो$थ्याय: 1 ॐ यसुनातीर्थस्नानमाहा््घर्णनम्‌ 
| ने 


| ३ 
स्नानमात्रेण नश्येत यमुनायां नृपोत्तम ! | ु 
| ` विष्पापास्त्िदिवं यान्ति पापिष्ठा यान्ति शुद्धताम्‌ ॥ । 
`| सन्देहो नात्र क्तव्यः स्नाने दे यसुनाजळे | >. 
| ग्री | 
सर्वेऽधिकारिणो हात्र विष्णुभक्ती तथा टप! ॥ ४१॥ 
जदं सर्वदा देवी यमुना पापनाशिका । एष एच परो मन्त्र एतञ्च परमं 
नत्त पर चैव यमुनास्नानमुत्तमम्‌ । नृणां जन्मान्तराम्यासात्कालिन्वीमख 4. 
कौशल्यं जन्माथ्यासाद्यथा नुप ! | संसारका च री व 
हतं पावनानां च यसुनास्नानमुत्तमम्‌ । स्नातास्तत्र च ये राम्या ८ 
ुञ्जते भोगांश्वन्द्र सूयंग्रहोपमान्‌ | यमुना मोक्षदा प्रोक्ता मथ हल 
मथुरायां अ कालिन्दी पुण्याधिकविवर्डिनी | न 


नम Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


n 


त्रिशो5ध्यायः 
हेमहुण्डलवैश्यपुत्रयो रितिहासवर्णनम्‌ । 
| नारद्‌ उवाच ! 

अत्र ते वर्णयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्‌ । पुरा कृतयुगे राजन्निषधे नगरे घरे ॥ 
आसीद्वैश्यः कुवेराभो नामतो हेमकुण्डलः । कुलीनः सत्कियो देवद्विजपावक्पूज| 
कृषिवाणिज्यकर्ता5सौ विविधक्रयचिक्रयी । गोघोटकमहिष्यादिपशुपोषणत्सर 

पयोद्धीनि तक्राणि गोमयानि तृणानि च। | 
काष्ठानि फलमूलानि लवणार्द्रादिपिप्पली ॥ ४॥ ` . 

धान्यानि शाकतैलानि चस्त्राणि विविधानि च। 
थातूनिक्षुषिकारांश्च चिक्रीणीते स सवेदा ॥ ५॥ 
इत्थं नानाविधेवेश्य उपायेरपरेस्तथा । उपार्जयामास सदा अष्टौ हारककोट्यः( | 
एवं महाधनः सोऽथ ह्याकर्णपलितोऽभवत्‌। पश्चा द्विचायें संसारक्षणिकत्वं सर 
तद्धनस्य षडंदोन धर्मकार्यं चकार खः । विष्णोरायतनं चक्रे गुहं चक्रे शिवस 
तडागं खानयामास विपुळं सागरोपमम्‌ । चाप्यश्च पुष्करिण्यश्च बहुधा तेन पाग 
चटाश्वत्थाप्रकडोळजम्वूनिम्बादिकाननम्‌ । स्वसच्वेन तदा चक्रे तथा पुष्पव] 
उदयास्तमनं यावद्न्नदानं चकार सः | पुरादुबहिश्वतुदिश प्रपां चक्रेंपतिशोम 
पुराणेषु प्रसिद्धात्नि यानि दानानि भूपते ! । 
ददौ तानि स धम्मात्मा नित्यं दानपरस्तदा ॥ १२॥ 
यावज्ञीचछते पापे प्रायश्चित्तमथाऽकरोत्‌। देचपूजापरो नित्यं नित्यं चा9 १ 
तस्येत्थं घत्तमानस्य सञ्जातो द्वौ सुतौ नृप !। 
तौ सुप्रसिद्धनामानौ थोकुण्डलघिकुण्डलौ ॥ १४॥ ज्जौ 
तयोमं्नि गृहं त्यक्तवा जगाम तपसे चनम्‌ । तत्राराध्य परं देवं गोविद र | 


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॥ ॐ हेमकुण्डलबेश्यपुत्रयो रितिहासवर्णनम्‌ अ पु 


` तपःक्लिष्टशरीरों5सो घासुदेवमना: सदा । 
पराप्तः ख वेष्णवं लोकं यत्र गत्वा न शोचति ॥ १६ ॥ 
॥(हश्य खुतौ राजन्महामानसमन्विती । तरुणी रुपसम्पन्नौ धनगर्वेण गविती 
॥ 


पढी व्यसनासक्ती धर्मेकर्माथद्शंकौ । न घाक्यं चागतौ मातुब द्वानां घचन॑ 
डुरात्मानी पितृमित्रनिधेधकौ । अधमैनिरतौ दुष्टौ परदाराभिगामिनौ न 
गीतवादित्रनिरती वीणावेणुचिनोदिनौ । हक 
घारस्त्रीशतसंयुक्ती गायन्तौ चेरतुस्तदा ॥ २० ॥ 
कारजने्यक्तौ विस्वोष्ठीषु . चिशारदौ । खुवेषी चारुवसनौ चारुच | षितो 
तथा सुगन्धिमालाड्यौ कस्तूरीलक्ष्मलक्षितौ । 5 
नानाळङ्कारशोभाळ्यौ मौ ्तिकाहारहारिणो ॥ २२॥ 
र घेन क्रीडन्ती तावितस्तदा । मधुपानसमायुक्तौ परल्लीरतिमोहितो । 
i पितृद्रव्यं सहस्य ददतुः शतम्‌ । तस्थतुः स्वगृहे रस्ये नित्यं बु 
षतु तदनं ताभ्यां विनियुक्तमसद्दबये: । वारत्री षिरशेल्ूषलल्चारणयन्द्घु ॥ 
सग तद्धनं द्त्तं क्षिप्तं _बीजमिवोषरे | न सत्पात्रे च तद्दत्त न ब्राह्मणसुखे हुतम्‌ ॥ 
त भूतभृद्विष्णुः सवंपापप्रणाशनः । उभयोरेच तदुदव्यमचिरेण क्षय ययो ॥ 
छ| ततस्तौ दुःखमापन्नौ कार्पण्यं परमं.गततौ । 
बं! | शोचमानो तु सुह्यन्तौ श्चुत्पीडादुःखपीडित्तौ ॥ २८ ॥ 
हु तिषतोगेहे नास्ति यदुभुज्यते तदा । स्वजने्वान्धवैस्स्ैः सेचकैरुपजी विभिः 
भवे परित्यक्तौ चिन्तमानौ ततः पुरे। पश्चाचौय्यं,समारब्ध ताभ्यां च नगरे नृप 
। छोकतो भीतौ स्वपुरान्निस्सती तदा । चक्रतुर्वनघासं तौ सर्वेषामुपपी डितौ 
त सततं मूढौ शितेर्वाणैचिषार्पितैः । नानापक्षिषराहांश्र हरिणात्रो हितांस्तथा ॥ 
| , अलफान्गोधाज्छवापदांश्रेतरान्वहून । महावलो भिल्लसङ्गाघाखेटकञुजौ सदा 
॥ | ह पापहारी परन्तप ! । कदाचिदुभूधर प्राप्त हेकोऽन्यश्च घनं गतः| 
| ज्येष्ठ: कनिष्ठः सर्पदंशितः ॥ एकस्मिन्दिवसे राजन्पापिष्ठौ निधनं गतौ 


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| ६६ र # पाद्यपुराणम्‌ ने [३छ। | 
यमंदूतेस्ततो चदुध्वापारीनीतौ यमालयम्‌ । गत्वाभिजगदुः खर्चे ते दूताः पापि | 
धर्मराज | नरावेतावानीती तच शासनात्‌ | 

आज्ञां देहि स्वभ्त्येषु प्रसीद करवाम किम्‌ ॥ ३७॥ | 

आलोच्य चित्रुप्तेन तदा दूताञ्जगौ यमः। पकस्तु नीयतां घीर ! निरयं हीन 
अपरः स्थाप्यतां स्वगे यत्र भोगा ह्यबुत्तमाः । 

कृतान्ताजां ततः शरुत्वा दूतश्च क्षिप्रकारिभिः ॥ ३६ ॥ | 

निहतो रौरवे घोरे यो ज्येष्टो दि नराधिप! । तेषां दूतचर: कहा 

विकुण्डल ! मया साद्धेमेहि स्वगं ददामि ते | 

भुझक्ष्व भोगान्खुदिन्यांस्त्वमजितान्स्वेन कमणा ॥ ४१ ॥ 


इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे हेमछुण्डळचेश्यपु्रयो रितिहदासव 


नाम जिंशोऽध्यायः ॥ ३०॥ ` 


एकत्रिशो ऽध्यायः 
बिकुण्डलस्यपूर्वजन्मवृत्तान्तवर्णनमू । 


नारद्‌ उचाच । 

ततो इमाः सोऽथ दूतं पप्रच्छ तं पथि। सन्देहं हदि त्वा तु विसमं प 
चिचारयन्हृदि स्वर्गः कस्य हेतोः फळं मम ॥ १ ॥ | 
षिकुण्डल उवाच । : वी 

हे दूतवर ! पृच्छामि संशयं त्वामहं परम्‌। आचां जातौ कुले. तुल्ये त्यं का म 
दु त्युरपि तुल्यो ५भू्चुल्यो इष्टो यमस्तथा। कथं स नरके | 
ममाऽभचत्कथं नाकमिति मे छिन्धि संशयम्‌ । 

देवदूत | न पश्यामि मम स्वर्गस्य कारणम्‌ ॥ ४॥ .' | 


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९ , जॅ दूतविकुण्डलसंव ५ ल ० 
| कतरिशी वध्याय ] देवदूतविककुण्ड्रलसंवाद्वर्णनम्‌ क ६७ 
| देवदूत उचाच। ै ल 
माता पिता सुतो जाया स्वसा धाता विकुण्डल ! | 
जन्महेतोरियं संज्ञा जन्तोः कम्मोपभुक्तये ॥ ५.॥ 


ढस्मिन्पादपे' अलान अ । यदयत्समीहितं कमे कुरुते पूर्वभावितः ॥ 
तस्य तस्य फळ सुङ्क्त कम्मंगः पुरुषः सदा | 
| सत्यं घदामि ते प्रीत्या नरैः कर्म शुभाशुभम्‌ ॥ ७॥ 
(कतं सज्यते वैश्य ! काळे काले पुनःपुनः । एक: करोति कर्माणि पकस्तत्फलमश्नुते 
ह्यो न लिप्यते वैश्य ! कर्मेणाऽन्यस्य कुत्रचित्‌ । अपतन्नरके पापैस्तच भ्राता सुदारुणैः 
त्वं च धर्सेण घर्मक्ष स्वर्ग प्राप्नोषि शाश्वतम्‌ ॥ ६॥ 
घिकुण्डल उवाच | 27 
ब्बात्यान्मम पापेशु न पुण्येषु रतं मनः । अस्मिञ्जन्मनि हे दूत ! दुष्कृतं हि ङतं मया 
दूत ! न जानामि झुछत॑ कमे चात्मनः। यदि जानासि मत्पुण्यं तत्मे त्वं कृपया बद्‌ 
क देवदूत उवाच | 
श्टणु वेश्य ! परवक्ष्यामि यत्त्वया पुण्यमाजितम्‌ । 
कु जानामि तदहं सवं न त्वं वेत्सि सुनिश्चितम्‌ ॥ १२॥ 
रिमित्रसुतो विप्रः सुमित्रो वेदपारगः । आसीत्तस्याश्रमः पुण्यो यमुनादक्षिणे तरे 
| सस्य घने तस्मिस्तब जातं विशांचर !। तत्सङ्गन त्वया स्नातं माधमासद्वयं तथा 
न हर ण्यपानीये सर्वेपापहरे घरे । तत्तीर्थे लोकविख्याते नाम्ना पापप्रणाशने ॥ 
४ गो चिसुक्तस्त्वं विशांपते ! | द्वितीयमाधषुण्येन प्राप्त: स्वर्गस्त्वया5नघ || 
व्युण्यप्रभावेण मोद्स्व सततं दिचि । नरकेषु तव भ्राता महतीं पापयातनाम्‌ ॥ 


य] 


ज्य 


$सिपत्रेश्व भिद्यमानस्तु सुद्ग९ः | चूण्यंमानः शिलापृष्ठे तप्ताङ्गारेघु भजितः 
। इति दूतवचः शुत्वा म्रातदुःखेन दुःलितः | ` > 
| .पढकाडूतसर्वाड़ञो दीनोऽसौ घिनयान्वितः॥ १६॥ ` . 

तै देवदूतं मधुरं निपुणं घच: | मैत्री सप्तपदी साधो सतां भचति सत्फला ॥ 


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- ६८ क्ष पाझपुराणम्‌ # हा 2 [ ३ | 


[ 
'मित्रभावं विचिन्त्य तवं. मामुपाकतुंमहेसि । | 
ततो दि श्रोतुमिच्छामि सवेजस्त्वं मतो मम ॥ २१ ॥ 
६यमछोक॑ न पश्यन्ति कर्मणा केन मानघाः । . गच्छन्ति निरयं येन तन्मे त्व न 
देवदूत उचाच । | 
सम्यकपृष्ट त्वया वैश्य ! नष्टपापो5सि खास्प्रतम्‌। ` 


विशुद्धे हृदये पुंसां बुद्धि श्रेयसि जायते ॥ २३ ॥ 
यद्यप्यवसरो नास्ति मम सेचापरस्य वे । तथापि च तव स्नेहात्प्रव्ष्या्रि 

कर्मणा मनसा वाचा सर्घावस्थासु सर्वदा । 

परपीडां न कुर्वन्ति न ते यान्ति यमाळयस्‌ ॥ २५॥ 

न वेदैन च दानेश्च न तपोभिने चाध्वरेः । 

कथञ्चित्स्वर्गति यान्ति पुरुषाः प्राणिदिखका; ॥ २६ ॥ 
अहिंसा परमो धर्मों ह्ाहिसेच परं तपः । अहिंसा. परमं दानमित्याहुर्मुनय: | 
मशकान्सरीसपान्दंशान्यूकाद्यान्मानवांस्तथा । 

आत्मौपम्येन पश्यन्ति मानवा ये दयालचः ॥ २८॥ . 
तसाड्ठारमयस्कीळं माद्‌ प्रेततरङ्गिणीम्‌ । दुर्गति नेच गच्छन्ति छतान्तस्य च तेच 

भूतानि येऽत्र हिंसन्ति जळस्थलचराणि च । 

जीवनाथं च ते यान्ति कालसूत्रं च दुर्गतिम्‌ ॥ ३०॥. 
*्वमांसभोजनास्तत्र पूयशोणितपायिनः। मञ्जन्तश्च वसापङ्के दष्टाः 

परस्परं च खाद्‌न्तो ध्वान्ते चान्योन्यघातिनः । 

बसन्ति करपानेकांस्ते रुद्न्तो दारुणं रचम्‌ ॥ ३२॥ 

मियो निशतं गत्वा स्थावराः 'स्युश्विर तु ते । 

ततो गच्छन्ति ते क्रूरास्तियंग्यो निशतेछु च ॥ ३३॥ 

पश्चाट्गचन्ति जातान्धाः काणाः कुब्जाश्व पङ्गघः। , 

दरिद्राञ्चाङ्गहीनाश्च मानुषा प्राणिहिसका: ॥ ३४ ॥ 


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RR 
७ ५ 


- ] छे यमलोकाप्रापकानेकसत्कमेकथनम्‌ के ८८६६९. 
य परत्रेहकर्मणा मनसा गिरा.। लोक: तदाचरेत । 
ऱ्य छोकङयेन चिन्दन्ति सुखानि मह न ही ढी 
येन हिंसन्ति भूतानि न ते विभ्यति कुत्रचित्‌ ॥ ३६.॥ | 
(बिन्ति यथाईनद्यः ससुद्रस्टजुवक्रगा: । सव घर्मा अहिसार्या प्रविशन्ति तथा दृढम्‌ 
लात सवेतीर्थेु$सचरेयज्ञेषु दीक्षित:। अभयं येन भूतेभ्यो दत्तमत्र विशांवर ! गा 
ये नियोगांश्च शास्त्रोक्तान्धर्माधमे चिमिश्चितान्‌। 

| पालयन्तीह,ये वेश्य | न ते यान्ति यमालयम्‌ ॥ ३६॥ 

हारी गृहस्थश्व चानप्रस्थो यतिस्तथा । स्वधमेनिरताः सर्वे नाकपृष्ठे चसन्ति ते ॥ 
यथोक्तचारिणः सचे चर्णा्रमसमन्विताः । 

नराःजितेन्द्रिया यान्ति ब्रह्मलोकं तु शाश्वतम्‌ ॥ ४१ ॥ 

प्रता ये च पश्चयज्ञरताश्च ये । द्यान्विताश्च ये नित्यं नक्षन्ते ते यमालयम्‌ ॥ 
निवृत्ता ये$लमर्था वेदवादिनः । अञ्निपूजारता नित्यं ते विप्राः स्वर्गगामिनः 
व्या मूराः शक्ुभिः परिवेष्टिताः । आहवेषु विपन्ना ये तेषां मार्गो दिचाकरः 
अनाथस्री द्विजाथे च शरणागतपालने । प 

प्राणांस्त्यजन्ति ये वैश्य ! न च्यघन्ति दिवस्तु ते ॥ ४५ ॥ 
पङ्ग्चन्धबालवृद्धांश्च रोग्यनाथद्रिद्रितान्‌। 

ये पुष्णन्ति सदा वेश्य ! ते मोदन्ते सदा दिवि ॥ ४६ ॥ 

गां दृष्ट्या पडुनिमेग्नां रोगमग्नं द्विजं तथा । 

उद्धरन्ति नरा ये च तेषां. लोको ५श्वमेधिनाम्‌ ॥ ४७ ॥ 

गोग्रासं ये प्रयच्छन्ति ये शुश्रूषन्ति गाः सदा । 

ये नारोहन्ति गोपष्ठे ते स्वरलोकनिवासिनः ॥ ४८॥ 

मात्र तु ये चक्रूर्यत्र गौरतृषा भवेत्‌ । यमलोकमदष्ट्वैच ते यान्ति स्वर्गात नरा 
| गगुरुपूजारताश्व. ये ।. द्विजपूजारता नित्यं ते विप्राः स्घगंगामिनः ॥ 
पादौ धर्मस्यान्तो न विद्यते । पिबन्ति स्वेच्छया यत्र जलखलचरास्तदा 


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१०० .. .. -कँ-पाझपुराणम्‌ # [३ 
`` नित्यं दानपरः सो5त्र कथ्यते विवुधैरप्रि । 
यथा यथा च पानीयं पिवन्ति प्राणिनो भशम्‌॥ ५२॥ 
' तथा तथाऽक्षयः स्वर्गो धर्मेबुद्धया विशांचर ! । 
प्राणिनां जीचनं घारि प्राणा घारिणि संस्थिताः ॥ ५३॥ | 
नित्यं स्नानेन पूयन्ते येऽपि पातकिनो नराः । 
प्रातःस्नानं हरेद्वेश्य वाह्माभ्यन्तरज मलम्‌ ॥ ५४ ॥ 
प्रातःस्नानेन निष्पापो नरो न निरयं ब्रजेत्‌ । 
स्नानं विना तु यो भङ्क्ते मलाशी ख खदा नरः ॥ ५५॥ 
अस्रायी यो नरस्तस्य विमुखाः . पित्देवताः । 
स्नानद्दीनो नरः पापः स्नानहीनो नरो5शुचिः ॥ ५६॥ 
अस्नायी नरकं भुङ्क्ते पुंस्कीटादिषु जायते । ये पुनः स्रोतसि स्नानमाचरन्तीहती, 
ते नैव नरकं यान्ति न जायन्ते कुयोनिछु । 
दुःस्वप्ना दुष्टचिन्ताञ्च घन्ध्या भचन्ति सरव॑दा ॥ ५८॥ 
ग्रातःस्नानेन शुद्धानां पुरुषाणां विशांघर | । तिलांश्च तिळपात्ांश्च तिलप्रस्थं 
दत्त्वा प्रेतपतेभूमौ न ब्रजन्ति नराः कचित्‌ । 
पृथिवीं काञ्चनं गां च दरवा दानानि षोडश ॥ ६०॥ 
गत्वा न विनिवतंनते स्वर्गलोका ह्विङुण्डल !। . 
पुण्याखु तिथिषु प्राज्ञो व्यतीपाते च सङ्क्रमे ॥ ६१॥ 
स्नात्वा दत्त्वा च यत्किञ्चिन्नेच मज्जति दुर्गतौ । 
नेचाक्रामन्ति दातारो दारुणं गौरवं पथम्‌॥ ६२॥ . | 
इह लोके न जायन्ते कुळे धनविषजिते । सत्यवादी सदा मौनी प्रियवादी चगो 
. अक्रोधनः समाचारो नातिवाद्यनसूयक: । सदा दाक्षिण्यसम्पन्नः सदा भूत 
परस्य ममेणां गोप्ता घक्ता परगुणस्य च । परस्वं ठृणमात्रं च मनसापि नये| 
न पश्यन्ति पिशांध्रेष्ठ ! ह्येते नरकयातनाम्‌ । | 


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है ऽव्या ] ॐ यमलोकाप्रापकानेकसत्कर्मकथनम्‌ र 
| पररापवांदी पाखण्डः पापेभ्योऽपि मतोऽधिकः ॥-६६॥ 
ते नरके तावद्याचदाभूतसम्प्छचम्‌ । वक्ता परुषचाक्यानां भन्तंव्यो १ 
' सन्देहो न विशांश्रेष्ठ ! पुनर्याति च दुगे तिम्‌ । ग 
न तीर्थेने तपो भिश्च कृतप्नस्यास्ति निष्कृति: ॥ ६८॥ 
सहते यातनां घोरां स नरो नरके चिरम्‌। 
पृथिव्यां यानि तीर्थानि तेषु मञ्जति यो नरः ॥ ६६॥ 
जितेन्द्रियो जिताहारो न स याति यमालयम्‌ । 
न तीर्थे पातकं कुर्यान्न च तीर्थोपजीषनम्‌ ॥ ७० ॥ 
र प्रतिप्रहस्त्याज्यस्त्याज्यो धर्मस्य विक्रयः । ढुजेरं पातकं तीर्थ दुजेरश्च प्रतिग्रहः 
च दुजेरं खर्वमेतत्किन्वरकं घजेत्‌ । सकृटूड्राम्मसि स्नातः पूतो गाङ्गेयवारिणा 
करो नरकं याति अपि पातकराशिक्कत्‌ । बतदानतपोयज्ञाः पचित्राणीतराणि च ॥ 
गङ्गाबिन्द्धभिषिक्तस्य न समा इति नः श्रुतम्‌। 
अन्यतीर्थसमां गङ्गां यो त्रबीति नराधमः ॥ ७४॥ 
[याति नरकं वैश्य ! दारुणं रौरवं महत्‌ । धमेद्रवं ह्यपां बीजं वैकुण्ठचरणच्युतम्‌॥ 
ंमूध्नि महेशेन यद्वाडूममळ॑ जलम्‌। तदुव्रहोव न सन्देहो निर्गणं प्रतेः परम्‌॥ 
कि समतां गच्छेदपित्रह्माण्डगोचरे । गङ्गागङ्गेति यो ब्र्‌ याद्योजनानां शतेरपि ॥ 
[त नरकं याति कि तया सद्वशं भवेत्‌ । नान्येन दह्यते सद्य: क्रिया नरकदायिनी । 
पित प्रयत्नेत स्नातव्यं तेन मानवैः । प्रतिप्रहनिवृत्तो यः प्रतिग्रहक्षमोऽपि सन्‌ 
स द्विजो द्योतते वैश्य ! तारारूपश्चिरं दिषि। 
गामुद्धरन्ति ये पड्काद्ये रक्षन्ति च रोगिणः॥ ८०॥ 
क गोग्रहे ये च तेषां नभसि तारकाः । यमलोकं न पश्यन्ति प्राणायामपरायणाः 
॥॥ इकतकर्माणस्तैरेच हतकिल्बिषाः । दिवसे दिवसे वैश्य प्राणायामास्तु षोडश 
| अपि ब्रह्महणं साश्षत्पुनन्त्यहरहः इताः। ` | 
तपांसि यानि तप्यन्ते व्रतानि नियमाश्च ये ॥ ८३॥. 


(८-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


१ ०१: 


न 


क पाझपुराणम्‌ # ` ` 
गोसहस्तप्रदानं च प्राणायामस्तु. तत्समः । 
अब्बिन्डु यः कुशाग्रेण मासे मासे नरः पिवेत्‌॥ ८४॥ 
संचत्सरशतं सागर प्राणायामस्तु तत्समः | पातक ठु महयच्च तथा क्षुद्रो 
प्राणायामैः क्षणात्सवं भस्मसात्कुरुते नरः। मातृवत्परदारान्ये मग्यन्ते वै को 
न ते यान्ति नरश्रेष्ठ ! कदाचिद्यमयातनाम्‌ | मनसाऽपि स यः करुत्राणि नसे| 
सह लोकद्व्येनास्ति तेन वैश्य ! घरा «शृता । तस्माद्धर्म्मान्वितेस्त्याज्यं परदारोपसेश 
नयन्ति परदारास्तु नरकानेकर्विशतिम्‌। लोभो न जायते येषां परदारेपु माह 
ते यान्ति देवलोकं तु न यमं वेश्यसत्तम ! । शभ्वत्कोधनिदानेघु यः क्रोधेन १३ 
जितस्वर्गः स मन्तव्यः पुरुषोऽको धनो सुचि । मातरं पितरं पुत्र आराधयति के 
अप्राप्ते वार्धके काले न याति च यमालयम्‌। पितुश्चाथिकभावेन येऽचंयन्तिगुर 
भघन्त्यतिथयो लोके ब्रह्मणस्ते घिशांघर ! । 
इह चैच खियो धन्याः शीलस्य परिरक्षणात्‌ ॥ ३३॥ 
शीलमङ्गे च नारीणां यमलोकः सुदारुणः। शीळं रक्ष्यं सदा शली भिदु शसहुपिओ 
शीलेन हि परः स्वर्ग: स्रीणां वैश्य ! न संशयः । शूद्रस्य पाकयज्ञेन निषिद्वाचणे| 
दुर्गतिचिहता वैश्य ! तस्य सा नारकी गतिः। 
विचारयन्ति ये शास्त्रं वेदाभ्यासरताश्च ये ॥ ६६ ॥ 
पुराणं संहितां ये च भ्राघयन्ति पठन्ति च । | 
व्याकुर्वन्ति स्मतीर्य च ये धर्मप्रतिवोधकाः ॥ ६७ ॥ 
वेदान्तेषु निषण्णा ये तैरियं जगती घृता-। तत्तदभ्यासमाहात्म्येः सवे ते हिरि] 
गच्छन्ति ब्रह्मणो लोकं यत्र मोहो न विद्यते । ज्ञानमज्ञाय यो दद्याद्वेद्शालत#] 
अपि वेदास्तमर्चन्ति भववन्धविदारणम्‌ । श्रूययतामंदुसुतं होतद्रहस्य वर 
सम्मतं घमेराजस्य सवेलोकासृतप्रदम्‌ । | 
न यम॑ यमलोकं च न भूतान्धोरदशेनान्‌ ॥ १०१ ॥ 


= ७ ७ ~ “ee 
` पश्यन्ति चेष्णचा नूनं सत्यं सत्यं मयोदितम, डा 
(०-0. Mumukshu Bhawan Varanasi 0 ० 1026 । eGangotri 


र ऽध्य ] ॐ यमलीकाग्रापकानेकसत्क्मकथनम्‌ अ १ १०३ 
-प्राहास्मान्यमुनाख्चाता सदेघ हि पुनःपुनः॥ १०९॥  . ` : 
भवद्विवेष्णवास्त्याज्या न ते स्युर्मम गोचराः। 

स्मरन्ति ये खदभूताः प्रसङ्गेनापि केशवम्‌ ॥ १०३॥ | 

ते व्रिध्वस्ताखिळाघौघा यान्ति चिष्णोः परं पदम्‌ । 

ढुराचारो दुष्कृतोऽपि सदाचाररतोऽपि यः ॥ १०४ ॥ 

भवद्भिः ख सदा त्याज्यो चिष्णु' च भजते नरः। ` 

वैष्णवो यढ्गृहै सुङक्ते येषां चैष्णवसङ्गतिः ॥ १०५॥. 

तेऽपि घः परिवार्याः स्युस्तत्सङ्गहत्तकिल्विषांः । ः 

इत्थं बेश्याजुशास्त्यस्मान्देयो दण्डधरः सदा ॥ १०६ ॥ 

अतो नो वेज्णवा यान्ति राजधानीं यमस्य तु। 

विष्णुभक्ति दिना नुणां पापिष्ठानां चिशांवर ! ॥ १०७॥ 

उपायो नास्ति नास्त्यन्यः सन्ततु' नरकाम्बुधिम्‌। 

श्वपाकमपि नेक्षेत लोकेषं वैश्य ! वैष्णघम्‌ ॥१०८॥ 

चेष्णवो घर्णंबाह्यो5पि पुनाति सुषनत्रयम्‌॥ १०६ ॥ 
'एताघतालमधनिहेरणाय पूंसां सङ्घीतेने भगवतो गुणकमंनाग्नाम्‌ । 
चिक्रुश्ये पुच्मघबान्यदजामिळो5पि नारायणेति द्रियमाण इयाय सुक्तिम्‌॥ 
केत चिर मझाः पूर्वे ये च कुलद्वये । तदैष यान्ति ते स्वगं यदार्चन्ति मुदा हरिम्‌ 
विष्णुभक्तस्य ये दासा वैष्णषान्नशुजश्च ये। 
ति i ते तु कतुभुजां वैश्य गति यान्ति निराकुलाः ॥ ११२॥ 
किेद्रेषणघस्यान्नं परयत्नेन घिचक्षणः । खवेपापविशुदुध्यर्थं तद्भावे जल पिवेत्‌ ॥ 
पदेति जपन्मन्त्रं छुअचिन्त्रियते यदि । स नरो न यमं पश्येत्तं च नेक्षामहे वयम्‌ 
| समुद्रं सध्यानं सक्राषिच्छन्द्दैघतम्‌। दीक्षया विधिवन्मन्त्रं जपेद्वै द्वादशाक्षरम्‌ 
अष्टारं च मन्त्रेशं ये जपन्ति नरोत्तमाः । 
तान्दुष्ट्चा त्रह्महा. शुद्ध्येद्‌ भ्राजते विष्णुवत्स्वयम्‌॥ ११६ ॥ - 


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१०४ १. .. क पाझपुराणम्‌ अ 
शहिनश्रक्रिणो भूत्व ब्रह्माभ्यन्तरगामिनः । वसन्ति वैष्णवे लोके विष्णुरूपेण : 
हृदि सूर्य जळे वाथ प्रतिमा स्थण्डिलेऽपि च। 
समभ्यच्ये हरि यान्ति नरास्तद्वष्णव पदम्‌ ॥ ११८ ॥ 
अथवा चंदा पूज्यो घासुदेघो मुमुक्षमि ॥ शालय्रासे मणौ चक्र ` चञ्रकीरः | 
अधिष्ठानं हि तद्विष्णोः सर्वेपापप्रणाशनम्‌ । स्वेपुण्यप्रद वश्य ! सचेचामपि मः | 
यः पूजयेद्धरिं चक्रे शालय़ामशिलोद्रवे | राजसूयसहसत्थेण. तेनेएं प्रतिचासरे | १२| 
सदामनन्तिवेदान्ता ब्रह्मनिर्वा णमच्युतम्‌। तत्प्रसादो भवेन्नुणां शालग्रामशिला 
महाकाएस्थितो घह्विमेखस्थाने प्रकाशते । यथा तथा हरिव्यापी शाउग्रामे प्रका 
अपि पापसमाचाराः कम्मण्यनधिकारिणः । ः 
शालग्रामाचेका वैश्य ! नेष यान्ति यमालयम्‌ ॥ १२४॥ | 
न तथा रमते लक्ष्म्यां न तथा स्वपुरे हरिः | शाळग्रामशिरावक्रे यथा स रमते र 
अशिहोत्रं तं तेन दत्ता पृथ्वी ससागरा | येनाचितो हस्थ्विक्रे शालग्रामशिदोजे। 
शिला द्वादश भो वैश्य ! शालग्रामशिलोड्वाः । 
चिधिषत्पूजिता येन तस्य पुण्यं बदामि ते ॥ १२७॥ 
को टिद्वादशलिङ्गस्तु पूजितैः स्वर्णपडुजेः । यत्स्यादुद्वादशकालेणु दिनेनेकेन तेत्‌ 
यः पुनः पूजयेद्वक्तया शालग्रामशिलाशतम्‌ । डषित्वा स हरेळोके चक्रेवत्तोह जाणे| 
कामैः क्रोधेः प्रलोमैश्च व्याप्तो यत्र नराधमः । 
सोऽपि याति हरेलोकं शालग्रामशिलाचेनात्‌ ॥ १३० ॥ » 
यः पूजयेच्च गोचिन्दं शालग्रामे सुदा नरः | आभूतसम्प्लवं याचन्ञ स प्रच्यपते हि 
विना तीर्थेबिनादानेविनायज्ञेविना मतिम्‌ । । 
मुक्ति यान्ति नरा वैश्य शालग्रामशिलाचेनात्‌ ॥ १३२॥ 
नरकं गभवासं च तियेक्त्वं कृमियो निताम्‌.। 
न याति वेश्य ! पापोऽपि शाळग्रामशिलार्चकः ॥ १३३ ॥ | 
दीक्षाविधानमन्त्रज्ञो यश्चक्रे बलिमाहरेत्‌। गड्भागोदाघरीरैवानद्यो मुक्तिश्दा ग | 


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दोऽय ] % यमलोकापापकानेकसत्कर्मकथनम्‌ १०५ : 
लिहिता सर्वाः शाळग्रामशिलाजळे । नैवैद्यैबिचिधै पुष्पेधंपदीपेचिलेपने: ॥ ` 
.ददित्रस्तोत्रादः शाळग्रामशिलाचेत्तम्‌। कुरुते मानचो यस्तु कलौ भक्तिपरायण 
_तटिसह्लाणि रमते सन्निधौ हरेः । लिङ्गेस्तु को दिगि टैयत्फछं पूजितैस्तु तै 
धिह्यामशिळायास्तु होकेनाह्वा हि तत्फलम्‌ । सङ्दभ्यचिते लिङ्गे शालग्रामशिलोद्चे . 
मुक्ति प्रयान्ति मनुजा नूनं साङ्ख्येन वर्जिता: । 
(| शालग्रामशिलारूपी यत्र तिष्ठति केशव: ॥ १३६॥ 
दवाः सुरा यक्षा शुवनानि चतुदंश | शालग्रामशिलायां तु यः श्राद्धं कुरुते नरः 
पितरस्तस्य तिएन्ति तृप्ताः कल्पशतं दिवि । 
थे पिबन्ति नरा नित्यं शालग्रामशिलाजलम्‌ ॥ १४१ ॥ 
पसहखैस्तु सेवितैः कि प्रयोजनम्‌ । कोरितीथेसहस्रैस्तु सेवितैः किंप्रयोजनम्‌ 
सरांयदि पिवेत्पुण्यं शाळग्रामशिलाङ्गजम्‌ । शालग्रामशिला यत्र तत्तीर्थं योजनत्रयम्‌ 
षां च होमश्च सर्च कोटिगुणं भवेत्‌ । शालग्रमशिलातोयं यः पिवेदुविन्दुना समम्‌ 
सत्यं पुननेच स पिवे द्विष्णुभाङनरः । शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्ततः 
कोऽपि सृतो याति बैकुण्ठभवनं परम्‌ । शालग्रामशिलाचक्रं यो दद्याद्दानसुत्तमम्‌ 
तन दृत्तं स्यात्सशेळवनकाननम्‌ । शालग्रामशिलाया यो मूल्यंसुत्पादयेन्नरः ॥ 
ति चाुमन्ता यः परीक्षासु च मोदते । ते सर्वे नरकं यास्ति याचदाभूतसस्प्लवम्‌, 
संबजयेद्वेश्य चक्रस्य क्रयचिक्रयम्‌ । बहुनोक्तेन कि वैश्य कर्तव्यं पापभीरुणा ॥ 
पासुदेवस्य सर्वेपापहरं हरे: । तपस्तप्त्वा नरो घोरमरण्ये नियतेन्द्रियः।१५०॥ 
हि समचाप्नोति तन्नत्वा गरुडध्वजम्‌ । इत्वाऽपि बहुशः पापं नरो मोहसमन्वित 
नरक नत्वा सचंपापहरं हरिम्‌ । पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च 
` तानि सर्वाण्यवाप्नोति चिष्णोर्नामानुकीतेनात्‌। 
देवं शाङ्गधरं चिष्णु' ये. प्रपन्नाः परायणाः ॥ १५३ ॥ 
| न तेषां यमंसाळोक्यं न ते स्युनरकौकसः। 
या! 1 वेष्णच पुरुषो वैश्य ! शिवनिन्दां करोति य; ॥ १५७ ॥ 


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1-५ ' ~ 


र्क # पद्मपुराणम्‌ # 


[३७ | 
. न विन्देद्वेष्णवं लोकं ख याति नरकं महत्‌! उपो ष्येकादशीमेकां. प्रसङ्गेन) 
` न याति यातनां यामी मिति लोमशतः श्रुतम्‌ । नेद्वशं पाचनं किञ्चित्तु लोळ 
` उभयं पदानाभस्य दिनं पातकनाशनम्‌ । तावत्पापानि देहेऽ स्मिन्यसन्तीह कि 
याचन्नोपघसेञ्जन्तुः पञ्ननाभदिनं शुभम्‌ | अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशता॥, 
एकादश्युपचासस्य कलां नाईन्ति षोडशीम्‌। एकादरशेन्द्रिये: पापं यत्कृतं चै 
एकाद्श्युपवासेन तत्सवं विलयं त्रजेत्‌ । एकादशीसमं किञ्चित्‌ पुण्यं लोबेन $| 
व्याजेनापि इता यैस्तु घशं. यान्ति न सास्करेः । | 
स्वर्गमोक्षप्रदा ह्येषा शरीरारोग्यदायिनी ॥ १६१ ॥ 
सुकलत्रप्रदा होषा जीचत्पुतरप्रदायिनी । न गङ्गा न गया वैश्य! न काशी न च 
न चापि वैष्णवं कषेत्रं तुल्यं हरिदिनेन तु । यमुना चन्द्रभागा न तुल्या हरकत 
अनायासेन येनात्र प्राप्यते चैष्णवं पदम्‌ | राची जागरण कृत्वा समुपोष्य ह 
दश चे पैतृके पक्षे मातृके दशपूर्वंजाः । प्रियाया दश ये वेश्य ! तानुद्धरति निक्षि 
न्द्रसङ्गपरित्यक्ता नागारिङृतकेतनाः । 
` स्नग्विणः पीतवसनाः प्रयान्ति हरिमन्दिरम्‌ ॥ १६६ ॥ 
बालत्वे यौचने वापि बाद्धके घा विशांचर ! । 
उपोष्येकादशीं नूनं नेति पापोऽतिदुर्गतिम्‌॥ १६७॥ 
उपोष्येह तिरात्राणि इत्वा घा तीर्थमज्ञनम्‌ | 
दत्त्वा हेमतिलान्याश्च स्वगं यान्तीह मानवा: ॥ १६८॥ 
तीर्थे स्नान्ति ये वैश्य ! न दत्तं काञ्चनं च यैः । 
नेच तप्त तपः किञ्चित्ते स्युः सर्वत्र दुःखिताः ॥ १६६ ॥ 
सॉक्षप्य कथितं धम्मं नरकस्य निरूपणम्‌। अद्रोहः सर्वभूतेषु | 
इन्द्रियाणां निरोधश्च दानं च हरिसेघनम्‌ । चर्णाश्रमक्रियाणां च पातं विछ 
स्वगार्थो सवंदा वैश्य ! तपोदानं न कीतेयेत्‌ । यथाशक्ति तथादद्यादात्मनो हि 
उपानदवख्मन्नानि पत्रं मूळं फलं जलम्‌ । अघन्ध्यं दिवसं काय्यं दरिदेणापि* 


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त्र्यायः] ॐ श्रीकुण्डलस्यनरकान्मोक्षपर्णनम्‌ # जङ. 
दके परे चैव न दत्तं नोपतिष्ठते । दातारो नैव पश्यन्ति तां तां. चै यमयातनाम्‌ ॥ . 
गरयो धनाढ्याश्च भघन्तीह पुनः पुनः । किमत्र वहुनोक्तेन यान्त्यघर्मण दुर्गतिम्‌ ` 
दिवे धम्मैंनेराः ख्ेत्र सवेदा । तेन वाळत्वमारभ्य कर्तव्यो धर्मसङग्रहः ॥ 
इति ते कथितं सवै किमन्यच्छोतुमिच्छसि ॥ १७७॥ 
विकुण्डल उचाच। 

सौम्य ! प्रसन्नं चित्तमेष मे । गङ्गोदं पापहं सद्यः पाषहारि सतां वच 
उपकतु' प्रियं घक्तुं ुणो . नेसगिकः सताम्‌। ` . 
शीतांशुः क्रियते केन शीतळोऽसृतमण्डलः ॥ १७६ ॥ 
त! ततो व्र हि कारण्यान्मम पृच्छतः | नरकान्निष्छृतिः सदयो ग्रातुमे जायते कथम्‌ 
र इति तस्य घसः श्रुत्वा देवदूतो जगाद ह । 
ध्यानं दुष्ट्या क्षण ध्यात्वा तन्मैत्रीरज्जुवन्यन: ॥ १८१ ॥ 
यत्ते वेश्याएमे पुण्यं त्वया जन्मनि सञ्चितम्‌ । 
तदुभ्चात्रे दीयतां सवे स्वर्ग तस्य यदीच्छसि ॥ १८२॥ 
चिकुण्डल उचाच । 
किं तत्पुण्यं कथं जातं कि जन्म च पुरातनम्‌। 
तत्सर्वं कथ्यतां दूत ततो दास्यामि सत्वरम्‌॥ १८३ ॥ 
| ] देवदूत उघाच। 
शु वेश्य ! प्रवक्ष्यामि तत्पुण्यं च सहेतुकम्‌ । पुरा मधुषने.पुण्ये ऋषिरासीञ्च शाकुनिः 
धयनसम्पन्नस्तेजसा ब्रह्मणा समः। जशिरे तस्य रेचत्यां नचपुत्रा ग्रहा इच ॥ 
हिः शीलो वुधस्तारो ज्योतिस्मानुतपञ्चमः । अभिहोत्ररता ह्येते ग्रहघमेषु रेमिरे ॥ 
“ मिदि जितकामश्च ध्यानकोशो गुणाधिकः । एते गृहचिरक्ताश्च चत्वारो द्विजसूनवः ` 

भ्रममापन्नाः सरवेकामचि निस्पृहाः । ग्रामैकवासिनः सर्वे निःसङ्गा निष्परिग्रहाः 
निराशा निष्प्रयल्ञाश्च समलोष्टांश्मकाञ्चनाः । ® 
येन केनचिदाच्छन्ना येन केनचिदाशिताः ॥ १८६॥ ` 


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सायं ग्रहास्तथा नित्यं विष्णुध्यानपरायणाः | 

जितनिद्रा जिताहारा  बातशीतसद्दिष्णचः ॥ १६० ॥ 

पश्यन्तो विष्णुरूपेण जगत्सवं चराचरम्‌। 

चरन्ति लीलया पृथ्वी तेऽन्योन्यं मौनमास्थिताः ॥ १६१ | 

न कुर्वन्ति क्रियां काञ्चिदर्थमात्रं हि योगिनः । * 

दृष्टज्ञाना असन्देहाश्चिद्विकारविशारदाः ॥ १६२॥ । 
एवं ते तब विप्रस्य पूर्वमष्टमजन्मनि । तिष्ठतो मध्यदेशेषु पुत्रदारकुटुस्विन:॥; | 
गेहं तावकमाजग्मुमंध्याहे क्षत्पिपासिताः । वेश्वदेवान्तरे काळे त्वया दण गृह । 
सगद्वदं साथुनेत्रं सहषं च ससम्त्रमम्‌ । दण्डवत्प्रणिपातेन बहुमानपुरःसरम्‌ 

| प्रणम्य चरणौ मूर्ध्ना कृत्वा पाणियुगाञ्ञलिम्‌ । 

तदाभिनन्दिताः सर्वे तया सूदृतया गिरा ॥ १६६ ॥ 

अद्य मे सफळ जन्म जीचितं सफल तथा । 

अद्य विष्णु: प्रसन्नो मे सनाथो5द्यास्मि पावनः ॥ १६७ ॥ 

धन्यो5स्म्यद्य गृहं धन्यं धन्या अद्य कुटुस्विनः। ` 

ममाय पितरो धन्या धन्या गावः श्रुतं धनम्‌॥ १६८ ॥ 
अद्टौ भवतां पादौ तापत्रयहरौ मया । भवतां दर्शनं यस्माद्धन्यस्यै हो | 
एवं सम्पूज्य छत्वा तु पादप्रक्षालनं तथा | घृतं मूध्नि चिशांश्रेष्ठ ! श्रद्धया परया! । 
यत्र पादोदक वैश्य ! श्रद्धया शिरसा धतम्‌ । गन्धपुष्पाक्षतेथूंपे पिर्मावपुरस॥ 
सम्पूज्य सुन्दरान्नेन भो जिता यतयस्तथा । तृप्ताः परमहंसास्ते चिश्रान्ता मद 

ध्यायन्तश्च परं ब्रह्म यउज्यो तिज्योंतिषां मतम्‌ । 

तेषामातिथ्यजं पुण्यं जातं यत्ते चिशांघर ! ॥ २०३ ॥ 
त २06 वाक शक्नोम्यहं खलु । भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठा प्राणिनां मतिर 
मतिमत्छु सुराः श्रेष्ठा नरेषु बहाज्ञातय; | त्राह्मणेषु च विद्वांसो विदवतछ र| 
रतवुद्धिषु कर्तारः कतु ब्रहावेद्नि; । अतापव सुपूज्यास्ते तस्माच्छेधा जती 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


ऽव्ययः ] * सुगन्धतीथेस्दवाचर्ता दितीथंमाहात्म्यवर्णनम्‌ ५ 
कतिर्विशाश्रेष्ठ | महापातकनाशिनी । चिश्रन्ता गृहि | 
दर्मसञ्चितं पापं नाशयन्तीशणेन वै । सञ्चितं यदुगृहस्थस्य पापमामरणान्तिकम्‌ 
ति तत्खर्वेमेकरात्रो षितो यतिः । स्वञ्रात्रे देहि तत्पुण्यं नरकाद्येन ते॥ 
इति हूतवचः शुत्वा ददौ पुण्यं स सत्वरम्‌। . त 
हृटेन चेतसा भ्राता निरयात्सोऽपि निर्गत: || २१० ॥ 
हल पुष्पवर्षेण पूजितौ च दिवंगतौ । ताभ्यां सम्पूजितः सम्यग्गतो दूतो यथागतः 
॥ । अखिलभुवनबोधं देचद्तस्य वाक्यं निगमवचनतुल्यं वेश्यपुत्रो निशम्य । : 
|| स्वछतखुरुतदानादुभ्ातर॑ तारयित्वा सुरपतिबरलोक॑ तेन साड जगाम ॥ 
[कीहासमिम राजन्यः पठेच्छृणुयादपि । स गोसहल्नदानस्य विशोको लभते फलम्‌ ॥ 
तिश्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे घिकुण्डलथ्ीकुण्डलयोःस्वर्गप्रासिवर्णन 
नामैकत्रिशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ 


११०६ 
दणो गेहे सन्तुष्टा व्रहाबेदिनः 


दरातरिंशो ऽध्यायः 
सुगन्धतीथरुद्रावर्तादितीथेमाहात्म्यवर्णनम्‌ । 
| नारद्‌ उचाच। 
छेत राजेन्द्र सुगन्धं लोकविश्रुतम्‌ । सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोके मद्दीयते ॥ 
व ततो गच्छेत्तीथसेची नराधिप ! । तत्र स्नात्वा ,नरो राजन्स्वगेलोके महीयते 
| गङ्गायाश्च नरः श्रेष्ठ सरस्वत्याश्व सङ्गमे । क ८ 
स्नातोऽश्वमेधमाप्नो ति स्वर्गलोकं च गच्छति॥ ३॥ 
| तत्र कर्णहदे स्नात्वा देवमभ्यर्च्य शङ्करम्‌। 
ह न ढुगेतिमवाप्नोति स्वर्गेलोक च गच्छति॥ ४॥ 
| "क गच्छेततीथसेघी यथाक्रमम्‌ । गोसहस्नमवाप्नोति स्वर्गलोक च गच्छतत 


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Re पाझपुराणम्‌ क १ | 
११०. ८ नप द म्‌ [ ३ श 


अरत्धतीचर्ट गच्छेत्तीर्थसेची नराधिप !। सामुद्रकसुपस्पृश्य जिरो 
' नोसहल्रफळं विन्देत्स्वर्गलोकं च गच्छति । त्रह्मावत्तं ततो गच्छेदुवहाचारी ह. 


अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति । यमुनाभरभं गच्छेत्समुपस्पृश्य , | 

_जबेधफळं लब्ध्वा ्रहमोके महीयते । दर्वीसडकमणं आण्य तीथा 

अभ्वमेधमघाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति । ‘+ 

न्थोश्च प्रaचं गत्वा , सिद्धगन्धवेसे वितम्‌ ॥ १० ॥ | 

तत्रोष्य रजनीः पञ्च दद्यादुबहुसुवर्णकम्‌ । अथ देवीं समाखाद्य नरः परा 

अश्वमेधमवाप्नोति गच्छेचौशनसीं गतिम्‌ । ऋषिकुल्यां खमासाय वरिस 
वसिष्ठ संमतिक्रम्य सर्वे वर्णा द्विजातयः । 

ऋषिकुलयां नरः स्नात्वा ऋषिलोकं प्रपद्यते ॥ १३॥ 

यदि तत्र बसेन्मासं शाकाहारो नराधिप ! । ्ेणुङ्गं समासाद्य चाजिमेधफर ते 

गत्वा चीरप्रमोक्षं च सर्वपापैः प्रमुच्यते । कात्तिकमाघयोश्चैच ती्थमासावह 

अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फळं प्राप्नोति पुण्यक्कत्‌ । | 

ततः सन्ध्यां समासाद्य विद्यातीर्थमनुत्तमम्‌ ॥ १६॥ 

उपस्पृशेत्स विद्यानां सर्वासाँ पारगो भवेत्‌ । महाश्रमे वसैद्रातरि सवपा 


कृतार्थः सर्वेकृत्येषु न शोचेन्मरणं क्चित्‌। सर्वेपापविशुद्धात्मा विन्देदरब्ह४ | 
अथ वेतसिकां गच्छेत्पतासहनिषेचिताम्‌। अश्वमेधमचाप्नोति गति च पणा] 
अथसुन्दरिकां तीर्थ प्राप्य सिद्धनिषेविताम्‌ । रूपस्य भागी -भवति इ) 
त्ततो ब्राह्मणिकां गत्वा ` ब्रह्मचारी समाहितः । पद्मचर्णेन यानेन व्रहालोक ४. 
ततश्च नैमिषं गच्छेत्पुण्यं द्विजनिषेवितम्‌ । (तत्र नित्यं निवसति ब्रह्म | 
मिषं प्रार्थयानस्य पापस्याद्धं प्रणश्यति ।. प्रविष्टमात्रस्तु तरः सर्वपाप 
तत्र मासं घसेद्धीरो नैमिषे तीर्थतत्परः । प्रथिव्यां यानि तीर्था नि नैमिषे 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi SS 1. Digitized by eGangotri 


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५ : ] # खुगन्धतीर्थर द्वावर्तादितीर्माहात्म्यचर्णनम्‌ ८ अ पट क 
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ककं तत्र त्वा नियतो नियताशनः । राजसूयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः . 
0 (ह्वास॒म॑ चैव कु भरतसत्तम ! । यस्त्यजेन्नैमिषे प्राणाजुपचासपरायण: ह 


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छ ेस्वगेळोकस्थ एवमाडुमंनीषिणः । नित्यं मेध्यं च पुण्यं च नेमिषं नृपसत्तम! 
निनदं समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नरः | त्रहभूतो भवेत्सदा 
(खती समासाद्य तपयेत्पितृदेवताः । सारस्वतेषु लोकेषु मोदते नात्र ह 
ह्य वाहुदां गच्छेत्तीर्थेसेची नराधिप ! । तत्रोष्य रजनीमेकां स्वर्गलोके महीयते | 
तय यक्षस्य फळं प्राप्नोति मानव: । ततश्च रजनी गच्छेत्पुण्यां पुण्यजनैवु ताम 
शेवाचेनरतो वाजपंयसवाप्चुयात्‌ । विमळाशोकमासाद्य घिराजति यथा शशी ॥ 
व्ष्य रजनीमेकां स्वर्भेलोके महीयते । गोप्रतारं ततो गच्छेत्सय्यूतीथेमुत्तमम्‌ ॥ 
ह रामो गतः स्वगं सभ्रत्यवळघाहनः । गेहं त्यक्त्वा पुरा राजंस्तस्य तीर्थस्य तेजसा 
हं रामस्य च परसादेन व्यवसायाच्च भारत !। 
| तस्मिस्तीर्थे नरः स्नात्वा गोप्रतारे नराधिप ! ॥ ३७ ॥ 
पाए मा स्वगेलोके महीयते । रामतीर्थे नरः स्नात्वा गोमत्यां कुरूनन्दन ! 
 लधमवाप्न ति पुनाति स्वकुळ नरः | शतसाहस्रकं तत्र तीर्थं भरतसत्तम ॥ ३६ ॥ 
प्रोकोपस्पशेन इत्वा नियतो नियताशनः । गोसहस्रफलं पुण्यमाप्नोति भरतर्षभ ! ॥ 
ह| ततो गच्छेत धमज्ञ ऊध्व॑स्थानमनुत्तमम्‌ । 
कोरितीर्थे' नरः खात्या अर्चयित्वा गृहं नृप ! ॥ ४१ ॥ 
गोसहस्रफलं विन्देत्तजस्वी चापि जायते । 
ततो घाराणसीं गत्वा पूजयित्वा वृषष्चजम्‌॥ ४२ ॥ 
। हदै खात्वा राजसूयफलं लमेत्‌ । मार्कण्डेयस्य राजेन्द्र तीर्थमासाच दुलेभम्‌ 
योश्च सङ्गमे लोकविश्रुते । अश्निष्टोममघाप्नोति कुल चैव समुद्धरेत्‌ ॥ 
| महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे सुगन्धतीर्थरुद्वावर्ता दितीर्थमाहात्म्यचर्णन॑ 
| नाम द्वात्रिशोऽध्यायः॥ ३२॥ - 


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(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


_त्रॅयस्त्रिशो5ध्यायः 
` विस्तरेण वाराणसीमाहात्स्यवर्णनमू । 
युधिष्ठिर उवाच । क 
वाराणस्याश्च माहात्म्यं संक्षेपात्कथितं त्वया 
चिस्तरेण सुने ! ब्रहि तदा प्रीणाति से मनः ॥ १॥ 
नारद्‌ उवाच । 
अत्रेतिद्दासं षक्ष्यामि घाराणस्या शुणाश्रयम्‌। 
यस्य श्रवणमात्रेण मुच्यते त्रह्महत्यया ॥ २॥ 
मेरुष्टङ्गे पुरा देवमीशानं निपुरद्विषम्‌। देवाखनगता देवी | । 
देव्युचाच । 
देवदेव ! महादेव ! भक्तनामातिनाशन ! । कथं त्वां पुरुषो देचमचिरादेघ पर| 
साङ्ययोगस्तथा ध्यानं कर्मयोगोऽथ वैदिकः । 
आयासबहुळा लोके यानि चान्यानि शङ्कर ! ॥ ५॥ 
येन चिश्रान्तचित्तानां योगिनां कर्मिणामपि । 
दृश्यो हि भगषान्सूद्षमः सवेषामथ देहिनाम्‌ ॥ ६॥ 
पतदुशुह्यतमं ज्ञानं गूढं शाक्राद्सिषितम्‌। हिताय सर्वभूतानां त्र,हि 
०. ईश्वर उवाच। 
अचाच्यमत्रचिज्ञानं ज्ञानमज्ञेबंहिष्कृतम्‌ । चक्ष्ये तव यथातस्वं यदुक्त 
परं गुह्यतमं क्षेत्रं मम वाराणसी पुरी। सर्वेषामेच भूतानां संसाराणवतारिणी।| 
तत्र भक्त्या महादेचि ! मदीयं घतमास्थिता: । | 
निवसन्ति महात्मानः परं नियममास्थिताः ॥ १० ॥ 
उत्तमं स्वेतीर्थांनां स्थानानासुत्तमं च यत सु ज्ञानमचिपुक्त 
॥&6 1012608/ 8081001 


(८-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Co 


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| स्थानान्तरपवित्राणि तीर्थान्यायतनानि च। . 
श्मशानसंस्थितान्येष दिव्यभूमिगतानि च ॥ १२॥ 
नैव संळझमन्तरिक्े ममाळयम्‌। अमुक्तास्तत्र पश्यन्ति मुक्ता: पश्यन्ति चेतसा 
ह्ागमेतदि्य़ातमचिसुक्तमिति शुतम्‌ । कालो भूत्वा जगदिदं संहराम्यत्र सुन्दरि ! 
हंदं स्वग॒ह्मानों स्थानं प्रियतरं मम । मङ्गक्तास्तत्र गच्छन्ति मामेष प्रविशन्ति च 
दं इतं चेष्टं तपस्तप्तप्तं कृतं च यत्‌ । ध्यानमध्ययनं ज्ञानं सर्व॑ तत्राक्षयं भवेत्‌ ॥ 
झषान्तरसहसेघु यत्पापं पूर्वेसञ्चितम्‌ । अविमुक्तं प्रविष्टस्य तत्सर्व घजति क्षयम्‌ ॥ 
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वेश्याः श्रृद्वाश्च वर्णसङ्कराः । 
स्त्रयो स्ळेच्छाश्च ये चान्ये सङ्कीर्णाः पापयोनयः ॥ १८॥ 
गः पिपीलिकाअ्चैव ये चान्ये खुगपक्षिणः ।कालेन निधनं प्राप्ता अघिमुक्ते घरानने 
त|एत्रादेमील्यस्व्यक्षा भहावृषभषाहनाः। शिवे मम पुरे देवि जायन्ते तत्र मानवा: ॥ 
नाविसुक्ते म्हतःकश्चिन्नरक याति किल्बिषी । 
| ईश्वरानुणहीता हि सर्वे यान्ति परां गतिम्‌ ॥ २१ ॥ 
मोक्षं सुदुर्लभं मत्वा संसारै चातिभीषणम्‌ । 
अर्चेनाचरणे मुक्त्वा चाराणस्यांः बसेन्नरः ॥ २२॥ 
अमा तपसा चापि सूतस्य परमेश्वरि !। यत्र तत्र विपन्नस्य गतिः संसारमोक्षणी 
पदाज्ञायते सम्यङ्मम शेलेन्द्रनन्दिनि! । अप्रवृद्धा न पश्यन्ति मम मायाधिमो हिताः 
मिरेतसां मध्ये ते वसन्ति पुनःपुनः । हन्यमानोऽपि यो विद्वान्बसेद्विप्नशतैरपि 
स याति परमं स्थानं यत्र गत्वा न शोचति 
जन्मसुत्युजरासुक्तं परं यार्त शिवाल्यम्‌॥ २६ ॥ 
अपुनमेरणानां हि खा गतिमोक्षकाङक्षिणाम्‌ । 
be याँ प्राप्य कृतकृत्यः स्यादिति मत्यस्ति पण्डिताः ॥ २७॥ 
न तपोभिश्च न यज्ञै्नापि विद्या । पराप्यते गतिरुत्कृष्टा या5विसुक्ते तु लभ्यते 
(| नानाच्या चिवर्णाश्च चाण्डालाद्या जुगुप्सिताः । 


< --60-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


"११३ ` 


.- .पाथयुराणम:क .::  [: इस 
किल्विषै: पूर्णदेहाश्व विशिष्टेः पातकस्तथा [२६ ॥ 
| झषजं परमं तेषामविमुक्त- विदुब॒ुधाः । अचिसुक्त परं -ज्ञानमचिसुक्तं पर फा, 
अविमुक्तं परं तत्त्यमविमुक्त परं शिवम्‌। छत्वा च नेष्ठिकीं दीक्षामविमुक्त ष 
तेषां तत्परमं ज्ञानं ददाम्यन्ते परं पदम्‌ । प्रयाग नेमिषारण्यं श्रीशेलोष्य मह) 
केदारं मद्वकण तु गयापुष्करमेव च.। कुरुक्षेत्र भद्रकोटिनंमंदा55ब्रातकेरी|,| 
शालग्रामं च कुव्जाप्र' कोकाघुखमनुत्तमम्‌। प्रभासं घिजयेशानं गोकणं भ] 

एतानि पुण्यस्थानानि त्रेछोक्ये विश्चतानि ह । शि, 
न यास्यन्ति परं तत्त्वं वाराणस्यां यथा ताः ॥ ३५॥ 
चाराणस्यां विशेषेण गङ्गा त्रिपथगमिनी । प्रविष्टा नाशयेत्पापं जन्मान्तरै. 
अन्यत्र सुळमा गङ्गा राद्धं दानं तपो जपः । रतानि सर्वमेवेतद्वाराणस्यं मुळी 
जपेच्च जुहुयान्नित्यं ददात्यर्च॑यतेऽमरोन्‌। घायुभक्षश्च सततं वाराणस्यां स्त | 
यदि पापो यदि शठो यदि चाऽधार्मिको नरः। _ 
बाराणसीं समासाद्य पुनाति सकलं कुलम्‌ ॥ ३६ ॥ 
घाराणस्यां येऽचंयन्ति महादेवं स्तुवन्ति चे । 
सर्वेपापचिनिर्मुक्तास्ते चिज्ञेया गणेश्वराः ॥ ४० ॥. 
अन्यत्र योगज्ञानास्यां संन्यासादथवाऽन्यतः । प्राप्यते तत्परं स्थानं सहस्नेणैव उग 
ये भक्ता देवदेवेशि ! बाराणस्यां बसन्ति बै । ते चिन्दन्ति परं मोक्षमेकेनैव [+| 


११४ 


यतो मया विमुक्त तद॒चिमुक्त ततः स्म्रतम्‌। तदेव गुह्य 
. ज्ञानाहानाभिनिष्टानां परमानन्दमिच्छताम्‌ । 1 

या गतिबिदिता सुन्न: ! सा5विमुक्ते सुतस्य तु ॥ ४५॥ 

यानि चेबाधिमुक्तस्य देहे द्रृष्टानि छृत्स्नश: । गज्वी 

पुरी चाराणसी तेभ्यः स्थानेभ्यो5प्यघिका शुभा ॥४६॥. . | | 

यत्र साक्षान्महादेवो देहान्ते स्वयमीश्वरः । व्या बणे तारकं ब्रह्म तत्रेव | 


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(िशोऽध्योयः ] 3 चिस्तरेण वाराणसीमाहात्म्यकथनम्‌ 

रं तंस्वमचिसुक्तमिति श्रुतम्‌ । पकेन जन्मना 

भ्रूमध्ये नाभिमध्ये च हृदये चैव मूर्धनि । 

यथाऽविघ्ुुक्तमादित्ये घाराणस्यां व्यवस्थितम्‌ ॥ ४६ ॥ 

वरण्ययास्तथाचास्या मध्ये घाराणसी पुरी । 

तत्रैच संस्थितं तत्त्वं नित्यमेवं विमुक्तकम्‌ ॥ ५० ॥ 

भ त्रस्याः परं स्थानं न भूतं न भविष्यति । यत्र नारायणो देवो महादेवो दिवीश्वर 

दवाः सगन्धर्वाः सयक्षोरगराक्षसाः । उपासते यं सततं देवदेव ईपितामहः ॥५२॥ 

महापातकिनो देवि ! ये तेभ्यः पापङ्न्तमाः | 

बाराणसीं समासाद्य ते यान्ति परमां गतिम्‌ ॥ ५३ ॥ 

ातुुश्चनियतो चसेङ्घे मरणान्तकम्‌। घाराणस्यां महादेवाज्ज्ञानं लवा चिमच्यते 

हतु विधा भविष्यन्ति पापोपहतचेतसः । ततो नेवाचरेत्पापं कायेन मनसा गिरा ॥ 

हस्यं देवानां पुराणानां च खुबते ! । अविमुक्ताश्रयं ज्ञानं न कथ्चिद्वे त्तिश्तत्त्ततः ॥ 
नारद्‌ उवाच। ` 

सुषीणां च शण्बतां परमेष्ठिनाम्‌ । देवदेवेन कथितं सवंपापविनाशनम्‌ ॥ 

नारायण: श्रेष्ठो देवानां पुरुषोत्तमः । यथेश्वराणां गिरिशः स्थानानामेतदुत्तमम्‌ ॥ 

यः समाराधितो रुद्रः पूर्व स्मिन्नेकजन्मनि । 

| ते विन्दन्ति परं क्षेत्रमघिमुक्तं शिवालयम्‌ ॥ ५६ ॥ 

यो त्मषसम्भूता येषामपहृता मतिः । न तेषां विदितं शक्यं स्थानं तत्परमेष्टिनः ॥ 

ये स्मरन्ति सदा काळं घदन्ति च पुरी मिमाम्‌ । 

तेषां चिनश्यति क्लिप्रमिंहामत्रं च पातकम्‌ ॥ ६१॥ 

गि चेह प्रकुर्वन्ति पातका नि-छृतालया: । नाशयेत्तानि सर्वाणि देच काळतनुः शिच 

, |तदिदस्थानं सेचितं मोक्षकाङक्षिभिः। स॒तानां च पुनर्जन्म नभूयो भवसागरे 

तस्मात्सवंप्रयत्नेन घाराणस्यां वसेन्नरः | ` 

योयी वाप्यथवाऽयोगी पापी. घा पुण्यकृत्तमः ॥ ६४ ॥ 


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११५ ` 
देघि ! वाराणस्यां तदाप्नुयात्‌ 


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न ढोकबचनाप्पितरोन सैव युरुवादतः । मतिने : | 
` इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वगेखण्डै विस्तरैणवाराणसीमाहात्यव | 
न अयस्त्रिशो$ध्यायः ॥ ३३॥ 


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चतुस्त्रिशो5ध्यायः 
वाराणसीस्थक्ृत्तिवासेश्वरमाहात्म्यवर्णनस्‌ । 
नारद्‌ उचाच। 
तत्रेदं चिमळंलिङ्गमो कारं नाम शोभनम्‌ । यस्य स्मरणमात्रेण सुच्यते सवपा 
एतत्परतरंज्ञानं पञ्चायतनमुत्तमम्‌। सेवितं सुनिभिनित्यं वाराणस्यां विपो 
तत्र साक्षान्महादेवःपश्चायतनविग्रहः । रमते भगवात्र _दो जन्तूनामपवगद'।। 
एतत्पाशुपतंज्ञानं पञ्चायतनसुच्यते। तदेतद्विमलंलिङ्गमो ङ्कारं समुपस्थित 
शान्त्यतीता तथा शान्तिविद्याचैचापरावरा । 
प्रतिष्ठा च निवृत्तिश्च पञ्चात्मं लिङ्गमैश्वरम्‌ ॥ ५॥ 
पञ्चानामपि लिङ्गानां ब्रह्मादीनां समाश्रयम्‌ । उँठकारबोधर्क लिङ्ग पञ्चायतन 
संस्मरेदीश्वरंलिङ्गं पञ्चायतनमव्ययम्‌ । देहान्ते परमं ज्यो तिरानन्दं विशते व| 
तत्र देवषंय:पूर्व सिद्धा ब्रह्मषयस्तथा । उपास्य देचमीशानमापुरन्ते परंपर 
मत्स्योदर्यास्तरेपुण्ये स्थानं शुह्मतमं शुभम्‌ । गोचर्ममात्रं उ | 
-कृत्तिवासेश्वरंलिङ्गं मध्यमेश्वरसुत्तमम्‌। विश्वेश्वरं तथोङ्कारं कन्दर्पश्वरमेवच। | 
एतानि गुह्यलिङ्गानि घाराणस्यां युधिष्टिर !। | 
न कश्चिदिह जानति चिना शम्भो रनुग्रहास ॥ ११॥ 
छत्तिवासेश्वरस्येव माहात्स्यं श्रणु पार्थिव !। ` 
तस्मिन्स्थाने पुरा दैत्यो हस्ती भूत्वा शिचान्तिकम्‌ ॥ १२ | 


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॥ 


| । हुलिंशी$च्यायः ]* घाराणसीस्थक्त्तिचासेभ्वरमाहात्म्यचर्णनम्‌ र १३७ 


॥||हणनिन्तमायातो यत्र नित्यसुपासते । तेषां ढिङ्गान्महादेचःप्रादुरासीत्त्रिलोचनः 
भारथ महादेवो भक्ताना भक्तवत्सल: । हत्वा गजाकृति दैत्यं शूलेनावज्ञया हर: ॥ 
त्ति कत्तिवासेश्वरस्ततः । तत्र सिद्धि परांप्राप्ता सुनयो हि युधिष्टिर! 

त च शरीयेग प्राप्तास्तत्परमपद्म्‌ । विद्या विद्येश्वरा रुदराःशिघा ये च प्रकीर्तिताः| 
िवासेभ्वरंखि्ग नित्यमाथित्यसंस्थिताः । ज्ञात्वा कलियुगं घोरमधर्मवहुळं जनाः 

वासं न मुञ्चन्ति कतारथास्तेन संशयः । जन्मान्तरसहस्रेण मोक्षोयच्याप्यते न घा 

हैत त्मना मोक्षःत्तिचासेऽत्र भ्यते । आल्यं सबं सिद्धानामेतत्स्थानं चदन्ति हि . 

पितं देवदेवेन महादेवेनशम्सुना । युगेयुगेह्वात्रदान्ता व्राह्मणावेदपारगाः ॥ २० ॥ 

गासते महात्मानं जपन्ति शतरुद्रियम्‌ । स्तुवन्ति सततंदेवं च्यम्बक कृत्तिवाससम्‌ 

ध्यायन्ति हृदये देवं स्थाणं सर्घान्तरं शिवम ॥ २१ ॥ 

गायन्ति सिद्धाःक्लिल गीतकानि वाराणसीं ये निघसन्ति चिप्राः । 

तेषामर्थेकेन भचेद्विमुक्ति्ये इत्तिवासं शरणं प्रपन्नाः ॥ २२॥ 

सम्प्राप्य लोके जगतामभीषएं सुदुलेभं चिप्रकुलेघु जन्म । 

ध्याने समाधाय जपन्ति रुद्रं ध्यायन्ति चित्ते यतयो महेशम्‌ ॥ २३ ॥ 

आराधयस्ति प्रभुमी क्षितारं चाराणसीमध्यगता मुनीन्द्राः । 

यजन्ति यज्ञेरभिसन्धिहीना स्तुघन्ति रुद्रं प्रणमन्ति शम्भुम्‌ ॥ २४ ॥ 

नमो भवायामळ्योगधारने स्थाणं प्रपद्येगिरिशं पुराणम्‌ । 

' स्मरामि रुदं हृदये निषिष्टं जाने महादेषमनेकरूपम्‌॥ २५ ॥ 

श्रीपाय महापुराणे तृत्तीये स्वर्गखण्डे घाराणसीस्थरुत्तिवासेश्वरमाहात्म्यवर्णनं 

| नाम चतुस्त्रिशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥ 


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, CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


पञ्चतीशोञ््यायः 
के । 
नारद्‌ उवाच | 
अथान्यत्तत्र चै लिङ्गं कपदीश्वरसुत्तमम्‌ । स्नात्वा तत्र विधानेन तपेयित्वा पिकू 
मुच्यते सर्वपापेभ्यो शुक्ति मुक्ति च विन्दति । | 
- पिशाचमोचनं नाम तीर्थमन्यत्ततः स्थितम्‌ ॥ २॥ 
तत्राश्चयंमयो देखो मक्तिदः सर्वेदोषहा । कश्चिद्देत्यो जगामेदं शादू लो घोर | 
सृगीमेकां भक्षयितं कपर्दीश्वरमत्तमम्‌ । तत्र सा भीतहृद्या इत्वा कृत्वा 
धावमाना सुसम्भ्रान्ता व्याध्रस्य वशमागता । 
तां विदार्य नखैस्तीक्षणेः शादू लः स महाचलः ॥ ५॥ 
जगाम चान्यं विजन देशं दृष्ट्या मुनीश्वरान्‌ 
सूतमात्रा च सा बाला कपर्दोशाग्रतो सुगी ॥ ६ ॥ 
अद्वश्यत महाज्चाला व्योन्नि सूर्यखमप्रभा । त्रिनेत्रा नीलकण्ठा च 
वृषाधिरुढा पुरुषैस्तादशैरेच संत्ृता । पुष्पतरष्टि विमुञ्चन्ति खेचरास्तत्सम्छ| 
गणेश्वरी स्वयं भूत्वा न दृष्टो तत्क्षणात्ततः। द्ृष्ट्घा तदाश्चर्यवर प्रशशंसः पुण] 
तन्महेशस्य वै लिङ्गं कपर्दोश्वरमृत्तमम्‌। स्मृत्वैचारोषपापौ घातिक्षप्रमेच पिमृचण 
ह कामक्रोधादयो दोषा वाराणसीनिवासिनाम । 
विघ्नाः सर्वे विनश्यन्ति कपर्दीश्वरपूजनात्‌ः॥ ११॥ - 
तस्मात्सद्घ द्रष्टव्यः कपर्दोश्वर उत्तमः । पूजितव्यं प्रयत्नेन स्तोतव्य वेदिक 
ध्यायतां चात्र नियतं योगिनां शान्तचेतसाम्‌ । | 
जायते योगसिद्धिः सा षण्मासेन न संशय: ॥ १३ ॥ 
त्रह्महत्याद्य: पापा घिनश्यन्त्यस्य पूजनांत्‌ । 


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TET TIT गए कापा + नर 


दे ] # कपदोश्वरपिशाचमोचनतीथेमाहात्म्यर्णनम्‌ # ११९. 

पिशाचमोचने कुण्डे स्नातः स्यात्मशमो यतः ॥ .१४.॥ ती 
विप्रस्तपस्वी संशितव्रत || शङ्कुकर्ण इतिख्यात पूजयामास शङ्करम्‌ - 

T प्रणवं प्रह्मरूपिणम्‌ । पुष्पधूपादिभिः स्तोत्रैनंमस्कारैः प्रदक्षिणैः ॥ 

उपा्रीतात्र योगात्मा इत्वा दीक्षां तु नेष्टिकीम्‌ । : 

कदाचिंदागतं प्रेतं पश्यंति स्म क्षुघान्वितम्‌ ॥ १७॥ 

ह(त्यिवमपिनद्धाडुं विश्वखन्तं मुहु्मृंह:। तं दृष्ट्या स मुनिश्रेष्टः कृपया परया युतः 

प्रोघाच को भवान्कस्माद्देशाइशमिमं श्रितः | . . 

तस्मै पिशा चः क्षुधया पीड्यमानो ऽत्रवीद्वचः ॥ १६॥ 

हक्मन्यहं विप्रो धनधान्यसमन्वितः । पुत्रपौजादिभियुक्तः कुटुम्वभरणोत्सुकः॥ . 

पूजिता मया देवा गावोऽप्यतिथयस्तथा । न.कदाचित्कृतं पुण्यमल्पं चानल्पमेच च 

दा भगवान्देवो चृषभेश्वरवाहन: । विश्वेश्वरो बाराणस्यां दृष्टः संपृष्टो नमस्क्कतः ॥ 

चिरेण कालेन पञ्चत्वमहमागतः । न दृष्ट तन्महाघोरं यमस्य सदनं मने ॥ २३ ॥ 

पिपासयाऽझ्ुनाऽऽक्रान्तो न जानांमि हिताहितम्‌ । 

यदि कञ्चित्खमद्वर्तसपायं पश्यसि प्रभो !॥ २४॥ 

तं नमस्तुभ्यं त्वामहं शरणं गतः । इत्युक्तः शडुकणो5्थ पिशाचमिदमत्रवीत्‌ 
त्वाद्दशो नहि लोके$स्मिन्विद्यते पुण्यक्कत्तमः । 

यत्त्वया भगचान्पूच हृष्टो विश्वेश्वरः शिव: ॥-२६ ॥ 

वन्दितो भूयः को 5न्यस्त्वत्सद्वशो सुवि। तेन कर्मविपाकेन देशमेतं समागत 
स्नानं कुरुष्च शीघं त्वमस्मिन्कुण्डे समाहितः | | 

' येनेमां कुत्सितां योनि. क्षिप्रमेष प्रहास्यसि ॥-२८॥ ` ` 

स एवमुक्तो सुनिना पिशाचो दयाळुचा देवघर ज्िनेत्रम्‌:। ` ०“ 

स्मृत्वा कपदोश्चरमी शितारं चक्रे समाधाय मनो ऽवगाहम्‌॥ २६॥ 

“तदावगाढो सुनिसन्निधाने ममार दिब्याभरणोपपन्नः। 


अहुश्यतार्कप्रतिमो विमाने शंशाडूचिहीकृतचार्मोळि ॥ ३५-॥ 
(०-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


# पाझपुराणम्‌ # नन्द | 


विभाति रुद्रैः सहितो दिविष्ठैः समाभ्यतो यो गिभिरप्रमेयै; । 

. सवालखिल्यादिभिरेष देवो यथोदये भानुरशेषदेवः ॥ ३१ ॥ 
स्तुवन्ति सिद्धा दिवि देवसङ्गा नत्यन्ति दिव्याप्सरसोऽभिरामनाः | 
मुञ्चन्ति बृष्टि कुसुमाम्बुमिथ्रा गन्धवेविद्याधरकिन्नराद्या: | ३२ 
संस्तूयमानोऽथ मुनीन्द्रसङ्घैरघाप्य बोधं भगवत्प्रसादात्‌ | 
समाविशन्मण्डळमेतदग्यू' त्रयीमयं यत्र विभाति रुद्रः ॥ ३३॥ 
दृष्ट्या चिसुक्तं ख पिशाचमूतं सुनिः प्रृटो मनसा महेशम्‌ । 
चिचिन्त्य रुद्रं: कविमेकमश्चि प्रणम्य तुष्टाव कपदिनं तम्‌ ॥ ३४ 

शङ्कुकणें उचाच | 
कपदिनं त्वां परतः परस्ताद्रोप्तारमेकं पुरुषं पुराणम्‌ । | 
बजामि योगेश्वरमीशितारमादित्यमश्नि कपिलाधिरुढम्‌ ॥ ३५ 
त्वां ब्रह्मसारं हृदि संनिविष्टं हिरण्मयं योगिनमादिमं तम्‌ । 
ब्रज्ञामि रुद्रं शरणं दिषिष्ठं महासुनि ब्रह्ममयं पचित्रम्‌॥ ३६॥ 
सहस्रपादाक्षिशिरोऽमियुक्तं सहस्जरूपं तमसः परस्तात्‌ । 
तं ब्रह्मपारं प्रणमामि शम्भुं हिरण्यगर्भाथिपति ` चिनेत्रम्‌ ॥ ३७॥ 
यत्र प्रसूतिजंगतो विनाशो येनावृतं सर्च मिद्‌ शिवेन । « 
तं ब्रह्मपारं भगचन्तमीशं प्रणस्य नित्यं शरणं प्रपद्ये ॥ ३८॥ 
अङिङ्गमालोकषिह्दीनरूपं स्वयम्प्रमु ` चित्पतिमेकरूपम्‌। 
तं ब्रह्मपारं परमेश्वर त्वां नमस्करिष्ये न यतोऽन्यद्‌स्ति॥ ३६॥ 
यं योगिनस्त्यक्तसबीजयोगा लब्ध्वा समाधि परमात्मभूताः । | 
पश्यन्ति देवं प्रणतोऽस्मि नित्यं तं ब्रह्मपार परमस्वरूपम्‌.॥ ४०। | 
न यत्र नामाद्विशेषक्ल सिर्न सन्हूरो तिष्ठति यत्स्वरूपम्‌। | 
त ब्रह्मपरं प्रणतोऽस्मि नित्यं स्वयम्भुवं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ ४१॥ | 
यद्वेद्वादाभिरता विदेहं सत्रहम िज्ञानमसेदमे | 


८८-७0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


]% वाराणसीस्थमध्यमेश्वरमाहात्म्यबर्णनम्‌ Fe ५ , १२१. EF 
पश्यन्त्यनेक॑ भवतः स्वरूपं तं ब्रह्मपारं प्रणतोऽस्मि नित्यम्‌ ॥ ४२॥ 
यतः प्रधानं पुरुषः पुराणो विभति तेजः प्रणमन्ति देवा: । 
नमामि तं ज्योतिषि सन्निविष्टं काळं बृहन्तं भवत स्वरूपम्‌ ॥ ४३ ॥ 
ब्रजामि नित्यं शरणं गुहेशं स्थाण प्रपद्ये गिरिशं पुराणम्‌ । 
शिवं प्रपद्ये हरमिन्दुमौ रिं पिनो किनं त्वां शरणं बजामि ॥ ४४॥ 
वं शङ्कुकणोंऽपि भगचन्तं कपर्दिनम्‌ । पपात दण्डवदुभूमौ प्रोच्चरन्प्रणचं परम्‌ ` 
तत्क्षणात्परमं िङ्गं प्रादुंभूतं शिवात्मकम्‌ । 
ज्ञानमानन्दमत्यन्तको टिज्यालाभिसन्निमम्‌ ॥ ४६ ॥ 
शङ्कुकर्णोऽथ मुक्तात्मा तदात्मा सबंगोऽमलः । 
निलिल्ये विमले लिङ्गे तददुतमिचाभचत्‌ ॥ ४७ ॥ 

र माहात्म्यं ते कपर्दिनः । न कश्चिद्वेत्ति तमसा विद्वानप्यत्र मुह्यति ॥ 
य इमां श्टणुयान्नित्यं कथां पापप्रणाशिनीम्‌ । 
त्यक्तपापो विशुद्धात्मा रुद्रसामीप्यमाप्लुयात्‌ ॥ ४६॥ 
च्व सततं शुद्धो ब्रह्मपारं महास्तवम्‌ । प्रातमेध्याहसमये स योग प्राप्नुयात्परम्‌ ॥ 
श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे वाराणसीमाहात्म्ये कपर्दोश्वरपिशाच- 
मोचनतीर्थमाहात्म्यवर्णनं नाम पञ्चनरिंशोऽध्यायः ॥ ३५॥ 


षट्‌ निंशो ऽध्यायः ' 
वाराणसीस्थमध्यमेश्वरमाहात्म्यवर्णनम्‌ । 
नारद्‌ उचाच । 
'णास्यां महाराज मध्यमेशः परात्परः । तस्मिन्स्थाने महादेवो देव्या रूह महेश्वरः 
|" भगवान्नित्यं रुद्रश्च परिवारितः । तत्र पूवं हृषीकेशो विश्वात्मा देवकीसुतः ॥ 


42 2 (७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


शक्र . 5223 [ 
उवास घत्सेरं कृष्णः सदा पाशुंपतेथु तः । मस्मोद्धू लितंसर्वा ङ्गो द्ध्य | 
आराधयन्हरिः शम्सुः इत्वा पाशुपतं व्रतम्‌ । | 
तस्य ते बहवः शिष्या व्रह्ाचयपरायणाः ॥ ४॥ 
लब्ध्वा तद्ददनाज्ज्ञानं दृएवन्तो महेश्वरम्‌ । तस्य देवो महादेव: प्रत्यक्षं नीरदोहि. 
र ददौ कृष्णस्य भगवान्वरदो घरमत्तमम्‌ । 
ये$्चेयन्ति च गोचिन्दं मद्गक्ता. विधिपू्वकम्‌॥ ६॥ 
तेषां तदेश्वर ज्ञानमत्पत्स्यति जगन्मयम्‌ । नमस्यो ऽचेयितव्यश्च ध्यातव्यो 
भविष्यन्ति न सन्देहो मत्प्रसादाद्‌ द्विजातयः । 
येऽत्र द्रक्ष्यन्ति देवेशं स्नात्वा देवं पिनाकिनम्‌ ॥ ८॥ 
ब्रह्महत्यादिक पापं तेषामाशु चिनश्यति । 
प्राणांस्त्यक्ष्यन्ति ये मर्त्याः पापकर्मरता अपि ॥ ६॥ 
ते यान्ति तत्परं स्थानं नात्र कार्या विचारणा । 
धन्यास्तु खलु ते घिज्ञा मन्दाकिन्यां कृतोदकाः ॥ १० ॥ -- 
अ्चेयित्वा महादेवं मध्यमेश्वरमीश्वरम्‌ । ज्ञानं दानं तपः श्राद्धं पिण्डनिर्वपणं ति 
एकेकशः छतं कम पुनात्यासप्तमं कुलम्‌ । सन्निहत्यामुपस्पृश्य राहुग्रस्ते दिव 
यत्फळं ` लभते मच््येस्तस्माइृशणुणं त्विह । 
एचमुक्तं महाराज ! माहात्म्यं मध्यमेश्वर । 
यः श्टणोति परं भक्तया स याति परमं पदम्‌ ॥ १३॥ 
इति श्रीपाझे महापुराणे तृतीयेस्वर्गखण्डे वाराणसीमाहात्म्ये मध्यमे 
वर्णनं नाम षट्त्रिशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥ 


म न 


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सप्तत्रिशो ऽध्यायः े 
वाराणसीस्थग्रयागतीर्थाचनेकतीर्थमाहात्म्यवर्णनम्‌ । : 
र र नारद्‌ उवाच] 


अन्यानि च महाराज ! तीर्थानि पाचनानि तु । 

बाराणस्यां स्थितानीह संश्एणुष्व युधिष्ठिर | ॥ १॥ 

कं तीथ प्रयागं परमं शुभम्‌ । विश्वरूपं तथा तीर्थं ताळतीर्थमचुत्तमम्‌ ॥ 
ग महातीथं तीर्थं चेवाषेभं परम्‌ । सुनिळं च महातीर्थं गौरीतीथंमचुत्तमम्‌ 
त्यं तथा तीथ स्वयंद्वारं तथेव च । जम्बुकेश्वरमित्युक्तं धर्माख्यं तीर्थमुत्तमम्‌ 
तीथं परं तीथ तीथ चेच महानदी । नारायणपरं तीर्थ वायुतीथमनुत्तमम्‌ ॥५॥ 
तीथं पदं शुह्यं चाराहं तीथगुत्तमम्‌ । यमतीथं महापुण्यं तीर्थं सम्मूतिकं शुमम्‌॥ 
[तीथ महाराज ! कळरोश्वरमुन्तमम्‌। नागतीथं सोमतीर्थ सूर्यतीर्थं तथैच च ॥७॥ 
ल्यं महागुह्यं मणिकण्येमनुत्तमम्‌। घटोत्कचं तीर्थघर श्रीतीर्थं च पितामहम्‌ ॥ 
तथं तु देवेशं ययातेस्तीर्थसुत्तमम्‌। कापिळं चैव सोमेश ब्रह्मतीर्थमनुत्तमम्‌ ॥६॥ 
तत्र लिङ्गं पुराणीयं स्थातुं ब्रह्मा यथागतः। 

तदानीं स्थापयामास विष्णुस्तलिङ्गमैश्वरम्‌॥ १०॥ 

तत्र स्नात्वा समागम्य ब्रह्मा प्रोषाच तं हरिम्‌ । 

मयाऽऽनीतमिदं लिङ्ग कस्मात्स्थापितचानसि॥ ११॥ 

' तमाह विष्णुस्त्वत्तोऽपि रुद्रे भक्तिद्रढा मस ॥ . 

` तस्मात्प्रतिष्ठित लिङ्ग नाज्ञा तव भविष्यति ॥ १२॥ [ 
तथा तीर्थं तीर्थं धर्मसमुद्घचम्‌। गन्धर्वेतीथ सुशुभं घाहेयं तीर्थसुत्तमम्‌॥ 
ES । व्योमतीथं चन्द्रतीर्थं युधिष्ठिर! । चिन्ताडुदेश्वरं तीर्थ पुण्यं विद्याधरेश्वरम्‌ 
“िसुग्राख्यं काळञ्जरमनुत्तमम्‌। सारस्वतं प्रभासं च रुद्रकर्णहद शुभम्‌॥ 


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2 १२४ - Rr पाझपुराणम्‌ # ३ 
कोकिलाख्यं महातीर्थ तीथं चेव मद्दालयम्‌ । हिरण्यगभं गोप्रेक्षं तीथ च 
उपशान्तं शिवं चैव व्याघेश्वरमचुत्तमम्‌ । त्रिलोचनं महातीथं छोकाक ३ 
कपालमोचनं तीथं ब्रह्महत्या घिनाशनम्‌ । शुक्रेश्वरं महापुण्यमानन्दपुुतर 
एवमादीनि तीर्थानि वाराणस्यां स्थितानि वे । 
न शक्यं विस्तराद्वक्तुं कल्पको टिशतेरपि ॥ १६॥ 
इति श्ीपाे महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे वाराणसी माहात्म्ये 
माहात्म्यघर्णनं नाम सपतत्रिशोऽध्यायः ॥ ३७॥ 


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अष्ट्रत्रिशो ऽध्यायः 
6 तोथ ९ 
गयातीर्थाधनेकतोथमाहात्म्यवणंनम्‌ | 
नारद्‌ उचाच । 
घाराणस्याश्च माहात्म्यं तस्यां तीर्थानि च प्रभो ! । 
कथितानि समासेन तीर्थान्यन्यानि खंश्टणु ॥ १॥ ः 
ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः | अश्वमेघमवाप्नोति गमनादेव भार्ण 


महानद्यामुपस्पृश्य तपेयेत्पितृदेवता: । अक्षयान्प्राप्नुया्लोकान्कुलं चेव सणस 
ततो व्रहासरो गच्छेदुब्रह्मारण्योपसेचितम्‌ । पुण्डरीकमचाप्नोति प्रमातमिश। 
सरसि ब्रह्मणा तत्र यूपथ्रेष्ठः समुच्छितः । यपप्रदक्षिणं छत्वा घाजपेयफर ही 
_ ततो गच्छेत राजेन्द्र धेनुकं लोकविथुतम्‌ । एकरात्रो षितो राजन्मयच्छेतिग्सी 
सवपापचिशुद्धात्मा सोमलोकं घजेदुधुघम्‌ । तत्र चिह् महाराज ! अद्यापि हि| 
'कपिला सहवत्सा. वै पर्वते विचरत्युत । सवत्सायाः पदान्यस्या दृश्यॅन्तेः्या | 
तेषूपस्पृश्य राजेन्द्र | पदेषु नपसत्तम ! । यत्किञ्चिदशुभं पापं तट 


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ऽध्यायः ] ३ गयातीथोच्चनेकतीथमाद्वात्स्यवर्णनम्‌ क 
हतो गृध्रवटं गच्छेत्स्थानं देवस्य शूनः । 
स्तायात्तु भस्मना तत्र सङ्गम्य बृषभध्चजम्‌॥ ११॥ 
रत भवेच्ीर्ण' अतं ड्वाद्शवाषिकम्‌ । इतरेषां तु चर्णानां सर्वपापं प्रणश्यति ॥ 
कत तत उद्यत पचत गीतनादितम्‌ । साचित्र तु पद्‌ तत्र दूश्यते भरतषभ ! ॥ 
तत्र सन्ध्यासुपासीत ब्राह्मण: सं शितत्रतः । 
उपास्ता हि भवेत्सन्ध्या तेन द्वादशवाषिकी ॥ १४॥ 

तत्रैव विश्रुतं भरतषेभ ! । तत्राभिगम्य मुच्येत पुरुषो योनिसङ्करात्‌ ॥ 
हष्णाबुभौ पक्षौ गयायां यो बसेन्नरः। पुनात्यासप्तमं राजन्कुलं नास्त्यत्र संशय 
छ्या वहवः पुत्रा यद्यप्येको गयां बजेत्‌ । यजेत वाऽभ्वमेधेन नील॑ घा वृषमुत्सजेत्‌ 
ततः फरगं त्रजेन्द्राजंस्तीर्थसेची नराधिप ! । 
अश्वमेधमचाप्नोति सिद्धि च परमां बजेत्‌॥ १८॥ 
तो गच्छेत राजेनद्र! धर्मपृष्ठं समाहित: | यत्र घमो महाराज! नित्यमास्ते युधिष्ठिरः ! 
तत्रामिसङ्गम्य घाजिमेधफळं लमेत्‌ । तनो गच्छेत राजेन्द्र व्रहाणस्तीर्थमुत्तमम्‌ ॥ 
हामिगम्य ब्रह्माणमचेयेन्नियतब्तः । राजसूयाश्वमेधाम्यां फळं प्राप्नोति भारत ! ॥ 
गरि राजगृहं गच्छेत्तीर्थसेची नराधिप ! | उपरुपृश्य ततस्तत्र कक्षीचानिच मोदते ॥ 
ण्या नेत्यक तत्र प्रागञि पुरुषः शुचिः । यक्षिण्यास्तु प्रसादेन सुच्यते ब्रह्महत्यया 
| ततो गच्छेद्रोसहस्रफलं लमेत्‌। नेत्यकं भुञ्जते यस्तु मणिनागस्य मानघः 
हकष्याशीचिषेणास्य न चिषं क्रमते नप ! । तत्रोष्य रजनीमेकां सर्वपापैः प्रसुच्यते ॥ 
हि गच्छेत ब्रह्मवे ! गौतमस्य घनं नृप!। अहल्याया हुदै स्नात्वा व्रजेत परमां गतिम्‌ 
कास्य श्रियं राजन्विन्दते श्रियमुत्तमाम्‌ तत्रोदपानो धर्म्मज्ञ! निघु लोकेषु विश्नुत 
झि तिमिषेकं कुर्चोत चाजिमेधमधाप्नुयात्‌। जनकस्य तु राजः कूपस्त्रिदशपूजितः ॥ 
पिषिकं कृत्वा च विष्णुलोकमधाप्नुयात्‌। ततो विनाशनं गच्छेत्सवेपापप्रमोचनम्‌ 
षाजिमेधमचाप्नोति सोमलोकं च गच्छति । 
गण्डकीं च समासाद्य सचेतीर्थेजलोद्भवाम्‌॥ ३०॥ 


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१२६ - ॐ पाझपुराणम्‌ # [३ 
बाजपेयमवाप्नो ति सूर्यलोक॑ च गच्छति । ततो भुवस्य धर्में ! समादिश 
गुह्यकेषु महाभाग ! मोदते नात्र संशयः । कर्मेदां तु समासाद्य नदीं सिद्दि 
पुण्डरीकमवाप्नोति सोमलोकं च गच्छति । 
ततो विशालामासाद्य नदीं त्रेलोक्यविश्चुताम्‌ ॥ ३३॥ 7 . 
अद्निष्टोममवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति । अथमाहेश्वरीं धारां समासाद्य न, 
अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्‌ । दिवौकसां पुष्करिणीं समासाय न. 
न दुर्गतिमवाप्नोति घाजपेयं च चिन्दति। माहेश्वरपदं गच्छेदुत्नह्मचारी सा 
माहेश्वरपदे स्नात्वा घाजिमेधफळं रमेत्‌ । तत्र कोटिस्तु तीर्थानां विश्रुता प्र 
कूर्मरूपेण राजेन्द्र ! अखुरेण दुरात्मना । हियमाणाऽऽहृता राजन्विष्णुना प्रमि 
तत्राभिषेकं कुर्वीत तीर्थकोट्यां नराधिप !। 
पुण्डरीकमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति ॥ ३६॥ . 
ततो गच्छेन्नरश्रेष्ठ स्थानं नारायणस्य च। सदा सन्निहितो यत्र हरिवेसति भाए! 
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः। आदित्या घसवो रुद्रा जनाद 
: . ` `° शालग्राम इति ख्यातो विष्णोरदुभुतकर्मण: । ३ 
अभिगम्य त्रिलोकेशं घरदं विष्णुमच्युतम्‌ ॥ ४२ ॥ | 
अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोक च गच्छति । तत्रोदपांनो धर्मज्ञ | सर्वपापप्रमोग| 
समुद्रास्तत्र चत्वारः कूपे सन्निहिताः सदा । तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र! न बापु] 
अभिगम्य महादेवं वरदं विष्णुमव्ययम्‌ । घिराजते यथा सोम ऋणे मतो युर्षि 
` ` जातिस्मर उपस्पृश्य शुचिः प्रयतमानसः । 
जातिस्मरत्वं प्राप्नोति स्नात्वा तत्र न संशय: ॥ ४६ ॥ 


"राजसूयस्य यज्ञस्य फळं प्राप्नोति मानव: । ततो गञ्छेत धर्मक्ष चम्पकार' 
(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digit y eGangotri 


पनिगोउभ्याय ] क्ष गयातीथाद्यनेकतीथेमाहात्म्यवर्णनम्‌ क्ष कः ५ 
हच खनीमेकां गोसहजफल छमेत्‌। अथ गोविन्दमासाध तीर्थ पाम 
पय रजनीमेकामझिष्टोमफर्छ लमेत्‌ । तत्र विश्वेश्वर दृष्ट्वा देव्या सह प 
| (बवदणयो रोकान्प्राप्जुयाङ्करतर्षम । तरिरात्रोपोषितस्तत्र अभिधोमफळं रमेत्‌ 1 
ह्याबसथमासाद्य नियतो नियताशनः । मनोः प्रजापतेछोकानाप्नोति भरतषभ ! ॥ 


| निष्टावासं खमासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ | 

| अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति ॥ ५६॥ 
दनं प्रयच्छन्ति निएायाः सङ्गमे नराः! ते यान्ति नरशादूळ! ब्रह्मलोकमनामयम्‌ 

र रमो घसिष्टस्य निज लोकेषु विश्रुतः । तत्राभिषेकं कुर्घाणो बाजपेयमचाप्नुयात्‌. 

कट समासाद्य देवयिंगणसेचितम्‌ । अश्वमेधमचाप्नोति कुल चेव समुद्धरेत्‌ ॥५६॥ 

ततो गच्छेत राजेन्द्र ! कौशिकस्य सुनेह दम्‌ । 

| तर सिद्धि परां प्राप विश्वामित्रोऽथ कौ शिकः ॥ ६० ॥ 

मासं वसेद्धीरः को शिक्यां भरतर्षभ !। अश्वमेधस्य यत्पुण्यं तन्मासेनाधिगच्छति 
बैतीयबर चेच यो वसेत महाहृदम्‌। न दुर्गतिमचाप्नोति विन्देदवहुसुचर्णकम्‌ ॥ 

परमभिगम्याथ घीराश्रमनिवा सिनम्‌ । अश्वमेधमवाप्नोति शक्रलोकं स गच्छति ॥ 

यां च समाखाद्य कूपं जिदशसेचितम्‌ । नरमेधस्य यत्पुण्यं तत्प्राप्नोति कुरूद्वह 

कालिकासङ्गमे स्रात्वा कौ शिक्यारुणयो यतः । 

त्रिरा्ोपोषितो विद्वान्सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ६५॥ - 

तीथेमासाद्य तथा सोमाश्रमं बुधः । कुम्मकर्णा्रमे ल्ात्वा पूज्यते भुचि मानव: 
तथा कोकामुखे सनात्वा ब्रह्मचारी समाहितः। २ 

जातिस्मरत्वं प्राप्नोति दृष्टमेतत्पुरातनेः ॥ ६७ ॥ 

| ` समासाद्य तार्थो भवति द्विज: | सरबेपाप विशुद्धात्मा स्वलोकं च गच्छति 

र मासाद्य सेव्यक्रोञ्चनिषदनम्‌। सरस्वत्यामुपस्पृश्य घिमानस्थो घिराजत ॥ 

| `" महाराज ! तीर्थ मुनिनिषेवितम्‌ । तत्राभिषेकं कुवीत सर्वपापेः प्रमुच्यते ॥ 


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रद TTT” [३७६ 


ब्रहातीर्थ समासाद्य पण्यं ब्रह्मपिसेषितम्‌। वाजपेयमचाप्नोति नरो नास्त्य | 
ततश्चम्पां समासाद्य भागीरथ्यां कृतोदकः । दण्डापेणं समासाद्य | 
। लाविढिकां ततो गच्छेत्पुण्यां पुण्यनिषेचिताम्‌ । 
बाजपेयमचाप्रोति विमानस्थश्च पूज्यते ॥ ७३ ॥ 
इति श्रीपाे महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे गयादितीथेमाददत्म्यिकध 
नामाष्टत्रिशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥ 


मणा 


एकोनचत्वारिशो ऽध्यायः 


सन्ध्यातीर्थाचनेकतीर्थमाहात्म्यवणनम्‌ | 
नारद्‌ उवाच । 

अथ सन्ध्यां समासाद्य सद्दियां तीर्थमुत्तमम्‌ । 
उपरुपृश्य नरो घिद्वान्भवेन्नास्त्यत्र' संशयः ॥ १ ¦ 
रामस्य च प्रसादेन तीर्थराजं छतं पुरा | तल्लौहित्यं समासाद्य विन्यादवहुपुरगी 
करतोयां समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। अश्वमेधमचाप्रोति शक्रलोकं च गछ 
गङ्गायास्त्बथ राजेन्द्र सागरस्य च सङ्गमे । अश्वमेधं दशगुणं प्रवदन्ति मनी] 
गङ्गायास्तु परं द्वीपं प्राप्य यः स्वाति भारत ! । 
त्रिरात्रोपोषितो -ऱाजन्सवेकाममवाप्नुयात्‌ ॥ ५॥ ` 
ततो वैतरणीं गत्वा नदीं पापप्रमोचनीम्‌.। विरजं तीर्थमासाच विराजति या! 
प्रभावे च कुल पूत्वा सचपापं व्यपोइति। गोसहस्रफलं लब्ध्वा पुनाति स्वर 
शोणस्य ज्योतिरथ्याश्च सङ्गमे निघसञ्छुचिः । |i 
तपयित्वा पितन्देचानय्निष्टोमफलं लमेत्‌ ॥ ८ ॥ 
शोणस्य नमंदायाश्च प्रभवे ब! । वंशगुल्मसुपस्पश्य बाजिमेधफलं व| 


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0 होतवत्वारिंशो$ध्यायः J» खन्ध्यातीर्थाद्चनेकतीथेमाद्वात्म्यवर्णनम्‌ # "१२ : | 
९ हीर्थमासाद्य कोशळायां नराधिप ! । घाजिमेघमवाप्नोति िराजोपोधितो नरः 
+ समासाच काठतीर्थमुपस्पृशोत्‌ | तृषसेकादशगुणं लभते नात्र संशय: ॥ 
य त्रिरात्रोपोषितो नरः । गोसहस्रफळ चिन्देत्कुलंचेच समुद्धरेत्‌॥ 
हो वदरिकाती्थ स्नात्वा प्रयतमानसः । दीर्घायुष्यमबाप्नोति खर्गलोक च गच्छति 
हो महेन्दरमासथि जामद्ग्न्यनिधेवितम्‌ । रामतीर्थे नरः स्ात्वा चाजिमेधफलं लमेत्‌ 
त्य तु केदारं तत्रेव भरतषेभ !। तत्र स्नात्वा, नरो राजन्गोसहर्फल लमेत॥१५॥ 
[पर्वत समाखाद्य नदीतीरमुपस्पृशेत्‌ । अश्वमेधमवाप्नोति परां सिद्धि च गच्छति ॥ 
श्रीपवंते महादेवो देव्या सह महायुति: । 


न्यवसत्परमप्रीतो ब्रह्मा च त्रिद्शेवृत: ॥ १७॥ 

व देवहदे खात्या शुद्धिः प्रयतमानसः । अश्वमेघमघाप्नोति परां सिद्धि च गच्छति 
म॑ पर्वतं गत्वा भाण्डेछु सुरपूजितम्‌ । वाजपेयमघाप्नो ति नाकपूऐे च मोदते ॥ 
ततो गच्छेत कावेरी वृतामप्सरसां गणैः । 

तत्र स्नात्या नरो राजन्गोसहस्रफलं लभेत्‌ ॥ २०॥ 

तीथे समुद्रस्य कन्यातीर्थमुपरपृरोत्‌। तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र ! सर्वपापैः प्रमुच्यते 
स गोकर्णमासाद्य त्रिषु लोकेखु विश्रुतम्‌ । समुद्रमध्ये राजेन्द्र ! सर्वछोकनमर्ङतम्‌ 
71५ ( ब्रह्मादयो देवा मुनयम्च तपोधनाः । भूतयक्षाः पिशाचाश्च किन्नराः समहोरगाः | 
हि| सिद्धचारणगन्धर्वा मानुषाः 'पन्नगास्तथा | 

सरितः सागरा: शैला उपासत उमापतिम्‌ ॥ २४॥ 

शं समभ्यच्ये तिराजोपो षितो नरः । दशाश्वमेघमाप्नो ति गाणपत्यं च चिन्दति 
| उपोष्य द्वाद्शरात्रं कृतार्थो जायते नरः । 

| तु गायत्र्याः स्थानं चैलोक्यविश्वुतम्‌ ॥ २६॥ 

| 'पुषितस्तत्र गोसहस्रफलं लभेत्‌ । निदर्शनं च प्रत्यक्षं ब्राह्मणानां नराधिप ! ॥ 
| गायत्री पठते यस्तु योनिसङ्करजो 'द्विजः। | 

| गाथा चा गीतिका बाणी तस्य सम्पद्यते नप ! ॥ २८॥ 


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00” 


ठक की क पाद्यपुराणम्‌ # , , (१ | | 

र .अत्राह्मणस्य पठत सावित्री तूपनश्यति । संवर्तस्य तु चिप्र्षेव | | 

रूपस्य भागी भवति सुभगश्चा भिजायते । तत्तो वेणां समासाय यतिन | 
2 विमानं लभते नरः । ततो गोदावरीं प्राप्य 

गवामयुतमाप्नोति चायुलोक॑ च गच्छति । 1 

बेणाया: सङ्गमे स्नात्वा घाजपेयफळं लमेत्‌ ॥ ३२॥ 

चरदासङ्गमे नात्वा गोसहस्रफळ.लमेत्‌। ब्रह्मस्थुणां समासाद्य le 

गोसहस्रफ्विन्देत्स्वगेछोकं च गच्छति । कुव्जाचनं खमासाद ब्रह्मचारी छर 
चिरात्रोपोषितः स्नात्वा गोसहस्रफलं भेत्‌ । 

ततो देवहदे स्तात्वा कृष्णवेणाजलोड्धजे ॥ ३५॥ 

ज्यो तिर्मात्रहुदे चैव तथा कन्याश्रमे नप ! । यत्र कलुशतेरिष्टूवा देचराजो कि 

अग्निष्टोमशतं चिन्देद्रमनादेव तत्र तु । सवंदेवहदे स्नात्वा. गोसहस्रफछं लमेत्‌।¦ 

जातिमात्रहदे स्नात्वा भवेज्ञातिस्मरो नरः । 

ततो चापीं महापुण्यां पयोष्णीं सरितां चराम्‌॥ ३८॥ 

पितृद्रेवाचेनरतोगोसहस्रफलं लमेत्‌। दण्डकारण्यमासाद महाराज ! उपसा 

शरभङ्गाश्रमं गत्वा शुकस्य च महात्मनः । न दुरे तिमवाप्नोति पुनाति स्वुडंग 

ततः सूर्यारकं गच्छेज्ञमदञिनिषेषितम्‌। रामतीर्थे नरः स्नात्वाचिन्देदवहुसुवर्ण 

सप्तगोदावरीं स्नात्वा नियतो नियताशनः । मह्दापुण्यमचाप्नोति देवलोक वर्ण 

ततो देवपथं गच्छेन्नियतो नियताशनः । देवसत्रस्य यत्पुण्यं तंदचाप्नोति मगे 

: तुझ्कारण्यमासादय. ब्रह्मचारी. जितेन्द्रियः । वेदानध्यापयत्तत्र मुनोन्सारख | 

तत्र वेदान्तप्रनधांस्तु मुनेरा ङ्गिरसः सुतः । उपचिष्टो महर्षीणामुत्तरीयेषु भार | 


पितामहश्च भगवान्देवेस्सह महाद्युतिः । भूगं नियोजयामास याजनाथ म] 
ततः स चक्रे भगवानृषीणां 'चिधिवत्तदा सु्वेषां, पुनराधानं 


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प्र 'चत्वारिंशो5घ्यायः ] नज सन्ध्यातीर्थाद्चनेकतीर्थमादात्स्यवर्णनम्‌ + क्या र ps 
.| आज्यभागेन वै तत्र तर्पितास्तु यथाविधि। 
' _ दैवात्त्रिसुवनं याता ऋषयश्च यथालुखम्‌ ॥ ५० ॥ 
| यं प्रविष्टस्य तुङ्गकं राजसत्तम ! । पापं विनश्यते स्यः 

| वं घसेद्वीरो . नियतो नियताशनः । ब्रह्मलोक न र के एम 
ननं समासाध पित॒देचांश्व तर्पयेत्‌ । अझिटटोममाप्नोति स्मृति मेघा च चिन्द्ति 
१ककालजरेईंगत्वा-गोसहस््रफळं लमेत्‌ । आत्मानं साधयेत्तत्र गिरौ कालञ्जरे नृप !॥ 
शोके महीयेत नरो .नास्त्यत्र संशयः । ततो गिरिवस्पश्रेष्े चित्रकूरे विशांपते.! ॥ 
मन्दाकिनीं समासाद्य नदीं पापविमोचनीम्‌ । 
अत्रामिषेकं कुर्वाणः पितृदेवाचने रत: ॥ ५६ ॥ 
मेधमवाप्नोति गति च परमां ब्रजेत्‌ । ततो गच्छेत राजेन्द्र ! गुहस्थानमचुत्तमम्‌ 
॥्‌ैवो महासेनो नित्यं सन्निहतो नृप ! । पुमांस्तत्र नरश्रेष्ठ | गमनादेच सिद्धयति 
कोटितीर्थे नरः स्नात्वा गोसहस्रफछं लमेत्‌। 
प्रदक्षिणसुपात्वृत्य शिवस्थानं घजेन्नरः ॥ ५६॥ 
गमिगम्य महादेचं विराजति यथा शशी । तत्र कूपो महाराज ! विश्रुतो भरतषेस !॥ 
समुद्रा यत्र चत्वारो निवसन्ति युधिष्ठिर !। 
| तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्‌ ॥ ६१ ॥ 
तृपतत्मा नरः पूतो गच्छेत परमां गतिम्‌ । ततो गच्छेत्कुरुश्रेष्ठ ! शउङ्गवेरपुरं महत्‌ ॥ 
: यत्र-तोर्णों महाप्राज्ञो रामो दाशरथिः पुरा । 
| गङ्गायां तु नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय: ॥ ६३ ॥ 
।पिपाप्मा भवति घाजपेयं च विन्दति । ततो मुञ्जचघट गच्छेत्स्थानं देवस्य धीमतः 
र्ष ग्य महादेवमभ्यच्ये च नराधिप ! । प्रदक्षिणसुपाबृत्य गाणपत्यमचाप्चुयात्‌ ॥ 


ह| भिएाश्च सिद्धाश्च निरताः पितरस्तथा । सतत्कुमारप्रमुखास्तथेच च महषेय: ॥. 
| तथा नागाः सुचर्णाश्च सिद्धाः शुक्रधरास्तथा । 


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.: ऋ. पाँझपुराणम्‌ # 

जह सरितः सागराश्वैव गन्थर्वाप्सरसस्तथा ॥ ६८ ॥ ) 
हर्श्चिमगवानास्तै प्रजापतिपुरस्छृतः | तत्र त्रीण्यपि कुण्डानि तयोमंध्ये | 
-्रयागात्समतिकान्ता सर्वतीर्थपुरस्कृता । तपनस्य सुता तत्र त्रिषु जोक | 
यमुना गङ्गया साद सङ्गता लोकभाविनी । गङ्गायसुनयोमेभ्ये पृथिव्या जा 
प्रयागं जघनस्यान्तमुपस्थस्ुषयो विदुः । प्रयागं खुपरतिष्ठानं कपया | 
तीर्थं भोगवती. चैच वेदी प्रोक्ता प्रजापतेः । तत्र वेदाश्च यज्ञाश्च मूतिमन्तो ग 
प्रज्ञापतिमुपासन्तं ऋषयश्च महानधाः । यजन्ते क्रतुमिदेवांस्तथा रर्‌ १ 
ततः पुण्यतमं नास्ति निषु लोकेषु भारत! प्रयागं सवेतीथेम्यः प्रभावेणाकि, 
श्रवणात्तस्य तीर्थस्य नामखड्डीतंनादपि। मूर्धकानमनाद्वापि सर्वपाप रन 
तत्राभिषेकं यः कुर्यात्सङ्गमे संशितव्रतः । पुण्यं लुमहदाप्नोति राजसूय 
एषा यजनभूमिदि देवानामपि तत्कथा । दत्तं तत्र स्वल्पमपि मदद्दवति गर 
न देवचचनात्तात न. लोकवचनादपि । मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं शै; 
दशतीर्थसह्नाणि षष्टिकोट्यस्तथापराः । येषां खा न्निध्यमत्रेच कीत्तितं कु 
चतु्ि्ये च यत्पुण्यं सत्यवादिषु चैव यत्‌ | स्नातण्व तदाप्नोति 

ततो भोगवती नाम घासुकेस्तीर्थसुत्तमम्‌। 
तत्राभिषेकं यः कर्यात्सो ऽश्वमेधमचाप्नुयात्‌ ॥ ८२॥ 


_ १३२ [ ३३३ ( 


कुरुक्षेत्रसमा गङ्गा यत्रतत्राघगाहिता । चिदोषोबे कनखले प्रयागं परमं महत्‌। 
यद्यकारयंशतं इत्वा कृतं गङ्गाघसेवनम्‌ । सर्व॑तत्तस्यगड्भापोद्हन्त्यनिजिल 
सर्च दहन्ति गङ्गापस्तूलराशिमिचानलः । सवं कृतयुगे पुण्यं त्रेतायां पुरं] 
द्वापरे तु कुरुक्षेत्र गङ्गाकलियुगे स्मरता । पुष्करे तु तपस्तप्यद्वानं दयार 


मळये त्वग्निमारोहेदुश्शुतुङ्गे त्यनाशनम्‌ । पुष्करे तु कुरुक्षेत्र गङ्गापोमणै 
सद्यस्तारयते जन्तुः सप्तसप्तावरांस्तथा । 
पुनाति कीतिता पापं द्रष्ट्या पुण्यं प्रयच्छति॥ ८६॥ : 


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| 


र| _ववासिशोऽभ्यायः 14 सन्ध्यातीर्थाद्यनेकतीथमाहवात्स्यघर्णनम्‌ # . १३३ 

| अवगाढ्ा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुल्मू्‌। `. | छट 
हक. याबदस्थि मनुष्यस्य गङ्गायाः स्पृशते जलम्‌ ॥ ६०॥ ` 
तव पुरषो राजन्स्वगेलोके महीयते । यथा पुण्यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि चं 

| उपास्य पुण्यं छब्ध्चा च भवति परलोकभाक्‌। 

न गङ्गसिद्वशं तीर्थ न देवः केशचात्परः ॥ ६२ || | 
म्यः परं नास्ति एवमाह पितामह: । यत्र गङ्गा महाराज ! सदेशस्तत्र योजनम्‌ 
शत्रं च चिज्ञेयं गङ्कातीरसमागतम्‌ । इद्‌ सत्यं द्विजातीनां साधूनां मानसेषु च ॥ 
वेब जपेत्कर्णे शिष्टस्यानुगतस्य च । इदं धम्मेमिदं मेध्यमिद्‌ स्वगं मिदं सुखम्‌ ॥ 
त इदं पुण्यतमं रम्यं पाचनं धर्म्यमुत्तमम्‌ । | 
महर्षीणामिदं गुह्यं सर्वपापप्रमोचनम्‌ ॥ ६६ ॥ 

द्विजमध्ये च निमेलत्वमवाप्नुयात्‌ । श्रीमत्स्वर्ग्य महापुण्यं सपलशामनं शिवम्‌ | 
ग्य वै तीर्थेबंशानुकीत्तेनम्‌ । अपुत्रो लभते पुत्रमधनो धनमाप्लुयात्‌॥ 
महीं विजयते राजा वेश्यो धनमाप्नुयात्‌ । 


शूद्रो याती प्सितान्कामान्त्राह्मणः पारगः पठन्‌ ॥ ६६॥ 
छिदं शणुयाञ्नित्यं तीर्थपुण्य सदा शुचि । जातिस्मरत्वमाप्नोति नाकपृष्ठे च मोदते 


भाषितेः कारणैः पूवेमा स्तिक्यच्छु ,तिदर्शनात्‌ । 

| प्राप्यन्ते तानि तीर्थानि सद्भिः शिष्टानुदशिमिः ॥ १०४॥ 

ह| नाक्ृतात्मा च नाशुचिनेच तस्करः । स्वाति तीर्थेह कौरव्य ! न च घक्रमतिनेरः 
t "ए सम्यग्वृत्तेन नित्यं धर्मार्थदशिना । पितरस्तपितास्तात सर्व च प्रपितामहाः ॥ 


| पुरोगाञ्च देवाःसषिगणास्तथा । त्वं च धर्मेण घमंज्ञ ! नित्यमेचासितोषितः 
| ` दिलीपकीति महतीं प्राप्स्यसे सुषि शाश्वतीम्‌। 


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2 १३४ ११. 2 00. , , कै पाझपुराणम्‌ ऋ ` [इक १ 
एवसुक्तवा5म्यचुज्ञाऱ्य वसिष्ठो भगवान्षिः ॥ १०८॥ 
` प्रीतः प्रीतेन मनसा तत्रैवान्तरथीयत। दिलीपः कुरुशादू ल ! शास्त्रत 
वसिष्ठवचनाच्चैव एथिचीमलुचक्रमे । एवमेषा महाभाग ! प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठित i | 
तीर्थयात्रा महापुण्या सर्वपापप्रमोचनी । अनेन विधिना यस्तु पृथिषाँ हई 
अश्वमेधशतं साग्रं फळं प्रत्येष भोक्ष्यते । ततश्चाष्टणुणं पाथ ! प्राप्स्यसे घर| 
दिलीपः पार्थनप तियेथा, पूवेमवा्तवान्‌। 
नेता च त्वस्ृषीन्यस्मात्तस्मात्तेऽएणुणं फलम्‌ ॥ ११३॥ 
रक्षोगणविकीर्णानि तीर्थोन्येताति भारत ! । नग तिरविद्यतेऽन्यस्य त्वामृते 


ऋषिसख्याः सदा यत्र घादमीकिरुत्वथ कश्यपः । 
आत्रेयस्त्वथ कौण्डिन्यो विश्वामित्रोऽथ गौतमः ॥ ११॥ 
असितो देवलश्चैव मार्कण्डेयोऽथ गालवः । भरद्वाजस्य शिष्यश्च मुनिरुहाहरुङ 
शौनकः सह पुत्रेण व्यासश्च तपतांवरः । दुर्वासाश्च सु निश्रेष्ठो जावारिश्च माग 
एते ऋषिवराः सब त्वतप्रतीक्षास्तपोधनाः। एभिः सह महाभाग! तीर्थात्येत 
प्राप्स्यसे महतीं कीति यथा राजा महाभिषः | 
यथा ययातिर्धर्मात्मा यथा राजा पुरूरचाः ॥ १२० ॥ 
तथा त्वं कुरुशांदू ल ! स्वेन धर्मेण शोभसे । [ 
यथा भगीरथो राजा यथा ' रामश्च चिश्चतः ॥ १२१ ॥ | 
यथा वे वृत्रहा सर्वान्सपत्नानदहत्पुरा । त्रैलोक्यं पालयामास देवराङ्विग्| 
तथा शत्रुक्षयं इत्वा त्वं प्रजाः पाळयिष्यसि। 
स्वधर्मेणाजितामुवी प्राप्य राजीचलोचन !। 
ख्याति यास्यसि चीर्यण कात्तेवीर्याजुनो यथा ॥ १२३॥ 
सूत उचाच । 
एवमाभाष्य राजानं नारदो भगवानृषिः । अनुज्ञाप्य. महाराजं 


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` ोऽ्याय ] » शौनकादीनां सूतम्प्रति प्रश्नः # . .. | RE 
| युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा ऋषिभिः सह सुचत: । र i 

ज्ञगामाखिळतीर्थी नि साद्रः पृथित्रीपतिः ॥ १२५॥.... 

। कासषयः सर्वे तीर्थयात्रायां कथाम्‌। यः पठेच्छणुयाद्वापि स सुक्तःसर्वपातकेः ` 

. मयोक्तमखिलं तत्त्वं कि भूयः श्रोतुमिच्छथ । 

ऋषीण्णं पुण्यकीर्तीनां नावक्तव्यं ममा स्ति चे ॥ १२७॥ . 

इति श्रीपाय महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे नानाविधतीर्थकथनं 

नाभैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥ 


चत्वारिशो ऽध्यायः 
` ग्रयागस्य विशेषमाहात्म्यजिज्ञासया शौनकादीनां प्रश्नः । . 
सूत उघाच । 


ुक्तानि तीर्थानि चिष्णुदेहानि सुव्रताः । एषामन्यतमासङ्गान्मुक्तो भवति मानव: 
गर्धानुभ्रवर्ण घन्यं धन्यं तीर्थेनिषेबणम्‌ । पापराशिनिपाताय नान्योपायः कली युगे 
पं कुर्य्यामहं तीर्थे तीर्थेस्पशेमहं तथा । एवं योऽचुदिनं व्रते स याति परमं महत्‌॥ 
पापानि तस्य नश्यन्ति तीर्थालापनमात्रतः | 

| तीर्थानि खलु धन्यानि घन्यसेव्यानि सुव्रताः ॥ ४॥ 

धानां सेषनादेच से वितो भवति प्रभुः । नारायणो जगत्कर्ता नास्ति तीथात्परं पदम्‌ 
ब्राह्मणस्तुङली चैव अश्वत्थस्तीर्थसञ्चयः । 

विष्णुश्च परमेशानः सेव्य एच सदा टमिः ॥ ६ ॥ | 

|सिणनां विशेषेण सेचनं सुनिपुङ्गघाः । सर्वतीर्थाधगाहादेरधिक चिदुरग्रजञाः ॥9॥ 
| साक्षात्सवेतीर्थमयं शुभम्‌ । भजेतानुदिनं विद्वांस्तत्र तीर्थाधिक भवेत्‌ 
| प्यस्य तुळस्याश्च गवां कुर्यात्प्रदक्षिणम.। सवेतीर्थफलं प्राप्य चिष्णुलोके महीयते' 


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२ | २ क पाघपुणणम ९... -.-« पा 
` .  'तस्माददुष्छृतकर्माणि नाशेत्तीथंसेचनात्‌। .. 
अन्यथा नरकं याति कम्मेभोगाद्धि शास्यति॥ १०॥ 
पापिनां नरके घासः खुछती स्वर्गमश्नुते । तस्मात्पुण्य निषेवेत तीर्थ खलु हि| 
. ऋषय ऊल्ः। ` | 
श्रतानि किल तीर्थानि समाहात्म्यानि खुत्रत !। 
इदानीं श्रोतुमिच्छामः प्रयागस्य घिरोषकस्‌॥ १२॥ 
प्रयागं तु पुरा प्रोक्तं संक्षेपात्सूत ! यत्त्वया । 
विरोषाच्छोतुमिच्छामः सूत! नः कथ्यतामिति ॥ १३॥ 
सूत उवाच । 
साधु पृष्टं महाभागाः प्रयागं प्रति सुवताः। हन्ताहं घत्प्रवक्ष्या मिप्रयागस्योपरा 
माकण्डेयेन कथितं यत्पुरा पाण्डुसूनचे । भारते तु तदा वृत्ते प्राप्तराज्ये पथा 
स्मिन्नन्तरे राजा कुन्तीपुओयुधिष्ठिरः । श्रातशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयंस्तु पुनः ए 
आसीदुदुयोधनो राजा. एकादशचमूपतिः । अस्मान्सन्ताप्य बहुशः सवे ते निधनं ए 
घाखुदेवं समाश्रित्य पञ्चरोषास्तु पाण्डवाः । 
कथं द्रोणं च भीष्मं च कणं चेच महाबलम्‌ ॥ १८॥ 
दुर्योधनं च राजानं भ्रातूपुत्रसमन्वितम.। राजानो निहताः सर्वे थेचान्ये शर्मा 
कि नो राज्येन कर्तव्यं कि भोगैर्जीवितेन चा । | 
धिक्कष्टमिति सञ्चिन्त्य राजा चिहलतां गत: ॥ २०॥ 
निशचे्टोऽथ निरुत्साहः किञ्चित्तिष्ठत्यधोमुखः । 
लब्धसंज्ञो यदा राजा चिन्तमानः पुनः पुनः ॥ २१ ॥ ॥ 
कं चरे विधिनायोगं नियमं तीर्थमेव चा । येनाहं शीघ्रमामुच्ये महा ॥॥ 
यत्र खात्वा नरो याति विष्णुलोकमनुत्तमम्‌ । | 
कथं पृच्छामि वे छृष्णं येनेदं कारितं महत्‌ ॥ २३ ॥ E 
इतराषट्र कथं पृच्छे यस्य पुत्रशतं. महत्‌ । व्यासं कथमहं पृच्छे. यस्य गात्रक्षण | 


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॥ब तत्र महात्मानः समेताः पाण्डचाशचिताः । कुन्ती च द्रौपदी चैष ये च तत्र समागताः 
भूमी निपतिताः सर्वे रोदमानाः समन्ततः | 


बाराणस्यां तु मार्कण्डस्तेन ज्ञातो युधिष्ठिरः ॥ २७॥ 
गा विद्लवमापन्जो रोदमानः सुदुःखितः । अचिरेणेच कालेन मार्कण्डस्तु महातपाः 
हस्तिनापुरमायातो राजद्वारे स तिष्ठति। 

द्वारपालोऽपि सं दृष्ट्या राज्ञः कथितवान्दुतम्‌ ॥ २६ ॥ 
त्वां द्रष्टुकामो मार्कण्डो द्वारे तिष्ठत्यसौ मुनिः । 
त्वरितो धर्मपुञस्तु द्वारमेत्याह तत्परः ॥ ३० ॥ 
ड युधिष्ठिर उघाच | | 
सेहत ते महाप्राज्ञ ! स्वागतं ते महामुने !। अद्य मे सफळं जन्म अद्य मे पावितं कुलम्‌ 
मे पितरस्तृप्तास्त्वयि दृष्टे महामुने । सिंहासन उपस्थाप्य पादशौ चार्चना दिभिः ॥ 
छू युधिष्ठिरो महात्मा वै पूजयामास तं सुनिम्‌। ` 

| ततस्तमूने मार्कण्डः पूजितोऽहं त्वया घिभो ! ॥ ३३॥ 
आख्याहि त्वरितो राजन्किमर्थ त्वरितं त्वया | 
केन वा विक्लचीभूतः कथयस्व. ममाग्रतः॥ ३४ ॥ 
युधिष्ठिर उवाच । 
कं चैव यदुवृत्तं राज्यस्यार्थे महामुने ! । एतत्स्रै विदित्वा तु भगवानिह चागतः 
| माकण्डेय उबाच। | 
| जन्मद्दाबाहों यत्र धर्मो व्यवस्थितः । नेव दृष्टं रणे पापं युध्यमानस्य धीमतः 
बघ आराजधर्मेण क्षत्त्रियस्य घिशेषतः । तदेवं. हृदयेक्कत्वा तस्मात्पापं न चिन्तयेत्‌ 
| ततो युश्रिष्ठिरो राजा प्रणम्य शिरसा सुनिम्‌। 

| च्छामि त्वां मुनिश्रेष्ठ | सदा तैकाल्यद्शेनम्‌ । 
“| अ्थयस्व समासेन सुच्येऽहं ये न किल्बिषात्‌ ॥ ३८॥ 


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ऋ पाद्यपुराणम्‌ ऋ 
मार्कण्डेय उवाचं। 
अएणुराजन्मद्दाभाग [ यन्मां पृच्छसि भारत !। 
एवं साङ्ख्यं च योगं च तीर्थं चैव युधिष्ठिर ! | ३७॥ . 
` कि पुनर्त्राह्मणैः पुण्यैः कीतितं वे पुरा बिभो! । प्रयागगमनं श्रेष्ठ नराणां पुण्या 
इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डै मार्कण्डेययुधिष्ठिरसंदादवर्ण 
चत्वाररिशोऽध्यायः ॥ ४० 1. 


क 


RR: - 


एकचत्वारिशोऽष्यायः 
विस्तरेण ग्रयागमाहात्म्यवर्णनस्‌ । ` 
युधिष्ठिर उचाच । 
भगवञ्छोतुच्छामि पुराकदपे यथास्थितम्‌। कथं प्रयागगमनं नराणां तत्र कोह 
सृतानां का गतिस्तत्र स्नातानां चैव कि फलम्‌ । 
ये बसन्त प्रयागे तु ब्रूहि तेषां च कि फलम्‌ । एतन्मे सर्वमाख्याहि परंको तूहं 
मार्कण्डेय उबाच । । 
कथयिष्यामि ते वत्स ! प्रयागस्य तु यत्फलम्‌ । 
पुरा ऋषीणां चिप्राणां कथ्यमानं मया श्रुतम्‌॥ ३॥ । 
आप्रयागात्प्रतिष्ठानाद्वमेकीषासुकीहदात्‌ । कम्बळाश्वतरौ नागौ नागाश्च हु] 
एतत्प्रजापतिक्षेत्रे त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ । 
अन्न स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्ते पुनभेचाः॥ ५॥ 
तत्र ब्रह्मादयो देवा रक्षां कुचेन्ति सङ्गताः। अन्ये च बहचस्तीर्थाः सरवपाप | 
नशक्याः कथितुं राजन्बहदवर्षशतेरपि। संक्षेपेण प्रचक्ष्यामि प्रयागस्य व|. 
षष्टिधेनुः सहस्ताणि परिरक्षन्ति जाइवीभ.। यमुनां रक्षति सदा सविता सा । 


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री...“ ।  ॥॥ । 

ठु विशेषेण स्चयं रक्षति वासवः । मण्डल रक्षति हरिदेवेः सह सुखंमतम्‌ ॥' ` 

(६८ रक्षते नित्यं शूलूपाणिमहिश्वर: । स्थानं रक्षति वै देवः सर्वपापहरं शुभम्‌॥१०॥ - 

रेण सतो लोके नेव गच्छति तत्पदम्‌ । स्वल्पमट्पतर पापं यदा तस्य नराधिप!॥ 

यागं स्मरमा एास्य सर्वेमायाति संक्षयम्‌ । दर्शनात्तस्य तीर्थस्य नामसड्धीतेनादपि ॥ 
झत्तिफालभनाद्वापि नरः पापाद्विमुच्यते । : 

पश्चकुण्डानि राजेन्द्र ! येषां मध्ये तु जाहबी ॥ १३ ॥ 

हो तु प्रधिष्टस्य पापं क्षरति तत्क्षणात्‌ । योजनानां सहत्तेषु गङ्ग स्मरति यो नरः 

अपि दुष्छतकर्माऽसौ लभते परमां गततिम्‌। 

कीतंनान्सुच्यते पापैद्व ष्ट्वा भद्राणि पश्यति ॥ १५ ॥ 

अवगाह्य च पीत्वा च पुनात्यासप्तमं कुलम्‌ । 

सत्यवादी जितक्रोधो अहिंसां परमां स्थितः ॥ १६॥ 

सारी तत्त्वज्ञो गोत्राह्मणहिते रतः। गङ्गायसुनयोर्मध्ये स्नातो मुच्येत किल्बिषात्‌ 

मनसा चिन्तितान्कामान्सम्यक्प्राप्नोति पुष्कलान्‌ 

ततो गत्वा प्रयागं तु सर्वेदेवाभिरक्षितम्‌ ॥ १८॥ 

प षसेन्मासं पितुदेवांश्व तर्पयेत्‌ । ईप्सिताँल्‍लभते कामान्यत्र तत्राभिजायते 

तिस सुता देवी त्रिछु लोकेषु विश्रुता । समागता मद्दाभागा यमुना यत्र निम्नणा ॥ 

हिसन्निहितो नित्यं साक्षाद्देवो महेश्वरः । दुष्प्रापं मादुः पुण्यं प्रयागं तु युधिष्टिर! 

चिनषगन्धर्षां श्रषयः सिद्धचारणा:। तत्रोस्पृश्य राजेन्द्र | स्वर्गलोक सुख गताः ॥ 

इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वगंखण्डे प्रयागमाहात्म्यचर्णनं 

नामेकचत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४१॥ 


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' द्विचत्वारिंशो ऽध्यायः 
प्रयागतीर्थे दानादिमहिमावर्णनम्‌ | 

मार्कण्डेय उवाच । ० 
णु राजन्प्रयागस्य माहात्म्य॑ पुनरेव तु । यं शरुत्वा खवेपापेभ्यो मुच्यते नाइ 
आर्तानां च दरिद्राणां निश्चितव्यवसायिनाम्‌। 
स्थानं मुक्त्वा प्रयाग तु नाक्ष्य तु कदाचन ॥ २॥ 1 
गङ्गायमुनमासाद्य यस्तु प्राणान्परित्यजेत्‌ ॥ दीत्तकाऱ्यनवर्णाभे विमाने सूयत त 
गन्धर्वाप्सरसाँ मध्ये स्वर्ग मोदति मानवः । ईप्सितालभते कामान्वदन्ति ञि 
सर्वरत्नमयै िव्यैर्नानाध्वजसमाकुलैः । वराङ्गनासमाकी णमोदते शुभरुक्षणः॥॥॥ 
गीतवादित्रनिर्घोषैः प्रसुप्तः प्रतिवुध्यते। याचन्न स्मरते जन्म ताघत्स्वग पे 
तत्र स्वर्गात्परिश्रष्टः क्षीणकर्मा दिचश्च्युतः | हिरण्यरत्नसस्पूर्णे समृद्ध जायते | 
तदेव स्मरते तीर्थस्मरणात्तत्र गच्छति । देशस्थो यदि चारण्ये घिदेशे यदि पाश 
प्रयागं स्मरमाणो5पि यस्तु प्राणन्परित्यजेत्‌। | 
स ब्रह्मलोकमाप्तोति चदन्ति ऋषिपुङ्गवाः ॥ ६॥ 
सर्वेकामफलांवृत्ता मही यत्र हिरण्मयी । ऋषयो सुनयः सिद्धा यत्र लोके प्राची 
स््रीसहस्नाकुले रम्ये मन्दाकिन्यास्तरे शुभे । मोदते ऋषिभिः साद सवइ 
सिद्धचारणगन्ध्े पूज्यते .दिषि देवतैः । ततःस्वर्गात्परिम्रष्टो जम्वूढीपपतिरि 

ततः शुभानि कर्माणि चिन्तमानः पुनः पुनः । 
रुणघान्वित्तसम्पन्नो भघतीह न संशयः ॥ १३॥ 
कमेणा मनसा चाचा सत्यधमेप्रतिष्ठित: । गङ्गायमुनयोमध्ये यस्तु दानं परक 

खुवणे मणिमुक्ता चा यदि धान्यं प्रतिग्रहम्‌ । 

स्वकाय पितृकार्ये बा देवताभ्यचेनेऽपि चा ॥ १५॥ 


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'वतवायिशोश्‍ध्यायः i प्रयागमाहात्म्यचर्णनम्‌ क 

प्रेतेषु च सर्वेषु अप्रमत्तो द्विजो भवेत्‌ । कपिला 

स्वर्णश्उङ्गीं रोप्यखुरां चैलकण्डीं पयस्िनीम्‌ । 

प्रयागे अर साधुं ग्राहयित्वा यथाविधि ॥ १८ ॥ | 

शठाम्वरघर शोन्त धसंज्ञ वेदपारगम्‌ । सा गौस्तस्मै च दातव्या ङ्ग नसङ्ग 

| वासांसि च महाहांणि रत्नानि चिचिधानि च। वि क > 

| याचद्रोमाणि तस्या गोः सन्ति गात्रेषु सत्तम ! ॥ २०॥ 

तवद्रपेसददस्ताणि स्वर्गलोके महीयते । यत्रास्त लभते जन्म सागौर्तत्रा भिजायते ॥ 

$| बपश्यत्यसौ घोरं नरकं तेन कर्मणा । उत्तरान्सकुरुन्प्राप्य मोदते कालमक्षयम्‌ ॥ 

1 लांशतसहल्ेभ्यो दयादेकां पयस्थिनीम्‌ । पुत्रान्दारांस्तथा भृत्यान्गौरेका प्रतितारयेत्‌ 

।' ह्मात्सर्वेघु दानेछु गोदानं तु विशिष्यते | दुगमे चिषमे घोरे महापातकसम्भवे | 
गोरेच रक्षां कुरुते तस्माद्देया द्विजातये ॥ २४॥ 

इति श्रीपाद्दो महापुराणे तृतीये स्वगंखण्डे प्रयागमाहात्म्यचर्णनं नाम 

द्विचत्वारिंशो ऽध्यायः ॥ ४२ ॥ 


निचत्वारिंशो ऽध्यायः 


अयागमाहात्म्यवर्णनम्‌ | 

| युधिष्टिर उघाच । 

| सुने माहात्म्यं कथितं त्वया । तथा तथा प्रमुच्येऽहं सर्वपापैर्न संशय: 
£| पिकेन विधिना गन्तव्यं धर्म निश्चयैः। प्रयागे यो विधिः प्रोक्तस्तं:मे त्र हि महामुने 
ह ` 9 मार्कण्डेय उघाच। SR 
"9 मितेवत्स! तीर्थयात्राविधिक्रमम्‌ । यो गच्छेतकुरुश्रेष्ठ प्रयागं देवसंयुतम्‌ 


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हे यलीचर्दसमारूढः श्ग्णु तस्यापि यत्फलम्‌ । वसते नरके घोरे गवां क्रोधे म 
' सलिलं च न गृह्णन्ति पितरस्तस्य देहिनः । | 
यस्तुं पुत्रांस्तथा बाळान्स्नापयेत्पाययेत्तथा ॥ ५॥ 
यथात्मनस्तथा सर्वान्दानं विप्रेंषु दापयेत्‌ | ऐश्वर्येलोभान्मो हाह्वा गच्छेन 
निष्फलं तस्य तत्तीर्थं तस्माद्यानं परित्यजेत्‌ । १ 
गङ्गायमुनयोमंथ्यै यस्तु कन्याँ प्रयच्छति ॥ ७॥ । 
आर्षेण तु विधानेन यथाविभवसम्भवम्‌ | न पश्यति यसं घोरं नरकं तेन सप 
उत्तरान्सकुरून्गत्वा मौदते कालमक्षयम्‌ । पुत्रांस्तु दाराँलभते धामिकाल्नयसंयु् | 
तत्र दानं प्रदातन्यं यथात्रिसवसम्भवम्‌ । तेन तीर्थफलेनेच चद्धते नात्र संशयः i 
स्वर्गे तिष्ठति राजेन्द्र ! यावदाभूतसम्प्छचम्‌। 
चरमूळं समाश्रित्य यस्तु प्राणान्परित्यजेत्‌ ॥ ११॥ 
सर्वळोकानतिक्रम्य रुद्रलोकं च गच्छति । तत्र ते द्वादशा दित्यास्तपन्ते २ 


सदा सेवन्ति तत्तीथं गङ्गायमुनसङ्गमे । तत्र गच्छन्ति राजेन्द्र प्रयागं संयुतं २१ 
तत्र ब्रह्मादयो देवा दिशाश्चेव दिगीश्वराः । लोकपालाश्च साध्याश्च पितरो ठोकली 


तथा नागाश्च सिद्धाश्च सुपर्णाः खेचराश्च ये। 

सरितः सागराः शेळा नागाचिद्याधरारुतथा ॥ १८॥ 
हरिश्च भगवानास्ते प्रजापतिपुरस्क्ृतः। गङ्गायसुनयोमंध्ये पृथिव्या जघनं स्य | 
प्रयागं राजशादूल! त्रिषु लोकेषु विशनुतम्‌ । ततः पुण्यतमं नास्ति त्रिषु ठवे 
अवणात्तस्य तीर्थस्य नामसङड्कीतनादपि। स्त्तिकालम्भनाद्वापि नरः परऽ 
तत्राभिषेकं यः कुर्यात्सङ्गमे संशितबतः । तुल्य फलमवाप्नोति राजसूया | 
न वेद्चचनात्तात न छोकवचनादपि । मतिरत्क्रमणीया ते प्रयागगमनं रि | 


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: वत्वारिशोऽ्यायः ] ह. पयागमाहात्म्यचर्णनम्‌ # २ व १७३ 
हसा [ह्माणि षष्टिकोट्यस्तथा पराः | येषां सान्निध्यमञ्जैव कीतेनात्कुरुनन्द्न 3 | 
शि | (गतियाँगयुक्तस्य सदढुत्थस्य मनी षिण: | सागतिस्त्यजतः पराणान्यङ्गायमुनसङ्गमे ॥ 
ते न जीवन्ति लोके5स्मिन्यत्र यत्र युधिष्ठिर! | . 

ये प्रयागं न सम्प्राप्तास्त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ ॥ २६ ॥ 

2 दृष्ट्वा तु तत्तीर्थे प्रयागं परमं पदम्‌ । मुच्यते सर्वपापेभ्य 
ह्वढाश्वतरी नागौ यसुनादक्षिणे तरे । तत्र नात्वा च पीत्वा च मुच्यते सर्वपातकैः 
ब्र गत्वा तु तत्स्थानं महादेचस्य घीमतः | नरस्तारयते सर्घान्द्शातीतान्दशापरान्‌ ॥ 
कन ह्वाउमिषेक तु नरः सो ऽश्वमेधफलं लभेत्‌ । स्वर्गलोकमबाप्नो ति यावदाभूतसम्प्लचम्‌ 
| पा तु गङ्गायां न्रिषु लोकेषु भारत ! । कूपं चेव तु सामुद्रं प्रतिष्ठानं तु विश्रुतम्‌, 
वारी जितक्रोधल्विरात्र यदि तिष्ठति | सवेपाप विशुद्धात्मा सोऽश्वमेधफलं लभेत्‌ 
्रतिष्ठानाङ्गागीरथ्यास्तु पूर्वतः । हंसप्रपतनं नाम तीर्थ त्रैलोक्यविश्वतम्‌ ॥ 
बायोधफल तस्मिन्स्नातमात्रस्य भारत ! । याबचन््रश्च सूर्यश्च ताचत्स्वर्ग महीयते ॥ 
आ§शीपुलिने रम्ये विपुले हंसपाण्डुरे । सलिलेस्तपंयेद्यस्तु पितृ स्तत्र विमत्सरः ॥ 
उ|्विपसहस्ताणि षष्टिवर्षशतानि च । सेवतेपितृमिः साहू स्वर्गलोकं नराधिप ! ॥ 
पूज्यते सततं तत्र ऋषिगन्धर्चंकिन्नरैः | 

ततः स्वर्गेपरिश्रएः क्षीणकर्मा दिचशच्युतः ॥ ३७॥ 

शीसदूशीनां तु कन्यानां ल भते शतम्‌ । गवां शतसहस्राणां भोक्ता भचति भूमिप ॥ 
ग्थीनूपुरशब्देनखुप्तो ऽसौ प्रतिबुध्यते । सुर्वातुविपुलान्मोगांस्तत्तीर्थलभतेपुनः ॥ 
पनधरोनित्यं नियतःसंयतेन्द्रियः | एककाल तु भुज्जानो मासं भोगपतिर्भवेत्‌ ॥ 
सुवर्णालङ्छतानां तु नारीणां लभते शतम्‌ । 

पृथिव्यामासमुद्रायां महाभोगपतिभवेत्‌ ॥ ४१ ॥ 

अदल्ाणां भोक्ता भवति भूमिप! । धनधान्यसमायुक्तो दाता भवति नित्यशः 
स भुक्तवा चिपुलान्भोगांस्तत्तीथ स्मरते पुनः । 

अथ तस्व उरः बारी, जितेल्दिय/.]॥ Biles by ००,5०0 


: शशाङ्क इव राहुणा ॥ 


त ७ | क पाझपुराणम्‌ # 2 [३ 
' उपोष्य योगयुक्तश्च ब्रह्मज्ञानमघाप्नुयात्‌ । ` 
« कोरितीर्थ समासाद यस्तु प्राणान्परित्यजेत्‌ ॥ ४४॥ 
कौटियर्षसहल्लाणि स्वर्गलोके महीयते । ततः स्वर्गात्पस्थ्रिष्टः क्षीणकर्मा | 
खुवर्णमणिमुक्ताढ्ये कुळे भवति रूपवान्‌ । ततो भगवतीं गत्वा | | 
दशाश्वमेघकं तत्र तीथं तत्रापरं भवेत्‌ । कृत्वाऽभिषेकं तु नरः सो$ 
घनाढ्यो रूपवान्दक्षो दाता भवति धार्मिकः । | 
चतुर्वेदेषु यत्पुण्यं सत्यवादिषु यत्फलम्‌ ॥ ४८ ॥ | 
अहिंसायां तु यो घमो गमनादेव तद्गवेत्‌। कुर्स्तेचलमा गङ्गा यत्र तशा 
कुरुक्षेत्राशगुणा यत्र सिन्थ्वा समागता | यत्र शङ्का महाभागा वहुतीथतपोफ़ 
सिद्धक्षेत्र हि तज्ज्ञेयं नात्रकार्या घिचारणा । 
क्षितौ तारयते मर्त्यान्नागांस्तार्यते5प्यधः ॥ ५१ ॥ 
दिवि तारयते देवांस्तेन सा त्रिपथा स्य्टता । 
यावदस्थीनि गङ्गायां तिष्ठन्ति तस्य देहिनः ॥ ५२॥ 
तावद्दर्षसहस्थाणि स्वर्गलोके महीयते । तीर्थानां तु परं तीथं नदीनामुत्तमा |` 
मोक्षदा सवभूतानां महापातकिनामपि । सर्वच सुलभा गङ्गा त्रिषु स्थानेपु दग 
गङ्गाद्वारे प्रयागे च गङ्गासागरसङ्गमे । तत्र स्नात्वा दिचं यान्ति ये सुतास्ते; 
सर्वेषां सैव भूतानां पापोपहतचेतसाम्‌। गतिमन्वेषमाणानां नास्ति गङ्गा 
पचित्राणां पवित्रं या मङ्गलानां च मङ्गलम्‌ । महेभ्वरशिरोश्रष्टा सवंपापहरा {| 
इतिश्रीपाद्े महापुराणे तृतीयेस्वर्गखण्डे प्रयागमाहात्म्ये त्रिचत्वारिशोऽध्याम 


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चतुश्चत्वारिशो ऽध्यायः 
अ्यागस्थमानसतीथणेमोचनतीर्थमाहात्म्यव 


णनम्‌ । 
मार्कण्डेय उवाच | 
पएराजन्य्रयागस्य माहात्म्य पुनरेषतु । यच्छत्या सर्वपापेभ्यो सुच्यते नात्रसंशय 
तसं नाम तत्तीथ गङ्गायामुत्तरेतटे। त्रिरात्रोपोषितोभूत्वा सर्घान्कामानचाप्नुयात्‌॥ 
ंभूहिरण्यदानेन 'यत्फलं घाप्जुयान्नरः । एतत्फलमवाप्नोति तत्तीर्थं स्मरते पुनः ॥ 
|राम घा सकामो घा गङ्घायां यो विपद्यते । मृतस्तु भवति स्वर्ग नरकं चन पश्यति 
हसरेगणसङ्गीतेःसुलोऽसौ प्रतिबुध्यते । हंससारसयुक्तेन चिमानेन स गच्छति 
हुवर्पाणि राजेन्द्र घट्खहस््राणि सुञ्जते। ततःस्वर्गात्परिश्रष्ट क्षीणकर्मा दिवश्च्युत 
ुवर्णमणिसुक्ताढ्ये जायते स महाकुले। षष्टितीर्थसहस्राणि षष्टितीर्थशतानि च ॥ 
मासि गमिष्यन्ति गङ्गायमुनसङ्गमे । गवां शतसह्तस्य सम्यग्दत्तस्य यत्फळम्‌ 
_ प्रयागे माघमासे तु व्यहं स्नानस्य तत्फलम्‌ । 
गङ्गायसुनयोर्मध्ये पञ्चाम्चि यस्तु साधयेत्‌ ॥ ६॥ 
_ सिनाङ्गोहरोगश्च पञ्चेन्द्रियसमन्विततः । याचन्ति रोमङ्कपाणि तस्य गात्रस्य देहिन 
पेसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते। ततसस्वर्गात्परिश्रष्टो जम्बूद्वीपपति्भवेत्‌॥ 
विपुळान्भोगांस्त्तीथं भजते नरः । जलप्रवेशं यःकुर्यात्सङ्गमे छोकचिश्रुते ॥ 
स्तो यथासोमो घिसुक्तःसर्वपातकैः | सोमलोकमवाप्नोति सोमेनसह मोदते ॥ 
धिपेसहस्नाणि षष्टिचर्षशतानि च। स्वर्गलोकमवाप्नोति ऋषिगन्धवेसेषितः ॥ 
|एस्तु राजेन्द्र ! ससद्ध जायते कुले । अधःशिरास्तु यो ज्वालामु््वेपादः पिवेन्नरः 
| संहस्राणि स्वरगेळोके महीयते। परिभ्रष्टस्तु राजेन्द्र अभिहोत्री भवेन्नरः॥१६॥. 
| सुक्वा तु विपुलान्भोगांस्तत्तीथं भजते नरः। 


अस्तु देहं ।विकतित्वा शकुनिम्यः 1720 मयच्छा त Digitized by eGangotri 


००३ 


हः +: `. SU तके [१७ 
चिहङ्गेरुपसुक्तस्य शरणु तस्यापि यत्फलम्‌। शतं वषैसहस्राणां सोमलोके ष 
ततःस्वर्यात्परिप्रष्टो राजा भवति धार्मिकः । णणचान्र पसम्पन्नो विद पपरक 

भुक्तवा तु विपुछान्भोगांस्तत्तीथे भजते पुनः । यासुनेचोत्तरेकूछे प्रयागस्य तु है | 

ऋणप्रमोचनं नाम तीथं तत्परमंस्स॒तम्‌ । एकरात्रो षितोसूत्वा . . ऋणे/सर | 
सूर्यलोकमचाप्नोति अठ्णी च. खदा भवेत्‌ ॥ २२॥ ' | 


इति श्रीपाद महापुराणे तृतीयेखगेखण्डे प्रयागमाहात्म्ये मानती 
माहात्स्यवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिशोऽध्यार्यः ॥ ४४॥ 


क लगि 


पञ्च चत्वारिंशो ऽध्यायः 

प्रयागस्थगंगायशुनयो माहात्म्यवर्णनम्‌ । 

युधिष्ठिर उवाच । 
एतच्छुत्वा प्रयागस्य यस्या कीतेनं छतम्‌ । विशुद्धमेतद्ध॒द्यं प्रयागस्य च सा 
अनाशकफलं ब्र हि भगवंस्तत्र की हूशम्‌ ॥ १॥ 
- मार्कण्डेय उघाच । 
श्टणु राजन्प्रयागे तु अनाशकफलं बिभो !। प्राप्नोति पुरुषो घीमाञ्छुद्घानथण 
अहीनाङ्गो विरोगश्च पश्चेन्द्रियसमन्वितः। अश्वमेधफलं तस्य गच्छतस्तु पि 
कुलानि तारयेद्राजन्द्शपूर्वान्दूशापरान_ । मुच्यते खवंपापेभ्यो गच्छेत परमप 
युधिष्ठिर उवाच । 
महाभागोऽसि धमेज्ञ ! दानं बदसि मे प्रभो ! । अल्पेनेच प्रदानेन वह्न्धमातगा । 
अश्वमेधेस्तु वहुमिःखुकते:प्राप्यते इह । एतन्मे संशयं रहि परंकौदूहल हि| 
मार्कण्डेय उवाच । | 
श्ण राजन्महाचीर | यदुक्तं पद्ययो निना । ऋषीणां सन्निधौ पूवं कथ्यमानं र | 


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त्वा दु राजेन्द्र! सदा भ्रद्धापरो भवेत्‌ । अभ्रद्यधानाः पुरुषाः पापोपहतचेतसः - 
न प्राप्युवन्ति तत्स्यानं प्रयागं देवनिमितम्‌ ॥ १०॥ 
। ॥ युधिष्ठिर उवाच । 
दा दव्यलोभाद्वा!ये तु कामचशंगताः । कथं तीर्थफळं तेषां कथं पुप्यमवाप्जुयुः 
 सर्वमाण्डानां कार्याकाये मजानत: । प्रयागे का गतिस्तस्य एवं ब्र हि महामुने 
; माकण्डेय उवाच । 
गुराज्महागुहां सर्वेपापप्रणाशनम्‌ । मासंबसंस्तु राजेन्द्र ! प्रयागे नियतेन्द्रियः ॥ 
रे सवपापेस्यो यथा दिं स्वयम्भुघा । शुचिस्तु प्रयतोभूत्वा ५दिसक:श्रद्धयान्वित: 
ते सर्वेपापेभ्यःखगच्छेत्परमंपदम्‌ । चिख्रम्भघातकानां तु प्रयागे श्रणु यत्फलम्‌ 
हरमेव स्नायीत आहारं भैक्ष्यमाचरेत्‌। त्रिभिमसि:प्रमनच्येत प्रयागात्त न संशयः 
तु यस्येह तीर्थयात्रादिकं भवेत्‌ । सवेकामसमृद्धस्तु स्वर्गलोके महीयते ॥ 
क्रं स लभते नित्यं धनधान्यसमाकुलम्‌ । एवं ज्ञानेन सम्पूर्णःसदा भवति भोगवान्‌ 
तापितरस्तेन नरकात्प्रपितामहाः । घर्मानुसारे तत्त्वज्ञ | पृच्छतस्ते पुनःपुनः । 
त्वत्प्रियार्थं समाख्यातं युह्यमेतत्सनातनम्‌ ॥ १६॥ 
| युधिष्ठिर उवाच । 
मे सफलंजन्म अद्य मे सफल कुलम्‌ । प्रीतोऽस्म्यनुगुहीतोऽस्मि दर्शनादेवते$द्यवे 
| त्वद्दर्शनात्तु धर्मात्मन्मुक्तो5ह॑सर्वपातकः ॥ २० ॥ 
मार्कण्डेय उवाच | 
दिष्ट्या ते:सफळं:जन्म दिष्ट्या ते तारितं कुलम्‌। ` 
कीतेनाद्वद्धेते पुण्यं श्रुतं पापप्रणाशनम्‌ ॥ २१॥ 
पु युधिष्ठिर उचाच । 
1 तु/क्िपुण्यं किफल तु महामुने !। पतन्मे सर्वमाख्याहि यथादृष्टं यथाथृतम्‌ 


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क पाह्मपुराणस्‌ ॐ 


१४६ RT 


मार्कण्डेय उवाच! 
उ तपनस्य सुतादेची त्रिषुलोकेजुविश्वुता । समागता महाभागा यमुना यत्र ॥ 
` थेनेच निस्खुता गङ्गा तेमैच यमनागता । योजनानां सहस्नेघुउ.कीते 
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च यमुनायां युधिष्ठिर !। 
कीर्तनाल्ळमते पुण्यं दृष्ट्या भद्राणि पश्यति ॥ २५॥' 
अचगाढा च पीता च एुंनात्यासप्तमं कुलम्‌ । 
प्राणांस्त्यजति यस्तत्र ख याति परमां गतिम्‌ ॥ २६॥ 
अद्नितीर्थमिति ख्यातं यस्ुनादक्षिणेतटे। पश्चिमे घमेराजस्य तीर्थ हरवर छ 
तत्र स्नात्वा दिवंयान्ति ये छृतास्तेऽपुनमेवाः । एवं तीर्थसहस्राणि युना 
उत्तरेण प्रचक्ष्यामि आदित्यस्य महात्मन: । तीथं तु विरजंनाम यत्र देवाःसात? 
उपासतेस्म सन्ध्यां तु नित्यकालं युधिषिर !। 
देवाःसेबन्ति तत्तीथं ये चान्ये विदुषो जनाः ॥ ३०॥ 
श्रद्धादानपरो भूत्वा कुरु तीर्था भिषेचनम्‌। अन्ये च बहचस्तीर्थाःसवपापहरङाः 
तेषु स्नात्वा दिवं यान्ति ये स्रतास्तेऽपुनभेचाः । . १ 
“गङ्गा च यमुना चैव उभे तुल्यफळे स्मृते ॥ ३२॥ 
केवलं श्रेष्ठभावेन गङ्गा स्त्र पूज्यते । एवं कुरुष्व कौन्तेय ! स्व 
यावज्ञीचक्ततंपापं तत्क्षणादेव नश्यति। यंस्त्विदं कल्यउत्थाय पठते च इरण 
सुच्यते सर्वेपापेम्यः स्वलोकं च गच्छति ॥ ३५॥ | 
इति श्रीपाझमहापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे यमुनामाहात्म्ये 
हात्म्यवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४५॥ 


= 


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षट्चत्वरिशो ऽध्यायः 
के यागस्य पूज्यत्वकथनम्‌ । 
न युधिष्ठिर उवाच | 

श्व॒तं मे ब्रह्मणा प्रोक्तं पुराणे पुण्यसम्मितम्‌। 
तीर्थानां तु सहख्षाणि शतानि नियुतानि च॥ १॥ 
प्याःपचित्राश्च गतिश्च परमास्खता । पृथिव्यां नेमिषं पुण्यमन्तरिक्षे.च पुष्करम्‌ 
अ जप्रपि लोकानां कुरुक्षेत्र विशिष्यते । सर्वाणि सम्परित्यज्य कथमेकं प्रशंससि ॥ 
बम्ाणमिदंप्रोक्तमश्रद्ध्यमनुत्तमम्‌। गति च परमांदिव्यां भोगांश्चैच यथेप्सितान्‌॥ 
पयोगेन बहुधमं प्रशंसस्ति | एतन्मे संशयं त्रि यथादृष्टं यथाश्चुतम्‌॥ ५ ॥ 
मार्कण्डेय उवाच । 
रयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि तद्भवेत्‌ । नरस्य श्रद्दधानस्य पापोपहतचेतसः ॥ ६ ॥ ˆ 

धानो हाशुचिदु मेतिस्त्यक्तमङ्गलः। एते पातकिनःसवे तेनेदं भाषितं मया ॥७॥ 
प्रयागमाहात्म्यं यथा ष्टं यथाश्चुतम्‌ । प्रत्यक्षं च परोक्षं च यथान्यत्सम्मचिष्यति 
वा्यन्मया दृष्टं पुरा राजन्यथाश्चुतम्‌ । शास्त्र प्रमाणं कृत्वा तु पूज्यते योगमात्मनः 
फिप्ते चापरस्तत्र नैवयोंगमचाप्नुयात्‌ । जन्मान्तरसहस्रेभ्यो योगो लभ्येत मानचे 
यथा योगसहस्रेण योगो लम्येत मानवैः । 
§| यस्तु सर्वाणि रत्नानि ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति॥ ११ ॥ 

दानेन द्त्तेन योगोळम्येत मानवैः । प्रयागे तु सृतस्येदं सवं भघति नान्यथा ॥ 
पित्‌ घक्ष्यामि श्रद्दधत्खु च भारत ! । यथा सर्वेषु भूतेषु सरवेत्रेच तु इश्यते ॥ . 
सिास्ति वै किञ्चियदवक्तंत्विदसुच्यते। यथा सर्वेषु भूतेषु त्रह्मसवेत्र पूज्यते॥ 
सवेष लोकेषु प्रयागःपूज्यते बुधेः । पूज्यते तीर्थेराजश्च सत्यमेत्युधिष्ठिर !॥ 
पि स्मरते नित्यं प्रयाग तीर्थमुत्तमम्‌ तीर्थराजमनुपरप्य नैघान्यत्किञ्चिद्च्छति 


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क . # पाझपुराणम्‌ # 
. कौ हि देवत्वमासाद्य मानुंषत्वं चिकीर्षति । अनेनेचाचुमानेन त्वे 
यथा पुण्यमपुण्यं वा तथेव कथितं मया ॥ १८ ॥ 
युधिष्ठिर उचाच । 
श्रतं तद्यत्त्वया प्रोक्तं विस्मितोऽहं पुनः पुनः। 
कथं योगेन तत्ग्रासिःस्वगेलोकस्तु कर्मणा ॥ १६॥ ' 
तदा च लभते भोगान्यां च तत्कमंणां फलम्‌ । 
तानि कर्माणि पृच्छामि पुनर्यः प्राप्यते महांम्‌ ॥ २०॥ 
मार्कण्डेय उवाच । 
श्रणु राजन्महाबाह्दो ! यथोक्तकमेणा मही । 
गामञ्चि ब्राह्मणं शास्त्रं काञ्चनं सलिल स्त्रियः ॥ २१ ॥ 
मातरं पितरं चैष यो निन्दति नराधिप ! । नेतेषासूध्वंगमनमेचमाहृ | 
एवं योगस्य सम्प्रातिःस्थानं परमदुलंभम्‌ । गच्छन्ति नरकंघोर॑ ये नराः 
हस्त्यश्वं गामनड्वाहं मणिसुक्ता दि काञ्चनम्‌ । परोक्षं हरते यस्तु 
न ते गच्छन्ति चे स्वर्ग दातारो यत्र भोगिनः । 
अनेन कर्मणा युक्ताः पच्यन्ते नरकेऽधमाः ॥ २५॥ 
एवं योगं च धमं च दातारं च युधिष्ठिर !। 
यथा सत्यमसत्यं घा अस्ति नास्तीति यत्फलम्‌ ॥ २६ ॥ 
निरुक्त तु प्रबक्ष्यामि यथाऽयं स्वयमाप्चुयात्‌ ॥ २७॥ 
इति श्रीपाइ् महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे प्रयागमाहात्म्ये प्रयागस्य 
नाम षर्चत्वारिशोऽध्यायः ॥ 3६ ॥ 


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सप्तचत्वारिशो ऽध्यायः 

सर्वेतीथेंम्यः अयागस्याधिक्यवर्णनम । 
मार्कण्डेय उवाच । 

राजन्प्रयागस्य माहात्म्यं पुनरेच तु । नेमिषं पुष्करं चेव गोतीर्थ सिन्धुसागरम्‌ 
र गयांचैव गङ्गासीगरमेच च । एतेचान्ये च बहदचो ये च पुण्याःशिलोच्चया: ॥ 

णि त्रिशत्कोट्यस्तथापरे | प्रयागे संस्थिता नित्यमेषमाहुर्मनीषिण 
त्रीणि चाप्यग्निकुण्डानि येषां मध्ये तु जाहृूबी । 
प्रयागादसिनिष्क्रान्ता सवेतीथेपुरस्क्कता | ४॥ 
सुता देवी त्रिषुलोकेषु विश्रुता | गङ्गायमुनयासाधँ सं स्थिता लोकभाविनी॥ 
मेध्ये पृथिव्याजघन स्मृतम्‌ । प्रयागं राजशाद छ ! कलांनाहेन्ति षोडशीम्‌ 
तिस्रःकोख्योऽदकोरी च दीर्थानां वायुरत्रवीत्‌। 
दिचि भुव्यन्तरिक्षे च तत्सचं जाहृवी स्मृता ॥ ७॥ 
पां समधिष्ठानं कम्बलाश्वतरावृभौ । भोगवत्यथ या चैघ वेदिरेषा प्रजञापतेः॥ 
हि देवाश्च यज्ञाश्च सूर्तिमन्तो युधिष्ठिर !। पूजयन्ति प्रयागं त ऋषयश्च तपोधनाः ॥ ' 


प्रषात्सवेतीथेभ्यःप्रभ बत्य धिकं बिभो ! । दशतीथेसहस्ताणि तिस्नःको स्यस्तथापरे 
हि गङ्गा महाभागा खदेशस्तत्तपोचनम्‌। सिद्धक्षेत्र तु तज्ज्ञेयं गङ्गातीरसमाश्रितम्‌ 
| इति सत्यं द्विजातीनां साधूनामात्मजस्य चा । | 
सुहृदां च जपेत्कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य चा ॥ १३॥ 


| व्य _रणयालियं तीर्थ पुण्य सदाशुचिः । जातिस्मरत्वं मते नाकंप्रष्ठे च मोदते ॥ 


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-१५२९ : ` म . क पाझपुराणम्‌ # 

. प्राप्यन्ते तानि तीर्थानि सद्ठिःशिष्टार्थदर्शिमिः । 
स्नाहि तीर्थेषु कौरव्य ! न च घक्रमतिभेब ॥ १७ ॥ 
त्वया तु सम्पक्पृष्टेन कथितं तु मया विभो !। 
पितरस्तारिताः सर्वे तारिताश्च पितामहाः ॥ १८॥ . 
प्रयागस्य तु सर्वे ते कलां नाईन्ति घोडशीम्‌ । 
एवं ज्ञानं च योगं च तीर्थ चेच युधिष्ठिर ! ॥ १६॥ 
बहुक्लेशेन युज्यन्ते ततो यान्ति परां गतिम्‌। ` 

प्रयागस्मरणाल्लोक॑ स्वर्गलोकं च गच्छति ॥ २०॥ 
इति श्रीपाद्े महापुराणे तृतीयेस्वर्गखण्डे प्रयागमाहात्म्ये सर्वतीर्थेस्य: 
` क्यवर्णनं नाम सप्तचत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४७॥ 


अष्टचत्वारिो'ऽध्यायः 
प्रयागस्य ग्रजापतितीर्थत्वकथनम्‌ । 

; युधिष्ठिर उघाच । 

कथा सर्चात्वियं प्रोक्ता प्रयागस्य मददमुने!। एवं मे सवेमाख्याहि यथा च ममर 
मार्कण्डेय उवाच | 

श्टणु राजन्प्रचक्ष्यामि प्रोक्तं सवेमिद्‌ जगत्‌ । त्रह्माविष्णुस्तथेशानो. देवता परए ; 
ब्रह्मा सृजति भूतानि स्थाघर जङ्गमं च यत्‌ । तान्येतानि परोळोके विष्णुःपाढ्यरिर्ण 
कल्पान्ते तत्समग्रं हि रुद्रःसंहरते जगत्‌ । न ददाति च नाध्येति न कदाविहि 
ईश्वरः सर्वभूतानां यःपश्य ति सपश्यति | उत्तरेण प्रतिष्ठानादिदानीं ब्रह्म हिपठति॥॥| 
महेश्वरो घरेभूत्वा तिष्ठते परमेश्वरः । ततो देचाःसगन्धर्षाः सिद्धाश्च परमपंय'॥ 


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रक्षन्ति परमं नित्यं पापकर्मपरायणान्‌ । ये तु चान्ये च तिष्ठन्ति न यान्ति पसा] 


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| _त्वातमो प्ध्याय ] * युधिष्टिरेण मार्कण्डेयाय महादानदानम्‌ # ` 
युधिष्ठिर उघाच | 
| यथातत्वं यथैषां तिष्ठते श्रुतम्‌। केन घा कारणेनैच तिष्ठन्ति छोकसंमता 
माकण्डेय उवाच । 
[गे निवसन्त्येते ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा: । कारणं तु प्रवक्ष्यामि »रणु तत्त्व युधिष्टिर 
|ोजनविस्तीम प्रयागस्य तु मण्डलम्‌ । तिष्ठन्ति रक्षणार्थाय पापकर्मनिवारणा 
(मस्तु स्वल्पकं पापं नरके पातयिष्यति एवं ब्रह्मा च विष्णुश्च प्रयागे समहेश्वर 
(द्वपाःससुद्राश्च पवताञ्च महीतले । तिष्ठन्ति भ्रियमाणाश्च यावदाभूतसम्प्लवम्‌ ॥ 
बये बहवःसर्वे तिष्ठन्ति च युधिष्ठिर ! । पृथिवीस्थानमारम्य निमितंदेघतेस्त्रिमि 
पतेरिदंक्षेत्रं प्रयागमिति विश्रुतम्‌ । पतत्पुण्यं पवित्रं च प्रयागं तु युधिष्ठिर ! ॥ 
स्वराज्यं कुरु राजेन्द्र ! भ्रातूमिः सहितो भव ॥ १५॥ 
रीपामे महापुराणे तृतीयेस्वर्गखण्डे प्रयागमाहात्प्ये प्रयागस्यप्रजापतितीर्थत्व- 
कथनं नामाषए्चत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥ 


एकोनपञ्चाइात्तमोऽध्यायः 


न ` युधिष्ठिरेण माकण्डेयाय महादानदानम्‌ । 
| सूत उवाच । 
बएमिःसहिता:सवै पाण्डवा धर्मनिश्चयाः । त्राह्मणेम्यो नमस्कृत्वा गुरुदेवांस्त्वतपेयन्‌ 


५ ५ सहितेःस्चें:पुनरेच महात्मभिः । अभिषिक्तःस्वराञ्ये तु धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः I 
।िसिनन्तरे चेच माकण्डेयोमद्दात्मवान्‌। ततःस्वस्तीतिचोच्वा वे क्षणादाधममागतः 
॥ऐध४रो,पि धर्मात्मा भ्रात भिःस हितस्तु सः । महादाने ददौ चाथ धमेपुत्रोयुधिष्ठिरः 
|  . यस्त्विदं कल्यमुत्थाय पठते घा श्टणोति चा । 


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em __ ऋ पाझपुराणम्‌ ॐ 


न [३ 
र मुच्यते सर्वेपापेम्यो विष्णुळोकं स गच्छति ॥ ६॥ 
वाख्रुदेच (उवाच । 
ममवाक्यं तु कतंव्यं तवस्नेहादुत्रवीम्यहम्‌। नित्यं यज्ञरतोभूत्वा प्रयाने 
` प्रयागं संस्मरन्नित्यं सहास्मासिर्यधिष्ठिर ! । 


स्वयं प्राप्स्यसि राजेन्द्र ! स्वगंलोक तु शाश्वतम्‌ ॥ ८॥ 
प्रयागमचुगच्छेद्वा चसतेवापि यो नरः । सचंपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोक च 
प्रतिग्रहादुपाबृत्तःसन्तुषटी नियतःशुचिः । अहङ्कारनितत्तश्च स तीर्थफरमशुते| ॥| 
अकोपनश्च राजेन्द्र ! सत्यवादी दृढ़व्तः । आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफदयश| 

ऋषिभिः क्रतवः प्रोक्ता देवेश्वापि यथाक्रमस्‌। । 

न हि शक्र्या दरिदेण यज्ञाः प्राप्तुं महीपते ! ॥ १२॥ 
बहूपकरणोयज्ञो नानासम्भारसम्ग्रमः । प्राप्यते विविधेरथैःससृद्ध्चा नरइन्‌| 
यो दरिदैरपि बुधेःशक्यःप्राप्तुं नरेश्वर ! । ततो यज्ञफलेःपुण्यैस्तन्नियोध जने 
ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरतसत्तम ! । तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञेरपि | । 
द्शकोरिसहस्जाणि त्रिशत्कोट्यस्तथापरै। माघमासे तु गङ्कायां गमिष्यति 

` स्वस्थो भव महाराज ! भुङ्क्ष्व राज्यमकण्टकम्‌ । 

पुनद्रेकष्यसि राजेन्द्र ! यजमानो ,विशेषतः ॥ १७॥ 


नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४६ ॥ 


पञ्चाशत्तमो ऽध्यायः 
विष्णुभक्तिप्रशंसनम्‌ । 
ऋषय ञचुः । 
भवता कथितं सवै यत्किञ्चित्ृष्टमेघ चं । इदानीमपि पृच्छाम एक वद ह 


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रहमोऽच्यायः ] + विष्युमक्तिपशंसनमू ४ अ - : १५५ 


क्षण खलुतीर्थानां सेवनाद्यत्फळं . लमेत्‌ । स्वेषां किल कृत्वैक कमे केन च रम्यते 
` तन्नो त्र दि सवेज्ञ ! कमेंबं यदि वते ॥ ३॥ 

सूत उघाच। 
्ोगःकिल्रोक्तो चर्णानां दविजपूर्वशः । नानाविधो महाभागास्तत्र चैकं विशिष्यते 
$अक्तिक्ता थेन मनसा घचसा गिरा । जितं तेन जितं तेन जितमेच न संशय: ॥ 
रिव समाराध्यः्सवदेचेश्वरेश्वरः। हरिनाम महामन्त्रेनेश्येत्पापपिशात्रकम्‌ ॥ ६ ॥ 
हे्रदक्षिणं इत्वा सरदेप्यमलाशयाः । सर्वेतीथेसमाप्लावं लमन्ते यन्न संशयः ॥ 
प्रतिमां च हरेह ष्ट्या सर्वतीथफलं लभेत्‌ 
विष्णुनाम परं जप्त्वा सवमन्त्रफलं लमेत्‌ ॥ ८॥ 
दिषुप्रसादतुलसीसाघ्राय द्विजसत्तमाः । प्रचण्डं विकराल तद्यमस्यास्यं न पश्यति 
सङ्त्प्रणामी कृष्णस्य मातुःस्तन्यं पिबेन्न हि । 
हरिपादे मनो येषां तेभ्यो नित्यं नमोनमः ॥ १०॥ 
श्घपचो चाऽपि ये चान्ये म्लेच्छजातयः । 
तेऽपि चन्या महाभागा हरिपादेकसेचकाः॥ ११॥ 
कि पुनर्त्राह्मणा:पुण्या भक्ता राजर्षेयस्तथा । हरौभक्ति विधायैव गर्भवासं न पश्यति 
हर्ने स्वनेरुच्चैट त्यंस्तन्नामङ्न्नरः । पुनाति सुचनं विप्रा गङ्गादि सलिलं यथा ॥ 
| |शंनात्स्पर्शनात्तस्य आळापादपि भक्तितः । त्रह्वाहत्यादिभिःपापैर्मच्यते नात्र संशयः ॥ 
|हेमदक्षिणं कुवन्चुच्चेस्तन्नामळन्नरः । करतालादि सन्धानं सुस्वर कलशब्दितम्‌ ॥ 
झहत्यादिकं पापं तेनेच करता लितम्‌ । हरिमक्तिकथामुक्तवाऽऽल्यायिकां श्रणयाच्चयः 
| त्तस्य सन्दशेनादेच पूतो भवति मानवः | 
| कि पुनस्तस्य पापानामाशाङ्का मुनिपुङ्गघाः ! ॥ १७॥ 
ध्याना च परंतीर्थ कृष्णनाम महर्षयः । तीर्थीकुवैन्ति जगतीं ग्रहीतं ऋष्णनाम ये 
्मुनिषराःपुण्यं नातःपरतरं विदुः । विष्णुप्रसादनिर्माल्यं भुक्वा धृत्वा च मस्तके 
॥ षण्रेष सवेन्मत्यो यमशोकविनाशनः । अचेनीयो नमस्कार्यो हरिरेच न संशयः॥ 


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“०१५६ क 13 त प [ ३ 
* तस्मादनो दिनिधनं विष्णुमात्मानमव्ययम्‌। हर्चिक प्रपश्यध्वं पूजयध्वं | 
ये समानं प्रपश्यन्ति हरि वे देघतान्तरम्‌ । ते यान्ति नरकान्घोरान्नतांस्तु | 
मूर्ख घा पण्डितं वापि ब्राह्मणं केशवप्रियम्‌ । श्वपाकं था मोचयति नारायण, " 
नारायणात्परो नास्ति पापराशिद्घानलः । 
कृत्वाऽपि पातकं घोरं कृष्णनाम्ना चिसुच्यते ॥ २४ ॥ 
स्वयं नारायणो देवः स्वनास्नि जगतां गुरु: । 
आत्मनोऽम्यधिकां शक्ति स्थापयामास सुरताः ॥ २५॥ | 
अत्र ये चिचदन्ते वै आयासल्घुदर्शनात्‌ । फलानां गौरवाच्चापि ते यान्ति नर 
तस्माद्धरौ भक्तिमान्स्याद्वरिनामपरायण: । पूजकं पृष्ठतो रक्षेन्नामिन इगि 
हरिनाममददचज्रं पापपर्षेतदारणे | तस्य पादौ तु सफलो तदर्थगतिशालिनौ॥ ३ 
तावेव घन्यावाख्यातौ यौ तु पूजाकरौ करौ । उत्तमाङ्गसुत्तमाङ्गं तद्धरौ नम्रो 
सा जिह्वा या हरि स्तौति तन्मनस्तत्पदानुगम्‌ । 
तानि लोमानि चोच्यन्ते यानि तन्नाम्नि चो त्थितिम्‌ ॥ ३०॥ 
कुबेन्ति तच्च नेत्राम्बु यद्च्युतप्रसङ्गतः । अहो लोका अतितरां देवदोषेण षङ्गि| 
नामोच्चारणमात्रेण मुक्तिदं न भजन्ति वै । घञ्चितास्ते च कलुषाः ज्रीणां सङ] 
प्रतिष्ठन्ति च लोमानि येषां नो कृष्णशब्दने । ते मूर्खा ह्यक्ततात्मानः पुत्रशोकार्दिकक 
रुदन्ति बहुळालापै नेक्ृष्णाक्षरकीतंने । जिह्ां लब्ध्वा5पि लोकेऽ स्मिन्छृष्णनामजोत | 
छन्ध्वाऽपि मुक्तिसोपानं हेलयेच च्यवन्तिते । तस्माद्यत्नेन वै विष्णु कम्योगेतमत | 
कर्मयोगाच्चितो विष्णुः प्रसीदत्येच नान्यथा । 


क साननाणाणाणरि 


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एकपश्चाशत्तमो ऽध्यायः 
० कर्मयोगकथने र्णाश्रमसामान्यघर्मकथनम्‌ । 
| ऋषय ऊचुः। 
अयोगः कथं सूत ! येन चाराधितो हरि; प्रसीदति महाभाग ! चद्‌ नो बद्तांचर ! 
कासौ भगवानीशः समाराध्यो मुमुक्चुभिः । तद्वदाखिललोकानां रक्षणं धर्मसङ्गतम्‌ 
कर्मयोगं घद नः सूतसूतिमयस्तु यः । इति शुभ्रूषघो विप्रा भवदम्रे व्यवस्थिताः ॥ 
सूत उचाच | 
| मेव पुरा पृष्ठो व्याखः सत्यवतीसुतः । ऋषिभिरग्निसङ्काशैव्यांसस्तानाह तच्छुणु 
व्यास उवाच । 
' श्णुध्वसुषयः सर्वेवक्ष्यमाणं खनातनम्‌। कमंयोगं ब्राह्मणानामात्यन्तिकफलप्रदम्‌ ॥ 
न त्राह्मणांथं प्रदशितम्‌ । 

` ` ऋषीणां शएण्बतां पूवं मनुराह प्रजापतिः ॥ ६॥ 
सव्याधिहरं पुण्यस्ट्षिसङ्खैनिषेवितम्‌। समाहितधियो यूयं शणुध्चं गदतो मम ॥ 
होपनयनो वेदानधीयीत द्विजोत्तमः। गर्भा एमेऽष्टमेवाऽब्दे स्वसूजो क्तविधानतः ॥ 

दण्डी च मेखळी सूती छष्णाजिनधरो मुनिः । 

भिक्षाहारो गुरुहितो वीक्षमाणो गुरोमंखम्‌ ॥ ६॥ 
कापासमुपघी ताथं निमितं ब्रह्मणा पुरा । ब्राह्मणानां , त्रिवृत्सूत्रे कोशं घा वस्नमेच वा 
|फोपबीती चैव स्यात्सदाबद्धशिखो द्विजः । अन्यथा यत्कृतं कमे तद्ववत्ययथाकृतम्‌ 
| बसीताचिक्कतं चासः कार्पासं घा कषायकम्‌ । 
| तदेघ परिधानीयं शुक्लं तान्तवमुत्तमम्‌॥ १२॥ 
१ उतर तु समाम्नातं घासः कृष्णाजिनं शुभम्‌। अभावे गावयमपि रौरवं चा विधीयते 
| त्त्य दक्षिणंबाहुं सब्यबाहौ समर्पितम्‌ । उपवीतं भवेन्नित्यं निघीतं कण्ठसज्जने 


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अ पाझपुराणम्‌ ३ 


सव्यवाहं समुदुधृत्य दक्षिणे तु शृतं द्विजाः । 
प्राचीनाचीतमित्युक्तं पित्र्ये कमेणि योजयेत्‌ ॥ १५॥ 
अग्न्यगारे गवां गोष्ठे होमे तप्ये तथेव च । 
स्वाध्याये भोजने नित्यं ब्राह्मणानां च सन्निधौ ॥ १६॥ « 
उपासने गुरूणां च सन्ध्ययोः साधुलङ्गमे । उपवीती भवेन्नित्यं विधिरेष 
मौञ्जीं त्रिवृत्समां श्लिष्टां कुर्या द्विप्रस्य मेखलाम्‌ । 
मञ्जाभावे कुझेनाहुग्रेन्थिनेकेन चा त्रिसिः ॥ १८॥ | 
घारयेद्वेणचपाळाशौी दण्डौकेशान्तिकौ द्विजः । यज्ञाहेबृक्षजं चाथ सोम्यमत्रपो 
सायं प्रातद्विजः सन्ध्यामुपासीत समाहितः । े 
कामाछोभाद्वयान्मोहात्त्यत्तवेनां पतितो भवेत्‌ ॥ २० ॥ 
अग्निकार्यं ततः कुर्यात्सायं प्रातः प्रसग्नधी: । 
स्नात्वा सन्तर्पयेद्देवान्षीन्पितृगणांस्तथा ॥ २१ ॥ । 
देवताभ्यचेनं कुर्यात्पुष्पै: पत्रेयंचाम्बुभिः । अभिवादनशीलः स्यान्नित्यं - 
असावहं भोनामेति सम्यक्प्रणतिफूर्वेकम्‌ । आयुरारोग्यसिद्धयर्थ तत्द्रादिपरिषळि| 
आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने । 
आकारश्वास्य नाम्नोऽन्ते घाच्यः पूर्चाक्षरं प्लुतः ॥ २४॥ 


१५८ 


व्यत्यस्तपाणिना काये पादसडग्रहणं गुरो: । 
सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणे न तु दक्षिण: ॥ २६ ॥ 
लौकिक वे दिकं वा५पि-तथा५५ध्यात्मिकमेव चा । अवाप्य प्रयतो ज्ञानं तं 
नोदकं धारयेद्वेक्ष्य पुष्पाणि समिधस्तथा । एवं विधानि चान्यानि नदेवाु 
- ्ाह्मणं कुशळं पृच्छेत्कषत्रबन्धुमनामयम्‌ । वैश्य कषेमं समागम्य इूष्रमारोगय 
उपाध्यायः पिता ज्येष्ठो भ्राता त्राता च भी तितः । | 


मातुलः श्वशुरश्चैष मातामहपिताम 0३ 
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| ्षशचमो ऽध्यायः ] क चर्णाश्रमसामान्यधर्मकथनम्‌ कन i 
| चर्णश्रेष्ठः पितृव्यश्च पुंसोऽत्र शुरचुः स्मृता; न | 
माता मातामही शुचीं पितुर्मातुश्च सोद्राः ॥ ३१ ॥ 
श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्यः | 
्ञयस्तु गुरुषर्गों 5यं मातृतः पितृतो द्विज्ञाः ॥ ३२ ॥ 
मेतेषां मंतोवाकायकर्मभिः । गुरन्दृष्ट्या समुत्तिष्ठेदमिवाद्य इताञ्जलिः ॥ 
। ढैपचिशेत्साङँविचदेन्नात्मकारणात्‌ । जीवितार्थमपि द्वेषादुगुरुमिनेंबभाषणम्‌ ॥: 
कोऽपि गुणैरन्येश्‌ रुद्वेषी पतत्यघः । गुरूणोमपि सर्वेषा पञ्च पूज्या विशेषतः ॥ 
तेषामाद्यास्त्रयः श्रेष्ठास्तेषां माता सुपूजिता | 
यो भावयति या सूते येन विद्योपदिश्यते ॥ ३६ ॥ 
- ज्येष्ठो भ्राता ख सर्ता च पञ्चेते गुरुवः स्मृताः । 
आत्मनः सर्वयत्नेन प्राणत्यागेन वा पुनः ॥ ३७ ॥ 
पतीया विशेषेण पञ्चैते भूतिमिच्छता । याघत्पिताच माता च द्वावेतौ निर्षिकारिणी 
ह परित्यज्य पुत्रः स्यात्तत्परायणः | 
| पिता माता च सुप्रीतो स्यातां पुत्रगुणैर्यदि॥ ३६॥ 
धुतः सकल धमं प्राप्लु पात्तेन कर्मणा । नास्ति मातृसमं देवं नास्तिपितृसमो गुरु 
धो:प्रत्युपकारारो 5 पि न कथञ्चन विद्यते । तयो नित्यं प्रियं कुर्यात्कर्मणा मनसा गिरा 
।तम्यामनयुज्ञातो धर्ममन्यं समाचरेत्‌ । बजेयित्वा मुक्तिफळं नित्यं नैमित्तिकं तथा 
भतार. समुद्दिष्टः परेत्यानम्तफलप्रदः। सम्यगाराध्य घक्तारं पिरृष्टस्तदनुज्ञया॥ 
| शिष्यो विद्याफलं भुङ्कते प्रेत्य चापद्यते दिघ्रि । [ 
| यो भ्रातरं पितृसमं ज्येष्ठ मूढोऽवमन्यते ॥ ४४॥ : ` 
[ ५ दोपेण सम्प्रेत्य निरयं धोरखुच्छति । पुंसां वत्मेनि सृष्टेन पूज्यो भर्ता तु सवदा 
अपि मातारि लोके5स्मिन्चुपकाराद्धि गौरघम्‌। 
मातुलांञ्च पितृव्यांश्च श्वशुरादत्विजो गुरून्‌ ४६ ॥ 
असाचदमिति ब्र यात्पत्युत्थायाभिषादयेत्‌ । 


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Mio? 7 ` So क पांझपुराणम्‌ # 
। ) अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यचीयानपि यो भवेत्‌ ॥ ४७॥ 
भोभवत्पूर्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्मचित्‌। अभिषाद्यश्च पूज्यश्च शिरसा ग 
्रा्मणकषत्रियाचैश्च श्रीकामैः साद्रं सदा । नासिषाद्याश्च चिप्रेण त्रि 
ज्ञानकर्मशुणोपेता यद्यप्येते बहुश्ुताः । ब्राह्मणः सवघणानां स्वस्ति 
. सवर्णेन सवर्णानां कार्यमेवामिवाद्नम्‌ । शुरुरग्निद्विजातीनां वर्णानां 
. पत्रको गुः स्रीणां सर्वेच्राभ्यागृतो गुरुः । विद्याकमेवयोवन्धुवित्त अषि ७ ॥ 
मान्यस्थानानि पञ्चाः पूर्व पूवं शुरूत्तरत्‌ । पञ्चानां जिजुर्वणेषु भूयांसि व| 
यत्र स्युः सोऽत्र मानाहेः शूद्रोऽपि दशमी गतः । 
पन्था देयो ब्राह्मणाय स्त्रिये राशे विचश्चुषे ॥ ५४ ॥ 
द्धाय भारमझाय रोगिणे दुर्वलाय च । भिक्षामाहस्य शिष्टानां गृहेभ्यः परतोऽ) 
निवेद्य गुरवेऽश्नीयाद्वाग्यतस्तद्चुज्ञया । भवत्पूवचरेट क्ष्यमुपचीती द्विजोत्ता!। 
भवन्मध्यं तु.राजन्यो वेश्यस्तु भवदुत्तस्म्‌। | ( 
मातर घा स्वसारं चा मातुर्वा भगिनीं निजाम्‌ ॥ ५७॥ ` 
भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं न विमानयेत्‌। सजातीयग्रहेष्वेच सावंधणिको। 
भक्ष्यस्याचरणं प्रोक्तं पतितादिविवजितम्‌। वेदयज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां सक 
्रहमचाय्याहरे्ध क्ष्यं गृहेम्यः प्रयतोऽन्वहम्‌ । शुरोः कुलेन भिक्षेत न ज्ञातिः 
अलामे त्वन्यगेहानां पूवं पूर्व चिघजयेत्‌ । सवे घा विचेद्ग्रामं पूर्वोक्तानामतश॑ 
नियम्य प्रयतो वाचं दिशस्त्वनवलोकयन्‌। समाहत्य तु भैक्ष्यान्नं यावदर्धमाए। 
सुञ्जीत प्रयतो नित्यं घाग्यतोऽनन्यमानसः । भैक्ष्येण घते न्नित्यं नेवैकानो मे 
भैक्ष्येण घत्तिनो वृत्तिर्पघाससमास्मृता । पूजयेदशनं नित्यं मदाच्चैतमुत| 
द्ृष्ट्चा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सवश: । 
अनारोग्यमनायुष्यमस्तगयं चातिभोजनम्‌ ॥ ६५ ॥ 
अपुण्यं ळोकषि द्विष्टं तस्मात्तत्परिबजंयेत्‌ । 


| प्राङ्सुखोऽच्नानि भञ्जीत भिम 
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॥ ] + कतेव्यनिपरिद्वकमकथनम्‌ 5 शह 
| नित्यं विधिरेष सनातन: | प्रक्ष्याल्य पाणिपादी च | विव्यस व: 
(ुदडसुखो टि भुञ्जानो प 
* शुद्धे देशे समासीनो भ्रुक्‍्त्वा च द्विरुपस्पृद्ेत्‌ ॥ ६८॥ | न 
|॥भीपदोमदापुराणे तृतीये. स्वगेखण्डे कर्मयोगकथनं नामैकपञ्चााततमोऽच्याय 


mn 


, - हिपञ्चाशत्तमो ऽष्यायः 
कर्वव्यनि ^ 
व्यनिषिद्धकमंकथनम्‌ । 
व्यास उवाच । 
सुक्त्वा पीत्वा च सुप्त्वा च स्नात्वा रथ्योपसपेणे | 
ओष्टावलोमकौ स्पृष्ट्चा चासो विपरिधाय च ॥ १॥ | 
सुत्सर्गेऽठृतमाषणे । ्ठीबित्वाऽध्ययनारम्मे कासश्बासागमे तथा ॥ 
था श्मशानं घा समाक्रम्य द्विजोत्तमः । 
सन्ध्ययोरुभयोस्तद्वदाचान्तोऽप्याचमेत्युनः ॥ ३ ॥ 
चाण्डाळम्लेच्छसम्भाषे स््रीशूद्रोच्छिष्टभाषणे । 
उच्छिएं पुरुषं दृष्ट्या भोज्यं यापि दथाषिधम्‌ ॥ ४॥ 
Mेदरशुपाते वालो हितस्य तथैष च.। भोजने सन्ध्ययोः स्नात्वा पीत्वा मूत्रपुरीषयोः 
| _ आगतो घाऽऽचमेत्छुप्त्वा सङृत्सङ्द्थान्यत्तः। 
अग्नेगंचामथालम्मे स्पृष्टचा प्रयतमेच वा ॥ ६॥ 
मथात्मनः स्पर्श नीलीं वा परिधाय च । उपस्पृरीज्जल वातं तृणं बा भूमिमेव च 
केशानां चात्मनः स्पर्श घाससः स्खलितस्य च। 
अचुष्णाभिरकेशाभिरदुष्टासिश्च धर्मेतः ॥ ८॥ 
शौचेप्लुः सर्वेदाचामेदासीनः प्रागुदङ्मुखः । 
शिरः प्रात्य कण्ठं घा मुक्तकेशशिखो5पिवा॥ ३॥ 


११-७6-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


2 र यतन 
| . अङृत्वा पादयोः शौचं मार्गतो न शुचिभेवेत्‌ । | 
सोपानत्को जळस्थो घा नोष्णीषी चाचमेद बुधः ॥ १०॥ 
न चैव घषंधारामिनंतिष्ठन्चुद्ध्वतोदकेः । नेकहस्तापितजळेविना र्हा | 
न पादुकासनस्थो था बहिर्जानुर्थापि घा। न जदपन्नहसन्प्र क्षभ्डयानस्त 
नाविक्षिताभिः फेनायैरुपेताभिस्थापि घा । शद्राशुचिकरोन्मु्तैनेशारा फिर 
न चैवाडगुलिमिः शब्दं न कुर्यान्नान्यमानसः । न वर्णरसदुष्टाभिनेचेव क 
न पाणिश्वुमिताभिर्वा न बहिर्गन्च एव घा। ८ 
हृद्वासिः पूज्यते विप्रः कण्ठ्याभिः क्षत्रियः शुचिः ॥ १५॥ 
प्रासिताभिस्तथा वेश्यः स्त्रीशूद्री रुपर्शतो ऽन्ततः। ` 
अङ्गुष्ठमूलान्तरतो रेखायां ्राह्मसुच्यते ॥ १६ ¦ | 
अन्तराङगुछदेशिन्योः पितृणां तीर्थमुच्यते । कनिष्ठासूलत: पञ्चातपरज्ञापतं| 


दोमयेद्वाथ दैवेन न तु पित्र्येण वै द्विजा: । त्रिः प्राशनीयादपः पूर्व त्राह्मणेन प्रत 
संसूज्याडगुष्टसूटेन मुखं वे समुपस्पृशोत्‌ । अङ्शुष्ठानामिकाम्यां तु स्पृरेलेशा 
तजंन्यड्युष्ठयोगेन. स्पृशेन्नासापुरद्वयम्‌ । कनिष्ठाङ्शुष्ठ्योगेन श्रवणे समुप 
सवांसामथ योगेन हृदयं तु तलेन घा । स्पृशेद्दे शिरसस्तद्वद्ङ्गुष्ठेनांसक्षम 
त्रि:प्राश्नीयाद्यदस्भस्तु प्रीतास्तेनास्य देवता: । बरह्मा विष्णुम हेशश्च भवन्तीतसु 
गङ्गा च यमुना चेव प्रीयेते परिमार्जेनात्‌ । संस्पृष्टयो लोचनयोः प्रीयेते शरि 
नासत्यदस्रौ प्रीयेते सपृरोन्नासापुरद्वयम्‌ । कर्णयोः र्पृषटयोस्तदवतीयेते वर्ष] 
संस्पृष्टे हृदये चास्य प्रीयन्ते सर्वदेवता: । मूध्नि खंरुपर्शनादेकः प्रीतः स पुले॥ 
नोच्छिएं कुर्वते वकत्रे विपुषोऽङ्े लगन्ति याः । दन्तवद्दन्तलग्नेषु जिहास्पशू 

स्पृशन्ति विन्द्चः पादौ य आचामयतः परान्‌ | | 

भूमिपांखुसमा शञेया न तैरस्पृश्यता भवेत ॥ २६॥ 


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तमो थ्यायः । 2. कतेव्यनिषिद्धकमेकथनम्‌ # . १६३ ` 
> द्व सोमे -च ताम्वूलस्य च भक्षणे फल्सूले चेश्नुदण्डे न दोषं प्राह वै मनुः ॥ 
0 र पानिषुःद्रव्यहस्दो भवेन्नरः । भूमी निक्षिप्य तदुद्रव्यमाचम्याम्युक्षयेत्तु तत्‌ 
| वैसमादाय यद्युच्छिष्टो अवैदुद्धिज:। भूमौ निक्षिप्य तदुद्रव्यमाचम्याम्युक्षयेत्तुतत्‌ 
शा यं समादाय भवेदुच्छेषणान्वितः । अनिधायैच तदुद्र्र्यं भूमी त्वशुचितामियात्‌ 
` ब्ल्माविषु “विकल्पः स्यात्तत्संस्पृश्याचमेदिह । क 
अरण्ये निजेने राची चौरव्याघ्राकुले पथि॥ ३७॥ | 2 
मूत्र पुरीषं चा: द्रव्यहस्तो न दुष्यति । निधाय दक्षिणे कर्ण ्रहमसूत्रमुद्ङ्सुखः 
र्ाच्छङ्ठपू्ं रातौ; चेद्क्षिणासुलः । अन्तर्थाय महीं काएैः पज्नेलोष्टतृणेन वा 
| तच शिरः कुर्यौ द्विण्सूजस्य विसजेनम्‌ । छायाक्रूपनदीगोष्ठचेत्याम्भः पथि भस्मसु 
चेव शमशाने च चिण्सूत्रं च समाचरेत्‌ । न गोमये न काएे वा महावृक्षे$्थ शाद्वळे 
लच निर्वाखा न च पर्वेतमण्डले । न जीर्णदेचायतने बल्मीके न कदाचन॥३६॥ 
पएसखेषु गर्तेषु न गच्छन्न समाचरेत्‌। तुषाङ्गारकपालेषु राजमार्ग तथेच च ॥ 
सेन बिळे वापि न तीथे न चतुष्पथे । नोद्यानेऽपां समीमे चा नोषरे नगराशाये 
न सोपानत्पाडुको चा छत्री चानान्तरिक्षके। , 
| न चेचाभिमुखः सत्रीणां शुरुत्राह्मणयोर्गचाम्‌॥ ४२॥ . 
हदेवालययोरपामपि कदाचन .। न ज्योतींषि निरीक्षन्बा न वा प्रतिमुखोऽथचा ॥ 
दित्यं प्रत्यनळं प्रतिसोमं तथैव च । .आहृत्य स॒त्तिकां कूलाल्लेपगन्धापकर्षणीम्‌ः 
तिनदरितः शौचं विशुद्धैरुदुधृतोदकेः । नाहरन्श्त्तिकां विप्रः पांसुलां न सकदेमाम्‌ 
| न मार्गान्नोषराद्देशाच्छौचशिष्टां परस्य च । 
न देवायतनात्कूपाद्धान्नो न च जलात्तथा ॥४६॥ 
| उपस्पृशोत्ततो नित्यं पूर्वोक्तेन विधानतः ॥ ४७ ॥ ... . .-.. 
शिमीपाइे महापुराणे तृतोयेस्वर्गखण्डे कर्मयोगकथने करेव्य निषिदूकमेकथनं. नास 
| द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२.॥ 


स आओ 


(०-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


~ 


यवं दण्डादिभियुक्तः शौचाचारसमन्वितः। आहूतो5ययनं | 


_ नास्य निर्माल्यशयनं पादुकोपानहाचपि ।-आक्रामेदासनं चास्य च्छायादीला | 


¢ 


त्रिपऽचाइात्तमो ऽध्यायः 
ब्रह्चारिधमंकथनस्‌ । 
व्यास उचाच। 3 
नित्यमुद्यतपाणिः स्यात्साध्वाचारः सुसंयतः, 
आस्यतामिति चोक्तः सन्नासीताभिसुखं शुरोः ॥ २॥ 
प्रतिश्रचणसम्भाषे शयानो न समाचरेत्‌ । 
आसीनो न च भुञ्जानो न तिएन्न पराङ्मुखः ॥ इ ॥ 
नीचैः शय्यासनं चास्य सवेदा शुरुखन्निधौ । शुरोस्तु चञ्चुविषये न यशेष 
नोदाइरेद्स्य नाम परोक्षमपि केबळम्‌ । न चैघास्यानुकुषीत, गतिभाषणे// 
गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा घापि प्रवतेते। क्णो तच पिधातन्यौ गन्तब्य लो. 
दूरस्थो नाचंयेदैनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रियः । | 
न च घास्योत्तरं ब्रु यात्स्थितो नासीत सन्निधौ ॥ ७॥ 
उद्कुम्भ॑ कुशान्पुष्पं समिधोऽस्याहरेत्सदा । माजेन लेपनं नित्यमङ्गानां वे पा 


न पादौ सारयेदस्य सन्निधाने कदाचन । जस्मितं हसितं चैच कण्ठप्राबरणं १ 
वजेयेत्सन्निधौ नित्यमङ्गस्फोटनमेव.च । यथाकालमधीयीत यावत्न वि 
आसीनोऽधोशुरोः पाश्वं सेचां च सुसमाहितः । आसने शायने याने नेवि 


'घाचन्तमनुधावेत गच्छन्तमनुगच्छति । गोऽश्चो प्रयानप्रासादे तथा$्धोगिऐी 


आसीत शुरुणा साद्ध॑ शिलाफलकनो षु च | 
जितेन्द्रियः स्यात्सततं बश्यात्माऽक्रोधनः शुचिः ॥ १५॥ 


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£ .] # ब्रह्मचारिधर्मेचर्णनम्‌ % शृ 


प्रयुञ्जीत सदा घाचं मधुरा हितकारिणीम्‌। 

गन्धमाल्यं रस कट्पं शुक्ति पाणिषिहिसनम्‌ ॥ १६ ॥ 

पानं छत्रधारणमेच च । कामं लोभं भयं निद्रां गीतवादित्रनतेनम्‌॥ . 

। परीवादं र्रीप्रेक्षालम्भनं तथा । परोपघातं पैशुन्यं प्रयत्नेन विचजेयेत्‌ ॥ १८॥ 

| सुमनसो गोशरन्शत्तिकाङशान्‌। आहरेयावदन्नानि भैक्ष्यं चाहरहश्चरेत्‌ ॥ 

(हणं सवं घञ्यं पर्युषितं च यत्‌ । अनृत्यदर्शो सततं भवेद्गीतादिनिस्पृहः ॥ 

[वै समीहेत नाचरेदइन्तथावनम्‌। पकान्तमशुचि खरीभिः शूद्राद्यैरभिभाषणम्‌ ॥ 

| मेषजाथं प्रयु्जीत न कामतः। मलापकर्षणं त्रानं नाचरेद्धि कदाचन ॥ 
कुर्यान्मानसं विप्रो शुरोस्त्यागे कथञ्चन। 

मोहाद्वा यदि घा लोभास्यत्तचा तु पतितो भवेत्‌ ॥ २३॥ 

| लौकिकं वेदिकं वापि तथाऽध्यात्मिकमेव वा । 

4 आददीत यतो ज्ञानं तं न हुह्येत्कदाचन ॥ २४॥ 

एपवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । उत्पथं प्रतिपन्नस्य मनुस्त्यागमथाब्रघीत्‌॥ 

गरो सन्निहिते गुरुवदुच्व क्तिमाचरेत्‌ । नत्वाऽभिसरष्टो गुरुणा स्वान्गुरूनमिवादयेत्‌ 

जी गुरुष्वेतदेव नित्या व्वत्तिघु योगिषु । प्रतिषेधत्खु चाधमांद्धितं चोपदिशत्छु च 

नौर गुरुवदुवत्ति नित्यमेव समाचरेत्‌ | गुरुपुत्रे दारेषु गुरोश्चैव स्ववन्धुषु ॥ 

है। वाः संमानयेन्मान्याञ्छिष्यो चा यज्ञकर्मणि। ` 

| अध्यापथन्शुरोः सू चुर्गुरुचन्मानमदेति ॥ २६ ॥ 

हसं च गात्राणां स्वापनो च्छिएमोजने । न कुर्यादुणस्युत्रस्य पादयोः शौचमेच च 
तितपूज्याश्च सचर्णाशुरुयो षितः । असबर्णाश्च सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिषादने 

अभ्यञ्जनं स्रापनं च गात्रोत्सादममेव च । 

| शुस्पत्न्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम्‌ ॥ ३२॥ 

[गो तु युवतीनाभिवाद्या तु पादयोः । कुर्वोत चन्दनं भूम्यामसावहमितित्र्‌_चन्‌ 

| पादमहणपूरवेकै चाभिवादनम्‌ । गुरुदारेष कुर्वात संतां भममचुस्मस्य्‌॥ 


[भिवादनम्‌ । गु 
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BR ` #पाइएुस्णय# [१ 
मादृष्वसा मातुलानी श्वशरूश्चाथ पिठःबसा । च , 
श्रातृभार्याश्च सङग्राह्या सवर्णा 5हन्यहन्यपि । | 
विप्रोष्य तूपसङ्ग्राह्मा ज्ञातिसम्बन्धियो षितः ॥ ३६ ॥ 
पितुर्भेगिन्या मातुश्च ज्यायस्यां च स्चखयेपि। 
मातृवदुवृत्तिमा तिष्ठेन्माता हास्यो गरीयसी ॥ ३७॥ 
एचमाचारसम्पन्नमात्मचन्तमदाम्मिकम्‌ । चेदमध्यापयेद्धम पुराणाङ्गानि नर 
संवत्सरोषिते शिष्ये गुरुज्ञानमनिदिशन, । हरते दुष्कृतं तस्य शिष्यस्य वसते! 
आचार्यपुत्रः शुधूपुरक्षानदो घामिकः शुचिः। 
शक्तोऽन्नदोऽम्बुदः साधुरध्याप्या दश धर्मेतः ॥ ४०॥ 
कृतकण्ठस्तथा द्रोही मेधावी गुरुकन्नर; । 
आप्तः प्रियोऽथ विधिवत्षडध्याप्या ,द्विजातयः ॥ ४१॥ 
एतेषु ब्राह्मणे दानमन्यत्र तु यथोचितम्‌। आचम्य संयतो नित्यमधीयीत अनन 
उपसङ्गृह्य तत्पादौ धीक्षमाणो गुरोमुखम्‌ । ट 
अधीष्व भो इति व्र याह्विरामो ऽस्त्विति चाऽऽरमेत्‌ ॥ ४३॥ 
ग्राक्कूलान्पर्यपासीत पचित्रेश्चैच पावकः । प्राणायामे स्त्रिभिः पूतस्तत ओड 
ब्राह्मणः प्रणवं कुयांद्न्तेऽपि विधिवद्‌ द्विजाः । 
कुयांदध्यापनं नित्यं स ब्रह्माञ्जलिपूर्वतः ॥ ४५ ॥ 
सर्वषामेव भूतानां वेद्श्चश्चुः सनातनम्‌ । अधीयीताप्ययं नित्यं व्राह्मण्याद्ीय 
अधीयीत अचो नित्यं क्षीराहुत्या सदेघताः । प्रीणाति तर्पयन्काळं कामैश 
यजूंष्यधीयते नियतं दध्ना प्रीणाति देवता: । 
सामान्यधीते प्रीणाति घुताहुतिभिरन्वहम्‌ ॥ ४८॥ | 
अथर्घाङ्गिरसो नित्यं मध्वा प्रीणाति देवता: । 
धर्माज्ञानि पुराणानि मांसेस्तपेयते सुरान्‌ ॥ ४६॥ हः 
प्रातक्ष सायं झयूतो तेत निप्रिम्राथिकजमाचजी,उम्रधीयरी्वहात्वाउस | 


] + ब्रह्मचारिधर्मवर्णनम % इः 

याँ देवीं शतमध्य। द्शावराम्‌। गायत्री चै जपेन्नित्यं जपयज्ञः रकी तितः ॥ा 11 

चैव वेदांश्च तुलया5तोलयत्प्रभुः | एकतश्चतुरो वेदा गायत्री च तथैकतः ॥ 
ओङ्कारमादितः इत्वा व्याहतीस्तदनन्तरम्‌ । 

_ ततोज्यीयीत खाचित्रीरेकाग्रः भ्रद्धयान्चितः ॥ ष३॥ 

| कहे ससुत्पत्ना भू भुंवःस्वः सनातनाः । महाव्पाहतयस्तिस्त: सर्वाशुभनिव णा 


ने पुरुषः का लो विष्णुद्रह्ममहेश्वराः । सः र नस्तम स्तिरः क्रमाद्वयाहृतपः स्मुता 
उॅम्कारस्तत्परं ब्रह्म साचित्रो स्यात्तदुत्तरम्‌ | 

एष मन्त्रो महायोगः सारात्सार उदाहतः ॥ ५६ ॥ : 

योऽधी तेऽदन्यहन्येतां गायत्रीं देद्मातरम्‌। 

विज्ञायाथ ब्रह्मचारी स याति परमां गतिम्‌ ॥ ५३॥ 

त्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी । गायञ्या न पर जप्यमेतद्विज्ञाय सुच्यते ॥ 
श्रावणस्य लु मासस्य पौर्णमास्या द्विजोत्तमाः । 

प्रोष्ठपद्यां वा वेदोपाक एणं स्सृतम्‌ ॥ ५६॥ 

त्पूपयाम्यगमतं मासान्विप्रोऽद्‌ गञ्चमान्‌। अधीयीत शुचौ देशे ब्रह्मचारी समाहितः 
पुष्ये तु च्छन्द्खां कुर्यादुब दिरुत्सजेनं द्विज: । 

मासि शुक्कस्य चा प्राप्ते पूर्चाहने प्रथमेऽहनि ॥ ६१ ॥ 

छन्दासि च द्विजञोऽम्यस्येच्छुङ्गपक्षे तु १ द्विजः। 

वेदाङ्गानि पुराणानि कृष्णप श्षेषु मानवः ॥ ६२॥ 
|पनित्यमनऽयायानधीयानो विवर्जयेत्‌ । अध्या गनं च कुर्वाणोऽभ्यस्यन्नपि प्रयत्नतः ` 
|िभ्रवेऽनिले रात्रौ दिवा पांसुसमूहने । विद्युतस्तनिःषर्षेछु महोल्कानां च सम्प्लवे 
पालिकमनध्यायपेतेष्वाह प्रजापतिः | पतानम्युदितान्विद्याद्चदा प्रादुष्कताभिषु ॥ 
षि विद्यादुनध्यायमनृत्तौ चाभ्रदर्शने । निर्घाते भूमिचलने ज्योतिषां चोपसजेने॥ 
| तानाकालिका न्विद्यादनध्यान्रतावपि । प्रादुष्कतेष्वस्निषु च चिद्युत्स्तनितनिस्वने ॥ 
A स ज्योतिः स्यादनध्यायः शोषे रात्रौ यथा दिघा । 


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-श््टः र र "क्ष 212 म : ३ 
_ नित्यानध्याय एच स्यादु ग्रामेघु नगरेषु च ॥ ६८ ॥ 
. घर्मनैपुण्यकामानां पूतिगन्धं च नित्यशः । अन्तःशषगते ग्रामे वृषलस्य च सा 
अनध्यायोरुद्यमाने समये जळदस्प च। उदके चाधरात्रे च चिण्मूत्रं च पिस न 
उच्छिष्टः श्राद्धमुक्चैव मनसा5पि न चिन्तयेत्‌ । | 
प्रतियरह्य द्विजो विद्वानेको दिष्टस्य वेतनम्‌ ॥ ७१॥ १ 
ऽयहं न कारयेदुब्रहम राशोराहोश्व सूतके । यावदेकान्ननिष्ठा स्यात्स्नेहालोपश्च ।.,, 
विप्रस्य चिढुषो देहे तावदु ब्रह्म न कोतेयेत्‌। °. 
शयानः प्रौढपादश्च कत्वा चैवावसक्थिकाम्‌ ॥ ७३ ॥ 
नाधीयीतामिषं जग्ध्वा शूद्रश्राद्धान्नमेच च । नीहारे वाणशाब्दे च सन 
अमावास्याचतुर्ेश्योः पौर्णमास्यष्टमीछु च । 
उपाकर्मणि चोत्खगे निरात्रं क्षपणं स्सृतम्‌ ॥ ७५॥ 
अएकासु अहोरात्रम्त्वन्ताजु च रात्रिषु। मागशीर्षे तथा पौषे माघमासे तैः 
तिस्रोऽएकाः समाख्याताः कृष्णपक्षेषु सूरिभिः । 
` शलेष्मातकस्य च्छायायां शादमलेमेधुकस्य च ॥ ७७॥ 
कदाचिदपि नाध्येयं कोविदारकपित्थयोः । समानविद्ये च सृते 0 
आचार्य संस्थिते चापि त्रिरात्रं क्षपणं स्मृतम्‌ । 
छिद्राण्येतानि 'विप्राणांमनध्यायाः प्रकी त्तिताः ॥ ७६ ॥ 
हिंसन्ति राक्षसास्तेषु तस्मादेता न्विचजेयेत्‌ । 
नत्यके नास्त्यनध्यायः सन्ध्योपासन एव च ॥ ८० ॥ 
उपाकमणि चोत्लगें होममध्ये तथैव च | एकासुचमथैकं था यजुः सामानि पाए र 
नाएकाद्यास्वधीयीत मारुते चामिधावति । अनध्यायस्लु नाङ्गेघु नेतिहासपुराण्ये| 
न धमशास्त्रेष्वन्येषु सर्वाण्येतानि चजेयेत्‌ । एष धर्म: समासेन कीर्तितो ब्रह्मा | 
ब्रहाणा5भिहितः पूवेसुषीणां भावितात्मनाम्‌ । | 
योऽन्यत्र कुरुते यत्नमनधीत्य श्रुति द्विज: ॥ ८४ ॥ 


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समूढोन सम्भाष्यो वेदघाह्यो द्विजातिभिः ।.न वेद्पाठमात्रेण न्तो बै भवेद्वः 


| संमूहः शूद्रकट्पः पात्रतां न प्रपद्यते । यदि त्वात्यन्तिकं चासं कर्वमिच्छति बै गुरौ 

; परिचरेदैगमाशारी रविमोक्षणम्‌ । गत्वा बनं च चि धिवज्जुहुयाज्ञातवेद्सम्‌ हु ॥ 
|ब्रायीत तथानित्यं त्रह्मनिष्ठः समाहितः । सावित्री शतरुद्रीयं चेदान्तांश्च विदोषतः 
| अभ्यसेत्खततं युक्तो भिक्षाशनपरायणः। 

` एतद्विधानं परमं पुराण वेदागमे सम्यगिद्दोदितं च: | . 

पुरां महषिप्रवरामिपृष्ट: स्वायम्मुवो यन्मनुराह देव: ॥ ६० ॥ 

इति श्रीपाझे महापुराणे स्वर्गखण्डे कमेयोगकथने ब्रह्मचारिधर्मकथनं नाम 
त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥ 


अर. 


प 

ग्ृहस्थधमकथनम्‌ । 

व्यास उचाच 
वेदं वेदौ तथा वेदान्वैदाङ्गानि तथा द्विजाः। 
अधीत्य चाधिगस्यार्थ ततः स्नायाद्‌ द्विजोत्तमः ॥ १॥ 
तु धनं दृत्त्वा स्वायीत तदनुज्ञया । तीर्णत्रतोऽथ युक्तात्मा शक्तो वा ख्ातुमहति 
| ग घास्येद्यष्टिमन्तर्वासस्तथोत्तरम्‌ । यज्ञोपवीतद्वितयं सोदकं च कमण्डलुम्‌॥ 
| वोष्णीषममलं पाडुके चाप्युपानही । रौक्मे च कुण्डले धार्ये छत्तकेशनखः शुचिः 
| अन्यत्र काञचनाद्विप्रो न रक्ता बिम्यात्लजम्‌। ` 
ला रुक्षाम्बरधरो नित्यं सुगन्धः प्रियद्शनः ॥ ५॥ 
| थ्विद्ठासा भवेद्दे विभवे सति। न रक्तमुल्वणं चान्यधृतं घासो न कुण्डलम्‌ 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangol_ 6 Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


((#त्रवसानस्त॒ पै गौरिव सीदति । योऽधीत्य विधिवद वेदाथ न विचारयेत्‌ ` 


ऽध्यायः ] ३ गृहस्थघमेकथनम्‌ # [ १६६ 3 


| 


७ 
( 
५ 
| 


& १७० 0000 # पाद्मपुराणम्‌ # [वस 
_नोपानहौ स्रजं चाथ पाढुके च प्रयोजयेत्‌ | उपवीतमलङ्कार दर्भान्कष्णाजिनं 


: त्रा 
नापसव्यं परीदध्याद्वासोन विकृतं वसेत्‌ । आहरैद्विचिवद्दारान्सद्वशानातनगुक, 
रूपलक्षणसंयुक्तान्यो निदोषचिवजितान्‌ | असपिण्डां च वै मालुरसमानाषेगेजश | 


, आहरेद्‌ ब्राह्मणो भायां शीलशीचसमन्पिताम्‌ । 
ऋतुकालाभिगामी स्याद्यावत्पुत्रो ऽभिजायते ॥ १० ॥ | 
चजेयेत्प्रतिषिद्धानि प्रयत्नेन दिनानि तु । षष्ठ्यए मो पश्चदशींद्वादशीं न चनु | 
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं तढजञान्मत्रयाहनि । आदधीत विवाहा जुहुया जातवेद 
- एतानि स्नातको नित्यं पाचनानि च पाचयेत्‌ । 
वेदोदितं स्वकं कमे नित्यं कुर्यादतन्द्रितः ॥ १३ ॥ | 
अकुर्वाणः पतत्याशु नरकानतिमीषणान्‌। अभ्यसेत्प्रयतो चेद्‌ महायज्ञान्न हागे. 
कुर्यादु गृह्याणि कार्याणि सन्ध्योपासनमेच च । 
सख्यं समाधिकः कुर्या दुपेयादीश्वरं सदा ॥ १५॥ 
देवतान्यभिगच्छेत कुयांद्वार्या भिपोषणम्‌। न धमं ख्यापयेद्विद्वान्न पापं गृहपेर। 
कुर्घीतात्महितं नित्यं सर्वभूतानुकम्पकः । वयसः कर्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याभिजस' 
देशवागुद्धिसारुप्यमाचरन्विचरेत्सदा । श्रुतिस्मत्युदितं .सम्यक्‍्साघुभियेश्र सेति 
तमाचारं निषेवेत नेहेतान्यत्र कहिचित्‌ । येनास्य पितरो याता येन याताः पिता 
तेन यायात्सतां मागं तेन गच्छन्न दुष्यति । 
नित्यं स्वाध्यायशीलः स्यान्नित्यं यज्ञोपवीतवान्‌ ॥ २०॥ 
सत्यवादी जितक्रोधोलोभमोहविचर्जितः । सावित्रीजापनिरतः अ्रादइन्सुच्यते 
मातापित्रोहितेयुक्तोः ्राह्मणस्यहिते रतः | दाता यज्या देचभक्तो ब्रह्मलोके ह । 
त्रिवगेसेची सततं देवानां च समचेनम्‌। कुर्यादहरहर्चित्यै नमस्येत्मयतः ए 
विभागशीलः सततं क्षमायुक्तो दयाछुकः । | 
गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्‌ ॥ २७ ॥ 
क्षमा दया च विज्ञान सत्यं चेच दमः शमः । अध्यात्म नित्यता ज्ञ 


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ुष्प्वाश्तमोऽध्यायः ] + गृहस्थघर्मेकथनम्‌ : ० 
स्मान्न प्रमाद्येत विशेषेण द्विजोत्तमः । य्थाशक्ति चरन्धर्म निन्दितानि चिचजंयेत्‌ 
विधूय मोहकलिलं लब्ध्वा योगमनुत्तमम्‌ । 
गृहस्थो सुच्यते बन्धान्नात्र कार्या विचारणा ॥ २७॥ 
बेगहितजयक्षेंपहिसाबन्धवधात्मनाम्‌ । अन्यमन्युसमुत्थानाँ दोषाणां मर्षणं क्षमा ॥ 
खढुःखेष्वेच कारुण्यं परडुःखेषु सोहदम्‌। दयेति मुनय प्राहुः साक्षाद्धमंस्य साधनम्‌ ` 
|| बुदंशानां विद्यानां धारणा हि परार्थेतः | चिज्ञानमिति तद्विद्यायेन धमो विवर्धते ॥ 
| अधीत्य विधिषद्विद्यामर्थं चेचोपलम्यते । धर्मकार्याणि कुर्वीत हयतद्विज्ञानसुच्यते ॥ 
सत्येन लोकं जयति सत्यं तत्परमं पदम्‌ । ययाभूताप्रमादं तु सत्यमाहुर्मनीषिणः ॥ 
झशरीरोपरतिः शामः प्रज्ञाप्रसादतः | अध्यात्ममक्षरं विद्या यत्र गत्वा नशोचति ॥ | 
| गया स देवो भगधान्विद्यया विद्यते परः । साक्षादेव हृषीकेशस्तज्ज्ञानमितिकी तितम्‌ | 
तन्निष्ठस्तत्परो विद्वान्नित्यमक्रोधनःशुचिः | 
महायज्ञपरो विप्रो ळभते तदचुत्तमम्‌ ॥ ३५ ॥ 
नि घमेस्यायतनं यत्नाच्छरीरं परिपालयेत्‌ । नहि देहं विना विष्णुः पुरुबैचिद्यते पर॥३६॥ 
1) त्यं धर्माथंकामेषु युज्येत नियतो द्विज: | न धर्मवित काममर्थं घा मनसा स्मरेत्‌ 
सीदन्नपि हि धर्मेण नत्वधर्म समाचरेत्‌ । घमो हि भगवान्देवो गतिः सर्वेषु जन्तुषु 
भूतानां प्रियकारी स्यान्न परद्रोहकर्मधीः । न वेददेचतानिन्दां कुर्यात्तेश्न न संवसेत्‌ ॥ 
यस्त्विमं नियतो मर्त्यो धर्माध्यायं पठेच्छुचिः। 
अध्यापयेच्छाचयेद्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ ४२ ॥ 
इति श्रीपाद्म महापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे 'गृहस्थधमकथनं नाम 
चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४॥ " ` 


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(७-0. Mumukshu Bhawan VaranestGollecionsDigiized DyreCST i 0 Collection. Digitized by eGangotri & 


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पञ्चपञ्चाशत्तमो ऽध्यायः 
गृहस्थाचारनी तिवर्णनम्‌ । 


व्यास उवाच । 
न हिंस्यात्सर्वभूतानि नाकृतं घा वदेत्कचित्‌। 
नाहितं नाप्रियं वाच्यं न स्तेनः स्यात्कदाचन ॥ १॥ 
तृणं घा यदि चा शाकं सुदं घा जलमेव च | परस्यापहरञ्चन्तुनेरकं प्रतिपद्यते। । 
' न राज्ञः प्रतिग्रह्वीयान्न शूद्रात्पतितादपि | न चान्यस्मादशक्तश्नेन्निन्दितान्वजंयेलुए: 
नित्यं याचनको न स्यात्पुनस्तं नेच याचयेत्‌। 
प्राणानपहरत्येचं याचकस्तस्य दुमेतेः ॥ ४ ॥ 
न देवद्रव्यहारी स्याद्विशेषेण द्विजोत्तमः । ब्रह्मस्चं चा नापहरेदापत्स्घपि कदाच! 
न विषं विषमित्याहुत्रह्मस्वं चिषसुच्यते । देवस्वं चापि यत्नेन सदा 
पुष्पं शाकोदक काष्ठं तथा मूल फळं तृणम्‌ । अदत्तानि च नस्तेयं मनुः प्राह प्रजाए 
ग्रहीतव्यानि पुष्पाणि देवाचेनविधौ द्विजाः । नैकस्मादेव नियतमनचुज्ञाय केवल! 
. तृणं काष्ठं फळं पुष्पं प्रकाशं वे हरेदुबुधः । धर्मार्थं केवलं प्राहुरन्यथा पतितो भवेत्‌ 
तिलपुद्रयचादीनां सुष्टिग्राह्या पथि स्थिते: । 
क्षुधितेर्नान्यथा घिप्रा धर्मादिभिरिति स्थितिः ॥ १० ॥ 
न धर्मस्यापदेशेन पातं त्वा बतं चरेत्‌ । व्रतेन पापं व्यागुह्य कुवेन्ल्लीशृद्॒दम्भण।|; 
गत्येह चेद्दशो विप्रो ग्चते ब्रह्मयादिभिः। छद्मना चरितं यञ्च व्रत रक्षांसि गच्छ 
अङिङ्गी लिङ्गिवेषेण यो बृत्तिमुपतिष्टति। स लिङ्गिनो हरेदेनस्तिर्यग्योनी च उ 
याचनं योनिसम्बन्धं सहवासं च भाषणम्‌ । कुर्वाणः पतते नित्यं तस्माद्यत्नेन | 
देवद्रोहं न कुर्बोत गुरुद्रोहं तथैच च। देचद्रोहाद्गुरुद्रोह को रिको टिगुणाषिर ! 


जनापचादो | 
CC-0. Mumukshu Bhawan श स्माट्को हिग्रुणाश्िक्रस, by eGangotri ४ 


पन्चमी ऽध्यायः ] + गृहस्थाचारनीतिकयनंम% ` १७३ 
गोभिश्च देवतेचिपरैः कृष्या राजोपसेवया ॥ १६॥ ` र 
हुांन्यंकुलतां यान्ति.यानि हीनानि घमेतः। कुविचारे:. क्रियालोपैचेदानध्ययनेन च 
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च । | 
अन्र्तात्पारदायांच्च तथाऽभक्ष्यस्य अक्षणात्‌ ॥ १८॥ 
अगोत्रधर्माचरणात्क्षिप्रं नश्यति वै कुलम्‌ । अशोत्रियेषु दानाच्च वृषलेषु तथे 
विहिताचारहीनेषु क्षिप्रं नश्यति चै कुलम्‌ । अधामिकेद ते ग्रामे | 
[राज्ये च न वसेन्न «पाखण्डजनैब्र ते हिमवद्दिन्योमध्यं पूर्वेपश्चिमयोः शुभम्‌ ॥ 
सुक्तवा ससुद्रयोदेशं नान्यत्र निवसेदु द्विजः। 
० कृष्णो था यत्र चरति स॒गो नित्यं स्वभावत: ॥ २२॥ 
पुण्या था विश्रुता नद्यस्तत्र वा निवसेदु द्विज: | 
अद्धक्रोशं नदीकूलं वर्जयित्वा द्विजोत्तमः ॥ २३॥ 
नान्यत्र निवसेत्पुण्यं नान्त्यजग्रामसन्निधी | 
5 संचसेश्च पतितेने चाण्डालैनंपुरकसैः ॥ २४ ॥ 
न मूर्खेनांवलिप्तैश्व नान्येर्जायाचसायिमिः । . 
एकशय्यासने पङ्क्तिभाण्डे पक्कान्नमिश्रणम्‌ ॥ २५॥ ४ 
पनाध्यापने योनिस्तथैव सहभोजनम्‌। सहाध्यायस्तु दशमः सहयाजनमेच च ॥ 
एकादशससुद्दिष्टा दोषाः साडुयेसंस्थिता: । ; 
। समीपे चाप्यवस्थानात्पापं सङ्क्रमते नृणाम्‌ ॥ २७॥ ५ 
ऐमात्सवेप्रयत्नेन साङ्कय्य परिचर्जयेत्‌ । एकपङ्क्त्युपघिष्टा ये न स्पृशन्ति परस्परम्‌ 
"मना कृतमयांदा न तेषां सडूरो भवेत्‌ । अग्निना भस्मना चैत्र सलिलेन विलेखतः 
द्वारेण स्तम्भमार्गण षड्भिः पङक्तिविभिद्यते । 
न कुर्याच्छुष्कवैराणि विवाद न च पैशुनम्‌ ॥ ३० ॥ 
1 [न गां चरन्तीं न चाचक्षीत कर्हिचित्‌ । न संवसेत्सूचकेन न क॑ बै मर्मणि स्पृशेत्‌ 
| अपरिदेष था नेन्द्रचापं शराग्निकम्‌। परस्मै कथयेद्विदवाञ्छशिनं वाथ काञ्चनम्‌ | 
& CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGango ८ 


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` न कुर्यादु बहुभिः साधं विरोधं वन्घुमिस्तथा । 
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌ ॥ ३३॥ 
“तिथि पक्षस्य न ब्र यान्तक्षत्राणि न निद्रित । 
. ` नोदक्यामभिभाषेत नाशुचि घा द्विजोत्तमः ॥ ३३॥ . 
न देवगुरुविप्राणां दीयमानं तु वास्येत्‌। न चात्मान प्रशंसेद्वा परनिन्दां च के 


घेदनिन्दा देचनिन्दा प्रयत्नेन विषजेयेत्‌ । यस्तु देवानर्षीञ्चैच चेदान्वा निन्दते ६, 

न तस्य निष्कतिङ्र टा शास्त्रेष्विह सुनीश्वराः । “ 

निन्दयेद्वा शुरं देवं वेदं वा सोपवू हणम्‌॥ ३७॥ 

कल्पको टिशतं साग्रं रौरवे पच्यते नरः । तूषणीमाखीत निन्दायां नत्र यात्किञ्चिदत॥; 

कृणौ पिधाय गन्तव्यं न चैनमवलोकयेत्‌। पर्जयेड्े रहस्यानि परेषां गं क| 

विवादं स्वजनैः साड न कुर्याद्वै कदाचन । न पापं पापिनां ब्रू यादपापं वा हवि 

_ सत्येन तुल्यो दोषः स्यादसत्याद्दोषवान्मवेत्‌ । 

नृणां मिथ्यामिस्तानां पतन्त्यश्रूणि रोदनात्‌ ॥ ४१ ॥ 

तानि पुत्रान्पशून्धधन्ति तेषां मिथ्याभिशंसिनाम्‌ । त्रह्महत्याखुरापाने स्तेये गुव 

दृं वै शोधनं वृद्धेर्नास्ति मिथ्यामिशंसने । नेक्षेतोधन्तमा दित्य शशिनं चऽति 

नास्तं यान्तंन चारिस्थं नोपस्पृष्टं न मध्यगम्‌ । तिरोहितंखमीक्षेत नादशांधयुर्णात 

न नग्नां खियमीक्षेत पुरुषं चा कदाचन। न च मूत्रं पुरीषं घा न च संसु 

. नाशुचिः सू्येसोमादीन्प्रहानालोकयेद्दुंधः। नाभिभाषेत च परसुच्छिएटो वाउ 

न पश्येद्योमसंस्पश न कुद्धस्य गुरोमुखम्‌ । 

न तैलोदक्रयोशछायां न पङ्क्ति भोजनेऽसति ॥ ४७॥ | 

न सुक्तवन्धनं पश्यन्नोन्मत्तं गजमेव चा । नाश्नीयाद्वार्यया साडू नेनामीक्षेतवा | 
श्रुचतीं जुम्ममाणां चा नासनस्थां यथाखुखम्‌ । 

. _ नोदके चात्मनो रूपं शुभं घाऽशुभमेच चा ॥ ४६॥ a 

न लङ्गयेच्च मतिमान्नाधितिष्ठेत्कदाचन । न शूद्राय मतिं दद्यात्ङरं पायर ` | 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


छु 1 3 गहस्थाचारनीतिकथनम्‌ क्ष - 
नोच्छिष्टं चा मधु घृतं न च कृष्णाजिन हवि: | 
न चैवास्मै घतं ब्र यान्न च धर्म चदेदु बुधः ॥ ५१ ॥ 
न च क्रोधवशं गच्छेद्‌ द्वेषं रागं च चजेयेत्‌ । 
लोभृं दम्भ॑ तथा शावं हासूयां ज्ानकुत्सनम्‌ ॥ ५२॥ 

ईर्ष्या मदं तथा शोक मोहं च परिवर्जयेत्‌ । ' ` 

न छुर्यात्कस्यचित्पीडां सुतं शिष्यं तु ताडयेत्‌ ॥ ५३॥ | 

गहीनाचुपसेवेत न च तृ्णामतिः कचित्‌ । .नात्मानं चाचमन्येत दैन्यं यत्ने चर्जयेत्‌ 
1 विशिएमसत्कुर्यान्नात्मानं चासनादुवुधः। न नखेनलिखेदुभूर्मिगाँ च उ दे 
तगदीपु नेदी धरू यात्पर्वेतेछु च पर्वतान्‌ । आवासे भोजने वापि न त्यजेत्सहयायि 
| गबगाहेदपो नग्नो चह्नि नातिस्पृशेत्तथा | शिरोऽभ्यङ्काच शिष्टेन तेखेनाङ्गं न ले कक 
| न सर्पशस्त्रेः क्रीडेत स्वानि खानि न संस्पृशेत्‌ । क 
रोमाणि च रहस्यानि नाशिषेन सह बजेत्‌ ॥ ५८ ॥ 
छुँ समुपाश्रयेत्‌ । न शिश्नोद्रचापल्यं च श्रवणयोः क्कि 
न चाङ्गनखवाद्य वे कुर्यान्वाञ्जछिना पिवेत्‌ । , किक 
॥ नाभिहन्याज्जलं पदुभ्यां पाणिना वा कदाचन ॥ ६० ॥ 


॥ हिमेद्नमास्फोटं छेदनं घा विलेखनम्‌ । कुर्य्याद्विमईन धीमान्नाकस्मादेव निष्फलम्‌ 
नोत्सङ्गे भक्षयेदुभक्ष्यं वृथाचेष्टां न चाचरेत्‌ । 

न नृत्येद्थवा गायेन्न घादित्राणि वादयेत्‌ ॥ ६३ ॥ 

न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मनः शिरः । 

न रोकिकेः स्तवै्देवांस्तोषयेद्वाक्पतेरपि ॥ ६४ ॥ 

नाक्षैः क्रीडेन्न धावेत नाप्छु विण्मूत्रमाचरेत्‌ । 

नोच्छिष्टः संबिशेन्नित्यं न नञः खानमाचरेत्‌ ॥ ६५ ॥ 

न गच्छंस्तु पठेद्वापि न चैव स्घशिरः स्पृशेत्‌ । 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection: ०९५०-५७ Digitized by eGangotri 


१७५ ` 


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शा दिष्टिकासिर्मूलानि च फलानि च । न म्लेच्छमाषणं शिक्षेत्नाकर्षेच्च पदासनम्‌ 


४ 


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न दन्तैनेखरोमाणि च्छिन्थात्खुप्त न बोधयेत्‌ ॥ ६६॥ | 
न वाळातपमासेवेत्प्रेतधूमं विवर्जयेत्‌। नैव स्वप्याच्छून्यगेहे स्वयं नो 


नाकारणाद्वा निष्ठीवेन्न बाहुम्यां नदीं तरेत्‌। न he कुर्यात्‌ पादे इ 
नानी प्रतापयेत्पादी न कांस्ये घावयेदुबुधः । नाभिप्रस ब्राह्मपानामरपा | 
चाय्वग्निद्पविप्रान्वा सूयं चा शशिनं प्रति । < 

अशुद्धः शायनं पानं स्वाध्यायं ख्ानभोजनम्‌ ॥ ७० ॥ 
बहिनिष्कमणं चैव न कुर्वीत कदाचन । स्वप्नमध्यमनं रूपानमुद्र्त भोजन गा 
उभयोः सन्ध्ययोनित्यं मध्याहे चेव वर्जयेत्‌ । क्क 
न स्पृरोत्पाणिनोच्छिष्टो विप्रो गोब्रा ८झमणानळान ॥ ७२॥ ' 
न चाळनं पदा वापि नदेवप्रतिमां स्पृशेत्‌ | नाशुद्धो ऽग्नि परिचरेन्न 
नावगाहेदगाधाम्बु थावयेन्नाऽनिमित्ततः। न घामहस्ते नोदुधृत्य पिवेदववत्रेण वाङ 
नोत्तरेदनुपस्पृश्य़ नाप्खु रेतः समुत्सजेत्‌ । अमेध्यालिप्तमह वा लोहितं बा वि 
व्यतिक्रामेन्न खबन्तीं नाप्खु मैथुनमाचरेत्‌ । चैत्यत्रषं न वे छिन्यान्ताप्सु वता 
नास्थिभस्मकपाळानि न केशान्त च कण्टकान्‌ । तुषाङ्ारकरीषं घा नाधितित्सन्‌ 
न चाग्नि लङ्कयेद्धीमान्नौपद्ध्यादघः कचित्‌ । न चैनं पादतः कुर्याच्छूपेण न घोल 
न वृक्षमवरोहेत नावेक्षेताशुचिःकचित्‌। अग्नौ न च क्षिपेदग्नि नादुसिःग्रशमरेक| 
सुहन्मरणमात्रं चा स्वयं न श्राचयेत्परान्‌। अपण्यं कूटपण्यं था विक्रये न प्रो 
न बहि सुखनिःश्वासेजर्चांलयेन्नाशुचिवुधः । पुण्यस्थानोदकर्थाने सीमान्त वाह ! 
न मिन्दात्पूर्वसमयमम्युपेत कदाचन । परस्पर पशून्व्याघान्पक्षिणों न च योषे 
परवाधां न कुर्वीत-जलवातातपाद्भिः । कारयित्वा सुकर्माणि गुरुन्पश्चाल | 
सायं प्रातर्णहद्वारान्रक्षार्थ परिघट्टयेत्‌ । बहिर्माल्यं सुगन्धि वा भार्यया सह | 
विणृह्य वाद इत्वा वा प्रवेशं च विबजेयेत्‌ । 
_ न खादत्त्राह्मणस्ति्ठेन्न जल्पे्धा हसेदु बुधः ॥ ८५॥: | 
स्वमझि चेव हस्तेन स्पृशेन्नाप्छु चिर घसेत्‌। न पक्षकेणोपधमेन्न शूर्पेण च | 


CE-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


करप्ाशत्तमी 5ध्यायः ] ॐ मक््यामक्ष्यनिर्णयवर्णनम्‌ क * ः रा ही Fe 
कामि तानि Ee om स न भाषेत 

(रे £ प्रः समुदाय च चजयेत्‌ गयतनं गच्छे चिद्वाऽप्रद 

( पीडयेद्वा वस्त्राणि न देवायतने स्वपेत्‌ । कोऽ तना बा 

| | ध्याधिदूषितर्वापि न शूद्रैः पतितेन घा । नोपानद्वजितो घाऽथ जहा ली 
| न वत्मेनि चिति घाममतिक्रामेत्करचिद्‌ द्विज: । र 

न निन्देद्योगिनः सिद्धान्वतिनो घा यतींस्तथा ॥ ६१॥ 

देवतायतनं भर्ना देवानां चेव सत्रिणाम्‌. | 

नाक्रामेत्कामतश्छायां घ्राह्मणानां च गोरपि ॥ ६२॥ 

हंतु नाक्रामयेच्छाथ पतिताद्येनेरोगिभि: । नाङ्गारमस्मकेशा दिष्वधितित्टेत्कदाचन 

पषपेत्माजेनीरेणं र१॥४जर्त्रघरोदकम्‌ । न भक्षयेदभक्ष्याणि नापेयं च पिवेदु द्विजः ॥ 

इति श्रीपासे अडापुराणे तृतीये स्घगेखण्डे गृहस्थाचारनीतिवर्णनं नाम 

पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥ 


त ना 


SRS 
नायाज्यं याजयेद्‌ बुधः ॥ 


बट्पञ्चारत्तमो ऽध्यायः 
मक्ष्याभक्ष्यनिर्णयवर्णनम्‌ | 
व्यास उवाच । 

नाद्याच्छूद्रस्य चिप्रोऽन्नं मोहाद्वा यदि कामतः । 
स शूद्योनि बजति यस्तु भुङ्क्त त्वनापदि॥ १॥ 
षण्मासान्यो द्विजो भुङ्कते शूद्स्यान्नं चिगहितम्‌ । ˆ 
| . जीवन्नेब भवेच्छूद्रो खतः श्वा चामिजायते ॥ २॥ . 
| *पक्षत्वियविशां शूद्रस्य च मुनी श्वराः । यस्यान्ने नोदरस्थेन सृतस्तद्यो निमाप्जुयात्‌ 
| राजान्नं नतेकान्नं च षण्डान्नं चमेकारिणाम्‌। 


4 १२— CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri | 


TN कद TR मी. रू TS 22० 


गणान्नै गणिकान्नं च षडन्नं च विवजयेत्‌ ॥ ४॥ 
. चक्तोपजीविरजकतस्करध्वजिनां तथा । गान्धवेलोहकारान्नं सतकान्नं हे 
कुळालचित्रकारान्नं वार्धुषेः पतितस्य च । पौन्भेवच्छत्रिकयोरभिशपस्य 1 
` खुवर्णकारशैलूषब्याधवन्ध्यातुरस्य च । 
चिकित्सकस्य चैवान्नं पुंश्चल्या दण्डकस्य च.॥ ७॥ „ 
स्तेननास्तिकयोरन्नं देवतानिन्द्कस्य च | सोस किक्रयि णश्चान्नं श्वपाकस्य 
भार्याजितस्य चैवान्नं यस्य चोपपतिग हे । उत्सस्य व्द्रस्य तथैचोरि 
पापीयोऽन्तं च सङ्भान्नं शस्त्राजीचस्य जज दि । 
भीतस्य रुदितस्यान्नमचक्रुएं परिक्षतः ॥ १०॥ 
ब्रह्मद्विषः पापरुचेः श्राद्धान्नं सुतकस्य अ 
त्रथापाकस्य चैवान्नं शाचान्नं चातुरस्य क ॥ ११॥ ` 
अप्रजसां तु नारीणां छृतप्नस्य तथैच च । कारुकान्नं “दिरोषेण शस्त्र 
शौण्डान्नं घाण्टिकान्नं च भिषजामन्नमेच च । विठ्ठत्मजननस्यान्तं परिवेत्रनार! 


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यो यस्यान्नं समश्नाति ख॒ तस्याश्नाति किल्विषम्‌ । 
आर्थिक; कुलमित्रं च गोपालो घाहनापितौ ॥ १६ ॥ | 
एते शूद्रेषु भोज्यान्ना यश्चात्मानं निवेद्येत्‌। कुशीलवः कुम्भकश्च क्षेत्रकर्म प । 
एते शूद्रेषु भोज्यान्ना दत्त्वा स्वल्पगुणं वुधेः । पायसं स्नेहपक्क च गोरसथेवत ॥ 
पिण्याकं चेच तळं च गद्रादु ग्राह्यं द्विजातिभिः । 
वृन्ताक नालिकाशाक कुसुम्भं भस्मकं तथा ॥ १६॥ 
पलाण्डु ळशुनं शुक्तं निर्यासं चैच घर्जयेत्‌ । छत्राकं चिंडचराहं च स्तिनतं पपर 
विळयं विमुखं चैव कोरकाणि विवजेयेत्‌ । ग्रज्ञनं किंशुकं चेव कूष्माण्डं च | 
उदुम्बरमलावं च जग्थ्वा पतति वे द्विज । तथा छसरसंयाची पायसापूए 


CC-0. Mumukshu Bhawan'Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


मोऽध्यायः ] ॐ अक्ष्यासक्ष्यनिर्णयवर्णनम्‌ क 
ुपतमांसं च देवान्नानि दे । यवागू मालुङिङ्गं च मत्स्यानप्यजुपाकृतान्‌ 
- (कपित्यं प्लक्षं च प्रयत्नेन विवजेयेत्‌। पिण्याकं चोदुधतस्नेहं देवधान्यं तथैव च 
रात्रौ च तिलखम्बन्धं प्रयत्नेन दधि त्यजेत्‌ । 

_ नाश्नीयात्पयसा तक्रं नाभक्ष्यानुपयोजयेत्‌ ॥ २५ ॥ . 

दुं भावदुएं ल्ट्त्संसगं च चर्जयेत्‌ । छृमिकीटावपन्नं च सुद्ृत्कळेदं च नित्यशः 
रातं च पुनः खिद चण्डाळावेक्षितं तथा । उद्क्यया च पतितेगेचासड्घ्रातमेच च 


ङतं [षितं पर्येस्लपुन्नं ककुक्कुरसंस्पृष्टं कृमि भिश्चैच 
ङतं पर्य्य SST च नित्यशः । का रुमिभिश्चैच सङ्गतम्‌ 


a ग त य ७ ७ 
दुष्येरप्यवातं छिया स्पृष्मेष च। न रजस्वल्या दत्त न पुश्चल्या सरोगया॥२९॥ 


° 


भलवद्वाससा वाऽपि परवासोऽध घर्जयेत्‌ । 

विवत्सा मास गोः्षीरं मेषस्यानिदेशस्य च ॥ ३०॥ 

रिकं सन्धिनी क्षीरए्पेयं मचुरत्रवीत्‌ । बलाक॑ हंसदात्यूहं कलविङ्कं शुक तथा ॥ 
च चकोरे य जाऊपादं च कोकिलम्‌। बायसान्खञ्जरीरांशञ्च शयेनं गृध्रं तथैच च 
हकं चक्रवाकं च भां पराचतं तथा । कपोतं रिट्टिमं चैच ग्रामकुक्कुरमेच च ॥ 
हं व्याधे च मार्जारे श्वानं सूकरमेव च । शएगाळ मकर चैच गई न च भक्षयेत्‌ 
| .न भक्षयेत्सर्वस॒गाञ्छिखिनोऽन्यान्वनेचरान्‌। 
जलेचरान्स्थळचरान्प्राणिनश्चेति धारणा ॥ ३५॥ 


"१७६ 


मत्स्यान्खशदकान्शुञ्जीत मांसं रौरचमेव च। 
. निवैद्य देवताभ्यस्तु ब्राह्मणेभ्यश्च नान्यथा ॥ ३७॥ 
तित्तिर चेव कपोतं च कपिञ्जलम्‌। वाश्रीणसं बकं भक्ष्यं मीनं प्राह प्रजापति 
फरीसिहतुण्डं च .तथा पाठीनरो दितौ । मत्स्याश्चैते समुद्दिष्टा मक्षणीया द्विजोत्तमाः 
सत भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया । यथाविधिप्रयुक्तं च प्राणानामपि चात्यये 
__ सक्षयेन्नेच मांखानि शेषभोजी न लिप्पते। - - न नन :. 
- औषधार्थमशक्तो वा emer [ET ल्स्‍्च्चच्ज्जञ 


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इमः शशः खङ्गः सकश्चेति सत्तमाः । मक्ष्यान्पञ्चनखान्नित्यं मनुराह प्रजापतिः | 


: 28 बे पाइपुराणम्‌ ने 
५.५57 ` आमस्त्रितथ्य यः आदे दैवे वा मांसमुत्सजेत्‌ । 
याचन्ति पशुरोमाणि ताघन्नरकस्टच्छति ॥ ४२ ॥ 
अदेयं वाप्यपेयं घा तथैचास्पृश्यमेव चा । 
द्विजञातीनामनालोक्यं नित्यं मद्यमिति स्थितिः ॥ ४३॥ , 
तस्सात्सर्वप्रयत्नेन मद्यं नित्यं विवर्जयेत्‌ । 
पीत्वा पतति कर्मभ्यस्त्वसम्भाष्यो अवेद्‌ छिजः ॥ ४४॥ 
भक्षयित्वाऽप्यभक्ष्याणि पीत्वाऽपेयान्यपि विज्ञः । 
नाथिकारी भवेत्तावद्याचत्तन्न जहात्यघ्ः ॥ ९५ ॥ 
तस्मात्परिहरेन्नित्यमभक्ष्याणि प्रयत्नतः । अपेणः मि द विप्रो वै तथाचेधाहि | 
इति श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वगेखण्डे २४&याभक्ष्यनियमो नाम्न | 
षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः | ५६ ॥ 


1 


जनमत निभाना: धन ला 


[4 


सप्तपञ्चाशत्तसो ऽध्यायः 


दानधर्मवर्णनस्‌ । 

व्यास उवाच । | | क 

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि दानधर्ममनुत्तमम्‌ । ब्रह्मणाभिहितं पूवेखुषीणां ब्रह्मा 
अर्थानामुचिते पाते श्रद्धया प्रतिपादनम्‌ । दानमित्य भिनिर्दिष्टं भुक्तिमुजिफब्शी 
यो ददाति विशिष्टेम्यः शरद्धया परया युतः । तद्वै वित्तमहं मन्ये शोषं कस्या 
नित्यं नेमित्तिकं काम्यं त्रिविधं दानसुच्यते । 4 

चतुथ चिम प्रोक्तं संदानोत्तमोत्तमम्‌ ॥ ४॥ |, 
अहन्यहनि यत्किञ्चिद्दीयतेऽनुपकारिणे । अनु दिश्य फळं तस्मादुब्राह्माणाय तुरि] 
यत्तु पापोपशान्त्यथं दीयते घिदुषां करे । नैमित्तिकं तदुद्दिष्टं दानं सह | 


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वेजयेश्वयंसुखाथ यत्प्रदीयते । दानं तत्काम्यमाउ्यातसुपिभिर्धमं चिन्तक; ॥ 

प्रीत्यर्थं त्रह्मवित्सु प्रदीयते । चेतसा धर्मयुक्तेन दानं तद्विमलं शिवम्‌ ॥ 

निषेवेत लासा शक्तितः । उपास्यते तु तत्पात्रं यत्तारयति सेः NaN 

दुवसुकिवंसनादेयं यद्तिरिच्यते । अन्यथा दीयते यद्दै न तद्दानं फलप्रदम्‌ ॥ १० ॥ 

रयाय कुलीनाय विनीताय तपस्विने | व्रतस्थाय दरिद्वाय प्रदेयं भक्तिपूर्वकम्‌ ॥ 

यस्तु दद्यान्महीं भक्त्या ्राझणायाहिताऱनये। | 

स याति परमं स्थानं यत्र गत्वा न शोचति ॥ १२॥ 

: संयुतां भूमिं यवगोधूमशालिनीम्‌ । ददाति वेदविदुघे यः स भूयो न जायते 

िममात्रामपि था यो भूमि सम्प्रयच्छति । ब्राह्मणाय दरिद्राय सर्वपापैः प्रमुच्यते 
दानात्परं दानं विझत नेह किञ्चन। अन्नदानं तेन तुरं विद्यादानं ततोऽधिकम्‌. 

ब्राह्मणाय शान्ताय शुचये घमेशी लिने । ददाति चिद्यां चिधिना ब्रह्मलोके महीयते 

बाद्दरहः स्वर्ण थ्या ब्रह्मचारिणे । सर्वेपापचिनिमुक्तो ब्रह्मणः स्थानमाप्नुयात्‌ ॥ 

गुहस्थायान्मदानेन फलमाप्नोति मानच: । : 

अन्नमेचास्य दातव्यं दत्त्वा55प्नोति परां'गतिम्‌ ॥ १८ ॥ 

वैशाख्यां पौर्णमास्यां तु ब्राह्मणान्सप्त पञ्च वा । 

उपोष्य विधिना शान्तः शुचिः. प्रयतमानसः ॥ १६॥ 

येत्या तिले: क्ृष्णैमेघुना च विशेषतः । प्रीयतां धमराजेति यदा मनसि चत्तंते ॥ 

| यावज्जीवं तु यत्पापं तत्क्षणादेव नश्यति । 

4 रुष्णाजिने तिलान्कृत्वा हिरण्यं मधुसपिषी.॥ २१ ॥ | 

F त यस्तु घिप्राय सवं तरति दुष्कृतम्‌। घुतान्नमुदकुम्म॑ च दैशाख्यां तु विशेषतः 

| धर्मराजाय विप्रभ्यो मुच्यते भयात्‌ | सुवर्णतिल्युकतेस्तु ब्राह्मणान्सपत पञ्चघा 

'द्पाचेस्लु ब्रह्महत्यां व्यपोहति । माघमासे तमिस्ने तु द्वादश्यां समुपोषितः ॥ 

शुक्लास्बरघरः कृष्णे स्तिलैहु त्वा हुताशनम्‌ । 


शत्तमो5ध्यायः ] » विषिधदानमाहात्म्यवर्णनम्‌ 2 रत 


पर 
| . मद्याद्‌ ब्राह्मणेभ्यस्तु तिळानेच साबित ॥ ९८.८ ००००० ० ॥ २५॥ 
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ˆ कमेणां सिद्धिकामस्तु पूजयेहे चिनायकम्‌ । भोगकामस्तु शशिनं बलकामः सा 


. गहदाताश्यबेतमानि रुप्यदी, अपसम्‌) आजोबाना 


१८२. . . - क पाद्यपुराणम्‌ ऋ [ ३ 
ज्ञन्मप्रश्नृति यत्पापं सवं तरति वै द्विजः। अमाघास्यामञुप्राप्य ब्राह्मणाय न 
यत्किश्रिद्देवदेवेशं दयाच्चोदिश्य केशवम्‌ । प्रीयतासीश्वरो विष्णु | 
स्तजन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति । यस्तु छष्णचतुद्श्यां खात्वा देव पि | 
आराधयेदुद्विजसुखे न तस्यास्ति पुनभेषः। कृष्णाशस्या विशेषेण धार्मिकाय ६ द | 

स्वात्वाउम्यच्य यथान्यायं पादप्रक्षालनादिसिः । 

प्रीयतां मे महादेचो दादु द्रव्यं स्थकायकम ॥ ३० ॥ 

सर्वपापचिनिर्मक्तः प्राप्नोति परमां तिस्‌! | 

द्विज्ञैः कृष्णचतुर्दश्यां कृष्णाष्टम्याँ यिदोषसः ॥ ३१॥ ' 
अमावास्यां तथा भक्तैः पूजनीयस्त्रिविक्रमः । एकादशः निरहारो द्वादश्या पुसो 
अर्चयेदुव्राह्माणमुखे ख गच्छेत्परमं पदम्‌ । एषा तिथर्येग्यची स्यादुद्वादशी शुक्र 
तस्यामाराधयेद्देवं प्रयत्नेन जनादनम्‌। यत्किसिदेजमीशानसुद्दिश्य ब्राह्मे शु 
दीयते चिष्णुमेवापि तद्नन्तफळं स्खृतम्‌। यो हि यां देपतामिच्छेत्समाराधितह 

ब्राह्माणान्पूजयेचत्नात्स तु तां तोषयेत्ततः। 

द्विजानां पपुरास्थाय नित्यं तिष्ठन्ति देवताः ॥ ३६ ॥ 
घूज्यन्ते ब्राह्मणालाभे प्रतिमादिषुतेः कचित्‌ । प्रतिमादिषु यत्नेन तस्मात्फहममीफ| 
द्विजेषु देवता नित्यं पूजनीया विशेषतः । विभूतिकामः सततं पूजयेद्धि पद| 
ब्रह्मयचंसकामस्तु ब्रह्माणं ज्ञानकासुकः । आरोग्यकामो ऽथ रचि धनकामो हुती 


« 0 


सुसुक्षः सवसंसारात्परयत्नेनाचेपेद्धरिम्‌ । यस्तु योगं तथा मोक्षमन्तिच्छैजान | 

अर्चयेत विरूपाक्षं प्रयंत्नेन सुरेश्वरम्‌। ये बाञ्छन्ति महाभोगाञ्ज्ञानानि च गे 
ते पूजयन्ति भूतेशं केशवं चापि भोगिनः। . - | 
बारिदस्तृसिमांप्नोति जलदानं ततोऽधिकम्‌ ॥ ४३॥ ` 

तैल्दः प्रजामिष्टां दीपबश्क्षुत्तमम्‌। भूमिदः सर्वमाप्नोति 


कि, 


पर धशचमोउध्यायः ] ॐ विविधदानमाहात्मयचर्णनम्‌ क पक | 

शरियं स्वेष्टां गोदो त्रध्नस्य विष्टपम्‌ । यानशय्याप्रदो भार्यामैश्वयंमभयप्रदः ` 

घान्यदः शाश्वतं सौख्यं ब्रह्मदो ब्रह्म शाश्वतम्‌ । 

धान्यान्यपि यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत्‌ ॥ ४७॥ 

i विशिष्टेषु रत्य स्वगं समश्नुते । गवां चान्नप्रदानेन सर्वपापैः प्रभुच्यते॥ | 

[नावां प्रदानेन दीसाग्निर्जायते नरः। फलमूलानि पानानि शाकानि वियिधानि च 
हाणेम्यस्लु सुदायुक्तः सदा भवेत्‌। औषशं स्नेहमाहारं रोगिणो रोगशान्तये | 

रोगरहितः खुखी दीर्घायुरेच च । असिपत्रचनं मार्ग श्ुरघारासमन्वितम्‌ ॥ 

णतापं च तरति '्छोपानत्प्रदोनरः । यद्यदिएतमं लोके यञ्चास्यापेक्चितं गृहे ॥ 

बते देयं =देसःक्षयमिच्छता । अयने विघुचे चैच ग्रहणे चन्द्रसूयंयोः ॥ ५३ ॥ 

्न्त्यादिछु क सय दत्तं भवति चाक्षयम्‌ । प्रयागादिखु तीर्थेषु पुण्येष्वायतनेछु च | 

चा चाक्षयमाप्मो लि नदीघरस्रघणेषु च । दानधर्मात्परो धर्मो भूतानां नेह :विद्यते॥ः . | 

ह तस्माद्विपय दातव्यं श्रोत्रियाय द्विजातिभिः 

| स्वर्गाय भूलिकामेन तथा पापोपशान्तये ॥ ५६ ॥ 

ु्ठुणा तु दातव्यं ्राह्मणेभ्यस्तथाऽन्बहम्‌ । दीयमानं तु यो मोहाद्ो विप्रा झिसुरेषुच 

निवारयत्यधर्मात्मा तियेग्योनि व्रजेत सः । र 

. यस्तु दन्याजंनं कृत्वा नाचेयेदु त्राह्मणान्सुरान्‌ ॥ ५८॥ 

सिस्वमपद्दत्येनं राजा राष्ट्रात्प्रवासयेत्‌ । यस्तु दुसिक्षवेलायामन्नाद्य न प्रयच्छति ॥ 

याणु चिप्रेषु ब्राह्मण: स तु गहितः । न तस्मात्प्रतिग्रहीयुन चसेयुश्व तेन हि॥ , 

# ` अङ्कयित्वा स्वकादाष्ट्राद्राजा तं चिप्रवासयेत.। | "| 

| ' पश्चात्खट्गथो द्दातीह रुबंदरव्यं धर्मसाधनम्‌ ॥ ६१॥ ° | 

| स पूर्चाभ्यधिकः पापी नरके पच्यते नरः। . 

| ' स्वाध्यायघन्तो येः विप्रा बिद्याबन्तो जितेन्द्रियाः॥ ६२॥ ` E 

( 4 सत्यसंयमसंयुत्तास्तेभ्यो दद्याद "1 । । 

प्रभुक्ततपि विद्वांसं घामिक भोजयेद्‌ द्विजम्‌ ॥ ६३ ॥ 


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१८४ ` * पाझपुराणम्‌ ॐ 


न च मूर्खमदृत्तस्थं दशरात्रमुपोषितम्‌ | सन्निक्ृष्टमतिक्रस्य श्रोत्रियं 

ख़ तेन कमेणा पापी दहत्यास्तम कुलम्‌ । 

यदि स्याद्धिको विप्रः शीळविद्यादिभिः स्वयम्‌॥ ६५ | 
तस्मै यत्नेन दातब्यमतिक्रम्य च सन्निधिम्‌। योऽचितं प्रतिगृहीयाइद्ादद | 
ताबुभौ गच्छतः स्वर्ग नरकं तु विपर्यये । न चायपि प्रयच्छेत नास्तिके हुक | 

न पाखण्डेषु सर्वेषु नावेदूविदि धर्मवित्‌ । 

रुप्यं चैव हिरण्यं च गामश्वं पूथिघीं छिलान्‌ ॥ ६ै८ ॥ 

अविद्वान्प्रतिशुह्णीयाङ्गस्मी भवति कायस । 

द्विजातिभ्यो घनं लिप्सेत्प्रशास्तेभ्यो डरिजोसतमः ॥ ६६॥ 
अपि राजन्यवेश्यास्यां न तु शूद्रात्कथञ्चन। घृिसङ्गोटमस्विच्छेरनेहेत 00 
घनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते । वेदानधीत्य रूकलान्यज्ञांश्वाचाप् सह| 
न तां गतिमवाप्नोतिसन्तोषाद्यामवाप्नुयात्‌ । प्रतिग्रहदखिनेस्याच्छुद्वान्ने तु सा | 

स्थित्यर्थाद्धिक ग्रह्न्त्राह्यणो यात्यधोगतिम्‌ । 

यस्तु याति न सन्तोषं न स स्वर्गस्य भाजनम्‌ ॥ ७३॥ 
उद्वेजयति भूताति यथा चौरस्तथेव सः। गुरुं शृत्यांश्चोञ्जहीषु स्तपंयन्देवत तब । 
सवंत प्रतिणहीयान्न तु तृप्येत्स्वयंततः । एवं शृहर्थो युक्तात्मा देवतातिथिपूळ॥ 

चर्तमानः संयतात्मा याति तत्परमं पदम्‌ । ! 

पुत्रेषु भार्या' निक्षिप्य गत्वाऽरण्यं तु तत्त्ववित्‌ ॥ ७६ ॥ 
एकाकी बिचरेन्नित्यसुदासीन: समा हितः। एष घः कथितो धर्मों ग्रहस्थानां वगण 

्ात्वाऽचुतिष्ठेन्नियतं तथाउजुष्ठापयेदु द्विजान्‌ ॥ ७७॥ न 

इति देवमनादिमेकमीशं ग्रहण समर्चयेद्जसम । | 
4 समतीत्य स सर्वेभूतयोनि प्रकृति याति परं न याति जन्म ॥ 9८1 | 

इतिश्रीपाझेमद्दापुराणे तृतीयेस्वगेखण्डे गृहस्थघर्म निर्णयो नामसपपक्ञाशत्मो 


य म्य | 


Sem ५ सा सका 
- (०-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


है] 


अष्टपञ्चाशत्तमो ऽध्यायः 


» . वानप्रस्थाश्रमाचारधर्मकथनम । 
८ . व्यास उचाच। 

| द्व गृहाथमे स्थित्वा द्वितीयं भागमायुषः । घानप्रस्थाश्चमं गच्छेत्सदारः साग्निरेव च 
ष्य भाया पुञेछु गच्छेद्वनमथापि वा। दृष्ट्या ५पत्यस्यचा5पत्यं जजेरीक्ृतविग्नह 
हरपक्षस्य पूर्वाले श शस्ते चोत्तरायणे | गत्वाऽरण्यं नियमवांस्तप कुयांत्समाहित 
|मूहानि पूतानि निऱ्यसाहारमाहरेत्‌ । यदाहारो भवेत्तेन पूजये त्पितृदेचताः ॥ ४ ॥ 
पूजयेदछि नित्यं स्नात्वा चाभ्यचंयेत्सुरान्‌ । 
गृहादादाय 'आाश्नीयादष् ग्रासान्समाहित: ॥ ५॥ 
जराश्च मिश्या न्नित्यं नखरोमाणि नोत्सुजञेत्‌। 
स्वाध्यायं सवथा कुर्या न्नियच्छेद्वाचमन्यतः ॥ ६ ॥ 
होत्रं च जहुयात्पश्चयज्ञान्समाचरेत्‌ । उत्पन्नेषिविधैमेध्येः शाकमूलफलेन वा ॥ 
वासा मवेन्नित्यं स्नायात्तरिषवणं शुचिः । सर्वभूतानुकम्पश्च प्रतिप्रहविवर्जितः ॥ 
हत पौर्णमासेन यजेत नियतं द्विजः । ऋत्तविष््याग्रयणे चेव चातुर्मास्यानि कारयेत्‌. 
तरायणं च क्रमशो दक्षिणायनमेच च । चासन्तशारदेमे्यैरुत्पन्नेः स्वयमाहृतैः ॥ 


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१ समुपभुञ्जीत लघणं च स्वयङ्छतम्‌ । वज्जयेन्मद्यम्ांसानि भौमानि कवकानि च 
(पं शष्पक चेच श्ळेष्मातकफलानि च । न फालकृष्मश्नीयाइुत्सष्टमपि केन चित 
न आमजातान्यार्तोऽपि पुष्पाणि च फलानि च। 
श्राषणेनेच घिधिना घहि परिचरेत्सदा ॥ १४॥ 

न दुह्येत्सवेभूतानि निद्वनद्वो निर्मयो भवेत्‌। 


CC-0 खिद्श्नीयादान hu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


शांश्वरूब्येव विधिघन्निंपेत्पृथक्‌ । देवताभ्यः पितृभ्यश्च दत्त्वा मेध्यतरं चिः _ | 


| | 


१८६ क पाझपुराणम्‌ # 


2 
जितेन्द्रियो जितक्रो धस्तत्त्वज्ञानचिचिन्तकः । 
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं न पत्नीमपि संश्रयेत्‌ ॥ १६ ॥ 

यस्तु पत्न्या घनं गत्वा मैथुनं कामतश्चरेत्‌। तद्रतं तस्य छुप्येत पयश्च 
तत्र यो जायते गर्भो न स स्पृश्यो द्विजातिभिः - 0) | 
न हि वेदेऽधिकारोऽस्य तद्वंशोऽप्येचमेष हि॥.१८॥ ५ 

भूमी शयीत सततं सावित्रीजप्यतत्परः। शरण्यः सदेभूतानां स॒द्विभागएरः | 
परिवादं सृषावादं निद्रालस्ये च वजयेत ¦ : 
पकाग्निरनिकेतः स्यात्प्रोक्षितां भूमिसाश्रयेठ्‌ ॥२०॥ , | 
मृगैः सह चरेदान्तस्तैः सहैव च संबसेत्‌ | शिलाः श्राया चा शयीत सुसमा | 
सद्यः प्रक्लालको वा स्यान्माससञ्चयिको ऽये द! । 
षण्मासनिचयो घापि समानिचय एव दः ॥ २२ ॥ 
नक्तं चान्नं समश्नीयाद्दिचा चाहृत्य शक्तितः । 
चतुर्थकालिको वास्यात्किवाप्यष्टमकारिकः ॥ २३॥ | 
चान्द्रायणघिधानेर्चा शुक्ले कृष्णे च घर्जयेत्‌ । . 
पक्षे पक्षे समश्नीयाद्यवाग कथितां सकृत्‌ ॥ २७ ॥ | 
पुष्पमूलफलेर्वापि केवळेवंतंयेत्सदा.। स्वाभाविके: स्वयं शीगौयेखानसमते स्यि 
भूमी चा परिवर्तेत सिएेद्ा प्रपदेदिनम्‌ । स्थानासनाभ्यां विहरेन्न कविदयु| 


पञ्चा ग्निधूम्नणों चास्यादृष्मगः सोमपोऽपि चा । 
। पयः पिवेच्छुक्लपक्षे कृष्णपक्ष तु गोमयम्‌ ॥ २६ ॥ 
शीर्णपर्णाशनो बा स्यात्छच्छ्चा वतेयेत्सदा । 


योगाम्यासरतश्च स्याटुद्राध्यायी भवेत्सदा.॥ ३०.॥ 


अथव शिरसोऽभ्येता वेदान्ताभ्यासतत्परः | य सेवेत थ्राप्यत 
(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection त कातत नया 


कृष्णाजिनी सोत्तरीयः शुक्लयज्ञोपचरीतघान्‌ । 
अथ चाग्नीन्समारोप्य स्वात्मनि ध्यानतत्परः ॥ ३२ || 

नो चा" सुनिर्मोक्षरो भवेत्‌ । तापसेष्वेध विप्रेषु यात्रिक मैक्षमाहरेत्‌ ॥ 
होषि चान्येछु द्विजेषु चनचारिषु ग्रामादाहृत्य चाइमीयादष्टौ ग्रासान्वने वसन्‌ 
पुटेनैव पाणिना शकलेन घा । विविधाश्चोपनिषद आत्मसंसिद्धये जपेत्‌ ॥ 


ब्याबिरीषान्लाचित्री रुद्राध्यायं तथेच च । महाप्रस्थानिकं चाऽसौ कुर्यादनशनं तथा 
अग्निप्रवेशमर्न्यद्वा त्रह्मार्पणघिधौ स्थितः ॥ ३६ ॥ 


इति थ्रीपाड सहापुराणे तृतीये स्वर्गखण्डे घानप्रस्थाश्रमाचारधमो 
नासाष्टपञ्चाशत्तमो ऽध्यायः ॥ ५८॥ 


एकोनषष्टितमोऽध्यायः 
. यतिधमेकथनम्‌ | 
| व्यास उवाच | 
पं बनाश्रमे स्थित्वा तृतीयं भागमायुषः | चतुथं चायुषो भागं संन्यासेन नयेत्क्रमात्‌ 
| अग्नीनात्मनि संस्थाप्य द्विजः प्रबजितो भवेत्‌। 
योगाभ्यासरतः शान्तो ब्रह्मविद्यापरायणः ॥ २॥ 


ये ष्टिमाग्नेयीमथवा पुनः । दान्तः शुक्लकषायोऽतो ्रह्माश्रममुपाश्रयेत्‌ः 

त्यासिन:केचिक्लेदसंन्यासिनो5परे । कर्मसंन्यासिनस्त्वन्ये त्रिषिधा:परिकीतिता 
यः सत्र विनिमक्तो निह्ठ्द्वश्चैच निभय:। . अ 
प्रोच्यते ज्ञानसंन्यासी क | व्यवस्थितः॥ ६॥ :. 

रिग्रहः । प्रोच्यते वेदसंन्यासी मुमुक्षबिजतेन्द्रियः ॥ 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


होतषष्टितमो5ध्याय ] कॅ यतिघमेकथनम्‌ > व 


१८८ - क पाहपुराणम्‌ # 


यस्त्वग्निमात्मसात्छृत्वा ब्रह्मर्पणपरो हिजञः । क्षेयः ख कर्मसंन्यासी महा 
1 त्रयाणामपि चैतेषां ज्ञानी त्वम्यधिको मतः । 
न तस्य विद्यते कार्य नलिङ्गं चा विपश्चितः ॥ &॥ 
निर्ममो निर्भयः शान्तो निहन्दः पर्णभोजनः । ह. 
जीर्णकौपीनवासाः स्यान्नग्नो चा ध्यानतत्परः ॥ १०॥ ` 
ब्रह्मचारी जिताहारो ग्रामादन्नं समहरेत्‌ । अध्यात्सरतिरासीत निरपेक्ष निरा 
आत्मनैव सहायेन सुखार्थं विचरेदिह | नाभिनन्देत भरण नाभिनन्देत जी 
कालमेव प्रतीक्षेत निर्वेशं शतको यथा । नाध्येतव्यं न वक्तव्यं ओहव्यं न कदाक! 
एवं ज्ञानपरो योगी ब्रह्मभूयाय कल्पते । एकवासा!श्व था विद्वान्को पीनाच्छादनो] 
सुण्डी शिखी वाऽथ भवेत्त्रिदण्डी निस्य रिः । | 
काषायघासा: सततं ध्यानयोगपरायणः ॥ १५ ॥ | 
मान्ते वृक्षमूले था घसेद्देवालये$पि चा । समः शात्रौ तथा मित्रे तथा माताले 
भेक्ष्येण चतेयेन्नित्यं नेकान्नादी भवेत्कचित्‌ । 
यस्तु मोहेन वान्यस्मादेकान्नादी भवेद्यतिः ॥ १७ ॥ 
न तस्य निष्कतिः काचिद्धमेशास्त्रेषु द्ृश्यते । 
रागद्वेष चियुक्तात्मा समलो ष्टाइमकाञ्चनः ॥ १८४ ` 
प्राणिहिसानिवृत्तश्व मौनी स्यात्स निस्पृहः । 
८ द्रष्टिपूत न्यसेत्याद्‌ घस्त्रपूतं जल॑ पिबेत्‌ ॥ १६ ॥ । 
सत्यपूतां घदेद्दाणीं मनःपूतं समाचरेत्‌ । नैकत्र निवसेद्देशे वर्षाभ्यो ऽ्यत्र मिक 
स्नात्वा शौचयुतो नित्यं कमण्डलुकरः शुचिः । ब्रह्मचर्यरतो नित्यं घनघासरो ग 
मोक्षशास्त्रेषु निरतो ब्रह्मसूत्री जितेन्द्रियः। द्स्भाहङ्कारनिर्मुक्त निन्दापशुत ७ 
 आत्मज्ञानशुणोपेतो यदि मोक्षमवाप्नुयात्‌ । अभ्य़सेत्सततं देवं प्रणवाल्यं सि 
स्नात्वाऽऽचम्य विधानेन शुचिदेचालया दिषु । ह 


यज्ञोपचीती शान्तात्मा - 
CC-0. Mumukshu Bhawan Var कुशपाणि; समाहितः, २३०५० 


८ ] अ यतिनियमधिधानकथनम्‌ अ ° १८६ 


' आध्यात्मिकं च सततं बेदान्ताभिदितं च यत्‌ । 
पुत्रेषु चाथ निघसन्त्रह्मचारी यतिमुनिः॥ २६॥ . 
ोवाम्यसेन्तयं ख याति परमां गतिम्‌ । अहिसासत्यमस्तेय त्रह्मचयं तपःपरम्‌ ॥ 
हादयाचसन्तोबो तान्यस्य विशेषतः । वेदान्तन्ञाननिष्ठो वा पञ्चयज्ञान्समा हितः ॥ 
दरदः खात्चा भिक्षार्थे नैव तेन हि । होममन्त्राञ्ञपेन्नित्य काळे काठे समा हितः 


i ५ क e | ५ 2 
स्वाध्यायं दाश्वहं कुर्यात्साचित्रीं सन्ध्ययोजपेत्‌ 
॥॥ गयेच्च सततं 

, ध्यायेच्य सततं देवमेकान्ते परमेश्वरम्‌ ॥ ३० ॥ 


*एकान्वं यन्नित्यं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌ । 

एकवार! ट्रिवासा घा शिखरी यज्ञोपवीतवान्‌॥ 

कमण्डछुकरो चिद्वांस्त्रिद्ण्डो याति तत्परम्‌ ॥ ३१ ॥ 

कि श्रीपाद महापुराणे तृतीये स्वगेखण्डे यतिधमेनिरूपणं नामैकोनषछितमो ऽध्यायः 


हि वर्ब ज्मा 


षष्टितमोऽध्यायः 


* यतिनियमविधानकथनम्‌ । 
व्यास उवाच । 


| 
| 


री आ चरेदुभैक्ष्यं न प्रसज्येत चिस्तरे। भैक्ष्ये प्रसक्तो हि यतिविषयेष्वपि सञ्जति 
|फगार चरेदुसैक्ष्यमलामे न पुनश्चरेत्‌। गोदोहमात्रं तिष्ठेत काळं मिक्षरधोमुखः ॥ 
| मिक्षेत्युक्त्वा सठृत्तृष्णीमादद्याद्वाग्यतः शुचिः । 

. प्रक्षाल्य पाणी पादौ च समाचम्य यथाविधि॥ ४॥ 

आदित्यं दर्शेयित्वा5न्नं भुञ्जीत mam. | नर; । 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


पैतमाषायवसनो भस्माच्छन्नतनूरुदेः। अधियज्ञं ब्रह्म जपेदाधिदैविकमेव च॥ . 


पं त्वाश्रमनिष्ठानां यतीनां नियतात्मनाम्‌ । भैक्ष्येण घ्नं प्रोक्त फलमूलैरथापिवा र 


१६० ु क पाझपुराणम्‌ क ३३ 
; र टे; ४ हुत्वा प्राणाहुती पञ्च ग्रासानष्टौ समादितः ॥ ५ ॥ ; 
आचम्य देवं ब्रह्माणं ध्यायेत परमेश्वरम्‌ | अळावुदारुपात्रं च सण्मयं वेण ष 
चत्वारि यतिपात्राणि मडुराह प्रजापतिः । प्राश्नात्रे मध्यरात्रे च पररात्रे र 
सन्ध्यासूक्तिविरोषेण चिन्तयेन्नित्यमीश्वरम्‌ । ल | 
कृत्वा हृत्पद्मनिल्ये विश्वाख्यं विभ्वसम्भवस्‌ ॥ ८॥ « 
आत्मानं सर्वभूतानां परस्तात्तमसः स्थितम्‌। सर्वेल्याघारमव्यक्तमानन्दं 


4 


आकारो देवमीशानं ध्यायेदाकाशमध्यगस्‌ ॥ ११॥ 
कारणं सर्वभावानामानन्दैकसमाश्चयम्‌ । पुराणपुरुद॑ विष्णु ध्यायन्मुच्येत वरधगा| 
यद्वा गुहादौ प्रकती जगत्संमोहनाल्ये । चिचिन्त्य परमं व्योम सर्वेभूतेककारण्‌| 
जीवनं सर्वभूतानां यत्र लोकः प्रलीयते । आनन्दं रणः सूद्ष्मं यत्पश्यन्ति 
तन्मध्ये निहितं ब्रह्म केवलं ज्ञानळक्षणम्‌। अनन्तं खत्यमीशानं चिचिन्त्यासीतपाम 
गुह्याद्गुह्यतमं ज्ञानं यतीनामेतदीरितम्‌ । योऽयरतिएत्सदाऽनेन सोऽश्नुते योग 
-तस्माञ्ज्ञानरतो नित्यमात्मविद्यापरायणः । ज्ञानं समभ्यसेदुत्रह्म येन सुच्येत वम 
सत्वा पृथकत्वमात्मानं सर्वस्मादेच केवलम्‌ । आनन्दमक्षरं ज्ञानं ध्यायेत च तः 

यस्माट्टचन्ति भूतानि यज्ज्ञात्वा नेह जायते । 

स तस्मादीश्वरो देवः परस्तायोऽधितिष्ठति॥ १६॥ 


अतानि यानि मिक्षप्रां विहितानि तथा यमः। एकका तिक्रमे णैच प्रायश्चित रण] 
उपेत्य च स्त्रियं कामारप्रायश्चित्तं समाहितः 
प्राणायामसमायुक्त कुर्यात्सान्तपनं शुचिः ॥२२॥ . | 

ततश्चरेत नियमात्कच्छ संयतमानसः | पुनराश्रममागस्य चरेद्विक्षरतत्रिः1 | 

ज धमेयुक्तमद्त॑ दिनस्ती ति “मंनीषिण: | तथापि च न कर्तव्यः प्रसङ्गो हे | 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


छ ] बह यंतिनियमविधानकथनम्‌ क १६ 
दरत्रोपवासश्च आणावा तथा । उच्चाऽचतं प्रकर्तव्ये यतिना धर्महिप्सुना 2 1 
तआपदृरतेनापि न काय स्तेयमन्यतः । स्तेयादम्यधिक कश्चिन्नास्त्यधम्े इति स्मृति | 
हिंसा चेवापरा तृष्णा याच्ञाऽऽत्मश्ञाननाशिका | द क्र 
यदेत्ढु द्रषिणं नाम प्राणा होते बहिश्चराः ॥ २७॥ 
ख तस्य हरते प्राणान्यो यस्य हरते धनम्‌ । 

. पब इत्वा ख दुशात्मा भिन्नबृत्तो बतच्युत्तः ॥ २८ ॥ 
फो बिर्ेदमापन्लश्षरेद्िक्षुरतन्दित: । अकस्मादेव हिंसां तु यदि भिक्षु 
कुयात्छ$।तक्कच्छु' तु चान्द्रायणमथापि बा | 

स्कन्देहेन्टियदौचेद्यात्स्त्रियं दृष्ट्या यतिर्यदि ॥ ३० ॥ 
तेन घारयितव्या चे प्राणायामास्तु षोडश | 

दिवा स्कन्दे त्तरात्रे स्यात्प्राणायामशतं वुघाः ॥ ३१ ॥ 
मधुमांसे च नवश्चाद्धे तथैव च । प्रत्यक्षलचणे चोक्त प्राजापत्य विंशोधनम्‌ ॥ 


कर 


थ्याननिद्ठस्य सततं नश्यते सर्वेपातकम्‌ । | 
। 
| 
| 


* समाचरेत्‌ ॥ 


तस्मान्नारायणं ध्यात्वा तस्य ध्यानपरो भवेत्‌ ॥ ३३ ॥ 

मझह्मणः पर ज्योतिः प्रचिष्टाक्षरमव्ययम्‌ । योऽन्तरात्मा परं ब्रह्म स विज्ञेयो महेश्वरः 
देवो महादेवः केवळ: परम शिशिवः । तदेवाक्षरमद्वेतं तदनित्यं परंपदम्‌ ॥ ३५ ॥ 
गमहीयते देवे स्वधास्नि ज्ञानसंज्ञिते | आत्मयोगात्परे तत्वे महादेवस्तत:.स्सृतः ' 
। शय देवं महादेचाद्य तिरित्तः प्रपश्यति । तमेवात्मानमन्वेति यः स याति परमं पद्म्‌ . | 
F ये स्वमात्मानं चिभिन्नँ परमेश्वरात्‌ न ते पश्यन्ति तं देवं वृथा तेषां प रिश्रमः | 
१ व परं ब्रह्म चिज्ञेयं तत्त्वमव्ययम्‌ । स देवस्तु महादेवो नेतद्विज्ञाय वध्यते । ३६॥ | 
| तेत नियतं यतिः संयतमानसः । ज्ञानयौगरतः शान्तो महादेचपरायण; ॥ ' 
| ४ कथितो चिप्रा यतीनामाश्रमः शुभः । पितामहेन सुनिना विभुना पूर्वमीरितः ॥ | 
(|!शिष्ययोगिभ्यो दद्यादेवमचुत्तमम्‌ । ज्ञानं खयम्सुचा प्रोक्तं यतिधर्माश्चयं शिवम्‌ | 
| इति यतिनियमानामेतदुक्तं विधानं र | यद्गवेदेकहेतुः । 


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` १६२ ॐ पाझपुराणम्‌ # | 
न भवति पुनरेंषासुद्ठयो था विनाश प्रणिहितमनसो ये नित्यमेचाचरलि । 
इति श्रीपाद महापुराणे तृतीयेश्वर्गखण्डे यतिनियमविधानकथनंनामष टि 


का >> 


- एकषष्टितमोऽध्यायः 
सर्वधर्मेम्यों 3 पिसंसारदःखकथनपूर्व कं विष्णु भक्तेरा धिक्यवर्णनय | 


सूत उवाच ! 
एवसुक्त पुरा विप्रा व्यासेनामिततेजसा । एतायटुदट्यः भगवान्व्योस 
समाश्वास्य मुनीन्सर्चाञ्चगाम च यथ पदम | 
भवद्गघस्तु मया प्रोक्त चर्णाश्रमविधारूकम्‌ ४ २॥ 


थे चात्र कथिता धर्मा घर्णाश्रमनिबन्धनाः । हरिभक्तिकळांशांशसमाना नहित र 
पंसामेकेहचे साध्या हरिभक्तिः कलौ युगे । युगान्तरेण धर्मा हि सेवितव्या से| 
कलौ नारायणं देवं यजते यः स धर्मेमाक्‌। दामोदरं दृषीकेशं पुरूहतं सात 


(1५९४ 


समाधिनाप्रहष्टस्य सा गतिः क्ृष्णचेतसः । तत्र घिघ्नकरा:प्रोक्ताः पाखण्डाठा | 

ारयस्तत्सङ्गिनश्चापि हरिभक्तिविघातकाः । नारीणां नयनादेशः सुराणा! ॥ 

ख येन चिजितो लोके हरिभक्तः स उच्यते । माद्यन्ति सुनयोऽप्यत्र नारीचरि 
हरिभक्तिः कुतः पुंसां नारीभक्तिजुषां द्विजाः । 
राक्षस्यः कामिनीवेषाश्वरन्ति जगति द्विजाः ॥ १४॥ 


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र ] ३ विष्णमकेराधिक्यचर्णनम्‌ %. ११. 
| बुद्धिकवलं कुवेन्ति सततं हिता: । ताद्व तावज्ज्ञानं ~| 
|, इत्सुनिमेला मेघा खर्वेशा्रविधारिणी । ताबज्जपस्तपस्ता bens: ह 
(वध गुरुशुभूषा तावद्वितरणे मतिः। तावत्परबोधो भवति चिवेकस्तावदेच हि ॥१७ | 
तसतं सङ्गहचिस्ताचत्पौराणळालसा । याचत्सीमन्तिनीळोळनयनान्दोळनं नहि । 
ओपरि पतेद्विमिद सवेघमेषिछोपनम्‌ । तत्र ये हरिपादाब्जमधुळेशग्रसा दिताः ॥१६॥ 
पं न नारीलोळाक्षिक्षेपणं हि प्रभुभंचेत्‌। जन्मजन्महृषीकेशसेचनं ये: कृतं द्विजाः ॥ 
हले दत्तं हुतं ही विरसिस्तत्र तत्र हि | नारीणां किळ किनाम सौन्दर्य परिचक्षते । 
 हणानां च चेखाणां चाकचक्यं तदुच्यते । स्नेहांत्मज्ञानरहितं नारीरूपं कुतःस्मृतम्‌ 
एपतपुरीषासक्त्वड्मेदोस्थिवसा न्वितम्‌ । कलेवरं हि तन्ताम कुतः सौन्दय्यमत्र हि 
तदेवं एथगाचिन्त्य स्पृष्ट्वा स्ात्वा शुचिर्भवेत्‌ । 
तैः खंहितं शरीरं हि दूश्यते सुन्दर जनेः ॥ २४ ॥ ु 
सी ,तिढुदेशा नुणां डुदेवघटिता द्विजाः । कुचावृतेऽङ्गे पुरुषो नारीवुदुध्या प्रचत्तंते | 
| का नारी घा पुमान्को वा विचारे सति किञ्चन । । 
तस्मात्सर्चात्मना साधुर्नारीसङ्गं विषजेयेत्‌ ॥ २६ ॥ | 
कोनाम नारीमासाद्य सिद्धि प्राप्नोति भूतले । | 
कामिनीकामिन्ीसङ्गसङ्गमित्यपि सन्त्यजञेत्‌॥ २७॥ ` | 
्रीरचमिति साक्षादेच प्रतीयते। अञ्ञानाल्लोलुपा लोकास्तत्र दैवेन बञ्चिताः। 
ककुण्डेऽस्मिन्नारीयोनौ पचेन्नरः। यत पघागतःपृथ्व्यां तस्मिन्नेच पुनारमेत्‌ _ | 
यतः प्रसरते नित्यं मूत्रं रेतोमलोत्थितम्‌। | 
4 तत्रेव रमते लोकः कस्तस्मादशुचिमवेत्‌ ॥ ३०॥ „ 

ह तिकष्टळोके५स्मिन्नद्दोदेचविडम्बना । पुनः पुना रमेत्तत्र अहो निस्त्रपत्ता दणाम्‌ ॥ 
| दोषगणान्बहन्‌। मैथुनादुबलहानिः स्यान्निद्रातितरुणायते 
निद्रयाऽपहृतज्ञानः स्वल्पायुर्जायते नर: | 


तस्मात्प्रयत्नतो घीमान्नारीं mame. ॥३३॥ 
) रत ज ८-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ऱ्य 


१६४. .. _ -. -कै.पाझपुराणम्‌ # [र 


'-पश्येद्वोविन्दपादाव्ञे मनो वै रमयेदुवुधः। इदासुत्र खुखं तद्धि पो 
'विहाय को महामूढो नारीपादं हि सेवते । जनाईनाङघ्रिसेवा हि ५ 
नारीणां योनिसेवा हि यो निसद्भुटकारिणी । 
४ पुनः पुनः पतेद्योनौ यन्त्रनिष्पाचितो यथा ॥ ३६॥ , 
`. पुनस्तामेवाभिलपेद्विद्यादस्य घिडस्बनम्‌ । ऊध्वेबाहुरहं घच्मि ग्टणु मै परमं 
गोचिन्दे घेहि हृदयं न योनौ यातनाजुषि | नारीखङ्गं परित्यज्य यश्चापि एर 
पदे पदेऽश्वमेधस्य फलमाप्नोति मानवः । कुलाङ्गना देबयोणादूढा यदि नृणां | 
पुत्रमुत्पाद्य यस्तत्र तत्सङ्गं परिवजेयेत्‌। तस्य तुष्टो जगन्नाथो भवत्येव न संश! 
नारीलङ्गो हि धर्मेशैरसत्सङ्घ: प्रकीर्त्यते। तस्मिन्सति दरौ भक्तः सुदृढा चच जार 
स्ेसङ्गं परित्यज्य हरौ भक्तिं समाचरेत्‌ । दरिभिक्तिश्व लोकेऽत्र दुल्लंभा हिम 
हरी यस्य भवेट्गक्तिः ख इताथो न न रंशयः । तत्तदेयाचरेत्कमं हरिः प्रीणाति| 
तस्मिस्तुष्टे जगत्तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं जगत्‌ । 
हरौ भक्ति चिना न्‌णां वृथा जन्म प्रकीतितम्‌ ॥ ४४॥ 
ब्रह्मेशा दि खुरा यस्य यजन्ते प्रीतिहेतवे । ` नारायणमनाव्यक्त न तं फो अ 
तस्य माता महामाया पिता तस्य महाकृती । जनाइनपदद्वन्दं हृदये येन धा 
जनादन जगडन्य शरणागतवत्सल । इतीरयन्ति ये मर्त्या न तेषां -निरये गतिः 
ब्राह्मणा हि विशेषेण प्रत्यक्षं हरिरूपिणः। पूजयेयुर्यंथायोगं हरिस्तेषां प्रसीदति 
_ -विष्णुत्राह्मणरूपेण विचरेत्पृथिवीमिमाम्‌ । ब्राह्मणेन घिना कमे सिद्धि प्राप्नोति 
डिजपादाम्बुभक्त्या ये: पीत्वा शिरसि चार्पितम्‌। 
_ तपिताः पितरस्तेन आत्माऽपि किल तारितः || ५०॥ 
ब्राह्मणानां मुखे येन दत्त मधुरमचितम्‌। 
` साक्षात्रष्णमुखे दत्तं तदवे भुङ्कते हरिः स्वयम्‌ ॥ ५१ ॥ 
अहोऽति दुगा लोका: प्रत्यक्षे केशवे ` द्विजे । 
प्रतिमादिषु सेवन्ते तदभावे हि तत्क्रिया ॥ ण्‌२॥ ०: 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


| -दवितमोऽ्यायः ] * विष्णुभक्तेरा धिक्यचर्णनम्‌ हा | 


हु 


(धाम थिष्ठाचोत्पृथ्बी धन्येति गीयते। तेषां पाणी च यदत्तं हरिपाणी तदृर्पितसा. | 
| | म्यः छतान्तमस्कारात्तिरस्कारो हि पाप्मनाम्‌। | 
मुच्यते ब्रह्महत्यादिपापेम्यो चिप्रचन्द्नात्‌ ॥ ५७ ॥ 
तस्मात्सतां समाराध्यो ब्राह्मणो बिष्णुवु द्वितः । 
पे | श्रुथितस्य डिजस्यास्यै यत्किञ्चिद्दीयते यदि ॥ ५५ ॥ 
| पीूषघाराभिः सिञ्चते कल्पकोटिकम्‌। द्विजतुण्डं महाक्षेत्रमनूषरमकण्टकम्‌ 


॥| तत्र चेडुप्यते 'किञ्चित्कोरिकोरिफळं लमेत्‌। 
है| नतं भोजन चास्मै द्त्वा कल्पं स मोदते ॥ ५७ ॥ 
शेतुमिषटमन्नं यो द्दाति द्विजतुण्ये । तस्य लोका महाभोगाःको टिकल्पान्तमुक्तिदाः 
हरण च पुरस्कृत्य त्राह्मणेवानुकी तितम्‌ । पुराणं शएणुया न्नित्यं महापापद्घाळनम्‌ ॥ 
ग सर्वतीर्थेषु तीर्थ याधिकसुच्यते । यस्यैकपाद्ध्रबणाद्धरिरेच प्रसीदति ॥ ६० ॥ 
्वपु्ूत्वा प्रकाशाय चरेद्धरिः । स्वेषां जगतामेव हरिराळोकहेतवे ॥ ६१ ॥ 
पातः प्रकाशाय पुराणावयचो हरिः। विचरेदिह भूतेषु पुराणं पावनं परम्‌ ॥ 
्रयदि हरे: प्रीतेरुत्पादे धीयते मतिः। श्रोतव्यमनिशं पुम्मिः पुराणं कृष्णरूपिणः ॥ 
मकेन शान्तेन श्रोतव्यमपि दुखेभम्‌। पुराणाख्यानममलममळीकरणं परम्‌ ॥ 


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31/ 


'शिनेदाथमाहृत्य हरिण्प्र व्यासरूपिणा । पुराणं निर्मित चिप्र तस्मात्तत्परमोभवेत्‌ . 


पुराणे निश्चितो घमो धर्मश्च केशवः स्वयम्‌ । 
तस्मात्छृते पुराणे हि श्रुते विष्णुर्भवेदिति॥ ६६॥ 


| ङ्गाम्युसेकेन चाशयेत्किल्बिषं र्वकम्‌ । केशावो द्रवरूपेण पापात्तारयते महीम्‌ । 
| वेष्णवो विष्णुभजचस्याकाडक्षी यदि वते । 
गङ्गाम्वुसेकममलममलीकरणं चरेत्‌ ॥ ६६॥ 
विष्णुभक्तिप्रदा देवी गङ्गा सुषि च गीयते । . 
विष्णुरूपा हि खा गङ्गा लोकनिस्तारकारिणी ॥ ७० ॥ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


त्स्वयं हरिचिप्रः पुराणं च तथाविधम्‌ । पतयोः ,सङ्गमासाय हरिरेचभवेन्नरः | 


१६६ ` *“ .  #.पामपुराणम्‌ # i 
. ज्ञाण पुराणेषु गङ्गायां गोषु पिप्पले । नारायणधिया पुस्मिमेक्ति: कां 
; प्रत्यक्षविष्णुरूपा हि तत्त्वजैनिश्विता अमी । 
तस्मात्सततमम्यच्या विष्णुभक्यभिकाषिणा | ७२ = 
विष्णौ भक्ति चिना नुणां निष्फलं जन्म उच्यते। «५ 
. कलिकाळपयोरारि पापग्राहसमाङुलम्‌॥ ७३॥ ' 
विषयामञ्जनावत्तदु्वोधफेनिळंपरम्‌। महाढुश्जनव्यालमहाभीम भयानका | 
दस्तरं च तरन्त्येव हरिभिक्तितरि स्थिताः। तस्माद्यतेत च लोको | 
कि खुलं लभते जन्तुरसद्वार्तावधारणे । हरेरद्सुतळीळस्य लीलाज्याने नसा 
तद्विचित्रकथा लोके नानाविषयमिश्चिताः । 
श्रोतव्या यदि वे नृणां विषये सञ्जते मनः ॥ ७9 ॥ 
निर्वाणे यदि वा चित्तं श्रोतव्या तदपि द्विजाः । 
हेलया श्रवणाच्चापि तस्य तुष्टो भवेद्धरिः ॥ ७८ ॥ 
निष्क्रियोऽपि हृषीकेशो नानाकमे चकार सः । 

शुभ्रूषूणां हितार्थाय भक्तानां भक्तवत्सल: ॥ ७६ ॥ 
न लम्यते कमेणा5पि चाजपेयशतादिना । राजसूयायुतेनापि यथा भ्य स 
यत्पदं चेतसा सेव्यं सद्भिराचरितं मुहुः। भवाब्धितरणे सारमाश्रयध्वं हे 
रेरेविषय संलुव्धाः पामरा निष्ठुराः नराः । रौरवे हि किमात्मानमात्मना पर्ण 
विना गोविन्द्सौम्योङ्प्रिसेचनं मा गमिष्यथ। अनायासेन दुःखानां तरण 
भजध्वं कृष्णचरणाघपुनर्भवकारणे | कुत एचागतो मत्यः कुत एव पुत्र 
एतद्विचार्य मतिमानाथयेद्धर्मसङ्ग्रहम्‌ । नानानरकसम्पातादुत्थितो यदि ऐ 
स्थावरादि तनुं लब्ध्वा यदि भाग्यघशात्पुनः । मानुष्यं लभते तत्र ह 
ततः कमचशाजन्तुयदि चा जायते भुवि। बाल्यादिवहुदोषेण पीडितो मवति 
पुनयोचनमासाद दारिद्र्येण प्रपीड्यते । रोगेण गुरुणा घापि | 
देन्‌ छमेत्रीडासनिर्त्राच्यामितरचळ-1:मतसध्वळचाडब्याेस्ततो म] 


ठ्र्यायः है है] विष्णुमक्तरा धिक्यघर्णनम्‌ # १६७ ५ प | 

2: दुः संखारे5प्यचुभूयते । ततः कमेवशाजन्तुर्यमलोके प्रपीब्यते ॥६०॥ | 

Fd भुक्त्वा पुनरेव प्रजायते । जायते प्रियते जन्तुश्रियते ज्ञायते पुनः ॥ + 
वेन्दचरणस्येद्दशी दशा । अनायासेन मरणं चिनायासेन जीवनम्‌ ॥३२ 

(धितगोविन्दचरणस्य न जायते । धनं यदि भवेदुगेहे रक्षणात्तस्य किं फलम्‌ 
यदाऽसौ कृष्यते याम्यैदू तै कि धनमन्वियात्‌ । 

तस्माद्‌ छिजातिसत्कायें द्रषिणं सवेसौख्यदम्‌ ॥ ६४ ॥ - 

दानं स्वर्गस्य सोपान दानं फिल्विषनाशनम्‌ । 

गोविन्दंभक्तिभजनं महापुण्यषिवद्धनम्‌॥ ६५ ॥ 

दि मर्वैन्मत्ये न चुथा तद्व्ययं चरेत्‌। हरेरमे नृत्यगीतं कुर्यादेघमतन्द्रितः ॥ 

निद्वि्यते पुसां तच्च कष्णे समर्पयेत्‌ । कृष्णापितंकुशळद्मन्यापितमसौख्यदम्‌ : 

र्या भ्रीहरैरेच प्रतिमादिनिरूपणम्‌। शरोत्राम्यांकल्येत्कृष्णगुणनामान्यहरनिशस्‌ ; 

ह्या रिपादास्बु स्वा दितव्यं विचक्षणैः । घ्राणेनाप्राय गो विन्द्पादाव्जतुलसीद्लम, 

त्वचा स्पृष्ट्वा हरेमेक्तं मनसाध्याय तत्पदम्‌ । 

कृतार्थो जायते जन्तुनांच कार्या विचारणा ॥ १००॥ 

तन्मनाहि भवेतप्राज्ञर्तथा स्यात्तदुगताशयः । 

| तमेवान्तेऽभ्येति लोको नार कार्या विचारणा ॥ १०१ ॥ 

प्रा चाप्यचुध्यातः स्वपद्‌ं यः प्रयच्छति। नारायणमनाचन्तं न तं सेवेत को जनः - 

हिति चिप्णुपादारचिन्दे चितरणमनुशक्तिप्रीतये तस्य कुर्यात्‌ । कती 

तिरतिमस्याङ्ख्रिद्ये संघिदध्यात्स दि खलु नरोके पूज्यतामाप्दयाच्च॥१०३॥ | 

नामैकषष्टितमो ऽध्यायः ॥ ६१ ॥ 


क ॑ममम»«क समा मम 


| 


CC-0. Mumukshu छावण्या verses Coleco. Deed by १000001 00 0 Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ह 


द्विषष्टितमो ऽध्यायः 


:पाद्मपुराणमाहात्म्यम्‌ | स्कुल 
सूत उवाच | ० 
एवं यन्महिमा लोके लोकनिस्तारकारणम्‌ । 
तस्य चिष्णोः परेशस्य नानाविग्रदघारिणः ॥ - श ॥ 
पुराणं रूपं वै तत्र पाझ परं महत्‌ । त्रां सूर्धा हरेरेव दयं प्रसह | 
वैष्णव दक्षिणो बाहुः शेवं घामो महेशितुः । 
ऊरू भागवत प्रोक्तं नाभिः स्यान्नारदीयकस्‌ ॥ ३॥ 
. मार्कण्डेयं च दक्षाङधिर्घामो ह्याग्नेयसुच्यते । 
भचिष्यं दक्षिणो ज्ञानुविष्णोरेच महात्मनः ॥ ४॥ 
` ब्रह्मवैचतेसंज्ञं तु घामजानुरुदाहृतः। लेड़े तु गुल्फक दक्षं घाराहं 
र स्कान्द पुराणं लोमानि त्वगस्य घामनं स्वत्तम्‌ । 
कोमं पृष्ठं समाख्यातं मात्स्यं मेदः प्रकीतितम्‌ ॥ ६ ॥ 
मज्ञा तु गारुडं परोक्त व्रह्माण्डमस्थि गीयते। एवमेचाभघङद्विष्णुः पुराणावयवो छ 
हृद्यं तत्र वै पाद्य यच्छुत्वाऽसृतमश्चुते। पाझमेतत्पुराणं तु स्वयं देवोष्मवर्दा। 
- यस्यकाध्यायमध्याप्य सर्वे: पापैः प्रमुच्यते । तत्रादिमं स्वर्गं मिदं सर्वपाद्फत्यश! 
स्वगेखण्डं समाकर्ण्य महापातकिनोऽपि ये । | 
सुच्यन्ते नेऽपि पापेभ्यस्त्वचो जीर्णाद्य॒थोरगाः ॥ १०॥ | 
अपि चेत्छुदुराचारः सवेधमंबदिष्छृतः । आदिस्वर्ग समाकर्ण्य पूयते नात्र सं | 
सव पुराणमाकण्य यत्फल लभते नर: । तत्सव॑ समवाप्नोति श्रत्वा 
कस डव यत्फल समघाप्चुयात्‌ । आदिस्वर्गमिद्‌ं श्रत्वा तत्फलं 
थे मासे प्रयागे तु स्नात्वा भतिदिनंनर पापात्मसुच्येत तथ 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digi 


(दतमीऽध्यायः ] * पाझपुराणमाहात्म्यम्‌ #. लयी; १६६ टर 
नेत स्वर्णतुळा दत्ता चेच धराऽखिला । कृतं वितरण तेन दरिद्र यह कृतम्‌ ॥ 
म्रसहल्लाणि पठितानि ह्यमीक्ष्णश: । सर्वेवेदास्तथा5धीतास्तत्तत्कमे कृतं तथा ॥ ` 
पकाश बहृवःस्थापिता वृत्तिदानतः | अभयं अयलोकेभ्यो दत्ततेन तथा द्विजाः 
न्तो ज्ञानयन्तो धर्मचन्तोऽनुमानिताः । मेषककंटयोमंध्ये तोयंद्त्तं सुशीतलम्‌ ॥ ' 
ब्राह्मणार्थे गवार्थे च प्राणास्त्यक्ताश्च ते न हि) ` | 
अन्यानि च सुकर्माणि इतानि तेन धीमता ॥ १६॥ | 
ादिलण्डं सदसि श्रुतं संश्राचितं तथा । स्वगेखण्ड'समाधीत्य नानाभोगान्समश्नुते | 
क्तपुरगनारीणां खुखखुप्तः प्रबुध्यते । किड्िणीरवसन्नादेस्तया मधुरभाषणी: ॥ | 
हवखारघासनं भुङ्क्ते इन्द्रछोके घसेच्यिरम्‌ । तत: सूर्यस्य भघनं चन्दळोक ततोत्रजेत्‌ ; 
ए्पिमवनेभोगान्सुक्तवा याति ततो घुधम्‌। ततश्च ब्रह्मणोळोकं प्राप्यतेजोमयं घपुः : 
लेव ज्ञानमासाद्य निर्वाणं परसुच्छति । सद्ठिः सह पसेद्धीमान्सत्तीरथस्लानमाचरेत्‌॥ : 
इदेव सदालापं सच्छास्त्रं श्टणुयान्नरः । तत्र पाः महाशास्त्रं सर्वान्नायफलप्रदम | 
हु च तन्मध्ये महापुण्यफलप्रदम्‌ ॥ २६ ॥ | 

ध्वं गोचिन्दं नमत हरिमेकं सुरवरं गमिष्यध्वं लोकानतिविमलभोगानतितराम्‌॥ 
ए्णुध्वं हेलोका वदत हरिनामैकमतुलं यदीच्छाबीचीनां सुखतरणमिष्टानि लसत ॥ | 
इति श्रीपाद्े म्राहापुराणे स्वर्गखण्डे पाह्मपुराणमाहात्स्यकथन नाम 

द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२॥ | 
सम्पूर्ण मिद्मा दिखण्डापरनामकमा दिस्वर्गखण्डं स्वर्गखण्डं चा 


॥ शुभमस्तु ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ 


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CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


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ॐ श्रीवेद्व्यासायनमः # | 

„  श्रीमन्महषिवेद्व्यासप्रणीत्तू . . । 
| 


: पाझपुराणम्‌ i] 
अथ चतुथ त्रह्मलण्डम्‌ । 


| 
प्रथमो ऽध्यायः । 
कठिकाठीनलोकोद्वारणायप्रश्‍ने दतेन व्यसजेमिनिसंवादवर्णनम्‌ । . 
शौनक उचाच | _ 


- 


समागते सूत प्राणिनां केन कर्मणा । उद्धारो वै भवेत्तस्वं कथयस्व ममाग्रतः ॥ 
सूत उघाच। 

साधु साधु मुनिश्रेष्ठ | पुण्यात्मप्रवरो भघान्‌। 

स्वेषां च जनानां त्वं शुभवाञ्छो निरन्तरम्‌ ॥ २॥ 

: पुरा चिप्रसवेज्ञ:सवेपूजितः । पृष्टो जैमिनिना तं स यदाह शणु चैष्णच !॥ , | 


TR SR DUE NOI SUPP 


कली नणां भवेत्केन मोक्षो वै कथयस्व मे। 
अस्पेनापि च पुण्येन मर्त्याश्चाल्पायुषो यतः ॥ ५ १ 


व्यास उचाच। ॥ 
द्विम शास््राणां श्रवण प्रभो ! । हस्मिक्तिमवेत्तस्मात्ततो ज्ञानं ततो गतिः 


(०-०. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


न रोचते कथा भूमौ पापिष्ठाय. जनाय, वै । वेष्णची स तु विशयः पापि | 


कृष्णस्य यःकथारस्मे कुर्या द्विष्नं नराधमः । नरकान्निष्कृतिर्नास्ति मन्वन्त 


त्रहहत्याद्किं पापमकालमरणं तथा । सुरापानं तथास्तेयं सवं नश्यति पापिनः॥| 
पापं कृत्वा तु यो मर्त्यःपश्चात्पापं निवतेयेत्‌। तस्य पापं्जेन्नाशमग्निना तूर्नं 
श्रीकृष्णचरितं चिप्र ! तिष्ठेद्वेपुस्तक गृहे । तस्य गृहसमीपं हि नायान्ति यम 


साधुसड्ध तु यःकुर्यातक्षणं घाऽद्व्षणं द्विज। तस्य नश्यन्ति पापानि ब्रहमहत्या 

यत्र यत्र कुलेचेच एको भघति वैष्णव: | कुछ तस्य यदापापैर्यक्त ति | 

हिंसादम्भकामक्रोधैव जिताश्ैष ये नरा: यास्ते वैष्णव 
नराः लोमगोदपरित्यक्ताशेयास्ते 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collecti 


अ पाझपुराणम्‌ # [४ 


` श्रीकृष्णस्य कथां श्रुत्वाऽऽनन्दी भवति वैष्णघः । 
असत्यां तां तु यो ब्रू याञ्ज्ञेयः ख पापिनां गुरु: ॥ ८॥ 
यस्मिन्यस्मिन्स्थळे विप्र! कृष्णस्य वतेते कथा।  । 
तस्मात्तस्माउ्जगन्नाथो याति त्यक्त्वा न कदिचित्‌॥ ६॥ 
ये पुराणकथां श्रुत्वा निन्दन्त्युपहलन्ति चे। ` 

तेषां करस्था नरका बहुक्लेशकराः खदा ॥ ११॥ , ` 

जन्मान्तराजितं पापं तत्क्षणादेचं नश्यति । 

श्रीकष्णचरितं यो वै श्रोतुमिच्छां करोत्यपि ॥ १२॥ 

भक्त्या यो वै नरःकुर्याच्छीक्कष्णचरितं तथा । 

न जाने श्रवणे तस्य का गतिर्वा भविष्यति ॥ १३॥ - 


जेमिनिरुवाच । : ६ 
वदन्ति वेष्णचान्कांश्च वाञ्छा त्र हि शुरो ! मम । | 
इदानीं तान्समाज्ञातं तेषां माहात्म्यसुत्तमम्‌ ॥ १७ ॥ 

` व्यास उवाच 
यो नरो सस्तके भक्त्या वेष्णवाङ्घ्यम्भसो द्विज ! । 
करोति सेचनं पापी तीथेखानेन तस्य किम्‌ ॥ १८॥ 


| 


RS 


ोऽव्यायः ] च विष्युभक्तिवेष्णवछक्षणवर्णनम्‌ + २०३ . 
|. पिठभक्ता दयायुक्ताःसवेग्राणिहितेरता:| | व । 
क ये विज्ञेयाः सत्यभाषिण: ॥२२॥ . ` डा 
किरता ये च परख्रीछु नपुंसकाः । एकादशीञतरता विज्ञेयास्ते वाः ॥ ' 

E गासन्ति हरिनामानि तुलसीमाल्यघारकाः | किरिया न गा । 

हर्यङ्घिसलिलैःसिक्ता विज्ञेयास्ते च वैष्णचाः ॥२४॥ | 
प्ोतरयोर्मस्तकेयेषांतुळस्याःपर्णसुत्तमम्‌ कहिं चिदु यते विप्र! अव्यः | 
पब्ण्डसङ्गरदिता विप्रदवेषविषजिताः । सिञ्चेयुस्तुळूसीं ये च hee: 7 | 

[जयन्ति हरि ये च तुलस्या चार्चथन्ति ये | कन्यादानरता ये च ये चे झतिथिपूजकाः 

श्टण्वन्ति 'चिष्णुचरितं विज्ञेया वेष्णवा नरा: । | 
यस्य शृद्दे खुप्रतिष्ठेच्छालय़रामशिला५पि च ॥ २८॥ 
यन्ति हरेःस्थालं पितृयज्ञप्रवतंकाः | जने दीने दयायुक्ता विज्ञेयास्ते च वेष्णचा: 
परस्वं व्राह्मणद्रव्यं पश्यन्ति घिषवच्च ये । | 
| ` हरिनेवेद्यं येऽश्नन्ति विज्ञेया वैष्णवा जना: ॥ ३० ॥ | 
ैसा्राचुरक्ता ये तुलसीघनपालकाः । राधाश्मीव्रतरता विज्ञेयास्ते च वैष्णवाः | 

. श्रीरृष्णपुरतो ये च दीपं यच्छन्ति श्रद्धया | 
परनिन्दां न कुर्वेन्ति विज्ञेयास्ते च वैष्णवाः ॥ ३२॥ | 

सुत उवाच । | 
पृष्टो जेमिनिना व्यास इत्युघाच यथाक्रमम्‌ । ॥ 
मयेदं कथ्यते ब्रह्मन्यत्प्रसज्ञादगुरोः श्वुतम्‌ ॥ ३३ ॥. नन 
अध्यायं श्रद्धया युक्ता ये शएण्बन्ति नरोत्तमाः । 

| सर्वपापचिनि्मुक्ता यान्ति विष्णोः परंयदम्‌॥ ३४॥ . 

| पति श्रीपाझपुराणे चतुर्थे ब्रहाखण्डे व्यासजैमिनिसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ 


प्र 


|| 
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( 


द्वितीयोऽध्याय 
हरिमन्दिरलेपनमा्ना दिमाहात्म्यदण्डकनामकचौरब्त्ान्तक 


सूत उवाच । 
श्टणु शौनक ! घक्ष्यामि चान्यधम पुरातनम्‌ । 
व्यासजैमिनिसंवादं श्रोतणां पापनाशनम्‌ ॥ १॥ ` 
जैमिनिर्वाच । 
. कर्मणा हि गुरो ! केन मन्दिर जगतीपतेः । याति तत्कथयस्वाद्य नरः पापी चमे प्रे 
व्यास उघाच। 
श्रीकृष्ण॑मन्दिरे यो वै लेपनं कुरुते नरः । सवेपापविनिर्मुक्तश्वान्ते याति हरेगृह्या 
यश्चास्वुलेपन कुर्यात्संक्षेपाच्छणु जेमिने ! । तस्य पुण्यमहंचच्मि मन्दिरे जगतीपते। 
) ` तत्र याचन्ति वै सन्ति रजांसि च द्विजोत्तम !। | 
तावत्कल्पसहस्जाणि स चसे द्विष्णुमन्दिरे ॥ ५॥ 
` पुराऽऽसीद्दण्डकोनास्ना चौरो लोकभयप्रदः । ब्रह्मस्वहारी मित्रप्नो युगे द्वापरसंजे 
असत्यभाषी क्रूरश्च परस्त्रीगमने रतः । गोमांसाशी सुरापश्च, पाखण्डजनसङ्गमाइ। 
बृत्तिच्छेदी द्विजातीनां न्यासापहारकर्तथा । 
शरणागतहन्ता च वेश्याविभ्रमलोलुपः ॥ ८ ॥ 
एकदा स द्विजश्रेष्ठ! कस्यचि दविष्णुमन्द्रम्‌ । जगाम हरणार्थाय विष्णोद्रेव्य सर्व 
अथ द्वारि प्रविश्यासाप्रङत्ि कर्देमसंयुतम्‌। प्रोज्फयामास चे निम्ने भूमौ देव 
तेनेव कमेणा भूमिनिज्नरिक्ता बभूव ह । लोहस्य च शळाकाम्यासुदुघाटय वरह 
प्रविवेश हरेगेंहं वितानघरशो भित्तम्‌ । रल्काञ्चनदीपाढ्यं परिध्वस्तमहत्तम'॥(५| 
नानापुष्पसुगन्घाढ्यं नानापात्रसमाकुलम्‌ । सुवासितस्य तैलस्य गन्धेन पसिरर| 
अनेन दारकेणाथ पंके सुमनोहरे। शायितो राधयासाद दुष्टपीताम्बरोषच्युठ 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


१.० “५ 


८ : , न | 
तृतीयोऽध्यायः ] के कात्तिकमासमाहात्स्यकथनंम्‌ न FF र | | 
| प्रणम्य राधिकानाथं निष्पापःसोऽभवत्तदा | नेष्यास्थथ न नेष्यामि अनेन कि भवेन्मम 
सेवां कर्तुमशक्तो5हं यतश्चोरोऽस्मि सबंदा । व्येण क्रार्यमस्ती ति तन्नेतं छृतवान्मन 
पातयित्वांऽशुकं भूमौ कौशेयं कमलापतेः.। | 
_ चयन्ध चस्तुजातं च पाणौ कृत्वा स कम्पितः ॥ १७ ॥ ih 
घिष्णोर्मायापतेश्चाथ तानि सर्चाणि जैमिने ! | | 
इत्वा शब्दं सुघोरं च पतितान्यथ तानि बै ॥ १८॥ 
परित्यज्य सुनिद्रां च धावन्त इति किन्वहो | 
_ आगता बहुशो लोकाश्चौरो द्रव्यं जवेन च ॥ १६॥ 


त्यक्त्वा धनं च चौरोऽपि स्तः किञ्चिञ्ञगामह । ( 


| 


दंशितः काळसर्पेण छतो ऽसौ गतकिल्विषः ॥ २० ॥ र 
[|| यमाझया तस्य दूताःपाशमुद्दरपाणयः । आगतास्तं समानेतुं दृष्लिणश्रमेघाससः ॥ | 
है। वबत्युश्वर्मपाशोन निन्युदुगमवत्मंना । दृष्ट्या तं शमनः करुद्धःपप्रच्छ सचिवं प्रति॥ 
यम उवाच । 
- कि कृतं कमे पापं वा पुण्यमेव घा। समूल, वेद हे प्राज्ञ! चित्रगुप्त ! ममाग्रतः ॥ 
चित्रगुप्त उवाच । 
सृष्टानि यानि पापानि-विधात्रा पृथिवीतछे | कृतान्यनेन मूढेन सत्यमेतन्मयो दितिम्‌ ॥ 
कि त्वाकर्णय लोकेश ! सुकृतं चास्य घत्तते । मन्येऽहं यमुनाभ्रातः !सवेपापचिळोपितत्‌ 
धमराज उवाच | - 
| कि पुण्ये चतेतेऽमात्य चद्सारं ममान्तिके । थृत्वेचं तद्विधास्यामि यत्र योग्योमवेदसी 
व्यास उवाच | ० 
यमस्य वचनं श्रत्वा सभयश्वित्रगुत्तकः। छत्वा हस्ताअलिप्राह चात्मनःस्वामिने द्विज 
चित्रगुप्त उवाच । | 
a हणाथ हरेद्रेच्यं गतोऽसौ पापिनांघरः । प्रोज्कितःकद्दमोराजन्पादयोद्धारतो हरेः ॥ | 
जु 'पैभूच सिसा: ह प्रमिविरल्छिदतिततजिता ८ ।पुण्प्रप्रभावेण bY (लिगेतंपातक महत्‌ ॥ 


| 
| 
। 
| 
। 
| 
॥३ 
| | 
| 
|| 
१ 
| 


२०६ : ` * ॐ पादपुरा णम्‌ ॐ 
२०88 ४ 
बैकुण्ठ प्रतियोग्योऽसौ निर्गतृस्तव दुण्डतः॥ २६ ॥ 


व्यास उबाच । 

श्रत्वा सचचनं तस्य पीठं कनक्कनिमितम्‌ । ददौतस्मै चोपचिष्टस्तत्र एज्यो यो | 
ननाम शिरसा त॑ बै प्रोवाच विनयान्वितः ॥ ३० ॥ दै 

यम उचाच । ० | 

पचित्रं मन्दिरं मेऽद्य पादयो स्तव रेणुभिः । | 


कृतार्थोऽस्मि कृतार्थोऽस्मि छतार्थोऽस्मि न संशयः ॥ ३१॥ 
इदानीं गच्छ भो साधो ! हरेमेन्द्रसुत्तमम्‌। नानाभोगसमायुक्त जन्मसृत्युनिवाण 
व्यास उवाच | | 
इत्युकत्वा घर्मराजोऽसौ स्यन्दने स्वर्ण निर्मिते । 
राजहंखयुते दिव्ये तमारोप्य गतेनसम्‌ ॥ ३३ ॥ 
खमस्तसुखदं स्थानं प्रेषयामास चक्रिणः । एवं प्रविणो वेकुण्ठे तत्र तस्थौसुख्र 
लेपन ये प्रकुवेन्ति भक्त्या तु हरिमन्दिरे । तेषांकि चा भविष्यति न जाने हंद्रिजोतता! 
य॒ इद्‌ शणुयाङ्गत्तया पठेद्यो चा समाहितः । कोरिजन्माजितं पापं नश्यत्येच न संश 
इति श्रीपाद महापुराणे चतु्थेत्रह्मलण्डे हरिमन्दिरलेपनमाह्ात्यं नाम | 
द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ ८ 


° तृतीयोऽध्यायः 


कातिकमासमाहात्म्यकथनम्‌ | 


शौनक उवाच | 
कात्तिकत्य च माहात्म्यं त्र हि सूत ! ममाग्रतः। 


दुतस्य फल कि घा दोषं तकल 
(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi कि, त ७१ छ त ८ 


१ दृतीयो 5ध्यायः ] + दीपप्रोदुबोधनेन सूषिकस्यो द्वारवर्णनम्‌ + र २58 


सूते उघाच । 
ल्द मुनिश्रेष्ठ ! व्यासं सत्यवतीसुतम्‌ । जैमिनिः पृ्टघानेतदारेमे कथितं सुनिः ॥ 
व्यास उघाच | ड 


ह ; ८ बल 
हिखवैलं मैथुनं यः शुभदेकात्तिके त्यज्ञेत्‌। बहुजन्मकछृतेःपापैमुक्तोयाति. हरे हम्‌ ॥ 


तस्यं च मैथुनंय वै कात्तिके न परित्यजेत्‌ । प्रतिजन्मनि संमूढः शूकरश्च भवेदुधुचम्‌ 
कार्तिके लुळलीपत्रेः पूजयेद्वेजनादेनम्‌ । पत्रेपतरेऽश्वमेधस्य फळं प्राप्नोति मानव: ॥ 
कार्तिके सुनिएुष्पेयेः पूज्येन्मधुसूदनम्‌ | देवानां दुर्लभ मोक्षं प्राप्नोति कृपया हरे: ॥ 
| कात्तिके सुनिशाकं वे योऽश्नाति च नरोत्तमः | संवत्सरकृतंपापं शाकेनैकेन नश्यति 
फलं तस्य नरो5श्नाति चोजे यो बे हरिप्रिये । 
प्रदाय तु ररेत्र ह्न्वृजिनं कोरिजन्मजम्‌॥ ८॥ 
लं सृपिषा युक्त दद्याद्यो हस्ये5पिच। सर्वपापैचिनिर्मुक्तः सगच्छेद्धरिमन्द्रिम्‌ ॥६॥ 
कार्तिके यो नरो दद्यादेकपझं हरावपि.। अन्ते विष्णुपदं गच्छेत्सवंपापविषर्जितः ॥ 
तः खाने नरो योवे कातिके श्रीहरिप्रिये । करोति सर्वतीर्थेषु 


हितिके यो नरोद्यात्प्रदीपं नमसि द्विज: । विमहत्या दिमि:पापैमु्तोगच्छेदधरेगहम्‌ 1. 


हतमपि यो दद्यात्कास्तिके प्रीतये हरे: । दीपं नभसि पिप्रेनद्र! तस्मिस्तुष्टःसदाहरिः । 
यो दद्याच्च गुहे दीपं कृष्णस्य सघुतं द्विज: । 
कार्तिके चाश्वमेधस्य फळंस्याद्वै दिने दिने ॥ १४॥ 

(पस्य च माहात्म्यं चिशेषसुच्यते मया । निशामय द्विजश्रेष्ठ सेतिहासं समाहितः॥ 


22 दिदि 


हि्ेतायुगे चिप्रो बैक्कण्डो नामतः शुचिः । यस्य सङ्गप्रभावेण सुक्तोभवति पातकी _ 


बिदा कार्तिके सोऽपि प्रदीपं पुरतो हरे: । दत्त्वाग्रहं गतो विप्रो घृतपूणं द्विजर्षभ । 
॥स्तत्खादितिं चाखुरागतोऽपि प्रदी पत्तः । यावत्खा दितुमारेमे बोधितोऽसौग्रदीपकः 
एको; झिभयात्तत्र वेगेनापि पलायितः | आखोश्च सकलंपापं चिनष्टं कृपया हरेः ॥ 
देंशितश्चाखुःप्राणत्यागं चकारह-। ततो यमाज्ञया दूताः पाशसुद्गरपाणयः ॥ 
| तास्त समानेतुं बबन्धुश्चमेरञ््ञभिः । याचन्नेतुँ मनश्चक्रुः शङ्खचक्रगदाधराः ॥ 


2) 


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२०८ १ कै पाद्यपुराणम्‌ ॐ |: 
आगता गरुडारूढा बिष्णुदूताश्चतुसुजाः | विमानं गगनेचेद राजहंसयुतं क्ट | 
निर्मितं कनकः शुद्धैः कामगं कृपया हरैः । 
पाशां छित्वा ततो दूताः प्रोचुस्ते यमकिङ्करान्‌ ॥ २३॥ 
चिष्णुमक्तोऽप्यसौ मूढा व्यर्थ तु बन्धनं छतम्‌ । 
गच्छध्वं शमनप्रेष्या यदि घाञ्छाऽस्ति जीवितुम्‌ ॥ २४१ 
श्रत्वा प्रकस्पितास्ते चै एच्छन्ति घिनयान्विताः । 
केन पुण्य प्रभावेण युष्मासिनीयते पुरम्‌ ॥ २५॥ 
असौ विष्णोमहापापी यूयं तद्वक्तुमहथ ॥ २६॥ , ' 


तेनेव 


पुरतोवाखुदेवस्य प्रदीपबोधनं छतम्‌ । तैनेघ कर्मेणा दूता नयामो विष्णु 
अनिच्छयाऽपि यः कुर्याद्विष्णोदोंपस्य वोधनम्‌। _ | 
कोटिजन्माजितं पापं त्यक्त्वा याति हरेग हम्‌ ॥ २८ ॥ 
भक्त्या प्रदीपं यो दद्यात्कार्तिके तु हरेदिने। तस्यपुण्यं समाख्यातुं न शक्तोहरि 
बुतपूर्णप्रदीपं यो भक्त्या द्या्रेण हे । अश्वमेधसहस्रेण तस्य किंवा प्रयोजन 
अश्वमेधप्रकर्ता यः स्वर्गयाति हरेदिने। कातिके दीपदाता च सगच्छेद्धरिमति 
व्यास उचाच | _ | 
इति श्रुत्वा ततो दूता गतास्ते चे यथाऽऽगताः ! 
चिष्णुदूता रथे कृत्वा गतास्तं विष्णुमन्दिरम्‌ ॥ ३२॥ 
विष्णुसान्निध्य चास्य मन्वन्तरशतं गतम्‌ । ततो मर्त्ये राजकन्या वमूव श 
पुत्रपौत्रसमायुक्ता चिरं भोगं चकार सा । ततःपुनर्गता सा तु गोलोकं रि 
सूत उचाच । | 
भक्त्या श्रणोति यो म्यो दीपमाहात्म्यसुत्तमम्‌ । 
सर्वेपापविनिरमुक्तः स याति विष्णुमन्द्रिम्‌ ॥ ३५ ॥ 


९ इति श्रीपाझे महा पुराणे चत Var ह्मण पड़े दीपदानमाहालयं नाम 


चतुर्थो ऽध्यायः 
जयन्तीत्रतमाहात्म्यकथनम्‌ | 
शौनक उचाच। 


.जयन्त्याः सूत माहात्म्यं कदा सा क्रियते जनेः | 
कथयस्व मम त्वं वै पोतःसंसारखागरे ॥ १ ॥ 


नारद्‌ उवाच | 
ग्यन्त्यश्वेच माहात्म्यं कथयस्व पितामह | यच्छृत्वा5हं गमिष्यामि तद्विप्णोःपरमंपद्म्‌ 
ब्रह्मोवाच । | 
णुप्वावहितो विप्र तवाग्ने कथयाम्यहम्‌ । जयन्त्या उपघासेन विष्णुलोक स गच्छति 
मरणात्कोतेनात्पापं स्तजन्माजितं सुने !। जयन्ती वहते तच्च कि पुनःसोपवासङृत्‌ 
स्माएमी च नवमी चेत्रेमासि सिताशुभा । कृष्णा चतुर्दशी कुम्मे मेषेशुक्का चतुर्दशी 
ढुर्गाएम्याश्विने शुक्का द्वादशी श्रवणान्विता । 
महापुण्याश्च शुभदाः जयन्त्यः षर्‌ प्रकीतिता: ॥ ७ ॥ 
|गजन्माएमी पूर्वा प्रसिद्धा पापनाशिनी । क्रतुकोटिसमाह्येषा तीर्थानामयुतेःसमा . 
ग गवां सहस तु यो ददाति दिनेदिने । तत्फलं सम्रधाप्रोति जयन्त्यां ससुपोषणे | 
सभमारसहर तु कुरुक्षेत्रे रचिग्रहे | तत्फलं समवाप्नोति जयन्त्यां समुपोषणे ॥१०॥ 
णाजिनसहस्ताणि तिळधेनुशतानि च। तत्फलंसमचाप्नोति जयन्त्यां समुपोषणे 
| पट सहस्वाणां दाने भवति यत्फलम्‌ | तत्फछंसमचाम्ोति जयन्त्यां समुपोषणे 
|पागरामिमां पृथ्वीं दृत्त्वा यल्लमतेफलम्‌ । तत्फलं समचाप्नोति जयन्त्यांससुपोषणे 
॥ कृपतडागादि कतेव्यं देबतालये | तत्फलं समवाप्नोति जयन्त्यां समुपोषणे ॥ 


७ (50-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


२१ २, 


गड़ायां नमंदायां यत्पुण्ये सारस्वते जळे । स्नात्वा पुण्यमचाप्नोति जयन्त्या | | 


` यो नरो5श्ताति मूढात्मा जयन्तीवासर द्विज । महानरकमश्नाति यथा च हरर] 


*#-पापुराणम्‌ # 


मातापित्रोर्गरूणाञ्च भक्तियुक्तः करोति यः। तत्फळ समवाप्नोति 
आपदा हरणार्थाय तीर्थसेवा इतात्मनाम्‌ । 
सत्यत्रतानां यत्पुण्यं जयन्त्यां ससुपोषणे ॥ १६ ॥ 


यत्पुण्यं श्राद्धकतू णां पितणामिन्दुसंक्षयै । - 
तत्फछं समवाप्नोति जयन्त्यां ससुपोषणे ॥ १८॥ 
नारद्‌ उचाच । 
छेन केन छता पूचं कथयख पितामह ! ॥ १६॥ ' 
द्र्मोचाच । > 


कार्तवीर्येण कर्णेन कुमारेण च घीमता । सगरैण दिलीपेन काकुत्स्थेन हता फ । 
गौतमेन च गाम्यैण जामदग्न्येन घीमता । बातमी किनाकतापूव द्रौपदेयेन साछु| 
ददाति वाञ्छितान्कामान्माट्रकस्य सिताष्टमी । प्राजापत्यक्षसंयुक्ता चिदेषेण परता 
चर्षेवर्य प्रकर्तव्या प्रीत्यर्थे चक्रपाणिनः | कोटिजन्माजितं पापं मुहूर्त विही 
रात्रौ जागरणं इत्वा निष्ठापूर्व जिते न्द्रियः । गन्धपुष्पादि नेवेद्येः पूजनीयः पथ 
एवं यःकुरुते चिप्र ! जयन्तीसप्नुपोषणम्‌। को रिजन्माजित पापं ज्ञानतो जाता 
प्रसादाद्‌ वकीसूनोयांमारद्धेन विलीयते | जयन्ती तिथिसम्पाप्ती सुञ्जते ये नराषाश 
चैलोषयलस्भवं पापं सुञ्जते ते न संशयः। सागराद्यानि तीर्थानि सुक्तिस्थानारि त 
ग्रहे तिष्ठन्ति सर्वाङ्गे जयन्तीब्रतकारिणः। तस्य सर्वा णि तीर्थानि देहे तिल 
करोति यो नरो भक्त्या जयन्तीं छष्णवछुभाम्‌ । न वेदेन पुराणेन मया हुए ग] 
तत्समं नाधिकं चापि कृष्णराघाएमीबतम्‌ । | 
न करोति नरो भक्त्या स भवेत्क्रुरराक्षलः ॥ ३० ॥ 


अतीतमागमिष्यच कुलमेकोत्तरं शतम्‌ । पतेत्त नरके घोरे जयन्त्यां भोजन ी | 
जयन्ती बुधवारे च रोहिण्या सहिता यदा । भवेच्य मुनिशार्दूछ! कि | 


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«याय ] नै जयन्तोव्रतकारिणांमाहात्म्यम्‌ ॐ त 2100 “२११ र 

तयुगे चैव वपरे च कलौयुगे । इता सृम्यग्विधानेन जयन्ती पापनाशिनी ॥ 

पद्मनामस्य पुराणं पाठयेत्तु यः । आजन्मोपाजितं पापं दहते तूलराशिबत्‌ ॥३५ 
यः श्टणोति नरो भक्त्या पुराणं हरिवासरे । 

कोटिअन्मा्जितं तस्य पापं नश्यति तत्क्षणात्‌ ॥ ३६ ॥ 


पेश्च छृतपूर्णप्रदीकः। पूजयेद्गक्तिभावैश्च दद्याद्विप्राय दक्षिणाम्‌ ॥३६॥ 
ऽनेन यो चिप्र जयन्तीं प्रकरोति च। नरो वै तारयेट्ग्त्या पुरुषानेक्िंशतिम्‌। 
म्यं न वैधव्यं न भवेत्कलहो गृहे। सन्ततेनं चिरोधं च न पश्यति धनक्षयम्‌ । 
यान्यां श्चि्तीषेते कामाञ्जयन्तीससुपोषकः । 
,तांस्तान्प्रामोति सकलान्विष्णुलोक स गच्छति॥ ४२॥ 
विष्णुभक्तिपरा नित्यं जयन्तीत्रतमानसा: | . 
ते धन्यास्ते कुछीनास्त ईश्वरास्ते च पण्डिताः ॥ ४३ ॥ 
नि कानि च तीर्था नित्रतानिनियमानिच । जयन्तीवासरस्येघकलांनाइन्तिषोडशीम्‌ 
द्रवे चोभये पञ्चे यः करोतिसभार्यकः। राधाकृष्णाश्मी घत्स!प्रापोति हरिसन्निधिम्‌ 
पंच पुण्यकारं च यः करोति सदाहरेः। स याति. विष्णोर्वेकुठं जयन्तीलसुपोषक 
भचार कुळश्रएं कीर्तिहीनं कुयो निजम्‌ । नाशयत्याशु पापं च जयन्ती हरिवल्लभा ॥ 


~ 


यों लभते. पुत्रं धनार्थी लभते घनम्‌ । मोक्षार्थी लमत मोक्षं जयन्त्यां ससुपोषक 
[लीकरणे चित्तं येषां भवति तत्परम्‌ । यमोऽपि शङ्कतेनित्य ते 'यान्ति परमांगतिम्‌ 
| सूत उचाच |. . 

यित्वा नारद्‌ं तु ययौ स च यथांऽऽगतः। मयाऽपिकथितं ब्रहमत्यतपृष्टोऽहंत्वया सुने 
माहात्म्यं च जयन्त्या ये श्टण्वन्ति भ क्तिमाबतः । 

तेऽपि यान्ति परं घाम विमुक्ता सवेपातकैः ॥ ५२ ॥ 


CC-0. Mumukshu Bhawan nasi Collection. Digitized by eGangotri 


है CC-0 Mi, awan नविन छर्याहपाल्ं ब्नाह्मण॒स्य 


श्र क पाझपुराणम्‌ क [६ 
पुराणधाचकं त्रह्मज्यन्तींत्रतिनं तथा / ये पंश्यन्ति नराः पापास्ते यान्नि 


इति श्रीपाओं महापुराणे चतुर्थ ब्रह्मखण्डे व्रहानारद्सघादे जयन्तीघ्तमाहत, ( 
| चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥ 


पञ्चमोऽध्यायः : 

स्रीणां पुत्रराहित्यत्वादिप्रतिबन्थककारणानां कथनम्‌ ` 

शौनक उघाच । 
कथयस्व महाप्राज्ञ! पुत्रहीनो जनो भवेत्‌ । कमेणाकेन चे सूत ! पुत्रो भबति कषः 
सूत उवाच । 
एतत्पृष्ट: पुरात्रह्मा नारदेन महात्मना । स यदाह तदा तं च श्एणुष्व सुनिपु।॥ 
नारद उचाच । 
._ पितामह ! महाप्राज्ञ ! सर्वेतत््वार्थपारग ! । अपुत्रो वे भवेन्मत्यः कमणश्ने एज 
` चन्ध्या खी वा भवेत्केन वृजिनेन ममाग्रतः । कथय श्टण्वतो वै मे सप्राण 
'दुहिता जायते केन कर्मणा घा नपुंसकः । सतवत्सो भवेरकेन सृतषत्सातिदु्ि| 
केन पुण्येन भो ब्रह्मन्पुनः पुत्रो भवेद्द्‌ ॥ ५॥ 
ब्रह्मोवाच । 

' कथयामि समासेन साघधानेन तच्छुणु । वृत्तान्तं पृच्छसि त्वं वे शएण्वतापिए] 
पूर्वजन्मनि यो मर्त्योबतेनं त्राह्मणस्य च। हरेद्वा हारयेदत्र पुत्रहीनो भवेत्ति/ | 
इह जन्मनि यो मत्यं: पुराणश्रवणं {दि च । स सस्यभूमेदांनं च कुर्यादेभ्रद्या | 


पूवेजन्मनि या नारी परवालकघोतनम्‌ । करोति कपटेनैच बालहीना से| र 
सौचण प्रति | 


द््षमो5ध्यायः ] ० क श्रीघरत्राह्मणस्य चरितम्‌ नर ल्‌ २१३ 
चेच द्द्यद्व बहुदक्षिणाम्‌ । ' बहुपत्या जीववत्सा भवेन्नास्त्यत्न संशय; । 


ह जले निमग्नं बाळं यो दृष्ट्या या न समुद्धरेत । 
इहजन्मन्यपुत्रो वे स्राध्पुत्री च भवेदुथुवम्‌ ॥ १३॥ 
मं चैव कूष्माण्डं सञुवणसचख्रकम्‌ । दद्याद्दानं ब्राह्मणस्य कुर्यादुबाल्यतंशुभम्‌ ॥ 


कुर्यात्क्रोधेन दण्डं च पुत्रहीनो भवेद्‌ भुचम्‌॥ १६॥ 

ब्रह्मणं यातिर्थि चेच कुर्याङ्वक्या प्रपूजनम्‌ । अन्नदानं जळंचेच तथादेचाळयं शुभम्‌ 

(वंजन्मनि या नारी श्र णहत्यां च योनरः । कुर्यात्सा सुतवत्सा च गृतवत्सोभवेद्श्ुचम्‌ 

या नारी स्वामिसहिता कुर्याच्च हरिचासरम्‌ । 

खुपुचा भत्‌ सुभगा भवेत्सा प्रति जन्मनि ॥ १६॥ । 

॥ नरो गोदमं कुर्याच्छूदः कुर्या द्विमो दितः । ब्राह्मणीहरणं वापि कर्मणा स नपुंसकः 
दं तु वृजिनं इत्वा पश्चात्पुण्यं करोतिय: । इह पुण्यप्रभावेण दुहिता जायते द्विज ! 

नेतायुगे राजाश्रीघरो नामतो द्विज ! अपुत्रो धनवांस्तस्य जायाहेमप्रभावती It 

सं सकलशास्त्रज्ञं सवेलोकहितैषिणम्‌। आगतं चैव पप्च्छ चापुत्रो5हं कथंद्धिज ! 

पिच नृपतेः शरुत्वा वचन्‌ घिनयान्वितम्‌। राज्ञा दत्ते च पीठे च निर्मिते कनकादिमि 

राजा राज्ञी तस्य पादौ घौतौ छत्वा च हर्षितौ । 

पीत्वा पादोदकं द्वौ च सबंपातकनाशनम्‌ ॥ २५ ॥ 

व्यास उवाच । 

णुष्च यत्पृष्टठमपुत्रो येन कर्मणा । तवेयं राज्ञी चापुत्री चेकप्रलीघतस्तथा ॥ २६ 

पूवेजन्मनि चन्द्रस्त्वे नाल्या घरतनुः स्मृतः । 

| भार्या तवापि शुम्राङ्गी नास्ता वै शङ्करी स्मता ॥ २७ ॥ 

[दा पथियातौ च नीचपुत्रं जलेऽपि च। मग्नं दृष्टवा हेछलया च गतौ स पञ्चतांगतः 

हेपण राजा गतौ युवयोने भवेत्सुतः ॥ 


१ 
८८-७0. Mumukshu Mn i ranasi Collection. Digitized by eGangotri 


1 २१४ १ - $ पाद्यपुराणम्‌ # 


` 


3 


राजोवाच 


व्यास उवाच । 


सवस्त्रे चेव कूष्माण्डं वृषभं ससुवणकस्‌ । देहि दानं ्राह्मणस्य भष | 


गौरीं कन्यां तथा देहि पुराणश्रवणं कुरु | पुत्रो चे जायते तत्र संपा 
. ब्रह्मोबाच । 


इति श्रुत्वा ततो राजा व्यासोक्तं दानसुसमम्‌ । छुराणभ्रवर्ण चेष चकार गर्त 


पुत्रो वर्षमध्ये बभूव सर्वपूजितः। अभूदाजा सार्वभौमः सुन्दरः कुना 


सूत उवाच । 
य इद्‌ श्रणयाङ्वक्या करोति दानसुत्तमम्‌। अपुत्रो लभते पुत्रं संक्षेपात्कगितफ 
भक्त्या श्रुत्वा तु या नारी कुर्याद्‌ ब्राह्मणपूजनम्‌ । . 

. खुपुत्रा सा भवेन्नित्यं शास्त्रोक्तविधिना द्विज !। ३६ ॥ 
सुचणं रजतंघस्त्रं पुष्पमाल्यं च चन्दनम्‌ । यो दद्यात्पुस्तके भक्तया 
'पूवेजन्मनि यो मूढो घ्रह्वालकघातकः। तस्य कूरो भवेत्पुत्रः सप्तजन्मातरह 
इति श्रीपाझे महापुराणे चतुर्थे ब्रह्मखण्डे व्रह्मनारदसंघादे कर्मेघिपाककथन त 
पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥ 


` षष्ठोऽध्यायः 
विष्योर्नाह्मणस्य च मन्द्रलेपनादिमःहमावर्णनम्‌ 
शौनक उचाच । 


केन पुण्येन भो सूत! वैकुण्ठं समचायप्ते तद्वदस्व शएण्वतो मे पोतो दि स. 


उवाच । 


._ साधुसाच यृनिभेष। समका} ॥.७ययामि मालेच-्रपतरता पापग | 


इदानीं केनपुण्येन सुतो वै जायते प्रभो! । अपुत्रस्य मनुष्यस्य जीवनं हि शिर ! 


। परी ऽध्यायः ] + घाराडूनायाश्वरित्रम्‌ अ र्‌ - 
विष्णवे घ्राह्मणायेच खदा वेश्मकिनिरमितम्‌ । यी 
यो वे दद्याद द्विजश्रेष्ठ ! तस्यपुण्यं निशामय ॥ ३ ॥ 
बिष्णुलोके च विपः ख॒ सर्वेपापचिचजित: | सौधवासी क्षवेश्षित्यं विष्णलोके प्र ते 
विष्णवे सौधरैहं यो दद्याद्वै त्राह्मणाय च । हरेसिकेतनं प्राप्य स्वर्गवासी भवेदुधुधम्‌ 
अन्ते विष्णुपुरं गत्वा युक्तः कोरिकुले द्विज ! 
स्वणेसीघे रहे स्थित्वा कुर्याद्वोगं यथासुखम्‌ ॥ ६॥ ` 
ब्राह्मणस्था पने पुण्यं य द्वे भर्वात भोसुने | । सङ्ख्यां कतमशक्तस्तु तद्वेथाः सर्वकारक 
गण्यन्ते रैणयश्चं्र गण्यन्ते द्ृष्टिविन्द्चः । न गण्यते विधात्रादि त्रह्वासंस्थापने फलम्‌ 
तारदैन पुरा ब्रह्मा पृष्ट: संखारसरभवः। वेधास्तं कथयामास तच्छृणुष्व महामुने! ॥ ` 
पुराऽऽसीदुद्वापरे घ्रह्मन्वारनारी सुशोभना। सुकेशी हरिणीनेत्रा सुमध्या चारुहासिनी 
क्ता सा यश्चलापाङ्गी ययौ देशान्तरं कदा । सर्वपापसमायुक्ता नरके पातयन्ति च | 
सह जारैण खा वित्तकामादेचाळयं गता ।. तत्र क्षणं सोपविष्टा तारवूळ्सक्षणं इतम्‌ । | 
हि शेषं चूर्ण सोधभित्ती दत्त्वा निम्ने कुतूहलात्‌ । ततोगता जारकाडक्षी घनार्थनगरंप्रति 
जारेण केनचित्खा सङ्केतः सहसा छत: । सङ्केतं तु गता वेश्या घनं रात्रौ विमो हिता | 
' सङ्केतं नागतो वेश्यो व्यशङ्किष्ट विलोकिता । | 
कथं कान्तो जागतो मे सर्पेव्याघेश्चभक्षितः ॥ १५॥ | 
सङ्गेतनं कथं हित्वा गतःकि कामघिहृलः । अन्यया ज्ञातया सार्दमभिलाषी भवेत्किसु . 
परासृश्येति हृद्यन्तः कोरपालमयादु द्विज! । नगरं नागता सा हि लोकमागे तमो बते । ¬ ` 
एतस्मिन्नन्तरे व्याघ्रः कामरूपी क्रुधातुरः । प्रेषितः कालदेवेनो्रसदागत्य तां द्विज | 
ततस्तु यसुनाभ्रातुदू तास्ते भीमघस्मिणः। आगता गिरिकूटाङ्गी नेतं तां पापकर्मणा । 
पक्रपादाचक्रसुखा उन्नासा बहुदं ष्ट्रिणः | चर्मेरञ्जूमंदुगरांश्च गृहीत्वा पांसुलान्दिज ! ॥ 
वन्धयामासुरुन्मत्ता गणिकां चमेरज्जुभिः । शङ्कुचक्रगदापद्चघघारिणो घनमालिनः ॥ 
| परेषिता देवदेवेन तद्भगक्तघत्सलेन च । क्ृष्णजी मूहसङ्काशाः स्फुरद्वदनपडूजा: ॥ २२॥ 


षेणीधराश्वासुनासा (५-0 ।, विव्यकुण्ड [211] लभूषिता: दृशः पुथि गच्छन्तो षिष्णो बात 


द ०0 # पराद्मपुराणम्‌ ॐ 
चिष्णुदूता ऊचुः। 
के यूयं घिक्कताकारा लक्ष्यध्वे कबुरा इच । 
इमां विष्णोः प्रियतमां नीत्वा क घजथोत्तमाम्‌ ॥ २४॥ 
इदं घचनमाकर्ण्ये तेषां ते तु दुतंय युः । अथ ते क्रोधसम्पन्ना विष्णो 
जघ्नुस्ते सन्देशहरान्यमस्य जगतः प्रभोः । चक्रादिशस्त्रसड्ेय्य हु है! 
कृतान्तस्य भटाः सर्वे रुदन्तस्ते पलायिताः। यमं प्रोचु खभीताश्वृत्तान्तंसकबदश 
यमोऽपि तत्कथां श्रत्वा चित्रगुप्तमुवाल ह ॥ २४ ॥ 


[४ भह 


धर्मं उघाच । 
केन पुण्येन भो मन्त्रिन्वेश्या मुक्ति समागता । एतन्से एच्छतःसचं कथयस यच 
चित्रगुप्त उवाच । 


गणिकैकदा धमराज सर्वालङ्कारभूषिता । काञ्चित्पुरी जगामाशु जारकामा 
तत्र देवालये तस्मिन्स्थित्वा ताग्दूलभक्षणम्‌। 
कत्वा तच्छेषचूणं तु ददौ भित्तौ तु कौतुकात्‌ ॥ ३१॥ 
तेन पुण्यप्रभावेण गणिका गतपातका । चैकुण्ठंप्रति सा याति निर्गता तब दण्छ॥ 
सूत उचाच। ग | 
इति श्रुत्वा ततो दूता यमोऽपि घचनं द्विज | व्यापारे चान्यतश्रित्त ददुःस 
, आरूढा स्यन्दने दिव्ये राजहंसयुते तथा । घिष्णुळोकं ययौ सा च वेधि 


) तया पापान्यजितानि जन्मतःसुबहून्यपि। कित्वाकर्णय छोकेश ! यदस्या: 


भक्त्याऽध्यायं पठेद्यो वै श्रणोति साद्रोऽपि च। 
सवेपापघिनिर्मक्तो यात्यसौ हरिमन्दिरम्‌ ॥ ३७॥ 
इति थ्रीपाझे महापुराणे चतुथे ब्रह्मखण्डे ब्रह्मनारदसंचादे षष्ठो$ध्यायः ॥ ९1. 


त शी 


८८-७0. Mumukshu Bhawan VararfAsi Collection. Digitized by eGangotri 


0 ) 


रे 
सप्तमोऽध्यायः 
„ भाद्रशझृपक्षे राधाजन्माष्टमी मांद्वात्म्यम्‌ 
शौनक उघाच। 
कथयस्व मदाध्राज्ञ! गोलोकं याति कमंणा । सुमते दुस्तरात्केन जन संसारसागरात्‌ । 
राधायाश्चाष्टमी' सूत तस्या माहात्म्यमुत्तमम्‌ ॥ १ ॥ 
9५ सूत उवाच । 
पर्णं नारदोऽपच्छत्पुरा चेतन्महासुने | तच्छणुष्वसमासेन पृष्टचान्ख यथा द्विज ! । 
नारद्‌ उबाच | 
पितामह,! महाप्राज्ञ ! सवेशास्रविदांघर ! । राधाजन्माष्टमी तात कथयस्व ममाग्रतः॥ 
तस्या:पुण्यफळं कि घा कृतं केन पुरा विभो !।_ 
_अकुवेतां जनानां हि किल्बिषं कि भवेद्विभो | ॥ ४॥ 
ब तु विधानेन कतेव्यं तदुघ॒तं कदा । कस्माज्जाता च सा राघातन्मे कथयमूलतः 
| ब्रह्मोचाच । 
माष्टमीं वत्स! श्युणुष्व खुसमाहितः | कथयामि समासेन समग्रं हरिणा विना 
रथितु तत्फल पुण्यं न शक्तोत्यपि नारद । कोटिजन्माजितं पापं ब्रह्महत्यादिकंमहत्‌ । 
शवन्ति ये सङद्वक्तया तेषां नश्यति तत्क्षणात्‌ । एकादश्याःसहस्रेण यत्फलं लभतेनरः 
राधाजन्माष्टमी पुण्यं तस्माच्छतगुणाधिकम्‌। 
मेरुतुब्यसुवर्णानि द्रवा यत्फलमाप्यते ॥ ६॥ 
सङ्द्राधाष्टमीं इत्वा तस्माच्छतशुणाधिकम्‌ । 
कन्यादानसहस्रेण यत्पुण्यं प्राप्यते जनेः ॥ १० ॥ 
खुताष्टम्या तत्फळं प्राप्यते जनेः । गङ्गादिषु च तीथु स्नात्वा तु यत्फळंळभेत्‌ 
प्रियाष्टम्या फळं प्राप्नो ति'मानचः | पतदुत्रतं तु यःपापी हेल्या अद्वयाऽपि वा 


पि, CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


7 “--_ 


a] 


२१८ २३. - # पाझपुराणम्‌ ॐ 


[६ शेक 
करोति विष्णुसदनं गच्छेत्को टिकुला न्वितः । पुरा छतुगे घत्स! धारनी झे 


खुमध्या हरिणीनेत्रा शुभाड़ी चारुद्दा सनी । 
खुकेशी चारुकर्णी च नाज्ञा लीलवती सस्ता ॥ १४॥ 
तयावहुनि पापानि कृतानि सुद्ृद्दानि च । धनाशया चैकदा सा निरुसृत्य 
गतान्यनगर तत्र इष्वा खुशजनान्‍्वहन्‌। राधाष्टमी व्रतपरान्सुन्दरै देवतारे रे 
गन्धपुष्पैधू पदीपेवंस्त्रेनांनाविधेःफले: | भक्तिभावेःपूजयतो राधाया मूहि 0 
केचिद्गायन्ति नृत्यन्ति पठन्ति स्तवमुचमम्‌ । वाखवैणुग्यदङ्वञ्च वाद्यन्ति च३ 
तांस्तांस्तथाविधान्द्टवा कोतूहलसमन्बिता । जज 
जगाम तत्समीपं सा पप्रच्छ विनयान्विता ॥ १६॥ 
सोभो:पुण्यात्मानो यूयं कि कुर्वन्तो सुदान्बिताः । 
` कथयध्वं पुण्यचन्तो मां चेच घिनयान्बितास्‌ ॥ २० ॥ 
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा परकाये हितेरताः । आरेभिरे तदा वक्तुं ड व्रत 
राधावतिन ऊचुः । ` 
भाद्रेमासि सिताष्टम्याँ जाता श्रीराधिकायतः । अष्टमी साथ सम्पराप्ताकुम 
गोघातजनित पापं स्तेयजं व्रह्माघातजम्‌। परस्त्रीहरणाच्येच तथा च गरतत्यश 
विश्वासघातजं चैव खीहत्याजनित तथा । एतानि नाशयत्यरशु छृताया चाष्यरक ` 
तेषां च वचनं श्रुत्वा सवेपातकनाशनम्‌ । 
० करिष्यास्यहमित्येव परासृश्य पुनः पुनः ॥ २५ ॥ 
तत्रेव घतिमिःसाद्ध॑ इत्वा सा ब्रतमुत्तमम्‌ । दैचात्सा पञ्चतां याता सर्पधातेत 
ततो यमाश्चया दूताभाशसुद्ररपाणयः | आगतास्तां समानेतुं बबन्धुरतिङच्छूः | 
यदानेतुं मनश्चक्रुयेमस्य सदनं प्रति तृदा5५गता विष्णुदूताःशङ्कचक्रगदाधरः ¦ | 
हिरण्मयं विमानं च राजहंसयुतं शुभम्‌। छिन्नं च चक्रधाराभिः पाशं 
रथे चारोपयामासुस्तां नारीं गतकिरिबषाम्‌। ` 


7५. निन्युविष्णपुर Mumukshu र ते च गोलोकाय मनोरम ॥ bRSllhgoti 


कृष्णेत राधया तेत्र स्थिता व्रतप्रसादतेः । राधाष्टमी रतं तात यो न कुर्याच्चमूढधी: 


कव्सचिज्जन्स चासाद्य पृथिव्यां विधवा श्रुवम्‌। 

एकद? पृथिवी घत्स ! ढुष्टसङ्घेश्व ताडिता ॥ ३४ ॥. 

गौभूत्वा च भृशं दीना चाययौ सा ममान्तिकम्‌ । 

- निवेदयामास” दु.खं रुदन्ती च पुनः पुनः ॥ ३५ ॥ 
 तद्वाब्यं च समाकर्ण्य गतोऽहं विष्णुसन्निधिम्‌ | 

कष्णे निवेदितश्चाशु पृथिव्या दुःखसश्चयः ॥ ३६ ॥ 
तेनोक्त गच्छ भोन्रहमन्देवेःसाद्धं च भूतले । अहं तत्रापि गच्छामि पश्चान्ममगणैः सह । 
तच्छुत्वा. खहितोदेवेरागतः पृथिवीतलम्‌ । ततः कृष्णः समाहूय राधांप्राणगरीयसीम्‌ 
वचन देवि! गच्छेऽहं पृथिवीतलम्‌ । पृथिचीभारनाशाय गच्छत्वंमत्यंमण्डलम्‌ 
इति श्रुत्वाऽपि सा राधाऽप्यांगता पृथिचीं तत: । भाद्रेमासिसितेपश्षे अष्टमीसंक्ञकेतिथौ 

वृषभानोयेज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिघा। |. 

यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी ॥ ४१ ॥ 

] पजाऽऽनन्द्मनाभूत्वा तां प्राप्य निजमन्द्रिम्‌ । दत्तवान्महिषींहस्ते सा च तां पर्यपालयत्‌ 
इति ते कथितं घत्स ! त्वयाषृष्टं च यद्वचः । गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ 
सूत-उवाच | 
|स इद शणुयाङ्ग्या चतुवंगेफलप्रदम्‌। सर्वपापविनिमुक्तश्वःन्ते याति हरेग्रहम्‌॥ 

| इति श्रीपाद्धे महापुराणे चतुर्थे ब्रह्मलण्डे' व्रहानारदसंवादे श्रीराघाएमी 
माहात्म्यं नास सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ ; 


राधाविष्णोःप्रीतिकरं सर्वपापप्रणाशनम्‌ । अन्तेयमपुरी गत्या पतन्ति नरके चिरम्‌ ॥ 


SS आडी 


पारी 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri , 


खप्तमो ऽध्यायः ] क्ष छलावेश्यासमुद्धारवर्णनम्‌ कै र्या २१६ न 


तरका न्निष्छृतिर्ना स्ति कोरिकटपशतेरपि। हियश्व या न कुर्वन्ति व्रतमेतच्छमप्रदम्‌ । ` 


| 


अष्टमोऽध्यायः ` 


ब्रह्मन्वच्मि समासेन सिन्धोर्म॑थनकारणम्‌। दुर्धाससेन्द्रसंपादमितिहासं शृ 
महातपा महातेजा दुर्वासाईश्वरांशजः । ब्रह्मषिः प्रययौ स्वगे मिन्द्रं स चेकदा by 
तस्मिन्द्दशेकाळे तं गजारूढं शाचीपतिम्‌। दृष्ट्या खजं पारिजातां ददीत 
ग्रहीत्वा तां ख़जंचेन्द्रो चिन्यस्य गजमूद्धनि । देवराट्‌ ययौ ब्रह्मन्ससेन्योनन्दन ई 
हस्ती चादायतां माढांछित्वा तु धरणीतले । चिक्षेप च महाक्रुद्धस्तमित्याह्मह 
चैछोक्यैकश्चिया युक्तो यस्मात्त्वमचमन्यसे । 
तब तैलोक्यश्री ष्टा भवत्येव न संशयः ॥ ७॥ 
ततः शक्रोजगामाशु सुप्तश्च स्वपुरं पुनः । ददर्श जगतां माता गता स्स 
तस्यामन्तहितायां तु सबं नष्टं जगत्त्रयम्‌ । श्चुत्पिपासान्विताःसर्े चुक्रुशे 
न ववर्षेवा रिवाहाः शुष्काश्चैव जलाशयाः । सर्वे ते शाखिनःशुष्का:फलपुष्पविर्षाळ 
श्वुत्पिपासादिताःसर्वे ब्रह्मणःसन्निधि ययुः । तं सर्वे कथयामासुद्‌ःखशोक पिता 
देवानां घचनं श्रुत्वा धाता देवगणैः सह । भृग्वादिसुनिभिश्चैच प्रययौ क्षीरसाई 
विष्णु समर्चयामास क्षीराब्पेरुत्तरै तरे । मन्त्रमषटाक्षरं वेधा जपन्ध्यायन्जगतपवि 
ततः प्रसन्नो भगवान्सुर्वेषां च दिघौकसाम्‌ । चैनतेयं समारुह्य चागतः सदयः | 
पीतबस्त्रं चतुर्चाई शङ्कचक्रगदाधरम्‌ । | 
दृष्ट्या त जगतामीशं पुण्डरीकनिभेक्षणम्‌ ॥ १५॥ 
बिष्णु भबोदधेःपोतं वनमालाविभूषितम्‌ । श्रीवत्सकौस्तुभोरस्कमान 
तष्ट्युजेयशब्देन नमश्चकरुनिरन्तरम्‌ ॥ १ 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


नधमो5ध्यायः ] | कै समुद्रमंथनकथावर्णनम्‌ # 527 “0 


0 भ्रोमगचाबुचाच । 2 
बरंवृणीध्वं भौदेचाः कस्मायूयं समागताः । वरदोऽस्मि तद्वदतवोद्दामि च नान्यथा 
देवा ऊचुः। . , ` 


कृपालो त्रह्मश;पेन सम्पद्धीनं जगत्त्रयम्‌ । श्वुत्पिपासादितं नाथ! स देचासुरमानुषम्‌ । 
रक्ष सर्चानिमाँछोकान्याताः स्म शरणं तच ॥ १८॥ 
श्रीभगचानुचाच ।, 

इन्द्रा ब्रह्मशापेन चान्तर्द्वानं गतासुराः | यस्याः कराक्षमात्रेण जगदैश्वर्यसंयुत्तम्‌ ॥ 
तदा यूयं सुराः सर्वे चोत्पाख्चस्वर्णपर्वतम्‌ । मन्द्रं घर्धरक्ृत्वा सर्पराजेन वेष्टितम्‌ ॥ 

कुरुष्च मथनं देवाः सदेत्या: क्षीरवारिघे: | 

तस्साडुत्पत्स्यते लक्ष्मीजंगन्माता च भोः सुराः ॥ २१ ॥ 
तया हणा महाभागा भविष्यति न संशयः । धारयाम्यहमेवाद्रि कूर्मरूपेण सर्वतः | 
र F भगवान्विणुरन्तर्दानं जगामसः। जग्मुः सरासुरासर्व समुद द्विजपुङ्गव ! ॥ 
इति श्रीपाझे महापुराणे चतुर्थ त्रहाखण्डे समुद्रमथनोद्योगो नामाएमोऽध्यायः ॥८॥ 


नवमोऽध्यायः 


सञुद्रमथनकथावर्णनम्‌ 

सूत उचाच। | 
| ततो ऽमरगणास्ते च सगन्धर्घाः सदानवा: । उत्पाञ्चमन्द्रंशेल चिक्षिपुः पयसांनिधौ 
| ततः सनातनः श्रीमान्द्या लुजंगदीश्वरः । अघारयदुगिरेमूल कूमेरूपेण पृष्ठतः ॥ २॥ 
| अनन्तं तत्र संवेष्ट्य ममन्थुढुग्घसागरम्‌ । एकादश्यां मथ्यमाने चोदुभूतं प्रथमं द्विज ! 
_कालकूटघिषं ते तु दृष्ट्वा सर्वे प्रढुढुवु: 1 ततस्तान्विद्ुतान्दृष्वा शङ्करक्चोक्तवानिदम्‌ । 
 मोभोञ्मरगणा यूयं विघं कुरुत मे करे। घारयिष्याम्यहं तूणं कालकूटं महापिषम्‌ ॥ 


2 CC-0 mukshu क Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


२२२ क पा्मपुराणम्‌ # [४ 
इत्युक्त्वा पार्वतीनाथो ध्यायन्नारायणं हृदि । महामन्त्रे समुचाय दि 
` महमन्त्रप्रभावेण विषं जीणंमभून्महत्‌ | अच्युतानन्तगो घिन्द्‌ इतिनामत्रय हे 
यो जपेत्प्रयतो भक्त्या प्रणवाद्यं नमो5न्तिकम्‌ । | 
“ विषभोगाश्निजं तस्य नास्ति स्ृत्योभेयं तथा ॥ ८॥ - 
प्रह्मण्मनसो देवा ममन्थुः क्षीरसागरम्‌ । ततो5लक्ष्मी समुत्पन्ना कार 
रक्षपिङ्गलकेशा च जरतीं बिश्रती तबुम्‌। सा च ज्येष्ठा5त्रवीददेवान्किकतंव्य मेह 
देवास्तथाऽत्र वंस्तां च देवीं ढुःखस्य भाजनम्‌ । येषां नणां गृहै देचि कलह 


सन्ध्यायां ये हि चाञ्चन्ति दुःखदा तिए तद्‌ गृहे । 
कपालकेशभस्मास्थितुषाङ्गाराणि यत्र तु ॥ १३॥ 
स्थानं ज्येछे ! तत्र तब भविष्यति न संशयः: । नड 
अकृत्वा पादयोधोंति ये चाश्नन्ति नराधमाः ॥ १४ ॥ ) 
दुगृहे खबंदा तिष्ठ दुःखदारिद्रयदा यिनी । घालुकालबर्णा झरेः कुवन्ति दन्तधावगा| 
तेषां गेहे सदा तिष्ठ दःखदा कलिना सह | छत्राकं श्रीफळ शिएं ये खादन्ति नरा 
रोहे तेषां तव स्थानं ज्येष्ठे कलुष दायिनि । तिळपिएमलावं ये गृञ्जनं पोतिकादम 
कल्म्तुक पलाण्डुं ये चाश्नन्ति पापबुद्धयः । तेषां ग्रहे तच स्थानं भविप्यति न सं 


$ 


गुरुदेवातिथीनां च यत्र पूजा न विद्यते । यत्र चेदध्वनिर्नास्ति तत्र तिष्ठ सदाऽशु| 


तत्र स्थाने सदातिष्ठ पापदारिद्र्यदायिनी । इत्यादिश्य झुराज्येष्टां सर्वे तां कलिः 1 
क्षीराष्धेर्मेथनं चक्रुः पुनस्ते सुसमाहिताः ॥ २२ ॥ | 
इति श्रीपाद्य महापुराणे चतुथे घ्रह्मखण्डे सूतशौनकसंवादे समुद्रमथनं ता 
नवमोऽध्यायः॥ ६ ॥ | 


(७-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


छ. 


फी 


दशमोऽध्यायः 
ऐरावतादीनायुत्पतिवर्णनम 
> _ सूत उचाच | 
ऐरावतस्ततो जले तथैवोच्चैःश्रचाहयः । धन्वन्तरिः पारिजातःसुरभीश्चाप्सरोगणः ॥१ . 
हितप्रभातसमये _द्वादश्यासेंदिते रघौ । उत्पन्ना श्रोमेहालक्ष्मी:सवंडक्षणशोभिता ॥२ 
/दृशुस्तां महादेवीं मातर धर्मेदेषताः। प्रहृष्टाःसवंजन्तूनां श्रीकृष्णह्ददयालयाम्‌ ॥३॥ 
। खक्ष्मीभ्राता शीतरश्मिर्जाततश्च सुधया तत: । 
उत्पन्ना खा हरेर्जाया तुलली छोकपाचनी ॥ ४ ॥ 


द्‌ ` देवा ऊ्चुः। 
प्रसीद कमळेरेचि सच॑मातहरिग्रिये। त्वया चिना जगच्छून्यं कुरु्राणप्ररक्षणम्‌ ॥5॥ 
ह्युक्ता सा महालक्ष्मी: माह नारायणप्रिया । इदानीं सवेजन्वूनां प्राणरक्षां करोम्यहम्‌ 
नारायणश्चीमाञ्छङ्ःचक्कगदाधरः । आविवेभूच सहसा दयालुजेंगदीश्चरः॥ ६ ॥ 
तस्ते लुघ्रुबुईचाः प्रणश्य जगतांपतिम्‌ । कृताञ्जलिपुराःप्रोचुहेषंगद्गद्भाषिणः ॥ १०॥ 
हाण मातरं चिष्णो ! महिषी घल्लभां तच | संसाररक्षणार्थाय लक्ष्मीमनपगामिनीम्‌ 
यावत्प्रतिज्ञां नो चक्रे ठावत्प्ाहेन्द्रा हरिम्‌ ॥'१२ | र 
| छक्षमीरुवाच। : ` 

| ग्येवाह्य कथं ज्येष्ठामलक्ष्मी मधुसूदन | तस्याः कनिष्ठां मां नाथव्युदूढां कतुमिच्छसि 
। ज्येष्ठायां च स्थितायां बै कनिष्टा परिणीयते॥ १२॥ 

| सूत उचाच | ९ 

श्रुत्वा ततो विष्णु देदौ चोद्दाटकाय च । वेदवाक्याबरुपेण हालक्ष्मी निजरेःसह 


ic CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Clection. Digitized by eGangotri 


रके... # पाहपुराणम्‌ ( 

ततो नारायणःश्रीमाल्लेक्ष्मीमज्ठीचकारह 1 ततःसुरगणाः सर्वे नमश्च | | । 

अथ ते चा सुरान्सर्वाअष्लुःसर्वे बलाधिकाः । सर्वे ते कन्द्मानाश्च गताश्च द क | 
सुधां तत्खादितुं चतरुर्देवाःपङ्क्ति यथाक्रमम्‌ । 
श्रीचिष्णोराज्ञया सर्वे चोचुश्चैव परस्परम्‌ ॥ १६॥ ` = 
त्वं च देहि त्वं च देहि त्वं च देहीति चान्नु घन्‌। `“ 

न शक्तोऽस्मि न शक्तोऽस्मि न शक्तोऽस्मीति चात्र घन्‌ ॥ १७॥ | 
ततो विष्णुःसमुत्तस्थौ ख्रीरूपं च दधार ह। चकार खर्णपात्रेण पीयूपपरिप्या । 
पीयूषभक्षर्ण राह्रुर्याचत्कुयादुद्विजोत्तम! । चन्द्रसूर्यो जोक्तवन्तौ राक्षसीऽसौ इक, 
ततःक्रद्धो जगन्नाथो जघान स्वर्णपात्रतः। शिरस्तस्य पपातोर्व्या केतु्नासा का 
राहुकेतू ततस्तूर्ण' गतौ तौ भयविह्ृणो । इदानीं तहिलेभाप्ते चन्द्रसूयौं सुरा; 
कुर्यादग्रासं से हिकेयस्ततक्षणं दुळमं भवेत्‌। सवं गङ्गासमं तोयं वेदव्यासस्ाङगौ 
स्नाति घायसतीर्थ यो गङ्गासूःनफळळमेत्‌ । दानमक्षयणुण्यंस्यातको रिजन 
पापं नश्येत्समूळं च कि पुनःक्रतुकोटिभिः। विद्यार्थी लभते चिद्यं पुत्राथीपुत्राफु 

मोक्षाथो रमते मोक्षं मन्त्रसिद्विरभेवेद्‌ वस्‌ । 

इति ते कथितं विप्र समुद्रमथनं तु तत्‌ ॥ २५॥ 

इति श्रीपाद महापुराणे चतुर्थे व्रहाखण्डे सूतशौनकसंलादे समुद्रमथनं ता 
दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ F 


os 


एकादशो ऽष्यायः 
शुस्वारत्र॒तमाहात्म्यवर्णनम्‌ 


_ शौनक उचाच | हँ. 
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व यथार्थतः। हरिस्घरूपिणा साक्षाद्वेदव्यासेग ४ | 


गर हे सूत! ठोकानुग्रहकारक | केन स्या भगानारी पापिनी च स | 


(८-0. Mumukshu 8॥30/ ranasi Collection. त्स 


[७ ] 
) २५ :) कष्ठोष्ट ` _ कण्ठौष्ठ 
२ पश्शिकरो . पड्शिघरो 
५ सर्चाङ्गा - ४ सर्चाङ्चा 
| § कण्ठेकतानेत्र `: ` कण्ठेकतालेन . ` 
१८ रुपशचायोश््व स्पर्शवायोश्च .. 
ह २ ` माहिनी मोहिनी 
2 ८० स्रष्ट ` i स्र्ष्टं 
* ७ ब्रह्मावाच . . णो 
२४ कुर्मा ` कुमो 
२५ गुरा . युरो 
२ कार्विर्या ` कीर्तिर्या 
२५ > घाह्रो ` बाह्य. £ 
२३ `  कण्डोष्ठ | कण्ठौ्ठ ` :;. 
६ श्रीकृष्ण ` श्रीकृष्ण 
८ पूर्णा पूणों 
१२ जसा तेजसा £ 
१६ प्रतिषिम्बश्ध प्रतिबिस्बश्च 
१४ अताच ` अतीव वः 
१७ टाचने ` लोचने 2 
२३ चक्षेषि * , चक्षूंषि 222: 
१६ . __ स्तोत्रेश्च .. स्तोत्र ` 
७ -.. तत्सप्रत् अहत्यसक्र ` ` 
२ ` अुङ्क्त * भुङ्के 
$ . सङ्कतः - सङ्गतः 


CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi C@lection. Digitized by eGangotri 


1८] 


र “साकार 
३३ . . ४, षाच्छितम्‌ 
2 तञ्चालयिन्तु 
५४". ` 'जगाह 
२१ 53; विभति ॒ 
४ _ पुलकाञ्चिति . 
११ र महाचिष्णं ५: 
८. . प्रचिशामा: 
२१ घूर्णन्‌ 
श्र अहा 
२३ नारायण ' नारायणे | 
बह 7017. सद तददद (यं देघमित्यपिप॥, 
र ५ चुद्धा ट्‌ १ वृद्धा (३ 
१२ ` नत्य 4 १ 
२१ भिक्षकम्‌ मिश्चुकम्‌ 
६ सुरांस्तस्था 
४ मद्दाकं मद्वाक्यं 
देवेश देवेशं 
" १६" स्वरूपिणा : स्वरुपिणौ 
TG साचणि साषणि 
६ २० ११ 
१६ ' सर्वेषां ::. सवषां 
we . सर्वज्ञ : सर्व | 
`; २० `... बिवजितै .. विषर्णति || 


(७-०. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


२१ 


क 


[° ] 
0) त्यागान्तर त्यागानन्तरं .- 

बप्रामं बग्नाम् ५ EO 
चं ह 
वहि वहि 
केलासञ्च कैलासञ्च - 

७ कू क्यु 5 

निमग्न'नेन्द्‌ऽऽसागरे निमग्ा55नन्दसागरै 
इत्युत्वा इत्युक्त्वा 
पुष्व पुष्प ल 
` से सवं 
सामदाय समादाय 
चन्रनाशुरू चन्द्नाशुरु 
क्रीडा | क्रीडां 

द्व्वि द्व्यि ु 
मदुपत्यानत्व मदुभत्यानाञ्च ` 
र्मे लेमे 
शुष्ककण्ठो शुष्ककण्ठो 
कतिचितां कतिचित्रं 
शुष्ककण्ठो _ शुष्ककण्ठौ | 
षरं परे 

' _ ज्ञेगद्वोरि जगद्वोरिे : ` 

प्रेमणा प्रेस्णा द 
जगाम्‌ जगाम . : 


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«१ 


[ १० ] 


२२ - _ (षड 
२३, '::0: पलट 
२१ पुत्रतस्त; 
२” „ ब्रह्मणशापेन 
१७ वंभूच 2 
निष्ठरं 
दव चन्द्र ह 
१८ विवजितम्‌ ली 
२१ दृष्टा 
४ दु्लमम्‌ 
घरर्वाणनी 
१७ ग्रृहिष्यस्ति 
र १० गजखञ्चन- 
२३ त्वक्ष्यामि 
१५ प्रकारेण 
१८ धर्मा 
३ जरांमू न. 
§ सत्रा . 
२१, तालुका 
है त जानका 
20८ करिष्यमि 
00 १७ ” थययौ 
म १६ शीघ्र 
5 र "रूप र मह्य भूषायां 


८020 kt Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


[ ११ ] 
7) SR ) 2 सोऽक्ररो सोऽक्ररो 
$ । *"समाहते समाइ १ 
॥ द्श्त्याम्यद्य . द्रक्ष्याम्यद्य 
१ बि घमिर्णासवेकमिणाम्‌ धर्मिणां सर्वकर्मिणप्म्‌ 
१२ * शुष्ककण्ठो शुष्ककण्ठी . 
य्य केचिइवाः केचिद्देचा: 
SN मूति मूति 
१० रमणश्रष्ठ रमणश्रेष्ठ 
७ _ शुचिस्मता शुचिस्मिता 
१८ मेनीन्द्े ्मनीन्द्रैः 
१० कुत्वा . 2 त्वा 
१५ ५ ताखा ` तासां 
१७ गोपीमिः गोपीसिः | 
39 बोधया] बोघयामासु 
२३ मातृसमापतः मातसमीपतः 
७ विघज्ञितः विचजितः 
१२ सिद्धान्न सिद्धान्नं 
१७ भात. > भ्रातृ 2 
» विप्रम्‌ ” विग्रहम्‌ . 
२० नित्यविहः नित्यविग्रहः 
२२ क्पञ्च ¬ ` रुूपञ्च 
» वेशञ्च वेशश्च { 
१६ सद्दाकूरगणे सहाक्र्रगणेः 


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>)... 


डे 4 रज्ञलङ्कार रलाळर 
२० . ° अणस्य प्रणस्य ' 
ण प्रसस्ता प्रशस्ता 
१८ ` . गच्छतं गच्छन्तं . | 
१५ या य़ो 
१४ ` मखन्चितः समन्वित 
खुशासितं , शोभित 
द चतुर्भुजा ~ चत 
. २२ कपिला 
२० ` शस्त्राणां 
४ काननेछु 
ह मत्कारण 
वेष्णचाणां 
२५ लमेच्छु चम्‌ 
8 खञ्चनाञ्च 
; पूणिमा 
१५  . द्ष्ट्वा 
१७: NS क्षयोध्या 
१६ प्रयोगे 
FR दोळ्यामाने 
२ परमात्मन 
& क प्तत्त 
१३ सुस्वप्द्शने 
१६ '. _ब्रह्मवैवत्त 


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 [ १४ ] 


| 


धर्माऽयं-.: | 


व्याधियुश्च 


ग्र्टीचा . 


_ निर्गेणश्च 


जेतुमाश्वरः 
खतुयंगानां 
फणिकानां 
लोले ८ 
न्न्ह्म 
माप्सितम्‌ 
छुमान्य 
चक्षयों - 
नारारायण 
सळ 
गरुः : 
माघघा .: 
जस्छुत्यु - 
मसषरूक + 
पूणिमा . : 
द्शस्येकाशी 
नमाणं : 
नुणा . 


चगुर्यगम्‌ : 


ET 
) र { 0 कीड़ा कीड़ा 
ड १ कु 
शु € 
चामिभूता चाचिभूता 
र उशाच, 0 उघाच 
° १८ षदम्‌ पदम ७ 
८ १६ ससिदश्च प्रसिद्धश्च 
NERS चणकादिनां सणकादीनां 
1 मुय मुय 
१० ग्रीष्मध्याह्न प्रीष्ममध्याइ 
` सिकोटिभिः ल्रिकोटिभि 
२० याष्य न्ति.: यास्यन्ति. „¬ 
२१ प्रविशदु- - 2 _ ओविशद 
१५ न्न्यकार री ताका 
२३ गुणा ' गुणा 
२५ सत ०5४: सती | 
०२३ योगिनाम योगिनाम्‌ | 
२५ नपः अ न्रपः | 
४? खस्याद्यां शस्याढ्यां . | 


११ भिक्षणः ` भिक्षणा.; | 
ब्र - ' श्वेतक्षत्रे ._ श्‍वेतच्छत्र | 
cis माणीक्य ` माणिक ह 
२४ गृद्दीतु जी धा अद्दीतु | 


कु व 5 री 
** “3. CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 


[ १६] 
१०६१ पंप वत: 'मिक्षुकेस्यो शुषे 
१७१७ शुर, ` `. ` यमरिमणी° ` ` (रकी 
59) ११ सम्सितास्‌ स्मिता 
१०९८ २५ टिम) समप्यंच | 
११०० १८ खिद्धघात्मकञ्च "सिद्पातरूद | 
११०४ २ . , चद्न्ता ' घदली | 
११०६ १९७: सारह्य मार | 
१११३ ` 8 यशू तस्य राजघ भूष स 
१११४ १० जुष्पतत - पुष्पित | 
१११५ २३  खुशाला सुशीला | 
१११७ २० गुहामि रमि | 
47 . २३ र्द्ता रुद्तीन, / 
१११६, १४. चन्दने ने 
११२०१० ns ८ डुःस्च दुख | 
११२२ १३ कल्या कन्या | 
११२४ १६ बचनं घचनं । 
११९५ ` २ सुढ्घत्‌ - मूइषत्‌ | 
१२२६ १६ __ भल्लकात्मजा | 
११२६ - २१ ` गचालम्बं गवाळ्म ` 
११३० कक चन्देण चन्द्रे | 
११३३ 9:३९ सर्घापायेश्च सरवोपाय। 
१ «१५ 2 कातिकादपि कातिषाए | 
"४. ११३५ ८ १३ चैष्णलां धैष्णवा | 
क्र sR वैण्णच 


सुत्तमम 


` र्थातूण 
से ळू 


५ सी 3190 Varanasi 00७60101. Digitized by नऱ्याधूग 


~ 


[3१८ ] 


#१७३ ७ छुपिलिस निशि 
११७३ शक के 2 न्रेलोक्ये ओलोश्ये ` 
११७७ र परिपूर्ण : "परिपूर्ण - १: 
११७८ आ वि हुरी „ हाः 
' ११८७ . ७ ; कातिकोद्धरणं का्तिकोद्रण 
११३१ ` १८ चतुविशति तुंवशति 
११६२ (५... नारायण ` > नारायणं ० | 
Be 7२०: महापुण्यती  * महाणुश्यवती 
समाप्तमिदं थ्रीब्रह्मवैषत्तमहापुराणस्थ श्रोकृष्णजन्मखण्डस्य शुद्धिपत्रम्‌। | 
ॐ तत्सद्‌ ब्रह्माणेणमस्तु 


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५ ८ | 
Fs ४ ॥ 
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$ CC-0. Mumukshu Bhawan Vararfasi Collection ‘Digitized by eGangetjy ढँ ge